प्रांजल धर की कविताएँ
गुनाह था
(अरुण कमल, राजेश जोशी, लीलाधर मंडलोई, जितेन्द्र श्रीवास्तव, संजय मिश्र, वाज़दा खान और वन्दना मिश्रा के लिए)
अन्याय का प्रतिकार किया, यह गुनाह था,
चापलूसी नहीं की, यह गुनाह था,
चुगलखोरी नहीं की, यह गुनाह था,
एक बेगुनाह की औलाद था, यह गुनाह था,
यह कहा कि,
वो खुले आम खोलता है खिड़कियाँ सच की,
आओ बचाएँ उसे मार न डाले कोई,
यह कहना गुनाह था,
जो गुनाह कभी नहीं किया, वो सब मेरे नाम पर दर्ज़ था, यह गुनाह था
न किए गए ऐसे गुनाह गाँव के पोखरों में तैरते थे,
मेरी माँ ने एक ही नदी में वर्षों के अन्तराल पर
कम से कम दो बार स्नान किया और सृष्टि की रक्षा की दुआ माँगी,
ये गुनाह था,
मैंने ग़रीब लोगों के रास्तों से काँटे हटाए
और अपने हाथ को ज़ख़्मी किया, यह गुनाह था
दुख के समुन्दर में तैर ले जाना गुनाह था, डूब जाना नहीं,
इंसाफ का हर तराजू गुनाहगार था
पर सबसे बड़ा गुनाह यह था कि बच्चे काम पर जा रहे हैं
अंतिम सिपाही की तरह अपनी जान गँवाना भी एक गुनाह था,
गुनाह यह भी था कि कोई नेपाली बहादुर किस तरह
बेचारा अपना घर बचा रहा था,
और सबसे बड़ा गुनाह एक कवि ने ‘पीढ़ा’ नाम की कविता लिखकर की
यह गुनाहों का झुण्ड था या गुनाहों का देवता, निश्चित नहीं है
यह निश्चित न होना उम्मीद की तरह एक विचार की मानिन्द एक गुनाह है
वाज़दा की चित्रकारी एक गुनाह है
वन्दना मिश्रा की कलमकारी और ईमानदारी एक गुनाह है,
यह सब कुछ लिखना मेरा एक गुनाह है,
उर्वर प्रदेश का सपना देखना एक गुनाह है,
गुनाह तो यह भी है कि हम गुनाह को रेखांकित करते हैं,
चुपचाप बैठ क्यों नहीं जाते!
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तितली
(ए. अरविन्दाक्षन, शहनाज मुन्नी और फातिहा मोर्शिद के लिए)
तितली तुम कितनी कोमल हो
गमलों में घूमती-टहलती हो, छोटी-सी चिड़िया की तरह
बच्चे तुम्हें प्यार ही नहीं, दुलार भी करते हैं,
तुम्हारे रंग-बिरंगे पंख
ऐसे, मानो पूरी व्यवस्था को ही कोमल बना डालना चाहते हों,
तुम्हारी आहत कामनाएँ
मेरी क़लम और दवात पर पूर्ण विराम लगाती हैं एक!
पर ये तो बताओ कि कितना कठोर दिल पाया तुमने
जो नरम-नाज़ुक-मुलायम फूलों का रस चूसकर,
उनका अकथनीय शोषण करती हो!
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वायनाड
(वसन्त सकरगाए और हरि भटनागर के लिए)
कभी विद्रोह हुआ था वायनाड में,
दर्ज़ है इतिहास में
ई. वी. रामास्वामी नायकर यहीं कहीं आसपास
पेरियार में रहे होंगे या फिर अलप्पूझा में
सारी हरी पत्तियों के रस को उन्होंने
एक जैसा ही समझा और उसे ही जिया,
वही वायनाड बारिश में डूब रहा है
रोम जल रहा है
और नीरो बाँसुरी बजा रहा है
हुम्मा, हुम्मा, ताक धिना धिन्, ताक धिना धिन्।
नारियल के वृक्ष इस बर्बादी के फिरते गवाह हैं
वह बर्बादी जो प्रायोजित की गई।
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बेमेल हालात
(कवि पंकज सिंह के लिए)
सड़क पर चलने का पहला अधिकार पदयात्रियों का है,
काश! वसुधा पर हिंसा न हो कभी!
दोस्तों के लिए सब कुछ लुटाने वाले पंकज सिंह
तुम्हें लगभग सभी ने ठगा
और राजस्थानी बोतल कभी न आई
गदोरियों पर खैनी मलते हुए कुछ नहीं छिपाऊँगा
माँ ने नहीं जाना,
बीबीसी की वह आवाज़ जिसने तीन पीढ़ियों को उच्चारण सिखाया
हिन्दी का,
बिरतानिया हुकूमत ने हमें बहुत-कुछ दिया
ये सेना, पुलिस, अफ़सरशाही,
लाल-फीताशाही और भाई-भतीजावाद भी।
ये सब वे देकर चले गए अपने वेल्स या स्कॉटलैण्ड या इंग्लैण्ड की ओर।
रेल चलाई, डाक-तार दौड़ाए, लॉर्ड कहलाए,
एक कवि की बालसुलभ जिज्ञासा है कि
चमड़ी या जाति का रंग बदल जाने से
क्या बराबरी की जन्नत पैदा हो जाती है।
यही एक इत्तिका है कि उसूलों से समझौते नहीं किए जाते
रात में भी।
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अपराजिता
(श्री नरेन्द्र कुमार साहू के लिए)
नारी है अपराजिता
ऐसा सुनते आए थे,
ऐसा लगा कि महज़ पैसा कमाने के लिए
इससे ज़्यादा वाहियात कोई तरीका हो ही नहीं सकता।
ख़ैर!
ये वही अपराजिता के नीले फूलों की शत्रुहन्ता लताएँ थीं,
जिन्हें सुनसान या श्मशान में खुरपी से दफ़्न करना था।
भूगर्भ की ऐसी गतिकी थी कि,
जो आम हमने खाए,
उन वृक्षों को हमने नहीं लगाया था,
इन रंग-बिरंगे फूलों में
कालाहांडी का कारुणिक दृश्य देखता हूँ
यह भी देखता हूँ कि पद पर मदारी है
मुआफ़ कीजिए, मुआमला सरकारी है।
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मौन सर्वोत्तम
(श्री आर. के. एस. रौशन के लिए)
नुमाइश त्याज्य थी,
जमशेदपुर के रेलवे स्टेशन की किसी परित्यक्त इमारत की तरह
जहाँ खिड़कियोँ पर काई थी
जो ‘खूब ऊँचा एक ज़ीना साँवला’ की शक्ल में
केवल सच्चे इंसानों को ही फिसलकर
गिरा दिया करती थी
जो पढ़ा, जो देखा, जो भोगा और
जो कुछ भी जिया;
इनके बीच का विशाल अन्तर मुझे जीने नहीं देता था,
फिर एक रंगहीन श्वेत पुष्प लेकर मैं पगडण्डियों पर भटकता रहा,
पीछे मेरे परिवार भी,
वह क्षण
ग़ुलामीपसन्दगी से नफ़रत का श्रृंग था,
मैं अवाक् था, रहा, बचा, बच ही गया किसी तरह,
महसूस किया भीतर तक कि
मैं तो अपने पूर्वजों का बहुत हल्का-सा दुहराव भर था,
और मेरी जीवनसंगिनी इस दुहराव को
बिना किसी लिपि के पढ़ा करती थीं
शायद इसलिए कि मौन ही हमारे बीच सर्वोत्तम भाषण था।
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मोरे पिछुवरवाँ चँदन गछ
(श्री बिरंची सारंग के लिए)
फल्गू नदी के आसपास सीता जी के आसपास कई गवाह थे
पिण्ड का दान हो चुका था,
पर, मेरे घर के पीछे एक घूर था
बाबा उसकी खाद से खेतों को लहलहाया करते थे,
माई हमारी पोतियों और पोतों के पीछे वात्सल्य से पागल
बाबा की छाती धौंकनी थी और सरसों या चने का साग वो उगाते थे
हमें कच्चा खिलाते थे,
हम जैसे आज हैं, उसी तरह बच्चे थे,
वह मूलधन से ऊपर उठकर ब्याज की माया रही
मेरी दादी यानी माई की तरफ से,
माई-बाबा कहते रहे कि खेत जीवन देते हैं
ज़मीन को बाबा मेरे अपना पिता मानते थे,
दिन-रात लगे रहते थे
पेड़-पौधों को पालने-पोसने के अलावा उन्होंने नशा नहीं किया कोई
कभी भी!
इसी सात्विक नशे के खुमार में बचपन बीता हमारा
उनके कन्धों पर बैठकर।
माँ-बाप को तो हमने जाना ही नहीं,
मौका ही न आया ऐसा कभी। तो करें क्या?
जाना उन्हें, जिन्होंने घास की तरह मुझे दुलार दिया
वे मेरे बाबा-माई थे
माई सवेरे मुझे पसावन पिलाती थीं
और बाबा बरसीम खाई गाय का दूध।
माई उसी दूध से बनी छोटी कटोरी में घी पिलाती थीं मुझे, रोज़-रोज़,
मेरी माँ विरोध करती थीं कि मेरे बेटे का पेट ख़राब हो जाएगा
माई कहतीं, भागो यहाँ से!
तेरे पति को ऐसे ही पाला है, जिस पर तू इतना इतराती है,
अपने पोते को भी वैसे ही पालूँगी
भाग यहाँ से!
“और ध्यान रखना, मेरे पोते और मेरे बीच में आने की हिमाकत की, तो
कच्चा चावल कूटने वाली इसी ओखली ओर पहरुये से तोहार मूड़ फारि देब।”
कोल्हू में जब गुड़ बनता था, बैल लगे रहते थे, गन्ना न जाने कितना गिरता था, तो माई हमारी भेली यानी गुड़ बनने के दौरान मेरे लिए चार-छह आलू डाल दिया करती थीं।
वाह डेरेक जी, आपकी माँ के रुई के फाहे जैसे सिर के वात्सल्य भरे बाल याद आ गए। आपको नोबेल पुरस्कार मुबारक।
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जिजीविषा
(सुश्री भावना ठाकुर के लिए)
जिजीविषा का चरम था,
कुछ ऐसा कि मानो ओलम्प दि गूज़ बोल रही हों
कि यह नर्मदे हर से निकलता है,
अजेय पराकाष्ठा तुम्हारी,
सच्चरित्रता और सहृदयता में विचरती थी;
जैसी कोई चिड़िया माँ
जो अपने बच्चों की हाल-ख़बर लेने के लिए
तथाकथित देवताओं के आवास यानी आसमान से
नीचे उतरती है,
कहती है कि,
“केतनव पच्छी उड़ै अकाश/ चारा लेय अइहैं धरतिक पास।”
तुम ऐसी विशेषज्ञ हो गईं
जिनकी पढ़ाई का दायरा
उस अलभ्य शून्य तक चला गया जहाँ
निरर्थकता को पूरी तरह जान लिया जाता है,
नहीं, जान ही नहीं लिया जाता है,
जी लिया जाता है
जीने की कला उससे सीखें कि
पात्र और पात्रता, लीटर और मीटर
बहर और ग़ज़ल के दायरे से बाहर हैं,
पर आपसे नहीं।
आशा की किरण आप ही तो हैं।
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एक गिलास पानी
(पत्नी मोनू के लिए)
थका-हारा दिन भर की मुसीबतों को झेलकर
घर आता हूँ
तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा, मेरी थकान और
मेरे ऊपर लगाए गए तमाम नाजायज इल्जाम को
कबीर की बानी की तरह धो देता है, साबुन जैसे कोई,
तुम्हारे चेहरे में कोई आबे-जमजम है
जो एक गिलास पानी के लिए मैं गुजारिश करता हूँ
और तुम मुझे वह पानी का गिलास देती भी हो।
क्या कहूँ फिर गया जी, मथुरा जी, अयोध्या जी
या फिर मक्का मदीना और गज़ा पट्टी में मिलना
कुमारी मेरी की ज़मीन पर, आइज़ाबेला की तरह,
पाक कुरान की आयतें हमारे एक गिलास पानी का सबूत हैं
या फिर महीनों तक जलने वाला नालन्दा का कोई पुस्तकालय है!
जलन के उसी धुएँ से अगिनपाँखी बन जाऊँगा,
कोई कठफोड़वा पक्षी,
फिर नहीं कहिएगा कुछ भी।
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राजनीति
(परीक्षित साहनी, अरुंधति रॉय, राजकिशोर, योगेन्द्र यादव, शाहीना खान, ईशमधु तलवार, प्रेमचन्द गाँधी और अमृता प्रीतम के लिए)
व्यवस्था का विरोध करने के लिए तुम सब आए
बताया कि राजनीति गन्दी नहीं, अच्छी चीज़ है,
कविता में काँपते हुए किसलय झरते पराग समुदय।
वी. एस. नायपॉल ने केवल दो ही ईडियट्स की ही बात की थी।
हाँ भाई, यह एक कविता है, यह पूरी बातचीत एक कविता है। उन दोनों ईडियट्स के नाम ‘ए राइटर्स पीपुल’ नामक किताब में दर्ज़ हैं।
विमलेश त्रिपाठी के शब्दों में,
कोई कहीं मरा हुआ देश और मरे हुए लोग थे। कोई कविता में एक भगत था, लुगदी साहित्य लिखता था, कोई एक अभिनेता था,
प्रेमचन्द गांधी की कविता की पंक्ति है कि, अन्तिम कुछ नहीं होता, आखिरी साँस के बारे में सिर्फ मृतक जानते थे।
यह सारी कविता सृजन का एक व्याकरण है, सूद में हरसूद की तरह।
जाओ, जाके ले आओ भिखारियों के कटोरों को,
ले आओ उन लोगों के वस्त्रों को जिन्हें परिधान नसीब ही नहीं हैं।
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हाशियाकरण
(हेमन्त जोशी, मंजरी जोशी, रजनी तिलक, अनीता भारती और अशोक दास के लिए)
यह जो हाशिया है, एक दिन मुख्यधारा बन जाएगा,
उस मुख्यधारा में कोई हाशिया छूटने नहीं पाएगा।
भूल जाएगा अल्फ्रेड सावी तीसरी दुनिया का अपना सिद्धान्त
चलचित्र, दूरदर्शन सब निरर्थक ही रहेगा,
रहेगा तो केवल कलाकार का प्रयास।
रॉबिन जेफ्री और ब्लैक एण्ड व्हाइट टेलीविज़न रहेगा
ऊँचे बाँस पर टँगे हुए एण्टीने रहेंगे
और कोई एक देश बिना साक्षर हुए
इसी टेलीविज़न के सहारे साक्षरता की छलाँग लगाकर
उत्तर-साक्षर हो जाएगा।
जवाब बहुतेरे हैं,
पर उन सवालों के लिए नहीं
जो बुरी तरह हमें घेरे हैं।
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प्रांजल धर
जन्म – मई 1982 ई. में, उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के ज्ञानीपुर गाँव में।
शिक्षा – जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक। भारतीय जनसंचार संस्थान, जे.एन.यू. कैम्पस से पत्रकारिता में डिप्लोमा।
कार्य – देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र–पत्रिकाओं में कविताएँ, आलोचना, समीक्षाएँ, यात्रा वृत्तान्त, संस्मरण और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी समेत विभिन्न प्रसारण माध्यमों से कुछ कविताएँ प्रसारित। देश भर के अनेक मंचों से कविता पाठ। सक्रिय मीडिया विश्लेषक। अनेक विश्वविद्यालयों और राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में व्याख्यान। राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय महत्व के अनेक प्रतिष्ठित साहित्य और कला महोत्सवों में सक्रिय भागीदारी। ‘नया ज्ञानोदय’, ‘आजकल’, ‘नेशनल दुनिया’, ‘जनसन्देश टाइम्स’ और ‘द सी एक्सप्रेस’ समेत अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में पिछले डेढ़ दशक से नियमित स्तम्भकार। पुस्तक संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए देश के अनेक भागों में कार्य। जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों से जुड़े कार्यों में सक्रिय सहभागिता। पूर्वोत्तर भारत में शान्ति की दिशा में अनेक कार्य। 1857 की 150वीं बरसी पर वर्ष 2007 में ‘आदिवासी और जनक्रान्ति’ नामक विशेष शोधपरक लेख प्रकाशन विभाग द्वारा अपनी बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक में चयनित व प्रकाशित। अनेक लेख अनेक पुस्तकों और पाठ्य पुस्तकों में शामिल। बीबीसी और वेबदुनिया समेत अनेक महत्वपूर्ण वेबसाइटों पर लेखों व कविताओं का चयन व प्रकाशन। समकालीन भारतीय हिन्दी कविता पर अंग्रेजी में एक आलोचनात्मक लेख वेबसाइट http://www.goethe.de/ins/in/lp/prj/ptp/mag/en15613030.htm पर प्रकाशित। अवधी व अंग्रेजी भाषा में भी लेखन। इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) के जेण्डर, पर्यटन और शिक्षा संकायों की स्नातकोत्तर और स्नातक स्तरीय पाठ्य सामग्री का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद कार्य।
पुरस्कार व सम्मान – वर्ष 2006 में राजस्थान पत्रिका पुरस्कार। वर्ष 2010 में अवध भारती सम्मान। पत्रकारिता और जनसंचार के लिए वर्ष 2010 का प्रतिष्ठित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार। फरवरी’ 2013 में गया, बिहार में ‘बज़्म-ए-कलमकार’ की तरफ से विशेष लेखक सम्मान। वर्ष 2013 में इन्दौर में सम्पन्न सार्क (दक्षेस) के अन्तरराष्ट्रीय भाषायी पत्रकारिता महोत्सव में विशिष्ट अतिथि (2013) के दर्ज़े से सम्मानित। वर्ष 2013 में पंचकूला में हरियाणा साहित्य अकादेमी की मासिक गोष्ठी में मुख्य कवि के रूप में सम्मानित। वर्ष 2012 का भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार। पत्रकारिता के लिए वर्ष 2015-16 का हरिकृष्ण त्रिवेदी स्मृति युवा पत्रकार प्रोत्साहन पुरस्कार। कविताओं के लिए मीरा मिश्रा स्मृति पुरस्कार। हाल ही में साहित्य के लिए सन् 2020 का विष्णु प्रभाकर राष्ट्रीय प्रोत्साहन पुरस्कार।
पुस्तकें – पहला कविता संग्रह ‘अन्तिम विदाई से तुरन्त पहले’ साहित्य अकादेमी से प्रकाशित। ‘न्यू मीडिया और बदलता भारत’ (भारतीय ज्ञानपीठ से)। ‘मीडिया और हमारा समय’ (भारतीय ज्ञानपीठ से)। ‘समकालीन वैश्विक पत्रकारिता में अख़बार’ (वाणी प्रकाशन से)। राष्ट्रकवि दिनकर की जन्मशती के अवसर पर ‘महत्व : रामधारी सिंह दिनकर : समर शेष है'(आलोचना एवं संस्मरण) पुस्तक का संपादन। ‘अनभै’ पत्रिका के चर्चित पुस्तक संस्कृति विशेषांक का सम्पादन।
सम्पर्क :
… प्रांजल धर
सी-17, एन.पी.एल. कॉलोनी, न्यू राजेन्द्र नगर, नई दिल्ली – 110060
मोबाइल- 09990665881, ईमेल- pranjaldhar@gmail.com
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प्रांजल भाई को अक्सर पढ़ा है, लाज़वाब लेखनी है! साधुवाद!
बहुत सुंदर कविताएँ ।
कविताओं में जहां सामाजिक विसंगतियों का उद्वेलन है वहीं आत्मीय पारिवारिक प्रेम का स्पंदन भी है। परिवर्तन की लक्षित पर मूक आकांक्षा के संजोए शांत निर्झर सी प्रवाहमान सुंदर कविताएं, बधाई।
गोकुल सोनी, भोपाल
बेहतरीन कविताएं।
व्यक्ति केंद्रित कविताओं में रचनाकार के जीवन का अलक्षित सच अभिव्यक्त होता है।यह परंपरा में है
और ज़रूरी काम है।