कहानी

कर्नल अजय सिंह, अपार्टमेंट के जाने-पहचाने चेहरा थे। उनके सिर पर जमी रहने वाली टोपी, बिलाते बालों को अदृश्य रखने में सहयोग करती। लम्बा कद, मजबूत काठी, घनी लम्बी मूंछो की नोकें ऐंठी और उठी रहतीं।
रिटायरमेंट के बाद कर्नल साहब ने निशातगंज के पार्करोड पर बने अपोलो अपार्टमेंट में अपनी नई जिंदगी शुरू की। निजी फ्लैट में वह बची जिंदगी के अफसरी चाल-ढाल को बनाए रखते। अपने चमड़े के जूतों को सदा चमकाना और साफ-सुथरे मोजे पहनना उनका शौक था। एक मात्र नौकर, राधे को कभी डांट पड़ती भी, तो जूतों की चमक में कोताही की वजह से। चाल में धमक और जुबान में खनक रखने वाले कर्नल साहब को किसी तरह की कोताही पसंद नहीं थी। चाय के कप-प्लेट का चयन मिसेज कर्नल यानी रेणुका सिंह की होती। सुबह जब कप-प्लेट और केतली, बालकनी में रखी जाती, तब पति-पत्नी अखबारों के पन्ने पलटने के साथ, कप को होंठों से लगाते।
विज्ञापनों से भरे अखबारों की खबरों से, खबरों के गायब हो जाने के कारण, जल्दी-जल्दी पन्ने पलटना, कर्नल साहब की आदत थी। शहर के प्रदूषण, सब्जियों में फैलते कीटनाशक और फ्लैट में रह रहे बूढ़ों की अकेली जिंदगी के सूनेपन पर पति-पत्नी बात करते। बातचीत में अक्सर तीसरी मंजिल पर रहने वाले राजेन्द्र शर्मा और मिसेज शर्मा का जिक्र होता, जो अस्सी पार, जीवन को गुमनामी में खींच रहे थे। उनके बेटे-बहू लायक थे और नार्वे में डॉक्टर थे। बेटी पढ़ाकू थी और ऑस्ट्रेलिया में सॉफ्टवेयर कंपनी में मैनेजर थी। उसने वहीं, एक इण्डियन मूल के इंजीनियर से शादी कर ली थी। दूसरी मंजिल के सदानंद भार्गव, कर्नल साहब के चहेते थे। उनकी पत्नी का दो साल पहले, सर्वाइकल कैंसर से देहांत हो जाने के बाद, भार्गव साहब अकेले थे। उनकी एक मात्र बेटी, जर्मनी में प्रोफेसर थी, जो कभी-कभार गर्मियों में पापा के पास आ जाती थी।
कर्नल साहब के पड़ोसी, नीरज सक्सेना का बेटा बंगलूर में फाइनेंस एनालसिस्ट था तो बेटी मुम्बई में टूर एण्ड ट्रैवल कंपनी में काम कर रही थी। नीरज सक्सेना और मिसेज नीरज, पचहत्तर पार, अपार्टमेंट की सोसाइटी में सक्रिय सामाजिक भूमिका निभाते, समय व्यतीत कर रहे थे। कुल मिलाकर कर्नल अजय सिंह और रेणुका सिंह की बातचीत में पूरे अपार्टमेंट के धनाढ्य बुजुर्गों का लेखा-जोखा होता, जिनके लायक औलादों की जिंदगी, देश-विदेश या महानगरों में, लाखों के पैकेज पर गुजर रही थीं।
कर्नल अजय सिंह टहलने के शौकीन थे। सुबह-सुबह जब वह टहलने निकलते, मार्चपास्ट की तरह अपने हाथ आगे-पीछे चलाते रहते। चाल में तेजी थी। हाथ की छड़ी, मिसाइल की तरह हवा में तन जाती, जिससे सामने की मूठ की चमक, शानदार आभा का निर्माण करती। रेणुका सिंह आराम तलब थीं, वजन ज्यादा था और सुस्त थीं। अपार्टमेंट के हाते में ही गणेश परिक्रमा कर, टहलने की औपचारिकता पूरी करतीं।
अपार्टमेंट वालों के लिए ‘कर्नल साहब!’ कहकहों के बादशाह थे। लोगों से मिलना-जुलना, देश-दुनिया की बातें, सुबह-शाम का हिस्सा होतीं। सोसाइटी की मीटिंग हो या होली-दीवाली का मिलन, उनको केन्द्र में रखकर अपार्टमेंट की गतिविधियां संचालित होतीं। उनके आर्मी के तजुर्बे, दिलचस्पी के कारण होते। बेटों की अच्छी पढ़ाई, विदेश की बेहतर नौकरी की चर्चा होती मगर अपार्टमेंट के तमाम फ्लैटों में रह रहे बुजुर्गों के एकाकीपन की कहानी, बिन कहे, कराहने लगती। उन कहानियों को सुन, कर्नल साहब के अंदर भी एकाकीपन का कैंसर, धीरे-धीरे रेंगने लगता, जिसे वह अपने कहकहों की कीमोथैरपी से नियंत्रित करते।

कर्नल साहब अपने अंदर के खालीपन से अनजान न थे। रिटायर्ड अफसरों का खालीपन, शादी बाद के मैरिज हॉल सदृश्य होता है। न अब चपरासियों की सेवाएं, न बाबुओं की जी हजूरी। उस खालीपन को भरने के लिए, बातचीत में बेटों की चर्चा के बजाय, आर्मी की उपलब्धियों का बखान ज्यादा जरूरी लगता। कश्मीर में आतंकियों की घेराबंदी या नागालैंड के विद्रोहियों के मंसूबे और उन्हें नियंत्रित करने के लिए आर्मी की सख्त पहरेदारी से बात शुरू होती। बात मुठभेड़ तक जाती। उधर सुनने वाले सुनते-सुनते थकते और फिर जरूरी काम का हवाला दे, कुछ कल के लिए छोड़, जयहिन्द कर जुदा हो जाते।
मिसेज रेणुका सिंह के पास भी तमाम संस्मरण थे। वह कर्नल साहब के साथ बबीना, जयपुर, कोहिमा, भोपाल, कश्मीर आदि जगहों पर रही थीं, जहां उनके बेटे बड़े हुए थे, जहां अलग-अलग कक्षाओं में पढ़े थे। वहां की तैनाती के किस्से और किट्टी पार्टियों के लतीफें वह सुनातीं थीं मगर बातचीत में बेटे, पंकज और दीपक की चर्चाएं भी तड़का लगाने के लिए शामिल कर लेती थीं।
कर्नल साहब के कहकहे, बुजुर्गों की दुनिया के छद्म थे, जो बाहर से अंदर आते ही गंभीरता को चेहरे पर ओढ़ लेते। घर के अंदर के सूनेपन को पाटने के लिए वह अपनी नफासत को आगे सरकाते। मसलन कि घर को कैसे सजाना, साफ-सुथरा रखना, करीने से सजे कप-प्लेट, केतली में चाय पिलाना और उम्मीद रखना कि दूसरे भी उनके साथ वैसा ही करें। वह घर में रखी एंटीक चीजों के बखान, मेहमानों से जरूर करते। विभिन्न मेडलों को पोछ और चमका कर रखने की हिदायत देते। कुछ पेंटिंग पुरानी पड़ने लगी थीं मगर उनका इतिहास बुलंद था। कर्नल साहब का इकबाल, उन्हीं इतिहास की वजह से बुलंद था।
कर्नल साहब की बातें अगर पेंटिंग से शुरू होतीं तो उनकी व्याख्याएं काफी लम्बी होतीं। कैनवास, वाटर कलर, थ्री डी कलर कंबीनेशन, आदि की अलग-अलग व्याख्याएं चलतीं और बार-बार हाथ, मूंछों की नोक पर सरकते रहते। बुढ़ापे की ओर बढ़ता शरीर और मन के वीराने से ठेलकर निकाले गए वीररस में सने शब्द, अब भी धमकते हुए निकलते। कहानी कहीं से शुरू हो, जाती इकहत्तर और कारगिल युद्ध तक।
नौकरी के शुरूआती दिनों में वह उन्नीस सौ इकहत्तर के युद्ध में शामिल हुए थे। इकहत्तर के युद्ध का पहला अनुभव, नौकरी को मजबूती दिया। लगभग बाइस के आसपास तब उम्र थी उनकी। उस युद्ध के संस्मरण सुनाते समय उनके चेहरे का आकार चौड़ा हो जाता। मूंछें चन्द्रशेखर आजाद की तरह तन जातीं। जूतों के कदमताल, बूटों में बदल जाते। हाथ की छड़ी की मूंठ, चमकने लगती।
ज्यादातर वह अपार्टमेंट से निकल कर सामने के पार्क में टहलने जाते। उनके इर्द-गिर्द बुजुर्गों का एक झुण्ड जमा हो जाता, जो अपेक्षा, उपेक्षा और अनादर में जीते, टहलते कम, किनारे के पुस्ते पर बैठकर बनावटी कहकहों में अपने अंदर के खालीपन को पाटने का काम करते। कर्नल साहब के साथ, नीरज सक्सेना होते। पार्क में बैठे, व्हाट्सएप ज्ञान से इतिहास और भूगोल की व्याख्या करने वाले पेंशन भोगी, किताबी ज्ञान से शून्य होते।
पार्क में बैठे बुजुर्गों की दिनचर्या में, बोलना-बतियाना, हां में हां मिलाना और बिन हंसी, हंसना-हंसाना, पार्कों तक सीमित रहता, सो कर्नल साहब भी सुबह के इस मिलन को खोना नहीं चाहते थे।
समय की बयार कुछ ऐसी बही थी कि ज्यादातर बुजुर्ग, खुद को नेशनलिज्म के नशे में, पाकिस्तान को गरिआने और अपने घुटनों के दर्द की दवा को व्हाट्सएप करते हुए, घुस कर मारने की मानसिक व्यग्रता में जा फंसे थे। चीन की चौधराहट पर उनमें दुविधा बनी हुई थी कि बिजली के खम्भे में लपेटी, जगमगाती झालरों पर इतराएं या ‘मेक इन इण्डिया’ के जमाने में, ‘मेड इन चाइना’ की लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों से दीपावली मनाएं या चीन के अरुणाचल प्रदेश में घुस आने की निंदा करें। बहस के ऐन मौके पर कर्नल साहब हस्तक्षेप करते और कहते, ‘सब पॉलिटिक्स ने बिगाड़ रखा है वर्ना, आर्मी को छूट दे दो, वह सब से निबट लेगी।’ कर्नल साहब की बात के समर्थन में पूरी बुजुर्ग मण्डली ‘जय श्री राम!’ का नारा लगाती हुई, अपने-अपने दड़बे की ओर प्रस्थान करती।
जो बुजुर्ग बार-बार पाकिस्तान के अंदर घुस कर मारने के हिमायती थे, उनके बेटे-और बहुओं ने ज्यादातर समय घर से बाहर बिताने पर मजबूर कर रखा था या उनमें से वे थे, जिनकी औलादें उनके साथ नहीं थीं और वे एकाकी जीवन की अंधेरी गुफा में गमगीन होने को मजबूर थे जबकि उनकी औलादें, मोबाइल पर औलादी दायित्वों को पूरा कर रही होतीं।

जिन बुजुर्गों की औलादें साथ रहती थीं, उन्होंने अपने मां-बाबूजी के पारिवारिक हस्तक्षेप को, नए युग की जरूरत के मुताबिक परिभाषित कर दिया था क्योंकि यह इतिहास के पुनर्लेखन का समय था। इस उहापोह में बुजुर्ग बेचारे राष्ट्रवादी पहचान के सहारे, अपने अहं को ओढ़े, फ्लैट की सोसाइटियों और पर्व त्योहारों में गर्वोक्ति का सहारा लेते थे।
कर्नल साहब के दोनों बेटे अमेरिका में थे। बड़े पैकेज पर थे इसलिए वे कर्नल साहब की दोनों ओर की मूंछों की नोक पर थे। बड़ा बेटा पंकज ने आई.आई.टी. मुम्बई से बी-टेक किया था। अब कैलीफोर्निया में एक स्पेस कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। छोटा, दीपक ने आई.आई.एम. लखनऊ से एम.बी.ए. कर, न्यूयॉर्क की किसी कंपनी में फाइनेंस मैंनेजर था। सोसाइटी की बैठकों में औलादों की बात हो तो, अपार्टमेंट में साल-दो साल पर दिखने वाले उनके बेटों की धमक जरूर सुनाई देती थी। ऐसी बहसों पर राजेन्द्र शर्मा और उनकी पत्नी की खामोशी, समय को वीरान बना देती थी।
उच्च पैकेज की नौकरियां, बूढ़े मां-बाप के लिए समय नहीं छोड़तीं। बस वीडियो कॉलिंग से संबंधों को जिंदा रखने का विकल्प तलाश लिया जाता है।
कर्नल साहब के दोनों बेटे शुरू-शुरू में एक साथ, इण्डिया आते थे। धीरे-धीरे व्यस्तता बढ़ती गई थी तो दोनों ने मम्मी-पापा का वीजा बनवा कर, अपने पास बुलाना उचित समझा, मगर उससे बात न बनी। कर्नल साहब और रेणुका जी एक बार बड़े बेटे के पास गए भी पर एक माह में ही लौट आए। वहां मन न लगा। बाद में ढलती उम्र में लम्बी हवाई यात्राओं के लिए मिसेज कर्नल तैयार न हुईं।
विगत दो सालों से रेणुका जी की सेहत की पूछताछ करने वाले, चौथी मंजिल के मोहम्मद रहमत अली, जो इस अपार्टमेंट के एक मात्र मुस्लिम बाशिंदे थे, अक्सर कर्नल साहब के घर आते रहते और वक्त-बेवक्त, किसी भी जरूरत के लिए उन्हें सूचित करने का अनुरोध करते।

कर्नल साहब और रेणुका सिंह को फ्लैट की दीवारें बिन सुराखों की नजर आतीं। बाहरी दुनिया उनसे मोबाइल से जुड़ती और व्हाट्सएप की राष्ट्रवादी गर्वोक्ति पर खत्म हो जाती। घरेलू नौकर, राधे का कमरा किनारे था, जहां गुलाब के दो गमले रख दिए गए थे। घर में राधे की उपस्थिति, बिन मोबाइल संवाद का स्पेस बनाती थी। राधे उनके बीच संवाद का माध्यम बनता और कभी-कभी गुस्से को पचाने का भी। बालकनी में चाय पीते, कर्नल दम्पति के मन के सूनेपन को दूसरे फ्लैटों की खटपट, तोड़तीं। यही कहानी अपार्टमेंट के राजेन्द्र शर्मा, सदानंद भार्गव और नीरज श्रीवास्तव के परिवार की भी थी। कुछ अन्य बूढ़ों का जीवन, पति-पत्नी या बहू-बेटे की बहसों से गुजरती, मान मनौव्वल तक जाती मगर रहमत अली जैसे जिंदादिल बाशिंदों की वजह से अपोलो अपार्टमेंट में राष्ट्रवादी जातीयता का जहर कम नजर आता था।
कर्नल साहब के अन्य दोस्तों की हरियाली दुनिया में भी बंजर और सूखे ने विस्तार करना शुरू कर दिया था। वे व्हाट्सएप से मन बहलाने की बीमारी से ग्रसित, धर्म साधना में लीन रहते थे। इन सब के बावजूद, नौकरी के तामझाम, सैल्यूट बंदगी के खत्म होने के बाद, कर्नल और रेणुका सिंह का जीवन कुछ साहित्यिक किताबों को पढ़ने और अपने संबंधियों से फोन पर बात करने में गुजर जाता। पुराने दिनों की स्मृतियां उन्हें कुरेदतीं थीं और संबंधों के ठंडेपन से जोड़ों का दर्द बढ़ाती जा रही थीं। मोबाइल रिंगटोन का बजता भक्ति संगीत, कर्कश लगता। वे दोनों, उससे अपने वीरानेपन को बिलगाने का बहाना ढ़ूंढते। सबसे पहले, आंखों पर चढ़ आए चश्मे को टटोलते। फोन नम्बर निहारते और फुर्ती में बतियाने को उद्धृत होते। कई बार जमीन-जायदाद या प्लाट बेचने वालों, बीमा कंपनियों या बैंक लोन, क्रेडिट कार्ड बांटने वालों के फोन उन्हें डिस्टर्ब करते और कई बार कर्नल साहब अपनी कड़क आवाज में ‘रांग नम्बर’ या डोंट डिस्टर्ब मी’ कह कर मोबाइल रख, दूसरे कामों में मन लगाते। जब किसी पुराने परिचित, मित्र या संबंधी का फोन आता, तब वह इत्मिनान से बतियाते।
रेणुका जी खुद को अपार्टमेंट की किट्टी पार्टियों में व्यस्त रखतीं और होली-दीवाली को मनाने में पूरे अपार्टमेंट की महिलाओं को अनुशासित करतीं।
संबंधों का जुड़ना और बिखरना, जीवन का एक खास पड़ाव होता है। कर्नल साहब की नौकरी के कई पड़ाव रहे। उस बीच माता-पिता के न रहने के बाद, उनके छोटे भाई, रमन सिंह ने गोवा में अपना घर खरीद लिया था। उनकी एक मात्र छोटी बहन, रश्मि सिंह शादी के बाद हैदराबाद में जा बसी थीं।
कर्नल अजय सिंह का कारगिल युद्ध, अंतिम युद्ध था, जिसमें उन्होंने अपने अजीज दोस्त, कर्नल नीरव को अपनी आंखों के सामने खोया था।
कर्नल साहब ने कारगिल युद्ध की स्मृतियों का चाहें जितना जिक्र किया हो, अपार्टमेंट, पार्क और पार्टियों तक, मन में एक टीस बनी रहती, अपने अजीज मित्र, नीरव को खो देने की। युद्ध में मारे जाने वाला हर सैनिक और अफसर अपना होता है। एक ही उद्देश्य से लड़ता, मरता है, वीरगति को प्राप्त करता है मगर 1971 का युद्ध, उनकी नौकरी के शुरुआत में लड़ा गया था और कारगिल युद्ध 1999 में, सेवा निवृत्त के चार साल पूर्व। दो हजार चार में वह पचपन वर्ष की उम्र में सेवानिवृत्त हो गए थे। उन्हें कई बार कारगिल युद्ध, राजनीति की बलिबेदी पर लड़ा गया युद्ध लगता। यह और बात थी कि पार्क के नेशनलिस्ट बुजुर्गों के सामने तो वह पाकिस्तान की ऐसी-तैसी किए बिना, कहकहों की बिसात पर गर्व का झंडा गाड़ने से चूकते नहीं।
कर्नल अजय सिंह की सारी योजना अधूरी रह गई थी। दोस्त, कर्नल नीरव सिंह की शहादत ने, रिटायर्ड जिंदगी को बोझिल बना दिया था। कभी दोनों मित्रों ने तय किया था कि रिटायरमेंट के बाद, लखनऊ के एक ही अपार्टमेंट में घर खरीदेंगे, साथ रहेंगे मगर इस सोच को कारगिल युद्ध ने निगल लिया था।
पार्क के आभासी ठहाकों या अपार्टमेंट की सुबह-शाम की बैठकी में, कर्नल नीरव की शहादत को कर्नल अजय बताने से चूकते न थे और फिर आंखों के आंसुओं से अपनी मूंछों को बचाने में खुद को कमजोर पाते। कर्नल नीरव का बिछड़ना उन्हें ही नहीं, उनकी पत्नी रेणुका को भी तोड़ गया था। अब कानों के पर्दों के पार, ‘भाभी’ शब्द सुनाई नहीं देता था।
कर्नल अजय सिंह जिस साल रिटायर हुए थे, उसी साल बड़ा बेटा, पंकज बॉम्बे आई.आई.टी से बी.टेक. कर अमेरिका चला गया था। उसके सालभर के अंदर, छोटे बेटे, दीपक ने एम.बी.ए. पूरा किया था। आई.आई.एम. लखनऊ के पासआउट की अच्छी मांग थी और देश का हर युवा विदेश जाने की बेचैनी को रोक नहीं पा रहा था।
कर्नल साहब के दोनों बेटों के अमेरिका चले जाने के बाद, 2015 तक घर-परिवार की स्थिति ठीक-ठाक चलती रही। दोनों बेटे हर साल गर्मियों के दिनों में भारत आते रहे। बाद में एक साथ आने का सिलसिला टूट गया। कभी पंकज आते तो कभी दीपक और मां-बाप के साथ दो-तीन हफ्ते का समय बिताकर चले जाते।
बिखरते परिवारों में उम्र का आखिरी सफर वीरानगी और बेर झाड़ियों की चुभन से गुजरता जान पड़ता है। सत्तर के आसपास, रेणुका जी विगत दो साल से बीमार चल रही थीं। दिल के वॉल्व कुछ फैल गए थे। लम्बे समय तक कैंट अस्पताल में इलाज चला। पिछले साल बड़ा बेटा पंकज आया था। दीपक को शायद छुट्टी नहीं मिली थी। पंकज ने मेदांता जैसे महंगे अस्पताल में अपनी मम्मी को दिखाया। ऑपरेशन हुआ। जब बड़ा बेटा जाने को हुआ तो दीपक आ गया। ऑपरेशन के बाद कैंट अस्पताल में नियमित देख-रेख होती रही। रेणुका जी चाहती थीं कि बेटे शादी कर लें। मरने के पहले, बहुओं को अपनी आंखों के सामने देख लें मगर बेटे तैयार न थे। शादी के मसले पर बेटे, कर्नल साहब से कम ही बात करते। बेटों को समझाने का दारोमदार, रेणुका जी पर था। वह अपनी ओर से पूरी कोशिश कर रही थीं। अपने स्वास्थ्य को बेटों के सामने रख, बहुओं को देखने की इच्छा जाहिर करतीं। बार-बार बेटों को समझातीं थीं। ममता का दबाव बढ़ातीं मगर दीपक, यह कह कर निकल लेता कि पहले बड़े भैया की शादी तो कर लीजिए? पंकज कहता, ‘कर लेंगे मम्मी! आप ठीक हो जायेंगी तब करेंगे। अभी नहीं’।
अस्पताल के चक्कर में कर्नल साहब थकने लगे थे। अपार्टमेंट के कई मित्र उनकी खोजखबर लेते रहते। नीरज सक्सेना और रहमत, कर्नल साहब के ज्यादा करीब थे। कई बार रहमत ने खुद और एकाध बार अपने बेटे को भी कैंट अस्पताल भेजा था।
पत्नी की बीमारी, अस्पतालों की भाग-दौड़, थकती उम्र और बेटों की अनुपस्थिति ने विगत दो माह से कर्नल अजय की जिंदगी को उबड़-खाबड़ और चुभनभरी बना दिया था। अपार्टमेंट के शुभचिंतकों, चौकीदारों, बहन-भाई और बेटों ने लगातार कुशल-क्षेम की जानकारी तो ली थी मगर कर्नल साहब, अंदर-अंदर खोखले होते जा रहे थे।
‘अजय! अब आपको और परेशान नहीं करूंगी। बेटों को बुला दीजिए! अंतिम बार देखना चाहती हूं।’ रेणुका जी के ये शब्द, कर्नल साहब को डिगा दिए थे। उन्होंने अपना मुंह फेर लिया था। आंखें डबडबा गईं थीं। आंखों के सामने मित्र नीरव का चित्र उभर आया। वह होता तो आज सहारा होता।
कर्नल साहब की मूंछें बेजान और बिखरी लगने लगीं थीं। घर के कोने-कोने में रखे गए तमाम पुरस्कार चिह्न, मूर्तियां और चित्र, न जाने कब से धूल-धूसरित हो रहे थे। जूते बेतरतीब और बेरंग दिखने लगे थे। रात-दिन मेम साहब की सेवा में लगा राधे, डस्टिंग के लिए समय नहीं निकाल पाता था। हर काम के लिए उसे ही दौड़ना था। कभी-कभी दवा लाने या कैंट अस्पताल दिखाने जाते वक्त कोई पड़ोसी काम आ जाता मगर राधे को खाना बनाने से लेकर, रात-बिरात, दवा लाने, घर गृहस्थी को चलाने के लिए भागना ही पड़ता। वह अपनी औलाद न सही, बुढ़ापे में औलाद से कम नहीं था।
एक बार कर्नल साहब की बहन, रश्मि सिंह आईं थीं देखने, मगर वृद्धावस्था में उनसे कोई विशेष मदद मिल नहीं सकती थी। ‘भैया, बेटों को बुला लीजिए।’ रश्मि ने सलाह दिया, और चली गई थीं।
‘अजय!’ कर्नल साहब के दाएं हाथ पर दबाव बनातीं, कराहने लगीं थीं रेणुका।
‘कुछ नहीं होगा रेणू! मैं हूं न!’ बोलते-बोलते टूटने लगे थे अजय सिंह।
शाम को पहले पंकज का वीडियो कॉल आया। उसके कुछ देर बाद दीपक का। रेणुका जी ने अपने गिरते स्वास्थ्य का हवाला देते हुए बेटों से अनुरोध किया था-‘भेंट करने नहीं आओगे बेटा!….. आ जाओ! एक बार देखना चाहती हूं। …तुम्हारे पापा परेशान हैं।’ मां के मर्माहत शब्द, बारी-बारी से दोनों बेटों तक पहुंच गए थे।
‘जी मम्मी, मैं छुट्टी के लिए अप्लाई कर रहा हूं। आप चिंता न कीजिए। आप को कुछ नहीं होगा।’ पंकज ने कहा था।
‘मम्मी ! आप ऐसा क्यों कह रही हैं? आप ठीक हो जायेंगी। हम जल्द आते हैं आपके पास।’ दीपक ने भी आश्वस्त किया था।
दोनों भाइयों ने छुट्टियों के लिए अपने-अपने सी.ई.ओ. से बात की थी। पंकज को छुट्टी मिली भी मगर केवल पन्द्रह दिन के लिए। वह तुरंत मां-पिता से मिलने, भारत आया। उसने दीपक से कहा था, ‘मेरे लौटने के बाद तुम छुट्टी लेना। बारी-बारी से समय निकालना ठीक होगा।’
‘बेटा! ऐसी हालत में अब तुम लोगों को मां-बाप के पास रहना चाहिए!’ एक दिन अपार्टमेंट के नीरज सक्सेना ने पंकज से कहा था। पंकज के चेहरे पर एक स्लेटी रंग उभरा आया था। हलक से आवाज देर से निकली-‘जी अंकल, हम दोनों मैंनेज कर रहे हैं …..।’
पंकज चला गया था। जाने के पहले वह डॉक्टरों से मिला भी। महानगर की ‘आस्था केयर’ संस्था से बात कर दो नर्सों को, मां की सेवा में लगा दिया था। अपार्टमेंट के कुछ लोगों से ही बात हुई थी।
मोहम्मद रहमत ने कर्नल साहब के अंतरमन के मौन को, पंकज के सामने खोला। उनके एकाकीपन की बेचैनी से अवगत कराते हुए कहा था-‘बेटा! हर इलाज से बेहतर, औलादों का करीब होना होता है। ऐसे समय में तुम दोनों का मां-बाप के साथ होना बहुत जरूरी है मगर नौकरी भी जरूरी है….?’ पंकज ने गरदन हिलाते हुए रहमत को सुना। उनकी बातों का समर्थन किया मगर कुछ बोला नहीं। पंकज जितने दिन रहा, कर्नल साहब ज्यादातर खोए-खोए ही रहे। बात कम हुई। सिर्फ राधे की उपस्थिति, उनके अंदर के दर्द और अकेलेपन को संभालती थी।
छः मास और गुजर गए थे। इसी बीच एक दिन रेणुका जी की हालत बिगड़ गई थी। नर्स ने डॉक्टर के बताए अनुसार दो इंजेक्शन लगाए थे। ड्रिप चढ़ाई थी। दिल की धड़कन, ऑक्सीजन लेवल पर निगाह रखा था, मगर अंत समय कुछ काम न आया। कर्नल साहब और राधे, रातभर सोए नहीं, बैठे रहे। पंकज और दीपक के फोन आते रहे। कर्नल साहब बात करने की मानसिकता में नहीं थे। वे राधे की ओर फोन बढ़ा देते। राधे ने बारी-बारी से दोनों भाइयों को बता दिया था, ‘मेम साहब की हालत ठीक नहीं है। साहब परेशान हैं।’
भोर के समय, जब कर्नल अजय सिंह, पत्नी के दाहिने हाथ को अपने हाथ में लेकर बैठे, सहला रहे थे, मिसेज रेणुका, सदा-सदा के लिए उनसे बिछुड़ गईं थीं।
रेणुका जी के न रहने की खबर, सुबह-सुबह अपार्टमेंट और सामने के उस पार्क के कोने तक पहुंच गई थी, जहां बुजुर्गों के अट्टहासों का छद्म गूंजा करते थे। खबर अमेरिका पहुंची तो बेटों ने उनके पहुंचने के बाद अंतिम संस्कार करने को कहा था। अजय सिंह की बहन, रश्मि दोपहर की फ्लाइट से पहुंच गईं थीं। वह खुद स्वस्थ नहीं थीं मगर इस स्थिति में भाई को अकेले कैसे छोड़ सकती थीं? छोटे भाई, रमन सिंह भी शाम तक आ चुके थे। घर में एक साथ दो करीबियों की उपस्थिति ने कर्नल साहब को संभालने का प्रयास किया था। बहन ने बार-बार आग्रह कर भाई को एक कप चाय पीने को बाध्य किया। कर्नल साहब के जानने वाले, पार्क में टहलने वाले मित्रों और अपार्टमेंट के लोगों का आना-जाना लगा रहा।
बेटों के आने का इंतजार था। अंतिम संस्कार की व्यवस्था के लिए रहमत ने अपने बेटे को लगा दिया था और खुद कर्नल साहब के करीब बैठे थे। अपार्टमेंट के नीरज सक्सेना और सदानंद भार्गव भी लगातार कर्नल साहब के पास बने हुए थे।
शाम को दीपक का इस्तांबुल हवाई अड्डे से फोन आया था। पंकज कब तक पहुंच रहा है, इसकी जानकारी नहीं मिल पाई थी मगर कर्नल साहब, उनकी बहन और छोटे भाई को उम्मीद थी कि सुबह से पहले बेटे पहुंच जाएंगे।
कर्नल साहब, पत्नी की लाश को निहारते, अपनी जिंदगी को, अकेलेपन के रेगिस्तानी कैक्टस से आच्छादित देख, उसके चुभन से कराह रहे थे। राधे उनकी देख-रेख कर रहा था। समय-समय पर पानी और चाय लाकर रख देता था। एक वही तो करीब था, जो रात-बिरात, उनकी सेवा में जुटा रहता।
सुबह होने के पहले दीपक की दस्तक ने कर्नल अजय को संभाला था। वे छोटे बेटे को सीने से लगाये, फफक कर रो पड़े थे।

अपार्टमेंट में खबर फैल गई कि छोटा बेटा पहुंच चुका है। बड़ा आने ही वाला होगा, लोग सोच रहे थे। सभी बैंकुंठ धाम जाने के लिए तैयार होने लगे थे।
रश्मि बुआ ने दीपक से पूछा-‘मुन्ना, पंकज कब तक पहुंच रहा है?’ दीपक कुछ परेशान सा लगा था। उसने बुआ के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। उसके चेहरे के अव्यक्त भाव, बेगाने लगे थे। कर्नल अजय को बांहों का सहारा देते हुए, दीपक उन्हें अंदर के कमरे में ले गया था। कर्नल अजय जाना नहीं चाहते थे। पत्नी की बेजान शरीर से खुद को अलग करना, खुद को बेजान करने जैसा था। वह पत्नी की लाश को निहारते, जिंदगी के लम्बे सफर की यादों के सहारे, खुद को संभाल रहे थे मगर बेटे के इशारे की वजह से वह भारी मन, अंदर चले गए थे।
‘पापा!’ दीपक ने पापा के कंधे को अपनी बांहों का सहारा देते हुए कहना शुरू किया। ‘भैया ने बताया है कि उन्हें छुट्टी नहीं मिल पाई है। कोविड के बाद, उनकी कंपनी बहुत सख्त है। किसी को छुट्टी नही दे रही है। जो छुट्टी मांग रहे हैं, उनकी छंटनी कर दी जा रही है।’
‘तो पंकज नहीं आ रहा है?… मेरा बड़ा बेटा अपनी मां को अंतिम बार देखने नहीं आ रहा है?’ कर्नल साहब के होंठ हिले थे। शब्द बामुश्किल निकल पाए थे। उनके हाथ और पांवों में कंपन हुई थी।
‘रेणु दो दिन से पुकार रही थी-पंकज… दीपक…,’ अजय बड़बड़ाने लगे थे।
‘भैया कुछ महीने पहले आए थे शायद इसलिए कंपनी ने छुट्टी देने से मना कर दिया।’
कर्नल अजय के हाथ ढीले पड़ गए थे। जो आंखें दोनों बेटों के बचपन के मासूम चेहरों को बसाये, चौबीस घंटे से इंतजार कर रही थीं, अब बहने लगीं थीं। अब वे चेहरे कितने शख्त, रूखे और अपरिचित लगने लगे थे। वह अंदर से अनियंत्रित हो, बच्चों की तरह हिचकियां लेने लगे थे।
‘पंकज अपनी मां को कंधा नहीं देगा?’ अजय सिंह बुदबुदा रहे थे। उन्होंने दीपक के हाथों को झटक दिया था और बिस्तर के सिरहाने को पकड़ कर खुद को संभाला था।
‘पापा! मुझे भी बहुत दिक्कत हुई पर भैया ने कहा कि एक को तो जाना ही पड़ेगा…?’ दीपक की आवाज रुक-रुक कर निकल रही थीं।
कर्नल अजय की निगाहें कमरे के अंधकार को चीरने में असफल हो, अस्तित्वहीन लग रही थीं। बचपन में दोनों बेटों की शरारतें, उनके आर्मी कैप को सिर पर लगाकर फोटो खिंचवाने की जिद्द, और रेणु का वह दुलार, एक-एक कर स्मृतियों के स्क्रीन पर सरकने लगी थीं।
‘भैया ने कहा कि तुम हर हाल में मम्मी के संस्कार में चले जाओ, मैं ………….पापा के समय …….।’ दीपक ने बड़ी मुश्किल से अपनी बात पूरी की थी।
‘ओह! वह पापा के समय आयेगा…..?’ कर्नल साहब का मुंह खुला का खुला रह गया था। धड़कनें मंद पड़ गईं थीं। मस्तिष्क शून्य में चक्कर लगाने लगा था। उन्होंने दाएं हाथ के इशारे से दीपक कोे बाहर जाने को कहा। दीपक थोड़ी देर तक ठिठका खड़ा रहा मगर अजय सिंह के कठोर चेहरे, भींचे हुए होंठ की पपड़ी के कंपन को देख, सहम गया था और शीघ्र कमरे से बाहर चला गया था।
‘तुम मां के समय आ गए? ….बड़ी कृपा की बेटा! …तुम नहीं आते तो लोग क्या कहते? यही न, कि जिस मां ने रात-दिन बेटों को याद कर लम्बी बीमारी का दर्द सहा, उसके बेटे अंतिम समय में नहीं आए? … बहुत कृपा की बेटा! ..कोई बात नहीं, ……पंकज, पापा की मौत पर आयेगा? उसे फिर छुट्टी के लिए परेशान होना पड़ेगा? नहीं… नहीं…. , उसे मैं परेशान नहीं करूंगा। ..बेटे को परेशान नहीं करूंगा,’ एक कृत्रिम मुस्कुराहट के साथ, कर्नल का गला घरघराने लगा था। शरीर कांप रहा था। वह दीवारों को लगातार घूर रहे थे। जैसे उनकी चेतना लकवाग्रस्त हो चुकी हो। आंखों के सामने एक तूफान का बवंडर चक्कर काट रहा था, जो उनकी दुनिया को उजाड़ता, उनके अतीत और वर्तमान को उखाड़ता, वियोग के रेगिस्तान में पटक रहा था।
वह बड़बड़ाए जा रहे थे। आलमारी के दराजों को हड़बड़ा कर खोल रहे थे। कुछ खोज की चेष्टा में, कपड़ों को इधर-उधर फेंक रहे थे। उनकी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा था। वह चेतन-अचेतन की संधि पर खड़े, पत्थर बनते जा रहे थे।
दीपक बाहर चला गया था और पापा को संभालने के लिए अपनी बुआ को अंदर भेजने ही वाला था कि तभी कमरे के अंदर से ‘ठांय.. ठांय…’ गोली चलने की दो आवाजें सुनाई दी थीं। ड्राइंगरूम में बैठे लोग हड़बड़ा कर खड़े हो गए थे। राधे, सहम कर किचन में बैठ गया था।
आशंकित दीपक ने झटके से दरवाजा खोला था। कर्नल अजय सिंह का शरीर खून से लथपथ, बिस्तर के बगल में, जमीन पर फैला हुआ था और उनका लाइसेंसी रिवाल्वर दाएं हाथ की अंगुलियों के बीच फंसा, रिश्तों की रिक्तता पर तना हुआ था।

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सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140, विशाल खण्ड
गोमतीनगर, लखनऊ 226010


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