दमन , लूट व हमें बेसहारा कर देने वाले कितने भी प्रयास हों, हम जीवन के लिए लड़ते रहेंगे। बाढ़ हो या प्लेग , अकाल हो या प्राकृतिक त्रासदी या फिर सदियों तक चलने वाले अविराम युद्ध – इनमें कोई भी मृत्यु से हमेशा ही अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाने वाली ज़िंदगी की हैसियत को घटा नहीं सका है । ज़िंदगी से लगाव को बने रहने और बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता …
कोलम्बिया के महान रचनाकार एवं फीडेल कास्त्रो के अनन्य मित्र रहे गाब्रिएल गासीॅया माकेॅस के 8 दिसम्बर 1982 को साहित्य के नोबेल पुरस्कार के वक़्त दिए गए वक्तव्य का यह एक अंश भर है। सुधी पाठकों के समक्ष सम्पूर्ण वक्तव्य प्रस्तुत है जो लेखक के अपने समाज, लैटिन अमेरिकी देश के प्रति गहरे लगाव को दर्शाता है। माकेॅस कहते हैं : मेरे जैसे कथाकार जो हर संभावना पर भरोसा करने के लिए तैयार हैं , उसे यह भी भरोसा है कि किसी यूटोपिया का निर्माण करने के मामले में अभी भी देर नहीं हुई है। जहां सौ साल के एकांत से बाहर निकलकर आई पीढ़ी को अंतत: इस धरती पर जीने का नया अवसर मिले ।
– हरि भटनागर
लैटिन अमेरिका का एकांत
अंग्रेजी से अनुवाद : वैभव सिंह
आपने एंटोनियो पिगाफिटा का नाम सुना होगा। वह एक अनोखा दुस्साहसी समुद्र-यात्री था जो पहली बार पूरे संसार के समुद्र की यात्रा पर अपने साथियों के साथ निकला था। दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप की अपनी यात्रा से जुड़े अनुभवों को उसने विस्तार से लिखा था। हालांकि उन अनुभवों में कल्पना के अतिरेकपूर्ण रोमांच अधिक थे। इस महाद्वीप की यात्रा के बारे में उसने लिखा कि मैंने ऐसे सूअर देखे जिनकी पीठ पर उनकी नाभि थी। ऐसी चिड़ियाएं जिनके पैर न थे। उनमें मादा चिड़िया अपने नरों की पीठ पर अंडे देती थीं। ऐसे समुद्री पक्षी जो जीभरहित थे और जिनकी चोंच किसी चम्मच की तरह प्रतीत होती थी। उसने ऐसे भयंकर जानवर का उल्लेख किया जिसका सिर व कान खच्चर जैसा था, शरीर ऊंट जैसा, खुर हिरन जैसे थे और वे घोड़े की तरह हिनहिनाते थे। उन्होंने लिखा कि उन्हें पैटागोनिया में एक स्थानीय व्यक्ति मिला और जब उसने आईने में अपना चेहरा देखा तो वह विशालकाय शरीर वाला व्यक्ति अत्यधिक उत्तेजित होकर अपना दिमागी संतुलन ही खो बैठा।
यह एक छोटी सी आकर्षक किताब, जिसमें हम समकालीन उपन्यासों की सर्वश्रेष्ठ कला का अनुभव कर सकते हैं, पर हमारे सत्य का सर्वाधिक आश्चर्यजनक दस्तावेज यह भी नहीं है। आसपास के देशों के इतिहासकारों ने कई अन्य आश्चर्यजनक यात्राओं व जोखिमभरे मिशन के बारे में हमें बताया है। एल्डोराडो, हमारी काल्पनिक दुनिया जिसे बहुत अधिक खोजा गया है, बहुत सारे नक्शो पर चित्रित हुई, वह नक्शानवीसों की सनक के अनुसार बदलती भी रही है। आपने अलवर न्यूनेज कैबेजा दि वाका का नाम सुना होगा जो 16वीं सदी के आरंभ में आया एक स्पेनिश यात्री था। वह अपने साथियों के साथ दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप में अमर यौवन प्रदान करने वाले झरने को खोज रहा था। उसने मैक्सिको के उत्तरी भाग में 8 साल तक यह खोज की। उस मिशन में शामिल थके और परेशान लोग अक्सर एक-दूसरे को ही मारकर खा भी जाते थे। कुल 600 लोग इस जोखिम भरे मिशन पर निकले थे और उनमें केवल 5 लोग जीवित बचे। इसी के सबसे छिपा हुआ रहस्य यह था कि 11 हजार खच्चरों पर, जिनमें हर एक के ऊपर 1 हजार पौंड वजन को सोना लदा था, वे एक दिन क्यूजको (पेरू देश का शहर) से अताहुलापा (16वीं सदी के इंका साम्राज्य का शासक) को फिरौती देने के लिए चले लेकिन फिर कभी वापस लौटकर नहीं आए। बाद में औपनिवेशिक काल में, वे कोलंबिया के शहर कार्टाजेना में ऐसे मुर्गे बेचते थे जिन्हें कछारी मिट्टी में पाला जाता था और जिनकी आंतों के बीच से स्वर्ण मुद्राएं मिलती थीं। स्वर्ण को लेकर हमारे पूर्वजों में जैसा उन्माद था, वह हाल के समय तक हमारे लिए अभिशाप के समान रहा है। पिछली सदी में समुद्रों को जोड़ने के लिए रेल लाइन बिछाने की योजना पर सक्रिय जर्मन मिशन का मानना था कि रेल लाइन तभी बिछाई जा सकती है जब पटरियां लोहे या किसी अन्य धातु की नहीं बल्कि केवल सोने की हों।
स्पेन से स्वतंत्रता ने भी हमारी नियति को अधिक नहीं बदला और न हमें पागल, सनकी तानाशाहों से मुक्त किया। मैक्सिकों का तानाशाह जनरल एंतोनियो लोपेज सनताना, जिसने अपना दांया पैर कथित ‘वार आफ केक’ में गंवा दिया था, उसे पूरे शानशौकत के साथ दफनाया गया। जनरल गार्सिया मुरैनो ने इक्वाडोर पर सोलह वर्ष तक निरंकुश शासन किया और मरने के बाद भी उसका शरीर अपनी संपूर्ण वेशभूषा, पदकों से सुसज्जित लौहकवच के साथ राष्ट्रपति के सिहांसन पर विराजमान रहा। जनरल मैक्सीमिलियन हरनांदेज मर्टिनेज जो अलसल्वादोर का तानाशाह था, उसने 30 हजार किसानों की हत्या करा दी थी। उसने भोजन में विष का पता लगाने वाले पेंडुलम की खोज की थी और सड़को की लाइटों को लाल रंग से ढंकवा दिया था ताकि लाल बुखार की महामारी को रोका जा सके। होंडूरास की राजधानी टेगुसिगल्पा के मुख्य चौराहे पर जनरल फ्रांसिस्को मोराजन के स्मारक को तैयार किया गया पर वह वास्तव में मार्शन ने (फ्रेंच सैन्य कमांडर) की प्रतिमा है जिसे पेरिस की पुरानी मूर्तियों के कबाड़ से खरीदा गया था।
11 साल पहले चिले के असाधारण रूप से प्रतिभाशाली कवि पाब्लो नेरुदा ने अपने शब्दों की शक्ति के बल पर इस महाद्वीप के बारे में लोगों का ध्यान आकृष्ट किया था। यूरोपियन मस्तिष्क में अच्छे व बुरे विवेक के बारे में खास तरह की समझदारी होती है। लैटिन अमेरिका के बारे में यकायक उनकी दिलचस्पी तेजी से बढ़ने लगी। यह भूक्षेत्र भ्रमित और धोखा खाए पुरुषों व श्रेष्ठ स्त्रियों के रूप में पहचाना जाने लगा जिनके असीम जिद्दीपन को उनके महान चरित्र से जोड़कर देखा जाने लगा। हमारे पास कभी अपनी कोई शांत, स्थिर दुनिया न थी। एक ग्रीक कथानायक प्रमुथ्यस जैसे राष्ट्रपति था जो सेना के खिलाफ लड़ता हुआ अपने ही महल में लगी आग में जूझता हुआ जलकर मर गया। दो हवाई जहाजों की संदिग्ध हालात में दुर्घटना ने लोकतंत्र के लिए जूझते उन सिपाहियों का जीवन लील लिया जिन्होंने राष्ट्र के सम्मान को फिर से स्थापित किया था। पांच युद्ध और सत्रह तख्तापलट की घटनाएं हुईं और आततायी तानाशाहों का जन्म होता रहा जिन्होंने ईश्वर के नाम पर लैटिन अमेरिका में पहला भयावह नरसंहार किया। इस बीच 2 करोड़ दस लाख लैटिन अमेरिकन बच्चे अपने दूसरे जन्मदिन को देखने से पहले ही मर गए जो कि 1970 से लेकर आजतक यूरोप में कुल जन्म लेने वाली जनसंख्या से अधिक है। करीब सवा लाख लोग प्रत्यक्ष दमन के कारण लापता हो गए। यह ऐसे ही है जैसे अकस्मात उप्पसाल्ला (स्वीडन का शहर) के सभी निवासी अचानक गायब हो जाएं और किसी को उनके बारे में कुछ पता भी न चल सके। अर्जेंटिना की जेलों में गिरफ्तार स्त्रियों ने बच्चे पैदा किए लेकिन उन्हें यह नहीं पता रहता कि उनकी संतानें कहां हैं और कौन उनकी संतान हैं। या तो उन्हें गुपचुप तरीके से दूसरों को दे दिया गया या फिर सेना ने उन्हें अनाथालय में डाल दिया। इस महाद्वीप की इन चीजों को बदलने के लिए दो लाख औरत-आदमियों ने अपना जीवन कुर्बान कर दिया और इनमें से मरने वालों में एक लाख से अधिक लोग मध्य अमेरिका के छोटे देश निकारागुआ, अल सल्वादोर और ग्वाटेमाला के चिले को अपनी आतिथ्य सेवा की परंपरा के कारण जाना जाता है पर दस लाख लोग यहां से भाग चुके हैं। यानी कुल आबादी के दस फीसदी लोग। उरुग्वे एक 25 लाख आबादी वाला छोटा सा देश है और यह स्वयं को महाद्वीप का सर्वाधिक सभ्य देश समझता है, वहां भी हर पांच नागरिकों में एक व्यक्ति निर्वासित हो गया है। अल सल्वाडोर में 1979 से चले गृहयुद्ध ने प्रत्येक 20 मिनट में एक शरणार्थी को पैदा किया है। अगर निर्वासितों व देश त्यागने के लिए मजबूर कर दिए गए सभी लैटिन अमेरिकी लोगों के लिए एक देश बनाया जाए तो उसकी जनसंख्या नार्वे की जनसंख्या से अधिक होगी।
मैं यह विश्वास करने का दुस्साहस कर सकता हूं कि केवल साहित्यिक कारणों ने नहीं बल्कि इन व्यापक असामान्य घटनाओं ने स्वीडिश लिटरेरी अकादमी का ध्यान लैटिन अमेरिका की ओर खींचा है। यहां हर तरफ ऐसा यथार्थ है जो केवल कागजी दुनिया तक सीमित नहीं बल्कि हमारे अंदर निरंतर स्पंदित होता है और रोजाना अनगिनत लोगों की मृत्यु के कारण भी इन्हीं में उपस्थित हैं। यह ऐसी दुनिया, ऐसा यथार्थ है जो सृजन की अविरल धारा को सूखने नहीं देता, जिसमें दुःख व सौंदर्य भरा पड़ा है और जिसमें भटकने और स्मृतियों में खोते चले जाने के अवसरों की कमी नहीं है। मैं कोलंबिया का हूं पर कोलंबिया केवल सौभाग्य से आज यहां अलग रूप में पहचाना जा रहा है। कवियों और भिखारियों, संगीतकारों व मसीहाओं, सैनिकों व दुर्जनों हम सभी जो इस अस्तव्यस्त संसार के रहने वाले हैं उन्हें थोड़ा अधिक कल्पनाशीलता को पैदा करना होगा। हमारे सामने बड़ी चुनौती अभी भी यही है कि अपने जीवन को जीने योग्य व विश्वसनीय बनाने के लिए हमारे भीतर के पारंपरिक स्रोत सूखते जा रहे हैं। यही हमारा अभिशाप है और हमारे विराट एकांत का सार है।
सभ्यता के इन झटकों ने हमें सुन्न कर दिया है। लैटिन अमेरिका का पूरा समाज, उसकी सभ्यता हमारी रगों में प्रवाहित होती है और अपनी संस्कृति के साथ जुड़ाव ने हमें हमेशा आनंदित किया है। पर ऐसा ही जटिल सच यह है कि हम अब अपनी संस्कृति-सभ्यता को अन्य लोगों को समझाने में विफल हो रहे हैं। इसे तब अनुभव किया जा सकता है जब बाहर से आए लोग, पराई सभ्यता से जुड़े लोग हमारा मूल्यांकन उसी कसौटी से करते हैं, जिसके सहारे वे अपना मूल्यांकन करते हैं। बिना इस बात को समझे कि सभी के जीवन के दुःख-सुख, त्रासदी और बिखराव के अनुभव एक जैसे नहीं होते। अपनी अस्मिता की तलाश हमारे लिए भी वैसी कठिनाइयों व रक्तपात से भरी रही है जैसी कि उनके लिए रही होगी। हमारे समाज-संस्कृति की व्याख्या करने वाले लोगों की कसौटियां हमें चोट पहुंचाती हैं। उनके कारण ही अपने परिवेश से हमारा अलगाव बढ़ जाता है, हम अपनी स्वतंत्रता को थोड़ा और खो देते हैं, यहां तक कि हम अकेलेपन से घिर जाते हैं और उसमें डूबते चले जाते हैं। संभवतः पुराना गरिमावान यूरोप हमारे प्रति अधिक सहानुभूति से भरा होता अगर उसने अपने अतीत को ध्यान में रखकर हमारे वर्तमान जीवन को देखने का प्रयास किया होता। अगर उसने यह भी याद किया होता कि लंदन को अपनी पहली रक्षा दीवार तैयार करने में तीन सौ साल का समय लग गया। या कि यह कि रोमन शासक इत्रस्कन्स द्वारा देश को इतिहास के दायरे में लाने से पहले रोम 2 हजार साल तक अंधकार में पड़ा रहा। यहां तक कि वे सभी शांतिप्रेमी स्विटजरलैंड के लोग जो आज हमें कोमल चीज (Cheese) और चमकती घड़ियों से खुश करना चाहते हैं, वे 16वीं सदी में यूरोप में खून की नदियां बहा रहा थे। पुनर्जागरण के अंतिम दौर में शाही फौज के 12 हजार सैनिकों ने रोम को लूटा और उसे मिट्टी में मिला दिया। वहां के 8 हजार लोगों का मार डाला गया।
मैं टोनी क्रूगेर के आदर्शों को साकार नहीं करना चाहता जिनके पवित्र उत्तर अमेरिका और भावपूर्ण दक्षिण अमेरिका के एकीकरण के स्वप्न ने इसी स्थान पर 53 साल पूर्व थामस मान को रोमांचित कर दिया था। पर यह अवश्य लगता है कि खुले दिमाग के तथा स्पष्ट दृष्टिकोण वाले यूरोपीय लोग जो अपनी व्यापक गृहभूमि के लिए संघर्षरत हैं, जो अधिक मानवीय व न्यायपूर्ण हो, वे हमारे विषय में अपने दृष्टिकोण में यदि सुधार कर लें तो हमारी अधिक सहायता कर सकेंगे। लेकिन जब वे जब हमारी अभिलाषाओं को पूरा करने में हमारा साथ देने की बात करते हैं तो हमें लगता है कि वे हमें अधिक एकांत की ओर धकेल रहे हैं। उनकी बातों में और शाब्दिक हमदर्दी में धोखा जैसा कुछ होता है। उनकी बातें ऐसे लोगों के प्रति सच्ची सहानुभूति से भरी नहीं होती हैं जो अपने बल पर अपना जीवन जीना चाहते हैं और अपने भीतर की अच्छी बातें संसार से बांटना चाहते हैं।
लैटिन अमेरिका में संकल्पहीन कठपुतली बनने की न तो चाह है, न ऐसी चाह होनी चाहिए। न ही इसकी स्वाधीनता तथा मौलिकता ऐसी हो सकती है जिसपर केवल पश्चिमी संसार की आकांक्षाओं की छाया पड़ती हो। आज के समय में यात्राएं करना सरल हो गया है। इस दौर में भले ही अमेरिका-यूरोप से हमारी भौगोलिक दूरी घट गई हो लेकिन ऐसा अभी भी लगता है कि सांस्कृतिक दूरी बढ़ गई है। साहित्य में हमारी मौलिकता को अविलंब स्वीकार कर लिया जाता है, जबकि भयंकर समस्याओं के बीच सामाजिक परिवर्तन के हमारे संघर्षों को विफल बनाने का प्रयास किया जाता है। वे क्यों नहीं यह जानना चाहते कि यूरोपीय देशों में प्रचलित सामाजिक न्याय की व्यवस्था हम लैटिन अमेरिकी लोगों के किसी काम की नहीं और भिन्न स्थितियों में भिन्न व्यवस्था की जरूरत होती है? हमारा रक्तरंजित और हिंसा से भरा इतिहास इहलौकिक अन्याय तथा अनंत कड़वाहट का परिणाम है, न कि हमारे देश से हजारों किमी दूर तैयार किए गए किसी षडयंत्र का परिणाम है।
पर कई यूरोपीय नेता और विचारक ऐसा ही सोचते हैं, अपने बचकाने दिमाग वाले पुरखों की तरह जो मानते थे कि हम कभी भी सही निर्णय नहीं ले सकते हैं। जैसे कि संसार के स्वामी प्रतीत होने वाले दो शक्तिशाली नेताओं की दया के बगैर हमारी जिंदगी आज भी बेसहारा और निरुद्देश्य ही है।
लेकिन जो भी हो, दमन, लूट व हमें बेसहारा कर देने के कितने ही प्रयास हों, हम जीवन के लिए लड़ते रहेंगे। बाढ़ हो या प्लेग, अकाल हो या प्राकृतिक त्रासदी या फिर सदियों तक चलने वाले अविराम युद्ध इनमें कोई भी मृत्यु से हमेशा ही अधिक महत्वपूर्ण मानी जाने वाली जिंदगी की हैसियत को घटा नहीं सका है। जिंदगी से लगाव को बने रहने और बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। हर साल मृत्यु की तुलना में करीब साढ़े सात करोड़ अधिक लोग पैदा होते हैं। न्यूयार्क में लगातार नए लोग जन्म ले रहे हैं। संसार में पैदा होने वाले अधिकांश लोग कम संसाधनों वाले देश में पैदा हो रहे हैं और इन्हीं में लैटिन अमेरिकी देश भी हैं। पर कैसी विडंबना है कि अधिक समृद्ध देशों ने धरती पर मौजूद और भविष्य में जन्म लेने वालों को सौ बार से अधिक बार समाप्त करने की विनाशकारी शक्ति जुटा ली है।
आज के जैसे ही किसी दिन मेरे गुरु विलियम फाकनर ने इसी स्थान पर कहा था कि ‘मैं मानवता के अंत की संभावना को स्वीकार करने से इनकार करता हूं।’ एक समय जहां वे खड़े थे, वहां मैं अपने को देखने में आज भी हिचक रहा हूं। मैं अनुभव करता हूं अब कि फाकनर ने 32 साल पहले जिस धरती व मानवता के अंत को स्वीकारने से इनकार कर दिया था, वह अब एक सामान्य वैज्ञानिक संभावना हो गई है। हम चारो ओर जिस खौफनाक सत्य से घिरे हैं, वह हमें बेचैन करता है। पर मेरे जैसे कथाकार जो हर संभावना पर विश्वास करने के लिए तैयार हैं, उसे यह भी भरोसा है कि किसी यूटोपिया का निर्माण करने के मामले में अभी भी देर नहीं हुई है। जीवन के नया और असीमित संभावनाओं पर विश्वास करने वाला यूटोपिया चाहिए, जहां किसी की मृत्यु कैसे हो इसके बारे में कोई फैसला न ले सके। जहां प्रेम पूरी तरह सच्चा और निष्कपट हो और जहां पर खुश रहना पूरी तरह से संभव हो। जहां सौ साल के एकांत से बाहर निकल कर आई पीढ़ी को अंततः इस धरती पर जीने का नया अवसर मिले।
अनुवादक- वैभव सिंह
वैभव सिंह
4 सितम्बर 1974, उन्नाव (उ.प्र.)।
पीएच.डी. तक की शिक्षा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली से।
प्रकाशित पुस्तकें : इतिहास और राष्ट्रवाद, शताब्दी का प्रतिपक्ष, भारतीय उपन्यास और आधुनिकता, भारत : एक आत्मसंघर्ष। अनुवाद : मार्क्सवाद और साहित्यालोचन (टेरी ईगलटन), भारतीयता की ओर (पवन वर्मा)।
सम्पादन : अरुण कमल : सृजनात्मकता के आयाम, यशपाल के उपन्यास ‘दिव्या’ पर आलोचना के सीडी संस्करण का। सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेखन और राष्ट्रीयअन्तरराष्ट्रीय सेमिनारों में भागीदारी। सम्मान : देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान, शिवकुमार मिश्र स्मृति आलोचना सम्मान, स्पन्दन आलोचना सम्मान, साहित्य सेवा सम्मान (भोपाल)। कुछ समय भारतीय वायुसेना में और स्वैच्छिक सेवानिवत्ति। फिर कछ साल पत्रकारिता और विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्यापन।
सम्प्रति : अम्बेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली में अध्यापन।
ई-मेल : vaibhv.newmail@gmail.com
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बहुत ही सार्थक और शानदार.
अनुवाद के लिए वैभव जी बधाई के पात्र.
बहुत शानदार वक्तव्य है। झकझोर दिया। बहुत अच्छा अनुवाद और लाजवाब प्रस्तुति।