1. गोंद इकट्ठा करने वाली बच्चियां

वे गोंद इकट्ठा करने वाली बच्चियां हैं
बबूल के तनों से बाहर
जो फूटता है प्रखर सूर्य के ताप से
टीकाटीक दोपहर में

वे चूसती हैं आम
हवा के झोंके से
जो टपक कर नीचे गिर पड़ते हैं
अधपकी इमलियों को
पत्थर मारकर गिराती हैं
उनकी घमौरियों भरी पीठ पर तकलीफें
पसीना बनकर चुनचुनाती हैं

निर्जन खेतों-पठारों में
कांटो से बचते हुए नंगे पांव
वे इकट्ठा करती हैं इतना गोंद
कि गांव की दुकान से
मिल जाए बदले में
गड़ा नमक, खड़ी मिर्च
और हल्दी की कुछ गांठें
इस तरह वे घर भर के भोजन के
स्वाद के लिए
बेचैन बच्चियां हैं
जो रोनी साग को नुनछुर और
चुप्पुर करती हैं
अपने कमाए हुए नमक, मिर्च और हल्दी से

जब असीसती हैं उनकी मांएं
तब ग्रीष्म के ये लंबे तपते दिन
उनके कमाए हुए सिक्कों की तरह
बजे उठते हैं सुनसान में।

2. अनाज गोदाम के मार्ग से दाने चुनती स्त्रियां

जो गोदाम में है
वह उनके लिए नहीं

वे दाने नहीं, सुख चुनती हैं
दुख को
कंकड़ो की तरह फेंकती हैं दूर

वे भूख के जाल में फंसी हुईं
मछलियां हैं
बाहर आने का प्रयत्न करती हुईं

देखो, उनका जीवट कि वे जिंदा हैं
देखो, उनका धैर्य सुबह से शाम तक
देखो, एक-एक दाने चुनने का
उनका कौशल
जो तुम्हारी थाली में परोसा गया
वह उनके लिए नहीं

वे पक्षी नहीं हैं
पर पक्षियों की तरह टिका है उनका जीवन
गिरे हुए
और बचे हुए अन्न पर
तेज वाहनों के बीच
वे सड़क की एक तरफ से दूसरी तरफ
दौड़ती रहती हैं
सूपा और झाड़ू लिये
जो भोज का व्यंजन है
वह उनके लिए नहीं

फट गई हैं उनकी साड़ियां
लट गए हैं उनके बाल
बिवाइयों वाले उनके पांव में
चप्पलें नहीं हैं
कभी-कभी वे खांसती हैं बेदम
एक किनारे बैठ कर
सुस्ताती हैं कुछ देर
उनके बच्चे उनकी राह तकते हैं
एक जून का अनाज
आंचल में बांधकर वे लौटती हैं उछाह से
भूख के शत्रु को पछाड़ती हुईं

वे कल के बारे में कुछ नहीं बोलतीं
वे कल के बारे में कुछ नहीं सोचतीं
वे जीती हैं बस आज का जीवन
कल उगने वाला सूरज
उनके लिए नहीं।

3. कालाहांडी

कौन हो तुम इस टीकाटीक दोपहर में
कौन देश-धाम से आए
इस विपद बेला में यहां
कि घर में अनाज का एक दाना नहीं कहीं
लोटा भर जल
और गुड़ की भेली भी कठिन ओ पाहुने

नदी में एक बूंद जल नहीं कहीं
दिन है कि खाली खलिहान
कट- कट कर गिरते हैं रूख
यहां रोज चलती है भूख की आरी
यहां राख हो चुका है समय
कभी कोई चिट्ठी नहीं आती
बस बंबरी के सूखे फल
कभी-कभी बजे उठते हैं सुनसान में

जहां तुम खड़े हो-वह जनपद है यह
उम्मीद पुरानी रोटी- सी भुरभुरा कर
जहां टूटने लगती है

कौन तोड़ता है सोने की थाली में
रोटी कालाहांडी की
कौन पीता है जल कालाहांडी का
चांदी के गिलास में
किसकी आदमखोर भूख मांगती है
लहू यहां के मानुष का

टीकाटीक दोपहर में
फूल नहीं, सपना मुरझाता है
कालाहांडी का

हम आदि वासी
अपने पहाड़ों से माफी मांगते हैं
माफी मांगते हैं जंगल से
सूखी हुई नदी से
अपने मिट्टी के घरों से माफी मांगते हैं
और चले जाते हैं कहीं दूर
किसी महानगर में मरने-खपने

फिर कई-कई दिनों तक
कालाहांडी में
गरम धूल
उड़ती रहती है

जा चुके लोगों की खोज में
गरम धूल।

 

4. राधा गुलाब

दो रंगों में एक फूल का जीवन है
या एक फूल के जीवन में दो रंग

दूध के कुंड में नहाकर
यह खिलता है
भोर के झुटपुटे में

धूप चढ़ते ही आता है दूसरा रंग
जैसे प्रेम आता है
उम्र के वसंत में

तुम ठिठक कर चौंकते हो भरी दोपहर
कि सुबह जो खिला था
क्या वही यह फूल!

* छत्तीसगढ़ में इसे पगला गुलाब कहते हैं। बंगाल में यह स्थल पदम(भूमि का कंवल) के नाम से जाना जाता है।

5. माँ और चेरी का फल

दो रोटियां ज्यादा सेंकती है वह
पकाती है थोड़ा अधिक अन्न
कि शायद आज वह आ जाए
कनस्तर में कम होता जाता है आटा
झोले में कम होता जाता है चांवल
कम नहीं होती उम्मीद लेकिन ह्रदय में

प्रतीक्षा की प्रचंड दोपहर में
उम्मीद हो जैसे चेरी का फल
सुर्ख, दहकता हुआ
रोटियां बासी पड़ जाती हैं रोज
बासी नहीं पड़ती उम्मीद

लालटेन की लौ धीमी करती है वह रात को
बुझाती नहीं पूरी तरह
कि शायद वह पुकारे
आधी रात
और चेरी का फल
उस पुकार की धमक से गिर जाए।

6. पुराने कपड़ों का बाजार

उनके लिए हर जोड़ा नया है
हर रंग चटख इस पुराने कपड़ों के बाजार में
जो लगता है मुंह अंधेरे उसी जगह
नई चीजों और नए कपड़ों के बाजार के
खुलने के बहुत पहले
बहुत दूर से आते हैं यहां गाहक
प्राय: पैदल या साइकिल खींचते हुए
या पहली लोकल पकड़कर
मोलभाव करके
जेब के अनुसार खरीद लेते हैं कपड़े

कोई जोड़ा खरीद लेने के बाद
उनकी खुशी देखते ही बनती है
रंग कुछ उधड़ा हो फिर भी चटख
तुरपाई कुछ खुली हो फिर भी नया

जैसे अपने पतझड़ को
नए-नए रंगों का वसंत ओढ़ाते हों।

7. जोड़ा तालाब

जुड़वां ज्यों दो बहनें बिल्कुल अगल-बगल
धरती की दो आंखें कितनी सजल-सजल
रगबग-रगबग पानी यह, कलबल- कलबल
लहर-लहर में धूप, तितली कंवल-कंवल
सपनों जैसे पेड़
छांह गहरी शीतल
ये कौन बटोही आया है मीलों चलकर
सुख में मिलता है दुख का लोहा गलकर।

8. आम का बगीचा

जमीदारी राज का आखिरी वैभव उजड़ता हुआ
आम का यह बगीचा
हर बारिश में गिर जाते हैं कुछ पेड़
हर बरस कम होती जाती है मिट्टी की उर्वरता
हर बरस कुछ कम फल आते हैं

सूख-सूख कर गिरती जाती हैं इसकी टहनियां
लकड़ी बीनने आई स्त्रियां जिन्हें बीन कर
ले जाती हैं

चैत-बैशाख की लंबी दोपहरी में
राहगीर सुस्ताते हैं इसकी छाया में

यहां पत्तों में छुप कर पकते हैं देशी आम
और बाजार में पहुंचने से बहुत पहले
धप्प से गिर पड़ते हैं हवा के छूते ही।

9. ओ काली चींटियो

ओ नन्ही-मुन्नी काली चींटियो, जाओ
मेरे बिस्तर पर घुड़दौड़ मत लगाओ
थका हूं मैं
जागा हूं रात भर

लंबे-लंबे वाक्यों के अरण्य में
आखेटक की तरह भटका हूं
कविता-मृग के पीछे
और लौटा खाली हाथ
टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर भटक कर

मुझे अब सोने दो

तुम भी कहीं जाकर सो जाओ
किसी घास की जड़ से लिपट कर
उसकी पत्तियों की छाया में
टीकाटीक दोपहर में भी
जहां ठंडा और सघन हो अंधकार

मिश्री नहीं हूं मैं
कुंभ हूं
विष से भरा

मैंने बहा दिया है उन फूलों को
वक्त की तीखी धार में
जिनकी महक से खिंचकर
तुम सब यहां तक आई हो।

10. दतैया का घर

इस पुराने स्टूल के काठ में
नीचे जो छेद है
वहां दतैया ने बनाया है घर

अपने नहीं, जैसे मैं
दतैया के घर में रहकर लिखता हूँ
बाहर वन में घूमकर वह लौटती है
कुछ देर मेरे वाक्यों और शब्दों पर
मंडराती है
फिर घुस जाती है अपने घर में
हम दोनों
भंग नहीं करते एक दूसरे की शांति
कोई गुप्त समझौता हो जैसे

हर रात फूलों की तरह
कुम्हला जाते हैं मेरे शब्द
हर शाम बाहर के संसार से
लुट-पिटकर लौटते हैं मेरे वाक्य

ओ दतैया
तुम दे दो अपना डंक मेरे वाक्यों को
मेरे शब्दों को दे दो अपना विष।


एकान्त श्रीवास्तव

जन्म : 08 फ़रवरी 1964, जिला – रायपुर (छत्तीसगढ़ का एक क़स्बा छुरा)।

शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), एम.एड., पीएच.डी. ।

कृतियाँ : अन्न है मेरे शब्द, मिट्टी से कहूँगा धन्यवाद, बीज से फूल तक, धरती अधखिला फूल है (कविता-संग्रह), नागकेसर का देश यह (लम्बी कविता), शेल्टर फ्रॉम दि रेन (अंग्रेज़ी में अनूदित कविताएँ), कवि ने कहा (चुनी हुई कविताएँ); मेरे दिन मेरे वर्ष (स्म ति-कथा); कविता का आत्मपक्ष, बढ़ई, कुम्हार और कवि, आधुनिक हिन्दी कविता और काव्यानुभूति (आलोचना); चल हंसा वा देश (यूरोप डायरी); पानी भीतर फूल, पंखुरी- पंखुरी प्रेम (उपन्यास), अँजोर (छत्तीसगढ़ी कविताएँ : हिन्दी अनुवाद सहित ), जितनी यह गाथा (कहानी-संग्रह); मेरे साक्षात्कार (इंटरव्यू)।

पुरस्कार : प्रथम ‘शरद बिल्लौरे स्म ति कविता पुरस्कार’, ‘रामविलास शर्मा पुरस्कार’, प्रथम ‘ठाकुर प्रसाद स्म ति पुरस्कार’, ‘दुष्यन्त कुमार पुरस्कार’, ‘केदार सम्मान’, ‘डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा सम्मान’, ‘सूत्रा सम्मान’, ‘हेमन्त स्म ति कविता सम्मान’, ‘जगत ज्योति स्म ति पत्राकारिता सम्मान’, ‘वर्तमान साहित्य मेलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार’, ‘वातायन (साउथ बैंक) कविता सम्मान’ : लन्दन, ‘शोभनाथ यादव सम्मान’, ‘स जनगाथा सम्मानँ’, ‘स्पन्दन कविता पुरस्कार’, ‘बसन्त सम्मान’, ‘शमशेर सम्मान’, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता का ‘साहित्य सारस्वत सम्मान’ आदि।

अनुवाद : कविताएँ अंग्रेजी व कुछ भारतीय भाषाओं में अनूदित एवं लोर्का, नाज़िम हिकमत और कुछ दक्षिण अफ़्रीकी कवियों की कविताओं का अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद।

सम्पादन : नौ वर्षों तक ‘वागर्थ’ का सम्पादन।

यात्रा : उज़्बेकिस्तान, इंग्लैंड, नीदरलैंड, बेल्जियम, फ्रांस, जर्मनी, इटली, वैटिकन सिटी, ऑस्ट्रिया, स्विट् ज़रलैंड आदि देशों की यात्रााएँ।

अन्य : देश के अनेक विद्यालयों-विश्वविद्यालयों के पाठ् यक्रम में रचनाएँ संकलित एवं रचनाकर्म पर शोध-कार्य। कवि-कर्म पर आलोचना पुस्तक ‘एकान्त श्रीवास्तव की काव्य-चेतना’ (साई नाथ उमाठे) और ‘एकान्त श्रीवास्तव : व्यक्तित्व एवं औतित्व’ (संगीता शिशिर यादव) प्रकाशित।


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