संजय कुंदन एक दृष्टिसंपन्न कवि हैं। समय के विद्रूप को वे हँस – हँस के मज़े ले लेकर उधेड़ देते हैं। वे सचेत कवि हैं पैनी निगाह वाले। हर जगह कविता का स्पेस बना देते हैं। संजय कुंदन को पढ़ते हुए रघुवीर सहाय , श्रीकांत वर्मा , परसाई , अमरकांत , ज्ञानरंजन या ज्ञान चतुवेॅदी याद आएं तो खोट नहीं । एक कवि के जरिये अपनी जातीय साहित्य परम्परा कैसे विस्तार , नया बांकपन पा रही है, यह रेखांकित करने वाली बात है।
संख्या में यहां कम कविताएं हैं, लेकिन ध्यान आकृष्ट करने वाली – हरि भटनागर

कविताएं :

आरोप पत्र

मैंने कविता को ज़िंदगी से बड़ी मान लिया
इसलिए ज़िंदगी से हो गया बाहर

यह समझते-समझते देर लगी
कि मैं एक असफल पति हूं
असफल पिता हूं

एक दिन पता चलता है
मेरे परिवार ने तैयार कर रखा है
मेरे ख़िलाफ़ लंबा-चौड़ा आरोप पत्र

मुझ पर एक आरोप यह है
कि मैं कविता में औरों के सपने रचता रहा
पर अपनों को थोड़ा भी उजाला न दे सका
मैंने अपना सारा कसैलापन
और मन का उजाड़
उनके भीतर उतार दिया

मेरा ख़ून मुझसे कहता है
वह अपनी दुनिया में लड़खड़ा रहा है
मेरे ही कारण

यह सब सुनते हुए लगता है
मेरा कमरा धुएं से भरता जा रहा है
बिस्तर पर महसूस होता है
मैं बर्फ़ की सिल्लियों पर लेटा हूं
बालकनी में जाता हूं
तो जी करता है
मुझे छलांग लगा देनी चाहिए

मैं अपनी कविताओं का क्या करूं
क्या उन पर कालिख पोत दूं?

लेकिन मैं कविता लिखे बग़ैर रह नहीं सकता
मैं यह सब कविता में ही कह रहा हूं
और चिथड़े-चिथड़े हो रहा हूं।
……………….

मृत्यु

हर रात जब मैं सो रहा होता हूं
सड़क से गुज़र रहे होते ट्रक
लौट रहे होते बैंड वाले बारात निपटाकर
लौट रहे होते अख़बारनवीस अखबार का नगर संस्करण निकालकर
नर्सें हड़बड़ाई अस्पताल पहुंच रही होतीं नाइट ड्यूटी के लिए
कुछ चमगादड़ इधर से उधर लहरा रहे होते, कुत्ते भौंक रहे होते

आ-जा रही होतीं रेलगाड़ियां, रेलमपेल मची रहती स्टेशन पर
खौल रही होती चाय प्लैटफॉर्म पर
किसी गली में एक दुकान का शटर तोड़ा जा रहा होता
कुछ गुप्त बैठकें हो रही होतीं किसी पांचसितारा होटल में

एक दिन मैं और रातों की तरह सोऊंगा
फिर कभी नहीं उठूंगा
तब भी सब कुछ ऐसे ही होता रहेगा शहर में
बस किसी-किसी दिन
एक स्त्री को रसोई में अचानक याद आ जाएगा
हमारे साझा क्षणों का कोई प्रसंग
वह दौड़ी हुई आएगी कुछ बताने या कुछ पूछने हमारे कमरे में
जहां बिस्तर पर पसरी होगी मेरी अनुपस्थिति।

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घेरेबंदी

तुम लगातार उनकी घेरेबंदी में हो

एक दिन वे तुम्हें घेर लेते हैं अपने उत्सव में
एक हत्या का जश्न
तुम्हें हिलाकर रख देता है
वे झूठ को गुलाल की तरह उड़ाते हैं
शरबत की तरह पेश करते हैं अफ़वाहें

जब तुम उनकी नाचती-गाती भीड़ से निकलकर भागते हो
सूनी गलियों से होकर
बंद दफ़्तरों, सिनेमाघरों, बैंकों के पिछवाड़े से
बसों, ट्रकों की कतारों की सुरंग से होकर
रेलवे लाइन को पारकर
मंडी में प्याज के उड़ते छिलकों
के बीच से
तुम्हारे साथ-साथ चल रहा होता है एक पोस्टर
जिसमें घूरता रहता है उनका सरगना

तुम घर आते हो
लंबी सांस लेते हुए जूते उतारते हो
चेहरे पर पानी के छींटे मारते हो
तभी तुम्हारे ठीक बगल के घर से गूंज उठती है
एक हत्यारे की आरती
चिर-परिचित आवाज़ों में।

………..

वसा

एक दिन वसा को मेरे लिए ख़तरनाक बताया गया
डॉक्टर ने चेतावनी दी कि मैं उससे दूर रहूं
और तब पराठा, पूरी, कचौड़ी, समोसा,
आलू टिक्की और गुलाब जामुन के बग़ैर
मेरी दुनिया एकदम वीरान हो गई

वसा के बिना क्या हो जाता है मनुष्य
पत्रहीन नग्न गाछ
वसा ही तो भरती है शरीर में हरियाली
उसी से तो चेहरा खिलता है
वही इच्छाओं में बिजली बन दौड़ती

लेकिन जिस पर हो जाती ज़्यादा मेहरबान
उसका भी छिन जाता चैन
वसा की अतिवृष्टि से त्रस्त लोग
लगा रहे दौड़ अपना थुलथुल पेट लिए
कोई जिम में पसीना बहा रहा
कोई नींबू पानी पर दिन काट रहा
कोई मन्नत मांग रहा
हे प्रभु, थोड़ा दुबला कर दो
वसा ने रूपवानों का रूप किया बेकार
उसके आगे धनवानों का अकूत धन भी लाचार

अद्भुत है वसा की माया
एक ओर वसा का व्यापार
दूसरी ओर वसामुक्ति का कारोबार
वसा रे वसा
कौन नहीं तेरे जाल में फंसा।
……….

सोसाइटी की चाचियां

सोसाइटी की चाचियां कहती हैं
वे किसी मुसलमान को सोसाइटी में
फ्लैट ख़रीदने या किराये पर लेने नहीं देंगी
और अगर किसी तरह ऐसा हो भी गया
तो वे धरने पर बैठ जाएंगी

सोसाइटी की चाचियां कहती हैं
व्रत-उपवास में थोड़ी भी चूक उन्हें मंज़ूर नहीं
क्या मजाल कि उनके घर में कोई मंगल और गुरुवार को
चिकेन बनाने की बात कर दे

सोसाइटी की चाचियां कहती हैं
कामवालियों को कभी एक तारीख़ को पैसे नहीं देने चाहिए
हमेशा सात या आठ तारीख को देने चाहिए
और हमेशा उनके कुछ पैसे बाक़ी रखने चाहिए

वे कहती हैं, इस बार करवा चौथ पर उनके पति ने उन्हें नौलखा हार दिया
पिछले बार हीरे की अंगूठी दी थी
वे कहती हैं, उनका एक रिजॉर्ट बन रहा है जोधपुर में
और ग्रेटर नोएडा में एक प्लॉट पर बन रहा है मार्केट कॉम्प्लेक्स

वे बताती हैं उनके बेटे एकदम राम जैसे हैं
उनका खूब ख़याल रखने वाले
काश, उनकी बहुएं भी सीता जैसी होतीं

सोसाइटी की चाचियां नहीं बतातीं
कि उनके पति सुबह से रात तक लगे रहते हैं चैट करने में
और कई बार मोबाइल पर फ्लाइंग किस उछालते हैं
पूछने पर गुर्राकर कहते हैं, अपनी हद में रहो

वे नहीं बतातीं
कि उनके बेटे कभी किसी बात पर उखड़ जाते हैं
तो उन्हीं पर हाथ उठा देते हैं
और जब एक बार बेटी-दामाद अपने यहां आस्ट्रेलिया ले गए
और जिस तरह घर का सारा काम करवाया और काम के लिए उलाहने दिए
उससे यही लगा कि
उन्हें नौकरानी से ज़्यादा कुछ नहीं समझा जा रहा

सोसाइटी की चाचियां नहीं बतातीं
कि अकसर अपने ही घर का दरवाजा खटखटाते हुए
वे संशय में पड़ी रहती हैं कि
यह वाकई उन्हीं का घर है या नहीं

रात में देर तक नींद न आने पर
वे अपने पूर्वजन्म के बारे में सोचती हैं
और यह भी कि उस जन्म में उन्होंने कौन से पाप किए होंगे

सोसाइटी की चाचियां
नहीं बतातीं कि
वे जब बाथरूम जाती हैं
तो अंदर से दरवाजा नहीं लगातीं
कि कहीं उनको कुछ हो-हवा गया
तो कम से कम उनकी लाश आसानी से बाहर निकाली जा सके।

………..

बहनजी

यह संबोधन किसी महिला के लिए नहीं
पुरुष के लिए है

बचपन के दिनों में
मोहल्ले के एक भइया को
बहनजी कहकर पुकारा जाता था
उनका मज़ाक उड़ाने के लिए
उन्हें अपमानित करने के लिए

उनका गुनाह यह था कि
वे गृह कार्य में निपुण थे
झाड़ू-पोंछा में माहिर थे, बर्तन को अच्छे से चमकाकर
साफ़ करते थे, रोटी खूब गोल बेलते और
बढ़िया से फुलाते थे
साड़ी में फॉल लगा लेते थे
स्वेटर बुन लेते थे और बच्चों के मोजे भी
यह सब तब शुरू किया उन्होंने
जब उनकी पत्नी लंबे समय के लिए बीमार पड़ीं
पत्नी के स्वस्थ होने के बाद भी
उन्होंने यह सब जारी रखा

एक स्त्री को मान देने की सज़ा मिली उन्हें
अपने कोमल स्वभाव और प्रेम
के लिए बहिष्कृत हुए वे

हम बच्चों को उनसे घुलने-मिलने से रोका जाता था
यहां तक कि महिलाएं भी हमें टोकती थीं
सबको डर लगता था
कि कहीं हम स्त्री हृदय न हो जाएं
दुनिया को स्त्री की नज़र से न देखने लग जाएं।



संजय कुंदन

जन्म: 7 दिसंबर, 1969, पटना में।
पटना विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए।
संप्रति: वाम प्रकाशन, नई दिल्ली में संपादक।
प्रकाशित कृतियां:
कागज के प्रदेश में (कविता संग्रह), चुप्पी का शोर (कविता संग्रह), योजनाओं का शहर (कविता संग्रह), तनी हुई रस्सी पर (कविता संग्रह), बॉस की पार्टी (कहानी संग्रह), श्यामलाल का अकेलापन (कहानी संग्रह), टूटने के बाद (उपन्यास), तीन ताल (उपन्यास), नेहरूः द स्टेट्समैन( नाटक), ज़ीरो माइल पटना (संस्मरण)।
कुछ नुक्कड़ नाटकों का भी लेखन। कुछ नाटकों में अभिनय और निर्देशन।

पुरस्कार/सम्मान:
भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, हेमंत स्मृति सम्मान, विद्यापति पुरस्कार और
बनारसी प्रसाद भोजपुरी पुरस्कार।
अनुवाद कार्य: आवर हिस्ट्री, देयर हिस्ट्री, हूज हिस्ट्री (रोमिला थापर), एनिमल फार्म (जॉर्ज ऑरवेल), लेटर्स ऑन सेज़ां (रिल्के), पैशन इंडिया (जेवियर मोरो) और वॉशिंगटन बुलेट्स (विजय प्रशाद) का हिंदी में अनुवाद।
रचनाएं अंग्रेजी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, असमिया और नेपाली में अनूदित।

 

 


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