नीलोत्पल की कविताएं : समय की कसौटी

ग्रीष्म का ताप , मेघों की गर्जना , सावन की रिमझिम फुहारें , शरद की मीठी धूप , शीत का कंपन , वसंत का उल्लास , चैत्र की स्वर्णिम आभा , क्या नहीं है नीलोत्पल की कविताओं में । नीलोत्पल की कविताओं का कैनवस बहुत बड़ा है । उनका विषय वैविध्य पाठक को चकित करता है , मंत्रमुग्ध करता है ।
‘ कोई आग पैदा कर रहा है ‘ कविता में कवि की भाषिक संरचना का अद्भुत नमूना देखने को मिलता है कवि लिखते हैं –

एक – एक पत्ती से उद्घोषणाएं होती हैं
निर्झर गीत झरते हैं और
अतुकांत उत्सव होता है ।

‘ हर बार मैं कहूं ‘ कविता में कवि कहते हैं –

हर बार मैं कहूं कि लौट आया हूं हिंसा के बीच से सही सलामत
तो यकीन मत करना
हो सकता है मेरे सही लौटने में किसी का चाकू लगा हो
और खून मेरी ख़ामोशी में बर्फ सा जम गया हो ।

नीलोत्पल की यह कविता वक्त की नब्ज पर रखा हुआ स्टेथेस्कोप है ।
‘ यह तय करने का समय है ‘ कविता में कवि लिखते हैं –

अपनी झक से बाहर निकल कर बहुत दूर न जाते हुए सही
किंतु शिद्दत से कहो अपनी बात
कुछ इतनी दूर तो जाएगी ही कि
अंधेरों में दफन हो रही इच्छाएं खलबलाएं
और जीभ पर रख ढ़ेरों सच
निषेध को खारिज करते हुए
आ जाएं हवा की हथेली पर।

समाज की जड़ता कवि के अंतर मन को उद्वेलित करती है, बेचैन करती है ।
एक कुशल शिल्पी की तरह कवि एक-एक शब्द को तराशता है और तब जाकर कविता को एक सुंदर कलेवर मिलता है ।
भाषा पर नीलोत्पल की गहरी पकड़ है । कनु के लिए कविता संवेदनात्मक भाषा का अप्रतिम उदाहरण है कवि की कविता से वात्सल्य का फूटता झरना अपने नैसर्गिक सौंदर्य से अभिभूत करता है । कवि कहते हैं –

उसके नन्हे हाथ समय की अद्भुत उड़ान को पकड़ते
पेड़ों के गहने छांवदार में सुस्ताते
किसी झरने के कोलाहल को महसूसते हैं ।
वह नहीं गा रही
मगर संगीत है उसके चुप रहने में ।

कवि के भावों की कोमलता स्निग्धता और मासूमियत कविता में प्राणों का संचार करती है।
नीलोत्पाल की ‘ किसान ‘ कविता यथार्थ से अनुप्रणित भाषा का जबरदस्त उदाहरण है । कवि कहते हैं –
वे नहीं रुक हल की तरह उतरते हैं धरती के भीतर
और जोत देते हैं अपने समय का बंजरपन ।
अनवरत वे बहते हुए चले आ रहे हैं
बिना किसी खिलाफत के
शब्द जीवन और पसीने के पक्ष में ।

किसान का सतत संघर्ष कवि की दृष्टि को बांध लेता है । संवेदना की नर्म नाज़ुक मिट्टी से अंकुरित कविता का यह बिरवा समय के मचान पर विस्तार पाता है ।
नीलोत्पल की ‘ एक दिन ‘ कविता हमारे समय पर सवालिया निशान खड़ा करती है । कवि कहते हैं –
एक दिन मिटा दिया जाएगा इतिहास के पन्नों से हमारा नाम
एक दिन ढहा दिए जाएंगे हमारे ईमानों के घर
एक दिन सत्य रह जाएगा विस्मृत पुण्यतिथि की तरह ।

नीलोत्पल की कविताओं में धार है और एक मारक व्यंग्यात्मक शक्ति है । उनकी भाषाई ताकत और विचारों की परिपक्वता उनकी रचनाओं को मजबूती प्रदान करती हैं ।
नीलोत्पल का रचना संसार व्यापक समीक्षा की मांग करता है । उनकी कविताओं पर चर्चा और परिचर्चा होनी चाहिए । उनकी कविताएं समय का वह हस्ताक्षर हैं जो प्रमाणिक है और उनकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए । यह समय की मांग है कि हम हिंदी साहित्य के पाठक ऐसी रचनात्मक ऊर्जा का महत्व समझे और उसका सही मूल्यांकन करें ।

टिप्पणी
-नीलम सिंग

संपादक-हरि भटनागर

 

कविताएँ

1.

माँ का सफ़र

माँ को ना क्रिकेट के बारे में पता है
ना अर्थव्यवस्था के

वह किसी मिनिस्टर को नहीं जानती
ना ही उसने कलेक्टर-कमीश्नर की तरह किताबें पढ़ी है

उसने कभी लालकिला नहीं देखा
ना ही उसने किसी इमारत की
ऊंचाई को छूने की बेकार कोशिश की

सिनेमा में ख़ास रुचि नहीं रही
लेकिन लोकगायिका की तरह
जीवन का हर मर्म गाती रही

चाहे दुख‌ के कितने पहाड़ टूटे
पर जीवन का संवाद बहुत स्पष्टता से कहा

वह ईश्वर को बहुत मानती है
लेकिन मैंने देखा
उसकी कोई प्रार्थना सुनी नहीं गई
उलटे उसने अपनी सच्चाई साबित करने में
दूसरों के हिस्सों की परीक्षा भी दी
पूरा जीवन खपा दिया

सरकार के बारे में
इतना ही जानतीं
कि घर की ज़रूरत से बड़ी नहीं होती

वह हमेशा बताती
घर के लिए क्या ज़्यादा ज़रूरी है
मसलन आटे के कनस्तर में
इतनी बार झांकती
कि सत्ताओं का चरित्र बहुत साफ़ नज़र आता

मैं घर से सत्ता का सफ़र इसी तरह तय करता रहा

——–०——

2.
हर बार कहूँ कि

हर बार कहूं कि
लौट आया हूं
हिंसा के बीच से सही सलामत
तो यकीन मत करना
हो सकता है मेरे सही लौटने में
किसी का चाकू लगा हो
और ख़ून मेरी ख़ामोशी में
बर्फ़ सा जम गया हो

मैं कहूं कि चीजों की तिलस्मी दुनिया ने
मुझे घेरा नहीं है तो मत मानना
हो सकता है मेरी उपयोगिता
विज्ञापनों के मार्फ़त बदली जा रही हो
और मैं मजबूर रहूं
कि दरअसल चीज़ें नहीं
आदमी अपनी शक्लें बदल रहा है

अगर वह मेरे बारे में
कमजोरी को ताक़त बता रहा है
या उसे बड़े हक़ से लिख रहा है
तो इसे प्यार मत समझ लेना
हो सकता है मैंने ही उसे उकसाया हो
या चूक गया हूं उसे समझाने में
हक़ीक़त में वह मेरी चूक बता रहा होता है

हो सकता है इन दिनों लिखने के लिए
कोई विचार करूँ
ज़रूरी नहीं वह कल्पना ही हो
हो सकता है दबी किसी की व्यथा हो
और आदतन तुम उसे पढ़ डालो
कहानी या कविता की तरह

हर बार मैं कहूं कि…

——–०——

3.

आत्या

आत्या हेमंत देवलेकर की करीबी रिश्तेदार है
जैसे समुद्र के रिश्तेदार है मछलियां,
पहाड़ के पेड़,
या दूर जंगलों में भटकती हुई
किसी की परछाई
बकरी या दूब में सहमी दबी ओस

वह अकेली निरूपाय-सी कंधों पर मटमैला झोला टांगे
रोजाना फ्रीगंज के पुल से उतरती चढ़ती
भीड़ के कोलाहल में विलीन हो जाती है

उसकी दुनिया में गुम हो जाने के
भयानक दृश्य है
पति और बेटा इस दुनिया में
इतने मुब्तिला है
कि वह रोजाना एक उम्मीद के साथ
उन्हें खोजने निकलती है

दरअसल यह उसका भ्रम भी है
जैसे हम सभी के होते हैं
खोजते खोजते वह इतनी दूर निकल जाती है
कि उसका दुख ही सुख लगने लगता है
उसकी ज़िंदगी का असली अध्यात्म भी यही है

कभी-कभी वह मुझे इतनी जिद्दी लगती है
कि मानो पहाड़ पर कोई नदी चढ़ रही हो
बार-बार गिरते हुए उसकी देह
आगे की ओर झुक गई है
जीवन विषम चीजों का थैला है

पुल से मक्सी रोड
मक्सी रोड से नीलगंगा की त्रिवेणी नापती
वह सदियों की एक अदना मुसाफ़िर है
ज़िद्दी इतनी कि
उम्र के अंतिम सफ़र में
अपने लिए घर बनाना चाहती है
यह जानते हुए
एक मकान बच्चे ने हड़प लिया
एक किराएदार ने
पति अलग ही मील के क्वार्टर में सालों से अंग्रेजी पढ़ाते हैं

जीवन असमाप्त रेखा है
इसी से आत्या ने बुने हैं अपने सपने

 

——–०——

4
तर्क

एक
दुकानदार बोला-
प्रेम का मूल्य दो जोड़ी कंबल से
ज़्यादा नहीं.

राजनीतिज्ञ ने कहा-
प्रेम का कोई पक्ष नहीं,
वह सिर्फ़ एक आशंका है.

धार्मिक ने कहा-
प्रेम आस्थाहीन है,
जाओ अपने अंतिम में डूब जाओ.

पतंगे ने कहा-
हर चाह एक मुक्ति है,
यह अप्रयास है
मृत्यु का तर्क भी प्रेम से छोटा है.

दो.

संत कहता है प्रभु की उपासना करो
और वह जीवन से विलग जाता है

दार्शनिक कहता है, जीवन एक रस्सी की तरह है
उसमें गांठें बांधों
और वह ढेरों रस्सियां बुनने लगता है

शमशान में डोमाजी उस्ताद कहते है
हर एक का अंतिम सच राख है
और वह अमरता का बेकार ख्याल छोड़ देता है

संत और दार्शनिक
जिस जीवन को बांधने लगते हैं

डोमाजी उस्ताद
अंत में उसे खोल देते है

—–0——

5
क्रिकेटिंग शाट

जब आप लय में होते हैं तो
हर शॉट फेवरेट हो जाता है.

डिफेंस भी सुंदर लगता है,
जैसे किसी ने तूफान को रोक दिया हो
और हिटिंग मानो पारिजात के फूल की तरह
धारासर बरसने लगती है

ड्राइव और पुल
दो भिन्न तटों पर लहरों का उनवान रचते हैं

कट और ग्लांस नृत्य की तरह
मन मोहते हैं.

स्ट्रेट ड्राइव माशा‌ अल्लाह
जंगल में खुल रही दिशाओं की ओर
आमंत्रित करता है

हाथों की कलाई मोड़ कर ज़मीन की सतह से
समुद्र की तलहटी छू आना
यह कमाल फ्लिक का है

स्क्वेयर कट में प्रेमिका सा टच है
छूते ही मन अधीर हो उठता है

लांग ऑन ड्राइव
किसी खूबसूरत पहाड़ के नाम सा है
लेकिन जैसे उसमें एक नदी बहती हो

अचानक किसी तार से उड़कर
एक नन्ही चिड़िया आसमान की ओर लपकती है
देखते ही देखते गुम हो जाती है
अपर कट में एक नन्ही चिड़िया रहती है

—–0——

6
ऐ जालिम-तख्ते-नशीं

मेरा घर सिर्फ़ मिट्टी का नहीं था
आग और पानी उसके नींव में थे,
अनगिनत धड़कनों से उसका राब्ता था

मैं जहां भी जाता
वह घर साथ होता
जब जब मैं तुमसे मिला
तुम भी उस घर का हिस्सा बने

बांस की अनुगूंज के सहारे
घर के लिए मचान बनाईं
उसी की फूंक में अनगिनत स्वर मिले

सागौन , साज, सेमल,बीजा, हल्दुआ, तिंशा, शीशम से
घर की रोशनदान और दरवाजों में
एक महकता जंगल बोलता था

ऐ जालिम-तख्ते-नशीं,
तुमने सिर्फ मेरा घर नहीं ढहाया
दिलों के चाक से बनने वाली
प्यार भरी मिट्टी रौंदी है

——0——

7
स्मृति एक जादू है.

सहसा उड़ती हुई कुछ तितलियां
मन के फूल पर आ बैठती हैं

बचपन में देखे गए
तमाम लोगों और जगहों को
उम्र के एक नए पड़ाव में
फिर से देखने का मन करता है

याद आती हैं अक्सर
बचपन की पसंदीदा जगहें

छोटी पटरी पर दौड़ती मीटर गेज ट्रेन
उज्जैन से फतेहाबाद मेरा बचपन लेकर पहुंचती थीं
लेकिन जरा‌ ठहरिए!
इस बीच
चिंतामण गणेश के बाद लेकोड़ा आता है
लेकोड़ा का जादुई तालाब
जिसमें सिंघाड़े ही सिंघाड़े तैरते नज़र आते हैं

इसे देखते ही इच्छाएं नाव हो जाना चाहतीं
सुदूर मछलियों के साथ
उनके घर की ओर निकल जाना
जिसे कोई किनारा बांध नहीं सके
इधर से उधर एक अंतहीन यायावरी

बरसों से भोई समाज इस तालाब के प्रहरी है

वहां से होती हुई रेल
फतेहाबाद के उस अंतिम पड़ाव पर पहुंचतीं
जहां दुनिया के श्रेष्ठ गुलाब जामुन
खाखरे के दोने और कुल्हड़ में
यात्री का इंतजार करते
उन दिनों रुपए एक के चार गुलाब जामुन मिलते

(फारसी के ‘गोल’और ‘अब’
माने फूल और पानी ने इस संरचना को जन्म दिया
और जामुन तो ठहरे मानने वाले

कहते हैं शाहजहां के रसोइए ने
पहली बार इस व्यंजन को बनाया था

यह डिश ‘लुकमत-अल-कादी’ से मिलती थी.

यही तुर्की के तुलुम्बे का भी हमशक्ल है
गुलाब जामुन)

आस्वाद ऐसा कि
कविता को ज़बान लग जाए

स्टेशन के एक ओर चंद्रावतीगंज और
दूसरी ओर स्वप्नों का गाँव फतेहाबाद

बाहर आते ही
गांव के सदाबहार पेड़, टीले, नदी,
खेत जाने के लिए छोटे पठारों से घिरा रास्ता,
सरपंच का ओटला स्वागत में मुस्कुराते मिलते

सरपंच का घर जहां से खाई तो दिखती थी
अमीरी और ग़रीबी की
मगर कमाल यह है इसे पाटते बच्चे ही थे
दिन भर ओटले पर धमाचौकड़ी
कोई कितना भी रोके, डांटे, कोई असर नहीं

काकाजी का घर भी कोई जादुई पिटारे से कम नहीं
घर के भीतर पीली मिट्टी से बना चुल्हा
जहां लकड़ी जलते ही रोटी की गर्म महक से भर उठता घर
साग, दाल, लहसुन और धनिए की चटनी ऐसा नमक घोलते कि
हम आजीवन के ऋणी बन गए

अनाज के कोठार जिसमें अक्सर कच्चे आम,
पपीता और जामुन दबाया करते
अगले कुछ दिन बेसब्री से पकने की प्रतीक्षा होती
यह उन दिनों का स्वाद है
जब कच्चेपन और पकने के बीच खेत जोते जा रहे थे

महुआ टपकने से पहले
पूरा गांव रक्स की‌ मुद्रा में प्रतीक्षा करता है

अनाज पकने का समय
इसी तरह हमारे जीवन को लास्य से भर देता

फतेहाबाद मेरे बचपन का वह ककहरा है.
जिसमें शब्द कविता की तरह उगते है

—-0—–

8
धीरे धीरे

धीरे-धीरे
लोग नफ़रत से प्रेम करने लगे है

धीरे-धीरे
हवा सख़्त कर दी गई है

धीरे-धीरे
धर्म निराशाओं को बढ़ा रहा है

धीरे-धीरे
किताबों की लिपि बदली जा रही है

धीरे-धीरे
शहर अपनी याददाश्त खोने लगे हैं

धीरे-धीरे
झूठ दस्तावेज की तरह
इस्तेमाल किया जाने लगा है

धीरे-धीरे / देश अपने भीतर पिघल रहा है

—–0—–

9
मेरा अपराध

अगर आपको लगता है चाँद सुंदर खिला है
आप इत्मीनान से देखते रहिए
मुझे उन हाथों ने परेशान कर रखा है
जो हत्या, बलात्कार, तानाशाही के समर्थन में
उठ खड़े हुए हैं

बढ़ती चुप्पियां एक निर्दोष को भी
शक के कटघरे में खड़ा कर देती है

मैं एक गिरते तारे को
देखना छोड़ सकता हूँ
मगर किसी गिरते हुए आँसू की पुकार से
नहीं बच सकता

आँसुओं की पुकार
एक पत्ते से उसका हरापन छीन लेती है

मुझे अपनी निस्सहायता का कोई भय नहीं
मैं घेर लिए जाने के बाद भी
अपने शब्दों की स्वतंत्रता नहीं छोड़ सकता

यह दुनिया जिसमें अपराध की स्वीकृति बढ़ रही है
मैं भरी मोहब्बत के साथ
इसे मानने से इनकार करता हूं

मेरा यह अपराध दर्ज किया जाए.

——-0——

10
समय बच जाता है

समय बच जाता है
हम नहीं बचते

हम रोटी में तबाह होते हैं
हम किताबों में दफ़न होते हैं
हम प्रेम में बिखर जाते हैं

हम एक पीढ़ी से
दूसरी पीढ़ी तक पहुंचते हैं,
हम एक मृत्यु से
अनंत मृत्यु के लिए तैयार रहते हैं

इससे पहले कि
हम जीवन समझते
समय निकल जाता है

—-0—-

11
ख़याल

मुझे कभी राजा बनने का ख्याल नहीं आया
राजा माने
ताक़त, युद्ध और अकेलापन

मैंने तो महज चींटियों के जैसा होना चाहा
उनके साथ ज़मीन पर क़दम ताल करते
साथ का कोई गीत गुनगुनाना चाहा

भरी बारिश में
सारी भारहीन नन्हीं पत्तियां की तरह
विनित होना चाहा

किसी निरीह के साथ
हमदर्दी या दया के भाव से नहीं
प्रेम और भरोसे के साथ
चलना चाहा

मेरी ज़िन्दगी मचान बनाते
कारीगर की तरह रही
जो अंत में हमेशा
नीचे रह‌ जाता है

हो सकता है आप इसे अलग ढंग से व्याख्यायित करें

लेकिन छूट जाने से
साथ चलना सचमुच बड़ा है

अंत में
कोई अंत नहीं रह जाता
सिर्फ़ साथ, साथ रहता है.

———-0———-
12
अश्लील

इन दिनों बहुत कुछ अश्लील है

अन्याय से मिली जीत अश्लील है
जुगाड़ से मिला पुरस्कार

भूखे के सामने खाना खाना अश्लील है
नफ़रत के माहौल में
चुप्पियां अश्लील है

मद भरे नारे अश्लील है
मुफ़्त की हर बात अश्लील है

वह रोशनी अश्लील है
जिसमें ऑंखें चौंधियां रही है
वे अमर कविताएं अश्लील हैं
जो मनुष्यता का एक क्षण नहीं बचा सकी

अश्लील है वे मान्यताएं
जिनमें स्त्रियां सहचर नहीं
वह कील जो ज़िंदा लोगों के लिए
ताबूत में ठोकी जा रही अश्लील है

 

नीलोत्पल
———-

जन्म: 23 जून 1975, रतलाम, मध्यप्रदेश.
शिक्षा: विज्ञान स्नातक, उज्जैन.

प्रकाशन: * पहला कविता संकलन “अनाज पकने का समय” भारतीय ज्ञानपीठ से वर्ष
2009 में प्रकाशित.
* दूसरा संग्रह ” पृथ्वी को हमने जड़ें दीं” बोधि प्रकाशन
वर्ष 2014 में.
* तीसरा संग्रह ” समय के बाहर सिर्फ़ पतझर है” लोकोदय
प्रकाशन से वर्ष 2021 में.

पुरस्कार: वर्ष 2009 में विनय दुबे स्मृति सम्मान
: वर्ष 2014 में वागीश्वरी सम्मान.

सम्प्रति: दवा व्यवसाय

सम्पर्क: 173/1, अलखधाम नगर
उज्जैन, 456 010, मध्यप्रदेश

मो. : 0-98267-32121
0-79877-25125
ईमेल – neelotpal23@gmail.com

 


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