टूटी परिधि का वृत्त
-उपासना
रात आसमान को आगोश में कसती जा रही थी। अमरूद की डाल पर झूला लटक गया था। झूला चर्रऽऽ…चर्रऽऽ… हवा में झूल रहा था। आँगन में एक खूब बड़ा मन्दिर आ गया था। मन्दिर के विशाल दरवाजों पर भाले-सी नुकीली डिजाइनें बनी थीं। अन्दर मूर्ति के पास रखा दिया तारे-सा टिमटिमा रहा था। चम्पा सोए थे। शतदल की पारी थी। शतदल पहरे पर थे।
मन्दिर के बाहर फिर पदचापों की आवाज थी। वही विशालकाय राक्षस आया था। आधी रात की कच्ची नींद थी। शतदल की आँखें बार-बार मुँद जा रही थीं। राक्षस ने दरवाजा खटखटाया। शतदल, चम्पा की सिखाई बात भूल गए कि उन्हें उल्टा बोलना है। वो नींद में ही चिल्लाए…
– “चम्पा सोया है…शतदल जगा है!”
राक्षस ने जैसे ही सुना कि चम्पा सोया है उसने दरवाजे पर जोर की लात मारी। दरवाजा खुल गया। शतदल डर से चीख उठे…
– “माँऽऽऽ !”
चीख मारते ही माकुर की आँखें खुल गईं। बगल में पिता नहीं थे। दरवाजे से सुबह की उनींदी रोशनी कमरे में छिटकी थी। सारी चेतना देर तक भय के झंझावात में घिरी रही थी। अब अचानक से सब एकदम रिक्त, उदास व सूना लग रहा था। कमरे में कोई भी नहीं था। आँखें मलते माकुर बाहर निकल आए। भोर धीरे-धीरे अपनी सुनहरी चोटी खोल रही थी। रात का जूड़ा बँधने वाला था बस। रात शर्मीली थी। वह अपना जूड़ा बाँधकर उसे उजले आँचल से ढँक लेती थी। मिट्टी का दोमुँहा चूल्हा तुरन्त का लीपा गया था। अमरूद की डालों पर पत्तियों के सिवा कुछ नहीं होता था। बुआ उसकी सूनी डालों में से किसी एक पर पोतन टाँग रही थी। काकी कुल्ली कर रही थी। रसोईघर के दरवाजे पर बल्ब अब तक जल रहा था। खपड़े पर एक ओर कौवा चीख रहा था। दूसरी ओर श्यामा अपने चूजों को जगा रही थी। माकुर की अम्मा भी उनको सुबह-सुबह जगा देती थी।
माँ को माकुर ‘अम्मा’ कहते थे। हालाँकि माँ को अपने मन में ही उन्होंने मम्मी कहा था। इस मन में कहे को उन्होंने एक बार प्रगट में भी कहा था। पर ‘मम्मी’ कहते ही उन्हें अपनी ही आवाज बिरावन सी प्रतीत हुई। उन्होंने फौरन ही सुधार लिया…।
– “अम्मा होऽऽ!…ए अम्मा, खाना दऽऽ!”
जब यही अम्मा मर गईं तो माकुर बहुत दिनों तक भयंकर बेचैनी में जिए। न रोते – न सो पाते। आखिर कोई तो उपाय होगा कि वो एक बार अम्मा की आवाज सुन सकें। इसी ताक में एक दुपहर जब पिता पंडीजी के दुआर पर नीम की छाँह तले सोए थे, माकुर ने ठाकुर जी की कोठरी खोली थी। माकुर जानते थे कि मर जाने के बाद का सारा हाल और खोज खबर का कोई उपाय सिर्फ ‘गरुड़ पुराण’ से ही मिल सकता है। माकुर ने अम्मा के श्राद्ध में गरुड़ पुराण सुना था… कि यमदूत बुरी आत्माओं द्वारा खाना माँगने पर टट्टी, पीब, खून, मवाद और वमन की नदी वैतरणी में डुबो देते थे और कहते थे, “ले हूर !”
माकुर यूँ तो शत-प्रतिशत आश्वस्त थे कि ऐसा कुछ उनकी अम्मा के साथ नहीं हो सकता क्योंकि उनकी अम्मा बहुत अच्छी थीं… बहुत, बहुत, अच्छी। लेकिन उन्हें इन सारी बातों से कोई मतलब नहीं था। उन्हें तो बस अम्मा की आवाज सुननी थी। पर गरुड़ पुराण उलटते हुए उन्हें एक पंक्ति मिली थी –
– “जो इस संसार से चला गया है उसके लिए तुम सौ वर्षों तक रोते रहोगे तब भी वो वापस नहीं आएगा।”
माकुर बहुत रोए थे उस दिन। लार, नेटा और आँसू एकमेव होकर लिसड़ गए थे। बेशक वे गूढ़ बातें ना समझते हों… पर अब यह पंक्ति उतनी जटिल नहीं रह गई थी। कौन था दुनिया में जो उनसे ऊबता ना हो… और तमाम अऊँजाहट के बीच भी (दाल ना सींझे होने पर) गरम भात, घी, नून, सानकर चिरौरी करता, “मोर बाबू नऽऽ खा लऽऽ!”
खपरैल की छत व मिट्टी की मोटी दीवारों वाले तीन कमरों के बाद चौड़ा आँगन था। कमरों की दीवार से आँगन की ओर बाँस गाड़कर फूस का छप्पर डाला गया था। छप्पर तले एक ओर चौकी थी, दूसरी तरफ रसोई बनती थी। रसोईघर बर्तन व उपले रखने के उपयोग में था। तीन कमरों के आखिर में ठाकुर जी की छोटी सी कोठरी थी। खपरैल की छत पर कोने की दीवार के सहारे कोंहड़े की बेलें फैली थीं। बेलों की एक गाढ़ी झुरमुट के बीच श्यामा चिरई का घोंसला था। घोंसले में चूजे थे। दूसरी श्यामा अपना घोंसला तैयार करने की जुगत में थी। एक ओर चुपचाप अमरूद खड़ा था। पेड़ के बाद ऊँची खड़ी दीवार थी। दीवार के कोनों पर कहीं-कहीं घास-पात उग आए थे। दीवार के पार रास्ते पर चलते हुए दीवार की परछाईं दूर तक साथ जाती थी। परछाईं से अलग जाकर दीवार की ओर देखने से आँखें संक्रान्ति की परवर्ती धूप में चौंधिया जाती थीं। सूरज अभी मकान के ऊपर नहीं आया था। माकुर… यानी मारवर्धन चतुर्वेदी से पिता चिढ़ने लगे थे। चिढ़ इसलिए कि, बजाए इसके कि माकुर हमउम्र संगी-साथियों में खेलते… वह दिन भर या तो किताबों में सिर खपाए रहते या पोखर के किनारे बरगद की छाँह में बैठे एक-एक कंकड़ पोखर में फेंकते जाते।
– “दिन-रात तऽ पोथी में ही सिर दिए रहते हैं… तबऊ नम्बरवा लड्डू ही आया है।”
ठीक इसी वक्त जब पिता बड़बड़ाना शुरू करते थे, बुआ पिता का फिलिप्स रेडियो, पार्ले जी और पानी का गिलास छोटे टेबल पर रख आती थीं। माकुर को लगता था जैसे अम्मा जरूर अपनी कोई चीज बुआ के पास छोड़ गई थीं। माकुर ने बुआ से दूध के साथ दो रोटियाँ माँगीं। बुआ ने माकुर की ओर पीठ करके दूध में चार रोटियाँ तोड़कर डाल दीं। माकुर जानते थे यह मीठा छल बुआ ने माँ से सीख लिया है। बिन कुछ कहे वो चुपचाप रोटियाँ खा गए। श्यामा पंख फड़फड़ाती पूरे आँगन में उड़ती फिर रही थी।
पिछले साल अमरूद की डाल पर गौरैया ने घोंसला बनाया था। गौरैया पूरे आँगन में फुदकती रहती थी। उसने अंडे दिए थे। माकुर अंडों को हाथ में लेना चाहते थे। अम्मा ने समझाया था कि अंडों को छू लेने से गौरैया उन्हें ‘सेएगी’ नहीं। फिर बच्चे कैसे आएँगे भला? माकुर व्यग्रता से चूजों की प्रतीक्षा कर रहे थे। अक्सर गौरैया का घोंसला देखकर अम्मा गुनगुनाने लगती थीं…
– “चिरई बड़ा जुलुम कई दिहलु,
अँगना में खोंता लगवलु नाऽऽ!”
अम्मा हँसकर बुआ को ताक रही थीं,
– “ननद जी अइली काजल लगइली
ननदी बड़ा जुलुम कई दिहलु
भइया से लइया लगवलु नाऽऽ !”
बुआ हँसने लगीं। अम्मा और बुआ को हँसते देख माकुर भी हँसने लगे थे।
माकुर हँस पड़े। अचानक उन्हें लगा रेडियो में सही स्टेशन मिलाते पिता थम गए हैं और हतप्रभ उन्हें ताक रहे हैं। सहमी हुई बुआ कभी उन्हें देखतीं… कभी पिता को।
अमरूद पर सचमुच का फल नहीं था। माकुर ने झूठमूठ ही लाठी पटकी…
– “ठाक्क !”
झूठमूठ का होते-होते पता नहीं कैसे सब सचमुच का हो गया था। झूठमूठ की मरती काकी को बचाती-सहेजती अम्मा सचमुच ही मर गई। माकुर ने घृणा से देखा काकी को…
– “बुड़बोगनी बुढ़िया!”
बुआ ने पुकारा – “काकी!”
बूढ़ी ऊँचा सुनती थीं। बोरे पर बैठी-बैठी वह ऊँघ रही थी। सिर दाहिने कन्धे पर लुढ़क गया था। खुले मुँह से लार चू रही थी। बुआ ने जाकर काकी के कन्धे हिलाए – “काकी!”। बूढ़ी चिहुँक गई। बुआ लोटा और गिलास धरकर चली गईं। बुढ़िया ने लोटे में झाँका। फिर बुढ़िया ने रामानुज चतुर्वेदी को देखा। उन्हें सही स्टेशन मिल गया था शायद। वो रेडियो सुनने में व्यस्त थे। बुढ़िया ने अपना पोपला मुँह झूठमूठ का हिलाया और थोड़ी सी चाय गिलास में डालकर लोटा सुलगते रहने के लिए बोरसी की बची हुई आँच पर रख दिया था। माकुर जानते थे बुढ़िया चाय की मात्रा से सन्तुष्ट हो गई है मगर फिलवक्त भर के लिए! लोटा भर चाय पी लेने के पश्चात बुढ़िया में ताकत आ जानी थी। बुढ़िया फिर फुर्ती से उठती थी और टोले के किसी एक घर को चुनने के पश्चात उसे दिन भर के लिए अपना ठौर बना लेती थी।
घर की मालकिन पूछती थी, “काकी जी, चाह पियनी हाँऽ ?”
काकी आदतन इधर-उधर झाँकती थीं। काकी की हर उँगली के तीन हिस्से थे सिवाय अँगूठे के। काकी चार उँगलियों को सटाकर उनके दूसरे हिस्से पर अँगूठे का पहला हिस्सा रखकर कहती थीं, “हेतनी भर पियनी हाँऽ !”
पूछने वाली को काकी पर मोह आ जाता था। वह बूढ़ी को चाय बनाकर पिलाती थी। सिर्फ इतना ही नहीं पूछने वाली मालकिन ने निक-बाउर जो कुछ भी पकाया था, बुढ़िया को खिलाती थी। घर भर का हाल समाचार लेती थी। हाल-समाचार लेने में घर के कोने-अँतड़ों को टोहना था।
बुढ़िया सिर्फ काकी नहीं कहलाती थी। एक और नाम भी था उसका जो सिर्फ उसके पीठ-पीछे ही इस्तेमाल होता था – “कँपनी बुढ़िया!”। बुढ़िया अपने जवानी के दिनों से ही जरा हिलो-डुलो थी। चलती थी तो उसके हर कदम पर देखने वालों को यह भय लगता था कि बुढ़िया अब गिरी… कि तब गिरी। पर काँपती-हिलती बुढ़िया अपनी मंजिल तक सकुशल (बिना गिरे पड़े) पहुँच जाती थी।
बुढ़िया दरअसल माकुर के पिता के मँझले चाचा की बेवा थी। बुढ़िया के बेवा हो जाने के पीछे गाँव भर का यही तर्क था कि मिरचईया के पांडे लोगों में चतुर्वेदियों का ब्याह नहीं सहता है। अनहोनी तो होनी ही थी… वह हुई टी.बी. के रूप में। तब से गाँव भर ने कान उमेठ लिए थे कि मिरचईया के पांडे लोगों से लड़की नहीं लेनी है।
तो कँपनी बुढ़िया के हिस्से की डेढ़ बीघा जमीन का कुछ हिस्सा रामानुज चतुर्वेदी के पिता ने झपट कर बेच दी थी। काकी के नईहर वाले खिसिया गए थे। काकी नईहर चली गईं। नईहर में खुला आसमान था। लहलहाता सरसों था। धान की ढेरी थी। काकी जाँगर से मजबूत थीं। उम्मीद थी कि नईहर में उनका खपान हो जाएगा। उम्मीद नईहर वालों को भी थी डेढ़ बीघा के बचे टुकड़े से। काकी को बस चाय और तीसी की तीखी चटनी से मतलब था। जमीन का टुकड़ा भतीजे के बैंक एकाउंट में पड़ा था। ब्याज बढ़ रहा था। काकी बूढ़ी हो रही थीं। जाँगर थक रहा था। जीभ जवान हो रही थी। जवान होती जीभ नईहर वालों के जी का जंजाल थी। गाय दूध देती थी। कम दूध वाली चाय कम नुकसान करती थी। काकी को भाभियाँ और भतीज-पतोह वही देती थीं। काकी गिलास फेंक देती थीं, – “छेरी के मूत नियर चाय दिहले बाड़ी सन !”
नईहर वाले काकी से उब गए थे। काकी नईहर वालों की चाय से! माकुर की अम्मा चाय की हर कप में एक ही फरमाईश घोल कर रामानुज चतुर्वेदी की ओर सरका देती थीं, – “ बूढ़-पुरनिया की सेवा करनी चाहिए। अन्याय तो हुआ ही है। पूरा गाँव अपने घर को दूसता है। ले आइए यहीं चाची जी को…!”
लहक के साथ काकी वापस आईं थीं। लाईं गई थीं। काकी का आना माकुर के लिए कुछ ऐसा रोमांच था कि “काकी” जिस दिन पिता के साथ रिक्शे से उतरीं तो उस दिन से माकुर अपने सारे खेलकूद, उठा-पटक भूल गए। सारी गतिविधियाँ खाट के इर्द-गिर्द ही नाचने लगी थीं। सिर्फ माकुर ही की नहीं… अम्मा और बुआ की भी! बुआ अट्ठारह दफे गाढ़ी चाय बनाने लगी थीं। काकी के घर आने के बाद वाले कुछ समय तक छोटा-मोटा कोई उत्सव ही चला था। टोल में से ढेर सारे बुजुर्ग मर्द-औरतें आतीं और पुरखुलूस अन्दाज में काकी की वापसी का स्वागत होता। काकी पद में बड़े आदमियों से घूँघट काढ़ कर दीवार की ओट में रहतीं। औरतों की बात पर जमीन निहारतीं रहतीं। मन उदास था… अन्यमनस्क था… या कहीं गुम था। पता नहीं क्या! देह जो ज़िन्दगी भर डहाती रही था, इन सब के पश्चात कुछ भी बेहद उल्लास से लबालब कर देने वाला नहीं लगता था। यह लोग जो बेहद हर्षोल्लास से उन्हें अपनाने को उत्सुक थे काकी जानती थीं कि यह उल्लास कुछ दिनों पश्चात सेरा जाने वाला है। क्या था उनके पास जो इतनी पूछआछ होती… या हो रही थी? न जाँगर न धन! क्या वो सिर्फ इसलिए लाई गई थीं कि रामानुज व उनकी मेहरारू भक्ति-भाव से बूढ़-पुरनिया की सेवा करना चाहते थे? फकत सेवा-भाव क्या? न…न… फिर क्या था जो पकड़ में नहीं आ रहा था?
सुग्रीम की ईया रामानुज बो को सराह रही थीं, “बहुत बढ़िया हुआ दुल्हिन कि ई बूढ़ी को यहाँ ले आई… बहुत नीक बुद्धि-विचार बा। राम जी बनवले रहस तोहके…!”
काकी ने मुस्कुराते हुए अपनी बूढ़ी, झुर्रीदार, पटपटाती आँखों से देखा था। माकुर की अम्मा के चेहरे पर दर्प चमक रहा था… और बस्स यही वो क्षण था जब छूटता हुआ एक महीन सिरा हाथ में आ गया था। खैर… तो जो हो सो हो… लेकिन यह तय था कि कई सालों पश्चात होने वाली अपनी यह पूछ, तव्वजोह उन्हें भली-भली सी लग रही थी। उन्हें पुकारे जाने वाले सम्बोधन “काकी” में एक किस्म के सम्मान व दुलार का सा आभास होता था।
शुरुआत ठीक थी। उसके बाद जाने क्या हुआ कि चीजें गड़बड़ाने लगी थीं। चीजों का गड़बड़ाना जैसे तयशुदा होता है… ठीक उसी तरह जिस तरह शुरुआत में चीजें एकदम सही, सरस व निश्चल ढंग से आगे बढ़ती हैं। वक्त की जुबान पर रटा होता था…
“एक दिन पहुना,
दूसर दिन ठेहुना,
तीसर दिन केहुना।“
काकी को खूब सारी कहानियाँ आती थीं। कहानी में राजा होता था। उसकी सात रानियाँ थीं। भाग्य और विडम्बना थी। हर कहानी में चाय होती थी। तीसी और मिर्च की चटनी होती थी। यह तय था कि अगर काकी को सिंड्रेला की कहानी पता होती तो वो यही बतातीं कि सिंड्रेला की सौतेली माँ सिंड्रेला को बहुत कष्ट देती थी। बर्तन, पोंछा, रसोई सब करवाती थी। उसके बागीचे में कोंहड़ा फला था। सिंड्रेला सूखी लाल मिर्च का फोरन व खटाई डालकर कोंहड़े की सब्जी बनाती थी। काकी के पास खाने व बनाने के अनगिन तरीके थे। काकी वे सब तरीके रामानुज बो को सिखा देना चाहती थीं। माकुर की अम्मा को यह बेवजह की दखलन्दाजी लगती थी। प्रगटतः वे चुप ही रहतीं… पर करती वही जैसा वे करती आई थीं। कुछ चीजों की तो मजबूरी थी… और कुछ मनचाहापन! जैसे कि काकी को बहुत तीखी-मसालेदार सब्जी भाती थी, पर परिवार के बाकी सदस्य मिर्च-मसाले से कोसों दूर भागते थे। मजबूरीवश रामानुज बो को सादी सब्जी बनानी पड़ती थी। कभी-कभी वो याद से काकी की सब्जी में अलग से मिर्चें डाल देती थीं… कभी भूल जाती थीं। इस भूल जाने पर अक्सर काकी पिनक जातीं और उपवास रख लेतीं। यह ‘रूठ जाने’ का जताना था। काकी फिर गाँव के किसी भी दूसरे घर जाकर अपना उपवास तोड़ लेती थीं। घर वापस आने पर दुलार से, झिड़की से… हर प्रकार उनकी मान-मन्नौवल होती। उन्हें मान जाना पड़ता। काकी लेकिन यह कभी नहीं बताती थीं कि वे बाहर खा चुकी हैं। ‘मान जाने’ का सबूत देने के लिए उन्हें घर पर भी खाना पड़ता था। यही ज्यादा हो जाता। उम्र बढ़ने के साथ पेट की सीमाएँ छोटी हो रही थीं। पर… इतने पर ही बस नहीं था। अक्सर काकी की जिद ‘नकदावा-भउरी’ या ‘नयका चावल का भात’ पर अड़ जाया करती। नया चावल गीला बनता था। खाने में स्वादिष्ट होता… पर गरिष्ठ भी होता था। जल्दी पचता नहीं था। काकी की तबियत अक्सरहाँ बिगड़ जाया करती। कभी रात में ही साड़ी खराब होती… तो कभी पनोहा तक जा पाने के पहले ही कमरे में उल्टी हो जाती। माकुर की अम्मा उल्टी या मल साफ कर के राख व पानी से फर्श लीप देती थीं। घर में नया चावल पकाया जाना बन्द हो जाता। काकी टोला में कहीं जा कर खा आतीं। रामानुज जानते थे… यह काकी का नहीं बुढ़ापे का स्वभाव है। बुआ काकी से कुछ कहतीं तो काकी… बकरी की तरह पगुराने लगती थीं।
घर में दो दल बनने लगे। काकी अकेली पड़ गई थीं। खेल शुरू हो चुका था। पहले सिर्फ बुआ और काकी थे। माकुर बुआ के साथ हँस लेते थे। माकुर की अम्मा निरपेक्ष रहती थीं। रामानुज चतुर्वेदी का ज्यादा वक्त बाहर ही गुजरता था। धीरे-धीरे खेल शगल बनने लगा। माकुर की अम्मा में यह ऊब और झुँझलाहट बन कर जागा था। पहले माकुर की अम्मा बाहर की औरतों से कुछ सुनतीं तो सीधे काकी से जवाब-तलब होता था…।
– “जाके देख लीजिए टोल में! कोई अपनी सगी सास को तो करता ही नहीं है… पितिआउत की कौन पूछआछ हो!”
काकी इस दौरान फूँक मार कर सुर्रऽऽ-सुर्रऽऽ चाय सुड़कती रहतीं।
– “ये नहीं कि सांति से चार रोटी खाएँ और राम का नाम लें… तो आप हैं कि घर-घर घूम कर खाना और हमारी कुचरई करना, यही तो आपका काम रह गया है।”
काकी उँह- उँह करके कभी इस करवट बैठतीं तो कभी उस करवट।
खेल जैसे-जैसे उत्तेजना की सीढ़ियाँ चढ़ता गया ठंड और काकी की सब्जी में मिर्चें न डालने की भूलों की दर भी बढ़ती गईं। इसी अनुपात से काकी की अपच व दस्त भी बढ़ती गई। पर खेल इकतरफा तो न था!! काकी की खराब हुई साड़ियाँ धोते वक्त या फर्श पर राख लीपते वक्त रामानुज बो अक्सर यह महसूस करने लगी थीं कि यह दस्त नहीं था। न यह मजबूरी में साड़ी खराब होना था। अब जो हो रहा था उसके हिसाब से काकी के पास इतना वक्त आराम से होता कि वो रामानुज बो को जगाएँ और बाहर कहीं जाकर फारिग हो लें। इस बात के साफ होते ही माकुर की अम्मा के दिमाग में पहला ख्याल आया यह कि, “बूढ़ी अब जानबूझ कर सबको पेर रही हैं।”
गाढ़ी नींद में माकुर ने अम्मा की धीमी आवाज सुनी थी, “सुन रहे हैं जी?”
पिता नींद में कुनमुनाए थे। अम्मा थोड़ा झुक आई थीं।
– “ई बूढ़ी तो तंग करके रख दी हैं।”
पिता ने बेनियाजी से करवट फेर लिया था।
– “उँह… तुम जानो, तुम्हारा काम जाने!”
पिता की छाती माकुर की तरफ थी। दरवाजे बन्द थे। रोशनदान भर दूधिया रोशनी अन्दर छिटकी थी। चाँदनी में अम्मा का आधा चेहरा दिख रहा था। अम्मा गर्दन खुजा रही थीं। चूड़ियाँ धीमे-धीमे खनकी। लिहाफ की गर्मी में दुबके माकुर आँखें ओट से बाहर निकाल कर टुकुर-टुकुर देख रहे थे। माँ के चेहरे पर थकान थी। माँ का वह थका चेहरा माकुर को याद रह गया था। हमेशा के लिए…! उन्हीं किन्हीं ठिठुरती रातों में नलके पर काकी की खराब साड़ियाँ धोतीं… फर्श लीपतीं या हाथ पोंछती अम्मा के फेफड़ों में बर्फीली हवा जम गई थी।
माकुर चौकी पर बैठे रफ के पन्ने पलट रहे थे। पन्नों के बीच बहुत पहले की मोरपंखी पड़ी थी। मोरपंखी पर चॉक के नन्हें-नन्हें कण थे। सुग्रीम बताता था कि मोरपंखी को चॉक खिलाने से वह बच्चा देता है। सुग्रीम, माकुर का बहुत अच्छा संगी था। चौथी पास करते ही वह आगे की पढ़ाई के लिए अपने ननिहाल चला गया। चॉक प्राप्त करने के लिए माकुर सबसे पहले स्कूल पहुँचकर श्यामपट्ट साफ कर देते थे। घंटी बजते ही जैसे सर जी जाने को होते माकुर टेबल पास चले आते, “सर जी, एक चॉक दीजिए न !”
सर जी हँसने लगते, “क्या करोगे चॉक चौबे जी?”
माकुर सकुचाए से खड़े रहते। कक्षा का कोई लड़का उठकर कहता, “सर जी मोरपंखी को खिलाएगा।”
कभी सर जी चॉक दे देते। कभी कहते, “अभी परसों ही तो दिया था। जाओ बाद में देंगे।”
माकुर तब चॉक चुरा लिया करते। इधर काफी दिनों से वो मोरपंखी को चॉक खिलाना भूले हुए थे। माकुर ने रफ बन्द कर दी। कवर पर ऋतिक रोशन मुस्कुरा रहा था। उन्हें ऋतिक बहुत पसन्द था। ऋतिक की मूँछें नहीं थीं। माकुर काली स्याही वाली कलम से उसकी मूँछें बना रहे थे। अचानक ही बिना शोर धन्न-धन्न की आवाज हुई। जैसे दूर घने बादल धीरे-धीरे गरज रहे हों। माकुर ने हैरत से इधर-उधर देखा। घनघनाहट में निरन्तरता थी। बुआ दाल धो रही थीं। बुआ ने माकुर को देखा… माकुर ने बुआ को। माकुर ऋतिक की मूँछें बनाने आगे। बुआ धीरे से दुपट्टे के भीतर हाथ ले गईं। ऋतिक रोशन की मूँछें मोटी होने लगी थीं। घनघनाहट फिर शुरू हो गई। बुआ जल्दी से दाल धोकर दुपट्टा सँभालती कमरे में चली गईं।
वह मोटोरोला का घिसा हुआ काला-सफेद सेट था। अम्मा ने कुरुसिया से मोबाइल के लिए एक छोटा सा पर्सनुमा टँगना बुन दिया था। शुरुआत में टँगना बुआ के कमरे में लटका रहता था। फोन बजता नहीं था। घन-घन काँपता था। माकुर को अनायास एक गुजरा हुआ दिन याद आया था…
अमरूद के पास माकुर लट्टू नचा रहे थे। लट्टू की कील जमीन में धँसी गोल-गोल घूम रही थी। उसके चारों तरफ मिट्टी का नन्हा पतला गोल ढेर लग गया था। जाड़ों की धूप में अम्मा बुआ की ढील हेर रही थीं। अम्मा कुछ-कुछ कह रही थीं। कहने में मोबाइल, घर, गाँव, इज्जत और पिता का नाम जैसे शब्द बार-बार तैरते थे। बुआ चुप-चुप रो रही थीं। माकुर पास आए थे, “अम्मा क्या हुआ… बुआ काहें रोअत हई?”
“जाओ यहाँ से… तुम्हारे काम की बात नहीं है।” अम्मा ने झिड़क दिया था।
अब अम्मा नहीं थीं। फोन कहीं नहीं दिखता था। पिता समय से पहले खेत पर निकल जाते थे।
खपड़े पर चिरइयाँ चहकने लगी थीं। माकुर आँगन में निकल आए। पहली श्यामा अपने चूजों की चोंच में पानी की बूँदें डाल रही थीं। दूसरी श्यामा कहीं दूर से सूखी घास व तिनके चोंच में दबाए आती और खपड़े पर रखकर चह-चह-चह-चह चहकने लगती। घोंसला लगभग तैयार होने की कगार पर था। माकुर को चिरइयाँ बड़ी प्यारी लगती थीं… मीठी-मीठी! उनका बहुत मन होता था कि – काश! श्यामा उनकी हथेली पर आकर बैठती। वो धीमे-धीमे उसके पंख सहला पाते। चिरइयाँ अपना नन्हा सा सिर दबा लेतीं उनकी हथेली पर! अनायास ही माकुर के मन में एक शब्द आया था… ”फुदकी!”
“फुदकी बड़ा जुलुम कई दिहलुऽऽ,
अँगना में खोंता लगवलु नऽऽ!”
फुदकी, फुदक रही थी। माकुर खुश हो गए।
छुट्टी की घंटी बजती थी और अचानक जैसे समुद्र की एक लहर उमड़ती हो। माकुर पलकें झपकाते थे… और कक्षा खाली हो जाती थी। कहीं-कहीं से उखड़े ब्लैक बोर्ड पर इतिहास के प्रश्न-उत्तर लिखे थे। माकुर को इतिहास बहुत उबाऊ लगता था… पर इससे मुक्ति का कोई उपाय नहीं था। पीछे की दीवार पर गांधी जी की फोटो चिपकी थी। सर जी की टेबल पर चॉक के टुकड़े पड़े थे। चॉक को उचटती निगाह से देख माकुर बैग कन्धों पर डालकर निकल आए थे। धीरे-धीरे चलना दरअसल एक दृश्य से दूसरे दृश्य तक नजर का हिलना भर था। नजर के साथ कदम जुगलबन्दी कर रहे थे। दुनिया रंग-बिरंगे चित्रों से भरी पड़ी थी। पहले माकुर की दुनिया माँ थी। अब माँ नहीं थी। दुनिया बहुत बड़ी थी। माकुर छोटे थे। वह दुनिया के हर चित्र में खो जाते थे। सरेह में शीशम के नीचे बकरी के दो बच्चे खेल रहे थे। भैंस बैठी थी। बच्चे छोटे थे। भैंस थी खूब बड़ी। बच्चों के लिए भैंस पहाड़ थी। एक बच्चा पहाड़ पर चढ़ गया और कूद-कूद कर खेलने लगा। पहाड़ चुपचाप बैठा था। तभी दूसरा छौना भी चढ़ गया। भैंस ने पलट कर देखा। बच्चे सरक कर नीचे गिर पड़े। बकरी धीमे-धीमे आई। बच्चे थन से मुँह लगाकर पीने लगे। माकुर मुस्कुरा उठे।
घर, बाहर से भी चुप-चुप दिखता था। बाजू में बेर का पेड़ था। पेड़ पर हरी पत्तियाँ थीं। जमीन पर पीले पत्ते बिखरे थे। बेर की गाँठ से कुछ रिस रहा था। पलानि की छप्पर कमजोर हो गई थी। मुख्य दरवाजे का एक पल्ला खुला था। बस्ते के बोझ से कन्धे दुखने लगे थे। माकुर ने बस्ता उतार कर काकी की खाट पर रख दिया। काकी अभ्यस्त सी आधी नींद में बेना डुला रही थीं। पिता सुबह ही किसी दूसरे गाँव गए थे। अमरूद की सूखी-बेपत्तों की एक डाल पर माकुर की बहुत पुरानी कोई लाल शर्ट टँगी थी। शर्ट अब बतौर पोतन इस्तेमाल होती थी। खपड़े पर कोंहड़े की बेलों के बीच श्यामा चिरई का दूसरा घोंसला भी बन गया था। पहली श्यामा के नन्हें चूजे आसमान की ओर मुँह खोले बैठे थे। दूसरी श्यामा ने हाल-फिलहाल में तीन अंडे दिए थे। तरियाई हुई तसली की पेंदी मिट्टी सहित काली पड़ गई थी। तसले में चावल के कुछ सूखे दाने चिपके थे। थाली की सूखी दाल पर मक्खियाँ बैठी थीं। छाँह पनोहा से आगे जा रही थी। बुआ का कमरा बन्द था। अक्सर दुपहरियों की गर्म हवा में मिट्टी का यह कमरा रहस्य की साँकल चढ़ा लेता था। उस दुपहर साँकल में झिर्री भर जगह छूट गई थी। उत्सुकता की आँखें झिर्री से चिपक गईं। रात भर फोन काँपता था। दुपहर में बुआ काँप रही थीं। उत्सुकता की आँखों में हैरत व डर भर गए थे। आँखों से ठीक ऊपर दरवाजे व दीवार के जोड़ पर हाड़ा ने छत्ता बनाया था। छत्ते की भुरभुरी मिट्टी उनके पलकों पर गिरी। माकुर हड़बड़ा गए। हड़बड़ाहट में शोर था। माकुर को लगा कमरे का शोर अवाक रह गया है। वो जान-प्राण छोड़कर भागे।
सरपट भागते हुए माकुर को जो ठौर मिला वह ‘बाबा का वन’ था। वन में पोखर था। पोखर के तीन ओर घाट थे। घाट पर अनगिन प्रकार के पेड़-पौधे थे। एक ओर सीढ़ियाँ थीं। सीढ़ियों पर काई की पपड़ियाँ थीं। कोना, पान की पीक से लाल हुआ पड़ा था। पान-मसाले की पन्नियाँ व भूरी पत्तियाँ बिखरी थीं। पानी नीचे चला गया था। माकुर के भीतर जल्दी-जल्दी धक-धक हो रही थी। धक-धक का शोर सिर्फ दौड़ने के बायस नहीं था। माकुर को लग रहा था कि अभी वो एक बड़ी गलती कर आए हैं। जंगल खामोशी से माकुर की धड़कन सुन रहा था। कोई चिड़िया कभी-कभी टिट-टुइट-टुइट… टिट-टुइट का राग अलापने लगती थी। बरगद की किसी हथेली पर बैठी चिरई पच्च से माकुर की शर्ट पर फारिग हुई। फिर इत्मीनान से पूँछ झाड़कर फुर्र हो गई। माकुर नीचे उतरकर बीट धोने लगे। उन्हें महसूस हुआ कि इस छप-छप के अलावा अन्य कोई आवाज वन में नहीं है। पर यह शायद पहली बार था जब उन्हें डर नहीं लगा… जरा भी नहीं। प्रत्येक सावन की सप्तमी को गाँव की सारी लड़कियों को घर से बाहर भगा दिया जाता था। उस दिन बरह्म बाबा की पूजा होती थी। कहा जाता था कि कुँवारी लड़कियों को इस पूजा प्रसाद के धुएँ से भी दूर रहना चाहिए। पूजा से पहले घर का कोई भी पुरुष बरह्म बाबा के मन्दिर में नेवता देने जाता था। पिता के अनुपस्थित रहने पर माँ यह काम माकुर से करवाती थीं। मन्दिर में पहाड़ सरीखा सीमेंट का एक बड़ा पिंडा था जिस पर धोती लपेटी हुई थी। ये बरहम बाबा थे। थोड़ी दूर पर सीमेंट की चार नन्ही पिंडियाँ थीं जिनपर रंग-बिरंगे कपड़ों की कतरने रखीं थीं। ये सती माता थीं। ये अच्छे लोग मर चुके थे। माकुर को मरे हुए के नाम से ही असीम डर लगता था। दुपहर की ओर बढ़ती सुबह में अम्मा जब माकुर को नेवता देने भेजती थीं तो माकुर की रूह काँपती थी। कई दफे तो माकुर बिना नेवता चढ़ाए बीच जंगल से ही भाग आते थे। पर, अम्मा के जाने के बाद से ही यह ऐसी मामूली चीज लगने लगा था जो भूलवश कहीं इधर-उधर रख दी गई थी, और अब अचानक मिल गई हो। भय फटकर छितरा गया था। उसकी जगह शून्यता, उदासीनता सन्नाटा व थके हुए दुखों ने ले ली थी। माकुर थहरा कर बैठ गए।
दिन खपड़े की छत पर कौवा था। उसके उड़ने की राह तकी जाती थी, पर वह तयशुदा वक्त पर ही पंख फड़फड़ाता था। पंखों की फड़फड़ाहट में लय थी। दिन लय पर थिरकते बढ़ रहे थे। गुजर रहा लम्हा बेसुरा लगता था। गुजर चुके दिन बाँसुरी की उदास धुन की तरह याद आते थे। माकुर के पास अधिकांश छुट्टे दिनों के सिक्के थे। ये सिक्के पुराने से भी पहले के थे। कार्तिक के उतरते दिनों की चढ़ती साँझ में अम्मा चौकी पर बिठाकर उनके बालों में तेल लगाती थी। नन्हें माकुर जल्दी हाथ आते ही नहीं थे कि तेल से उनकी मालिश की जाए। बड़ी मुश्किल से बुआ उन्हें फुसलाती थीं, “ऐ बाबू… दूध भात खईबऽ…?”
माकुर की मुंडी हाँ में हिलती थी।
– “बाघ मारे जईबऽ…?”
– “हुम्म!”
– “सियार काटी त डेरईबऽ ना न ?”
माकुर अभी ‘ना’ में मुंडी हिलाते ही थे कि बुआ सामने जोर की ताली बजा देती थीं… ’थप्प’। माकुर भय से आँखें पटपटा देते थे। बुआ हँसने लगती थीं…, “बाबू डर गया… बाबू डर गया!”
माकुर अम्मा की गोदी में मुँह छिपा लेते थे। अम्मा माकुर के बाल चूम लेती थीं, “मेरा बाबू तो खुद शेर है भाई!”
गोदी गौरैया का घोंसला थी। चूजे इत्मीनान से सुस्ताते थे। वक्त नदी था। जीवन गड्ढे में अटक गया बारिश का पानी बन चुका था। माकुर अँजुरी भर बासी जीवन उठाते थे। पानी ठहरता नहीं था। उँगलियों की फाँक से कतरा-कतरा टप-टप चू जाता था। डबडबाए पानी में अम्मा और बुआ की गड्डमड्ड तस्वीरे थीं। इन गड्डमड्ड स्मृतियों के बीच अगर कभी तीखी नाक व सन से उजले बॉब कट बालों वाली काकी का चेहरा झिलमिला भी जाता था… तो माकुर को गहरे अपरिचय का बोध होता था। एक ऐसा अपरिचय जो घर नहीं सराय में ठहरा था और जिसने उनकी अम्मा को बुरी तरह थका दिया था। काकी के प्रति माकुर के हृदय में घृणा से अपरिचय के बीच का कुछ था। वे मन ही मन काकी से कट्टीस थे। गाढ़ी-पक्की कट्टीस।
तुरन्त बुझे दीये की तरह घिरती साँझ की भी एक गन्ध होती है। पानी में झिलमिलाते बिम्ब साँझ के कोने में छिप गए थे। साँझ के स्वागत में बरतन धुल कर रोशनी करने का नियम था। माकुर को लौटना चाहिए था।
घर अपना नियम पूरा कर चुका था। दियरख पर रखे ढिबरी की लौ धीमे-धीमे डोल रही थी। हवा डोल-डोल कर ठहर जा रही थी। पिता चुपचाप कुर्सी पर बैठे थे। माकुर बीच आँगन में आकर ठहर गए। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि अभी एकदम ठीक-ठीक क्या करना चाहिए। वो बाल्टी से पानी निकालकर हाथ पैर धोने लगे। पिता ने इत्मीनान से उन्हें देखकर मुँह फेर लिया। अब यह साफ था कि पिता भी अभी ही घर लौटे थे और माकुर की घर से लम्बी अनुपस्थिति के बाबत सर्वथा अनभिज्ञ थे। बुआ कनखी से देख रही थीं। माकुर ने इमरजेंसी जलाई। इमरजेंसी भुकभुका कर बन्द हो गई। वो दियरख से ढिबरी लाकर चौकी पर रख दिए। दुमुँहा में बस्ता लेने गए तो बस्ता वहाँ न था। माकुर जानते थे बुआ ने बस्ता ‘जबरा’ वाले कमरे में रख दिया होगा। उन्हें अजीब सा महसूस हुआ… शर्म, ग्लानि, उदासी… पता नहीं कैसा तो। बुआ तो समझ गई होंगी न कि वे माकुर थे। बुआ का चेहरा चकला-बेलन में धँसा था। रोटी बेलने के क्रम में चकले की लयबद्ध खट-खट थीं। बुआ से बड़ी बुआ की परछाईं भी रोटी बेल रही थी। काकी मुँह हिलाती चिन्तित सी माकुर को देख रही थीं। काकी की भी परछाईं दीवार पर हिल रही थी। तिलचट्टा इधर-उधर दौड़ रहा था। ढिबरी की जर्द रोशनी में इतिहास की पाठ्यपुस्तक थी। दूर कहीं सियार की हुआँ-हुआँ यहाँ ढिबरी तक सुनाई पड़ रही थी। यह सब कुछ जैसे हुआ जा चुका चल रहा था। जैसे किसी इतिहास की किताब का कोई बेहद उदास और उबाऊ अध्याय था यह… या किसी अखबार के सौ-डेढ़ सौ साल पुराने अंक की कोई धुँधली अकड़ चुकी कतरन…!
नींद की तलहटी में उतरती आँखों में स्मृतियों की रेत किरकिरा जाती थी। मार्च के आखिरी दिन थे। रात छरहरी थी। अब जल्द ही भागने लगी थी। जल्द भाग जाने वाली रात रास्ते में ही होती थी कि, माकुर महुआ चुनने भाग जाते थे। यह बेनींदेपन से भागने का उपक्रम था। माकुर किवाड़ खोलकर बाहर आए तब पता चल कि रात आधे रास्ते में ही थी। पहली श्यामा का चूजा चहका था। श्यामा ने अपने नरम पंखों से बच्चे को थपथपा दिया, “अभी बहुत रात है… छो जा बेटा, छो जा!”
किसी लेट-लतीफ ट्रेन की धड़धड़ाहट सुनाई पड़ रही थी। माकुर को यूँ लगा जैसे ट्रेन के साथ साथ उजली रोशनी के चौकोर टुकड़े भी पार हो रहे थे। ट्रेन के बाहर खड़े रहने पर ट्रेन कुछ भी नहीं बताती थी। ट्रेन एक उदास शहर थी। उसकी खिड़की से बाहर तारों भरा आसमान था। तारों के पास अपना प्रकाश नहीं था। सूरज माँ था। सिर्फ देता था।
अब सूरज बुझ गया था। बुझे सूरज पर राख का ढेर जम गया था। माकुर अतृप्त इच्छा की सूखी लकड़ी से धीरे-धीरे राख हटाते थे। दुनिया से खो चुके शब्द राख के नीचे मरे-मरे से टिमटिमा रहे थे… साथ याद, जीवन, स्वप्न, नींद और माँ। माँ यानी की सबकुछ। वह छुट्टी की दुपहरियों में माकुर के साथ होती थीं। दुमुहाँ में खाट पर चित्त सोई थीं। माकुर उनके पेट पर टाँगे चढ़ाए लेटते। उनका एक हाथ माँ की गर्दन से लिपटा होता। आँगन में पछुआ बह रही थी। पुरानी साड़ी के पर्दे उड़-उड़ जाते। किसी कोने से बिल्ली म्याऊँ- म्याऊँ करती थी।
माँ जानती थी कि रोने से थकी आँखों में नींद दबे पाँव आकर सपनों की बालिश पर सिर रखकर सो जाती है। उसे पता था जिस तरह माँ के लिए रोया जाता है, उस तरह और किसी के लिए रोया नहीं जा सकता।
माँ, कहानियों की माँ को नींद के आगे चमका देती थीं। नीद के कान खड़े हो जाते थे। कहानी में माँ, शतदल की माँ थी। शतदल की माँ को अपना तयशुदा “चले जाना” पता था। शतदल के कन्धे पर बस्ता था। माँ की दी हुई रेत भरी शीशी छाती से चिपकाए और दूसरी हथेली से आँसू पोंछते शतदल चले जा रहे थे। शीशी में आधी रेत हरी होने पर ‘पिता’ और बाकी रेत लाल होने पर ‘माँ’ का “चले जाना” बन्द था। कहानी में सौतेली माँ राक्षसनी थी। चम्पा झकझोर कर शतदल से वजह पूछते थे। शतदल की लाल डबडबी असहाय आँखों में माँ की आखिरी बात थी…
– “हमारे पास मत लौटना बेटा, दूर चले जाना। नहीं तो राक्षसनी माँ तुम्हें भी मार देगी। खूब मन लगाकर पढ़ना। खूब अच्छा काम करना। कोई देखे तो कहे… ”अरे भाई, फलाने पंडित का बेटा तो बहुत बड़ा आदमी बन गया है!”
माकुर पैरों से अम्मा को और कस लेते थे। शतदल के हृदय पर दुख का भार था… माकुर के हृदय पर कल्पना का। माँ कुशलता से कहानी का दुख पहलू दर पहलू नींद के आगे चमकाती जाती थी। नींद पास-पास खिसकती आती। रेत के हरे होने पर कल्पना का धैर्य चूक जाया करता। माँ कलेजे से लगा लिया करती, “कहानी ह पागल, कोई सच्ची में थोड़ेई है।”
कलेजे से चिपके सुबकते-सिसकते वे सो जाते।
सोते हुए माकुर के सपनों में आधी हरी, आधी लाल रेत भरी शीशी थी। सपने में सूना आँगन था। शतदल के पास माँ की आखिरी बात रह गई थी। माकुर चिहुँक कर उठते थे। माँ रेंगनी से कपड़े उतारती मिलती। शतदल वापस कहानी में लौट जाते। माँ मुँह धुल लेने को कहती और पौने साँझ गिल्ली डंडा खेलने लगतीं। लेकिन अब… हकीकत ने याद की कलाई खींचकर उसे कहानी में मढ़ दिया था। धूसर फ्रेम में माँ मुस्कुरा रही थीं।
वह सुबह और सुबहों सी न थी। सूरज कुहरे में लिपटा बोरसी की बुझती हुई आँच सा टिमटिमा रहा था। रसोई या नलके पर कोई चहल पहल न थी। आँगन में करैत की खाल सा ‘काल’ पसरा था… लिजलिजा व भयानक! दोमुँहा में बुआ जनानियों से घिरी सुबक रही थीं। काकी सिर पर हाथ धरे बैठी थीं। वह धीमे-धीमे पास चले आए। औरतों की भीड़ में किसी ने सिसकारी ली थी, “आय हो हमार बाबू!”
कुछ नींद व कुछ असमंजस में घिरे माकुर ने बुआ की बाँहें थाम लीं। बुआ माकुर से लिपट कर रोने लगीं। काफी देर बाद खबर मिली थी कि कुछ नहीं बचा। फिर अम्मा को अस्पताल से ही आगे पहुँचा दिया गया था। माकुर उन्हें नहीं देख पाए। उनकी स्मृति में पिछली रात की ही अम्मा रह गई थीं। बाद की कई रातों व सुबहों तक माकुर को ऐसा ही लगता रहा कि अम्मा कहीं गई हैं, और बस अब वापस आने ही वाली हैं।
इस ‘आने’ और ‘न आने’ के बीच माकुर बहुत दिनों तक टँगे रह गए थे।
बैंगन की फाँक से दिखते उजले काँपते कीड़े को देखकर जैसी सिहरन होती है… बुआ को देखकर आजकल माकुर वैसा ही महसूस कर रहे थे। वैसी ही झुरझुरी भरी घृणा…
समीज पहने बुआ नलके की पटिया पर बैठी अपनी एड़ियाँ घिस रही थीं। एड़ियों का रंग गाढ़ा गुलाबी था। माकुर लकड़ी की गिल्ली तैयार कर रहे थे। उन्हें कमरे में काँपती बुआ याद आ जाती थीं और वो मुँह घुमा लेते थे। फिर भी कभी-कभी नजर बुआ की गर्दन के आस पास ठहर जाती थी। नहाकर तार पर कपड़े फैलाने के लिए बुआ माकुर के बिलकुल पास से गुजरीं। बुआ की देह में साबुन के अलावा भी कोई महक जैसी थी जो इस घर की गन्ध से बिलकुल छिटकी हुई, अलग-थलग सी मालूम पड़ती थी। वो चुपचाप गिल्ली छीलते रहे। गीले बालों से भीगकर बुआ की समीज उनकी पीठ से चिपक गई थी। बुआ ने कपड़ों को निचोड़कर झटका। आँगन में बहुत दूर तक पानी की बूँदें छिटक गईं। कपड़े तार पर फैला दिए गए। माकुर को बुआ अब एकदम दूसरी बुआ लग रही थीं। जैसे कोई रहस्यलोक… कोई अनजान शहर… जैसे कोई नई अपरिचित लड़की! वो बुआ से अब बचते थे। जाने क्यों बुआ ने भी फिर कभी पहल नहीं की।
सीमाएँ बँधे होने पर लोग एक दूसरे से बँधे हुए प्रतीत होते हैं। एक ऐसे वृत्त का भ्रम जिसका हर सदस्य वृत्त का एक सा साझेदार था। इससे और कुछ होता हो या न होता हो… सहने का थोड़ा बल तो आ ही जाता है। काकी सबसे पहले इस वृत्त से बाहर निकली थीं। चाय और मिर्ची ने उन्हें उबार लिया था। बुआ थीं। बुआ के रहने से अम्मा के ही “रहे होने” का भ्रम था। अब बुआ निकल चुकी थीं। सपनों के रास्ते पर… आकांक्षाओं, हँसी, सुख… उम्मीद की दुनिया में। इसलिए अम्मा का न होना पूरी शिद्दत से उपस्थित था। माकुर के पास टूटी परिधियों वाला छूँछा वृत्त भर रह गया था।
पहले सिर्फ काकी अकेली थीं। काकी निरीह थीं। जब तक उनकी देह में बल था, वे निरीहता और अकेलेपन को पराजित किए हुए थीं। पर अब वक्त उन्हें पराजित करने पर तुला था। लेकिन काकी स्त्री थीं… घुन्नी दुनिया देखी बूढ़ी स्त्री। जिसके पास पीढ़ियों से सहेजे खर-खानदान, दर-दयार, अड़ोस-पड़ोस की अनगिन कहानियाँ थीं… बेहिसाब किस्से थे! आसमान भर जितनी कल्पनाएँ थीं… दुनिया आज भी अँधेरी गुफाओं में मृतप्राय मांसल लोथ जैसे रहस्यों को उघाड़-उघाड़ कर देखने हेतु उतनी ही उतावली है जितनी सदियों पहले थी। इतिहास… अर्थशास्त्र से भी रोचक विषय था। उस पर तुर्रा यह कि तृप्त जीभ के साथ बुढ़िया कमाल की किस्सागो भी हो जाती थी।
काकी सोचती थीं कि अच्छा ही है कि वे इक बूढ़ी अकेली स्त्री हैं… बूढ़ा पुरुष नहीं। बूढ़े पुरुष के पास ज्यादातर अपनी स्मृतियाँ होती हैं। बहुत हुआ तो रामायण-गीता-महाभारत बाँचने भर स्मरण शक्ति! बूढ़ी स्त्री के पास दुनिया भर के रहस्य होते हैं। वे घर के अंदरूनी कोनों में पैठ सकती हैं। रसोई के पास बैठी वे नीक-बाउर कुछ पकते को टकटकी बाँधे देख सकती हैं। बहुएँ इस भय से कि – “बुढ़िया तबसे आँख लगाई बैठी है… बिना इसे खिलाए पूआ पचेगा नहीं!” – उन्हें पूआ थमा दिया करतीं। बूढ़े पुरुष का अहम उन्हें कभी यह करने की इजाजत नहीं दे सकता। बूढ़ा पुरुष दुआर की चौकी पर, ‘कौवाहँकना’ की तरह बैठा हर आने जाने वाले को टोक-टोक कर कुशलक्षेम भर पूछ सकता था। काकी कहीं भी टाँग पसारकर कराहने लगतीं, “गोड़ बड़ा टटा रहा है।”
बहुएँ सहानुभूति की गदगदी हथेली से पैर मीसने भिड़ जातीं, “बताइए… रामानुज बो को जरा उबटन से आपका हाथ-गोड़ नहीं मीस देना चाहिए?”
काकी कल्पना व निन्दा के फन्दों से किस्सा दर किस्सा बुनती जातीं। यह सारे सुख बूढ़े पुरुष हेतु कतई अलभ्य थे। इसलिए बूढ़ी स्त्री, बूढ़े पुरुष की तुलना में कम असहाय थी।
लेकिन… अब काकी, अपने अकेलेपन से इतर माकुर का अकेलापन देख रही थीं। वे समझ रही थीं कि माकुर का अकेलापन उनके अकेलेपन से ज्यादा सघन व निरीह है। उन्हें उबारने लायक कुछ भी नहीं है उनके पास। उनकी अम्मा की आखिरी कोई बात तक नहीं। बस हठात का ठिठका एक पल अपने पिलपिली देह के साथ बच गया था…। माकुर बार- बार उस देह में उँगली चुभो कर उस पल के सचमुच “जिन्दा रहने” की तस्दीक करते थे। सरगोशियों में साँस लेता हुआ पल सच था। उस पल के जिन्दा रहते बाकी सब कुछ कहानी, स्वप्न व स्मृतियों का देश बन चुका था। काकी को माकुर पर जी भर के मोह उपजता था। काकी जरा-के-जरा उनकी तरफ आई थीं। माकुर बुआ को देखते थे। बुआ एक नई बड़ी सतरंगी दुनिया देखने में मग्न हो गई थीं। तो क्या हुआ कि माकुर काकी की तरफ जरा भी नहीं बढ़े थे… पर उन्होंने काकी से विपरीत भी तो कदम न बढ़ाया था। वे खामोश वृत्त की टूटी परिधि देख रहे थे।
कच्चे आँगन के सन्नाटे में दुपहर को अमरूद की उड़ती सूखी पत्तियों के साथ उदासी का वलय सिमट आता था। छुट्टी के बाद भी माकुर का घर जाने का मन नहीं होता था। बेवजह इधर-उधर घुमते माकुर ‘जोलहा’ को देख उसके पीछे भागने लगते। ‘जोलहा’ डरी-डरी सी कभी किसी पत्ती पर बैठती… तो कभी एल्युमिनियम के तार पर। उसकी पतली पूँछ लम्बी थी। पारदर्शी पन्नी से पंख थे। पंखों पर धूप पड़ती थी तो झिलमिल से सात रंगों की धारियाँ खिल जातीं। ‘जोलहा’ पकड़ में आ जाती तो हथेली पर सुस्त सी कुछ क्षण बैठी रहती… फिर मुक्ति का आभास होते ही अचानक उड़ जाती। कँटीली झाड़ियों पर एक पीला नाजुक फूल खिलता था। उसकी पंखुड़ियों को होंठों पर रखकर फूँकने से सीटी बजती थी। कभी सीटी बजती… कभी पंखुड़ियाँ ‘फक्क’ से फट जातीं। माकुर हँस नहीं पाते थे। यह सब कुछ नहीं था। बस वक्त को आगे ठेल देता था। दुपहर अपने डैने समेटे शाम के कोने में किकुड़ने को होती थी, तब माकुर घर पहुँचते। काकी दुआर पर राह अगोरती मिलतीं। माकुर जबरा वाले कमरे में बस्ता रख आते। बुआ गुनगुनाती हुई आँगन में झाड़ू लगाती, बर्तन माँजती या तार से कपड़े उतार, समेटती होती थीं। अपने-अपने घोंसलों में चूजे और अंडे चुपचाप पड़े रहते। माकुर ने एक बार दीवार पर चढ़कर उन्हें देखा था। चूजे धीमी आवाज में चें-चें करने लगे थे। उसके बाद उन्होंने कभी चूजों को करीब से देखने की कोशिश नहीं की। थोड़ी दूर की ऊँची जगह से देखने पर भी वे दिख जाते थे।
कभी-कभी वक्त आगे नहीं बढ़ पाता था। माकुर घर पहुँच गए थे। चापाकल के आस-पास गाढ़ी मोटी काई जमी थी। काई में ठहरे पानी पर हाड़ा मँडरा रहा था। खामोशी की चीटियाँ अंडे सँभाले कच्ची दीवार पर रेंग रही थीं। काकी सोई थी। बुआ का कमरा फिर बन्द था। बेशक माकुर बुआ से नहीं बोलते थे। पर शनैः-शनैः उनकी सारी चेतना बुआ के इर्द-गिर्द ही ठिठकने लगी थी। जो नई अनोखी चीज उन्होंने झटके में जरा सी देख ली थी वैसा ही कोई अवसर फिर से प्रतीक्षित था जैसे। कोई बड़ा राज जिसे पूरा जान लेने की उत्कंठा चरम पर थी। कन्धे पर बस्ता था। बस्ता भारी था। माकुर ने छुप कर दरवाजे के भीतर झाँकने की कोशिश की। गर्दन दुखने लगी… फिर भी वो झिर्री में आँखें लगाए खड़े थे। तभी, जाने क्या हुआ कि बिना किसी आहट-खटके के दरवाजा यकायक खुल गया। भाग जाने के लिए क्षण ही नहीं बचे थे। झुककर खड़े माकुर तुरन्त सीधे नहीं हो पाए। सामने बुआ थी। शान्त और सीधी खड़ी। बुआ के चेहरे पर हैरत बिलकुल न थी… कुछ और था। माकुर सहम गए। बुआ चुपचाप उनके बगल से निकलीं। नलके पर जूठे बरतन थे। कड़ाही की पेंदी पर बुआ सर्फ-मिला राख रगड़ने लगी। कमरे में कोई नहीं था। बिस्तर पर पिता का रेडियो पड़ा था। रेडियो पर मद्धम आवाज में खड़खड़ाता कोई बिसरा-पुराना गीत बज रहा था।
ठंडी हवाएँ बहने लगीं। भंडार-कोण बादलों से भरा था। माकुर चौकी के पास ठेहुन में ठुड्डी धँसाए टुकुर-टुकुर चीटियों की कतार देख रहे थे। श्यामा रेंगनी पर सुस्ता रही थी। बस्ता कन्धे पर ही लदा था।
– “माकुर…!” काकी ने पुकारा।
– “हुम्म…?”
– “का हुआ मुन्ना… जाओ मुँह-हाथ धोकर कुछ खाओ पीओ।”
माकुर कुछ क्षण वैसे ही निश्चल बैठे रहे। फिर उन्होंने धीरे से बस्ता जमीन पर रख दिया।
बारिश शुरू हो गई थी। बारिश की बौछार चेहरे पर हल्की चोटें पहुँचा रही थीं।
“दुख आदमी को माँजता है…” एक कबूतर आदमी इतना कहकर उड़ गया था। पर इसी दुख ने माँजते-माँजते माकुर को खँखोर डाला था। दुख सिर्फ किसी के चले जाने का नहीं था। दुख बढ़ गया था परिधि के टूट जाने से… किसी बहुत बड़ी मजबूत चाहरदीवारी के गिरने से मकान की जो नगई दिख पड़ी थी उससे। “रोना” सिर्फ अकेले में सम्भव था। अकेले कच्ची फर्श पर रोते हुए उनके बाल, गाल, होंठों के किनारे व कपड़े धूल से सन जाते। सूरज दरवाजे भर कमरे में होता था। पर जैसे ही किसी के आने की सुगबुगाहट होती माकुर धूलसनी हथेलियाँ पैंट में पोंछ खड़े हो जाते। उल्टी हथेलियों से वो आँखें पोंछ, कपड़े झाड़ने लगते। पास आया साया माकुर के पास ठहर कर उन्हें आँखों से जाँचने लगता था। कमरे में एक गुप्त गन्ध थी। साये को यह “शरारत की गन्ध” लगती थी। मुट्ठियाँ बाँधे माकुर अतिरिक्त रूप से सजग हो जाते. जाँचकर्ता की नजर पैंट पर लगे धूल पर पड़ जाती…
– “ये क्या है?”
– “…!”
बदले में एक लम्बी डाँट झिड़क समझाईश…
साया मुड़कर चला गया। माकुर के कन्धे पर एक हथेली का स्पर्श हुआ था। माकुर चौंक कर मुड़े। शतदल उदास थे…
– “क्या हुआ?”
– “कुछ नहीं!” माकुर धीरे से बोले।
– “मेरी भी तो माँ नहीं हैं।” वही लाल डबडब असहाय आँखें।
– “तुम्हारी माँ तो कहानी में थीं।” माकुर की आवाज कुछ ऊँची हो गई।
– “तुम्हारी माँ भी तो अब कहानी में है।”
– “लेकिन मेरी माँ थी… सच में थी…!” माकुर चीख कर रोने लगे।
– “सबकी माँएँ होती हैं। फिर सबकी माँएँ कहानियों में चली जातीं हैं। सारी कहानियों में माँ होती है। दरअसल हर कहानी की शुरुआत ही माँ से होती है। जैसे कि कह लो एक घर था… वो घर माँ से था। एक श्यामा थी… श्यामा अंडों की माँ थी। एक आदमी था… तो इसमें बिन कहे ही माँ है। क्योंकि बिना माँ के कोई आदमी कैसे हो सकता है? देखो मेरी माँ नहीं है… मैं बड़ा हो गया हूँ न! कितने दिनों से मैं बिना माँ के ही बड़ा होता रहा हूँ। तुम्हारी नानी से तुम्हारी माँ तक… और तुम्हारी माँ से तुम तक!”
माकुर को लगा शतदल बूढ़े हो जाएँगे। तब भी ऐसे ही कहेंगे… देखो मैं तो बिना माँ के ही बूढ़ा होता रहा हूँ। पर नहीं, शतदल सिर्फ बड़े होते रहेंगे। कहानियाँ कभी बूढ़ी नहीं होतीं।
शतदल सन्त थे। सन्त के होंठों पर जीवन धीरे से आरामकुर्सी लगाए बैठा था। माकुर उसे देखने की कोशिश कर रहे थे।
– “तुम भी अब बड़े हो जाओ माकुर!” जीवन उनके कानों पर अपने होंठ रखकर फुसफुसाया।
श्यामा घोंसले के पास पंख फड़फड़ा रही थी। वो एकटक उसका घोंसला निहारते रहे… पिछले साल गौरैया के घोंसले वाले दिनों में, एक दिन गौरैया की अनुपस्थिति में अम्मा ने धीरे से एक चूजा माकुर की नन्ही हथेली पर रख दिया था। नरम-नरम सा नन्हा चूजा। डरा-सहमा सा बिचारा सिमटा बैठा था। धीरे से पंख फड़फड़ा कर हथेली में और दुबक गया। कौवे-बिल्ली के डर से अम्मा ने जल्द ही उसे वापस घोंसले में रख दिया था। माकुर सोंच रहे थे इस श्यामा का चूजा भी वैसा ही गोलू-मोलू सा होगा न? श्यामा का चूजा गौरैया के चूजे से अलग होता है न? जैसा कि गाय का बच्चा भैंस के बच्चे से? श्यामा, गौरैया, गाय, भैंस …सब तो अपने-अपने बच्चों की अम्मा ही हैं न!
बारिश के साथ तेज हवाएँ भी थीं। सिहरन हो रही थी। माकुर खोए हुए से यूँ ही बैठे रहे… चुपचाप! हवा का तेज झोंका आया।
– “ चें..! चें..! चें..! चें..!, श्यामा तड़प कर चीखी थी।
माकुर चौंक कर जागे। श्यामा लगातार चीख रही थी। माकुर डरकर खड़े हो गए। श्यामा के अंडे घोंसलों से लुढ़क कर खपड़े से नीचे छप्पर की आरी पर अटक गए थे। एक तीखे डर की लहर से माकुर सिहर गए। छप्पर के नीचे ईंटें बिछी थीं। माकुर के मन में सबसे पहले प्रार्थना आई। वो हाथ से अंडे उठाकर घोंसलों में नहीं रख सकते थे। श्यामा अंडों के पास मँडराती चीख रही थी। हवा का एक तेज झोंका आया। अंडे छप्पर की किसी सींक के सहारे अटके थे। माकुर की प्रार्थना बादलों से ऊपर नहीं जा पाई। अंडे एक के बाद एक टक्क-टक्क गिर पड़े। माकुर की चीख निकल गई।
– “अरे का हुआ…?” काकी ने आवाज दी।
बुआ कान से फोन सटाए हड़बड़ी में कमरे से बाहर निकली। उन्होंने माकुर को देखा। माकुर टूटे अंडे देख रहे थे। बुआ ने भी टूटे अंडे देखे। फिर कन्धे सिकोड़ कर अन्दर चली गईं।
– “बेचैनी का टाटी है इ लड़का!” बुदबुदाती धीरे-धीरे चलती काकी पास आ गईं। माकुर अब भी अंडों का अवशेष देख रहे थे। अंडों का मूक जीवन फैला पड़ा था। श्यामा टूटे अंडों के चारों तरफ पंख फड़फड़ाती चीख रही थी।
– “ च…च…च… हाय राम! बेचारी रे चिरईया!”
टूटे अंडे देख काकी अफसोस में घिरी खड़ी थीं। शतदल की डबडब भरी आँखों से आज एक आँसू टूट गया था।
– “ना भईया… रोओ नहीं! चिरईं फिर अंडे देगी।”
काकी ने माकुर को अँकवार में ले लिया और अनुभव की कमजोर काँपती हथेलियों से आँसू पोंछ दिए। आँगन के नन्हें गड्ढों में यहाँ-वहाँ पानी जम रहा था। बारिश से उनमें बगूले बनकर टूट रहे थे। माकुर काकी की कागजों सी खरखराती साँसों की स्पष्ट आवाज बिलकुल पास से सुन रहे थे।
श्यामा माँ थी। “माँ होना” कहानी के फ्रेम में चला गया था। अब सिर्फ श्यामा थी। श्यामा चिरईं। लेकिन श्यामा तड़प रही थी। यह एक माँ की तड़प थी। उस माँ की जो माँ थी, पर अब नहीं है। श्यामा जब माँ नहीं थी… तो श्यामा थी। अब श्यामा माँ नहीं है, तब भी श्यामा है। लेकिन इस बीच एक माँ की कहानी बन चुकी थी। माकुर के साथ कुछ अलग था। उनकी माँ थी। जब माँ, माँ नहीं थी तब लड़की थी। लड़की थी तो माकुर नहीं थे। जब माकुर आए… तो लड़की माँ बन गई थी। माकुर के होने के समय से ही माँ थी। माँ थी तो माकुर थे… इसलिए अब माकुर ज्यादा अकेले थे। पर एक ”खो देने” का दुख था, जो एक सा था। श्यामा और माकुर एक साथ भोग रहे थे… काकी निकट चली आईं थीं परिधि के। माकुर ने सुस्ती से पलट कर उन्हें देखा। माकुर की उम्र नहीं थी। उन्हें नहीं पता था कि चेहरे पर “खो देना” कैसे पढ़ा जाता है। पर कुछ था जिसकी लिपि अस्पष्ट होते हुए भी माकुर ने पढ़ लिया था। काकी की बरौनियाँ सफेद थीं। उनके होंठों के किनारों पर लार का फेन जम गया था। माकुर ने उल्टी हथेली से उसे पोंछ दिया।

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