राख में दबी चिंगारी
-अरविंद कुमार सिंह

विनय की मौत से मुझे गहरा सदमा लगा।
उसकी जेब से मिले कागज़ के एक पुर्जे पर एक टिप्पणी है, जैसे छुप-छुपाकर जल्दबाजीमें लिखी गई हो, ‘ समय बहुत खराब है। आंखें बंद रखो। दिल को पत्थर बना लो या कीड़े-मकोड़ों की तरह जिंदा रहो। मुझसे नहीं होगा यह सब। वे लोग मेरी मेहनत की कमाई को खा जाना चाहते हैं। सत्ता, पुलिस, कोर्ट और कानून उन्हीं की हिफाजत के लिए हैं। वे मौत के सौदागर हैं- हमें मार सकते हैं या मरने को मजबूर कर सकते हैं, इसलिए जीवन के लिए लड़ते हुए मृत्यु को अपनाना होगा। (26 जनवरी, सुबह 10 बजे)
विनय के इस आख़िरी मजमून को पुलिस ने स्युइसाइड नोट कहा है। केसफाइल में आत्महत्या का कारण उसका सिरफिरापन लिख कर पल्ला झाड़ लिया है। हालांकि, स्युइसाइड नोटनुमा काग़ज़ के उस टुकड़े पर जिसे पुलिस ने अपने कुछ पेशेवर गवाहों की मौजूदगी में सील कर दिया था, विनय का कहीं नाम नहीं है, सिर्फ समय और तारीख़ है।
यह महज संयोग ही था कि गणतंत्र दिवस की जिस सुनहरी सुबह राष्ट्रपति इंडिया गेट के राजपथ पर शांति, समृद्धि और विकास को प्रदर्शित करनेवाली विभिन्न झांकियों का अभिनंदन ले रहे थे, ठीक उसी समय दिल्ली से बस चंद किलोमीटर दूर फरीदाबाद के एक थाने में पुलिस की बर्बरता से बेआवाज़ मर जाने को विवश हुआ विनय यह मजमून लिख रहा था और अगली सुबह हवालात में ही वह मृत पाया गया था।
पिछली गर्मियों में विनय से मेरी आखिरी मुलाकात हुई थी। कभी उसके साथ मेरी गहरी छनती थी। हमारी दोस्ती को तब जल और मछली की तरह देखा जाता था। एक बार मेरे और उसके घर के बीच किसी छोटी-सी बात पर तकरार हो गई और दोनों परिवारों का एक-दूसरे के यहां आना-जाना बंद हो गया, हम तब भी मिलने से बाज नहीं आते थे। स्कूल, खेल का मैदान, हाट-मेला, नदी और जंगल-हम हर जगह साथ होते। हमारा लिखना-पढ़ना, हँसना-बोलना और खेल-कूद साथ चलते।
कच्ची उम्र के किन्हीं भावुक क्षणों में हम दोनों ने कसमें खाई थीं कि हम एक-दूसरे से अलग नहीं होंगे। एक ही शहर में नौकरी करेंगे। हमारा घर साथ-साथ होगा। इतवार को जी भर कर साइकिल चलाएंगे। रात में पिक्चर देखेंगे…वह हमारी दोस्ती ही थी जो हममें मस्ती ला देती। उन दिनों समय हमारी मुट्ठी में होता। हम बांहें फैलाये गलियों में दौड़ लगाते, बाग में टिकोरे तोड़ते और नमक लगाकर खाते। नदी में नहाते । गर्मी की छुट्टियाँ कब बीत जार्ती पता ही नहीं चलता।
बचपन का वह स्वप्निल संकल्प जिसे एक दिन टूटना ही था, टूट गया। रोजी-रोटी की जरूरत ने हमें अलग ही नहीं किया, बल्कि जीवन की भागदौड़ और घर-गृहस्थी के झंझटों ने हमें धीरे-धीरे एक-दूसरे के बिना रह पाने को विवश भी कर दिया।
पिछली गर्मियों में वह लंबे अंतराल के बाद मिला था। वह अपनी मां के क्रिया-कर्म में शरीक होने गांव आया था। वापसी के पहले उसे पता चला कि दो दिन बाद मैं भी गांव आ रहा हूं तो उसने अपनी छुट्टी एक हफ्ते के लिए और बढ़ा ली। वे सात दिन उस दोस्ती के लिए थे जिसे वह आज तक न भूल पाया था।
दोपहर को मैं घर पहुंचा। पिताजी ने बताया कि विनय सुबह से तीन बार आकर पूछ चुका है। दिन ढलने तक मैंने उसकी प्रतीक्षा की। शाम को मैं खुद ही उसके घर चला गया। वह घर में ही था लेकिन एक बच्चे से कहलवा भेजा कि कल मिलेंगे। मुझे हैरानी हुई। वापस चला आया। मुझे दुःखी और परेशान होते देख पिताजी ने कहा, ‘वह आजकल बहुत पीने लगा है। पी लेने के बाद अपने को कमरे में बंद कर लेता है। बुलाने पर बेवजह गाली देगा ओर रोने लगेगा।’ मां मुझे पहले ही बता चुकी थी कि पीने की लत उसके परिवार को बरबाद किए दे रही है।
घरेलू कामों से मुझे दो दिन घर से बाहर रहना पड़ा। विनय से मुलाकात होती कैसे। फिर तीसरे दिन बाज़ार में चाय की एक दुकान पर वह दिख गया। किनारे की एक बेंच पर बैठा हुआ वह चाय पी रहा था। मेरे दिल में एक हुलस-सी उठी कि उसे बांहों में भर लूं। लेकिन उसमें न कोई गर्मजाशी, न उछाल। एक ठंडापन ही था। मेरे बढ़े हाथ ढीले पड़ गए। उसने बगल में मेरे लिए थोड़ी-सी जगह बना दी और बैठ जाने को कहा।
‘चाय’ मेरी तरफ इशारा करते हुए वह चायवाले से बोला।
‘मैं बाहर चला गया था।’ अभी तक न मिल पाने के लिए मैंने बिन मांगे ही सफाई दी।
‘कोई बात नहीं |’ उसने आंखें बंद कर ली। मैंने उसे भरपूर नज़र से देखा। कपड़े
उसके पुराने थे। जूते फटे हुए। कहीं से भी वह परदेशी नहीं लग रहा था। थकान, लापरवाही और विपन्नता उस पर पूरी तरह हावी थे।
‘मुझे याद नहीं पिछली बार हम कब मिले थे। मेरी आंखों के सामने आज भी तुम्हारा मजबूत शरीर, गोरा चेहरा और काले धुंघराले बालों वाली शक्ल है। उन दिनों सभी लोग तुम्हें हीरो कहते थे।’ मैंने कहा।
उसने कोई जवाब नहीं दिया। अब वह दूसरी शक्ल में था। सिर के उड़ चुके बाल। खिचड़ी दाढ़ी। आंखों पर बड़े फ्रेम का चश्मा। चेहरे पर असमय उतर आई झुर्रियां !
‘यह क्या हुलिया बना डाला है तुमने ?’ उसे चुप देख मैंने आत्मीयतापूर्ण झिड़की दी।
मेरे प्रश्न से वह असहज हो उठा।
उसकी निगाहें नीचे झुकी थीं। वहीं दुःख, करुणा और पराजय के सिवा और कुछ न था। मेरी झिड़की बरसों से कटे संबंधों में सकुचाहट भर देगी मुझे तनिक भी उम्मीद नहीं थी। लेकिन तभी उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कराहट उभरी, ‘जैसा जीवन वैसा हुलिया।’ उसने मेरी आंखों में झांकते हुए कहा।
‘तुम्हारी तबीयत ठीक तो है ?’ मैंने चिंता प्रकट की।
‘मेरी तबीयत को क्या होना है। जी तो रहा हूं।’ उसके होंठ खुले। हँसी फिर कहीं खो गई। बीड़ी की तलब के साथ ही हमारी आत्मीयता के दरवाजे भी खुलते गए। एक-दूसरे का हालचाल भी जाना। बाल-बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछा। फिर हम चायवाले की दुकान पर उपस्थित लोगों की बातों में शामिल हो गए। ये सब रात-दिन साथ उठने-बैठनेवाले हमारे ही गांव के लोग थे।
एक के बाद एक दिलचस्प चर्चा चल रही थी। ऐसी-ऐसी गप्पें कि बस हँसते जाओ और महफिल के मजे लो । ऐसे सच कि जिन्हें कम लोग ही बोलने की हिम्मत जुटा पाएं। चाय का यह ढाबा एक तिराहे पर है। गांव के चौपाल और खलिहान अब उजड़ चुके थे। ये ढाबे ही गांव की चौपाल भी थे। हर नई खबर अब ऐसी ही दुकानों पर मिलती थी। घर आनेवाले परदेशी भी शहर के किस्से यहीं सुनाते। कामकाजी लोगों के आने का एक तय समय होता। लेकिन निठल्ले मर्जी के मालिक थे। लोग यहां आकर अख़बार पढ़ते, चाय पीते और गप्पों में शामिल होते। शराबी लोग लड़खड़ाकर अक्सर यहीं गिरे मिलते थे। फिर उन्हें घर तक छोड़ने की जुगत लगाई जाती थी।
विनय लोगों को बड़े ध्यान से सुन रहा था। बीच-बीच में उसके चेहरे पर गहरी लकीरें उभर आतीं। उसका संकोची स्वभाव और लोगों से घुला-मिला न होना हर बार आड़े आ जाता। ऐसे भी क्षण आते जब उसके होंठ हिल रहे होते-उंगलियां कांप रही होतीं। लगता, वह कुछ कहना चाहता है- तब भी वह खुद को रोके रहता। वह जानबूझ कर वहां की गप्पों में शामिल नहीं होना चाह रहा था। मैं गौर से उसे देख रहा था -अपना गांव देश जानने की कैसी भूख है इसमें।
उसी समय एक नई सूचना ने वहां के वार्तालाप में कुछ और मसाला डाल दिया, लेकिन विनय का मन नहीं लगा और वह उठ गया, ‘आओ चलें।’
रास्ते में विनय ने मुझसे कहा, ‘सच मानो तो हम सभी अपने में सिमटे हुए, डरे-थके, निराश और कमजोर लोग हैं। भांग जब पूरे कुएं में पड़ी है तो फिर मजे ही लो ज्यादा सोचने की क्या जरूरत।’
बात मेरी समझ में नहीं आई , इसलिए मैंने कोई जवाब भी नहीं दिया।
हम स्कूल की तरफ बढ़े जा रहे थे। बातचीत में एक-एक करके अतीत के पन्ने खुलते गए। दोस्ती पर जमी उदासीनता पिघलने लगी और हम एक-दूसरे के लिए आत्मीयता से भर उठे।
मां की मृत्यु के बाद वह गांव आया था। मृत्यु-भय और मां के खालीपन से वह अब भी घिरा था। रास्ते भर वह उनकी बातें करता रहा जिनकी बीते सालों में मौत हो चुकी थी। बूढ़े और बीमारों को लेकर भी वह चिंतित था।
हम गांव के बीच में थे। जातियों के नाम से बसे कई टोले। जानी-पहचानी गलियां। सुपरिचित मकान। फिर भी बहुत कुछ बदला-बदला। लगातार बदलता हुआ। समय भाग रहा था और लोगों की व्यस्तताएं बढ़ गई थीं। हमें अपनों में ही गुम हो जाने का डर भी था। विनय कह रहा था कि परदेश गया आदमी कभी गांव को नहीं भूलता। अपने खालीपन में वह गांव को जीता है। लेकिन गांव बहुत जल्दी उसे भुला देता है। नई पीढ़ी हमें आज कहां पहचान पाती है।
स्कूल के साथ एक मैदान था। पेड़ों और हरी घास से घिरा हुआ नहीं, बल्कि सूखा और बंजर-सा। असमतल और धूल से भरा। खेल के लिए वही एकमात्र ग्राउंड था। धूप हल्की हो चली थी। फिर भी उमस कम नहीं हुई थी। गर्मी और उमस से बेखबर कुछ लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। धूप और पसीने की परवाह उन्हें न थी। क्रिकेट देखने की इच्छा से एक बार मैंने रुकना चाहा, लेकिन विनय की अनिच्छा पर मुझे मन मारना पड़ा। अब हम स्कूल के गेट पर थे।
स्कूल में आने-जाने को दो गेट थे। लोहे का एक बड़ा फाटक और उसी से सटा हुआ एक छोटा गेट। बड़े गेट का दरवाज़ा अक्सर अंदर से लॉक्ड होता। वह गाड़ियों के आने-जाने पर ही खुलता। छोटे गेट में भीतर से कुंडी लगी थी। आवाज़ देने पर भी जब कोई नहीं आया तो मैंने हाथ डालकर कुंडी खोल दी। गर्मी की छुट्टियों में क्लासें खाली पड़ी थीं। वीरान-सा सन्नाटा ! ऐसे में रोमांच और भय से मैं अक्सर सिहर जाता हूं। उस क्षण अतीत की आहटें मुझे साफ़ सुनाई देने लगीं।
यह हमारे गांव का पुराना और एकमात्र स्कूल था। कभी हमने भी यहीं पढ़ाई की थी। लेकिन इसे हम जैसे युगों बाद देख रहे थे। स्मृतियों में बसा स्कूल अब वह नहीं रह गया था। गेट पर लगे बारह बाई चार फुट के साइन बोर्ड पर बड़े अक्षरों में उसके इंटर कॉलेज होने की सूचना थी। हमारे समय में वह हाई स्कूल तक ही था। छप्परों वाली क्लासें अब नहीं रहीं। जो उन दिनों एक कतार में हुआ करती थीं। उनकी जगह अब लिंटर वाले कमरे थे। कमरों के आगे बरामदा। बीच की खाली जगह में छोटी-छोटी क्यारियां थीं, देशी फूलों गेंदे, गुड़हल, चमेली और वैजयंती से लदी-फदी और तिरछे खड़ी की गई ईंटों से घिरी हुईं। इस हरियाली के पीछे छात्रों की मेहनत साफ़ दिखाई दे रही थी। पढ़ाई के दिनों में कृषि विज्ञान में अच्छे नंबर पाने के लिए हम भी खूब श्रमदान किया करते थे। ऊंची चारदीवारी से घिरा स्कूल अब काफ़ी अच्छा लग रहा था।
विनय खुश था। हमारी आखिरी क्लास का कमरा उसे आज भी याद था, हालांकि उसके दोनों तरफ एक कतार में अब कई कमरे बन चुके थे। दीवारों पर पलस्तर के बाद की सफेदी। पुराने दिनों में सिवाय प्रिंसिपल ऑफिस के स्कूल के सभी फर्श कच्चे थे। क्लास की लड़कियां अपने कमरों की लिपाई गोबर से करतीं। लड़के पानी देने के साथ उनसे चुहल करने से न चूकते। सभी कमरों और बरामदों का फर्श अब पक्का बन चुका था। कमरों में पंखे लगे थे। विनय उस कमरे में जा घुसा जो एक पुराने नीम के पेड़ के सामने था। हमारी यादों का आखिरी कमरा । हमने खुद को अतीत में धकेलकर कमरे में बैठे हुए महसूस किया। उन्हीं कुर्सियों पर उन दोस्तों के साथ जिन्हें एक दिन छोड़कर हम एक-दूसरे से जुदा हो गए थे। हममें से बहुतों के लिए अलग होने की वह पहली घटना थी। लेकिन हमारे विछोह में एक खुशी भी छिपी थी- इस गांव से दूर कस्बे के नए स्कूल में दाखिला लेने जा रहे थे हम।
विनय ने उस जगह को देखा जहां कभी वह बैठता था। वहां कुर्सी डेस्क के नीचे उल्टी पड़ी थी। सभी कुर्सियों के रंग-रोगन और आकार-प्रकार बरसों बाद भी नहीं बदले थे जबकि हमारे शरीर पर एक दूसरे ही शरीर का लेबल लग चुका था।
‘यहां कोई शैतान लड़का बैठता है, तुम्हारी जगह-तुम्हारी कुर्सी पर… ।’ मैंने चुटकी ली।
‘शैतान उसका दोस्त है।’ विनय बगल की कुर्सी की तरफ देखकर मुस्कराया।
पूरब के कोने की तरफ से वही खिलखिलाने की आवाजें आईं , संगीत की लय में घुली हुई। जैसी कि उन दिनों एक साथ उठा करती थीं। यह बरसों पुरानी चहक और हंसी एकदम ताज़ा लग रही थी। वे लड़कियां जो छात्रों की कल्पना के घोड़ों पर होती, उन्हें सपनों में खींच ले जातीं या अकेला छोड़ देतीं- आज फिर आंखों के सामने साकार हो उठी थीं। हमने एक बार फिर उनके गालों को गुलाबी होते देखा। ब्लैकबोर्ड, टीचर, छात्र और शोर एक क्षण के लिए सबकुछ आंखों के सामने खिंचता चला आया।
हम अतीत में लगभग पच्चीस-तीस साल पीछे जा चुके थे। उन दिनों हम मेहनती और होनहार छात्र माने जाते। सपनों में आकाश छू लेने का संकल्प होता। घर की तंगहाली से किताब-कॉपी की मजबूरी, वक्त से फीस न दे पाने की बेबसी, फटे-पुराने कपड़े-फिर भी हमें कोई रंज नहीं। विनय हमारी क्लास के जहीन और अव्वल छात्रों में शुमार होता। हाई स्कूल पास होने पर अखबारों में उसकी फोटो छपी थी। टॉपरों की मेरिट लिस्ट में उसका नाम था। घर-गांव-स्कूल में सभी को विश्वास था कि वह आगे चलकर काफी तरक्की करेगा।
विनय के साथ ऐसा नहीं हुआ-खेतिहर पिता की मौत लंबी और असाध्य बीमारी के कारण हुई। कच्ची उम्र में ही उसे घर का भार संभालना पड़ गया। मां थी, लेकिन उसने घूंघट उठाकर दुआर भी न देखा था। छोटे भाई में बचपना था। वह नासमझ था। घर-गृहस्थी की छोटी-छोटी जरूरतों ने भी एक दिन मां को लाचार बना दिया। वह सिर पकड़कर बैठ गई। घर बेहद तंगी के आलम में था। कभी रोटी के लाले भी पड़ जाते। आंखों के आगे अंधेरा ही अंधेरा था और कुछ भी सूझ नहीं रहा था। फीस के बिना विनय बी.ए. की परीक्षा नहीं दे पाता। घर में पैसे नहीं थे। पैसे के लिए कमाने वाले हाथ होने चाहिए थे। मां के गहने और खेत का एक हिस्सा पिता की बीमारी में पहले ही बिक चुके थे। विनय की पढ़ाई छूट गई। मां ने भारी मन से उसे उसके मामा के साथ फरीदाबाद भेज दिया। मामा वहां किसी फैक्ट्री में वेल्डिंग ऑपरेटर थे। वह भी उनके साथ मजदूरी करने लगा।
मैं पढ़ाई में विनय जैसा तो नहीं था, लेकिन सपने मेरे भी कम नहीं थे। एल.एल.बी. करने के बाद मैंने प्रैक्टिस शुरू कर दी जो चली नहीं। कोर्ट-कचहरी में अब दिमाग नहीं, हथकंडे ही हुनर बन चुके थे। जो जज को साध लेता वह सफल वकील। साधने की होशियारी मुझमें कभी नहीं रही | पेशे से अरुचि होने लगी। मैंने नौकरी की तलाश शुरू कर दी। एक रिश्तेदार की मदद से सूरत की मिल में नौकरी मिली। हालांकि मेरी पढ़ाई से नौकरी का कोई तालमेल न था | कहां वकालत की डिग्री और अब कपड़ा रंगने वाली फैक्ट्री में सुपरवाइजरी। कई दिनों तक कोफ्त खाने वाली दशा रही। लेकिन दाल-रोटी की जरूरत क्या नहीं करा देती…और अब तो एक लंबा वक्त गुजर चुका है।
स्कूल के कमरों की उमस से हमें बेचैनी होने लगी। खिड़कियां बंद होने से हवा थी नहीं | रोशनदान की जाली से हल्की रोशनी आ रही थी। विनय ने चश्मा उतारा। रुमाल से चेहरा पोंछा, फिर आंखें। कुछ क्षण के लिए वह कहीं खोया रहा। कोई चीज़ उसे गहरे रूप से मथ रही थी। बाहर निकलते समय वह निराश स्वर में बोला, ‘जीवन में हम कुछ भी न कर सके- कुछ कर पाने की हमारी उम्र निकल गई।’
विनय अपनी असफलता पर दुःखी था जबकि मेरा मानना था कि भाग्य में जितना लिखा है, वह हासिल होगा। लेकिन विनय के साथ से आज यह भ्रम भी टूट गया। जीवन की डोर भाग्य और भगवान से नहीं, बल्कि वक्त और हालात से बंधी होती है। अपनी असफलता के अवसाद से अब मैं भी उदास था।
हम स्कूल के बाहर निकले तो खुली हवा ने उमस और गर्मी से राहत दी। दिन ढलने में देरी थी। विनय ने कहा, ‘अभी घर चलकर क्या करेंगे, क्यों नहीं नदी की ओर चलें। गर्मी की शामें और नदी का किनारा- अच्छा लगेगा।
गांव में आज उसकी आखिरी शाम थी । कल इस समय वह ट्रेन में होगा। शायद इसीलिए गांव का हर कोना वह आज आंखों से पी लेना चाहता है। मुझे उसके पीने की लत का भी ख़याल आया। गांव के कुछ मल्लाह नदी के किनारे चोरी-छिपे कच्ची शराब बनाते और बेचते हैं। पुलिस के साथ उनका महीना बंधा है। विनय की दुबारा जिद पर मुझे कुछ शंका हुई।
‘लेकिन मैं तो पीता नहीं, इसलिए…।’ मैंने मना कर दिया।
‘नदी के किनारे लोग बस शराब पीने के लिए ही जाते हैं ?’ विनय को मेरा इनकार बुरा लगा। नसीहत देते हुए बोला, ‘ वहां हमारा-तुम्हारा बचपन गुज़रा है, कितने सालों हम लोगों ने वहां गाय-भैंसे चराई हैं।’
उसका कहना सच था। मैंने हंसते हुए माफी मांग ली। थोड़ी देर में हम नदी के पास थे।
बचपन की यादों और आज के बीच यदि कुछ नहीं बदला था तो वह नदी ही थी। वही ऊबड़-खाबड़ रास्ते। सरपत, झाड़-झंखाड़, जंगल और रेत के मैदान से घिरी नदी। ऊंचे टीले और भीट। पुराना घाट । इस घाट ने हमारी यादों को एक बार फिर ताज़ा कर दिया। बचपन में हम यहां भैंसें लेकर आते थे। भैंसें चर
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रही होतीं और हम खेलने में मस्त। विनय खेलने से अक्सर बचता। वह घर से लाई गई किताब के साथ किसी पेड़ के नीचे जा बैठता। साथी ज्यादा उकसाते तो जल की सतह पर पत्थरबाजी कर लेता। यह उसका प्रिय शगल था। इसमें वह हम सभी को हरा देता था। उसके हाथों की लोच और ताकत पत्थर के टुकड़े को पानी की सतह पर उछालते हुए दूर तक ले जाती।
धीरे-धीरे नदी हमारे जीवन से एकाकार होती गई थी। हम रूठकर घर से भागते तो नदी के किनारे हमारी खोज होती। लड़ाई-झगड़ों में नदी हमें छिपा लेती। नदी ने हमारा रोना-गाना, हँसना-खेलना सब देखा था। बरसों बाद उसी नदी को आज हम फिर देख रहे थे।
‘लंबे अंतराल के बाद जब हम नदी के किनारे आते हैं तो जैसे अतीत, वर्तमान और भविष्य एकसाथ जी रहे होते हैं। पता नहीं तुम आते हो कि नहीं लेकिन मैं जब भी गांव आता हूं-यहां जरूर आता हूं। मुझे बड़ा सुख और सुकून मिलता है यहां। लेकिन एक सवाल भी मेरे मन में अक्सर उठता है कि मैंने जिंदगी में क्या किया ? क्या मेरे कोई सपने नहीं रहे ? क्या मेरे सपने एक दिन इसी नदी के किनारे चिता के साथ जला दिए जाएंगे ?’ विनय जवाब की उम्मीद से मेरी ओर देखने लगा।
मैंने कहा, ‘ आओ नीचे की तरफ चलें।’ नदी की ठंडी हवा हमें तरो-ताजा कर रही थी।
उसकी अनिच्छा के बावजूद, मैं अकेले ही नदी की ढलान पर उतरा। फेंफड़ों में सांस खींचकर कुछ दूर रेत पर दौड़ा। घुटनों तक पानी में चला। मुझमें जैसे मेरा बचपन लौट आया था। वापस लौटा तो विनय की एकाग्रता टूटी, वह अकबका कर मेरी तरफ़ देखने लगा। शायद कुछ छिपाने की कोशिश कर रहा था, हालांकि उसे मैंने आंसू पोंछते हुए देख लिया था।
मैं उसके सामने बैठ गया। ख़ामोश। हवा को सांसों में खींचता हुआ जबकि मन में सवाल उठ रहा था कि आखिर विनय को परेशानी क्या है ? मेरी चुप्पी से उसे संदेह हुआ। झेंप मिटाने के लिए वह नीचे झुका। पत्थर का एक चिपटा सा टुकड़ा उठाकर नदी की तरफ उछाल दिया, ‘तुम भी ट्राई करो।’ उसका गमगीन चेहरा अब मुझे अखरने लगा।
‘आओ, घर चलें।’ मैंने उठते हुए कहा।
वह भी उठा। लेकिन घर चलने के बजाए एक ऊंचे टीले की तरफ़ उसके कदम बढ़े।
‘नदी देखनी है तो यहां से देखो।’ उसने मुझे करीब बुलाया।
वहां पहुंचकर हमने एक बार फिर दूर दिशाओं में देखा। टीलों पर सरपत के झुरमुट। जंगली पेड़-पौधे। नीचे रेत के मैदान पर लेटी नदी। ऊपर स्वच्छ-निर्मल आकाश। शाम तेजी से ढल रही थी। नदी निर्जन होती जा रही थी। बीच-बीच में जल से छप-छप की आवाज़ आ जाती। दूर घाट पर नाविक की छाया दिखाई दे रही थी।
‘वह जगह देख रहे हो।’ विनय ने इशारा किया।
मेरी निगाह पूरब की ओर गई।
‘वहां मुर्दे जलते हैं। बीस दिन पहले वहां मां को जलाया गया था। मैं उसका मुंह भी न देख सका था।’
विनय ने कहा, ‘बीमार मां मेरे आने का इंतजार करती थी। और मैं उसके मरने का। न मां मर रही थी, न मैं घर आ पा रहा था। लेकिन मां कठोर निकली, मेरे पहुंचने तक इंतजार न कर सकी और हमें छोड़कर चली गई। मुझे मां पर बहुत गुस्सा आया।’
मैंने विस्मय से देखा। उसकी बातें मुझे बहकी-बहकी और बेमतलब लगीं । फिर घर में पिताजी उसकी लापरवाही और ‘कठकलेजी’ होने की शिकायत कई बार कर चुके थे। उन्हीं की बातें मैंने भी दुहरा दीं , ‘तुम्हें मां की बीमारी के बारे में पता था। तुम्हारे भाई ने दो बार तुम्हें फोन किया। तुमसे बात भी हुई। तुम फिर भी नहीं आए।’
मेरे उलाहने के बाद भी वह ठंडा और खामोश बना रहा। सब तरफ से लापरवाह एक थके-हारे, समय से बहुत पीछे छूट चुके आदमी की पीड़ा उसके चेहरे पर गहराती गई।
कुहासा कुछ देर बाद हटा। उसकी जिंदगी की तस्वीर के हर हिस्से में आंसू थे। आंसुओं के पीछे दुःख-भरी कोई कहानी। यह कहानी आज उसकी थी, कल किसी और की होगी। सचमुच, हम आसपास की घटनाओं से कितना अनजान रहते हैं। यह उसका बचपना था जो लगभग बयालिस साल की उम्र में एक बार फिर उसकी आंखों के सामने था। विनय बहुत धीरे-धीरे बोल रहा था, ‘ रात में पढ़ने के बाद मैं मां की गोदी में जा छिपता। मां जागती हुई जैसे मेरे ही इंतजार में होती। मैं मां से कहता- किस्से सुना। मां हर किस्सा गाकर सुनाती। गाते-गाते रोने लगती। मां की जिंदगी का अंत भी एक दिन रोते-रोते हुआ।
विनय की आंखें भर आईं। गहरी होती शाम में उसका ध्यान अब भी चिता वाली जगह की ओर था। मां से सुने किस्से, उसकी लोरी और आंचल उसे माँ के करीब खींच ले गए थे।
ऐसे में सांत्वना के दो शब्द कहना जरूरी हो जाता है। पर मैं चुपचाप उसे देखता रहा। वह धीरे-धीरे खुल रहा था।
पीछे की झाड़ियों से अचानक कोई जानवर भागा। सरपतों के बीच ‘सरसराहट’ की आवाज छूटती चली गई, फिर शांत और स्थिर होती गई। विनय का ध्यान नहीं बंटा। वह अतीत की स्मृतियों में बहता रहा, ‘मां के बारे में कितना बताऊं। कभी कहती, एक दिन तू बड़ा आदमी बनेगा और मुझे भूल जाएगा। मैं रूठ जाता तो मां मुझे सीने से चिपका लेती। कभी-कभी मां अपने सपने का खुलासा करती, तू एक दिन अफसर बनेगा। शहर में रहेगा। तेरे घर के एक कोने में मैं भी पड़ी रहूंगी। तुझे गाड़ी से आते-जाते देखूंगी। तेरे बच्चे पालूंगी। तेरी बीवी मना करेगी तो भी मैं तेरा साथ छोड़ने वाली नहीं।’
‘मेरे तुनक जाने पर मां हँस पड़ती। मेरे गालों को चिकोट लेती। मां यह सब तब कहा करती थी जब पिता जिंदा थे। पता नहीं मां को कैसे पता था कि एक दिन वह मुझ पर आश्रित होगी। पिता मेरी गृहस्थी में नहीं होंगे।’
मेरे सामने वह दृश्य उभरा जो आज बरसों बाद भी धुंधला नहीं हुआ था- विनय के पिता को खाट से उठाकर ज़मीन पर लिटा दिया गया था। पांव की तरफ आग सुलगा दी गई थी। अर्थी बन चुकी थी। लकड़ियां काटी जा रही थीं | लाश के सिराहने औरतों से घिरी रोती-पीटती एक कमजोर-सी औरत। उससे सटे बैठे दो बच्चे। बेहाल और बेसुध-सी होती उस औरत को संभालती और दिलासा देती हुई कुछ बुजुर्ग महिलाएं, ‘ इन बच्चों का मुंह देखो। अब इन्हें तुम्हें ही संभालने हैं। इनके सहारे… । अब ये ही तुम्हें छांव देंगे।’
‘मां मेरे अफसर बनने का सपना देखती रही और मुझे मजदूर की स्थाई नौकरी भी न मिल सकी।’ विनय खुद पर हँसा।
‘मां डरती थी कि मैं पत्नी और बच्चों के साथ एक दिन हमेशा के लिए शहर का हो जाऊंगा। पर पत्नी तो मां के दुःख के साथ घिसटती रही। बाद में मां गुस्सा करने लगी थी। कहती, अपनी बीवी को साथ ले जा, मैं जैसे-तैसे काट लूंगी। मैं जानता था, मां अपने सपने को जीना चाहती है। मेरी तंगी और मजबूरी को वह नहीं जानती।’ विनय का गला रुंध गया।
‘देखो, मौत तो एक दिन सबकी होनी है। फिर तुम इतना भावुक और कमजोर क्यों होते हो ?’ मैंने कहा।
‘मैं मौत को लेकर नहीं, मां की घुट-घुटकर काटी गई जिंदगी के बारे में सोचता रहता हूं। वह लौटकर तो अब आनेवाली है नहीं…।’ विनय ने ऊँचे स्वर में कहा, फिर एकदम चुप हो गया | उसकी उदास आँखें एक बार फिर नदी की तरफ ठहर गईं |
‘तुम्हारी मां थी भी बहुत अच्छी… |’ मैंने यह औपचारिकता में नहीं कहा, बल्कि उसकी मां के स्वभाव और संघर्ष की प्रशंसा पूरा गांव करता था।
‘मां तो सबकी अच्छी होती है। तुम्हारी भी तो…|’ विनय ने मुझे स्नेहिल दृष्टि से देखा।
‘मां की आंतें बेकार हो गई हों, पत्नी को टी.बी., बड़ी बेटी हाईस्कूल में पढ़ रही हो, छोटा भाई बेरोजगार, फैक्ट्री में छंटनी के बाद मेरी तीन हजार रुपल्ली की नई नौकरी- इसके बाद क्या हमारे घर में कोई खुशी बची रह सकती थी ? मां के इलाज के लिए पैसा चाहिए था। घर खर्च देने के बाद, सर्दी-जुकाम की दवा के लिए भी पैसे मेरे पास नहीं बच पाते। कई बार सोचा क्या करूं-चोरी, डकैती ! पर मां तो चीटियों को आटा खिलाया करती थी। भिखारी को भीख दिए बगैर जाने नहीं देती थी, वही दिल बेटे को भी दे गई है। भाई ने फोन पर बताया था कि मां खाना-पीना छोड़ चुकी है। रात-रात भर दर्द से कराहती और चिल्लाती रहती है। डाक्टर जवाब दे चुके हैं। किसी बड़े अस्पताल में दिखाने को कह रहे हैं… तुम जानना चाहते हो… यहां मां रोती थी, वहां मैं।’
विनय अपने को रोक नहीं सका। वह फफक-फफक कर रोने लगा। वह बार-बार खुद को ही हतभागा और कुसूरवार मान रहा था।
हम नदी के किनारे बैठे थे लेकिन नदी हमसे दूर हो गई थी। धीरे-धीरे फैल रही उजली रात, नम हवा, स्वच्छ निर्मल आकाश और नदी का शांत सूनापन भी हमें उत्साहित और रोमांचित नहीं कर पा रहा था। अब हमारे साथ था हमारा दुःख। यह दुःख हमें जन्म से ही मिला था जिसे हम अपनी संतानों के लिए छोड़ जाने को अभिशप्त थे | समय का यह ऐसा दौर था कि हमारे होने, न होने से अब कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था। भूख, बेबसी और बीमारी से हर रोज न जाने कितने लोग मर-खप जाते हैं- कौन किसकी टोह लेता है ? हमारा वजूद दांत में फंसे अन्न के कण जैसा ही था। फिर भी विनय को समझाने के उद्देश्य से मुझे कहना पड़ा, ‘हम सभी वक्त और हालात के मारे हुए लोग हैं। लेकिन यह क्या कम है कि बस जिंदा हैं।’
आंसुओं को पोंछते हुए वह रुका। मेरी ओर देखकर सवाल किया, ‘ सड़क पर घिसटते लूले-लंगड़े, भिखारी और रद्दी बीनते कबाड़ी के बच्चों का जीवन कभी तुमने देखा है ? वे भी जिंदा रहते हैं।’
इसके बाद खामोशी छा गई। कुछ क्षण के लिए हमारे बीच संवाद स्थगित हो गया। अपनी ख़ामोशियों के पीछे छुपे दुखों में हम एक बार फिर डूब गए। दिमाग की खिड़कियां जितनी खुलती जातीं, आत्मसंघर्ष उतना ही तेज हो जाता।
‘सुनो’, विनय ने मेरी तरफ गरदन घुमाई, ‘मेरी नौकरी छूट गई है। यह बात घर में कोई नहीं जानता।’ वह दबे स्वर में बोला।
‘मजदूर के पास उसके सिर्फ दो हाथ ही हैं। पेट के लिए वह मजदूरी करता है। अगर हाथों को काम ही न मिले तो खाली पेट के लिए वह कहां से लाए ? तब उसकी आवाज़ भी पस्त हो जाती है।’ मेरे मन में यह भाव उठा।
‘क्यों छूटी ?’ प्राइवेट मालिकों की मनमानियों को जानते हुए भी मैंने सवाल किया।
उसकी आंखों में आक्रोश की एक कौंध उतर आई, ‘पुरानी कंपनी में छंटनी के बाद मुझे नई नौकरी मिल गई थी। पर कोई भी फैक्ट्री मालिक अब परमानेंट करने को राजी नहीं। सब खून चूसने की फिराक में रहते हैं। ठेकेदारी का ज़माना आ चुका है। काम करो, ऊपर से गालियां भी सुनो। गाली मैं सहन नहीं कर पाता, सो नौकरी चली गई। अब मजदूर के लिए न यूनियनें हैं, न कोई कानून । सरकारें बड़े लोगों की हैं। उन्हीं के पास फैक्ट्रियां हैं। यहां सरकारें मजदूरों के पक्ष में कहां हैं!’
‘तुम क्या सोचते हो ?’ उसने पूछा।
‘मेरे सोचने से क्या होगा।’ मैंने निराशा में कहा।
हालांकि, मैं उसी के बारे में सोच रहा था। वह मुसीबत और परेशानी में है। उसकी आर्थिक मदद करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। न ढंग की कोई नौकरी न परिचय का दायरा। फिर, यहां की सभी कंपनियों का चरित्र एक जैसा है- मजदूर से ज्यादा-से-ज्यादा काम लो और कम-से-कम वेतन दो।
‘हर आदमी जीना चाहता है, लेकिन ये बड़े लोग गरीब और कमजोर को जीने दें तब न । मुझे तो घृणा होती है इन फैक्ट्री मालिकों की लूट से, यहां के नेताओं और अफसरशाहों के पक्षपाती रवैये से। सब गुंडे-बदमाश, चोर और लुटेरे हैं। इनसे अगर कोई पूछे कि इस धरती का हर सुख सिर्फ इनके ही हिस्से में क्यों है ?’ विनय की आंखों से चिनगारी फूट रही थी।
मुझे अचरज नहीं हुआ, ऐसी नफरत और वितृष्णा मैं बहुतों में देखता आया हूं। मैं चुपचाप उसे निहारता रहा।
‘पर यहां फिलहाल कुछ होने वाला नहीं है। जिसे दो जून रोटी मिलने लगती है वह समझता है कि हर आदमी की तकदीर बदल गई है। सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है।’ उसका खौलता लहू निराशा से ठंडा पड़ता जा रहा था।
‘आओ, घर चलें।’ वह अचानक उठा और मेरे कंधे पर हाथ रख दिया।

जनवरी की एक रात।
घर में फोन की घंटी बजी।
दूसरी तरफ एक लड़की को घबराई हुई आवाज़ थी, ‘ कौन… चाचा, मैं विनय की बेटी बोल रही हूं।’
‘हां, बोलो बेटा।’ मैंने कहा।
‘चाचा, फरीदाबाद से पुलिसवाले आए थे। वे पापा को पकड़कर ले गए। थाने में पापा के खिलाफ अपने मैनेजर की पिटाई करने की रिपोर्ट दर्ज है। वे कह रहे थे कि पापा ने फैक्ट्री मालिक को जान से मारने की धमकी दी है।’ लड़की ने भर्राई हुई आवाज़ में कहा।
‘अरे…!’ एक क्षण के लिए मैं सकते में आ गया, फिर उसे ढाढ़स देने के लिए कहा, ‘ वह ऐसा नहीं कर सकता। पुलिस झूठ बोल रही है।’
‘पापा की नौकरी छूट गई है, चाचा… कंपनी वाले पापा की ग्रेच्युटी और फंड का पैसा भी नहीं दे रहे हैं… पापा को फैक्ट्री के अंदर भी नहीं घुसने देते, और पापा ने किसी की पिटाई नहीं की थी, चाचा ! मैनेजर के कहने पर कंपनी के गार्डों ने ही पापा को मारा था।’ लड़की बता रही है।
‘अब क्या करना होगा ?’ मैंने लड़की से पूछा।
‘चाचा, पापा ने आपके पास फोन करने के लिए कहा था। फरीदाबाद जाकर पापा की जमानत देने को गांव में कोई तैयार नहीं है। पुलिसवाले बहुत गुस्से में थे। वे पापा को…।’ लड़की रो पड़ी थी।
‘रोओ मत बेटी। तुम्हारे पापा को पुलिस पकड़कर ले गई है- छूटकर आएंगे आखिर कानून भी कुछ है। मुझसे जो भी बन सकेगा, मैं मदद के लिए तैयार हूँ।’ मैंने आश्वासन दिया।
लड़की की हिचकियां रुक गईं। वह पास खड़ी अपनी मां से कोई सलाह ले रही थी। फोन पर दोनों की बातें हल्के-हल्के सुनाई दे रही थीं।
‘चाचा ! मम्मी कह रही हैं, पापा की जमानत के लिए आपको फरीदाबाद चलना होगा। लेकिन आप गांव होकर जाते तो अच्छा होता। पापा की नौकरी और फंड के पेपर तो घर पर हैं। मम्मी भी आपके साथ जाएंगी।’
लड़की मेरे उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी।
मेरे सामने ऑफिस के काम का शेड्यूल घूम गया। कल सुबह ऑडिट, शाम को कुछ जरूरी ऑर्डर की सप्लाई और परसों… काम की लंबी लिस्ट थी। मुझे नौकरी पर गुस्सा आया- जिम्मेदारियां साली इतनी और वेतन कुछ भी नहीं।
‘चाचा… हैलो… हैलो…!’ तार, रिसीवर और फोन से उलझी हुई लड़की मेरी कुछ क्षण की चुप्पी से परेशान हो गई ।
ज्यादा सोचने का वक़्त न था।
‘मैं परसों शाम की गाड़ी से चलने की कोशिश करूंगा।’ मैंने कहा।
लड़की आश्वस्त हो गई थी। रिसीवर उसने अपनी मां को दे दिया।
वह औरत जैसे एहसान से दब गई। मेरी तारीफ़ के पुल बांधने और रोने के सिवा वह कुछ न कह सकी। मैंने धीरज रखने को कहा।
मेरे परिवार वालों की मर्जी नहीं थी कि मैं किसी पचड़े में पडूं। पत्नी ने आर्थिक तंगी का हवाला दिया, जो थी भी। लेकिन दोस्ती की खातिर और अपनी जिद में अगले दिन शाम को मैं गांव जाने वाली ट्रेन में बैठ गया।
घर पहुंचा तो एक दुःखद हादसे ने मेरी चेतना को काठ कर दिया। पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ, किंतु घर के उदास माहौल से पक्का हो गया कि यह सपना नहीं, हकीकत है। मैं वहीं, खाट पर बैठ गया।
मां ने बताया है कि विनय ने फरीदाबाद की हवालात में ही आत्महत्या कर ली थी। दो पुलिस वाले और उसके दो साथी पोस्टमार्टम के बाद लाश लेकर आज सुबह गांव पहुंचे थे। लोग अभी-अभी श्मशान से लौटे हैं। सफर में तीन-चार घंटे की देरी के कारण मुझे उसका मुंह भी देखने को न मिला।
‘कोई स्युइसाइड नोट ।’ मैंने पिताजी की तरफ देखा। ‘समय बहुत खराब है… दिल को पत्थर बना लो….।’ स्युइसाइड नोट के शब्द जैसे पिताजी की जुबान पर थे।
रात बरामदे में सोया हुआ मैं कोई सपना देख रहा था। मां से ही जाना कि जो चीजें दिन में मन को मथती रहती हैं, वे ही सपने में दिखाई दे जाती हैं। तो क्या यह मेरे मन की पीड़ा ही थी जो रात सपने में उतर आई। धुंध, धुंए और राख से बनी काली छाया मुझे स्वप्न में दिखाई दी। धीरे-धीरे वह एक आदमी की शक्ल में बदलने लगती है। वह दूर है, मैं उसे पहचान नहीं पाता। नजदीक आते ही मैं चौंक जाता हूं, ‘अरे ! विनय तुम ? इस दुनिया से चले जाने के बाद भी तुम बदले नहीं हो। वही शरीर-वैसे ही कपड़े। चेहरे पर दुःख-दर्दो की लकीरें !’
‘तुम मेरे बारे में कुछ ज्यादा सोचने लगे हो।’ वह मुस्कुराया, लेकिन फिर भी वह उदास दिखाई दे रहा था।
‘तुमने आत्महत्या क्यों कर ली ?’ रंज में भावुक होते हुए मैंने शिकायत की।
‘मैंने आत्महत्या नहीं की। उन लोगों ने मुझे प्रताड़ित किया, फिर मार डाला। लेकिन मैं मरा कहां हूं। देखो, मैं तुम्हारी बेचैनियों में जिंदा हूं। मेरे कुछ और दोस्त भी मेरी मौत से परेशान हैं। एक दिन सभी की ये बेचैनियां मिलकर उनसे अपना हिसाब पूरा करेंगी। मैं राख में दबी चिनगारी हूँ |’
‘विनय…।’ उम्मीद और आत्मविश्वास से मैं खिल उठा। मैंने उसे छूना चाहा, मगर वह हँसते हुए दूर होने लगा। पहली बार सपने में ही उसकी हँसी मुझे डरावनी लगी। धुंध और धुंए के बीच से धीरे-धीरे असंख्य चेहरे मुझे निकलते हुए दिखाई दिए। वे सभी फटेहाल, पिचके गालों वाले, परेशान और भूखे-नंगे दिखाई दे रहे थे। लेकिन आम मुफलिसों की तरह वे दयनीय और निरीह नहीं थे। सभी की आंखें गुस्से से लाल थीं। और आश्चर्य कि वे सभी अट्टहास करते जा रहे थे। गोया उनकी हँसी पृथ्वी पर भूचाल लाने वाली थी। आसमान को थर्रा देने वाली हँसी। मैं उनमें विनय की तलाश करने लगा। वह जाने कहां गुम हो गया था। मुझमें डर समा गया। मैं चीख पड़ा |
नींद टूटी तो मैं पसीने से भीगा हुआ था… पूरब से धीरे-धीरे सूरज ऊपर उठ रहा था। धूप बरामदे में उतर आई थी।



अरविन्द कुमार सिंह
जन्म : 11 जुलाई, 1962
ग्राम : बरवारीपुर , जिला : सुलतानपुर ( उ.प्र.)
शिक्षा : एम.ए. ( हिंदी )
प्रकाशित कृतियां :
बिरादरी का कटघरा , उसका सच ( कहानी संग्रह )
सम्पादन : दिशा पत्रिका का कुछ समय तक सम्पादन
आदमी का दुख मानबहादुर सिंह की कविताओं का सम्पादन
किसे चाहिए सभ्य पुलिस , पाकिस्तान में भगत सिंह, अंधी सुरंग में कश्मीर, विभूति नारायण राय के लेखों का संकलन एवं सम्पादन
पुरस्कार : सती कहानी पर रमाकान्त स्मृति पुरस्कार
सम्पर्क : सी-5/44 A, सादतपुर, दिल्ली- 110094
e-mail : arvindsinghdelhi94@gmail.com मोबाइल : 9971898709

 

 


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