रचना समय में लीलाधर मण्डलोई की कविताएं प्रस्तुत हैं। इन कविताओं में विस्थापन का दर्द गाढ़ा है। इन कविताओं से गुज़रते हुए महसूस होता है कि ये उन लोगों की कविताएं हैं जो अपनी जड़ों से हकाले जा रहे हैं और जो अपने वजूद के लिए लड़ते – मरते अपने देश के हवा- पानी में जीना चाहते हैं। ये कविताएं देश की चौहद्दी पार करती हुई विश्व कविता फलक से जुड़ती दीखती हैं जिनका दर्द एक – सा है। घोर मानवीयता के साथ ऐसी जिजीविषा है जो टूटने को क़बूल नहीं करतीं। इन कविताओं में हमें सहादत हसन मंटो की टोबा टेक सिंह कहानी का पात्र पीड़ा से कराहता दीखता है तो कहीं भीष्म साहनी के विस्थापन का दर्द झेलते बहुत सारे किरदार। महमूद दरवेश दीखते हैं तो कहीं फ़ैज़ अहमद फ़ैज़। ख़ास बात यह है कि ये कविताएं आज के जीवन के हाहाकार को रूप देती अमानवीय व्यवस्थाओं के बदलाव की मांग करती हैं जो आज का अहम सवाल है जिससे मुँह मोड़ना कहीं न कहीं हत्यारों के साथ खड़ा होना होगा।
हरि भटनागर
लीलाधर मण्डलोई की कविताएं
1. उनके साथ
खुले मैदानों में कितने लोग हैं और कहां – कहां ?
समुद्र के किस हिस्से में भागते लोगों की नावें डूब गईं
किन खंडहरों में डरे हुए वे बैठे हैं बिन पहचान
शरण के लिए वे किन सरहदों पर चीख़ रहे हैं
भूख से कितने बचे, कितने मरे
और दफ़ना दिये गए आंसुओं के बीच
कितनी मासूम स्त्रियों के साथ बलात्कार किया सैनिकों ने
चांद से उतरकर कितनी परियों ने गाईं
मृत बच्चों के लिए लोरियां
कँटीली बाड़ों को पार करते लहूलुहान को
मिली नहीं कोई चिकित्सा
और मवाद से भरे घावों को लिए
कितने लोग भटक रहे हैं जंगलों में
कितने देश हैं सुनते हुए रुदन, चीख़ें और
हाहाकार
कहां हैं? कहां हैं? पवित्र आत्माएं
कहां हैं? ओबामा और उसके राष्ट्राध्यक्ष?
जिनके साथ कोई नहीं है इस वक़्त
उनके साथ ज़रूर होगी धरती
एक टुकड़ा आसमान, कोई जलस्रोत
कोई पेड़ कोई फल कोई जीव ज़रूर होगा
2 . सरहद का ख़ून नहीं
अगर न होती ये धरती, ये आसमान
ये नदी, ये पहाड़ और उसकी नेमतें
घर से बेघर होने के बावजूद
इस घर में
घास का बिछौना है
और जंगल की रसोई
मैं इसकी बदौलत मिला
सृष्टि के पहले पुरुष, पहली स्त्री
और दुनिया की हर पहली चीज़ से
पहले स्वाद
पहले रंग
पहल स्पर्श
और पहले- पहल अनुभव से
जो प्रकट हुआ
रंगसाज़ की तरह
मैं घर यहीं बनाऊंगा जहां
सरहद का ख़ून नहीं है अभी
3. वे मरे नहीं
बेवतन होते हुए जब उन्होंने पलट के देखा
उनके बहुत से लोग साथ में न थे
कई और लापता थे
वे मरे नहीं और वतन के काम पर हैं
उनके चेहरों को पहचानना मुश्किल
आज़ादी के नक़ाबों में ढँके
अब वे समाचारों में हैं
वे मरे नहीं और यक़ीनन, वे ही हैं
छापामार युद्ध में अब उनका कोई सानी नहीं
4. निष्ठुर ही सही
हम अब देश के बाहर हैं
देश के उत्तराधिकारी नहीं
हमारी जायदाद कुर्क हो गई
और आसरा नहीं और
हम छान रहे हैं जंगलों की ख़ाक
सीमा पर हमारे साथ क्या होगा मालूम नहीं
फ़िलहाल निष्ठुर ही सही एक शरण हो
घृणा के आघातों की हमें परवाह नहीं
बच्चों के लिए उनके अट्टहासों के बीच
हम संघर्ष के लिए प्रस्तुत हैं
हमारे भीतर के इस्पात में कोई ज़ंग
लग नहीं सकती
एक दिन हम अपना देश लेकर रहेंगे
5. अपने देश के लिए
मैं इस पार जिन दोस्तों के सहारे हूं
उनमें हैं नन्हे गुबरैले
मकड़ियां, दीमकें, जल पक्षी
कुछ हरियाते पौधे, विहँसते फूल
और मछलियां और कछुए
रात में उन तारों को देखता हूं जो
बने रहते हैं साथ और जगह नहीं बदलते
संत्रास के इन दिनों में कँटीली यादों के बीच
मैं समुद्र से उठते ज्वार को भीतर
महसूस करता हूं
और किनारे की सदियों पुरानी चट्टान हो
जाना चाहता हूं
मैं अपने देश के लिए ऐसा कुत्ता होना
चाहता हूं
जो बदलता नहीं अपना मालिक कभी
मैं एक बिक जाने वाले लेखक, पत्रकार के बरअक्स
बना रहना चाहता हूं एक ऐसा लड़ाकू
जिसके सपनों में जलती है आज़ादी की लौ
6. शेष कुछ और नहीं
वे जिन्हें छोड़ना पड़ा अपना गांव
अपना घर और देश एक मासूम बच्चे की तरह
वे अब भी खानाबदोश हैं
उनके सिरों पर गृहस्थी का बोझ है सदा
वे किसी ठौर- ठिकाने के लिए एक से
दूसरे देश भटकते रहते हैं
उनके पास पहचान के लिए अब सिर्फ़ उनके अपने
संस्मरण, यात्रा वृत्तांत और अपनी अलिखी आत्मकथाएं हैं
वे हिन्दी के लेखक की तरह नहीं हैं जो लिखते रहते हैं
अपनी आत्मकथाओं में अपने साहित्यिक
जीवन के कारनामे
कुछ और अपने कला – जीवन की स्मृतियों पर इतराते हैं
उनके पास नहीं है हद से बेहद होताजीवन
इसलिए वे आत्मकथाओं की जगह
अपने आत्मप्रलाप को आत्मकथा की तरह छपवाते हैं
उनका छपा जब पहुंचता है ख़ानाबदोशों के पास
वे मुस्कुराकर पढ़ते हुए अगली यात्रा पर निकल जाते हैं
7. रोना नहीं रोते
वे अपार दुखों और संकटों के बीच
एक ऐसे सफ़र पर हैं जो ख़त्म नहीं होता
दिल्ली में सीरिया का एक युवक मिला
उसके वीरान चेहर पर जीवन की मरियल उजास थी
इराक़ से आई एक स्त्री अपने बचे – खुचे अखरोट
सरोजिनी नगर में बेच रही थी
हींग की आख़िरी कुछ डिबियों में
उसके बच्चों की सांसें थीं
लड़ता हुआ व्यक्ति कभी नामस्मरण नहीं होता
यह मुझे सीरिया और इराक़ के इन लोगों ने बताया
वे अब भी अपने सपनों में वतन के आज़ाद होने से कम
कुछ और नहीं देख पाते
मैं नहीं जानता वे किस पुल के नीचे बसेरा करते हैं
वे संभावनाओं के अंधेरे में अब भी
सूरज के खिलने को देखते हैं
उनके माथे भीगे रहते हैं दिल्ली की गर्मी में
वे किसी के सामने पसारते नहीं अपने हाथ
वे हमारी तरह जीवन का रोना नहीं रोते
8. सपने से बाहर
गा रहा है उनका रुधिर घृणा के गीत अपनी
भुजाओं में
मलबे के ढेर पर वे बैठे हैं और यहीं बजाएंगे
अपने ढोल
तारों से अनुपस्थित आकाश के नीचे
जल रही हैं उनकी ढिबरियां अंधेरों से लड़ते हुए
निर्वासन में उनकी सांसें सामान्य से अधिक
गति में हैं
अधिक से कहीं अधिक जन्म ले रहे हैं उनके
सपने
सपने से बाहर निकलकर वे
देखते हैं उनके उठे हाथ सपनों में
वे हस्बेमामूल हैं अब तक
और उनके नाख़ून ख़ून की लालिमा से भर उठे हैं
9. ख़ुशआमदीद
जब घर छोड़ा ख़ुदाहाफ़िज़ कहते हुए
दरवाज़ा बंद न होकर ज़ोर से खुला
पिंजरे से आज़ाद हुआ तोता
पेड़ पर बैठने की बजाय मँडराता रहा घर में
डपटने के बाद भागी नहीं बिल्ली
और म्याऊं- म्याऊं करती हिलाने लगी पूंछ
बचा-खुचा सामान बेकाम होकर मानो
चीखने लगा
हर किसी ने सुना ख़ुदाहाफ़िज़ घर में
घर ने सुनकर भी नहीं सुना
तोता पिंजरे के आसपास डोलते हुए
बोल रहा था
बस एक ही शब्द ‘ख़ुशआमदीद’
10. एक और लड़ाई
यह मातमपुर्सी का वक़्त नहीं
आंखों में आंसुओं को जगह न दो
काले वस्त्रों से परहेज़ करो
मत बोलो ग़ुलामों की तरह
सुनो समुद्र की दहाड़
बाज़ का अपने शिकार पर झपट्टा मारना देखो
पुरखों को याद करते हुए एकजुट हो जाओ
यह विलाप का समय नहीं
एक और सेना के गठन का अंतिम मौक़ा है
इस जंगल में बजाओ अपना ढोल
अपने लोगों को आवाज़ दो
देश से बाहर सही
हम हैं एक और लड़ाई के लिए
11. एक नहीं करोड़ों बीज बनाम शहद आवाज़
मैं एक बीज की तरह होना चाहता हूं
धरती के भीतर एकांत में एक बड़ी
हलचल की मानिंद
मैं सचमुच अपने लिखे में
मिट्टी का हिस्सा बनकर उगना चाहता हूं
बढ़ना चाहता हूं एक पौधे की तरह
मैं एक कल्पवृक्ष की तरह लोगों की चेतना में
जगह चाहता हूं
मेरी शाखा – प्रशाखा में ढेर से घोंसले हों
अनगिनत पाखी करें बसेरा
मैं शहद आवाज़ों के नाद में बना रहना
देखता हूं
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बहुत ही संवेदनशील अभिव्यक्ति
सही कि वे रोना नहीं रोते. विविधवर्णी का आस्वाद भिन्न-भिन्न.