हरिशंकर परसाई आज़ाद भारत के उन महत्त्वपूर्ण लेखकों में हैं जिन्होंने जीवन यथार्थ के जटिलतम रूपों को नई कलात्मक अभिव्यक्ति दी। यह अभिव्यक्ति एक रचनात्मक इतिहास है जिसमें कहीं भी रूमानियत की छाया नहीं। परसाई समय- समाज के एक ऐसे आलोचक हैं जिनकी निगाह से कोई छद्म छिप नहीं पाया। परसाई के लेखन की तुलना अगर बालज़ाक से की जाए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति न होगी।
परसाई के लेखन से तो तकरीबन सभी परिचित हैं लेकिन उनके जीवन के उतार- चढ़ाव से अनभिज्ञ हैं जिसने परसाई को गहरी जीवन – दृष्टि दी।
राजेंद्र चंद्रकांत राय ने परसाई की जीवनी लिखी है। जीवनी का एक अंश यहां प्रस्तुत है। – हरि भटनागर
राजेंद्र चन्द्रकान्त राय द्वारा लिखित हरिशंकर परसाई की जीवनी काल के कपाल पर हस्ताक्षर
प्रणय का अरण्य
हरिशंकर परसाई जी 1942 में खण्डवा के न्यू हाई स्कूल में अध्यापक हो गये थे। ताकू की मानसिक तनाव वाली नौकरी को छोड़ आये थे। माँ प्लेग का शिकार होकर संसार से जा चुकी थीं। पिता बीमार और अशक्त होकर खाट पकड़ चुके थे। बीमारी के चलते उनका ठेकेदारी का काम खत्म हो चुका था। परसाई जी पर एक भाई और तीन बहनों की सारी जिम्मेदारी आ गयी थी। नौकरी करने के पहले ही दिन शाम को अध्यापन कार्य संपन्न करने के बाद वे स्कूल से घर पहुंचे। थैले उठाये और बाज़ार का रुख किया। ज़रूरत का सामान थोड़ा.थोड़ा खरीदा। तय किया कि 25 दिन का सामान खरीदेंगे और उसे तीस.बत्तीस दिन तक चलायेंगे। दो दिन तरकारी न बनायेंगे। नहाने का साबुन और बालों में लगाने वाला तेल एक दिन के अंतर से उपयोग करेंगे। हर तीसरे दिन खिचड़ी बना लिया करेंगे। सप्ताह में दो दिन दूध की छुट्टी कर देंगे। जहां चाह, वहां राह। उपाय ही उपाय हैं। रुपया परसाई को नहीं नचा सकता, परसाई ही उसे नचायेंगे। अपने पर नियंत्रण रख कर, खर्चों को काबू में करके।
जब सामान खरीद कर दूकान से बाहर आयेए तो उनकी नज़र दीवार पर पड़ी। वहां एक पोस्टर चिपका हुआ था। पोस्टर में अशोक कुमार अपनी प्रेममयी आँखों से लीला चिटनिस को निहार रहे हैं। लीला जी कहीं और देख रही थीं। अंग्रेजी में लिखा था, बंधन। नील को घोल कर, उसका रंग बनाकर, एक पंक्ति अलग से दीवार पर लिख दी गयी थी, ष्अपने खण्डवा का हीरो, अशोक कुमार।’ पूरे शहर में अशोक कुमार के पोस्टर चिपके हुए थे। पूरे खण्डवा में हल्ला मचा हुआ था, अपने खण्डवा का अशोक कुमार, हीरो।
पोस्टर देख कर परसाई जी को अशोक कुमार के साथ एक तरह की आत्मीयता महसूस हुई। याद आया कि जब वे मैट्रिक में थे, तब अपने दोस्तों के साथ, घर पर बताये बिना ही ष्अछूत कन्याष् फिल्म देखने के लिये रेल में बिना टिकट ही बैठ कर टिमरनी से हरदा चले गये थे। सारी रात वहीं बिताना पड़ी थी और अगले दिन पिता से इस अपराध के लिये दण्ड भी पाया था।
वे अशोक कुमार के छोटे भाई आभास के अध्यापक थेए इसलिये भी अशोक कुमार के साथ, उन्होंने एक तरह का अपनापा महसूस किया था। पोस्टर पर लिखी हुई इबारत से तारतम्य बैठा। उन्हें भी लगा, ष्अपना अशोक कुमार।’ पहली फिल्म में ही अशोक कुमार और उनका अभिनय परसाई जी को पसंद आ गये थे। अब उनकी दूसरी फिल्म ष्बंधन’ भी देखेंगे, मन ने ऐसा निश्चय किया।
आने वाले इतवार को उन्होंने एक आने वाली चटाई क्लास की टिकट खरीदने की बजाय दो आने वाली बैन्च क्लास की टिकट खरीदी। अध्यापक चटाई क्लास में नहीं बैठ सकता था। पद की गरिमा का प्रश्न था। अध्यापक बैन्च क्लास में बैठा। ष्अछूत कन्याष् देखने के दो साल बाद यह उनके जीवन की तीसरी फिल्म थी। सिनेमा का आकर्षण था पर देखने की परिस्थितियां न थीं। मौके न थे। वक़्त तक न था। अब सब था। नौकरी थी। पैसा था। स्वनिर्णय की स्वतंत्रता थी। आपाधापी न थी। मन में झंझावात न था। इत्मीनान था। कर्तव्य के परिसर से हटे बिना ही मन की कुछ साधों को जगह दी जा सकती थी। दी जा रही थी। अपने लिये भी स्पेस बन रहा था। वे परिवार की सामूहिकता का अभिन्न हिस्सा होने के साथ.साथ एक इकाई में भी ढल रहे थे हरि।
फिल्म शुरु हुई। अशोकुमार एक युवा अध्यापक की भूमिका में थे। अध्यापक की भूमिका ने परसाई मास्साब को उस किरदार से जोड़ दिया। अशोक कुमार की देह में परसाई मास्साब का चेहरा उग आया। हरि ने अशोक कुमार को रिप्लेस कर दिया। अब हरि जो नहीं थे वह होने लगे। कल्पनायें जागने लगीं। कल्पनायें तितलियाँ बन गयीं। उनके पीले पँख रंग.बिरंगे होने लगे। वे उड़ने लगीं। उनके पँख फड़कने लगे।
एक तितली ने आकर उनके कान में फुसफुसा कर कहा, तुम्हीं तो हो वहाँ परदे पर। सुंदर !
सुंदर,यह एक अपरिचित संबोधन था।
दूसरी ने कहा, सौम्य !
सौम्य ! यह भी अचीन्हा था।
तीसरी गुदगुदा गयी, प्रिय !
प्रिय, यह तो कभी किसी ने कहा ही नहीं।
चौथी ने माथा चूम कर कहा, मनभावन!
मनभावन यह क्या होता है छायावादी काव्य.भूमि में उगा हुआ कोई पद होगा। जीवन में तो दिखता नहीं।
पांचवीं ने खिलखिला कर कहा, समय के खुरदरेपन को नोंच कर फेंक दो मेरे हरि ! हरितिमा का आनंद लो। वसंत ऋतु द्वार पर खड़ी है । उसके लिये अर्गला खोलो।
परसाई मास्साब ने चौंक कर अगल.बगल देखा। सब सिनेमा के परदे पर गड़े हुए थे। किसी ने उस वार्तालाप को नहीं सुना। कैसे सुनते, वह औरों लिये था ही नहीं। सिर्फ़ उनके ही लिये था। शब्द उनके लिये निर्मित हुए थे। उनके लिये उच्चरित हुए थे। उनमें उन्हीं के लिये ध्वनियाँ उत्पन्न हुई थीं। और वे स्वर उन्हीं के कानों तक की यात्रा कर सकते थे। कान उनके लिये थे, वे कान के लिये थे। कानों ने उन स्वरों को हरि के हृदय तक उन्हें पहुंचाया। हृदय ने हरि के अंग.प्रत्यंग तक पहुंचा दिया। हरि की देह में झनझनाहट पैदा हुई। जैसे चींटियाँ अपने नन्हें पावों से शरीर पर रेंगने लगी हों।
उस अपरिचित वार्तालाप ने उन्हें भी अचरज में डाल दिया। सब अग्राह्य सा लगा। उसे बाहर कर देने के लिये उन्होंने अपने कानों को झटक दिया। कर्ण.विवरों में भरी हुई शब्द.ध्वनियों को गिरा देने की चेष्टा की।
ध्वनियाँ भी कहीं गिरती हैं वे तो अमर होती हैं। हवा के संग बहती रहती हैं। सुपात्र की खोज में। मिल जाये तो कर्ण.विवरों से उसके मन तक पहुंच जाती हैं।
हरि ने सिनेमा पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की।
परदे पर लीला चिटनीस आयीं। परदे से उनके हृदय के परदे पर अवतरित हुईं।
कोमल। सौंदर्यमयी। प्रेम किये जाने की योग्यताओं से भरपूर।
कहीं जाने के लिये परदे पर चल रही हैंण्ण्ण्। क्या हरि की तलाश में !
दुसह यौवन.भार न्यौछावर करने को उद्यत सी लगती हैं । क्या हरि पर !
प्रेम की याचनाए मुख पर मुस्कान बन कर नाच रही है । क्या हरि के लिये !
क्या वही वसंत ऋतु हैं हरि के मन के द्वार तक चल कर आयी हुई !
सिनेमा में वे कस्बे के एक अत्यंत प्रतिष्ठित परिवार की लड़की हैं। हरि, परसाई मास्साब हैं। पच्चीस रुपया वेतन वाले। पंद्रह रुपया घर भेज देते हैं। दो रुपया मकान किराया देते हैं। आठ रुपये में महीने भर ज़िदगी की गाड़ी खींचते हैंण्ण्ण्। नहीं, यह उनकी वसंत ऋतु नहीं हो सकती। या वह हो और वे ही उसके लिये वह द्वार न हों, जिसे वह थपथपा रही है।
अध्यापक अशोकुमार लड़कों से गाना गवा रहे हैं.
चल चल रे नौजवान चलो संग चलें हम
चल चल रे नौजवान चलो संग चलें हम
दूर तेरा गांव और थके पांव
फिर भी राहगीर तुम क्यों नहीं अधीर
तुम हो मेरे संग आशा है मेरे संग
तुम हो मेरे संग हिम्मत है मेरे संग
मेरे साथ.साथ रहो तुम कदम कदम
चलो संग चलें हम चलो संग चलें हम
हां, यह ठीक है। दूर की मंज़िल से मुझे किसने पुकारा। उस पुकार को जानना.समझना है। उसे पाने के लिये निकलना.चलना है। अध्यापक ही उस रास्ते का जानकार होता है। वही अपने विद्यार्थियों से कह सकता है, चलो संग चलें हम, चलो संग चलें हम ।
हरि के अध्यापक.मन को एक अध्यापक.पात्र के प्रेम की यह फिल्म भा गयी। हरि को अशोकुमार पसंद है। सुंदर, सौम्य, शरीफ, कोमल। त्याग करने को तत्पर रहने वाला प्रेमी। उन दिनों की बात ही दूसरी थी। प्रेम में उन दिनो देवदास ही हुआ जाता था। एक आत्मघाती मोह का शिकार। न कि प्रेमिका से बदला लेने चल देने वाला खल.चरित्र। हरि की उम्र के लड़के दिलीपकुमार और सहगल को देवदास के रूप में देखते थे, और अपने मन में यह रूमान पाल लेते थे, कि किसी दिन वे भी क्षय रोग की आखिरी स्टेज में पारो के घर के सामने पहुंचेंगे और मर जाएंगे ।
वे मर जायेंगे और उनका प्रेम अमर हो जायेगा। अपनी बजाय, प्रेम की अमरता का खयाल ज्यादा हुआ करता था। त्याग और बलिदान की अमित भावना थी। देना ही देना था, पावना न था। उसकी आकांक्षा तक न थी।
हरि अब तक प्रेम के पारिवारिक रूपों में ही डूबे हुए थे। उससे अवकाश न था। अम्माँ का प्रेम उन्हें कस कर बांधे हुए था। उनकी गोद का ताप बिसरता न था। कोंख में जो निर्भयता और चैन पाया था, वह अब भी शेष बना हुआ था। संसार में उसका लेश मात्र भी न था। उसके लिये मन तरसता था। स्मृतियों में बार.बार लौटता था।
बहनों और भाई के प्रेम का अछोर सरोवर था। तरल स्निग्धता थी। उन पर लाड़ आता था। वे हरियाए रहें, ऐसी कामना छलछलाती रहती थी। उन्हें काँटा तक न गड़े। कंकर न चुभे। चश्म.ए.बद.दूर रहे।
बाबूजी के प्रेम का तो उतना पता नहीं, पर उनके प्रति आदर से हरि का पोर.पोर भरा था। उसी में प्रेम की छाया भी होगी। जैसे पेड़ के संग उसकी छाया होती है। वे हैं, तो पीठ पर हाथ होने का अहसास है। एक डोर से जुड़े रहने का भाव है।
दोस्तों से मैत्री का प्रेम था। बराबरी और परस्पर अधिकारों से लब.ब.लब। रहस्य के तहख़ानों से भरा हुआ। कहने.सुनने की भरोसेमंद जगहें। जब भी मन उचाट हो, तो बेखटके वहां जा सको। उदासी घेरने लगेए तो वे आकर अपनी बाहें डाल दें।
अपने अध्यापकों से प्रेम था। देवताओं के प्रति जैसा प्रेम होता है, वैसा। पूज्य भाव से मंण्डित। कृतज्ञता से सुवासित। मंदिर में जलने वाले दिये की तरह प्रकाशवान।
किताबों, लेखकों और कवियों से प्रेम था। अगाध प्रेम। उस प्रेम में सांत्वना थी। सहचर था। आओ.आओ की पुकार थी। वहाँ पहुँच कर जगत् बिसर जाता था। खरोंचें सूख जाती थीं। तकलीफें फना हो जाती थीं। अपना.आप गलने लगता था। छिलके उतरने लगते थे। अंदर से कोई नया हरि बाहर आने को बेताब हो जाता था।
पर लीला चिटनिस ने जिस प्रेम का अहसास कराया था, वह तो इन प्रेमों से मेल न खाता था। मन में वह अंटता न था। वह अबूझ था। अव्यक्त था। निराकार था। निर्गुण था। अनोखा और आल्हादकारी था। हाहाकारी भी।
परण्ण्ण्ण्! उससे अपरिचय ही था। उसके लिये भाव न थे। शब्द न थे। बेकली थी। बेचैनी थी। व्याकुलता थी। उमड़.घुमड़ थी। उसमें पुकार थी। खिंचाव था। नदी की भंवर जैसा।
फिल्म खत्म नहीं हुई, संपन्न हो गयी। उनके अंदर उसकी अनुगूंज बची रह गयी। चित्रावलियाँ ताश के पत्तों की मानिंद गड्ड.मड्ड होती रहीं। कोमल छवियों ने मन की धरती पर अपना घर बनाने का उपक्रम किया। तिनके चुनने का प्रयास किया। पँख पसारने का श्रम किया।
श्वेत.श्याम सिनेमा वाला सक्रिय परदा अब केवल श्वेत और निष्क्रिय हो गया था। टिमटिमाते बल्वों की पीली उदास रोशनियों से जूझता हुआ। भीड़ हड़बड़ी में प्रस्थान कर रही थी। हड़बड उसका स्वभाव है। आने में भी हड़बड़ी, जाने में भी।
हरि, हरि से परसाई मास्साब में रूपायित हुए। सधे हुए शरीर से खड़े हुए। आहिस्ता से गर्दन घुमायी। गंभीरता से कदम बढ़ाये। बाहर की जगमग में आकर चौंधियाये नहीं। धीरज बनाये रखा। यही एक अध्यापक को शोभा देता है।
घर की राह पकड़ी।
घर का बदरंग चित्र मन में बना।
ठंडी खिचड़ी की मुरझान आंखों में पसर चली।
खंडवा के स्कूल में अभी मुश्किल से सात.आठ महीने ही बीते थे कि उन्हें ट्रेनिंग के लिये जबलपुर के स्पेंस ट्रेनिंग कॉलेज भेज दिया गया। अब जबलपुर में परसाई मास्साब को रहना था। पढ़ना था। प्रशिक्षण पाना था। अपनी पेटी और थैला लेकर वे रेल से जब्बलपोर आये। प्लेटफार्म पर हाथ.मुँह धोया। चाय पने की उत्कट इच्छा का गला मरोड़ कर वे स्टेशन से बाहर आये। उन्हें देख कर, एक ताँगेवाला उनकी तरफ दौड़ा चला आया। पूछा. टरेनिंग कालेज ?
. हां, पर तुम्हें कैसे पता कि मुझे ट्रेनिंग कॉलेज जाना है ?
. सबेरे से अब तक कई लोगों को वहां पौंचा आया हूंए मास्टर साहब ।
परसाई मास्साब को फिर अचरज हुआ. क्या कहा ?
. मास्टर साहब जी।
. तुम्हें कैसे मालुम हुआ कि हम मास्टर साहब हैं ?
. टरेनिंग कालेज में सब मास्टर साहब लोग ही तो टरेनिंग करने आते हैं ना इसी से हमें सब पता है।
. अच्छा.अच्छा। हाँ, चलो। वहीं जाना है। पहुंचा दो।
उसने अदब से कहा. चलियेए अभी पहुँचाये देते हैं। दो आने दे दीजियेगा।
. ठीक है, दे देंगे।
उसने परसाई मास्साब के हाथों से सामान ले लिया। पेटी वहीं परसाई मास्साब के पैरों के पास जमायी और थैला ताँगे में रख दिया। पीछे की सीट पर परसाई मास्साब बैठ गये। ताँगे वाले के अच्छे बरताव ने, उन्हें ढाढस दिया। इस नये शहर के बारे में जो सुना था, उससे उत्पन्न होने वाली अकुलाहट पर थोड़ा पानी पड़ा।
ताँगेवाला सामने की तरफ से सवार हुआ और घोड़े की लगाम थाम कर बैठ गया। फिर उसने किसी से कहा. अब गरदन उठाव सहजादे। सवारी आ गई है। अब अपन को चलना हैण्ण्ण्। मास्टर साहब को टरेनिंग कालेज पहुंचाना है। हे.हे.हे। टिट्.टिट्। हाँ.हाँ। वाह ! वाह ! साबास ! बिना चले.फिरे काम ना बनेगा समझ गये ना मियाँ। हूँ। चले चलो !
पूरी बात सुनने के बाद परसाई मास्साब को पता चल गया कि ताँगेवाला अपने घोड़े से बातें कर रहा है। उन्होंने भी बातचीत में शामिल होने की गरज से पूछा. शहजादा तुम्हारे इस घोड़े का नाम होगा ।
. हां मास्टर साहब। बैसे इनका पूरा नाम तो है सहजादा खुर्रम। मगर बातचीत में हम सिरफ सहजादे से ही काम चला लेते हैं।
. अच्छा सहजादा खुर्रम ! बादशाह शाहजहँ हीं क्यों नहीं ?
. बादसाह अपने बस में कहां होते हैं, मास्टर साहब ! इसलिये सहजादा खुर्रम ही ठीक लगा हमको। और आपको बता दें कि ये हैं भी पूरे सहजादे। जरा जोर से डांट दो, तो नाराज हो जाते हैं। फिर घास का तिनका तक नहीं छूते। खूब मनाओ.पथाओ तब कहीं जाकर मानते हैं। हाँ, हमारी रोटी और इनका दाना.पानी इन्हीं से चलता है। तो जो रोटी दिलाये वो तो सहजादा ही हुआ नाए मास्टर साहब जी !
परसाई मास्साब समझ गये थे कि ताँगेवाला जरा बत्तड़ किस्म का आदमी है । उन्हें भी घुम्मनों की बजाय बत्तड़ लोग पसंद आते थे। मुंह बनाये त्यौरियां चढ़ाये आदमियों को वे जरा सा भी बरदाश्त नहीं कर पाते फिर चाहे वह कोई ताँगेवाला ही क्यों न हो। उन्होंने मुस्कुराकर समर्थन किया. हां भाई वह सहजादा ही हुआ।
घोड़े ने ताँगेवाले का कहा सुन लिया था। मान भी लिया था। उसने अपनी गरदन हिला दी और चल पड़ा। हालांकि उसे कोई जल्दी न थी। वह आराम से चल रहा था। मनमर्जी वाली चाल और लय में वह अपने पैर उठा रहा था, ज़मीन पर रख रहा था और पुट्ठे हिला रहा था। वह स्टेशन का इलाका पीछे छोड़ कर आगे चला। सड़क पर आया। दायें मुड़ा। लंबी सड़क मिली। अब उसकी गति में जरा और तेजी गयी। ताँग धीमी रफ्तार में दौड़ने सा लगा। उसके गले में पड़े हुए घुँघरु बजने लगे। घुन्न.घुन्न घनन.घनन। घोड़े की टापों से टप्.टप् की आवाज़ें आने लगीं। सड़क के तबले पर थाप पड़ने लगी। संगीत उपजने लगा। उस संगीत ने जादू जगाया। जादू ने दुनिया बदली।
उसके जादू से परसाई मास्साब परसाई मास्साब न रहे। अशोक कुमार हो गये। वे ताँगे से सिनेमा के परदे पर चले गये। हीरो हो गये। सड़क की जगह वादियाँ पैदा हो गयीं। मकानों ने हरे.भरे पेड़ों के रूप धर लिये। शीतल हवा के झकोरे चलने लगे। झकोरों ने हीरो के घँुघराले बालों को लहरा दिया। हीरो की आँखें नशीली हो चलीं। पलकें भारी हो गयीं। मन इस दुनिया से निकल कर दूसरी दुनिया की तरफ चल पड़ा।
कल्पनाओं की दुनियाँ। अरमानों की दुनियाँ। जो अपने पास नहीं है पर जिसकी तमन्ना है वह दुनियाँ। जहां रोटी जुटाने की आपाधापी नहीं है ऐसी दुनियाँ। जहां पैसों की किल्लत नहीं है वह दुनियाँ। जहां विपदायें नहीं होतीं वह दुनियाँ। एक भरी.पूरी मनचाही दुनियाँ।
उस दुनियाँ में मंद गति से हवा चल पड़ी। उनके बाल उड़ने लगे फर्.फर्। अंदर से सिनेमायी गानों की लहरें उठने लगीं। गीत की पंक्तियाँ फूटने लगीं। भाषाए तरल होने लगी। शब्दए मछलियां बन कर तैरने लगे।
साँप की तरह लहरदार वीथिका के किनारे खड़ी हुई एक तन्वंगी काया वाली नायिका दिखायी दी। उसके गौर वर्णी मुखड़े पर हठी काले केश फैले हुए थे। वह उन्हें हटाने में व्यस्त थी पर वे जिद्दी बच्चे की मानिंद अड़ियल बने रहे। केशों के पीछे जो कोमल स्निग्ध सपनीला चेहरा था उस पर चिंताओं की लकीरें खिंची हुई थीं। पैरों के पास उसकी अटैची रखी थी। उसे कहीं जाना था पर वादियों के सूनेपन में उसे अपने लिये कोई सवारी नहीं मिली थी।
ताँगा जो अब रथ हो चुका था उसके सामने से गुजरने को ही था कि उसने अपना दायाँ हाथ उठा कर अपनी असहायता को याचना सा बना कर लहरा दिया।
रथारूढ़ नायक ने उसे देखा। इस बियाबान में बेचारी अकेली नायिका ! उसका पिघला हुआ हृदय और पिघल गया। उसने अपने सारथी के कँधे पर हाथ रख दिया। सारथी समझदार है उसने नायक के इशारे को समझ लिया। उसने रथ को उस नायिका के पास पहुँच कर रोक दिया।
नायक अपने आसन से उठ खड़ा हुआ। नायक ने मुस्कान उदात्तता और आत्मीय आमंत्रण के साथ अपना दायाँ हाथ नायिका की तरफ बढ़ा दिया। नायिका का मुखड़ा खिल गया। उसकी मुसीबतें टल गयीं। उसका भय छू मंतर हो गया। उसने उस बढ़े हुए हाथ को थामा और हवा में उड़ती हुई सी रथ पर चली आयी। उस उड़ान में गति थी। गति पर वश न था। वह अपने ही झोंके से सीधे नायक के हृदय.प्रदेश में जा बिछी। नायक ने उसकी पीठ पर हाथ रख कर सांत्वना दी। निश्चिंत हो जाओ ओ अपरूपा! अब तुम सुरक्षित हो। रक्षित हो। चलो हम तुम्हें तुम्हारे गंतव्य तक पहुँचा देंगे।
नायक ने अपनी काव्यमय कोमलता के साथए प्रश्न किया. अब चलें चम्पावर्णी देह वाली ओ अनामिका !
नायक के कथन ने उसे होश दिलाया। वह अपने को नायक के हृदय.प्रदेश में पाकर सहज लज्जा से लजायी। अपना मुख जरा सा नमा कर बोली. जी चलिये ।
. कहाँ जाना है आपको ?
नयिका ने मुस्कुरा कर अपना माथा उठाया। फिर पलकें उठायीं कहा. आप जहाँ ले जाना चाहें !
नायक ने मुस्कुरा कर कहे गये शब्दों का आशय ग्रहण किया। सारथी की ओर देख कर कहा. चलो सारथी !
तांगेवाले ने आश्चर्य के साथ पीछे मुड़ कर देखा और कहा. अब और कहाँ चलें मास्टर साहब जी आपका टरेनिंग कालेज तो आ गया।
एकाएक दुनिया फिर बदल गयी। पुराना संसार लौट पड़ा। वादियाँ वीथिकायें हवायें नायिकाण्ण्ण्सब लापता हो गये। जब्बलपोर, जब्बलपोर की सड़क, ताँगा, ताँगेवाला, घोड़ा सब लौट आये। अशोक कुमार गायब हो गये और परसाई मास्साब शेष रह गये।
ठस तरह परसाई मास्साब होश में आये।
वे जान गये कि कल्पनाओं के पंख तो होते हैं, पर पाँव नहीं होते।
परसाई मास्साब को जब्बलपोर के स्पेंस ट्रेनिंग कॉलेज में प्रवेश मिल गया। हॉस्टल में कमरा भी पा लिया गया। सुबह 5 बजे से मैदान में ड्रिल मैस में नौ बजे नाश्ता। दस बजे से कक्षाएं। डेढ़ बजे भोजन। शाम को पुस्तकालय में किताबों के साथ संगति। यही दिनचर्या हो गयी।
प्रशिक्षण पूरा हुआ तो मॉडल हाई स्कूल में ही अध्यापक हो गये। शहर में रहने लगे। स्कूल में पढ़ाते और खाली वक़्त पाते ही पुस्तकालय में जा बैठते। उन्हें अपने लिये उससे बेहतर और कोई जगह न लगती।
उस दिन भी वे लायब्रेरी में बैठे थे। एक पत्रिका निकाली और पढ़ना शुरु किया। दो.चार पन्ने ही पलटे होंगे कि परसाई जी को अपने पीछे एक मधुर आवाज़ सुनायी दी। किसी महिला स्वर ने किसी अन्य को संबोधित किया।
. सर नमस्कार !
लायब्रेरियन पराँजपे जी ने उत्तर में कहा. नमस्ते आओ.आओ ! कैसी हो शकुंतला बेटी ?
. आपके आशीर्वाद से अच्छी हूं ।
. पढ़ायी ठीक चल रही है ना ?
. हां पर कुछ दिक्कतें भी हैंण्ण्ण्। सरए क्या कोई ऐसी किताब मिल सकती है जिसमें पाठ योजना बनाने का तरीका बताया गया हो।
. हां मिल सकती हैण्ण्ण्। क्या क्लास में नहीं बताया गया ?
. बताया तो गया है सर। पर पहली बार में उतना समझ में नहीं आया। कुछ परेशानी है। हमें हिंदी भाषा की पाठ योजना तैयार करना है।
. हिंदी भाषा की ?
. जी।
. तो किताब काये को?
. फिर हम क्या करें सर?
. देखोए उधर वो जो बैठे हंय ना उनका नाम हरिशंकर परसाई हय। वो जो हँय ना वो हिंदी भाषा और लिटरेचर का बहुत ज्ञानी टीचर हँय। आप उनको नहीं जानतीं क्या ? अरे मॉडल स्कूल मेंच् तो पढ़ाते हँय।
. नहीं हम उन्हें नहीं जानते। कभी मिले नही ना इसलिये।
परसाई जी की पींठ पराँजपे की तरफ थी परंतु उनके दोनों कान आँख बन कर सुनने की बजाय उसी तरफ देख रहे थे।
परसाई मास्साब के अंदर रहने वाले वाले हरिशंकर ने चुपके से परसाई मास्साब के कान में कहा एक लड़की हैण्ण्ण्। तुम्हारे बारे में बात कर रही है।
तो क्या हुआ ? कोई स्टूडेंट होगी।
स्टूडेंट ही है। पर तुम्हारी बात कर रही है।
पराँजपे जी सबको हमारे बारे में बताते रहते हैं। उसे भी बता रहे होंगे।
हां, वही बता रहे हैं। सुंदर है।
कौन पराँजपे जी ?
नहीं, वह लड़की।
सभी लड़कियाँ सुँदर होती हैं। प्रकृति ने उन्हें सुँदर, कोमल और दया.ममता से युक्त बनाया है।
पराँजपे जी की आवाज़ सुनायी पड़ी. उनके पास जाईये। उनसे पाठ योजना बनाना सीखिये। ही इज वेरी स्किल्ड इन टीचिंग। गो।
शकुंतला ने संकोच के साथ पूछा. वे बतायेंगे ?
. हां, बोलना कि पराँजपे सर ने भेजा है करके।
. जी।
शकुन्तला नाम की वह लड़की सशंकित मन और धीमे कदमों के साथ परसाई मास्साब की ओर बढ़ी।
अंदर वाले हरिशंकर ने फिर से चेताया, आपके पास ही आ रही है।
तुझे ग़लतफहमी हो रही है।
अरे नहीं, वह तो आ भी गयी।
चुप।
तभी एक महीन और निहायत कोमल आवाज़ सुनाई दी. नमस्कार सर!
परसाई जी ने चौंक कर पत्रिका से अपना सिर उठाया। अपने सामने एक लड़की को खड़े देखा, तो उसके सम्मान में खुद भी खड़े हो गये। ष्सरष् संबोधन कान में जाकर घुमड़ने लगा। घम्म.घम्म आवाज़ आने लगी। देखाए तो देखते रह गये। लीला चिटनिस अपना नाम बदल कर उनके सामने आ खड़ी हुई थीं। खंडवा में सिनेमा देखने के बाद लीला चिटनिस ने जिस तरह से परसाई मास्साब के मानस पर अपनी छाया फैला दी थीए वह स्मृति में कौंध गयी।
उस दिन जब हरि ने सिनेमा पर ध्यान केंद्रित करने की चेष्टा की थी, तब देखा था कि पहले परदे पर लीला चिटनीस आयी थीं। फिर परदे से उनके हृदय के परदे पर अवतरित हुई थीं।
कोमल। सौंदर्यमयी। प्रेम किये जाने की योग्यताओं से भरपूर।
कहीं जाने के लिये परदे पर चल रही हैंण्ण्ण्। ठुमक.ठुमक।
किसी को खोज रही थीं। क्या हरि की तलाश में थीं!
दुसह यौवन.भार न्यौछावर करने को उद्यत लगती थीं। क्या हरि पर?
प्रेम की याचना, मुख पर मुस्कान बन कर नाच रही थी है। क्या हरि के लिये ?
क्या वही वसंत ऋतु थी ? इस तरह हरि के मन के द्वार तक चल कर आयी हुई ?
परसाई जी ने अपने को खण्डवा वाले दिनों से खींचा। लौटाया। सिर झटक कर खण्डवा को झटक देने की चेष्टा की। पर क्या सिर को झटक देने से मन का सब झर जाता है !
परसाई जी ने किसी तरह कहा. जी नमस्कार।
पर नमस्कार के साथ ही जब आँखें मिलीं तो उनकी आँखों में एक दूसरा ही दृश्य उग आया। वे जब ट्रेनिंग करने के लिये पहली बार जब्बलपोर आ रहे थे और ताँगे पर सवार हुए थेण्ण्ण्। तब वही ताँगा रथ बन गया थाण्ण्ण्। और तब उन्हें साँप की तरह लहरदार वीथिका के किनारे खड़ी हुई एक तन्वंगी काया वाली नायिका दिखायी दी थी। उसके गौर वर्णी मुखड़े पर काले.काले केश फैले हुए थे। वह उन्हें हटाने में व्यस्त थी पर वे जिद्दी बच्चे की मानिंद अड़ियल बने रहे थे। केशों के पीछे जो कोमल, स्निग्ध, सपनीला चेहरा थाए उस पर चिंताओं की लकीरें खिंची हुई थीं। पैरों के पास उसकी अटैची रखी थी। उसे कहीं जाना थाए पर वादियों के सूनेपन में उसे अपने लिये कोई सवारी नहीं मिली थी।
ताँगा, जो रथ हो चुका था, उसके सामने से गुजरने को ही था, कि उसने अपना दायाँ हाथ उठाया था और अपनी असहायता को याचना बना कर लहरा दिया था।
तब इस रथारूढ़ नायक ने उसे देखा था। उस बियाबान में एक अकेली नायिका ! उसका पिघला हुआ हृदय और पिघल गया था। उसने अपने सारथी के कँधे पर हाथ रख दिया था। सारथी समझदार था। उसने तुरंत ही रथ रोक दिया था।
नायक अपने आसन से उठ खड़ा हुआ था। नायक ने मुस्कान, उदात्तता और आत्मीय आमंत्रण के साथ अपना दायाँ हाथ नायिका की तरफ बढ़ा दिया था।
उस बढ़े हुए हाथ को देख कर नायिका का मुखड़ा खिल गया था। जादू की तरह उसकी मुसीबतें टल गयी थीं। उसका भय छू मंतर हो गया था। उसने उस बढ़े हुए हाथ को थामा और हवा में उड़ती हुई रथ पर चली आयी थी। उड़ान में गति थी। गति पर वश न था। वह अपने ही झोंके से सीधे नायक के हृदय.प्रदेश में जा बिछी थी। नायक ने उसकी पीठ पर हाथ रख कर सांत्वना दी थी। निश्चिंत हो जाओ अपरूपा। अब तुम सुरक्षित हो। रक्षित हो। चलो हम तुम्हें तुम्हारे गंतव्य तक पहुंचा देंगे।
नायक ने अपनी काव्यमय कोमलता के साथ प्रश्न किया था. चम्पावर्णी देह वालीए ओ अनामिका ! क्या अब चलें ?
नायक के कथन ने उसे मदहोशी से लौटाया था। होश दिलाया था। वह अपने को नायक के हृदय.प्रदेश में पाकर लजा गयी थी। अपना मुख नमा कर उसने कहा था. जी चलिये।
. कहाँ जाना है आपको ?
उत्तर देने के लिये नयिका ने मुस्कुरा कर अपना माथा उठाया था। फिर सीपियों जैसी अपनी बड़ी.बड़ी पलकें उठायी थीं और कहा था. आप जहाँ ले जाना चाहें !
नायक ने मुस्कुरा करए कहे गये शब्दों का आशय ग्रहण किया था। सारथी की ओर देख कर आत्मविश्वास से भरी वाणी में कहा था. चलो सारथी !
आगंतुका ने विनम्रता से प्रश्न किया . क्या मैं यहां बैठ सकती हूं ?
परसाई जी फिर अस्थिर हुए। अब उस दूसरे दुश्य से भी अपने को बाहर निकाला। जल्दी से कहा. हां.हां बैठिये। कोई भी बैठ सकता है। लायब्रेरी है। सार्वजनिक जगह।
. जी धन्यवाद। हमें पराँजपे सर जी ने आपके पास भेजा है।
. अच्छा !
वे दोनों बैठ गये। बैठते.बैठते परसाई जी ने एक बार पीछे की ओर मुड़कर पराँजपे जी की तरफ देखा। वे किसी छात्र को किताब इश्यु करने में लगे हुए थे। रजिस्टर भर रहे थे।
. हमारा नाम शकुन्तला है। शकुन्तला तिवारी। हम यहाँ पर डिप्टी कर रहे हैं। हमें हिंदी भाषा की पाठ योजना बनाना नहीं आता। सीखना है। क्या आप सिखा देंगे ? वो परांजपे जी ने कहा है !
परसाई मास्साब हँसे. पराँजपे जी न भी कहते तो भी हम आपकी सहायता करते। हम अध्यापक हैं और यही हमारा काम है। हम पहले भी औरों की मदद करते रहे हैं। हमें मदद करना अच्छा लगता है। और असल बात तो यह है कि इससे खुद हमारा भी तो अभ्यास हो जाता है।
शकुन्तला तिवारी खिल गयीं. हम तो एकदम डर ही गये थे। जब हम पढ़ते थेए तब हमारी किसी भी टीचर ने हमें पाठ सोजना बनाकर नहीं पढ़ाया। तो उसके बारे में हमें कुछ पता ही नहीं है।
. हां ट्रेनिंग के समय जो कुछ भी सिखाया.पढ़ाया जाता है यहाँ से जाते समय वह सब यहीं पर छोड़ दिया जाता है। पढ़ाने का काम उसी पुराने ढर्रे पर होता है जो पहले से चला आ रहा है।
. तो फिर ट्रेनिंग में क्यों पढ़ाते हैं ?
. नहीं, आपका सवाल यह नहीं होना चाहिये कि ट्रेनिंग में क्यों पढ़ाते हैं ? सवाल यह होना चाहिये कि स्कूलों में वैसा क्यों नहीं पढ़ाया जाता जैसा पढ़ाने की ट्रेनिंग दी जाती है।
शकुन्तला लज्जित हुईं। सिर झुका लिया. जी सर।
. देखिये ट्रेनिंग में पढ़ाने की उम्दा से उम्दा पद्धतियों और तौर.तरीकों को बताया जाता है। परंतु स्कूलों की लापरवाही के कारण उसे महत्व नहीं दिया जाता। आप पहले तो अपने मन में यह संकल्प लीजिये कि ट्रेनिंग को फालतु की चीज नहीं समझेंगीं। यहां जो सिखाया जायेगाए उसे गंभीरता के साथ सीखेंगीं और जब शिक्षक बनेंगीं तो उस पर अमल भी करेंगीं। अन्यथा हमारा समझाना और आपका समझनाए सब व्यर्थ ही होगा।
शकुन्तला परसाई जी की बातें ध्यान से सुन रही थीं। उनका मुँह देख रही थीं। उन्होंने ऐसी बातें पहले न सुनी थीं। कोई भी पढ़ने.पढ़ाने को इतनी गंभीरता से नहीं लेता। परसाई जी उन्हें एक अलग किस्म के आदमी लगे।
शकुन्तला तिवारी ने कहा. क्या ट्रेनिंग इतनी ज़रूरी होती है पढ़ाने के लिये सर ?
. हां। शिक्षा किसी भी देश के लिये सबसे महत्वपूर्ण विषय होती है। होना चाहिये। इसी के जरिये आप ज्ञान को नयी पीढ़ी तक पहुँचाते हैं। नयी पीढ़ी को तैयार करते हैं। नयी पीढ़ी ही देश का भविष्य बनती है। उसमें से वैज्ञानिक, विद्वान, कलाकार और दार्शनिक निकलते हैं, जो अपने देश को ही नहीं सारी दुनिया को ही गढ़ने का कारम करते हैं। शिक्षक होना, नौकरी करना नहीं है। वह सेना में भरती होने की तरह है। सैनिक नौकरी नहीं करता, प्राणों की बाजी लगाता है। शिक्षक भी नौकरी नहीं करता, पूरा जीवन विद्यार्थियों को तराशने में उत्सर्ग कर देता है। आप तय करो कि आप को क्या करना है ? नौकरी या विद्यार्थियों को तराशने में जीवन.उत्सर्ग ?
वे भौंचक होकर परसाई जी का मुँह देखती रहीं।
परसाई जी उठ खड़े हुए. हमारा कालखण्ड शुरु होने वाला है, हम स्कूल जा रहे हैं। आप जब तय कर लें तो हम आगे भी बात कर सकते हैं।
परसाई जी मुड़े और चल दिये। शकुन्तला उन्हें जाता हुआ देखती रहीं। पूरी लायब्रेरी में सन्नाटा सा छाया हुआ था। बड़ी देर बाद वे भी वहाँ से उठीं। बाहर जाते समय पराँजपे जी ने पूछा. समझ लिया?
. नहीं। अभी बाकी है।
और वे सीढ़ियों से उतरने लगीं।
फिर एक दिन शकुन्तला तिवारी उन्हें खोजती हुई स्कूल ही चली आयीं। परसाई जी उस समय अपनी कक्षा में थे। चपरासी ने एक चिट लाकर दी।
परसाई जी ने चिट को पढ़ कर कहा. उन्हें बैठाओ। पानी वगैरह दो। हम कालखंड पूरा होते ही आते हैं।
कालखंड पूरा हो जाने पर परसाई जी अध्यापक.क़क्ष में पहुंचे। चॉक के चूने से हाथ सने हुए थे। शकुन्तला तिवारी ने कुर्सी से खड़े होकर शिष्टाचार में मुस्कुरा कर कहा. नमस्ते सर !
. नमस्ते शकुन्तला जी ! अभी आया। जरा हाथ धो लूं।
हाथ घोकर वे शकुन्तला जी के पास आये. हां, अब ठीक है। शिक्षक के हाथ जब तक चॉक की ग़र्द में न सनें वह पक्का शिक्षक नहीं हो पाता। जैसे कुम्हार के हाथ मिट्टी में सन कर ही एक शिल्पकार के हाथ बन पाते हैं।
. जी।
. आपने पानी पिया ?
. जी।
. चाय पियेंगी ?
. जी नहीं।
. अच्छा तो बताईये कैसे आना हुआ?
. आपने पिछली बार कहा था कि तय करो कि आप को क्या करना है ? नौकरी या विद्यार्थियों को तराशने में जीवन.उत्सर्ग ?
. हाँ कहा तो था।
. यह भी आपने कहा था सर, कि जब आप तय कर लें तो हम आगे भी बात कर सकते हैं।
. हाँ यह भी कहा था।
. हमने तय कर लिया है सर। हमें नौकरी तो करना है, पर सिर्फ़ नौकरी ही नहीं करना है। विद्यार्थियों को तराशने में अपना जीवन भी उत्सर्ग कर देना है।
परसाई जी हँसे. पक्का?
. जी पक्का।
. फिर ठीक है। हम आगे बात कर सकते हैं। अभी भोजन अवकाश है और उसके बाद वाला कालखंड खेल का हैण्ण्ण्। बच्चे मैदान में होंगे तो कुछ काम की बातें तो की ही जा सकती हैं।
. जी। हमें लैसन.प्लान समझना है। वह क्या होता है? क्यों बनाते हैं? कैसे बनाते हैं?
. हूं।
वे देर तक बातें करते रहे।
नये कालखण्ड के शुरु होने की घंटी बजी। परसाई जी उठ खड़े हुए. अब मेरी कक्षा है।
. जी सर।
वे भी खड़ी हो गयीं। अपना थैला सम्हाला और कहा. क्षमा कीजियेग। हमने आपका बहुत सारा समय ले लिया सर। आपका बहुत धन्यवाद ।
. दो मित्रों के बीच में समय की दीवार नहीं हुआ करतीए शकुंतला जी ।
परसाई जी ने कहा और मुस्कुरा कर अध्यापक कक्ष की तरफ चले गये।
शकुन्तला तिवारी इस नये रिश्ते के अचानक सामने आ जाने पर चकित होकर खड़ी की खड़ी रह गयीं। फिर उनके होंठों पर एक स्वाभाविक और तसल्ली भरी मुस्कान चली आयी। उन्होंने होंठों ही होंठों में कहा. धन्यवाद मित्र.सर ।
परसाई जी कक्षाएं लेते और खाली कालखण्डों में लायब्रेरी चले जाते। वहाँ उनके दो आकर्षण थेए पुस्तकें और पराँजपे जी। पराँजपे जी फूरसत में होतेए तो उनसे दो बातें भी हो जातीं और व्यस्त होते तो नमस्कार के बाद किताबों और पत्रिकाओं में अपना सिर डुबा लेते। कुरते की जेंब में कोरे काग़ज और कलम ज़रूर रहते। जब मन में कोई विचार अथवा बात आती उसे तुरंत नोट कर लेते। किसी के द्वारा कही गयी कोई बात या संवाद भी अगर अनोखा प्रतीत होता तो उसे भी वे दर्ज़ कर लेते।
वे पत्रिका में प्रकाशित हजारी प्रसाद द्विवेदी का कोई लेख पढ़ने में मग्न थेए कि सामने आकर कोई खड़ा हो गया।
वे पढ़ते रहे।
आने वाला धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करता रहा।
वे पढ़ते रहे।
आगंतुक ने अपने दोनों हाथ मेज पर आहिस्ता से रखे। उन हाथों में पहनी गयीं चूड़ियाँ छन्न से नीचे सरकीं। परसाई जी ने पन्ने पर से नज़रें जरा सी उठायीं और मेज पर टिके एक जोड़ा हाथों को देखा। उन हरियल चूड़ियों को देखा। फिर सिर उठाया।
आगंतुक ने उन्हीं हाथों को जोड़ कर लायब्रेरी का ध्यान रखते हुए घीरे से कहा कहा. सर नमस्ते।
. अच्छा, शकुन्तला जी ! नमस्ते.नमस्ते । कहिये कैसी हैं आप ?
. अच्छे हैं सर । आप कैसे हैं ?
. हम भी अच्छे ही हैं ।
. नहीं सर, आप अच्छे नहीं, बहुत अच्छे हैं ।
. अरेए आज यह ष्बहुत अच्छे, वाला उपहार क्यों दे रही हैं आप ?
. यह उपहार तो बहुत दिनों से हमने आपके लिये सजा रखा था पर देने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। आज जुटा ली है तो आपको सौंप दिया ।
. बहुत.बहुत धन्यवाद। बैठिये ।
शकुन्तला तिवारी सामने वाली कुर्सी पर बैठ गयीं।
. उस दिन मित्र कह कर आपने हमारे जीवन को भी एक प्रकार की सरलता दे दीण्ण्ण्। उसकी बहुत सी वक्र रेखाओं को एक ही शब्द से पोंछ दिया। क्या आपको याद है कि वह कौन सा शब्द थाण्ण्ण्घ् शायद न याद हो! वह शब्द था मित्र!
. हां हमें याद है शकुन्तला जी! वह हमने अनजाने में नहीं कह दिया था । हवा में नहीं उछाल दिया था। उस पर हमें पूरी आस्था थी। वह पूरी निष्ठा से कहा गया था। उसमें संकोच न था। दुर्भाव भी न था।
. जी। दुर्भाव होता तो वह कहीं चुभ गया होता । वह सद्भाव था इसलिये आदरपूर्ण लगा । आत्मीय लगा । पुरस्कार भी लगा । आपकी मित्रता का पुरस्कार ।
. जब मानसिक रूप से समानता हो जाये तो मित्रता के द्वार भी खुल जाते हैं। आपने जब अध्यापक बनने की चुनौती को स्वीकारने का संकल्प ले लिया तो आप मित्र हो गयीं। एक जैसी धारणा वाली। एक जैसे संकल्प वाली। एक जैसे सोच वाली । यही एक संबंध है जिसे हम खुद बनाते हैं। बाकी संबंध तो हमें बने.बनाये मिलते हैं। हमें उन्हें निभाना भर पड़ता है। नहीं निभ पाते तो उनकी आँच मंद पड़ जाती है। कभी.कभी बुझ भी जाती है। पर मैत्री का संबंध हमारा अपना बनाया हुआ संबंध होता है। उसकी गढ़़न में हमारे पल.पल लगे होते हैं। साँस.साँस लगी होती है। सोच का रेशा.रेशा आपस में मिल कर मित्रता का चँदोवा तैयार करते हैं। इसलिये मित्रता के रिश्ते की आँच बढ़ती ही जाती है ।
परसाई जी ने क्षण भर चुप रहने के बाद आगे कहा. कभी.कभी हादसा भी हो जाता है। इतने जतन से तैयार किया गया संबंध उसकी चपेट में आ जाता है और सब छिन्न.भिन्न कर देता है। तब संबंध भर नहीं टूटता आदमी भी टूट जाया करता है ।
. सर एक बात कहना चाहते हैं!
. कहिये ।
. आपकी बातें सुनते रहने को जी करता है। लगता है जैसे कोई मीठा झरना फूट रहा हैण्ण्ण्। कोई क्षितिज के पार से बादलों के फाहे उड़ा रहा है। चिलचिलाती धूप के बाद पीपल के पेड़ की सघन छाया मिल रही हो। उसके नये कोमल हरे पत्तों से जो गँध उठती है वैसा महसूस होता है । ऐसा क्यों होता है सर ।
कह कर शकुन्तला जी ने अपने दाहिने हाथ की हथेली मेज पर से उठा कर आगे बढ़ायी। शायद परसाई जी की हथेली पर रख देने के लिये। पर संयोगवश ठीक उसी पल परसाई जी ने अपनी हथेली को मेज पर से उठा कर कहा. पता नहीं ऐसा क्यों होता है ? हो सकता है कि वह भ्रम हो ।
बढ़ी हुई हथेली। अपनी जगह से हट चुकी हथेली। दो हथेलियाँ, दो मुद्राएं। एक हवा में आगे को बढ़ते.बढ़ते ठिठकी हुई। दूसरी हवा में उठ कर कुछ कहती हुई। चेताती हुई। उनके बीच में बीच में अंतराल।
. अरे ओ भाय परयाई जी । लायब्रेरी बंद करने का बखत हुआ ।
पराँजपे जी ने उन दोनों को बातों में निमग्न देख कर काफी देर इंतज़ार करने के बाद ही चेताया था। परसाई जी ने पराँजपे जी की तरफ देखा और कहा. माफ कीजियेगा । ध्यान नहीं रहा ।
. कोई बात नहीं ।
परसाई जी ने शकुन्तला जी से कहा. चलिये ।
. जी ।
वे दोनों लायब्रेरी से बाहर आये।
मुस्कुराये। मौन में कहाए फिर मिलते हैं । और दो भिन्न दिशाओं में मुड़ गये।
परसाई मास्साब साहित्य पढ़ने के चरण से आगे बढ़ कर साहित्य रचने लगे थे। उसका अगला चरण भी हासिल हो गया था, वे छपने लगे थे। प्रसिद्धि मिलने लगी थी। पहचाने जाने लगे थे। प्रहरी पत्र की साहित्यिक मंडली के सदस्य हो गये थे। उनमें तीखा व्यंग्य होता था। विशेष रूप से अपने दो प्रकार के चेहरे रखने वालों के प्रति। उनके व्यंग्य लेखन से राजनेतागण चिढने लगे थे पर परसाई जी को उनकी परवाह न थी।
उस दिन वे शकुन्तला तिवारी की कक्षा के सामने से निकल कर कॉलेज के प्रिसपाल साहब के कक्ष की तरफ चले गये। शकुन्तला जी ने कक्षा के सामने वाले गलियारे से गुजरने वाली उस मनभावन छवि की एक झलक देखी। पूरी तरह नहीं देखी पर हृदय ने गवाही दी कि वही तो हैं। वैसा कुरता.पाजामा धारण करने वाला थैलाधारी स्पेंस कॉलेज और मॉडल स्कूल में और कोई न था।
एक पदचाप आयी और चली गयी। पर शकुन्तला जी के लिये वह झलक और वह पदचाप जैसे वहीं पर ठहरी रह गयी थी। दरवाज़े की चौखट एक पेंटिंग.फ्रेम बन गयी। उस फ्रेम में वह झलक और पदचाप स्थिर हो गयी।
चित्त विचलित होने लगा। पहले पढ़ाने वाले प्राध्यापक दृष्टि.निकष से बाहर हुए, फिर श्याम पट। फिर पूरी कक्षा ही गायब हो गयी और सामने रखी कॉपी और कलम सहित दाहिना हाथ भी ओझल हो गया। सिर्फ़ वे रह गयीं, पेंटिंग रह गयी और एकान्त रह गया। उनके इस आकस्मिक आगमन पर प्रश्न बरसने लगे। मिलने की बेताबी मचलने लगी। उतरी हुई चप्पलों में बार.बार पैर जाने और निकलने लगे। दिल के इलाके में झनझनाहट होने लगी।
ऐसा क्यों होता है, पता नहीं।
कौन सी लहरें आती हैं और जुड़ जाती हैं, पता नहीं।
पाठ.योजना की तरह यह पूर्व निर्धारित नहीं होता, और घटित होने लगता है, क्यों?
समय काटे न कटा। पर वह भी कितना खिंचताए इसलिये घंटी बजी। फ्रेमए फिर से दरवाज़ा हुआ। प्राध्यापक और विद्यार्थी बाहर निकले। शकुन्तला जी बाहर निकलीं। पैर इस तरह से भागेए कि किसी को उनका भागना न दिखे। आँखें दौड़ीं कि किसी को उनका दौड़ना न दिखे।
गलियारे में वे न थे। प्रिसपाल कक्ष में भी न थे। कहाँ चले गये, शायद लायब्रेरी में हों। राह उधर को चली। हवा उधर को बही। मन उधर को आगे.आगे चला। आओ.आओ। चलो.चलो।
सीढ़ियां शिखर हो गयीं। चढ़ना पर्वतारोहण हुआ। प्राण.वायु घटने लगी। साँसें तेज हो चलीं। पाँव चप्पलों को छोड़ कर आगे चले जाने को उद्यत हुए। कॉपियाँ बोझ हुईं। उमंग ने पँख दिये। मिलने की आकांक्षा ने भार हल्का किया। पहाड़ फतह हुआ।
पराँजपे जी अपनी कुर्सी पर बैठे थे, पर वे नहीं दिखे। कुर्सियां और मेजें अपनी जगह पर थीं पर नज़र नहीं आयीं। दिखायी दिये सिर्फ़ वे जिनकी झलक उन्हें खींच कर ले आयी थी। दिखा कि सबसे आख़िरी वाली मेज पर एक मूर्ति शांत भाव से कुछ पढ़ रही थी। दत्त.चित्त।
दिखा कि जादूगर अपने जादू से बेख़बर बन कर बैठा हुआ है। भोलाशंकर।
वशीकरण मंत्र डाल कर चला आया कोई मायावी।
जाल फैला कर चला आया कोई आखेटक।
शकुन्तला जी ने अपने आप को काबू में किया। चाल सहज बनायी। हृदय को थिर किया। एक बनावटी लापरवाही ओढ़ी और आराम से आकर सामने वाली कुर्सी पर यों बैठ गयींए जैसे कि वे भी सहज भाव और उनके वहां पर होने के अज्ञान सहितए लायब्रेरी में चली आयी हों।
परसाई जी ने तिर्यक मुस्कान के साथ उन्हें देखा।
उन्होंने उस अनंत.आनंद से मंडित मुख को देखा और अपनी दोनों आँखें मूंद लींए मानो उस छवि को कै़द कर लेना चाहती हों।
मौन का पुल बना। मौन की भाषा ईजाद हुई। मौन के संवाद बने। आदान.प्रदान हुआ। इधर का सब उधर गया। उधर का सब इधर आ गया। आँखें खुलीं। आँखें जुड़ीं। आंखों की भाषा का वितान तना।
क्योंजी आज बेवक़्त ही क्यों ?
आपसे मिलने का जी हुआ इसलिये।
हमारा तो दिल ही धड़.धड़ करने लगा था।
क्यों इसमें नया क्या है! धड़कना उसका संकल्प है।
वैसे नहीं अजीब तरीके से।
क्यों ?
बात जरा अलग थी न । आप इस तरह तो नहीं आते न। विश्वास नहीं हो रहा था कि आप आये हैं।
विश्वास करो। चाहो तो छूकर देख लो।
छिः। निर्लज्ज कहीं के।
छिः। लज्जा भी कोई अच्छी चीज है !
. कैसी हो कुन्तल ?
मौन का पुल टूटा। मलबा नद में गिरा छप्प.छपाक्।
. वैसी ही जैसी कल थी ।
आँखों की मछलियां किलोलें करने लगीं।
. पर हमें तो रोज़ ही नयी लगा करती हो । कल से अलग।
. हमें भी।
. हमें भी क्या ?
. आप नये लगा करते हैं। आज कुछ ज्यादा ही !
. क्योंकि आज एक नयी बात है !
. क्या कोई नयी कहानी छपी है?
. नहीं।
. तो !
. सोचो? क्या हो सकता है ?
. प्रमोशन हुआ है !
. नहीं।
. बहनों की चिट्ठी आयी होगी ।
. नहीं।
. तो.तो.तो ! आप ही बताईये ना हम अंदाज़ नहीं लगा पा रहे अब ।
. बताएं ?
. हां बाबा बताईये ना अब और सहन नहीं हो रहा है।
. हमारी कहानियों का एक संकलन छपने वाला है ।
. सच् ?
. पूरा सच्।
. यह तो बहुत अच्छी ख़बर है । ख़ुशख़बर। हम ना कहते थे कि एक दिन आप लेखक बनेंगे । वो समय आ गया है ।
. और अभी लेखक नहीं हैं क्या ?
. हमारा मतलब है कि बड़े लेखक माने जाएंगे । कब तक आ जायेगी ?
. महीने भर में ।
. ओह! पहली पुस्तक हम लेंगे। सबसे पहले हम पढ़ेंगे । फिर सबको पढ़ायेंगे । कहेंगे कि ये देखो हमारे हमारे
. हमारे क्या ?
. हमारे सर की किताब ।
. अभी भी सर ?
. हमारे हरि बाबू की किताब ।
. हम बाबू नहीं हैं ।
शकुन्तला लजायीं। धीमें से कहा. हमारे हरि की किताब।
. अब ठीक है। तुम्हारे हरि की किताब।
. वाह अब लायब्रेरी में एक किताब ऐसी भी होगी, हम जिसे देखने रोज़ आया करेंगे ।
. सिर्फ़ देखने ?
. नहींए छूने भीण्ण्ण्।
. सिर्फ़ छूनेण्ण्ण्?
. नहीं पढ़ने भी ।
. सिर्फ़ पढ़ने ?
. नहीं महसूस भी करने।
. हाँ असल बात यही है महसूस करना। किताब को। कहानी को। अक्षरों को। भाव को। संकेत को।
. और लेखक को भी ।
. शायद !
. शायद नहीं पक्का।
परसाई जी निहाल होने वाली खामोशी से उन्हें देखते रहे।
. आज आपको समोसे खिलाना पड़ेंगे ।
. चलो । क्लास तो नहीं है ?
. जब यूनिवर्सिटी ही साथ में हो तो क्लास का क्या काम ?
. तो फिर चलो।
वे दोनों उठे। उन्होंने एक.दूसरे के हाथ नहीं थामे पर एक.दूसरे पर अवलम्बित होकर चले। पैर, पैर के साथ हुए। कदम, कदम की लंबाई भर लंबे हुए। चाल की यकसां लय बनी। हृदयों में संसार को पा लेने का भाव हलचल मचाने लगा।
वे पराँजपे जी के सामने से निकले।
पराँजपे जी ने उन्हें देखा।
उन्होंने पराँजपे जी को नहीं देखा।
पराँजपे जी ने चश्मे के फ्रेम के बाहर आँखें उठा कर उन्हें देखा। देखा और मुस्कुराये।
ऽ
फिर एक दिन जब परसाई जी इसी तरह घूमते.फिरते लायब्रेरी पहुंचे तो पराँजपे जी ने आँखों से इशारा किया. उधर कोई आपके इंतजार मय हय ।
परसाई जी ने वाचनालय कक्ष की ओर देखा कि शकुन्तला जी आख़िरी वाली मेज पर बैठी कुछ पढ़ रही हैं। वे उसी तरफ चले गये। जाकर सामने खड़े हुए। शकुन्तला जी ने सिर उठा कर उन्हें देखा। परसाई जी ने थैले से किताब निकाली और दोनों हाथों में रख कर उनकी तरफ बढ़ा दी।
किताब देखते ही वे किलक पड़ीं. अरे आ गयी !
जल्दी से किताब ली। धन्यवाद नहीं कहा। कहने की आवश्यकता न थी। कव्हर देखा। शीर्षक पढ़ा बोल कर हँसते हैं रोते हैं । परसाई जी की तरफ देखा. जैसे हम सभी कभी हँसते हैं और कभी रोते हैं ।
. रोने से हँसने का और हँसने से रोने के महत्व का पता चलता है। जैसे गर्मी की तपन में पहली बारिश का और कंपकंपाती ठंड में सूर्यताप का ।
पहला पन्ना पलटा। लिखावट पर नज़रें ठहरीं ष्प्रिय कुन्तल के लिये पहली प्रति।’ वाक्य दोहराया। परसाई जी को देखा। वे स्मित मुस्कान के साथ उन्हें ही देख रहे थे।
वे विव्हल हो गयीं। आंखों से विव्हलता छलकी।
लिखे हुए पर दाहिने हाथ की पहली अंगुली हल्के.हल्के फिरायी। इधर से उधर। उधर से इधर। ष्प्रिय’ पर अंगुली स्थिर की। निगाहें उठा कर परसाई जी की आँखों में झांखा।
परसाई जी ने स्वीकार में गर्दन को हल्का सा झुकाया।
वे निहाल हुईं।
आँखों को भींच लिया। किताब को दोनों हाथों से जकड़ लिया। जकड़े रहीं।
पल बीतते रहे। क्षण गुजरते रहे।
परसाई जी हौले से सामने वाली कुर्सी पर बैठ गये। अपने दोनों हाथों को उनके हाथों पर धर दिया। संचार जारी हो गया। संदेश दौड़ने लगे।
क्या यह सच है ?
हां यही सच है !
इतने विलम्ब से ?
सच कोए सच बनने में समय लगता है !
कृतज्ञ हुई !
कृतज्ञता कैसी ?
जीवन में जगह देने की !
दी ही नहीं पायी भी तो है!
हम तो कब से द्वार पर खड़े थे !
और हम इस तरफ तुम्हारे लिये जगह बना रहे थे ।
आह! रुके रहो समय ! घूमती न रहो धरती ! सूर्य के घोड़ो दौड़ते ही न रहो ! थोड़ा विश्राम करो ।
परसाई जी ने अपने हाथों से उन हाथों को हल्का सा दबा कर आश्वस्ति दी और अपने हाथ खिसका लिये। संचार खंडित हुआ। अनकहे संदेशों का आदान.प्रदान टूट गया। वे संसार में लौटे।
शकुन्तला जी ने कहा. बधाई हो ।
. धन्यवाद ।
. हमें कुछ किताबें चाहिये हम अपनी सहेलियों को देंगे ।
. ऐसे ही बिन पैसे में ?
. और क्या । आपकी किताब है चार लोगों को पता तो चले कि आप कितने बड़े लेखक हैं!
. मुफ्त में ? भई बड़े लेखक की किताब मुफ्त में नहीं मिलती । यह तो लेखक के श्रम और उसकी प्रतिभा का शोषण हुआ न !
. हां यह तो है ।
. क्या आपकी सहेलियां एक किताब के बदले डेढ़ रुपये नहीं खर्च कर सकतीं ?
. कर सकती हैं ।
. तो खर्च कराओ । खरीदी हुई किताब को पढ़ने में ज्यादा चाव रहता है ।
. ठीक है करायेंगे । तब तो हमें भी डेढ़ रुपये देने चाहिये !
. हां पर आपने पहले पन्ने पर लिखा हुआ नहीं पढ़ा क्या ?
. पढ़ा है ।
. तो यह हमारी ओर से आपको भेंट है ।
. सिर्फ़ भेंट नहीं अमूल्य भेंट है । जिसकी कीमत नहीं चुकायी जा सकती ।
. चुकायी जा सकती है ।
. कैसे ?
. अगर आपके टिफिन में बेसन का एक लड्डू अब भी बचा हो तो ।
. ओ मां ! शकुन्तला जी ने जीभ को दाँतों से दबाया. हम तो भूल ही गये । एक नहीं दो.तीन लड्डू खा सकते हैं आप । हम खास करके आपके लिये ही लेकर आये हैं ।
. एक ही बहुत है । एक पराँजपे जी को दे आईये ।
शकुन्तला जी ने टिफिन खोल कर एक लड्डू परसाई जी को दिया। दूसरा पराँजपे जी को दे आयीं।
. बहुत अच्छा बना है । मिठास है । आपके हाथों में जादू है ।
शकुन्तला जी ने अपने दोनों हाथों को परसाई जी के सामने फैला करए उन्हें उलट.पलट कर देखते हुए कहा. आप कह रहे हैं कि हमारे हाथों में जादू है !
. हां है ।
. अगर इनमें जादू है तो हम यही चाहते हैं कि यह जादू आपके जीवन में मिठास पैदा करने के काम आ सके ।
परसाई जी ने आधे लड्डू को गौर से देखते हुएए इस तरह कहा जैसे वे लड्डू से बात कर रहे हों. आपका जादू अपना काम करना शुरु कर चुका है ।
. अच्छा ! काम करना शुरु भी कर चुका है ! कैसे ?
. हम उसे महसूस कर रहे हैं ।
. हमें भी तो बताईये ।
. बताना असंभव है महसूस करने की बात है । क्या आप अपने जीवन में मिठास अनुभव नहीं करतीं?
. बहुत ज्यादा ।
. क्यों बता सकती हैं?
. हां।
. बताईये ।
. आपने जिस दिन हमें अपना मित्र कहा था उस दिन पहली बार हमने जीवन में आने वाली मिठास का अनुभव किया था ।
परसाई जी ने आधे बचे लड्डू का आधा हिस्सा खाया. हूँ।
. हर बार आपसे मिलने के बाद वह बढ़ती जाती है ।
. अच्छा !
. अंदर भरा.भरा सा लगता है !
……..
. जैसे रीती हुई गागर पानी से भर गयी हो !
…….
. जैसे संसार की सबसे बड़ी दौलत पा ली हो !
…….
. जैसे पाने को अब कुछ भी शेष न बचा हो !
…..
. आप चुप क्यों हो गये क्या हम पर विश्वास नहीं होता ?
परसाई जी ने बचा हुआ लड्डू खाया. सिर्फ़ तुम्हीं पर विश्वास होता है ।
. विश्वास है तो उसका प्रतिफल भी होगा !
. हाँ होगा !
…….
परसाई जी ने रूमाल से हाथ पोंछे। शकुन्तला जी की छागल से पानी पिया। उन्हें भरपूर निगाहों से देखा। हाथ बढ़ाया। शकुन्तला जी के बायें हाथ की हथेली को खोला। उस पर अपना दाहिना हाथ रखा। अँगुलियों से हथेली गस ली। बदले में शकुन्तला जी की आँखें मुंद गयीं। उनकी अँगुलियों ने भी परसाई जी की हथेली को गस लिया।
दोनों हाथों ने मिल कर वैसा ही चित्र बना दिया जैसा विवाह के आमंत्रण पत्रों पर बना रहता है।
क्षण बीत चले।
बीतते रहे।
ऽ
शकुन्तला जी अपना प्रशिक्षण पूरा कर चुकी थीं। जबलपुर के ही एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने लगी थींए पर लायब्रेरी जाना न छोड़ा था। अक्सर शनिवार को आधी छुट्टी के बाद वे स्पेंस कॉलेज की लायब्रेरी चली जाया करतीं। वहां जाने के पीछे दो लालसायें होतींए एक तो यह कि नयी पत्रिकायें पढ़ने मिलेंगी और दूसरी यह कि शायद परसाई जी वहां मिल जायें। परसाई जी जानते थे कि वे शनिवार को, बाद का आधा दिन लायब्रेरी में बिताती हैं तो वे भी लायब्रेरी का चक्कर लगा लिया करते थे।
उनके आने से ही पराँजपे जी जानते थे कि आज शनिवार होगा। वह शनिवार का जोड़ा था। उन्हें सबसे पीछे वाली मेज पर बैठ कर बतियाते हुए देख कर पराँजपे जी दत्त भगवान से मन ही मन प्रार्थना किया करते हैं कि इस जोड़े को शनि महराज से दूर ही रखना प्रभु।
पर तीन.चार शनिवार निकल गये थे और परसाई जी लायब्रेरी नहीं आये। उनकी कोई ख़बर तक न मिली थी। पाँचवें शनिवार को पराँजपे जी से ही शकुन्तला जी को सूचना मिली कि परसाई जी के बहनोई साहब कोई महीने भर पहले परलोक गमन कर गये हैं। परसाई जी उन्हीं के यहाँ बाहर गाँव गये थे। पंद्रह.बीस दिन वहां रह कर कुछ दिनों पहले ही लौटे हैं।
अपने हरि बाबू के घर पर आये शोक की बात सुनने के बाद फिर उस दिन वे लायब्रेरी में पल भर भी नहीं ठहरीं। जल्दी.जल्दी सीढ़ियाँ उतरीं और रोज़ की तुलना में जरा तेज साईकिल चला कर अपने घर आमनपुर पहुंचीं। बैग एक तरफ फेंका। हाथ.मुंह घोया। दूसरा श्वेत परिधान धारण किया। चश्मे को साड़ी के छोर से पोंछा। उसे आँखों पर चढ़ाया और साईकिल से लक्ष्मीबाग की तरफ चल दीं।
परसाई जी लक्ष्मीबाग में कहाँ पर रहते हैं पराँजपे जी ने बताया तो था पर वह उन्हें पूरी तरह से समझ में नहीं आया था। बावजूद इसके वे लक्ष्मीबाग इलाके में पहुँच कर परसाई जी का पता पूछते.पूछते उनके नये घर तक पहुंच ही गयीं।
दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा सीता बहन जी ने खोला। एक अचीन्ही लड़की को देख कर कुछ अचंभित हुईं और कहा. आईये ।
लड़की ने कहा. हरि बाबू का घर यही है न ?
. हां यही है। अंदर आ जाओ ।
वे अदर आ गयीं. आप उनकी सीता बहन जी हैं न ?
. हाँ ।
. हरि बाबू ने हमें बताया था । वे आपके बारे में आपकी बहन हन्ना जी के बारे में और रूक्मिणी बहनजी के बारे में भी हमें बताते रहते हैं ।
. अच्छा । पर आप ?
. हम शकुन्तला तिवारी हैं । हम स्पेंस कॉलेज में पढ़ते थे । टीचर ट्रेनिंग कर रहे थे । हमें कक्षा में पढ़ाने के लिये मॉडल स्कूल जाना पड़ता था । वहीं पर हरि बाबू से भेंट हुई थी । उन्होंने हमें पढ़ाना सिखाया है। अब हम सदर के एक सरकारी स्कूल में टीचर हैं । हरि बाबू नहीं हैं क्या ?
. नहीं। कुछ देर पहले ही गये हैं । कह रहे थे कि प्रहरी कार्यालय की तरफ जा रहे हैं ।
. अच्छा ।
. हम आपके लिये चाय बना कर लाते हैं ।
. नहीं बहनजी। चाय रहने दीजिये । हमें आज ही पता चला । हमें तो हरि बाबू के घर का ठीक से पता भी मालुम न था । बस यही जानते थे कि लक्ष्मीबाग में कहीं रहने लगे हैं । बस पूछते.पूछते आ गये ।
सीता बहनजी को वह लड़की पहली ही नज़र में भली लगी। सुंदर। शिष्ट। शालीन। उन्होंने पाया कि उसका बातें करने का ढंग जरा निराला ही है। कहन.शैली में बहुत आत्मीयता है। खुले दिल से बात कर रही है। बनावट नहीं है। उन्हें ऐसा लगा जैसे उससे सालों पहले की पहचान हो। सीता बहनजी उसके करीब ही बैठ गयीं। पूछा कि वह कहाँ रहती है, उसके घर में और कौन.कौन है, वह कब स्कूल जाती है और घर कब लौटती है, आगे क्या इरादा हैघ् बहुत सी बातें। नितांत घरेलु बातें भी। यहां तक कि बरी, अचार और पापड़ों की बातें भी उन्होंने कीं।
जब वे जाने लगीं तो सीता बहनजी ने उनका हाथ पकड़ कर बैठा लिया. बेठो शकुन्तला । हमने भी चाय नहीं पी है । बनाते हैं । पर?
. पर क्या बहनजी ?
. गुड़ वाली चाय पी लोगी?
. हां क्यों नहीं ? वह तो बहुत ही अच्छी होती है ।
सीता बहनजी चाय बनाने में लगीं तो शकुन्तला जी ने नन्हे विद्याभूषण से बातें शुरु कर दीं। तीन साल का बच्चा उनका मुँह ही देखता रहा। देखता और मुस्कुराता रहा। सबसे छोटी बच्ची साधना सो रही थी। राजकुमार और प्रकाश अपने स्कूल से आकर खेलने चले गये थे।
उन दोनों ने गुड़ वाली चाय पी। पीते हुए बातों की नयी खेप शुरु हो गयी। प्याला रख कर शकुन्तला जी ने कहा. अब हम जायें बहनजी । अंधेरा होने वाला है । रस्ता जरा वीरान सा है। ठंड के दिनों में दिन जल्दी डूब जाते हैं ।
. हां अंधेरा होने से पहले घर चली जाओ पर देखो आते रहना !
. जी आते रहेंगे ।
शकुन्तला जी बाहर निकलीं अपनी साईकिल उठाने ही वाली थीं कि बहनजी ने मुस्कुरा कर कहा. शकुन्तला!
. जी बहनजी !
. सुनो !
शकुन्तला वापस लौटीं। सीता बहन ने उनके मुख को गौर से देख कर प्रश्न किया. ये तो बताओ तुम्हें अब तक तुम्हारा दुष्यंत मिला कि नहीं ?
शकुन्तला जी लजा गयीं।
सिर नीचा करके मुस्कुरायीं और जल्दी से जाकर साईकिल उठायी। पैडल पर पाँव रखा। पाँव फिसल गया।
सीता बहन ने कहा. सम्हल के ।
. जी।
वे बिना पीछे मुड़ कर देखे अपनी साईकिल पर बैठ कर चली गयीं।
सोमवार के दिन परसाई जी शकुन्तला जी के स्कूल उस समय पहुंचे, जबकि आधी छुट्टी होने ही वाली थी। शिक्षिकाओं के बैठने के कक्ष के सामने ही खड़े होकर उनके आने का इंतज़ार करने लगे। दो.चार मिनट बाद ही वे एक अन्य शिक्षिका के साथ बातें करते हुए आराम से आती हुई दिखीं। उनकी नज़र भी पड़ी। वे परसाई जी को अपने स्कूल में देख कर चकित भी हुईं और आनंदित भी। साथिन शिक्षिका का साथ छोड़कर तेजी से चल कर परसाई जी के पास पहुंचीं. हरि बाबू आप !
परसाई जी ने मुस्कुरा कर कहा. हां हमण्ण्ण्। क्या तुम आधे दिन की छुट्टी ले सकती हो ?
. हाँ, पर क्यों ? क्या बात है ?
. ऐसे ही। कहीं चल कर बातें करेंगे ।
. तो हम बड़ी बहनजी से बात कर के अभी आते हैं ।
शकुन्तला जी ने शिक्षिका कक्ष में जाकर पुस्तक और चॉक वगैरह रखी। वे भागती हुई सी बड़ी बहनजी के कक्ष में गयीं। दो मिनट बाद लौट कर आयीं और कहा. चलिये।
स्कूल की इमारत के सामने खड़ी अपनी साईकिल उठा कर वे साथ.साथ चलने लगीं। स्कूल के सामने ही खेल का सार्वजनिक और बड़ा सा मैदान था। परसाई जी ने कहा. चलोए वहां मैदान की किनारे वाली घास पर बैठते हैं ।
. चलिये ।
शकुन्तला जी को आज परसाई जी का व्यवहार जरा अलग सा लग रहा थाए पर वे खामोशी के साथ उनका अनुगमन कर रही थीं। सोचा हो सकता है कि बहनोई की मृत्यु के कारण बेचैन होंगे।
वे दोनों मैदान में प्रविष्ठ हुए। बच्चों का एक दल फुटबॉल खेल रहा था। वे मैदान के उस कोने में जहां एक छोटा सा मंदिर भी बना थाए घास की हरी दरी पर बैठ गये। शकुन्तला जी ने वहीं अपनी साईकिल खड़ी की और वे भी बाजू में बैठ गयीं।
शकुन्तला जी को दूसरी प्रतीति भी हुई हरि बाबू शायद आज वह कहने वाले होंए जिसे सुनने के लिये उनका मन उसी दिन से उत्कंठित हो चला थाए जिस दिन उन्होंने उनका हाथए अपने हाथ में थाम लिया था।
. कैसी हैं शकुन्तला जी?
शकुन्तला जी ने अचरज से उन्हें देखा। कान ष्कुन्तल’ संबोधन सुनने के आदी हो चले थे। वह संबोधन उन्हें एक नयी और निजी पहचान प्रदान करता है। वे कभी परसाई सर की शकुन्तला जी रही होंगीए पर अब तो वे अपने हरि बाबू की कुन्तल हो चुकी थीं। फिर वापस शकुन्तला जी क्यों संबोधित कर रहे हैं हरि बाबू ?
. अच्छी हूं हरि बाबू ! आपके बहनोई साहब के बारे में पराँजपे जी से सुना था इसीलिये हम आपके घर गये थे। बहनजी मिली थीं। वे बहुत अच्छी हैं ।
. आप भी उन्हें अच्छी लगीं । हमसे कह रही थीं ।
कानों पर दूसरी चोट लगी आप ?
. हमने उनसे आम का खट्मिट्ठा अचार डालने का तरीका जाना। इस साल गर्मियों में जब आम आयेंगे तो हम अचार बनायेंगे ।
. अच्छा ।
परसाई जी आसमान देखने लगे। जनवरी महीने का सूरज मंद हो चला था। बगुलों की एक पाँत ने मंदिर के पेड़ पर आकर विश्राम पाया। मंदिर के अंदर किसी ने घँटा बजाया। परसाई जी के मन में कुछ और चेहरे पर कुछ और चलता रहा। जो कहना चाहते थे उसे कहें कि न कहें का असमंजस उन पर तारी था।
. आप कुछ बातें करना चाहते थे !
. हां कर भी रहे हैं । वे हंसे. बहुत दिनों से मिले न थे इसलिये सोचा आज आपसे मिलें ।
शकुन्तला जी ने अपने दोनों घुटनों पर ठुड्डी को टिका कर धीमे से कहा. हम भी आपकी राह देखते रहते थे। लगता था आज नहीं आये तो कल आयेंगे । हम शनिवार के दिन लायब्रेरी जाकर बैठे रहते थे । लायब्रेरी का दरवाजा देखते रहते थे। हर आहट पर लगता था कि आप आये होंगे ।
. हमें अचानक जाना पड़ा। रात को ख़बर मिली थी और तुरंत ही हम बैतूल चल दिये थे। वहां सोलह.सत्रह दिन लग गये । लौट कर आये तो नया मकान लिया। सामान रखवाया। घर व्यवस्थित किया। बहन के बच्चों के नाम स्कूल में लिखवाये। इसी सब में समय जाता रहा ।
. हां ऐसे में समय तो लगता ही है ।
परसाई जी ने अपने दोनों हाथ पीछे कि तरफ फैला कर आराम वाली मुद्रा बनायी। बच्चों की बॉल उनकी तरफ आयी। उन्होंने उसे पैर मार कर बच्चों की ओर धकेल दिया। खामोशी लंबी होने लगी।
. हमने आपकी किताब पूरी पढ़ ली ।
. अरे इतनी जल्दी ?
. दो.तीन बार पढ़ डाली ।
. कैसी लगी ?
. खूब अच्छी। ऐसी कहानियाँ पहले नहीं पढ़ी थीं। पढ़ कर लगता है जैसे वे हमारे आसपास की कहानियाँ होंण्ण्ण्। हम उन बातों को जानते हैं । वैसी घटनायें देखी हैं । सब जाना.पहचाना सा है ।
. यही कहानियाँ असली होती हैं । वे कल्पना की नहीं जीवन की कहानियाँ हैं। कहानी वही हो सकती है जो आपको छू लेंण्ण्ण्। आप अपने आपको उनमें देखने लगें । जिसमें जीवन का सत्य अभिव्यक्त हो ।
परसाई जी देर तक साहित्य के सौंदर्य पर बोलते रहे। शकुन्तला जी टकटकी लगा कर उन्हें देखती रहीं। सुनती रहीं। स्कूल की पूरी छुट्टी हुई। लड़कियों की भीड़ बाहर निकली। शोर.शराबा हुआ। शकुन्तला जी चौंकीं. साढ़े चार बज गये ।
. चलो अब चला जाये ।
. नहीं.नहीं हमारा कहने का यह मतलब न था । जब तक चाहें हम बैठ सकते हैं । हमें घर जाने की जल्दी नहीं है ।
. नहीं शाम हो गयी है । आपको जाना चाहिये । शनिवार को लायब्रेरी में मिलेंगे ।
शकुन्तला जी ने हल्की उदासी के साथ कहा. अच्छा ।
वे साथ.साथ मैदान से बाहर सड़क पर आये फिर हाथ हिलाकर विदा ली और अलग रास्तों पर मुड़ गये। शकुन्तला जी की साईकिल, साईकिलों की भीड़ में धंस करए खो गयी। अदृश्य हो गयी।
अंदर वाले परसाई ने कहा, नहीं कह पाये न जो कहने आये थे !
हां नहीं कह पाये।
हिम्मत नहीं पड़ी ।
इसमें हिम्मत की क्या बात है । बाद में कह लेंगे ।
जो भी कहना.करना सोच.समझ कर करना ।
हमें तुमसे समझने की ज़रूरत नहीं है।
न रहे पर हम कहे दे रहे हैं । पहले दस बार सोच लेना ।
सोच लेंगे।
परसाई जी एक साईकिल वाले से भिड़ते.भिड़ते बचे। उसने कहा. भईया जरा देख के चलो ।
परसाई जी ने कहा. माफ करना भाई।
वह हैंडिल घुमा कर चला गया।
शकुन्तला जी हर शनिवार लायब्रेरी जाती रहीं पर उन्हें उनके हरि बाबू नहीं मिले। कई बार मन किया कि उनके घर जाकर पता लगायें कि क्या बात है कहीं वे बीमार न पड़ गये होंण्ण्ण्! पर संकोचवश नहीं गयीं कि उनकी बहन क्या सोचेंगीं। अपने आप पर काबू रख पाना जब संभव न हुआ तब वे एक इतवार को उनके घर जा पहुंचीं।
बहनजी ने स्वागत किया. अरे आओ शकुन्तला ।
वे अंदर गयीं। देखा परसाई जी पलंग पर बैठे कुछ पढ़ रहे हैं। स्वस्थ हैं। चैन की सांस ली। नमस्कार की। परसाई जी ने मुस्कुरा कर जवाब दिया और पूछा. कैसी हैं शकुन्तला जी !
. पहले जैसे ही हैं हम ।
परसाई जी ने कहे हुए का मतलब निकाला कि वे तो अपरिवर्तित ही हैं और खुद परसाई जी अब बदल से गये हैं। उन्होंने मन में कहाए हां हम बदल गये हैं कुन्तल। तुमसे कहने की हिम्मत नहीं हो पा रही है। पर शायद किसी दिन तुम समझ सको।
शकुन्तला जी मुन्नी के लिये फुग्गों की थैली लेकर आयी थीं। उसे देकर कहा. मुन्नी यह तुम्हारे लिये । लो फुग्गे फुलाओ ।
मुन्नी फुग्गे पाकर खुश हो गयी। उसने कागज की थैली ले ली और फुग्गे फुलाने में जुट गयी। नहीं फुला पायी तो परसाई जी से फुलाने के लिये कहा। परसाई जी ने फुला कर फुग्गे की गर्दन में एक गाँठ लगा कर फुग्गा मुन्नी के हवाले कर दिया। तब मुन्नी ने उन्हें दूसरा फुग्गा फुलाने का काम दे दिया। परसाई जी पढ़ना छोड़ कर फुग्गे फुलाने में लग गये।
शकुन्तला जीए सीता बहन के पास रसोईघर के निकट ही बैठ गयीं और उनसे बातें करती रहीं। बहनजी बीच.बीच में परसाई जी को कनखियों से देखती जा रही थीं। परसाई जी पढ़ने में निमग्न रहे। निमग्न लगेए पर निमग्न न थे। उनके कान उसी तरफ लगे हुए थे। सीता बहनजी जानती थीं कि शकुन्तला उनसे नहीं उनके भाई से मिलने आयी हैं तो उन्होंने कहा. चलोए अपन चाय भैया के पास बैठ कर पीते हैं ।
. जी।
बहनजी तीन प्याले लेकर परसाई जी के पलंग के पास आ गयीं। एक प्याला उन्हें पकड़ाया दूसरा शकुन्तला जी को और एक प्याला खुद लेकर कुर्सियों पर बैठ गयीं। फिर बहनजी ने उन्हें एकांत देने के लिये एकाएक कहा. अरे बिस्कुट तो हम लाना ही भूल गये । अभी आयी ।
वे चली गयीं और अपनी ओर से रसोईघर में जितनी देर लगा सकती थीं लगाती रहीं।
. आपने तो लायब्रेरी आना ही छोड़ दिया !
. क्या करें शकुन्तला जी फुरसत ही नहीं मिलती ।
ष्शकुन्तला जी’ संबोधन पर उन्होंने चकित होकर परसाई जी को निहारा. हम तो हर शनिवार वहाँ जाकर राह देखा करते हैं ।
. चलो ऐसा करते हैं कि इस शनिवार को वहीं मिलते हैं ।
. पक्का ?
. हां बिल्कुल पक्का ।
शकुन्तला जी आश्वस्त हुईं। चाय पी। बिस्कुट खायी और सबको नमस्कार कर चल दीं।
मुन्नी ने कहा. दीदी औल आना ।
. ज़रूर आयेंगे अच्छा !
शनिवार को परसाई जी ने दोपहर बाद रिक्शे पर बैठकर लायब्रेरी की राह पकड़ी। परसाई जी ने देखा शकुन्तला जी बेचैनी के साथ एक पत्रिका के पन्ने जल्दी.जल्दी पलटा रही थीं।
परसाई जी उनकी तरफ बढ़ गये। जाकर मेज के सामने खड़े हुए।
. आईये बैठिये ।
परसाई जी बैठ गये। शकुन्तला जी ने अपने बैग में से एक डब्बा निकालते हुए कहा. आपके लिये बेसन के लड्डू ।
. अरे वाह आप भूलीं नहीं ?
. हमें भूलने की बीमारी नहीं है । जिन्हें है उन्हें अपना इलाज कराना चाहिये ।
. वाह लड्डू तो जोरदार बने हैं । भई आपके हाथों का जादू बढ़ता ही जा रहा है । मजा आ गया । मीठा जरा ज्यादा हो गया है । पर वह आपका हाथ लग जाने से हुआ होगा । शक्कर का उसमें कोई दोष नहीं है ।
शकुन्तला जी हँसने लगीं. आपसे कोई गुस्सा भी नहीं रह सकता ।
. अरे तो आप हमसे गुस्सा हैं क्या ?
. थे । पर अब नहीं हैं ।
. अरे हमें तो पता ही नहीं था नही तो हम आपका गुस्सा मेन्टेन करते ! और मेंटेनेंस चार्ज के तौर पर एक और लड़्डू वसूलते ।
. आपके लिये दूसरा लड़्डू भी है और मुन्नी के लिये भी डिब्बे में चार लड़्डू हैं । आप लेते जाना ।
. हमारे लिये दो और मुन्नी के लिये चार ?
. चार इसलिये कि उसने कहा था औल आना दीदी । आपने नहीं कहा।
परसाई जी ने गंभीर होकर कहा. हाँ हमने नहीं कहा क्योंकि हम नहीं कह सकते ।
. नहीं कह सकते मतलब !
. हम आज आपसे ऐसी बात कहने वाले हैं जो बहुत कड़वी होगी । पहले भी उस दिन हम कह देने के लिये ही आये थे पर कह नहीं सके । कड़वी बातें कहने के लिये बहुत साहस लगता है ।
शकुन्तला जी के चेहरे पर आशंकाएं बरसने लगीं।
. हम आपके बहुत कृतज्ञ हैं कि आपने हमें अपना प्रेम दिया ।
शकुन्तला जी के चेहरे पर एक काली छाया और बढ़ गयी।
. हमने बहुत सोचा । बहुत सोचा हमने कुन्तल । तरह.तरह से सोचा ।
एक काली छाया और बढ़ी।
. फिर तय किया । तय किया कि !
परसाई जी ने सीधे उनकी आँखों में देखते हुए कहा. तय किया कि हम विवाह नहीं कर सकते ।
शकुन्तला जी के चेहरे पर काले बादलों का घटाटोप बरस पड़ा. क्यों ?
. हमारी आर्थिक दशा ऐसी नहीं है कि हम दो परिवारों का निर्वाह कर सकें । सीता बहन के परिवार को हम अपने साथ ले आये हैं। उनके चार बच्चे हैं । उन्हें लिखाना.पढ़ाना है । अपने पैरों पर खड़ा करना हैण्ण्ण्। अभी जबकि खर्चे जरा कम ही हैं हम उन्हें भी पूरा नहीं कर पा रहे हैं । और खर्चे तो अब हर दिन बढ़ते ही जाना है ।
. हम भी तो कमाते हैं । मिल कर घर चलायेंगे ।
. हां आज चला सकते हैं पर कल ?
. कल क्या हो जायेगा ?
. कल हमारे बच्चे होंगे ।
. तो ?
. हमारा ध्यान बंट जायेगा। हम पक्षपाती हो जायेंगे। अन्याय करने लगेंगे। दो परिवारों के बच्चों का पालन.पोषण संभव न होगा ।
. आपने सब अकेले ही सोच लिया !
. बहन के परिवार को साथ ले आने का निर्णय भी तो हमने ही किया था तो हमें ही उसके बारे में सोचना था ।
शकुन्तला जी की आँखों से आंसू टपके. आपके सोचने में हम कहीं न थे !
. थीं। हमेशा थीं। अब भी हैं। इसीलिये तो कह नहीं पा रहे थे । इसीलिये तो आपसे मिलने से कतरा रहे थे।
. आपने सब नकारात्मक ही सोचा है, कुछ सकारात्मक भी तो सोचिये । एक की बजाय हम दो लोग उस जिम्मेदारी को ज्यादा अच्छे तरीके से पूरा कर सकते हैं ।
. सोचा था। ऐसा भी सोचा था । फिर यह भी सोचा कि हम आपको भी अपनी मुसीबतों में क्यों घसीट लायें?
. आपकी मुसीबतें और हमारी मुसीबतें अलग.अलग नहीं हैं ।
. वे भावनात्मक रूप से चाहे अलग न हों, पर व्यवहारिक रूप से तो अलग ही हैं । हम सब आप पर बोझ क्यों बनें? हम इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हैं? आपको जीवन की खुशियां दे नहीं सकते फिर उसमें काँटे बो देने का हमें क्या अधिकार है ?
. जिन्हें आप काँटे कह रहे हैं वे हमारे लिये फूल होंगे। हमारे सुख एक हो सकते हैं तो हमारे दुख एक क्यों नहीं हो सकते ?
. केवल हम दोनों ही होते तो हो सकते थे। जब हम दोनों पहली बार मिले थे, तब हमारे सुख.दुख एक होंगे वाले भाव से ही मिले थे । पर अब स्थितियां बदल चुकी हैं । तब बहन अपने घर में सुख से रह रही थीं। उनका परिवार था। वह मजे से चल रहा था । अब नहीं रहा। बहनोई चले गये हैं । बहन विधवा हो गयीं हैं। बच्चे अनाथ हो गये हैं । बहन के ससुराल वाले बच्चों का बँटवारा कर रहे थे। माँ को बच्चों से और भाई.बहनों को एक.दूसरे से अलग कर रहे थे। वे चीजों की तरह बाँटे जा रहे थे। हम वह सब कैसे सहन कर सकते थे? हमने अपनी बहन के परिवार को अपना बना लिया । अब उनकी पूरी जिम्मेदारी हम पर है । उनके साथ अन्याय नहीं कर सकते !
. आपने बहुत अच्छा किया हरि बाबू। कम लोग ही ऐसा करते हैं। आपके इस कर्तव्य से हमारे मन में आपके प्रति आदर भाव और ज्यादा बढ़ गया है। आपका अपनी बहन के प्रति जो भाव है वह बहुत ऊंचे दर्जे़ का है। पर वह इकतरफा हो गया है। एक तरफ आप न्याय की सबसे बड़ी ऊँचाई पर पहुंच गये हैं और दूसरी तरफ न्याय शब्द का आधा न भी नहीं देख पा रहे हैं। इस तरह आप हमारे साथ अन्याय ही कर रहे हैं। आपका पलड़ा एक तरफ को झुका हुआ है। आपकी नज़र एक ही तरफ का देख पा रही है। दूसरी तरफ आप देख ही नहीं रहे हैं। हमें दो आँखें मिली हैं ताकि हम दोनों पक्षों को देख सकें। बाँया भी देख सकें और दाँया भी। इस तरफ भी देखें और उस तरफ भी। दोनों को मिला कर देखें और देखने को संतुलित बना सकें। आप इस तरफ भी देखिये। हमारी तरफ। हमने प्रेम किया है। पूजा की है। आप पर अपने को लादा नहीं। आपके मन की थाह पाने का इंतज़ार करते रहे। हमने लंबी प्रतीक्षा की है। अपने को अपनी तरफ से आपके प्रति समर्पित कर दिया है। पूजा के उस फूल की तरह जो देवता के चरणों पर चढ़ा दिया जाता है फिर उसे देवता स्वीकार करें या न करें ।
वे क्षण भर के लिये रुकीं। फिर कहा. आपने उस दिन हमारा हाथ थाम लिया था तो वह आपकी स्वीकृति ही थी। वह आपका ग्रहण ही था। चढ़े हुए फूल का स्वीकरण था वह। देवता के द्वारा स्वीकृत यह फूल अब दोबारा किसी डाली पर नहीं लगाया जा सकता और न ही किसी और देवता के चरणों में ही चढ़ाया जा सकता है। वह मुरझायेगा सूखेगा और धूल में मिल जायेगा। पहले उसकी सुगँध जायेगी फिर उसका रंग जायेगा और फिर उसकी पँखुरियां मरेंगी । तिल.तिल कर मरेंगी । यही उसकी नियति है।
परसाई जी ने सिर झुका कर धीमे स्वर में कहा. ठीक ही कह रही हैं आप शकुन्तला जी। आपके छोर से वह सब सही और सार्थक भी है। हम आपके दोषी हैं। आजीवन दोषी रहेंगें। आपको देख कर हमें लगा था कि हमारे जीवन की खोज पूरी हुई। हमारा पावना हमें मिल गया। निरर्थक महसूस होने वाले जीवन ने अपना अर्थ पा लिया। हर दिन आप हमारे साथ एकाकार होती रहीं। हर दिन हम आपको थोड़ा.थोड़ा पाते रहे। जब हमने आपको पूरी तरह से अपने हृदय में पा लिया जब एक निश्चय तक हम पहुंच गये जब आपको सदा.सदा के लिये अपने जीवन में शामिल कर लेने का निर्णय मन ने कर लिया, तब हमें लगा कि अब आपको उसका संकेत भी दे देना चाहिये। और आपके मन को भी अंतिम रूप से जान लेना चाहिये। तभी उस दिन आपका हाथ थामा था। उस दिन आपका हाथ थाम कर हमने आपको सचमुच ग्रहण ही किया था। अपने जीवन में आपको शामिल किया था। वही हमारा पाणिग्रहण था। आपने भी उसे स्वीकृति दे दी थी। पर अब सब अकारथ हो गया है। परिस्थितियां बदल गयी हैं। उन्हें स्वीकार करना होगा। हमें भीए आपको भी। हम दोषी हैं। आपके सौ बार दोषी हैं। हो सके तो हमें माफ कर देना ।
कह कर परसाई जी उठे। अपना थैला घीरे से कन्धे पर डाला और मरे हुए कदमों से लायब्रेरी से चल दिये। शकुन्तला जी उन्हें जाता हुआ देखती रहीं। मुँह से आवाज़ न निकली। आँखों से जलधार बह चली। आँसुओं ने परसाई जी के गमन.दृश्य को धुंधला कर दिया। परसाई जी का अक्स उस धुंधलके में डूब चला। वे दरवाज़े से बाहर जाते समय अंतिम बार सदेह हुए और फिर हवा में घुल गये। निराकार हो गये।
वे वहाँ थे पर अब नहीं थे।
उनका वजूद वहाँ था पर अब नहीं था।
उनका आकार उनकी उपस्थिति और उनकी देह.गंध वहाँ थी, पर अब नहीं थी।
उनका प्रेम उनका कहन और उनका बोध वहाँ था, पर अब नहीं था।
शकुन्तला जी का अपार, उस पार जा चुका था।
वे अपना सब कुछ गवाँ चुकी थीं।
निर्धन हो चुकी थीं।
बीच रास्ते में लुट गयी थीं।
प्राण जा चुके थे, देह शेष रह गयी थी।
अपनी मरी.थकी देह को उन्होंने प्रयत्नपूर्वक उठाया। उसके बोझ को अपने कन्धों पर लादा और सालों से रोग.शैया पर पड़े किसी रोगी की मानिंद डगमग.डगमग चलीं।
एक.एक कदम पहाड़ हुआ।
इंच.इंच ज़मीन समुद्र हो गयी।
पल.पल युग बन गये।
लायब्रेरी, उसकी किताबें, किताबों के किरदार कलेजा थाम कर सनाके में चले गये।
दरवाज़ा, सीढ़ियाँ और बाहर की दुनिया वैसी ही रही आयीं, जैसी कि वे थीं।
उनका कुछ नहीं बिगड़ा।
उनका कुछ नहीं बिगड़ता।
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अंकुरए 1234 जेपीनगर आधारताल जबलपुर. 482004
राजेंद्र चंद्रकांत राय
जन्म : 5 नवंबर 1953 को जबलपुर में।
रानी दुर्गावती वि. वि. से हिंदी साहित्य में एम ए, बी-एड. तथा नेट की डिग्रियां ।
मूलतः कथाकार, धर्मयुग, सारिका, बहुवचन, पहल, तद्भव, नया ज्ञानोदय, हंस, नवनीत, कादम्बिनी सहित सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
प्रकाशित कृतियां : उपन्यास : ‘कामकंदला’, ‘फिरंगी ठग’, ‘खलपात्र’। कहानी संग्रह : ‘बेगम बिन बादशाह’, ‘गुलामों का गणतंत्र’, ‘अच्छा तो तुम यहां हो’। नाटक : ‘सहस्रबाहू’, ‘थैंक्यु स्लीमेन’, सलाम हनीफ मियां’।
जीवनी : हरिशंकर परसाई की जीवनी ‘काल के कपाल पर हस्ताक्षर ‘। पटकथा लेखन : जबलपुर के झंडा सत्याग्रह आंदोलन पर बने वृत्तचित्र का पटकथा लेखन।
संपर्क :
:‘अंकुर’,1234,जेपीनगर,आधारताल,जबलपुर-482004 म.प्र मोबाईल नंबर 7389880862
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आदरणीय प्रसाई जी को समर्पित राजेंद्र चंद्रकांत राय साहब की पुस्तक का अंश रचना समय में देखना सुखद है. काल के कपाल पर हस्ताक्षर.. पुस्तक… परसाई जी की की सम्पूर्ण जीवनी है और… बेहद दिलचस्प तरीके से उनके जीवन की तमाम अनसुनी बातों को उनके पाठकों को प्रस्तुत करती है.
आदरणीय प्रसाई जी को समर्पित राजेंद्र चंद्रकांत राय साहब की पुस्तक का अंश रचना समय में देखना सुखद है. काल के कपाल पर हस्ताक्षर.. पुस्तक… परसाई जी की की सम्पूर्ण जीवनी है और… बेहद दिलचस्प तरीके से उनके जीवन की तमाम अनसुनी बातों को उनके पाठकों को प्रस्तुत करती है.
कहानी बहुत सुंदर तरीके से प्रेम को परिभाषित करती है ।परसाई जी भला कौन भूलेगा या भूल सकता है ।श्रेष्ठ कहानी ।
क्या यह हरिशंकर परसाई जी की सच में व्यक्तिगत कहानी है । मेरे प्रश्न को यूँ ही समझिए कि मैं उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में बहुत कम या नगण्य जानता रहा हूँ ।हाँ उन्हें हिंदी के सर्वश्रेष्ठ व्यग्कारके तरह पढ़ता रहा हूँ , इसलिए भी जिज्ञासा है । आज़ादी का जाँच कमीशन ,भोला नाथ का भूत जैसी कितनी ही बड़ी रचनायें उन्होंने दी, जिनको पढ़कर कितने लोगों ने व्यंग लिखना सीखा होगा ।