सविता सिंह समकालीन हिंदी कविता में एक समादृत नाम हैं। स्कूल ऑफ जेंडर एंड डेवलेपमेंट स्ट्डीज, इग्नू में स्त्रीवादी चिंतन एवं विमर्श की प्रोफ़ेसर होने के साथ आप हिंदी और अंग्रेजी में समान रूप से लेखन- कार्य करती हैं। कविता, आलोचना और अनुवाद – कार्य में विख्यात सविता सिंह कई शीर्षस्थ पुरस्कारों से पुरस्कृत – सम्मानित हैं। यहां हम सविता सिंह की कुछ कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं जो स्त्री – पीड़ा का महाख्यान हैं। अपने शैल्पिक रचाव में ये कविताएं हिंदी काव्य -परम्परा को आत्मसात् किए हुए शमशेर के समानांतर चलते स्त्री विमर्श की नई इबारत रचती हैं जिसमें आधुनिकता – बोध के नए दरवाज़े खुलते हैं। इन कविताओं में हरफ़ दर हरफ़ स्त्री – पीड़ा का समंदर है जो परेशान करता है। बहरहाल कविताएं पढ़ें।
– हरि भटनागर
कविताएँ :
1. मैं किसकी औरत हूँ
मैं किसकी औरत हूँ
कौन है मेरा परमेश्वर
किसके पांव दबाती हूं
किसका दिया खाती हूं
किसकी मार सहती हूं…
ऐसे ही थे सवाल उसके जो बैठी थी
सामने वाली सीट पर रेलगाड़ी में
मेरे साथ सफर करती
उम्र होगी कोई सत्तर पचहत्तर साल
आँखें धंस गईं थीं उसकी
मांस शरीर से झूल रहा था
चेहरे पर थे दुख के पठार
थीं अनेक फटकारों की खाईयां
सोचकर बहुत मैंने कहा उससे
मैं किसी की औरत नहीं
अपनी औरत हूं
अपना खाती हूं
जब जी चाहता है तब खाती हूं
मैं किसी की मार नहीं सहती
और मेरा परमेश्वर कोई नहीं
उसकी आंखों में भर आई
एक असहज ख़ामोशी
आह! कैसे कटेगा इस औरत का जीवन
संशय में पड़ गई वह
समझते हुए सभी कुछ मैंने उसकी आंखों को अपने अकेलेपन के गर्व से भरना चाहा
फिर हँस कर कहा – मेरा जीवन तुम्हारा ही जीवन है
मेरी यात्रा तुम्हारी ही यात्रा
मगर कुछ घटित हुआ है इस बीच जिसे तुम नहीं
जानती –
सब जानते हैं अब कि कोई किसी का नहीं होता
सब अपने होते हैं, अपने आप में लत-पथ
अपने होने के हक़ से लक दक
यात्रा लेकिन यहीं समाप्त नहीं हुई है
अभी पार करनी हैं और भी खाईयां फटकारों की
दुख के एक दो और समुद्र
पठार यातनाओं के अभी और दो चार
जब आख़िर में आयेगी वह औरत
जिसे देख कर तुम और भी विस्मित होओगी
भयभीत भी शायद
रोओगी उसके जीवन के लिए फिर हो सशंकित
कैसे कटेगा इस औरत का जीवन
कहोगी तुम
लेकिन वह हँसेगी मेरी ही तरह
फिर कहेगी –
उन्मुक्त हूँ देखो,
और यह आसमान
समुद्र यह और इसकी लहरें
हवा यह
और इसमें बसी प्रकृति की गंध
सब मेरी है
और हूँ मैं अपने पूर्वजों के शाप
और अभिलाषाओं से दूर
पूर्णतया अपनी।
2. दर्पण सी हँसी
एक हँसी दर्पण सी अपने होठों पर
रख ली थी उसने
जिसमें देवताओं ने देखे अपने मुख
जिसमें कितने ही तारे उतरे देखने अपने अंधेरे
एक फूल जिसमें अपना दर्द उड़ेल गया
एक औरत जिसमें छोड़ गई अपनी नग्नता
उस हँसी पर बाद में देर तक चांदनी बरसी
हवा घंटों उसे पूछती रही
बारिश ने धोने की अनेक कोशिशें कीं
लेकिन वह सभी कुछ जो उसमें संग्रहित हुआ
ज्यों का त्यों संचित रहा
देवता अपनी कुरूपता पर फिर कभी
दुखी नहीं हुए
तारे नहीं हुए विचलित अपने सत्य से बाद में कभी
फूल मुरझाया नहीं अपनी पीड़ा से उसके बाद
एक औरत लज्जित नहीं हुई अपनी देह से फिर ।
3. स्वप्न के फूल
वह इन दिनों जाती है जिधर कुछ गुनती हुई
जिधर का रुख़ वह करती है
उन बिस्तरों में ख़ालीपन के सिवाय कुछ भी नहीं
सच्ची वासना पथराई हुई वहां
जगा नहीं सकती देह के सौंदर्य को जो
कमरे के किनारे की गोल मेज़ पर
सजे प्लास्टिक के फूलों की तरह
वह यथार्थ है जिसे वह कुछ और समझ बैठी है
कोई भरमाए हुए है उसको
जबकि गर वह जाए अपनी प्रिय कविताओं की तरफ़
वे दिखा सकती हैं किस तरह चीज़ें रहती हैं अपनी उदास कृत्रिमताओं में
कैसे एक ठंडे बध की तरह संभोग है वहां
दिख जाएगा हमारी लिप्साओं से कैसे जन्म लेती हैं पुरुषार्थ की शक्तियां
महत्त्वाकांक्षाएं किस तरह वेश्याएं बनाती हैं
हमें जो ऊष्मा चाहिए
जो ताप चाहिए हमें
वह मिलेगी हमें अपनी भाषा में ही
सदियों से जिसे बोलते आए हैं हम समझते भी
खोजें अपनी वासना के सच्चे आनंदलोक को
कविता काफ़ी है वहां ले जाने के लिए अभी
जीवन के हैं कितने ही दूसरे स्वप्न लोक अब
रात के रंग में लिपटे हुए नीले नीले फूल
चांदनी रात में खेत लैवेंडर के ज्यों
और लो ! यह चली स्वर्ग से कैसी ठंडी हवा
हिलने लगे हैं कितने फूल स्वप्न के देखो।
4. रात नींद सपने और स्त्री
नींद में ही छिपा है
स्त्री होने का स्पर्श
जिसे महसूस करती है रात
और जो छाई रहती है इस पृथ्वी पर
वह इसी स्पर्श की छाया है
जिसके नीचे नींबू के फूल खिलते हैं
चंपा की कलियां जन्म लेती हैं
नींद में है कहीं सौंदर्य
जिससे जुड़ी है स्त्री
पनपाती मृत्यु
ग्रस्ती हिंसक पुरुषार्थ को
गिराती साहसी और बलवान को
राज्य करती एकाग्र भाव से फिर सब पर
रात में नींद है स्त्री दिन में सौंदर्य
नींद में जागती है रात
इस रात में देखती है वह
आदिम अनुभूतियों पर थिरकते
अपने होने के कामुक स्वप्न।
5. अपनी यातना में
वह सो चुक थी कई नींदें
कई दिन और रातें बीत चुकी थीं
कई जिंदगियां बन और बिगड़ चुकी थीं इस बीच
लेकिन एक सपना था जो अब भी झिलमिला रहा था
जिसकी झालर को पकड़ वह उठी थी
और उन फूलों को ढूंढने लगी थी
जिन्हें सीने से लगा वह सोने गई थी
जागने पर यह संसार उसे अब भी जाना पहचाना ही लगा था
फूल भले अनुपस्थित थे
लेकिन उसके प्रेमी वहां खड़े थे बांहें फैलाए
हर हाल में प्रेम बचा रहता है
उसने सोचा था
फिर आह्लादित हो उसने कहा था
आसमान को छत और धरती को बिस्तर बना समुद्र की तरह
कोई गीत गाना चाहिए
तभी उसका एक प्रेमी उसे बालों से पकड़
खींचता हुआ ले गया नींद और सपनों से बाहर
समेटे हुए अपने सीने में चुराए उसके सारे फूल
जहां सबकुछ नया था अपनी यातना में।
6. प्रेम के बारे में
सिल्विया प्लाथ आओ
मेरी आत्मा में बसो
निश्चिंतता महसूस करो
यहां अकेलापन कोई यातना नहीं
जो ले जाए तुम्हें गैस स्टोव तक
नहीं ही प्रेम के बदले नहीं मिला प्रेम कोई महादुख
यहां जीवन की हल्की रोशनी में
फूलों की तरह खिली हुई
मिलेंगी जीवन जीने की अमूल्य सलाहें अब
एक फूल जिसमें से तुम्हें भी जीवित करेगा अपनी अद्भुत सुगंध से
आओ, सिल्विया प्लाथ
मुझमें बसो
निश्चिंतता महसूस करो
यहां दूर दूर तक कोई पुरुष तुम्हें
इतना बेबस नहीं कर सकेगा अपनी क्रूरता से कि तुम नष्ट हो जाओ
अपने प्रेम से नहीं मार सकेगा वह तुम्हें दोबारा
आओ और अपनी बाक़ी कविताएं लिखो
बताओ वह कैसी उदासी थी जिसे तुम झेल नहीं पाईं
डूब गई जिसमें अंततः
और यह भी अंत में लगाते हुए आखिरी गोता क्या सोचा था तुमने
प्रेम के बारे में।
7. मुझे वह स्त्री पसंद नहीं
मुझे वह स्त्री पसंद नहीं
जिसकी जीभ लटपटती है
पुरुषों से बात करने में
जिसका कलेजा कांपता हैं उनकी मार के डर से
जो झुक कर उठती है उनके जूते उन्हें समर्थ समझ कर
जो सोती है उनके साथ किसी फ़ायदे के लिए
मुझे वह स्त्री पसंद है जो कहती है अपनी बात
साफ़-साफ़ बेझिझक जितना कहना है बस उतना
निर्भीक जो करती है अपने काम
नहीं डरती सोचती हुई आत्मनिर्भरता पर अपने
हटाती नहीं जो वे आख़िरी पर्दे
जिन्हें आत्मा बचाए रखना चाहती है देह के लिए
मुझे वह स्त्री पसंद है
समझती हुई सारे घात प्रतिघात जो
खतरे सारे जीवन के
खुद से प्रेम करती है
और संसार के हर प्राणी से सहानुभूति रखती हैं।
8. सुंदर उदिता
गहरी काली रात सोई है उदिता जैसी
खोले अपने कपड़े अपने बाल बिस्तर में अकेली
मन में है न उसके कोई उलझन
कोई विषाद या फिर चाह
सो चुकी है रात एक पूरी नींद
खोल चुकी है आंख
बाहर सुंदर लाल गोला सूरज का निकल चुका है
बांहों को हवा में ऊपर उठा
लेती हुई सुखद एक अंगड़ाई
बदन को करती हुई सीधा
अपने कपड़े पहन रही है उदिता
सामने नीला आकाश बना है देखो
कितना बड़ा दर्पण देखने के लिए उसके
अपना यह सौंदर्य।
9. मनोकामनाओं जैसी स्त्रियाँ
ख़याल है इस बात का
कि अब और आगे बढ़ी तो खाई है
हटी पीछे तो है मूर्च्छा गिराने के लिए
ख़याल है कि जिस जगह टिके हैं पांव
वह भी खिसकने वाली हैं
उसमें भी एक अजीब ताप है
जो जला दे आत्मा को
जगह बदलने की बात हो तो
जगह से जगह बदल लूं
लेकिन यहां तो आसमान में ताकते बीते हैं बरस
देखते हुए अंधकार और प्रकाश के खेल
मेलजोल उनके
और अब तो एक आदत सी पड़ गई है
सितारों की रची रचाई दुनिया को देखने की
चाहने की वह सीढ़ी जिससे पहुंचूं उन तक
बसने उन्हीं के बीच
मैं पहचानती हूं आख़िर उनका वह झुरमुट
जिसमें मैंने भी चुना है एक कोना
जहां जाकर ठहरती है पृथ्वी से लौटी उन्मुक्त हवाएं
ऋतुएं जहां जाकर सोचती हैं अपना होना
ख़याल है कि पहुंचूं वहां
जहां पहले से ही एकत्र हैं
ढेर सारी मनोकामनाओं जैसी
सुंदर और ख़ुश स्त्रियां।
10. स्त्री सच है
चारों तरफ़ नींद है
प्यास है हर तरफ़
जागरण में भी उधर भी जिधर समुद्र लहरा रहा है
दूर तक देख सकते हैं
पथरीले मैदान हैं
प्राचीनतम सा लगता विश्व का एक हिस्सा
और एक औरत है लांघती हुई
प्यास।
सविता सिंह
जन्म फरवरी, 1962 को आरा, बिहार में। दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एम.ए., एम.फिल., पी-एच.डी.। मांट्रियाल (कनाडा) स्थित मैक्गिल विश्वविद्यालय में शोध व अध्यापन। सेंट स्टीफेन्स कॉलेज से अध्यापन आरम्भ करके डेढ़ दशक तक आपने दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाया। आप अमेरिका के इंटरनेशनल हर्बर्ट मारक्यूस सोसायटी के निदेशक मंडल की सदस्य एवं को-चेयर हैं।
‘अपने जैसा जीवन’ (2001), ‘नींद थी और रात थी’ (2005), ‘स्वप्न समय’ (2013), ‘खोई चीज़ों का शोक’ (2021), ‘वासना एक नदी का नाम है’ (2024), ‘प्रेम भी एक यातना है’ (2025)। प्रकाशित काव्य संग्रह। दो द्विभाषिक काव्य-संग्रह ‘रोविंग टुगेदर’ (अंग्रेज़ी-हिन्दी) तथा ‘ज़ स्वी ला मेजों दे जेत्वाल’ (फ्रेंच-हिन्दी) (2008)। ओड़िया में ‘जेयुर रास्ता मोरा निजारा’ शीर्षक से संकलन प्रकाशित। ‘प्रेम भी एक यातना है’ का ओड़िया अनुवाद प्रकाशित (2021)। अंग्रेज़ी में कवयित्रियों के अन्तर्राष्ट्रीय चयन ‘सेवेन लीव्स, वन ऑटम’ (2011) का सम्पादन जिसमें प्रतिनिधि कविताएँ शामिल। ल फाउंडेशन मेजों देस साइंसेज ल दे’होम, पेरिस की पोस्ट-डॉक्टरल फैलोशिप के तहत कृष्णा सोबती के ‘मित्रो मरजानी’ तथा ‘ऐ लड़की’ उपन्यासों पर काम प्रकाशित। राजनीतिक दर्शन के क्षेत्र में ‘रियलिटी एंड इट्स डेप्थ : ए कन्वर्सेशन बिटवीन सविता सिंह एंड रॉय भास्कर’ प्रकाशित। ‘पोएट्री एट संगम’ के अप्रैल 2021 अंक का अतिथि-सम्पादन।
कई विदेशी और भारतीय भाषाओं में कविताएँ अनूदित-प्रकाशित। कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में कविताएँ शामिल और उन पर शोध कार्य। हिन्दी अकादमी और रजा फाउंडेशन के अलावा ‘महादेवी वर्मा पुरस्कार’ (2016), ‘युनिस डि सूजा अवार्ड’ (2020) तथा ‘केदार सम्मान’ (2022) से सम्मानित।
सम्प्रति इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में प्रोफेसर, स्कूल ऑव ज़ेंडर एंड डेवलपमेंट स्टडीज़ की संस्थापक निदेशक।
ई-मेल : savita.singh6@gmail.com
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bahut dino se aaj tak kavitayon stri jivan ghula hua hai