निरंजन श्रोत्रिय नौवे दशक के अग्रणी कवियों में हैं। निरंजन की वगीॅय दृष्टि स्पष्ट है और वे अथाह जल के तल में बैठे विरूप को सामने ला देते हैं जो हमारी चेतना को छिन्न- भिन्न कर रहा है। वे आज के ऐसे ‘बठ्ठर’ व्यक्ति को आशा की निगाह से देखते हैं जो संघर्ष के दौरान टूटता नहीं।
विष्णु खरे के शब्दों में कवि का बखान करें तो यह है : ‘राहत की बात है कि निरंजन हिन्दी के सौभाग्यवश उन कवियों में से हैं जिन्होंने एक कठिन समय में संघर्ष करके अपनी कविता अजिॅत की है और जिनका विकास अभी अवरुद्ध नहीं हुआ है क्योंकि वे चुक जाने की अधेड़ ,आत्मतुष्ट और पुरस्कृत हड़बड़ी में नहीं हैं। – हरि भटनागर
कविताएँ
1/ अंतर बताओ
जब भी खोलता हूँ बच्चों का पन्ना
अख़बार में
एक स्तम्भ पाता हूँ स्थायी भाव की तरह—
अंतर बताओ!
दो चित्र हैं हू-ब- हू
कि बच्चे पार्क में खेल रहे
या स्कूल में मचा रहे धमा-चौकड़ी
या सर्कस का कोई दृश्य
दस अंतर बताने हैं बच्चों को
क्यूँकि दिखते एक-से, मगर हैं नहीं
बच्चे जुट जाते हैं अंतर ढूँढने
जितने ज़्यादा अंतर
उतने अधिक बुद्धिमान!
उस समय जबकि समानता ढूँढना बेहद ज़रूरी है
बच्चे अंतर ढूँढना सीख खुश हो रहे हैं।
2/ कुछ आत्म स्वीकृतियाँ
जैसे कि मैं बॉटनी का एक प्रोफेसर हूँ।
जैसे कि मेरा काम बच्चों को वनस्पति शास्त्र पढ़ाना है…उससे ज़्यादा कुछ नहीं।
जैसे कि मैंने हमेशा उससे ज़्यादा करने की कोशिश की और परिणाम भुगते हैं।
जैसे कि मैंने जब बच्चों को यह पढ़ाया कि जेनेटिक रिकॉम्बिनेशन जैसे जटिल विषय को समझ लिया तो फिर अपनी कार/स्कूटर/घर के दरवाज़े पर नींबू-मिर्ची ना लटकाना।
जैसे कि यह अतिरिक्त पढ़ाने के बाद मेरे घर के कुछ शीशे तोड़ दिए गए आधी रात।
थानेदार बोला कि सर, आप शहर के एक इज़्ज़तदार व्यक्ति हैं, आपको नहीं सुहाता इन पचड़ों में पड़ना।
लेकिन पत्नी बोलती कि तुम ठीक कर रहे , बॉटनी तो कई लोग पढ़ा रहे लेकिन इस अतिरिक्त को मैं प्यार करती हूँ।
तो अंततः मैं क्या करूँ?
कुछ कर नहीं पाऊँगा इस अतिरिक्त के अतिरिक्त
प्यार में जो पड़ा हूँ।
3/मोह भंग
खूब पढ़ने के बाद
मैंने उच्च शिक्षा की नौकरी की
नौकरी क्या वो एक मिशन थी तब
धीरे-धीरे मोह भंग होता गया
स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली।
देश के लोकतंत्र पर अटूट भरोसा था
ता उम्र निर्वाचन का प्रशिक्षण दिया
हर एक वोट ज़रूरी समझाया।
फिर हुआ मोह भंग।
हँसी आती है अब मतदान केंद्र पर लगी कतार देख।
जीवन भी खूब जिया
लिया खूब तो दिया भी
लेकिन एक दिन देखा कि
देश के साथ मैं भी मर रहा हूँ
जीवन के प्रति यह मोह भंग देख
आप बेफ़िक्र न हों राजन!
मैं आत्म हत्या नहीं करने वाला
इन सारे मोह भंग की जड़ अब पता है।
वहीं पर अब डलेगी छाछ।
संभल कर रहना!
4/मुझे पसंद है
मुझे पसंद है
थकान और उदासी भरे दिन को चुकाकर
शाम को घर लौटना
मुझे पसंद है
घर लौटते हुए
गली के आखिरी छोर पर मौजूद
भाड़ पर खड़े रह कर
मक्का के दानों को गर्म तवे पर फूटते हुए देखना
देखना पीली मक्का को सफ़ेद और हल्का होते हुए
लेकिन मुझे और भी पसंद है
उन बठ्ठर दानों को देखना
जो फूटते नहीं
मुझे लगता है
तमाम जी-हुजूर शोर के बीच
‘नहीं’ कहने वाले
अभी बचे हुए हैं।
5/ वारंट
बादशाह को कविता से घृणा, संगीत से चिढ़ और चित्रों से एलर्जी थी।
मुल्क के सभी कवि, संगीतज्ञ और चित्रकार या तो मारे जा चुके थे
या थे कारावास में।
शब्दों, सुरों और रंगों से विहीन यह समय बहुत मुफ़ीद था बादशाहत के लिए
फिर एक दिन एक परदेसी आया उस देश
जैसा कि ऐसी कथाओं में आता ही है
उसने बादशाह को दिखाया गुलमोहर का सुर्ख़ पेड़ और ज़मीन पर गिरे कुछ फूल और कहा– यह एक प्रेम कविता है।
उसने सुनाई अमराई में कूकती कोयल की कूक और कहा– यह राग मल्हार है।
उसने दिखाया बारिश से धुले आसमान में उभर आया इंद्रधनुष और कहा–ये धरती के बादलों के प्रति आभार के रंग हैं।
बादशाह बेचैन हुआ
फिर मुल्क में जारी हुआ गुलमोहर, कोयल और इंद्रधनुष की गिरफ़्तारी का वारंट।
6/ लेडीज़ रुमाल
लेडीज़ रुमाल मर्दों के रुमाल से
छोटा होता है–लगभग आधा!
यह एक तथ्य है
यदि इसे एक प्रश्न की तरह पूछें तो !
क्या आधा होता है स्त्रियों का पसीना
या आँखों से झरने वाली वेदना ?
क्या आधी होती है परेशानियाँ औरतों की
या कि संघर्ष पुरुषों की बनिस्बत ?
क्या आधी होती है पकड़ औरत की हथेलियों की
जिसमें वह लेडीज़ रुमाल के साथ
इस दुनिया को भी भींच कर रखती हैं!
क्या इसीलिए छोटा होता है लेडीज़ रुमाल
ताकि रखकर उसे कहीं
घेरी जा सके अपनी जगह कथित औकात के मुताबिक?
अभी-अभी देखा मैंने कि
वही छोटा लेडीज़ रुमाल
फुसफुसा रहा है औरत के कान में
औरत ने भींच लिया है रुमाल अपनी मुट्ठी में
निचोड़ रही है रुमाल से
नीर भरी दुःख की बदली झरझर
अब वह औरत सुखाएगी रुमाल को
और फहराएगी उसे हवा में
पताका की तरह।
7/ संगीत ही भाषा होती हमारी
तबले, हारमोनियम, तानपुरे और संतूर की
एक ही भाषा होती है
एक ही भाषा होती है आलाप की
चाहे वह लिया जाए सत्ताधीशों की दिल्ली
या फिर झारखंड के किसी कस्बे में
ताक धिना धिन
ताक धिना धिन……।
थाप में नहीं है कोई प्रदेश, भाषा या सम्प्रदाय
एक स्वर मात्र जो उतरता है
एक अलौकिक भाषा बन कर
हर हृदय में भीतर तक
नाद…जो फटकने नहीं देता
किसी हिंसा को समीप
बस आनंद और प्रेम की नदी एक
डूब जाओ जितना सको।
काश! कि हमने नहीं सीखे होते अक्षर
सीखे होते केवल सुर
तब सरगम से भरी यह अनपढ़ दुनिया
कितनी खूबसूरत होती !
8/ परीक्षा
यही सिखाया गया था बचपन में
कि परीक्षा में प्रश्नों के उत्तर लिखने से पहले
प्रश्नपत्र ध्यान से पढ़ो, दो बार पढ़ो
उत्तर पुस्तिका में पूरा प्रश्न न लिखो
हाशिए पर लिखो प्रश्न क्रमांक केवल
पहले जवाब दो आसान सवालों के
फिर बचे समय में हल करो कठिन सवाल
हम जीवन भर यही करते रहे
दिए आसान सवालों के जवाब इतने विस्तार से
कि कठिन सवालों के लिए समय ही न बचा
आसान जवाबों से मिले हमें पासिंग मार्क्स
और एक कठिन जीवन
कठिन सवाल अभी भी सुलग रहे प्रश्नपत्र में
और उनके प्रश्न क्रमांक हाशिए पर
बगैर उत्तर के।
9/ गुरुत्व
इस बार सेब
पेड़ से गिरा तो
हवा में ही लटका रहा
न्यूटन भौंचक्का था!
तब उसने लिखा नया नियम
‘पृथ्वी पर मौजूद
आततायियों की लालच-दृष्टि
पृथ्वी के गुरुत्व को
कम कर देती है।’
10/ लड़की
एक लड़की विमला चौहान सोच रही
दूसरी लड़की लिली फर्नांडीज़ के बारे में
लिली चिंतित राधा शर्मा के बारे में
राधा जानती सलमा कुरेशी का दुःख
सलमा पहचानती मनजीत कौर की व्यथा।
शहर के इस छोर पर
यदि आप हिलाएंगे एक लड़की को नींद में
शहर के दूसरे छोर पर
चौंक जाएगी एक और लड़की।
11/ समानुपाती
एक दिन
दस लोगों के हादसे में मरने की ख़बर
हिला कर रख देती है
अगले दिन फिर से मरते हैं दस लोग
कांप जाते हैं हम ख़बर पढ़ कर
अगले दिन फिर से दस लोगों की मौत
बमुश्किल निकाल पाती है कोई हाय मुँह से
दस लोगों के मारे जाने की ख़बर
अब एक कॉलम है अख़बार का
पढ़ते हैं जिसे हम सहज भाव से
कई बार नहीं भी पढ़ते।
फिर एक दिन अचानक मारे जाते हैं सौ लोग
हादसे में
ख़बर पढ़ कर हम फिर दहल उठते हैं।
हमारा दहलना अब
मृतकों की संख्या के
सीधे समानुपाती है।
12/ तमगे
तमगे जब जेब पर टाँक दिए जाते हैं
तो नज़र नीचे करने पर ज़मीन नहीं तमगे ही दिखते हैं।
तमगे आपकी नज़र और आपकी ज़मीन के बीच
सबसे बड़े व्यवधान होते हैं।
13/ पहला प्यार
कहा जाता है
क्योंकि कहने का चलन है
कि जीवन का पहला प्यार
भुलाए नहीं भूलता
कभी भी वह मुँह उठा कर झाँक लेता है
एक सफ़ेद नर्म खरगोश की रक्तिम आँखों से
ज़िंदगी की रुई के ढेर से
फ़र्क नहीं कर पाते हम उस दुबके अनायास खरगोश
और रुई के इस ढेर में
लेकिन उसका झाँकना तय है
अनिश्चित अंतराल के बाद
पहला प्यार याने किसी नवजात शिशु के
दूधिया गुलाबी पैर
जैसे पहली बार फैली पुतलियाँ
इस दुनिया को देखने की पहली कोशिश
इस नपी-तुली दुनिया में
पहले प्यार की कोई शर्त नहीं होती
वह हो जाता है यूँ ही
कभी भी, किसी से भी, कहीं भी
एकदम बेवकूफियाना, अतार्किक और बेमेल
लेकिन फिर भी गुलाब अपना इकलौता रंग
सौंपता है उसी क्षण
आगामी इंद्रधनुष को
जहाँ स्पेक्ट्रम में उसका नाम भी नहीं होता
पहला प्यार याने
जब सावन के महीने में पवन के शुद्ध शोर को
बाबा ‘शोर’ नहीं ‘सोर’ कहने का दुराग्रह है
पहला प्यार याने सल्फास, रस्सी का फंदा
या किसी जलाशय की अतल गहराई है
जिससे बचते-बचाते किसी तरह
हम एक समझदार, सजग, ऋणी और व्यावहारिक दुनिया में
कदम रखते हैं
समझाइशों के बोझ से दबे
कि बचपन नादानियों का नाम है
और यथार्थ पाणिग्रहण के कथित शास्त्रोक्त
आमंत्रण में सम्मुख छपा नाम।
मेरे लिए पहला प्यार याने
सेवेंटीज़-एटीज़ की सुगंधित गुलाबी पर्चियों में फुदकता जीवन
जो राजेश खन्ना-मुमताज़-धर्मेंद्र-हेमा
और लता-रफ़ी-किशोर के जरिये
दुबका रहता था मन में
और अब आसान लेकिन लंगड़ी भाषा के एसएमएस
डाउनलोड और शेयर्स
लेकिन अंततः सब कुछ डिलीट ..डिलीट..डिलीट..
अपने भरे-पूरे परिवार के बीच
उस सुर्ख़ ग़ुलाब के बगैर
एक सम्मानजनक सफल जीवन जीते हुए
एक हलफ़नामा बेचैन है हलक के बाहर आने को
माई लॉर्ड, वह जो भी था
एक भूल-गलती नहीं था
एक जीवित बीज था भीतर समूचा वृक्ष लिए
जिसकी छाँह में फल-फूल रहा आज यह सब !
14/ पत्नी से अबोला
बात बहुत छोटी-सी बात से
हुई थी शुरू
इतनी छोटी कि अब याद तक नहीं
लेकिन बढ़कर हो गई तब्दील
अबोले में
संवादों की जलती-बुझती रोशनी हुई फ्यूज़
और घर का कोना-कोना
भर गया खामोश अंधकार से
जब भी होता है अबोला
हिलने लगती है गृहस्थी की नींव
बोलने लगती हैं घर की सभी चीजें
हर वाक्य लिपटा होता है तीसरी शब्द-शक्ति से
सन्नाटे को तोड़ती हैं चीजों को ज़ोर से पटकने की आवाज़ें
भेदने पर इन आवाज़ों को
खुलता है–भाषा का एक समूचा संसार हमारे भीतर
सहमा हुआ घर
कुरेदता है दफन कर दिये उजले शब्दों को
कहाँ बह गई सारी खिलखिलाहट
कौन निगल गया नोंक-झोंक के मुस्काते क्षण
कैसे सूख गई रिश्तों के बीच की नमी
किसने बदल दिया हरी-भरी दीवारों को खण्डहर में
अबोले का हर अगला दिन
अपनी उदासी में अधिक भयावह होता है
दोनों पक्षों के पूर्वज
खाते हुए गालियाँ
अपने कमाए पुण्य से
निःशब्द घर को असीसते रहते हैं .
कॉलबेल और टेलीफोन बजते रहते
लौट जाते आगंतुक बिना चाय-पानी के
बिला वजह डाँट खाती महरी
चुप्पी टूटती तो केवल कटाक्ष से
‘भलाई का तो ज़माना नहीं’
या
‘सब-के-सब एक जैसे हैं’ जैसे बाण
घर की डरी हुई हवा को चीरते
अपने लक्ष्य की खोज में भटकते हैं
उलझी हुई है डोर
गुम हो चुके सिरे दोनों
न लगाई जा सकती है गाँठ
फिर कैसे बुहारा जाएगा इस मनहूसियत को
घर की दहलीज से एकदम बाहर
अब तो बरदाश्त भी दे चुकी है जवाब !
इस कविता के पाठक कहेंगे
… यह सब तो ठीक
और भी क्या-क्या नहीं होता पति-पत्नी के इस अबोले में
फिर जितना आप खींचेंगे कविता को
यह कुट्टी रहेगी जारी
तो ठीक है
ये लो कविता समाप्त !
15/ नींद और स्वप्न
हमें अपनी नींद के बारे में कुछ पता नहीं होता
हम जाग कर महसूसते हैं दूसरों की नींद
हमारा। समूचा आक्रोश जागे हुए आदमी पर है
नींद लेता आदमी हमें भला लगता है
भली लगती हैं सोते हुए आदमी की मूंछें, पेशानी पर पड़े बल
और ठोड़ी का मस्सा
हम सोचते काश! यह आदमी सोता ही रहे
इस आदमी की नींद हमारी नींद की वजह होती है।
हम सोते हुए बच्चे की पलकों के भीतर अनुभव करते
पुतलियों का कम्पन
खेल रहा होगा इस वक़्त वह चाँद पर खरगोश के साथ
भिंची मुट्ठियाँ उसकी बता रही हमें
चटख रंगों वाली एक तितली पकड़ रखी उसने कस कर
नींद में बच्चे का चौंक जाना भर जाता बेचैनी से हमें
हम उसे थपकी देकर दुःस्वप्न से लड़ने की ताकत देते हैं।
हम डरते पिता की नींद में भी जागती चौकस आँखों से
गुजरते उनके कमरे से दबे पाँव
और निकलने के बाद भी आशंकित रहते कि देख लिये गए
पिता के करवट बदलने पर हिल जाता है घर
जैसे शेषनाग के हिलने पर डोलती फन पर धरी पृथ्वी।
बड़ा मुश्किल होता
थकी हुई माँ के नींद में लिपटे चेहरे का सामना करना
दिन भर गृहस्थी के दुःख बीनती माँ
दिन भर घर का अमंगल फटकारती माँ
रात को घर से लिपटकर सोती है
एक तरल बूँद नींद में माँ की आँखों से निकलकर
देर तक टिकी रहती पलकों के किनारे
जिसके बारे में कहती कि थकान की वजह से है
हम फ़ौरन मान लेते
नींद हमें समझाना चाहती माँ के दुःख की भाषा।
हम बगल में सो रही पत्नी की नींद को टटोलते
साँस रोककर करते प्रतीक्षा
एक दिन बड़बड़ा दे वह नींद में
अपने पुराने प्रेमी का नाम
और हम जबरन नींद में घुसकर उसकी
उठा लाएँ सारे कढ़े हुए रुमाल
जिन्हें देखकर सोती वह बेख़बर थकन से चूर।
हम बहन की नींद के प्रति रहते सजग
कैसे स्वप्न देखती वह
और चाहिए कैसे देखना
हमारा पहरा उसकी नींद पर
उसका पहरा अपने स्वप्न पर!
वह अपनी आँखों को ढककर सोती हाथों से
बड़ी हो रही लड़कियों की तरह
नींद और स्वप्न विश्वासपात्र उसके
प्रवेश वर्जित!
हमारे स्वप्न तुनकमिज़ाज़ होते हैं
जरा-सी छेड़छाड़ पर
वे हमारी नींद से पैर पटकते हुए निकल जाते हैं
यह कह कर कि स्वप्न नींद के ग़ुलाम नहीं होते
और तब वे जागते हुए आदमी की आँखों में घुस जाते हैं।
नींद आदमी का सबसे ईमानदार क्षण है
काश! हम नींद ले रहे किसी आदमी से बात कर पाते!
निरंजन श्रोत्रिय
जन्म: 17 नवम्बर 1960, उज्जैन में एक शिक्षक परिवार में।
शिक्षा: विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से वनस्पति शास्त्र में पीएच-डी.
सृजन: तीन कविता-संग्रह *जहाँ से जन्म लेते हैं पंख*, *जुगलबंदी*, *न्यूटन भौंचक्का था*, दो कथा-संग्रह *उनके बीच का ज़हर तथा अन्य कहानियाँ* और *धुआँ* , एक निबंध-संग्रह *आगदार तीली* प्रकाशित। 17 वर्षों तक साहित्य-संस्कृति की पत्रिका *समावर्तन* का संपादन। युवा कवियों के बारह *युवा द्वादश* का संचयन। कई रचनाओं का अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद। बच्चों के लिए भी लेखन।
संप्रति: एक सरकारी कॉलेज में अध्यापन।
संपर्क: 302, ड्रीम लक्जूरिया, जाटखेड़ी, होशंगाबाद रोड, भोपाल- 462 026
मोबाइल: 9827007736
ई-मेल: niranjanshrotriya@gmail.com
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1/ अंतर बताओ
.उस समय जबकि समानता ढूँढना बेहद ज़रूरी है
बच्चे अंतर ढूँढना सीख खुश हो रहे हैं।
जैसे बगैर समानता ढूंढे अंतर नहीं मिल सकते बैसे ही अंतर ढूँढते- ढूँढते बच्चे समानता ढूँढना भी सीख जाते है.
2/ कुछ आत्म स्वीकृतियाँ
जैसे कि यह अतिरिक्त पढ़ाने के बाद मेरे घर के कुछ शीशे तोड़ दिए गए आधी रात।
जिस वर्ग का आप उल्लेख कर रहे है उसके लिए कभी भी ऐसी बातों पर प्रतिक्रया नहीं दी गई, आप शायद दुसरे वर्ग का नाम नहीं ले सकते है .
सभी कविताएं बेहतर है ,कहीं कहीं असहमत होते हुए भी आपने जो लिखा है अच्छा लगता है.
यह सही नहीं है की जो मैं जानता हूँ वही सहीं है ,दुसरे भी सहीं हो सकते हैं .
कुछ बाते बहुत अच्छी लगी जैसे –
मुझे लगता है
तमाम जी-हुजूर शोर के बीच
‘नहीं’ कहने वाले
अभी बचे हुए हैं।
—
काश! कि हमने नहीं सीखे होते अक्षर
सीखे होते केवल सुर
तब सरगम से भरी यह अनपढ़ दुनिया
कितनी खूबसूरत होती !
—
आसान जवाबों से मिले हमें पासिंग मार्क्स
और एक कठिन जीवन
—
नींद आदमी का सबसे ईमानदार क्षण है
काश! हम नींद ले रहे किसी आदमी से बात कर पाते!
प्रेम पर कविता लिखना आसान हैं या ऐसी किसी दुख पर जो अंदर तक चीर गया हो ऐसे दुख पर कविता लिखना और भी आसान है. देश प्रेम पर या राजनीति पर कविता लिखना आसान है पर जीवन के छोटे छोटे भावों पर इतनी गूढ़ कविता कह देने के लिए आपको निरंजन श्रोत्रिय होना होगा जो रूमाल, पत्नी से अबोला या अंतर बताओं जैस विषयों पर भी इतनी गहरी कविता कह दें। साधुवाद ऐसे सूक्ष्म दृष्टि रखने वाले कवि को। सारी कविता अद्भुद हैं। प्रणाम आपको।
श्रोत्रीय जी की कविताएं बिल्कुल हमारे आसपास की संवेदनाओं से जुड़ी हुई हैं, जो हमें नए तरीके से सोचने को विवश भी करती हैं, आपको पढ़ना हमेशा से अच्छा लगता है, साधुवाद
निरंजन जी की काव्य बुद्धिमत्ता अदभुत है. हर कविता में कविता के तत्वों का प्रतिशत अधिकतम है. वहाँ अतिरिक्त तो अतिरिक्त बिल्कुल नहीं बल्कि इस समय में मोथरी होती जा रही संवेदना को जगाने, तर्कसंगतता को और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को रोजाना में शामिल करने के कुछ उम्दा आग्रह उपस्थित हैं.
रसिक को यहाँ पाठ का आनंद इस तरह आएगा कि वह एक कोफ्त भी महसूस करेगा. निरंजन जी की इन कविताओं को पढटर हम और चेतन हो जाते हैं
ब्रज
आदरणीय निरंजन दादा की कविताएं, कविता को परिभाषित करती हैं।
सादर,
प्रांजल धर
हिन्दी के विरले उपन्यासकार-व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी ने इन कविताओं पर अपने व्यस्ततम रूटीन से समय निकाल लगभग 17 मिनट का वॉइस मैसेज भेजा है जो ‘रचना समय’ के पाठकों के लिए प्रस्तुत है- निरंजन, मैंने आपकी सारी कविताएँ अभी पढ़ीं। एक तो आप दूसरे आदमी को इन्फिरियोरिटी कॉम्प्लेक्स में डाल देते हो। मैंने सबसे पहले सोचा कि ये आदमी कितना सेंसिटिव है! एक ज़माने में कहते थे कि जहाँ न जाए रवि वहाँ पहुंचे कवि।तो मन की उन अतल गहराइयों में जहाँ रवि भी न पहुँचे वहाँ तुम पहुँचे और कमाल है यार! कुछ कविताएँ तो अद्भुत हैं जैसे “अंतर बताओ”! तुम जहाँ देखो, अंतर देखो, समानता मत देखो। तुम कैसे पूजा करते हो, वो कैसे पूजा करता है, वो टोपी लगाता है, तुम तिलक लगाते हो, ये अंतर हम बच्चों को सिखा रहे हैं। और हम अंतर ढूँढने जुट जाते हैं- जितने ज़्यादा अंतर, उतने बुद्धिमान!!हम समानता खोजने वाले को तो बेवकूफ़ मान रहे हैं। यह इस समय पूरे मुल्क में जो सामाजिक स्ट्रक्चर है, जो सोच है, उस पर बहुत बढ़िया कमेंट है। और यह कितनी बढ़िया कविता है यार, (कुछ आत्मस्वीकृतियाँ) –तुम्हारी पत्नी तुम्हें इसलिए प्यार करती है कि तुम बॉटनी ही नहीं पढ़ाते, बॉटनी तो पढ़ाते ही हो, दुनिया पढ़ाती है बॉटनी। तुम उससे कुछ अतिरिक्त पढ़ाते हो बच्चों को। बच्चों को आदमी बनाने की कोशिश करते हो बॉटनिस्ट नहीं। बॉटनी तो बहुत सारे पढा देंगे। तुम उनको इंसान बनाने की कोशिश करते हो कि जब विज्ञान पढ़ लेना तो इन टोटकों और अंधविश्वासों से ऊपर चले जाना। कितनी बढ़िया कविता है यार! और हम तो कहेंगे कि अगर ये सच है तो तुम्हारी पत्नी कितनी समझदार है कि वह समझाने नहीं बैठ गई कि तुम केवल बॉटनी….आम तौर पर एक जो दुनियावी पत्नी है कि तुम कहोगे कि आज किसी ने पत्थर फेंक दिया, आज गाली-गलौच वाला पत्र आ गया…तो पत्नी कहेगी कि ‘तुम बेवकूफ़ हो, तुमको समझदारी से काम लेना चाहिए, तुम केवल बॉटनी ही पढ़ाया करो न! तुम कहाँ चक्कर में पड़ते हो। तुम क्यों लग जाते हो लोगों को ये चीज़ें समझाने में। तुम्हीं ने ठेका ले रखा है?
एक और बहुत अच्छी कविता तुम्हारी-जब तुम आते हो गली के छोर पर…मक्के के दाने भूने जा रहे हैं..और उछल-उछल कर वो पॉपकॉर्न में तब्दील हो रहे हैं पर कुछ ढीठ किस्म के दाने, असहमत दाने…हहहह..जो बच जाते हैं कि मैं मक्की के दाने के रूप में ही रहूँगा…मुझे पॉपकॉर्न नहीं बनना! तो वो जो तन के खड़े हो जाऍं …कि आग लगी है गरम है चारों तरफ़ …सब लोग उछल-उछल कर बदलते जा रहे हैं उस ताप में…बदलाव का ताप है, अच्छा है, बुरा है लेकिन ताप है और आप अगर असहमत हैं तो आप उस ताप को सहते हुए भी बदलते नहीं हैं..यह बहुत अच्छी कविता है..बहुत ही। “वारंट” …ये कविता अच्छी है चालू मुहावरे में…यदि कहा जाए और आपने अपने ढंग से…क्योंकि आप बड़े कवि हैं तो आपके कहने का अलग अंदाज़ है। कि बादशाह है…और सभी कवि ख़त्म भी हो जाएँ तो भी प्रकृति…संगीत में कविता पढ़ी जा रही है। प्रकृति में जहाँ भी संगीत है, चाहे पेंटिंग में, चाहे बादल …अभी तो उसने कोयल को कैद किया है..लेकिन यदि वह गुलमोहर के सुर्ख़ पेड़ को कटवा देगा…तब भी कविता कहीं जीवित रहेगी। यही तो बात है। कि कविता और असहमतियाँ, कविता और सौंदर्य और जीवन की काव्यात्मकता ..वो कोई बादशाह न तो गिरफ़्तार कर सकता है, न उसे सूली पर चढ़ा सकता है। दुनिया में बहुत-सी चीजें हैं जिनमें कविता है…नदी का क्या करोगे …उसे सुखाने की कोशिश करोगे…खुद मर जाओगे। “लेडीज़ रुमाल” एक बहुत अच्छी कविता है …एक अलग ढंग से ..औरत को समझने के लिए। एक छोटे रुमाल में बहुत सारे आँसू हैं …दर्द है..लेडीज़ रुमाल बहुत छोटा होता है पर बहुत बड़ा होता है।
और एक वो सुर वाली कविता …कि अगर संगीत की ही भाषा होती हमारे बीच..कि हम बोल न पाते , सुरों में ही अपने आपको एक्सप्रेस करते…आरोह-अवरोह से ही… तो हम फिर शायद इन सबके बीच …कि दिल्ली…गाँव…शहर…बड़े लोगों के बीच…छोटे लोगों में , सो कॉल्ड तो हम शायद ज़्यादा ह्यूमेन होते, ज़्यादा मानवीय होते! हमें भाषा ने…शायद ज़्यादा क्रूर बना दिया..ज़्यादा स्वार्थी …ज़्यादा समझदार बना दिया।
और (गहरी साँस लेकर) ‘कठिन सवाल रह जाते हैं’, हम बहुत छोटे-सरल सवाल ढूँढ कर, उनको जीवन में हल कर खुश होते हुए… विजेता महसूस करते हुए हम भूल जाते हैं कि बहुत सारे कठिन सवाल जीवन के छोड़ दिये हमने …हम सोचते हैं कि जीवन की परीक्षा में बहुत बड़ा काम हमने कर लिया पर वास्तविकता में वे कठिन सवाल पड़े रह जाते हैं…हम समझते कि हम परीक्षा में पास हो गए लेकिन वास्तव में हम फेल हो चुके होते हैं जीवन की परीक्षा में।
“लड़की”! ये तो एक चेन रिएक्शन जैसा है कि यदि एक लड़की चौंकती है तो सारी लड़कियाँ चौंकती हैं…ये मेटाफ़र बताता है कि वो चाहे चौहान हो चाहे फर्नांडीज़ हो , राजपूत या ब्राम्हण की बेटी हो या मुस्लिम की … बेटियों का दुःख सेम है , उनके जीवन की चुनॉटियाँ सेम हैं .. चिंताएँ लगभग वही हैं। ऊपर से सब अलग हैं पर एक जैसी चिन्ता में जब वे करवट लेती हैं तो दूसरे छोर पर भी लड़की उसी बेचैनी से करवट लेती हैं..यह उसकी कविता है। सारी चिन्ताएँ, दुःख-सुख, सपने, घबराहटें …वो सब एक हैं। तो बहुत अच्छी कविता। और ये कविता कितनी अच्छी है…अब मैं क्या बताऊँ …कि एक दिन दस मरे.. हम चौंकते हैं … फिर दस मरे …ये इतना कॉमन हो जाता है कि मानो कोई कॉलम ही चल रहा हो…अख़बार में कि “दस मरे”! अब केवल इतना ही कि कहाँ मरे? और किस कारण मरे? हमारी उत्सुकता केवल यह। हमें कहीं शॉक नहीं लग रहा, हम कहीं विचलित नहीं हो रहे दस के मरने से जबकि एक मौत भी आपको विचलित करनी चाहिए। आपके लिए यह एक रूटीन चीज़ ही गई जब तक कि दस से ज़्यादा न मरने लगे …. सौ… और आप सौ की क्यों बात करते हैं.. गाज़ा पट्टी में एक बम गिरा और एक हज़ार लोग मर गए! आठ सौ बच्चे मर गए। उन्होंने अस्पताल पर बम फेंक दिया…उन्होंने स्कूल पर बम फेंक दिया और बच्चे मर गए…। यह हमें उद्वेलित नहीं करता। हम तो मानते हैं कि युद्ध चल रहा है तो होना है यह। हमें अब ये चीज़ें डिस्टर्ब ही नहीं करतीं। हम किस अनुपात में किस घटना से डिस्टर्ब होंगे… तो ये दुनिया अब एक बहुत ख़तरनाक अनुपात की ओर बढ़ती जा रही है। ये बहुत अच्छी कविता है।
भाई डॉ ज्ञान चतुर्वेदी जी से शतप्रतिशत सहमत मित्र निरंजन की कविताओं के प्रसंग में.
“तमगे” बहुत अच्छी कविता है। जब आपको तमगे लग जाते हैं न कुछ पुरस्कारों के, कुछ पदों के, कुछ सम्मानों के, तो आपको धरती दिखना बंद हो जाती है। आप नीचे झांकते हो तो तमगे दिखते हैं। ज़मीन को देखना है और ज़मीन से जुड़े रहना है तो तमगों का मोह छोड़िए। और जो तमगे आपको मिल भी गए हैं या पा भी लिए हैं उनके बियॉन्ड देखना सीखिए। तभी आप ज़िंदगी से जुड़े रहेंगे वरना आप केवल तमगे बन कर रह जायेंगे। आप बहुत बड़े कवि थे…आपको बहुत पुरस्कार मिल गए… आप ज्ञान चतुर्वेदी थे आपको पुरस्कार मिल गए, पद्मश्री मिल गया उसका आपने तमगा लटका लिया, आप सब भूल गए कि नीचे ज़मीन कहाँ है। क्योंकि ज़मीन ने ही आपको तमगे दिलवाए एक समय। तब आप ज़मीन की रचना नहीं लिखेंगे अपनी रचनाएँ लिखेंगे और तमगों की प्रतीक्षा करेंगे। “पहला प्यार” लम्बी कविता है, ठीक है बट बीच-बीच में बिखरती है वह कविता। मुझे ऐसा लगता है एक सामान्य पाठक के बतौर। उसमें लिखते-लिखते विचलन लगता है। “पत्नी से अबोला” दाम्पत्य के प्रेम की बहुत ख़ूबसूरत कविता है। बहुत छोटे-छोटे पल जो आपने पकड़े हैं न…दोनों पक्ष जब चुप रहते हैं तो वो सारी खिलखिलाहट …वे छोटी-छोटी चीज़ें जिसमे मज़ा आता था ..लाइफ की सारी वे चीज़ें चली जाती हैं। एक आपकी लम्बी कविता है-नींद और स्वप्न। स्वप्न पर बहुत अच्छे कमेंट्स हैं इसमें। समय इतना नहीं है वरना मैं एक-एक स्वप्न पर बात करता। हाँ, एक शरारती पैराग्राफ ज़रूर इसमें है जब आपकी पत्नी गहरी नींद में सो रही है तो अपने प्रेमी का नाम बोल दे और जिसके नाम उसने कभी रुमाल काढ़े थे। तो उसका पहला प्रेम रहा होगा फिर वो हमारे साथ आ गई और अब पूरी तरह पत्नी का धर्म निभा रही है तो कभी उसका प्रेमी सपनों में आता होगा। तो ये जो माँ की नींद है, जो पिता की नींद है , बहुत ख़ूबसूरत मेटाफ़र हैं। क्या दृश्य है जो आपने पकड़ा है कि पिता सो रहे हैं और आप चुपके से , दबे पाँव उस कमरे से निकलते हैं। और क्योंकि पिता ने करवट ले ली तो डोल जाता है पूरा घर। और बच्चे की नींद…जहाँ से आप शुरू करते हैं तो इसके बहाने संबंधों की चर्चा है। एक बच्चे की, गृहस्थी में एक थकी माँ की नींद है, एक जागा हुआ आदमी है, एक टूटी नींद में है। आपकी कविताओं में प्रेम का एक दूसरा ही रूप है, वह नहीं जिसे हम देखने के आदी हैं…एक अंडरकरंट बहता है, आप उसकी बात करते हैं और बहुत ख़ूबसूरती से बात करते हैं। बहुत छोटे-छोटे पल पकड़ते हैं आप इन कविताओं में। तो आपकी प्रेम कविताएँ दूसरों से अलग हैं। आपकी प्रेम कविताएँ भी हैं, संबंधों की कविताएँ भी हैं, फिर और आगे जाकर देश , असहमतियाँ, बादशाह ….एक तरह से कविताओं का पैकेज डील दे दिया आपने। धन्यवाद आपका बहुत-बहुत।
ज्ञान चतुर्वेदी
निरंजन जी की काव्य बुद्धिमत्ता अदभुत है. हर कविता में कविता के तत्वों का प्रतिशत अधिकतम है. वहाँ अतिरिक्त तो अतिरिक्त बिल्कुल नहीं बल्कि इस समय में मोथरी होती जा रही संवेदना को जगाने, तर्कसंगतता को और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को रोजाना में शामिल करने के कुछ उम्दा आग्रह उपस्थित हैं.
रसिक को यहाँ पाठ का आनंद इस तरह आएगा कि वह एक कोफ्त भी महसूस करेगा. निरंजन जी की इन कविताओं को पढटर हम और चेतन हो जाते हैं
ब्रज श्रीवास्तव