मनुष्य आज हर तरफ़ अजीब – सी अबूझ स्थितियों से घिरा हुआ है। उससे उबरने का किया गया हर प्रयास उबारने की बजाय उसे और उलझाता जा रहा है।आज मनुष्य की सिर्फ़ एक ही पहचान बची रह गई है – वह है उपभोक्ता! हर क्षण उपभोग में डूबा उपभोक्ता ! मनुष्य की इस स्थिति या कहें नियति तक आने की एक कथा है। ‘अतिरिक्त की चेतना ‘ विषयक लेख में अच्युतानंद मिश्र यहां उस कथा को बांच रहे हैं। अपने विवेचन में अच्युतानंद एक ऐतिहासिक विमर्श रखते हैं कि अतिरिक्त के निर्माण की यह ऐतिहासिक प्रक्रिया कैसे असीमित उत्पादन में परिणत हो गयी।
यह एक गहन विमर्श का विषय है। सुधी पाठकों से अनुरोध है कि इस विमर्श से गुज़रते हुए अपने विचारों से हमें अवगत ज़रूर कराएं। – हरि भटनागर

अतिरिक्त की चेतना
अच्युतानंद मिश्र

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प्रकृति ,पर्यावरण और संस्कृति के सन्दर्भ में कोई भी विचार या विमर्श मूलतः मनुष्य, मनुष्य की विकास यात्रा और वर्तमान की चुनौतियों से जुड़ा है. प्रकृति, पर्यावरण और संस्कृति के अन्तर्सम्बन्धों पर भी मनुष्य, मनुष्य के विकास और वर्तमान के संदर्भ में ही कोई बातचीत हो सकती है.
मनुष्य के उद्भव और प्रकृति से उसके विलगाव से इन अन्तर्सम्बन्धों की पड़ताल की जा सकती है. वैज्ञानिकों और समाज-वैज्ञानिकों के लिए यह एक तथ्यगत, वस्तुपरक प्रश्न हो सकता है कि संस्कृति का आरम्भ हम कबसे माने, परन्तु कला चिंतन के दायरे से देखने पर हम कह सकते हैं कि संस्कृति-चेतना का आरम्भ मनुष्य के विषय-जगत के निर्माण से होता है. मनुष्य के विषय जगत का निर्माण या आरंभ, वस्तुतः उस विलगाव से माना जा सकता है, जहाँ वस्तुपरक प्रकृति से उसका अलगाव उत्पन्न होता है. और प्रकृति के अंतःकरण की चेतना का निर्माण होता है .
मनुष्य के आरम्भ को ही इस द्वंद्व से चिन्हित करने की कोशिश होती रही है, जिसके अंतर्गत उसके अंतर्जगत का निर्माण और बाह्य-जगत से उसके विलगाव की प्रक्रिया आरंभ होती है. यह तो स्पष्ट ही है कि मनुष्य-चेतना का विषय इसी अलगाव के परिणामस्वरूप हुआ. प्राणि-जगत में मनुष्य का प्रकृति से यह विलगाव उसकी सामानांतर सत्ता का आरंभ बिंदु भी है. इसलिए मनुष्य के बोध में जब यह बात आती है कि -यह समस्त संसार- तो वह स्वयं को प्रकृति और प्राणि-जगत के केंद्र में रखता है. प्राणि-जगत में मौजूद असंख्य सामानांतर सत्ताओं के बरक्स इस केंद्रीय सत्ता के निर्माण की अवस्था ही मनुष्य के काल बोध का वह आरम्भ बिंदु है.
नृतत्व शास्त्रियों के लिए यह महत्वपूर्ण प्रश्न रहा है कि यह अलगाव क्योंकर हुआ लेकिन क्वांटम भौतिकी की संभावना की अवधारणा को प्रकृति की गति से सम्बद्ध कर देखें, तो यह समझना बहुत कठिन नहीं रह जाता है कि मनुष्य के साथ यह अचानक से घटी कोई घटना रही होगी. प्रकृति में मौजूद असंख्य संभावनाओं में किसी एक का प्रतिफल. और इस संभावना के परिणाम स्वरुप -मनुष्य का पेड़ों पर से जमीन पर आना- इसी तरह की एक परिघटना है. मनुष्य रूपी जीव के समस्त गुणसूत्र इसी एक परिघटना से आरम्भ हुए, ऐसा माना जा सकता है. यानी मनुष्य जब प्रकृति में मौजूद और घटित होने वाली असंख्य संभावनाओं में किसी एक संभावना के आरोपण के तहत पेड़ से जमीन पर आया तो वह उसकी संस्कृति, काल-बोध और चेतना का आरम्भ बिंदु बन गया.
वैज्ञानिकों ने इसे पहली क्रांति यानी चेतना-क्रांति कहा है. परन्तु दिलचस्प यह है, कि इस क्षण तक चेतना एक गैर भौतिक आयाम नहीं है और न ही वह शारीरिक विकास क्रम में गतिमान भौतिक अवयवों से भिन्न कोई स्थिति है. यानी इस क्षण तक वस्तु-विचार का अलगाव आरम्भ नहीं हुआ था. आत्मचेतना के निर्माण का यह आयाम, जीव से मनुष्य होने की सर्वाधिक संघर्षपूर्ण अवस्था रही होगी. इस दोहरी शारीरिक मानसिक स्थिति में यह प्राणी जो भविष्य का मनुष्य है, हजारों वर्ष रहा होगा. वृक्ष से विलगित मगर मैदान पर जीवित रहने के लिए संघर्षशील अवस्था में .
इस बीच इस प्राणी ने यह जरुर महसूस किया होगा कि इस संक्रमण की अवस्था में रहने को बाध्य कोई अन्य प्राणी नहीं है. श्रेष्ठता और वैचित्र्य का यह बोध, बोधहीन अवस्था में रह रहे इस प्राणी में किस रूप में विकसित हुआ होगा- कहना कठिन है. शायद इस अवस्था की कल्पना हम नहीं कर सकते. वैज्ञानिकों ने मनुष्य की यात्रा के कुछ वस्तुगत तथ्य की कल्पना तो की है, मगर वे इन वस्तुगत स्थितियों के मध्य मौजूद आत्मगत स्थितियों की कल्पनाओं से वंचित रहे हैं. उन्होंने उन आत्मगत स्थितयों और भिन्न वस्तुगत स्थितियों के मध्य के संक्रमण की लम्बी अवधियों पर विचार कम किया है. दरअसल मनुष्य की चेतना का निर्माण न सिर्फ इन वस्तुगत परिस्थितियों से हुआ होगा, अपितु संक्रमण की उन लम्बी अवधियों से और आत्मपरक स्थितियों से भी हुआ होगा.
मनुष्य की चेतना को न तो स्पष्ट तौर पर वस्तुपरक प्रविधियों से समझा जा सकता है और न ही उसे सम्पूर्णता के साथ आत्मपरक स्थितियों के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है. वह इन दोनों के समिश्रण से बनी और संक्रमण के लम्बे रूपांतरण में ढली एक अवस्था है. कम से कम मनुष्य की चेतना के आरम्भ को हम इस तरह देख सकते हैं. दूसरी बात यह कि चेतना को भी शरीर-मस्तिष्क के विलगाव में नहीं समझा जा सकता. वह इन दोनों के द्वंद्वात्मक रूपांतरण की प्रक्रिया का परिणाम है. इसलिए चेतना को सिर्फ और सिर्फ एक द्वंद्वात्मक अवस्था या स्थिति और गति के द्वैत के रूप में ही समझा जा सकता है.
चेतना के इस निर्माण प्रक्रिया के प्रस्थान बिंदु से ही संस्कृति-समय का आरम्भ भी हो जाता है. यहाँ यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण हो जाता है, कि मैदान पर आने वाले मनुष्य ने अपने स्वतंत्र हुए हाथों से जो रूपांतरण किया, वह किस तरह संभव हुआ?
दरअसल बंधे हुए हाथों के मुक्त होने की लम्बी प्रक्रिया के दौरान ही चेतना और संस्कृति बोध की आरंभिक स्थिति का विकास हुआ. यह वह विकास दशा है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य के हाथ रूपांतरण की प्रक्रिया में संलग्न हुए. धीरे-धीरे हाथों के स्वतंत्र होने ने पशु को मनुष्य में बदल दिया. हाथों का स्वतंत्र होना एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक परिघटना थी. चेतना क्रांति के मूल में यही थी. हाथों के स्वतंत्र होने ने शारीर और मस्तिष्क दोनों को परिवर्तित कर दिया. हाथों की स्वतंत्रता के साथ मष्तिष्क का विकास तो हुआ ही मनुष्य के कार्य करने की क्षमता का असीम विस्तार भी हुआ.
अब मनुष्य एक अकेला ऐसा प्राणी था, जिसके हाथ स्वतंत्र थे. बुद्धि का विकास इस स्वतंत्रता के बोध के साथ हुआ, इसलिए मनुष्य की चेतना में स्वतंत्रता का बोध सर्वोपरि है. आज भी मनुष्य की चेतना में इसकी केन्द्रीयता को स्पष्ट तौर पर लक्षित किया जा सकता है. हर तरह की धार्मिकता, नैतिकता और मानवीय सभ्यता के मूल में यह स्वतंत्रता व्याप्त है. मोक्ष की परिकल्पना का आधार भी यही स्वतंत्रता है. हम देख सकते हैं कि मनुष्य ने इस स्वतंत्रता बोध को उच्च से उच्चतम स्तर तक पहुँचाने की परिकल्पना रची. जिसके फलस्वरूप ईश्वर, देवता और स्वर्ग की कल्पना का जन्म हुआ. और अधिक स्वतंत्र होने की आकांक्षा से वशीभूत हो उसने दोनों हाथ, दोनों पैर के स्वतंत्र होने की अवस्था के रूप में ईश्वर की कल्पना को साकार किया. वह एक ऐसे ईश्वर की कल्पना थी जो दोनों हाथ, दोनों पैर को स्वतंत्र रख हवा में, निर्वात में, आसानी से चल सकता था. ऐसे ईश्वर के चेहरे पर एक सतत मुस्कान और तनाव-विहीनता की कल्पना, दरअसल अधिक स्वतंत्र, अधिक स्वायत्त, अधिक मुक्त होने की परिकल्पना ही है. मोक्ष इसी का एक समानांतर स्वरुप है.

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हाथों के स्वतंत्र होने ने कल्पना और संस्कृति को जन्म दिया. हाथों के स्वतंत्र होते ही, विशिष्टता बोध ने मनुष्य की चेतना को आच्छादित कर लिया. अब वह हाथों से अतिरिक्त का निर्माण कर सकता था. अपनी भूख से अतिरिक्त फल तोड़ सकता था. अतिरिक्त भोजन रख सकता था. इस अतिरिक्त को वह अपने किसी साथ के अन्य मनुष्य से साझा कर सकता था. अन्य मनुष्य को यह बगैर श्रम के प्राप्त हुआ उपहार था. उस अन्य मनुष्य में इस प्रथम मनुष्य के प्रति सदयता, धन्यवाद, स्नेह जैसे भावों का उमड़ना सहज ही संभव हुआ होगा, जिसने संवेदना को, करुणा को, प्रेम और स्नेह को जन्म दिया होगा. इसके विपरीत प्रवृत्तियां भी इसी के सामानांतर विकसित हुयी होंगी .
इस तरह मानवीय स्वभाव और संस्कृति का आरंभ हुआ. यहाँ यह जानना दिलचस्प है, कि संस्कृति के मानवीय-व्यवहार का जन्म अतिरिक्त से हुआ. इस अतिरिक्त के मूल में चूँकि हाथों का स्वतंत्र होना था और पशुओं के लिए यह संभव नहीं हो सकता था, अतः वे संस्कृति के द्वार तक नहीं पहुँच सके.
संस्कृति का निर्माण अतिरिक्त से हुआ है. यह देखना कठिन नहीं है, कि घर बनाने से लेकर- कपडे की खोज, भाषा, संगीत से लेकर यातायात के साधनों की खोज तक, सबकुछ- इसीलिए संभव हो सका, क्योंकि मनुष्य के हाथ भोजन के अतिरिक्त इन अवस्थाओं तक पहुँचने में सक्षम हो सके.
अतिरिक्त उत्पन्न कर सकने की इस अवस्था ने मस्तिष्क को भी उतरोत्तर विकसित किया. और आदमी का मस्तिष्क मनुष्य के मस्तिष्क में बदलता गया. प्रेम, करुणा और स्वतंत्रता जैसे मूल्य स्थायी मूल्यों में तब्दील हो गए. जिन्हें हमने मानवीय मूल्य और गुण की संज्ञा दी. लम्बे अन्तराल के पश्चात ये मानवीय स्वभाव के सहज रूप में ढल गए. इसके विपरीत गुणों को, मूल्यों को, हमने पशुत्व की संज्ञा दी.
मनुष्य होने के परिणाम-स्वरूप सांस्कृतिक अनिवार्यताओं को ज्यों-ज्यों हमने सहज व्यवहार में तब्दील किया, वे हमारी अस्तित्वगत अनिवार्यताओं में बदलती गयीं. पशुओं के साथ ऐसा नहीं हुआ. इसलिए पशुओं की अनिवार्यता आज भी मुख्य रूप से भोजन और प्रजनन ही है. मनुष्य ने सांस्कृतिक रूपों को अनिवार्यताओं में बदलते हुए रोटी और प्रजनन के साथ-साथ वस्त्र और आवास को भी अपनी अनिवार्य जरूरतों में बदल दिया. इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि मनुष्य का सांस्कृतिक बोध, उसकी अनिवार्य आवश्यकताओं में बदल गया. उदाहरण के तौर पर पेड़ पर रहने वाली आदिम प्रजाति के तौर पर मनुष्य की अनिवार्य जरूरतें अन्य पशुओं के सामान ही थीं. उसे शीत, बारिश और नंगेपन से बचने की जरुरत महसूस नहीं होती थी, लेकिन जैसे ही उसने हाथों को स्वतंत्र किया और वह मैदान में आया, उसने रोटी और प्रजनन के साथ-साथ आवास और वस्त्र को भी आपनी अनिवार्यताओं में बदल दिया. यह सब हजारो वर्षों के अन्तराल में संभव हुआ होगा.
अतिरिक्त को अनिवार्यताओं में बदलने की प्रक्रिया के कारण, मनुष्य ने उसे विरूपित होने से बचा लिया. अन्यथा हम जानते हैं कि अतिरिक्त की उपस्थिति विषय और वस्तु दोनों को ही विरूपित कर देती है. अतिरिक्त की चेतना के रास्ते मनुष्य ने संस्कृति का निर्माण किया, उत्तरोत्तर उसने उसे अनिवार्यताओं में बदल दिया. मनुष्य का बाह्य शरीर भी उसकी सांस्कृतिक अनिवार्यताओं के अनुरूप हजारों वर्षों में ढलने लगा. यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि अतिरिक्त को अनिवार्यता में बदलने की वजह से मनुष्य ने सौंदर्य बोध का निर्माण किया. और अपनी अभिरुचियों का तदनरूप विकास किया.

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हाथों के स्वतंत्र होने के परिणामस्वरुप अतिरिक्त का उत्पादन और उसका सांस्कृतिक बोध में बदलना और उस संस्कृति बोध का अनिवार्यताओं में ढलना कुछ वर्षों में नहीं बल्कि 60,000 वर्षों के लम्बे अन्तराल में संभव हुआ. इतने वर्षों में मनुष्य प्रकृति के साथ एक नये तरह का सम्बन्ध आरम्भ कर चुका था. पहले वह प्रकृति द्वारा किये गए रूपांतरण का मूक साक्षी था, लेकिन इन छः सौ शताब्दियों में उसने प्रकृति का भी अपने अनुरूप रूपांतरण आरंभ किया. उसने भोजन के अतिरिक्त घर और वस्त्र की संस्कृति का भी विकास किया. और यह उतरोत्तर मूलभूत अनिवार्यताओं में बदलती गयीं.
आज से लगभग 12 हज़ार वर्ष पूर्व मनुष्य खेती की ओर बढ़ा. खेती के परिणामस्वरूप स्थानिकता और परिवार की संस्कृति का विकास हुआ. खेती ने प्रकृति के साथ एक नये तरह का सम्बन्ध विकसित किया. अब वह प्रकृति का रूपांतरण अपने अनुरूप कर सकने में सक्षम था. वह श्रम करता था और अन्न उत्पन्न कर सकता था. अन्न का उत्पादन सामूहिक श्रम का प्रतिफल था. उसे शिकार की तलाश में अब एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जाना होता था. अन्न उत्पन्न करने की प्रक्रिया के मूल में सह-जीवन की परिकल्पना तो विद्यमान थी ही, साथ ही किसी स्थान से जुड़कर रहने की अनिवार्यता भी.
सह-जीवन और स्थिर-जीवन ने संस्कृति के नये रूपों को विकसित किया. तीज-त्यौहार, गीत-संगीत, नृत्य और खेल आदि का आरम्भ हुआ. अब मनुष्य प्रकृति से सिर्फ संघर्ष ही नहीं करता था, उसकी उपासना भी करता था.
प्रकृति की इस नई परिकल्पना को मूर्त करने के लिए उसने प्रकृति का मानवीकरण किया. अनेक देवी-देवता विकसित हुए, जिनमें मनुष्य अपनी अन्तः प्रकृति का परावर्तन करता था. अग्नि, जल, वायु आदि तत्व भीतर भी हैं, और बाहर भी-इस धारणा का विकास हुआ. यहाँ से भीतर-बाहर का, विषय और वस्तु का, शरीर और मस्तिष्क का एक नया सम्बन्ध विकसित हुआ. कहना न होगा कि इस सम्बन्ध के मूल में मनुष्य–प्रकृति का यह नया सम्बन्ध था. जिसे धीरे-धीरे मनुष्य ने अपने भावबोध में स्थापित किया.
यहाँ मनुष्य और प्रकृति के अन्तःसम्बन्ध में गति से निर्मित संवेदना पर विचार करना अनिवार्य जान पड़ता है. मनुष्य प्रकृति से विलग तो हुआ, लेकिन प्रकृति के रूपांतरण करने की क्षमता के उत्तरोत्तर विकास ने उसे, इस विलगाव जनित हीनता से उबरने में मदद पहुंचाई. प्रकृति से विलग हो जाने से जो रिक्ति उत्पन्न हुयी, उसे मनुष्य ने कला-संस्कृति के रास्ते भरा. ज्ञान का जन्म कला संस्कृति की चेतना के उत्तरोत्तर विकास से हुआ. उसने प्रकृति के समानांतर एक अन्तः प्रकृति की चेतना का निर्माण किया. अब वह प्रकृति की अन्तः उपस्थिति को महसूस कर सकता था. बाह्य जीवन की गतिशीलता अन्तः प्रकृति की सृजनशीलता से जुडी हुयी थी.
वह धरती पर कुदाल चलाने से पहले धरती को प्रणाम करता था. यह उस विलगाव जनित रिक्ति का विकल्प था. वह फसलों को काटकर घर लाता था और संतुष्टि के गीत गाता था. वह अपने अंतःकरण से संचालित होकर प्रकृति के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करता था.
मनुष्य के क्रिया-कलापों में एक गति थी. इस गति में ही जीवन तत्व विद्यमान था. वह प्रकृति का दोहन कर रहा था और प्रकृति को पूजता भी था. वह प्रकृति को नष्ट भी करता था और पर्यावरण को शुद्ध और परिष्कृत रखने की चेतना भी विकसित कर रहा था. ऐसा इसलिए था कि मनुष्य के दो हाथ जो अतिरिक्त का निर्माण करते थे, उनकी गति प्रकृति की गति के अनुरूप थी.
मनुष्य के हाथों द्वारा किये गये उत्पादन की एक सीमा थी. इस सीमा ने उपभोग को नियंत्रित और निर्धारित किया. मनुष्य के हाथों द्वारा किया गया निर्माण इतना अधिक नहीं हो सकता था कि वह प्रकृति की विराटता को मात दे सके. हाथों से जिस गति का निर्माण हो रहा था, वह प्रकृति की गति के साथ समरूप थी. मनुष्य के हाथ निश्चित गति से ही प्रकृति में निर्माण और विध्वंस कर सकते थें. वह जितने जंगलों को साफ़ कर सकता था, उन्हें काट सकता था, उसी अनुपात में प्रकृति अपना विकास भी करती थी. वह यथा शक्ति प्रकृति को चुनौती भी देता था. वह निर्माण कार्य भी कर रहा था. वह नदियों को बाँध रहा था. पहाड़ पर रास्ते बना रहा था. जंगलों को साफ़ कर उसे खेती के अनुरूप ढाल रहा था. मगर इस सबकी गति का निर्धारण मनुष्य के हाथों द्वारा संभव हो रहा था, और हाथों की गति प्रकृति में संभाव्य गति से भिन्न नहीं थी. यही वजह है कि मनुष्य और प्रकृति का सम्बन्ध, एक द्वंद्वात्मक गति का निर्माण करते थें.
विध्वंस या विनाश का उद्देश्य जीवन जीने की मानवीय जरूरतों तक सीमित था. आवश्यकता की अतृप्ति का सामाजिक मनोविज्ञान विकसित नहीं हुआ था. जीवन और मृत्यु, विकास और विध्वंस सब पर प्रकृति का नियंत्रण था, लेकिन मनुष्य इसके भीतर परिवर्तन करने में सक्षम हो चला था.
वह भवनों का निर्माण कर रहा था, लेकिन उनकी ऊंचाई मनुष्य की आँखों के पार जाने तक नहीं थी. प्रकृति अब भी विशाल और विराट थी. मनुष्य के अंतःकरण में अब भी कल्पित ऊंचाई, आदर्श के तौर पर प्रकृति की ही ऊंचाई के रूप में विद्यमान थी. निश्चित रूप से मनुष्य अतिरिक्त का निर्माण कर रहा था. वह अन्न का, वस्त्र का, आभूषणों का संग्रह कर रहा था. उसके लिए आपसी लड़ाई और हिंसा भी होती थी. समाज, राष्ट्र और समुदाय एक दूसरे के विरुद्ध वर्चस्व की लड़ाई भी लड़ते थें. हजारों मनुष्यों की हत्या भी होती थी. स्त्री, बच्चें आदि पर अधिकार अख्तियार कर उनसे श्रम कराया जाता था, लेकिन ये सब प्रकृति के निर्माण और विध्वंस को कोई बड़ी चुनौती नहीं दे रहे थे. अन्न का संग्रह वह अधिक लम्बे समय के लिए नहीं कर सकता था, क्योंकि उन्हें जलवायु और कीड़ों से बचाने की उसकी एक सीमा थी. वस्त्रों का उत्पादन हाथों से होता था. उस उत्पादन की एक गति थी. कहने का तात्पर्य यह कि मनुष्य के स्वतंत्र हाथों द्वारा, कृषि युग में जो भी अतिरिक्त का निर्माण हो रहा था, वह निश्चित रूप से ताकत और वर्चस्व का सृजन कर रहा था. समाज में समानांतर रूप से विध्वंस और निर्माण हो रहा था। लेकिन यह प्रकृति की गति के समक्ष कोई बड़ी चुनौती नहीं थी. इस पूरी सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया के मद्देनज़र, मनुष्य प्रकृति पर वर्चस्व कायम नहीं कर सका था. इसलिए वह एक ऐसा जीवन जी रहा था जिसपर अभी भी हुकूमत प्रकृति की ही थी.
प्रकृति का परावर्तन उसके अंतःकरण में विद्यमान था. इसलिए अभी भी वह अंतःप्रकृति के अधीन था. उसकी आत्मगतता उसके जीवन का, उसके बोध, उसकी चेतना का, उसकी कल्पनाशीलता का, उसके अवचेतन का निर्धारण करने में सक्रिय भूमिका अदा कर रही थी. अन्तः और बाह्य के बीच, प्रकृति और मनुष्य के बीच, शरीर और मस्तिष्क के बीच द्वंद्व मौजूद था. यह द्वंद्व ही जीवन, समाज, संस्कृति, विवेक और रचनाशीलता के विविध आयामों को फलीभूत कर रहा था. उसके बगैर इन सबमें विद्यमान गति की उपस्थिति संभव नहीं थी.
मनुष्य का ज्यों-ज्यों बौद्धिक एवं सांस्कृतिक विकास होता गया, वह प्रकृति-जनित सीमाओं से ऊपर उठने की कोशिश में अधिक से अधिक सक्रिय होने लगा. अभी भी बड़े पैमाने पर वह प्रकृति की गति और सीमा द्वारा निर्धारित जीवन जी रहा था. वह पृथ्वी, आकाश, सूरज, चन्द्रमा आदि के विषय में अपनी धारणा सुनिश्चित करने लगा था. उसके विकसित मस्तिष्क और सांस्कृतिक चेतना ने उसे जिज्ञासु मनुष्य में बदल दिया था. उसकी कर्मठता और जिज्ञासा गहरे अर्थों में उसके सांस्कृतिक बोध से जुड़े हुए थे. उसके सांस्कृतिक बोध का आधार प्रकृति के साथ उसका सम्बन्ध था. कहने का अर्थ यह कि मनुष्य की विवेकशीलता और कल्पनाशीलता, उसकी आत्मगतता और उसकी वस्तुपरकता में नये मोड़ आ रहे थे. नये प्रश्न, नयी जिज्ञासाएं उसके संसार को, उसके परिवेश को प्रभावित कर रही थीं. लेकिन इन तमाम प्रश्नों जिज्ञासाओं के केंद्र में प्रकृति और उसकी गतिशीलता थी. कहना यह है कि मनुष्य चेतना के केंद्र में अभी भी प्रकृति थी.
मनुष्य की जिज्ञासा, प्रश्नाकुलता उसे प्रकृति के रहस्यों के प्रति सज़ग और क्रियाशील बनाती थी, वह प्रश्न पूछता था, और उसके लिए उद्दयम करता था. साथ ही, वह प्रकृति जनित सीमाओं से उबरने में खुद को अक्षम भी पाता था. प्रकृति उसे समृद्ध भी करती थी और उसे वंचित भी कर देती थी. बाढ़, सूखा अनुर्वरता के साथ उसे छोटे कीटों से लेकर विशाल पशुओं तक से खुद को बचाना होता था. वह सूखे और बाढ़ की सीमाओं से उबरने के लिए अन्न, वस्त्र आदि का संग्रह करता था और कीट उसे नष्ट कर देते थे. वह नये स्थानों की खोज करता था, अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित, अधिक उर्वर. सुरक्षा और उर्वरता की परिकल्पना के उत्तरोत्तर विकास ने प्रकृति के प्रति उसके दृष्टिकोण को परिवर्तित किया.
समय का अर्थ उसके समक्ष बदलने लगा. वर्तमान के वृत्त से बाहर आकर, वह अतीत और भविष्य की चेतना निर्मित करने लगा. कल्पना और स्मृति ने मानसिक धरातल पर नए रूप में दस्तक दी. स्मृति का आधार सामूहिकता का अन्तःबोध था, जो समय की भौतिक चेतना के पार जाता था. समय की इस अ-भौतिक या गैर-भौतिक अवधारणा का चेतना के साथ जो सम्बन्ध विकसित हुआ, उसने मनुष्य के सांस्कृतिक बोध को अधिक सूक्ष्म, अमूर्त और जटिल बना दिया. उसकी रचनात्मक आवश्यकतायें बढ़ने लगीं. कला साहित्य के नये द्वार, उसके समक्ष खुलने लगे.
इस प्रक्रिया ने संस्कृति-जनित अतिरिक्त को एक नये अर्थ में बदल दिया. यह अर्थ सामूहिकता का था. साहित्य और कलाओं की सबसे बड़ी ताकत यह थी कि वे व्यक्ति और समाज के बीच एक पुल का काम करती थीं. जहां दोनों तरफ से आवाजाही संभव थी. रचनाकार की चेतना बहुलता की चेतना में ढलने लगी. कला-दृष्टि ने अधिक उदार और उदात्त सामाजिक दृष्टान्त को जन्म दिया. साहित्य और कला में व्यक्त जीवन-मूल्य अनुकरणीय होने लगे. यहाँ मनुष्य की कल्पना और वास्तविकता के बीच एक नया सम्बन्ध विकसित हुआ. कल्पना और वास्तविकता के बीच के इस नये सम्बन्ध ने ज्ञान और जिज्ञासा को मात्र, अस्तित्वगत आवश्यकताओं तक सीमित नहीं कर दिया, बल्कि यह कहना होगा कि उसने मनुष्य की चेतना को आवश्यकता के सीमित संसार से बाहर निकला और आवश्यकता के संसार को फैला दिया. कलात्मक आनंद से उपजी अनुभूति ने आत्म को अधिक व्यापक और प्रभावी बना दिया. मनुष्य, जीवन, समाज और प्रकृति के निरूपण –निर्धारण में, इस आत्म की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी. आत्म का यह व्यापक दायरा मनुष्य की चेतना में उदात और उदारता, करुणा और मार्मिकता, प्रेम और सहयोग जैसे मूल्यों के सूत्रपात का बायस बना. लौकिकता के प्रत्यक्ष और स्पष्ट मूल्यों के साथ-साथ इह्लौकिकता के अप्रत्यक्ष और अमूर्त मूल्य भी चेतना, भाषा और जीवन में भूमिका अदा करने लगे.
मनुष्य प्रकृति का अनुकरण भी करता था, उससे संघर्ष भी करता था. लेकिन अब उसका अनुकरण और संघर्ष, व्यवहार के अतिरिक्त कल्पना और कल्पना से फिर यथार्थ में बदलने की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया में परावर्तित होने लगा. उदाहरण के तौर पर पक्षियों को उड़ते हुये मनुष्य को अपनी सीमाओं का एहसास होता रहा होगा. उसने न उड़ पाने की अपनी सीमाओं पर बार-बार विचार भी किया होगा. विचार करना उसकी व्यवहारिक दृष्टि थी, लेकिन जैसे ही उसमें कला-चेतना का विकास होने लगा, वह अपनी व्यवहारिक सीमाओं से उबरने के लिए इस कला-चेतना की ओर मुड़ने लगा. उसने ऐसे नायकों की कल्पना की, जिनके पास पंख थे. वे उड़ सकते थें. यूनानी पौराणिक कथाओं में एक कथा इकेरस की है. कैद से मुक्त होने के लिए उसके पिता डेडेलस ने पक्षियों के परों को मोम से जोड़कर इकेरस के लिए पंख का निर्माण किया. इकेरस उड़ सकता था. वह मुक्त हुआ, लेकिन वह समुद्र के करीब या अधिक ऊंचाई पर न जाने की पिता की चेतावनी को भूल गया. ऊपर जाते ही मोम से जुड़े उसके पंख पिघल गये और वह समुद्र में गिर गया. उसकी मृत्यु हो गयी. कल्पना और व्यवहार के संधि स्थल पर अवस्थित, यह पौराणिक कथा यह बताती है कि मनुष्य अपनी सीमाओं से उबरने के लिए रचनात्मक चेतना का, कला चेतना का, प्रयोग कर रहा था. इस कथा के हजारों वर्षों बाद अगर मनुष्य ने इस कल्पना को व्यवहार की हवाई उड़ान में बदला, तो हम इस व्यवहार-कल्पना के चक्रीय सम्बन्ध को समझ सकते हैं.
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मनुष्य के भीतर की जिज्ञासा का आधार, आत्म और बाह्य का अंतर्द्वंद्व था. जिसके मूल में प्रकृति की चेतना विद्यमान थी. मनुष्य की यह चेतना जब तक इस द्वंद्व से संचालित रही, वह प्रकृति के अनुरूप गति का निर्माण करता रहा. उसकी शक्ति की अवधारणा प्रकृति की शक्ति को परिलक्षित करती थी. इसलिए कहना यह चाहिए कि जब तक वह प्रकृति के साथ अपने सम्बन्धों में द्वंद्वात्मक बना रहा, तब तक उसकी चेतना संस्कृति जनित अतिरिक्त का रचनात्मक रूपांतरण करती रही. उसकी जिज्ञासा, प्रश्नाकुलता उन्हीं संवेगों को निर्मित करती थी, जो प्रकृति जनित थे.
ज्यों-ज्यों मनुष्य का वस्तु-संसार विस्तृत होता गया, उसकी जिज्ञासा का भी विस्तार होता गया. प्रकृति पर वर्चस्व कायम करने की उसकी इच्छा आकांक्षा का भी विस्तार होता गया. अब तक उसका विवेक, उसके आत्म पक्ष द्वारा भी नियंत्रित था. एक तरह से कहें तो विवेक को आत्म और बाह्य दोनों ने जोड़ रखा था. सोलहवीं सदी के आसपास मनुष्य की स्वतंत्रता का अर्थ नये रूपों में विकसित होने लगा. प्रकृति के साथ मनुष्य के सम्बन्ध की चर्चा हमने की है, लेकिन सोलहवीं सदी के आसपास प्रकृति के साथ अपने सम्बन्धों के प्रति उसका नज़रिया बदलने लगा. अब वह प्रकृति का अवलोकन, अधिक वस्तुपरक और तार्किक ढंग से करने लगा. स्वतंत्रता का एक अर्थ प्रकृति से भी स्वतंत्रता के रूप में था. यह धरना उत्तरोत्तर बलवती होती गयी. स्वतंत्रता की इस परिकल्पना को दोनों (प्रथम और द्वितीय) औद्योगिक क्रांति ने भौतिक आधार प्रदान किया. व्यक्ति का और व्यक्तिवाद के नये रूप विकसित हुए. यहाँ व्यक्ति का उद्भव, उसकी सामाजिक भूमिका और सामाजिक उपादेयता के मध्य सम्बन्ध तनावपूर्ण था. अब वह अपने प्रश्नों, जिज्ञासाओं, भय आदि से निजात पाने के लिए समाज और प्रकृति की ओर जाने की अनिवार्यता महसूस नहीं कर रहा था.
मुक्ति का रास्ता उसे ज्ञान-विज्ञान में दिखाई दे रहा था. लेकिन यह ज्ञान-विज्ञान पिछले समय के समाज-प्रकृति प्रदत्त ज्ञान की अपेक्षा भिन्न था. एक तरह से कहें तो यह अपने स्वरुप में और दृष्टि में, प्रकृति पर वर्चस्व कायम करने के उद्देश्य से था.
1712 में पहले भाप के इंजन की खोज हुयी. पहली औद्योगिक क्रांति के साथ नये मनुष्य का उद्भव भी हुआ. यह वह मनुष्य था, जिसकी वस्तुपरकता, उसकी आत्मगतता पर हावी थी. अध्ययन, चिंतन, मनन और रचनात्मकता के आयाम बदलने लगे.
मनुष्य प्रकृति को एक यन्त्र की तरह देखने लगा. एक विशाल यंत्र की तरह. प्रकृति उसके लिए अध्ययन का विषय बन गयी. वह उसकी उद्दातता, उसकी विराटता से खुद को असम्बन्ध करते हुए, उसे एक चुनौती के रूप में देखने लगा. प्रकृति से सीख तो वह अब भी रहा था, लेकिन अब प्रकृति उसके बाह्य जगत से सम्बद्ध थी. उसका अंतर्जगत उत्तरोत्तर रिक्त होता जा रहा था. यह एक नये तरह का विवेक था, नई तरह की व्यक्तिवादिता. प्रकृति के समक्ष अब वह अपनी सामाजिक चेतना के साथ नहीं था. प्रकृति के समक्ष वह अपने व्यक्तिवाद के साथ था. सामाजिक मनुष्य से व्यक्तिवादी मनुष्य होने की प्रक्रिया ही प्रबोधन के केंद्र में थी. और इसी व्यक्तिवाद का विकास आधुनिकता में हुआ. अब उसकी जरूरतें सामाजिक जरूरतों के तौर पर नहीं रह गयीं थीं. निजता का एक नया युग आरम्भ हुआ. समाज की रचनात्मक इकाई के तौर पर, प्रकृति के साथ उसका द्वंद्वात्मक सम्बन्ध समाप्त हो चला था या समाप्त होने की कगार पर था.
प्रकृति ज्ञान की प्रयोगशाला बन गयी थी. इस प्रयोगशाला से निकले ज्ञान ने आत्मजगत को न सिर्फ अर्थहीन बना डाला, बल्कि अर्थ और उपयोगिता का नया समाजशास्त्र रच डाला. कहना न होगा कि आधुनिकता जनित जीवन बोध वस्तुतः आत्म के क्षय और वस्तुरुपी संसार के विस्तार से निर्मित हुआ.
ज्ञान के इस युग ने जिस तरह मनुष्य की चेतना का वस्तुकरण किया, वह अभूतपूर्व था. प्रकृति और आत्म को भी वस्तु में बदल डाला गया. अन्तःप्रकृति जैसे पद निरर्थक और पिछड़ेपन को व्यक्त करने लगे. मनुष्य के बाह्य जगत ने एक अकल्पनीय गति का संसार रच डाला. यातायात और संचार के साधनों का विकास हुआ. लोग एक स्थान से दूसरे स्थान आने जाने लगे. नई जरूरतें विकसित की जाने लगीं.
उत्पादन की प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव आ गया. भाप के इंजन की खोज ने बल का गैर-जैविक दृष्टान्त प्रस्तुत किया. बल का निर्माण तो प्रकृति के संसाधनों से अब भी हो रहा था, लेकिन यह निर्माण प्रकृति से सीधे रूपांतरित हो कर नहीं हो रहा था. बल का अर्थ मनुष्य या पशुओं का शारीरिक बल नहीं रह गया था. भाप के इंजन में कोयले से आग पैदाकर, पानी को भाप में रूपांतरित किया जाता था. निर्जीव वस्तुओं में ऊर्जा का रूपांतरण कर, निर्जीव वस्तुओं के अणुओं को अधिक गतिमान बनाया जाता था और इस गति से बल विकसित किया जाता. इसी दौरान भौतिक शास्त्र में नई दृष्टि विकसित हुयी, जिसमें जड़-चैतन्य सबमें अणुओं की गति के सिद्धांत को पदार्थ की मुख्य विशेषता के रूप में व्याख्यायित किया गया. यहाँ एक चीज़ महत्वपूर्ण है, और वह कि बल निर्माण की यह प्रक्रिया मनुष्य के आत्म का निषेध कर रही थी. कहने का तात्पर्य यह कि अपनी शारीरिक ऊर्जा का इस्तेमाल करते हुए, मनुष्य थक जाता था. थकने के अन्तराल में, वह उत्पादन की प्रक्रिया से विलग हो जाता. इस प्रक्रिया में उत्पादन इतना अधिक नहीं था कि अतिरिक्त एक बड़ी शक्ति का रूप ले सके. यही वजह है कि उत्पादन की यह मानवीय प्रक्रिया सीमित मात्रा में ही अतिरिक्त का निर्माण करती थी. श्रम की प्रक्रिया के बीच के अन्तराल, उत्पादन को मानवीय बनाए रखते थे. इंजन के इस्तेमाल ने मानवीय अंतरालों को नष्ट कर दिया. मनुष्य की वस्तु-चेतना में यह बात स्पष्ट होने लगी कि अगर संसाधनों की आपूर्ति को बनाये रखा जाए, तो असीमित उत्पादन संभव है. एक इंजन को अपनी कल्पना में वह अनंत समय तक के लिए चालू रख सकता था.
इस अनंतता की राह में जो भी रुकावट थी, वह उन सबको समाप्त करने लगा. उसकी इस क्ल्पना जनित चेतना पर लगाम डालने के लिए न तो आत्मगत संसार ही था और न ही प्रकृति के समक्ष असमर्थता का बोध. अब भी प्रकृति के समक्ष वह असहाय और अपूर्ण था, लेकिन बल निर्माण की परोक्ष प्रक्रिया ने उसकी चेतना का वस्तुकरण कर दिया. अब प्रकृति उसके लिए विचित्र, आश्चर्यजनक और अज्ञेय नहीं रह गयी थी. कल्पना में बनाये यंत्रों और भविष्य के संभाव्य यंत्रों की चेतना पर सवार होकर, वह प्रकृति को पूरी तरह अपने अनुरूप कर सकता था. अब उसके समक्ष, इस स्वप्न को वास्तविकता में बदलने सकने में सक्षम या संभव भविष्य के ज्ञान की जरूरत भर रह गयी थी. मनुष्य और मशीन के बीच का भेद विषय और वस्तु का भी भेद था. मानवीय प्रकृति और जड़ वस्तुवादी प्रकृति का भी भेद था. कहने का तात्पर्य यह कि उत्पादन की इस नई प्रक्रिया में मनुष्य का आत्मजगत तो अनुपस्थित हुआ ही, प्रकृति भी वस्तुजगत में बदल गयी.
मनुष्य की भूमिका एक बिचौलिए की हो गयी. उत्तरोत्तर वह गौण होता गया. ज्ञान एक बार निर्मित हो जाने के बाद रचनात्मक नहीं रह गया. ज्ञान का प्रसार एक निहायत यांत्रिक क्रिया में बदलता गया. इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य और प्रकृति का अन्तः संवाद गायब होता गया.

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उत्पादन की तीव्रता और ऊर्जा के असीमित उपभोग ने मनुष्य को पूरी तरह रूपांतरित कर दिया. उत्पादन की प्रक्रिया चूँकि प्रत्यक्ष मानवीय श्रम का परिणाम नहीं रह गयी थी, इसलिए उपभोग की चेतना सीमाविहीन हो गयी. साम्राज्यवाद के मूल में दरअसल यही दृष्टि विद्यमान थी. उत्पादन की गति ने धीरे-धीरे यह धारणा विकसित करनी आरम्भ कर दी कि उत्पादन की प्रक्रिया सतत चलने वाली प्रक्रिया है. आधुनिक मनुष्य ने उत्पादन की मानवीय सीमाओं को पार कर लिया है. दूसरे उत्पादन एक सामूहिक (यहाँ सामूहिकता से तात्पर्य एक सामाजिक सांस्कृतिक रूपाकार से है) प्रक्रिया नहीं है, वह बहुत से व्यक्तियों, या व्यक्तियों के समूह द्वारा स्वेच्छा के बगैर सम्पन्न किया जाता है. मार्क्स ने इसे सर्वहारा वर्ग के रूप में रेखांकित किया. चूँकि यह वर्ग उत्पादन की प्रक्रिया में स्वेच्छा से शामिल नहीं होता था तथा स्वचालित ऊर्जा यंत्रों के सहारे उसे एक ही प्रक्रिया को बार-बार करना होता था अतः वह उत्तरोत्तर विलगाव की स्थिति में पहुँचता गया. विलगाव की इस दशा को उसकी आत्मगतता का वस्तुगतता से विलगाव या उसकी अन्तःप्रक्रति और बाह्य प्रकृति के विभाजन के रूप में भी देखा जा सकता है.
उत्पादन की इस अमानवीय प्रक्रिया ने मानवीय श्रम की संस्कृति को बदल दिया. हाथ के स्वतंत्र होने के साथ जिस सांस्कृतिक और बौद्धिक मनुष्य का जन्म हुआ था, वह समाप्त हो गया. नये मनुष्य ने उत्पादन की अमानवीय संस्कृति के अनुरूप ही अपना बौद्धिक और तथाकथित सामाजिक संसार विकसित किया. आत्म से रिक्त इस मनुष्य की चेतना के केंद्र में उपभोग और वर्चस्व की प्रवृत्ति केंद्रीय थी. जाहिर है, इस बोध ने साम्राज्यवाद को अनिवार्य बना दिया.
अतिरिक्त की चेतना ने मनुष्य की सौंदर्य चेतना को भी विरूपित करना आरम्भ किया. उत्पादन और असीमित उपभोग ने न सिर्फ, उसके बाहर के संसार का वस्तुकरण किया अपितु उसकी समग्र चेतना का ही वस्तुकरण हो गया. ऐसे में व्यक्ति के रूप में वह अधिक क्रूर और हिंसक हो गया. क्रूरता और हिंसा का यह रूप अमानवीयता के पुराने रूपों से भिन्न था. इसका उदाहरण हम साम्राज्यवादी क्रूरता के रूप में देख सकते हैं. जहाँ यूरोप ने आधुनिक ज्ञान के रथ पर सवार होकर, दुनिया के बड़े हिस्से को अपने अधीन कर लिया. लाखों की संख्या में मनुष्यों को वृहदकाय यंत्रों द्वारा, मच्छर की तरह पीस दिया गया. यह हिंसा राजा के निर्देश पर सेना द्वारा ही नहीं सम्पन्न हुयी, बल्कि सामान्य नागरिक भी इस हिंसा के भाव से बंधे थे. यह हिंसा बाहर तो थी ही, घृणा और क्रूरता की प्रवृत्ति के तौर पर भीतर भी मौजूद थी. रंगभेद, जातिभेद, लिंगभेद आदि के नये रूप विकसित हुए. .
साम्राज्यवादी हिंसा इस अर्थ में भिन्न थी, कि वह दो-आयामी हिंसा की प्रक्रिया को संभव करती थी. यह हिंसा जहाँ निरीह या शोषित को नष्ट करती थी वहीँ हिंसक के आत्म का उन्मूलन भी कर देती थी. हिंसा की हर करवाई के बाद हिंसक व्यक्ति अधिक क्रूर, आततायी और विध्वंसक होता जाता. उसके भीतर, मनुष्यता के क्षरण की सतत प्रक्रिया आरंभ हो गयी. हर हिंसा वर्चस्व के एक नये स्तर को जन्म देती थी. वर्चस्व का यह नया स्तर, उसे और अधिक लालची और खाऊ बना देता. इस तरह मनुष्य उत्पादित वस्तुओं के समूह में एक वस्तु बनकर रह गया. वस्तु संसार के चलते फिरते पुतले की तरह ही वह बचा रह गया. उसकी इच्छा-आकांक्षा, उसका संघर्ष यहाँ तक कि उसकी रचनाशीलता, सबकुछ एक केंद्रीय सूत्र से जुड़ी हुयी थी. वह केंद्रीय सूत्र था- उपभोग.
अबाध गति के इस उपभोग ने विकल्प-हीनता की मनः स्थिति को जन्म दिया. मनुष्य की हर समस्या अतिरिक्त द्वारा विरूपित चेतना का परिणाम है. अतिरिक्त को सीमित करने के तर्क के स्थान पर, उपभोग को हर समस्या के समाधान के रूप में स्वीकार कर लिया गया. उपभोग का एक निश्चित स्तर, जीवन में दुःख को निर्मित करता है और यह बताया गया कि अगला स्तर का उपभोग ही इस दुःख से मुक्ति है. इस तरह सतत दुःख और सतत उपभोग की अटूट श्रृंखला है.
आज हम उपभोग की पुरानी परिपाटी से भी बहुत दूर आ चुके हैं. उपभोग की इस परिपाटी को रोक सकना मनुष्य के बस की बात दिखाई नहीं देती. ऐसी स्थिति में तो और कठिन है, जब उपभोग ने गैर-भौतिक उत्पादन की प्रक्रिया से खुद को सम्बद्ध कर लिया हो.
सवाल यह है कि क्या किसी ऐप(app) को हम भाप के इंजन से जोड़कर देखने-समझने की स्थिति में हैं? अगर हम ठहरकर देखें, तो यह देखना कठिन नहीं है कि आज की तारीख में हमारा सामना एक दिन में जितने मनुष्यों से होता है, उससे कई गुणा अधिक मनुष्य रूपी छद्म विचारों से होता है. सूचना-प्राद्योगिकी ने मनुष्य की हर प्रक्रिया का एक गैर भौतिक छद्म तैयार किया है. अगर सांकेतिक भाषा में कहें, तो मनुष्य के आत्म का भी छद्म तैयार कर लिया गया है. वह दिन दूर नहीं जब हम छद्म मनुष्यों से निर्मित विशाल बाज़ार में जायेंगे और मनुष्य के रुदन की एक पतली चीख को सुनने के लिए तरस जायेंगे.
अमेज़न और फ्लिप्कार्ट जैसे बाज़ार, क्या मनुष्य द्वारा निर्मित बाज़ार शब्द का विरूपण नहीं हैं? क्या वहां, कोई मनुष्य है, जिससे हम चीज़ें खरीद रहे हैं? क्या मनुष्य रूपी छद्म के साथ हम सहज होते जा रहे हैं? यह एक नई संस्कृति है. जितनी तरह की चीज़ों को हम मनुष्य कहते हैं, इस संस्कृति ने उन्हें उतने तरह के चिन्हों में रूपांतरित कर दिया है. मोबाइल पर हम जिससे घंटो बात करते हैं, वे सब मनुष्य रूपी चिन्ह हैं.
चिन्हों के इस संसार ने हमारी वास्तविक चेतना पर वर्चस्व कायम कर लिया है. क्या हमारी भाषा, हमारी मृत्त संवेदना, हमारे यांत्रिक विवेक के पास क्या कोई रास्ता, कोई विकल्प है कि हम इस छद्म मनुष्य को वास्तविक मनुष्य से अलगा सकें?
अतिरिक्त की यह संस्कृति, एक निर्णायक मुकाम पर आ चुकी है. हम जल्द ही एक ऐसी स्थिति का साक्षात्कार करने वाले हैं- जहाँ हम खुद को छद्म में बदलते देखेंगे और कोई प्रतिक्रिया नहीं कर सकेंगे.
इन्द्रियां जब विवेक में कुछ भी जोड़ने में असमर्थ हो जायेंगी, उस वक्त हम स्वयं ही एक रोबोट में बदल चुके होंगे. मनुष्य ने मनुष्यता के विकल्प को खो दिया है. लेकिन सबसे दुखद यह है कि उसने खोने की चेतना को इस खोने से पहले ही गँवा दिया था.


अच्युतानंद मिश्र

कविता और आलोचना दोनों में समान रूप से सक्रिय अच्युतानंद मिश्र का जन्म 11अगस्त 1982 को बोकारो (झारखंड) में हुआ।
दो कविता संग्रह चिड़िया की आंख भर रोशनी में और आँख में तिनका ।उत्तर मार्क्सवादी चिंतकों पर केंद्रित विचार और आलोचना की पुस्तक बाज़ार के अरण्य में प्रकाशित। कविता पर केंद्रित आलोचना की पुस्तक कोलाहल में कविता की आवाज़ ।
प्रेमचंद: साहित्य संस्कृति और राजनीति शीर्षक से प्रेमचंद के प्रतिनिधि निबंधों का संकलन। साहित्य की समकालीनता शीर्षक के अंतर्गत साहित्य और समय के अन्तर्सम्बन्धों पर केन्द्रित लेखों का संकलन एवं संपादन. कबीर की कविता पर लेखों का संकलन-संपादन तथा प्रसिद्ध अफ्रीकी उपन्यासकार चिनुआ अचेबे के उपन्यास Arrow Of God का हिंदी में देवता का बाण शीर्षक से अनुवाद।
कविता के लिए वर्ष 2012 में शब्द साधक युवा सम्मान एवं वर्ष 2017 में भारतभूषण अग्रवाल सम्मान।
आलोचना के लिए दिया जाने वाला प्रतिष्ठित देवीशंकर अवस्थी सम्मान वर्ष 2021में कोलाहल में कविता की आवाज़ को।
सम्प्रति: श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय कालडी (केरल ) में अध्यापन।
मो.-9213166256
Email : anmishra27@gmail.com

 


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