प्रकाशकांत आठवें दशक के एक महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। आपके चार उपन्यास और चार कथा संग्रह भारी चर्चा में रहे। कवि नईम के बहाने देवास पर आपकी  संस्मरण की एक पुस्तक है जो अपने सुंदर गद्य के लिए काफ़ी सराही गई। 

प्रस्तुत कहनी निम्नमध्यवगीॅय परिवार की एक ऐसी लड़की को पेंट करती है जो घर – परिवार की वर्जनाओं को अस्वीकार करते हुए अपने भीतर की वर्जनाओं में उलझ जाती है – कहानी इस बात को प्रश्नांकित  करती है।  विश्वास है ,पाठक कथा के इस मर्म पर अपनी राय ज़रूर देंगे।  – हरि भटनागर

 

कहानी:

 

शाम थी। गर्मियाँ शुरू होने के पहले वाली शाम। पार्क ख़ाली था। सूना और उजाड़ भी। पार्क जैसा उसमें कुछ नहीं था। ना बच्चों के झूले। ना फूलों के पौधे। और ना हरियाली। थोड़ी-बहुत सूखी हुई घास थी। यहाँ-वहाँ। तार फेंसिंग के पास मेहंदी की झाड़ी थी। उसके नज़्दीक कटने से बचा रह गया इमली का पेड़ था। और दो-तीन सीमेंट की बेंच। जिसमें से एक का काफ़ी हिस्सा टूट चुका था। बाक़ी साबुत थीं। वहाँ कम ही लोग आते थे। नज़्दीक की कॉलोनी में एक और पार्क था। ज़्यादातर लोग वहीं जाते थे। ख़ासकर बच्चे। बच्चों के लिए वहाँ बहुत सारी चीजे़ं थीं। फिसल पट्टी, झूले, सी-सा,. मेरी-गो-राउंड, डबल बार वग़ैरह। काफ़ी हरियाली भी थी। अच्छे मेंटेनेंस से चलते वह पूरी तरह से विकसित और व्यवस्थित पार्क था। बड़ा भी। लोग उसी में जाते थे। ज़्यादातर सुबह-शाम। भीड़ भी काफ़ी रहती थी। मैं वहाँ जाने से बचता था। भीड़ के मारें मुझे घबराहट होती थी। अदिति जाती थी। अक्सर! मुझे जब कभी ज़रूरत लगती, कॉलोनी के पीछेवाले कुछ-कुछ उजाड़-से पार्क में चला जाता था। उस वक्त भी था। साथ में वह भी थी। वह मतलब दीदी! वह भी भीड़ पसंद नहीं करती थी। इसलिए यहाँ ले आया था। चाय पीने के बाद उसी ने घूमने चलने का कहा था। वह धीरे चल रही थी। सूखे पत्तों के बीच! पत्तों की आवाज़ आ रही थी। टूटने की। सरकने की। कुछ दूर चल कर हम लोग एक बैंच पर बैठ गये थे।

‘तुम यहाँ रोज आते हो?’ उसने पूछा था।

‘नहीं, कभी-कभी! ’

‘ठीक भी है। कभी-कभी ही आना चाहिए। ताकि कोई चीज़ आदत न बन सके। आदत बन जाने पर हर चीज़ की भीतरी खूबसूरती खो जाती है! चमक भी!’ उसने कहा था। उसके बोले हुए कि गूँज के धुंधलके में मैंने उसका चेहरा देखा। वहाँ ठहरे हुए पानी जैसी अलग तरह की स्थिरता थी। गोरे रंग पर ठहरी हुई स्थिरता। उसका रंग गोरा था। एकदम गोरा! बीमार-सा नहीं, दमकता हुआ! वह पापा पर गयी थी। माँ और दूसरे यही कहते थे। सिर्फ़ रंग ही नहीं चेहरे की बनावट और क़द वग़ैरह में भी। पापा का रंग काफ़ी गोरा था। एक ख़ास तरह की चमक लिया हुआ। आख़िर-आख़िर तक वैसा ही बना रहा। तीखे नाक-नक़्श। जब कि माँ वैसी नहीं थी। क़द छोटा। रंग दबा हुआ। चेहरा-मोहरा सामान्य! मैं माँ पर गया था। नानी मुझे ‘माँ का बेटा’ और दीदी को ‘पिता की बेटी’ कहती थी। हालाँकि, अपने सुन्दर होने को लेकर दीदी के भीतर कोई अलग तरह का एहसास नहीं रहा! ख़ास होने जैसा! लेकिन, लापरवाह भी नहीं रही। एक ख़ास किस्म की स्थिरता! ठीक-ठीक यही या पता नहीं कुछ और! उस वक्त भी चेहरे पर वैसी ही स्थिरता थी! अगली सुबह उसे लौटना था। चाहता था कि कुछ दिन और रुके! अदिति भी! जबकि पता था कि नहीं रुकेगी। इतने दिन रुक जाना ही शायद काफ़ी था।

‘कुछ दिन के लिए हमारे यहाँ चली चलो!’ उस दिन उसके यहाँ से चलते वक्त मैंने कहा था। अदिति ने भी बात दोहरायी थी।

‘अभी तो नहीं, आगे देखती हूँ!’ एक छोटी-सी उदासी के बीच उसका जवाब था। मैंने फिर इस सिलसिले में कुछ ओैर नहीं कहा। दूसरी छोटी-मोटी पूछताछ करना चाही थी। बहुत आम-सी! अभी कुछ दिन यहीं रहने या फिर लौट जाने वग़ैरह जैसी! लेकिन नहीं की थी। सिद्धार्थ लौट गया था। ‘तीसरे’ के बाद! छुट्टी नहीं मिली थी। आ भी मुश्किल से पाया था। जकार्ता से फ़्लाइट जैसे-तैसे मिली थी। ऐन वक्त पर पहुँचा था। उसके लिए घंटा-भर रुकना पड़ा था। ग़नीमत थी कि पहुँच गया वर्ना शाम होती देख लोग ज़्यादा देर इन्तज़ार करना नहीं चाह रहे थे।। दो दिन से हो रही बारिश दोपहर को ही थमी थी लेकिन फिर शुरू होने का अन्देशा था। तभी सिद्धार्थ आ गया था। अपनी माँ से मिलकर रोया था। वह उसका सिर ओैर पीठ सहलाती रही थी। श्मशान में वह अपने फूफा के पास बैठा रहा था। साथ में उसके कुछ पुराने दोस्त भी थे। थोड़ी देर के लिए मैं भी उसके पास गया था। बात ज़्यादा-कुछ नहीं की थी। करने को थी भी नहीं! ‘तीसरे’ के बाद तो लौट ही गया। बाक़ी लोग भी लौट गये थे। सिवाय सिद्धार्थ के बुआ और फूफा के! उन्हें कहीं लौटना नहीं था। साल-भर से वे वहीं थे। और आगे भी शायद वहीं रहने वाले थे। उन्हें अपने साथ सिद्धार्थ के पापा ही लेकर आये थे। फूफा के पैरों में तकलीफ़ थी। ज़्यादा चल-फिर नहीं पाते थे। इसी वजह से काम-धाम छूट गया था। यहाँ आने के बाद कुछेक ट्यूशनें पकड़ ली थीं। बच्चे घर ही आ जाते थे। वे पढ़ा देते थे। हालाँकि उतने-भर से गुजारा नहीं होता था। सो, सिद्धार्थ की बुआ भी छोटा-मोटा काम करने लगी थी। सिद्धार्थ के पापा ने ही काम दिलवाया था।

‘तीसरा’ निपटा कर हम लोग भी लौट आये थे। फिर उत्तर क्रिया में ही गये थे। ‘दाग़’ सिद्धार्थ के फूफा ने दिया था इसलिए उत्तर क्रिया भी उन्हीं के हाथों पूरी हुई थी। क्रिया के बाद निकलते वक़्त ही मैंने दीदी को कुछ दिनों के लिए अपने साथ चलने वाली बात कही थी। जिससे उसने फ़िलहाल के लिए इंकार कर दिया था।

वहाँ से आने के बाद बीच में उससे कुछेक बार फ़ोन पर बात हुई। अदिति ने ही फ़ोन लगाया था। हालचाल पूछे थे। फिर फ़ोन मुझे दे दिया था। मुझे एकदम से समझ में नहीं आया था कि अब और क्या कहा-पूछा जाना चाहिए! यूँ भी फ़ोन पर मैं ज़्यादा बात नहीं कर पाता था। किसी से भी! सिर्फ़ ज़रूरी-ज़रूरी दो-चार वाक्य और बस! लगभग किसी ज़माने की टेलीग्राफ़िक भाषा में! बहरहाल, उस वक्त भी दीदी से हमेशा जैसी ज़रूरी दो-चार बातें की थीं। अदिति की तरह हालचाल पूछा था। जवाब में जैसे किसी बात पर गर्दन हिलाकर हामी भरी जाती है उसी तरह से उसने ‘ठीक है’ कहा था। और फिर हमारी  खै़रियत पूछी थी!

‘कुछ दिनों के लिए आ जाओ!’

‘हाँ, आऊँगी!’ उसके बाद बात ख़त्म हो गयी थी। यूँ भी उससे पता नहीं क्यों थोड़ा-सा डरता जैसा था। वह मुझ से सात-आठ साल बड़ी थी। छुटपन में मेरी-पढाई-लिखाई वगै़रह पर नज़र रखा करती थी। ज़रूरत पड़ने पर डाँटती-धमकाती भी थी। एकाध बार पिटाई भी की थी। होमवर्क पूरा किये बिना सोने नहीं देती थी। मुझे याद है उस छोटे-से क़स्बे में उन दिनों साइकिल चलाने वाली दो-चार लड़कियों में से वह भी एक थी। काफ़ी जिद करके पिता से उसने अपने लिए साइकिल खरीदवायी थी। दादी को उसका साइकिल चलाना पसंद नहीं था। इसीलिए साइकिल ला देने पर दादी पिता पर काफ़ी नाराज़ भी हुई थी। झगड़ी थी। दीदी को उससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था। वह स्कूल और दूसरी जगह अपनी साइकिल से जाने-आने लगी थी। कभी-कभी मुझे भी बिठाकर! मैंने साइकिल चलाना उसी से सीखा था।

उसकी इस तरह की बातों से दादी हमेशा उससे नाराज़ रही। थोड़ी-बहुत माँ भी! पिता के बारे में ठीक से मालूम नहीं। ऐसे मुद्दों पर कभी मेरी दीदी से बात नहीं हुई। बल्कि बाद-बाद में तो यह रहा कि उससे बात करने में एक तरह की झिझक जैसी महसूस करता रहा। शायद अपने और उसके बीच की सम्मानजनक दूरी के चलते! हालाँकि बहनें कितनी ही छोटी या बड़ी हों इससे कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन, पता नहीं क्यों मैं थोड़ा डरता-झिझकता था। अपने और उसके बीच अनाम-सी दूरी महसूस करता था। शायद ठीक-ठीक यही बात न हो, और यह मेरा एक तरह का वहम जैसा हो। पर बहुत कुछ लगता ऐसा ही था। बाद में भी यह एहसास बना रहा। थोड़ा और बाद में तो दीदी का घर से एक तरह से अघोषित बहिष्कार जैसा ही हो गया। वैसे, घर में हलका-सा तनाव तो तभी से था जब दीदी ने क़स्बे की पढ़ाई पूरी करने के बाद पास के शहर जाकर आगे पढ़ने का फ़ैसला सुनाया था। दादी भड़क उठी थी। दादी से यूँ भी सारा घर डरता था। पापा तक! बेहद सम्मान में से पैदा होने वाला डर! कम से कम मुझे तो यही लगता था। बहुत ज़्यादा सम्मान भी कहीं थोड़ा बहुत डर पैदा करता है। बहरहाल, सारा घर दादी से डरता था या डरने की हद तक दादी का सम्मान करता था। लेकिन, दीदी नहीं डरती थी। उनका सम्मान ज़रूर करती थीं। दूसरों जितना ही! और ऐसे में उसने आगे पढ़ने का फ़ैसला ले लिया था। वह भी शहर रोज़ तीस-चालीस किलो मीटर का जाना-आना करके! माँ ने समझाया था। पापा ने भी डाँटा था। दादी कई दिनों तक उबलती-उफनती रही थी। लेकिन, वह नहीं मानी थी।  हालाँकि, कुछेक महीनों में मामला एक तरह से ठण्डा पड़ गया था। सबने थोड़ा-बहुत समझौता जैसा कर लिया था। सिवाय दादी के! दादी को कभी पसंद नहीं आया उसका बाहर जा कर पढ़ना और फिर उसके बाद नौकरी भी करना!! नौकरी भी इतनी दूर! दादी तो नौकरी करवाने के ही खिलाफ़ थी। नौकरी करने वाली वैसे उस वक्त तक पूरे परिवार की पहली लड़की शायद दीदी ही थी! और यह उतना और वैसा बुरा भी नहीं था जितना और जैसा बुरा कम से कम दादी समझ रही थी। मुझे तो अच्छा ही लगा था! पिता को पता नहीं कैसा लगा था। उनसे कभी बात नहीं हुई। यूँ भी जो बातें-चीज़ें दादी को पसंद नहीं होती थीं उनके मामले में वे बात नहीं करते थे। आम तौर पर चुप रहते थे।

लेकिन, उस दिन चुप नहीं रहे थे जिस दिन अचानक दीदी का फ़ोन आया था और फ़ोन पर ही अपने साथ काम करन वाले किसी लड़के से शादी कर लेने की सूचना दी थी। यह एक तरह का धमाका ही था। दीदी ने इस बारे में पहले किसी को कुछ भी कहा-बताया नहीं था। हलकी-सी आहट भी नहीं होने दी थी। उन दिनों दादी बीमार थी। शायद ज़्यादा ही थी। पिता तनाव में थे, परेशान भी। दीदी कर्नाटक में थी। वहीं से ख़बर दी थी! घर में भूचाल जैसा आ गया था। साफ़ लगा था कि पापा के भीतर कोई ज्वालामुखी फूटा है। फ़ोन पर ख़बर सुनने के बाद कुछ पल चुपचाप रहे थे। उन कुछेक पलों में ही उनके चेहरे पर से जाने क्या कुछ और कितना सारा गुज़र गया था। बहुत कुछ तहस-नहस कर देने वाला अन्धड़! दादी नीम बेहोशी में थी। उसे कुछ बताने का सवाल ही नहीं था। सिर्फ़ माँ ओैर मुझे बताया था। वह भी ऐसे जैसे किसी के मरने की सूचना दे रहे हों! सिर्फ़ एक वाक्य अलग से जोड़ा था कि दीदी अब कभी इस घर में क़दम न रखे, कम से कम उनके जीते जी! ये उनके  कहने के आखि़री शब्द थे। यही हुआ भी था। दीदी पापा के रहते कभी नहीं आ पायी। एकाध बार किसी शादी में जिसमें वह आयी थी और जहाँ पापा भी गये हुए थे, उसने मिलना चाहा था लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया था। और शादी निपटते ही लौट आये थे।

बरसों बाद दीदी का आना-जाना शुरू हुआ। जब पापा नहीं रहे। दादी तो उनके जाने के पहले ही गुज़र चुकी थी। अब सिर्फ़ माँ थी। उसकी तबीअत भी ख़राब रहने लगी थी। तब तक सिद्धार्थ भी हो चुका था। और प्ले स्कूल में जाने लगा था। दीदी माँ की तबीअत देखने और मिलने बीच-बीच में आ जाती थी। हालाँकि, दूर होने से आना-जाना कम ही हो पाता था। छुट्टी ज़्यादा न मिल पाने से दो-चार दिनों के लिए ही! आम तौर पर इधर की ही बात करती। अपने बारे में कुछ कहती तो भी बहुत थोड़ा-सा। वह भी अपने काम-काज के बारे में! मैंने देखा उसकी बातों में उसके पति नहीं होते। माँ को कभी उसके पति के बारे में कुछ पूछते-बात करते नहीं पाया। उसके पति भी कभी नहीं आये।  ख़ुद ही नहीं आये या फिर उसने ही लाना नहीं चाहा,पता नहीं! अकेली ही आयी। माँ ने भी कभी उन्हें साथ लाने का नहीं कहा। न कभी कहीं देखा। मैंने ज़रूर उन्हें देखा था। एक-दो बार मिला भी था। जब दीदी के यहाँ जाना-आना शुरू हुआ था। थोड़ा कम बोलने वाले व्यक्ति लगे थे। बात भी कम हुई थी। सिर्फ़ सुनते रहे थे। दीदी के बेटे से ज़रूर बातें होती रही थीं। सिद्धार्थ नाम बताया गया था उसका। बाद में वह इंडोनेशिया चला गया था। वहीं शादी भी कर ली थी। फिर उससे मिलना नहीं हुआ था। बीच में आया ज़रूर था। दीदी ने फ़ोन पर बताया ज़रूर था।। लेकिन मैं मिलने नहीं जा पाया था। फ़ोन पर हालचाल पूछ लिये थे। वह लौट गया था। लौट जाने की ख़बर दीदी ने ही दी थी। फ़ोन पर! निर्विकार भाव से! फ़ोन पर वह बहुत निर्विकार भाव से ही बोलती थी। इस तरह जैसे अपने में से ही वह ख़ुद कहीं बाहर गयी हुई हो और उसकी तरफ़ से कोई और बात कर रहा हो! इसी तरह उसने एक दिन बिलकुल चलते-चलाते लगभग किसी सूचना देने की तरह यह बताया था कि वह अपने पति से अलग रहने लगी है और दूसरी जगह रहती है, पिछले कई महीनों से! मैं चौका था। बल्कि झटका जैसा महसूस किया था। हिम्मत करके कारण पूछा था।

‘बस, ऐसे ही!’ छोटा-सा जवाब था। थोड़े-से शब्द! जिनमें उनके चालू अर्थों के अलावा न कुछ आगे था और न बाद में! मैंने भी फिर और कुछ नहीं पूछा था। इस तरह का कुछ कहने-पूछने की हिम्मत तो पहले से ही नहीं रही थी। किसी भी चीज़ के बारे में! उसके शादी करने के तरीक़े को लेकर भी कहाँ-कुछ कह पाया था। तरीक़ा ठीक न लगने के बावजूद! खैंर, इस प्रसंग में भी फिर कोई बात नहीं हुई। अदिति की भी नहीं हुई। वह तो ऐसे मामलों में लिहाज़ के मारे दीदी से कुछ कहने-सुनने से मुझसे ज़्यादा बचती थी। रही बात माँ की तो वह अब तक गुज़र चुकी थी। अगर होती तो पता नहीं इस सिलसिले में क्या सोचती, क्या कहती! बहरहाल, एक किस्म का सन्नाटा था जिसमें सब कुछ अपनी-अपनी जगह ठहरा हुआ था। मैं एक दिन गया ज़रूर था लेकिन उस जाने का कोई ख़ास मतलब नहीं निकला था। दीदी हमेशा जैसी मिली थी। थोड़ी-बहुत इधर-उधर की बात हुई थी। मैंने असल मुद्दे पर बात करने की कोशिश की थी। लेकिन उससे कुछ हुआ नहीं था। दीदी ने फ़ोन पर बोले गये कुछ शब्दों की तरह ही कुछ कहा था जिनका कोई ख़ास मतलब नहीं निकलता था। अगले दिन मैं लौट आया था। लौटने पर अदिति ने भी कुछ नहीं पूछा था। उसे भी शायद इस स्थिति का अन्दाज़ था।

उसके काफ़ी दिनों बाद पता लगा था कि दीदी ने दूसरी जगह कोई और कम्पनी ज्वाईन कर ली है और आजकल वहीं रहती है। मेरे पूछने पर यही बताया था। मैंने कम्पनी वग़ैरह के बारे में थोड़ी-बहुत और बात कर ली थी।

उसके कई दिनों बाद वह आयी। कुछ दिन रही। अदिति औेर बिट्टू से मिली। आम दिनों जैसी बातें हुईं और लौट गयी। मैं अपने काम-काज की भाग-दौड़ में लग गया। कुछ छोटी-मोटी परेशानियाँ रहीं। और इसी बीच एक दिन अचानक दीदी के पति के गुजर जाने की फ़ोन पर ख़बर मिली। दीदी ने ही दी। मैं अदिति के साथ भागते-दौड़ते पहुँचा था! दीदी का इस स्थिति में सामना करने की हिम्मत जुटाता हुआ। अंदाज़ नहीं लगा पा रहा था कि वह कैसी मिलेगी! लेकिन जब मिली तब उसके चेहरे पर एक अजीब-सी ख़ामोशी दिखी। बहुत गाढ़ा-गाढ़ा ठहरा हुआ-सा कुछ! इधर काफ़ी लंबे दिनों बाद उसे देख रहा था। तब जब उसकी ज़िंदगी से उसके पति हमेशा के लिए जा चुके थे। उस वक़्त उसके भीतर पता नहीं क्या कुछ चल रहा था। अपने पति का घर छोड़ने के बाद उसने घर का सब कुछ छोड़ दिया था। उसमें रह रहे पति की बहन और उसके परिवार के हवाले जैसा कर के! बेटे ने भी अपने पास बुलाया था। उसे भी मना कर दिया था। पति का सब कुछ निपटने के बाद अपने घर लौट गयी थी।

और अब वह कल लौटने वाली थी। मेरे यहाँ से। मुश्किल से चार-पाँच दिन ही हुए थे आये को! पति के गुजरने के बाद अब आयी थी। काफ़ी से भी ज़्यादा दिनों के बाद! शायद साल-भर से ज़्यादा तो हो ही गया था।  बीच में अदिति और मैंने दो-एक बार आने का कहा भी था। ‘आती हूँ’ – हर बार का जवाब रहा था। हर बार की तरह  फिर एक दिन अचानक फ़ोन आया।

‘कल सबेरे निकल रही हूँ!’ एक छोटा-सा वाक्य और फ़ोन बन्द। मैंने और अदिति ने एक-दूसरे को देखा था। एक बार घर पर नज़र डाली थी। तैयारी करने को ज़्यादा कुछ था नहीं। थोड़ा-बहुत जो था, निपटा दिया। अगली रात वह आ गयी। बारह बजे के आसपास। मैं ओैर अदिति लेने गये थे। एक थकी हुई मुस्कुराहट के साथ मिली थी। पाँव छूने पर मेरा और अदिति का सिर सहलाया था। अदिति और बिट्टू को गले लगाया था। रास्ते में चुप-सी रही थी। मुझे लगा कि शायद थकान के मारे होगी। लेकिन फिर अगले दिन देखा, वह अमूमन चुप ही रहती है। चुप और सोचती हुई-सी। और ऐसा शायद पति के जाने के कारण नहीं था। कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगा था। हालाँकि मैं समझने-जानने की कोशिश कर रहा था कि पति के इस तरह से चले जाने को वह किस तरह से ले रही है! लेकिन ठीक से कुछ हाथ नहीं आ रहा था। इस सब को लेकर उसकी चुप्पी में कहीं कोई ऐसा सुराख़ नहीं दिख रहा था जिसमें से अन्दर घुस पाने का रास्ता बनाया जा सके! सीधे-सीधे कुछ कहने-पूछने की तो ख़ैर गुंजाइश ही नहीं थी। जब से आयी थी तबसे या ता सिर्फ़ चुप थी या हमारी बातें करती रही थी। उस सब में खुद कहीं नहीं थी। मैं उसके बारे में उसके बीते वक़्त के साथ सोच रहा था। रोमांच, उथल-पुथल से भरा वक़्त! सबसे अलग और ख़ास वक़्त! अपनी पसंद से जिस आदमी से शादी की, जिसके साथ रही, माँ बनी, फिर अलग हो गयी और बाद में जो गुज़र भी गया! इस सब को लेकर उसके भीतर कुछ न कुछ तो चलता ही होगा! कैसा लगता होगा! दुःख होगा तो किस तरह का होगा! या नहीं होगा! शायद ऐसा होता नहीं है फिर भी! पता नहीं ठीक-ठीक क्या था। मेरे भीतर अजीब तरह का खदबदाहट जैसा कुछ था। घुमड़ता हुआ-सा। वह सब अन्ततः बिनजाना-सा ही रहा। दीदी उस सब को अपने साथ लेकर अगली सुबह लौट गयी।

जाते वक़्त भी उसके चेहरे पर वही थकी-थकी-सी मुस्कुराहट थी।


प्रकाश कान्त

जन्म:      26 मई, 1948; सेन्धवा ( पश्चिम निमाड़, म. प्र.)

शिक्षा:     एम. ए. ( हिन्दी )

रांगेय राघव के उपन्यासों पर पीएच. डी.

प्रकाशन:

शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ एवं आलेख प्रकाशित
चार उपन्यास : ‘अब और नहीं’, ‘मक़्तल’, ‘अधूरे सूर्यों के सत्य’, ‘ये दाग़-दाग़ उजाला’
कार्ल मार्क्स के जीवन एवं विचारों पर एक पुस्तक
चार कहानी संग्रह : ‘शहर की आखिरी चिड़िया’, ‘टोकनी भर दुनिया’, ‘अपने हिस्से का आकाश’, ‘वसंत का उजाड़’
संस्मरण : ‘एक शहर देवास, कविनईम और मैं’
फ़िल्म पर एक पुस्तक : ‘हिंदी सिनेमा : सार्थकता की तलाश’
शिक्षा पर एक पुस्तक : ‘सामाजिक अध्ययन नवाचार – बच्चों के साथ मैंने भी सीखा’

सम्प्रति:    स्वतंत्र लेखन

सम्पर्क:    155 – एल. आई. जी., मुखर्जी नगर,

देवास, म.प्र., 455001

मोबाईलः 09407416269

ईमेल: prak.kant@gmail.com

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