स्त्री हर काल में उपेक्षित और तिरस्कृत रही। ऐसा माना जाता है कि स्त्रीवादी दृष्टिकोण ही था जो स्त्रियों को भी मनुष्य माने जाने और उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार की माँग किए जाने के साथ उभरा। समय के साथ -साथ इस दृष्टिकोण ने कई रूपों में स्त्री के शोषण एवं अधीनता को समझा जिसमें से एक धारा थी ‘पर्यावरणीय स्त्रीवाद’ की। स्त्रीवादी विमर्श में पुरुष एवं प्रकृति के शोषण को जोड़कर देखने के प्रयास को पर्यावरणीय स्त्रीवाद (Ecofeminism) के नाम से जाना जाता है । यह एक अंतरअनुशासनात्मक विचार है जो प्रकृति, राजनीति, स्त्री और शोषण के प्रति नए ढंग से सोचने के लिए प्रेरित करता है । इसका तर्क है कि पितृसत्ता में स्त्रियों के उत्पीड़न और पर्यावरणीय गिरावट में शोषणकारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का योगदान है जो दुनिया भर में स्त्रियों को एक साथ प्रभावित करता है। अर्थात यह स्त्रीवाद की वह शाखा है जो पर्यावरण और स्त्रियों के बीच संबंध को अपने विश्लेषण में प्रस्थान बिंदु के रूप में देखती है। पारिस्थितिकवादी विदुषियाँ मनुष्यों और प्राकृतिक दुनिया के बीच संबंधों का विश्लेषण करने के लिए लिंग की अवधारणा को आवश्यक श्रेणी मानती हैं । पर्यावरणीय स्त्रीवाद के विभिन्न आयामों पर अपना विमर्श प्रस्तुत कर रही हैं डॉ. सुप्रिया पाठक जिन्होंने ‘धरती एवं स्त्री’ नामक महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी है।
विश्वास है,पाठकों को यह लेख पसंद आएगा। – हरि भटनागर

आलेख:

“प्रकृति और स्त्री पर पितृसत्तात्मक आधिपत्य की वैश्विक आलोचनात्मक विचारधारा का नाम है पर्यावरणीय स्त्रीवाद ।”
‘स्त्रीवाद’ एक शब्द के रूप में विभिन्नताओं का समारोह है जिसके कई रूप हैं । अधिकतर स्त्रीवादी चिंतक विचारों के इस वैविध्य को एक स्वस्थ विमर्श के प्रतीक के रूप में देखते हैं जबकि कई स्त्रीवादी आलोचक इसे स्त्रीवाद में अन्तनिर्हित कमजोरियां मानते हैं जिसके कारण इस विचार के तार्किक पहलुओं की आलोचना होती है । कुछ आलोचक इस विखण्डन को आधुनिक स्त्रीवाद के साथ जोड़ कर भी देखते हैं । स्त्रीवाद का उदय एवं उसका बौद्धिक विकास सदैव विविध सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोणों के सन्दर्भ में हुआ हैं । इसने हमेशा अपनी भौगोलिक स्थिति के अनुसार मुद्दों को उठाया है । उत्तर आधुनिक तथा उत्तर संरचनावादी हस्तक्षेपों ने इस विचारधारा के वैविध्य को और बढ़ाया जिसके कारण स्त्रीवाद को समझने की एक नयी दृष्टि मिली । उनका मानना था कि शोषक एवं शोषित के बीच सत्ता संबंधों को व्यापक दायरे में देखने पर यह पता चलता है कि किस प्रकार सामाजिक विमर्श में सत्य तथा उसके अर्थ को पैदा किया जाता है । उन्होंने सत्ता के साथ शोषण के अनिवार्यतः जुड़े होने की व्याख्या की । इन सभी वैचारिक विमर्शों के मद्देनज़र स्त्रीवाद अपने अनेक अर्थों एवं मत-मतांतरों के साथ आज हमारे सामने मौजूद है । उन्हीं धाराओं में से एक को ‘पर्यावरणीय स्त्रीवाद’ के नाम से जाना जाता है ।
स्त्रीवादी विमर्श में पुरुष एवं प्रकृति के शोषण को जोड़कर देखने की दृष्टि को पर्यावरणीय स्त्रीवाद (Eco feminism) के नाम से जाना जाता है । यह एक अंतरअनुशासनिक विचार है जो प्रकृति, राजनीति, स्त्री और शोषण के प्रति नए ढंग से सोचने के लिए प्रेरित करता है । इसका तर्क है कि स्त्रियों के उत्पीड़न और पर्यावरणीय गिरावट में शोषणकारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का योगदान है जो दुनिया भर की स्त्रियों को एक साथ प्रभावित करता है । अर्थात यह स्त्रीवाद की वह शाखा है जो पर्यावरण और स्त्री के बीच संबंध को अपने विश्लेषण में प्रस्थान बिंदु के रूप में देखती है । पर्यावरणवादी विदुषियां मनुष्य और प्रकृति के बीच संबंध विश्लेषण करने के लिए लिंग(Gender) को आवश्यक श्रेणी मानती हैं । पर्यावरणीय स्त्रीवाद (Eco Feminism) शब्द का जन्म विभिन्न नव सामाजिक आन्दोलनों यथा मार्क्सवाद, स्त्रीवाद, गांधीवाद, समाजवाद तथा पारिस्थितिकी आन्दोलनों के फलस्वरुप 1970 के उतरार्द्ध तथा 1980 के पूर्वार्द्ध में हुआ, जिसमें स्त्रियों की सक्रिय भूमिका के महत्व को स्वीकार किया गया । हालांकि इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम फ्रेंच लेखिका फ्राँस्वास दोबोन्न द्वारा 1974 में अपनी पुस्तक देथ ऑफ फेमिनिज़्म में किया गया परंतु इसका प्रसार विभिन्न जनान्दोलनों एवं राजनैतिक गतिविधियों के दौरान हुआ । कुछ अन्य सिद्धांतकारों जैसे येन्स्त्रा किंग ने इसे स्त्रीवाद की तीसरी लहर के रुप मे व्याख्यायित किया । रोजमेरी रेडफोर्ट, राउथर, इवोने, गेबारा, वन्दना शिवा, मरिया मीस, सुसेन ग्रिफिन, एलिस वाकर, स्टारहाक, सैली मिस्फाग, लुएस तेईश, सन आइली, पार्क, पाउला गुन्न एलेन, मोनिका स्जू, ग्रेटा गार्ड, करेन वारेन तथा एनडी स्मिथ ने पर्यावरणीय स्त्रीवाद को भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्यायित किया है । विभिन्न धाराओं से प्रभावित होने के कारण इसे किसी एक पारिभाषिक खाँचे में नहीं डाला जा सकता है ।
पर्यावरणीय स्त्रीवादी सिद्धांत स्त्रियों को शक्ति के रूप में नहीं बल्कि समाज निर्माण में सहयोगी के रूप में देखता है जिसका जल, जंगल,जमीन के साथ गहरा रिश्ता है । इसका मूल उद्देश्य पृथ्वी को बचाने के लिए स्त्री ऊर्जा का अह्वान है । स्त्रीवाद और पारिस्थितिकी के मध्य संबंधों की धारा के संस्थापक फ्रेंकोइस डी’ एउबोन का दावा है कि स्त्री और प्रकृति के शोषण का मूल कारण पितृसत्ता है । उन्होंने पितृसत्ता का ऐतिहासिक विश्लेषण करते हुए यह बताया कि इसका विकास नवपाषाण काल के उतरार्ध में हुआ । फ्रेंकोइस का दावा है कि स्त्रियां इस समाज की जीवन रक्षक हैं। उन्हें आने वाले कल की चिंता है इसलिए लगातार वे उसके संरक्षण में लगी रहती हैं जबकि पुरुष स्त्री और प्रकृति को अपने अधीन रखने के पक्षधर हैं ।
पर्यावरणीय स्त्रीवाद को वस्तुत: सामाजिक एवं राजनीतिक आन्दोलन के रुप में प्रस्तुत किया जाता है । स्त्रीवादियों का मानना है कि पितृसत्तात्मक शोषण के कारण समाज में स्त्रियों की अधीनता तथा पर्यावरण का लगतार होता ह्रास पुरुष मानसिकता से संचालित गतिविधि है । उनका मानना है कि सभी प्रकार के शोषण का आपस में गहरा संबंध है जिसकी संरचना को हमें समग्रता में समझने की आवश्यकता है । पर्यावरणीय स्त्रीवाद पर आधारित पुस्तक नयी स्त्री/ नयी पृथ्‍वी सभी प्रकार के वर्चस्वशाली असमानताओं जैसे नस्लवाद, लैंगिकता, वर्गीय संरचना, प्रकृति के दोहन तथा जातीय असमानता पर प्रश्न उठाती है । यह पितृसत्तात्मक विचार के जरिए स्त्रियों पर कायम वर्चस्व एवं पश्चिमी विकास के मॉडल के आधार पर विकसित प्रकृति के दोहन की आलोचना प्रस्तुत करती है । पर्यावरणीय स्त्रीवाद के अनुसार पितृसत्तात्मक संरचनाएँ अपने वर्चस्व को विलोमार्थक श्रेणी में विभक्त कर इन्हें धार्मिक एवं वैज्ञानिक संरचनाओं के द्वारा न्यायसंगत बताती हैं । जैसे:स्वर्ग/पृथ्‍वी, बुद्धि/शरीर, पुरुष/स्त्री, मनुष्‍य/पशु, आध्यात्मिक/भौतिक, संस्कृति/प्रकृति, श्वेत/श्याम आदि । समतामूलक समाज के स्वप्न को साकार करने के लिए इन विलोमार्थक एवं विरोधाभासी संरचनाओं का समाप्त होना आवश्यक है ।
स्त्री और पर्यावरण के बीच एक अटूट बन्धन और शोषण का साझा इतिहास है जो उन्होंने इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक साथ जिया है । विकासशील देशों में स्त्रियों को प्राकृतिक संसाधनों की प्राथमिक उपभोक्‍ता के रुप मे देखा जाता है क्योंकि वे जलावन, भोजन तथा चारे की रोजमर्रे की जरूरतों के लिए जंगल पर आश्रित हैं । पर्यावरण के प्रति स्त्रियों का नजरिया तथा जीवन मूल्य पुरुषों से भिन्न है । वे इसके संरक्षण को अपना नैतिक दायित्व मानती हैं जबकि पुरुषों की दृष्टि उपभोगवादी रही है । बावजूद इसके, पर्यावरणीय इतिहासलेखन के दौरान अधिकतर पुरूषों की भूमिका की चर्चा की जाती है जबकि प्रकृति के साथ स्त्रियों के संबंध को हमेशा नजरन्दाज किया जाता है । पर्यावरणीय गतिविधियों में स्त्रियों की सहभागिता का इतिहास अलिखित है । परिणामस्वरुप, पर्यावरण संरक्षण के लिए किए गये संघर्षों में स्त्रियों की भूमिका का इतिहास अदृश्य है ।
जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाएं और जैव विविधता अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए प्रमुख पर्यावरणीय चिंताएं हैं जो पृथ्वी के लिए हानिकारक हैं । वे मनुष्यों विशेषकर स्त्रियों के जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं। इसके बावजूद , वैश्विक पर्यावरणीय राजनीति और नीति-निर्माण में जेंडर की भूमिका पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है । हमारे समाज में पुरुषों और स्त्रियों से भिन्न-भिन्न अपेक्षाएं होती हैं और ये अपेक्षाएं पर्यावरणीय राजनीति के दायरे को प्रभावित करती हैं । पर्यावरण के मुद्दों को बेहतर ढंग से समझने, उससे प्रभावी और समुचित ढंग से निपटने एवं नीतियों को विकसित करने में जेंडर भूमिकाओं को समझना आवश्यक है ।
1980 के दशक में पर्यावरणीय स्त्रीवाद के विचार ने आंदोलन का स्वरुप ग्रहण करना शुरु किया । 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित अंतराष्‍ट्रीय पर्यावरणीय सम्मेलन में पर्यावरण को बतौर एजेंडा प्रस्तुत किया गया और वैश्विक स्तर पर हो रहे पर्यावरणीय क्षरण के प्रति गंभीर चिंता जताई गयी । संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका में वृहद स्तर पर हिमखण्ड क्षरण (snow erosion) के मुद्दे ने पहली बार बड़ी संख्या में स्त्रियों को एक मंच पर एकत्र किया । पिछले तीन दशकों (1970-2000) में पर्यावरणीय स्त्रीवादियों ने धरनों, बहिष्‍कारों तथा अहिंसक प्रतिरोधों के द्वारा स्त्री तथा पर्यावरण के प्रति न्याय की गुहार लगायी है । उनका विरोध निजी कम्‍पनियों को बेची जा रही नदियों तथा उन पर बन रही विद्युत परियोजनाओं में व्याप्त गंभीर विसंगतियों के प्रति है । उनका तर्क है कि प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग पूंजीवादी व्यवस्था की हित पूर्ति की बजाए जनहित में किया जाना चाहिए । पृथ्वी पर लगातार घट रहे जलस्तर से पैदा हो रहा जलसंकट पर्यावरण के लिये खतरा है जिसपर गम्भीरतापूर्वक विचार किए जाने की आवश्यकता है । उनकी चिंता है कि विश्वव्यापी पर्यावरण के ह्रास से पृथ्‍वी के बहुत से भागों में जीवन की गुणवत्ता का ह्रास हुआ है । ग्रीन हाउस प्रभाव ,महासागरीय एवं वायुमण्‍डलीय प्रदूषण मनुष्‍य के जीवन से गहरे रुप में जुड़े हुए हैं जो जीवनदायी पारिस्थितिकी तंत्र (Eco system) को संकट में डाल रहे हैं ।
विगत कुछ वर्षों में पर्यावरणीय संकट के प्रति समाज के सभी वर्गों,जातियों, नस्लों तथा राष्‍ट्र की स्त्रियों ने खुले तौर पर अपना सरोकार जाहिर किया है । उन्होंने स्थानीय तथा वैश्विक स्तर पर एकजुट होकर इस तथ्य को स्वीकारा है कि उनका अधिकार सिर्फ पर्यावरणीय आंदोलनों में शामिल होना ही नहीं है बल्कि प्रकृति के साथ उनका अटूट रिश्ता है । वे पुरुषों की अपेक्षा भिन्न तरह से पर्यावरणीय क्षरणों, वनों की कटाई ,प्रदूषण तथा अधिक जनसंख्या से प्रभावित हुई हैं । प्रकृति पर केन्द्रित अपनी अनेक गतिविधियों के जरिए उन्होंने यह साबित किया है कि उनकी अलग पहचान है । वे पर्यावरण एवं अपनी दुनिया में बदलाव लाने में पूरी तरह सक्षम हैं । स्त्रियां प्रारम्भ से युद्ध विरोधी रही हैं । युद्ध पुरुषवादी एवं वर्चस्वशाली हिंसक मानसिकता का परिचायक है । युद्ध के दौरान होने वाली हिंसा में बच्चे, बुढ़े तथा स्त्रियां सर्वाधिक प्रभावित होती हैं इसलिए वे हमेशा शांति की पक्षधर होती हैं । स्त्रियों के प्रति होने वाली हिंसा पिछ्ले तीन दशकों में शांति अध्ययन में एक महत्वपूर्ण विषय के रुप में उभरी है । युद्ध एवं शांति विलोमार्थक शब्दावलियाँ हैं जिसमें एक पुरुषोचित है तो दूसरा स्त्रियोचित । समाज में स्त्री को ममता,दया, प्यार, भावुकता जैसी स्त्रियोचित भावुकता से जोड़ कर देखने की प्रवृति रही है । स्त्रियों की तुलना प्रकृति के साथ की जाती है क्योंकि उनमें भी वे सभी गुण विद्यमान हैं परन्तु पुरुषों को भौतिक दुनिया का अंग मानने के कारण उन्हें तार्किक माना जाता है ।
स्त्री और प्रकृति का संबंध आम तौर पर अनुभवजन्य, वैचारिक और ज्ञानमीमांसात्मक चरित्र पर आधारित है । सबसे पहले,अनुभवजन्य दावे से यह पता चलता है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के नकारात्मक विकास के कारण पर्यावरणीय क्षरण के दुष्प्रभाव की पहली शिकार स्त्रियां होती हैं । संक्षेप में, पर्यावरणीय स्त्रीवाद का अनुभवजन्य दावा सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक संरचनाओं की पड़ताल करता है जो स्त्रियों को गरीबी, पारिस्थितिकीय अभाव और आर्थिक असमर्थता की स्थिति में लाता है । दूसरा दावा पदानुक्रम और द्वैतवाद के आधार पर संरचित समाज के निर्माण पर केंद्रित है जो स्त्रियों की अधीनता और प्रकृति के शोषण का मुख्य कारण पितृसत्तात्मक विचारधारा को मानता है । तीसरा दावा ज्ञानमीमांसा का है जो प्रकृति संबंधी ज्ञान पर केंद्रित है । इस परिप्रेक्ष्य में, स्त्रियां ऐतिहासिक रूप से कृषि कार्य से जुड़ी रही हैं जिसके कारण वे स्थायी और अभिनव प्रयोगों वाले कृषि कार्यों को अत्यंत दक्षता से कर लेती हैं । इसके अलावा, उन्हें प्रकृति की संरक्षिका के रूप में भी देखा जाता है इसलिए पर्यावरण के संरक्षण और पोषण के कार्य को स्त्रियों के निहित कार्यों के साथ जोड़कर देखा जाता है । ये तीन सैद्धान्तिक आधार हैं जिन्होंने स्त्री और प्रकृति के शोषण पर विमर्श के लिए पर्यावरणीय स्त्रीवाद की पृष्ठभूमि तैयार की है । साथ ही, पिछले तीन दशकों में पारिस्थितिक संकट के प्रति आयोजित आंदोलनों ने पर्यावरणीय स्त्रीवादी सिद्धांत (Eco Feminist Theory) को उभारने का कार्य किया है।
हमारे समाज की श्रेणीबद्धता उत्पीड़न को जन्म देती है । द्वैतवादी विचार विश्व को बड़े सूक्ष्म रूप से स्वामी और अधीनस्थ में विभाजित करती है । पितृसत्तात्मक आख्यान में स्त्री एवं प्रकृति दोनों को वस्तु के रूप में समझा गया है जो पुरुषवादी तकनीक के लिए अस्तित्व में बनी हुई हैं । उनके माध्यम से पितृसत्तात्मक पूंजीवाद अपना प्रभुत्व स्थापित करते हुए मुनाफा कमाती है । श्रम के लिंग आधारित विभाजन (Sexual Division of labour) और दुनिया भर में स्त्रियों द्वारा किए जाने वाले अवैतनिक कार्यों (unpaid labour) की बहुलता और पर्यावरणीय गिरावट उन्हें सबसे पहले प्रभावित करती है और पुरुषों की तुलना में उनके जीवन को कठिन बनाती है । पर्यावरणीय स्त्रीवाद इस अंतस्संबन्ध की पहचान करते हुए स्त्रीवाद और पारिस्थितिकीय चिंताओं को जोड़कर देखता है । तीसरी दुनिया की स्त्रियों का प्राथमिक मुद्दा अस्तित्व की रक्षा का है । अधीनता से दबे हुए ये स्त्री स्वर चुपचाप लेकिन दृढ़ता से अपना पक्ष रख रहे हैं । हमारे समाज में पुरुषों ने एक खास किस्म की उपभोगवादी संस्कृति का निर्माण किया है जबकि दुनिया को रचने के और भी तरीके मौजूद थे । प्रकृति के संरक्षण के माध्यम से स्त्रियों के संघर्ष इन संरचनात्मक वर्चस्व की श्रेणियों को पुनर्परिभाषित कर रहे समानता के नए स्वरों की तलाश कर रहे हैं । वे विश्वदृष्टि के इस केंद्रीय विश्वास को चुनौती दे रही हैं जो यह मानती है कि प्रकृति और स्त्रियां अनुपयोगी हैं और प्रगति के मार्ग में बाधक हैं । इसलिए उनका बलिदान किए जाने में कोई हर्ज़ नहीं है ।
स्त्रियों के पारिस्थितिकीय संघर्ष में दो केंद्रीय बदलाव प्रस्तावित हैं जो आर्थिक और बौद्धिक संपदा से संबंधित हैं । पहला यह कि ज्ञान क्या है और बौद्धिक संपदा के ज्ञाता और उत्पादक कौन हैं ? दूसरे में ,धन और आर्थिक मूल्य की अवधारणाएं शामिल हैं कि धन और आर्थिक मूल्य के उत्पादक कौन हैं ? स्त्रियां हमें बताती हैं कि आर्थिक जीवन का आधार प्रकृति है और प्रकृति के वे तत्व जिन्हें विश्व दृष्टि ने ‘अपशिष्ट’ माना है, वे स्थिरता और धन का आधार हैं । गरीब डिस्पेंसेबिलिटी की अवधारणाओं को चुनौती दे रहे हैं क्योंकि पश्चिम के आधुनिक विचारों ने उन्हें परिभाषित किया है । वे जानते हैं कि उत्पादन जीवित रहने की बुनियादी शर्त है और इसे ‘आर्थिक गतिविधियों’ से अलग नहीं किया जा सकता है । तीसरी दुनिया की स्त्रियों को उत्तरजीविता की विशेषज्ञता का विशेषाधिकार प्राप्त है। उनका ज्ञान समावेशी है । वे सोचती हैं और कार्य करती हैं । तीसरी दुनिया की स्त्रियां मानव इतिहास में जीवन और अस्तित्व की चिंता को वापस ला रही हैं । जीवन के अस्तित्व के अवसरों को पुनः प्राप्त करने में वे प्रकृति और समाज में पर्यावरणीय स्त्रीवादी सिद्धांत की नींव रख रही हैं जिसके माध्यम से उन्होंने हमारी हरी-भरी पृथ्वी को पुनः प्राप्त करने का उद्देश्य चुना है ।
एक आंदोलन के रूप में पर्यावरणीय स्त्रीवाद प्रकृति में अंतरक्षेत्रीय (intersectional) पड़ताल है । स्त्रीवादी सिद्धांत के भीतर यह एक ऐसा विचार है जो जमीनी यथार्थ से उभरता है । इस आंदोलन में प्राथमिक सहभागी हाशिए की कृषि वर्ग की स्त्रियां हैं जो पर्यावरणीय क्षरण से सीधे प्रभावित होती हैं । पर्यावरणीय स्त्रीवाद अक्सर मुख्यधारा के स्त्रीवादी आख्यानों में अदृश्य है क्योंकि स्त्रीवादी प्रतिमान के भीतर नागरिक, राजनीतिक अधिकारों,गर्भ पर अधिकार, जीवन का अधिकार, यौनिक स्वतंत्रता का अधिकार जैसे कुछ मुद्दों को ही महत्व प्राप्त रहा है । कृषि और जमीनी यथार्थ के मुद्दे अक्सर ऐसी स्थिति में उपेक्षित हो जाते हैं । पर्यावरणीय स्त्रीवादी आंदोलन उन सफल आंदोलनों में से एक है जो प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के साथ अपने सौहार्दपूर्ण संबंधों को बनाए रखने के लिए अहिंसक रूप से स्त्रियों के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ है ।
यह स्त्रीवादी दृष्टि सार्वजनिक संस्थानों से स्त्रियों के बहिष्करण के इतिहास तथा उनकी भागीदारी को बाधित करने वाले कारकों का पता लगाती है । साथ ही, यह रेखांकित करती है कि वानिकी के प्रति स्त्रियों की दक्षता किस प्रकार समुदाय और सरकार के साथ ग्रामीण स्त्रियों की सौदेबाजी (negotiations) की शक्ति को मजबूत करती है । यह गरीब ग्रामीण स्त्रियों की जरूरतों जैसे स्वच्छ घरेलू ईंधन को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए सरकार की जवाबदेही तय करती है । यह मानती है कि श्रम का लैंगिक विभाजन वस्तुतः प्रकृति तथा आर्थिक संसाधनों पर हमारी निर्भरता को प्रभावित करता है जिसका असर पुरुषों और स्त्रियों पर भिन्न-भिन्न होता है जो हमारे वन संसाधनों,आजीविका, स्वास्थ्य, सामाजिक संबंध और सार्वजनिक स्थानों पर पड़ने वाले विनाशकारी प्रभावों के रूप में परिलक्षित होता है एवं वनों के संबंध में स्त्रियों के देशज ज्ञान परंपरा को खारिज करता है ।
बीना अग्रवाल अपनी पुस्तक जेंडर एंड ग्रीन गवर्नेंस: द पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ वीमेन्स प्रेजेंस विदिन एंड बियॉन्ड कम्युनिटी फॉरेस्ट्री में स्त्रियों की स्थानीय निकायों तथा पर्यावरणीय आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका तथा हिस्सेदारी के प्रश्न का बारीक विश्लेषण करती हैं । वे इस विचार को खारिज करती हैं कि स्त्रियां अनिवार्य रूप से पुरुषों की तुलना में प्रकृति के करीब हैं इसलिए पुरुष की तुलना में उनके अलग राजनीतिक हित होते हैं । वह यह मानती हैं कि वनों के संरक्षण में स्त्रियों की सक्रिय भागीदारी न केवल अच्छी है बल्कि इसके कारण वे स्वयं सामाजिक तौर पर सशक्तीकरण के प्रेरणास्त्रोत के रूप में उभरती हैं ।
पर्यावरणविद वंदना शिवा अपनी पुस्तक स्टेइंग अलाइव में विकास, पारिस्थितिकी और जेंडर संबंधी तीन चिंताओं को समेटते हुए यह तर्क देती हैं कि वर्तमान समाज में स्त्रियों की स्थिति में अवनति और प्राकृतिक असंतुलन के बीच अंतरंग संबंध है । दोनों ही ऐसी धारणाओं से उत्पन्न होती हैं जो एक भयावह दृश्य को प्रस्तुत करती हैं जिसे आर्थिक विकास (Economic development) कहा जाता है । विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं राजनीति शोषण के प्रतीक हैं और इसके द्वारा निर्देशित मानव गतिविधि का हर क्षेत्र स्त्री और प्रकृति को हाशिए पर रखता है । प्रकृति, स्त्री और पुरुष अस्तित्व के लिए मुक्ति का मार्ग है न कि वर्चस्व, शोषण और अधिशेष की प्राप्ति का स्त्रोत । पर्यावरण संरक्षण में स्त्रियों की अनूठी जगह हैं । जल,जंगल एवं जमीन उनकी जरुरत हैं । वंदना शिवा का विश्लेषण पर्यावरणविदों और स्त्रीवादियों के अधिकांश पारंपरिक विश्लेषणों से अलग है जिन्होंने तीसरी दुनिया में स्त्रियों को पर्यावरणीय क्षरण के विशेष शिकार के रूप में चिन्हित किया है । उनका मानना है कि पारिस्थितिकीय आंदोलनों में स्त्रियां विविध चुनौतियों का सामना रही हैं एवं अपने संघर्षों को अहिंसक, लैंगिक पूर्वाग्रहों से मुक्त विज्ञान, प्रौद्योगिकी और विकास प्रतिमानों के लिए समावेशी विकल्प बनाने हेतु लगातार प्रयासरत हैं । वे यह प्रश्न स्त्रीवादी विमर्श की दृष्टि से उठाती हैं कि क्या पर्यावरणीय आंदोलनों में शामिल स्त्रियों को पितृसत्ता और पारिस्थितिक क्षरण के बीच कोई संबंध दिखाई देता है? वैश्विक सैन्यवाद और प्रकृति के विनाश के बीच क्या संबंध हैं? ऐसे प्रश्नों की खोज में वे प्रचलित सिद्धांतों की आलोचना करती हैं और रोजमर्रे की जरूरतों में निहित पर्यावरणीय स्त्रीवादी परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करती हैं । अक्सर भोजन, ईंधन और आश्रय के लिए उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर गहराई से निर्भर होने के कारण स्त्रियां पर्यावरणीय परिवर्तनों या खतरों के प्रति संवेदनशील होती हैं । चूंकि स्त्रियों का कार्य अक्सर प्राकृतिक संसाधनों, जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र के प्रबंधन पर केंद्रित होता है इसलिए उनके अनुभव और दृष्टिकोण आने वाली पीढ़ी के निर्माण एवं स्वस्थ समाज के लिए आवश्यक हैं । उनका मानना है कि :
1. सभी प्रजातियों, लोगों और संस्कृतियों में आंतरिक मूल्य बोध निहित होते हैं ।
2. पृथ्वी पर समुदाय के रूप में जीवन बसर कर रहे समस्त लोगों के जीवन में लोकतंत्र का महत्व है ।
3. प्रकृति और संस्कृति में निहित विविधता की रक्षा की जानी चाहिए ।
4. समाज में सभी मनुष्यों को जीविका प्राप्त करने का स्वाभाविक मानवाधिकार है ।
5. अर्थ डेमोक्रेसी अर्थव्यवस्थाओं और आर्थिक लोकतंत्र की संकल्पना पर आधारित है।
6. स्थायी अर्थव्यवस्थाएं स्थानीय संसाधनों पर आधरित होती हैं ।
7. पृथ्वी का लोकतंत्र जीवंत एवं बहुल संस्कृतियों पर आधारित है ।
8. जीवंत संस्कृतियां स्वस्थ मानव एवं सामुदायिक जीवन का संपोषण करती हैं ।
9. लोकतंत्र की संकल्पना समाज में राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति और करुणा की स्थापना है।

स्त्रियां दुनिया की आधी से अधिक आबादी का प्रतिनिधित्व करती हैं एवं वे ग्रामीण क्षेत्रों में भोजन प्रबंधन के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी हैं । खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, विकासशील देशों में स्त्रियां साठ से अस्सी प्रतिशत भोजन का उत्पादन करती हैं । फिर भी, वे आधिकारिक तौर पर दुनिया भर में केवल दो प्रतिशत भूमि की मालिक हैं । परंपरागत संपत्ति कानून और रीति-रिवाज अक्सर भूमि पर स्त्रियों के प्रत्यक्ष स्वामित्व को सीमित करते हैं । जब स्त्रियां जमीन का स्वामित्व और पट्टे पर लेने में सक्षम होती हैं तब भी वे सांस्कृतिक बाधाओं के कारण अपने संसाधनों का उपयोग नहीं कर पातीं । न्यायसंगत भूमि अधिकारों की कमी स्त्री सशक्तीकरण और गरीबी उन्मूलन के लिए आज भी एक बड़ी बाधा बनी हुई है । कई महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय समझौतों ने स्त्री एवं पर्यावरण के बीच संबंध को रेखांकित किया है । स्त्रियों के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर 1979 में स्त्रियों के लिए अंतरराष्ट्रीय अधिकारों का एक विधेयक CEDAW (Convention on the Elimination of All Forms of Discrimination against Women New York, 18 December 1979)

पारित हुआ जो पर्यावरणीय मुद्दों को संबोधित करता है । इसी प्रकार बीजिंग प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन में स्त्रियों के संबंध में 1995 में आयोजित चौथे विश्व सम्मेलन की रिपोर्ट में महिला और पर्यावरण पर केंद्रित एक संपूर्ण अध्याय शामिल है । 1992 के संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी शिखर सम्मेलन (UNCED) में दो प्रमुख सम्मेलनों का आयोजन किया गया जिन्होंने लैंगिक तौर पर संवेदनशील दृष्टि से पर्यावरणीय संरक्षण के लिए मार्गदर्शक का कार्य किया है । UNCED दस्तावेज़ के एजेंडा 21 में लिंग पर एक विशिष्ट अध्याय शामिल था जिसमें स्थायी उपभोक्ताओं के रूप में औद्योगिक देशों में स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डाला गया था । प्रमुख सतत विकास संधियों (Sustainable development treaties) ने भी स्त्रियों की भागीदारी और मुख्यधारा में जेंडर परिप्रेक्ष्य को शामिल करने की प्रासंगिकता को स्वीकार किया है । इसने स्त्री एवं पुरुष पर ग्लोबल वार्मिंग के विभिन्न प्रभावों के संबंध में जो भविष्यवाणियां की थीं, वे अब दुनिया भर में स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रही हैं ।
हालांकि, हाल के वर्षों में अकादमिक दुनिया में स्त्रीवाद और पारिस्थितिकी के बीच संबंधों का महत्व अधिक बढ़ा है । इस तथ्य को मेरी मेलर अपनी पुस्तक फेमिनिज्म एण्ड इकोलोजी में पर्यावरणीय स्त्रीवादी आंदोलन और उसके इतिहास के मुख्य बिंदुओं पर एक विस्तृत विश्लेषण के दौरान स्वीकार करती हैं । मेलर स्त्रीवाद और हरित आंदोलन के बीच संबंधों की जांच करती हैं और प्रमुख स्त्रियों के योगदान की एक तस्वीर प्रस्तुत करती हैं । इसके माध्यम से वह पर्यावरणीय स्त्रीवाद और अन्य पारिस्थितिकीय आंदोलनों जैसे गहन पारिस्थितिकी, सामाजिक पारिस्थितिकी और पारिस्थितिक समाज के बीच संबंधों की पड़ताल करती हैं । मेलोर ने जीव विज्ञान और प्रकृति के साथ स्त्रियों के जुड़ाव पर चर्चा करते हुए यह तर्क दिया है कि स्त्री एवं पर्यावरण के बीच संबंध हमें मानवता और प्राकृतिक दुनिया के बीच संबंधों को समझने में मदद कर सकते हैं । संकुचित आर्थिक उदारवाद, वैश्विक पूंजीवाद और उत्तर आधुनिकतावादी बहुलतावाद की प्रवृत्ति के खिलाफ, स्त्रीवादी और हरित आंदोलन नए किस्म के आंदोलन हैं । भारतीय स्त्रियां अपने प्रति हो रहे तमाम उत्पीड़न,अन्याय और दुर्व्यवहार के बावजूद हमेशा पितृसत्तात्मक समाज के खिलाफ संघर्ष में अपनी आवाज उठाने में कामयाब रही हैं । द्वितीयक लिंग के रूप में देखे जाने के कारण दुनिया भर में स्त्रियों को चुनौतियों, पूर्वाग्रहों और लैंगिक असमानताओं का सामना करना पड़ता है । आज भी दुनिया भर में स्त्रियां अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं ।
ए.वेकोस की पुस्तक ‘वुमेन एण्ड नेचर:बियोंड ड्यूलिज्म,बॉडी एण्ड इनवोरमेंट’ द्वैतवाद से परे स्त्री एवं प्रकृति के बीच संबंधों को समझने के लिए एक ऐतिहासिक संदर्भ प्रदान करती है । पर्यावरणीय स्त्रीवाद ने विद्वानों लैंगिक प्रश्नों पर पुनर्विचार के उद्देश्य से संस्कृति प्रेमी और प्रकृति विद्वेषी मानव के अंतर को स्पष्ट किया है । सांस्कृतिक/आध्यात्मिक पर्यावरणीय स्त्रीवाद स्त्री एवं प्रकृति के बीच प्राकृतिक संबंध पर जोर देता है और ‘धरती माता’ और ‘प्रकृति के स्त्रीत्व’ की अवधारणा को प्रस्तुत करता है । वन हमेशा से भारतीय सभ्यता के केंद्रीय तत्व रहे हैं । वन की देवी को अरण्यनी के रूप में पूजा जाता है । सामाजिक और सभ्यतागत विकास के प्राथमिक स्रोत के रूप में जंगल को हमेशा आदर्श के रूप में देखा गया है । वन की विविधता, सद्भाव और आत्मनिर्भर प्रकृति ने भारतीय सभ्यता का मार्गदर्शन करने वाले संगठनात्मक अरण्य सिद्धांतों को दिया जिन्हें मोटे तौर पर ‘जंगल की संस्कृति’ या ‘वन संस्कृति’ के रूप में जाना जाता है ।
गाइनो ईकोलोजी स्त्रीत्व की अवधारणा, इसकी उत्पत्ति और जड़ों का विश्लेषण करती है । वह धर्मशास्त्र की मदद से यह समझाती हैं कि कैसे स्त्रीत्व की अवधारणा हमारे समाज में आई और सदियों से कायम है । इसका आधार वो पितृसत्तात्मकता को मानती हैं । सुसान ग्रिफिन और स्टारहॉक की रचनाएं आध्यात्मिक स्त्री-प्रकृति संबंध पर हैं। सिमोन दी बुआ और शेरी बी ऑर्टनर जैसे रचनावादी स्त्रीवादियों ने स्त्री तथा प्रकृति के अनिवार्य संबंधों को सिरे से खारिज कर दिया । वे स्त्री एवं प्रकृति का संबंध बताती हुए कहती हैं कि यह संबंध सामाजिक रचना है न कि प्राकृतिक । वे स्त्रियों को प्रकृति से जोड़ने की अनिवार्यता और उसके नकारात्मक प्रभावों को रेखांकित करती हैं । उनका मानना है कि इस प्रकार की स्थापना स्त्री-पुरुष और संस्कृति-प्रकृति के विरोधाभास की खाई को और चौड़ी करती है । अपनी किताब द सेकेंड सेक्स में सिमोन दी बउवार बताती हैं कि कैसे पुरुष को संस्कृति के साथ स्थान दिया गया है जबकि स्त्री, प्रकृति, पशु आदि इससे अलग कर दिए गए हैं ।
“पुनर्जागरण के युग और दुनिया के उपनिवेशीकरण के बाद से श्वेत व्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता की अवधारणा दरअसल प्रकृति और अन्य शासित लोगों तथा उनकी सीमाओं के प्रभुत्व पर आधारित रही है । प्रकृति और संस्कृति या सभ्यता के बीच विभाजन इसकी वर्चस्वकारी अवधारणा का अभिन्न अंग है । महिला आंदोलन के प्रारंभ से लेकर वर्तमान तक स्त्रियों ने पुरुषों को साथ लेकर चलने की रणनीति को मुक्ति के मार्ग के रूप में अपनाया है । इसलिए सर्वप्रथम स्त्रियों को स्वयं को प्रकृति के साथ अनिवार्य तौर पर जोड़ दिए जाने के आत्मसातीकरण की प्रक्रिया से बाहर निकलना होगा।“
क्वीर पर्यावरणीय स्त्रीवाद सुपरमैन से लेकर सुपरवुमन तक के लिंग के व्यापक परिदृश्य की कल्पना करता है जिसमें समलैंगिकों,उभयलिंगियों, ट्रांसजेंडरों और साइबोर्ग सहित सभी पर्यावरण के साथ अपने अभिन्न रिश्ते को रेखांकित करते हैं । वास्तव में पर्यावरणीय स्त्रीवाद क्वीर थ्योरी तथा अन्य सिद्धांतों को लेकर समावेशी है जो यह मानता है कि भविष्य में एक ऐसा समाज होगा जो यौन विविधता और यौनिकता के विमर्श को सहजता और सम्मान के साथ स्वीकार करेगा ठीक उसी प्रकार जैसे प्रकृति विविध जैविक विविधताओं को स्वयं में समावेशित करती है । क्वीर इको फेमिनिस्ट डोना हारवे ने अपनी पुस्तक ए साइबोर्ग मेनिफेस्टो में इसे और स्पष्टता से समझाया है कि उत्तर-आधुनिकतावादी विमर्श में समलैंगिकता का विमर्श स्त्रीवादी संस्कृति और सिद्धांत में योगदान करने का एक प्रयास है। यह एक ऐसी सुंदर दुनिया की कल्पना है जो लैंगिक विभाजन से रहित उभयलिंगी मानवतावादी दुनिया की कल्पना करता है जिसका कभी अंत न हो ।
प्लेटो द्वारा आत्म और भौतिक दुनिया के विभाजन से लेकर पितृसत्तात्मक पश्चिमी दर्शन और धर्म ने स्त्री एवं प्रकृति दोनों पर अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए वर्चस्वशाली भाषा और विज्ञान का उपयोग किया । एड्रिएन रिच ने स्त्री एवं प्रकृति को सबसे असाधारण गैर-काल्पनिक गद्य कहा जो समकालीन महिला चेतना के मैट्रिक्स में विलीन हो गया है । कैरोलिन मर्चेंट ने द डेथ ऑफ नेचर में पारिस्थितिकी आंदोलन की दृष्टि से एक स्त्रीवादी सिद्धांत विकसित किया । उनकी स्थापना थी कि कैसे वैज्ञानिक युग के पूर्व प्रकृति के प्रति शिष्टता और सम्मान की भावना को बनाकर रखा गया था एवं प्रकृति के साथ स्त्री और जीवन देने वाली विशेषताओं को जोड़ा गया था । फ्रांसीस बेकन और डेसकार्टेस जैसे आधुनिक विज्ञान के पिता के पहले स्त्री एवं प्रकृति से जुड़े मूल्यों का सम्मान किया जाता था लेकिन जैसे-जैसे विश्वदृष्टि अधिक यांत्रिक और वैज्ञानिक हुई वैसे-वैसे स्थापित पदानुक्रमों के साथ प्रकृति एवं स्त्री पर स्वामित्व की भावना मजबूत होती चली गई । उनका इरादा इस बात की वकालत करने का नहीं था कि स्त्रियां उस ऐतिहासिक पहचान के अनुसार पोषणकर्ता की भूमिका को फिर से स्वीकार करें, बल्कि उनका जोर इस बात पर था कि स्त्री एवं प्रकृति से जुड़ी छवियों के मूल्य की पुनः समीक्षा की जाए । इस नयी विश्वदृष्टि और सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के बीच शुरू हुए आर्थिक-वैज्ञानिक परिवर्तन के पीछे कुछ प्रमुख विचार हैं जो स्त्री और प्रकृति के संबंध को स्पष्ट करते हैं ।
फ्रांसिस बेकन के अनुसार एक आदमी के स्वभाव को तब तक अच्छी तरह से नहीं जाना जा सकता है जब तक उसका परीक्षण न किया जाए । जैसे प्रोटीस ने कभी आकार नहीं बदला है जब तक उसे तंग न किया जाए । अर्थात प्रकृति खुद को परीक्षणों और कष्टों से गुजरने की प्रक्रिया में अधिक स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करती है । सोलहवीं शताब्दी में यूरोपीय लोगों के लिए प्रकृति समाज और ब्रह्मांड को एक साथ जोड़ने वाली मूल तत्व थी लेकिन सत्रहवीं शताब्दी तक आते-आते मुख्य समस्या क्रम की हो गई । सत्रहवीं शताब्दी से मानव समुदाय द्वारा प्रकृति को एक अव्यवस्थित व्यवस्था के रूप में देखा जाने लगा जिसपर भरोसा नहीं किया जा सकता था । हालाँकि इसने हमारा पोषण किया लेकिन उसके साथ ही इसने अकाल और प्राकृतिक आपदाओं को भी पैदा किया । यूरोप में जो मातृत्व प्राप्त कर चुकी स्त्रियां थीं ,उन्हें एकल स्त्रियों की तुलना में अधिक सम्मान दिया जाता था । प्रजनन की प्रक्रिया पर वैज्ञानिक शोध के माध्यम से पुरुष प्रजातियों को श्रेष्ठ मानते हुए शुक्राणुओं को अंडाणुओं से बेहतर माना जाता था ।
सामाजिक पर्यावरणवादी जेनेट बेजल ने स्त्री और प्रकृति के बीच रहस्यमय संबंध पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करने और स्त्रियों की वास्तविक स्थिति पर पर्याप्त ध्यान नहीं देने के लिए पर्यावरणीय स्त्रीवाद की आलोचना की। उनका मानना था कि यह सिर्फ सिद्धांत नहीं बल्कि एक प्रगतिशील आंदोलन है जो सीधे-सीधे स्त्रियों के जीवन से से संबंधित है । अगर हमें जीवित रहना है तो अर्थव्यवस्था को जरुरत आधारित ,पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ , सहकारी और स्थानीय बनाना पड़ेगा । वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था स्वाभाविक रूप से अस्थिर है जो हाशिए के विभिन्न समूहों विशेष रूप से स्त्री एवं पर्यावरण के शोषण पर आधारित है । वे इसके विक्ल्प के रूप में एक नयी राजनीति और अर्थशास्त्र का आह्वान करती हैं । वे वर्तमान किसान अर्थव्यवस्था का वर्णन करती हुई दिखाती हैं कि कैसे वे न केवल जीवित और सक्षम हैं बल्कि जीवन की आवश्यकता की दृष्टि से पर्याप्त भी हैं । जीवन को क्रूरतम पूंजीवादी तरीके से जीने की बजाए कृषि उन्मुख समाज में जीना ज्यादा बेहतर है । विकास की राजनीति में ऊपर से नीचे की विचारधारा का एक वर्चस्वकारी विचार है । हाल के वर्षों में रोज़मेरी रैडफोर्ड रूथर ने पर्यावरणीय संकट, धर्म और स्त्रीवाद की भूमिकाओं के बारे में तीसरी दुनिया की स्त्रियों के दृष्टिकोण को तलाशने का प्रयास किया है । वह लैटिन अमेरिका, एशिया और अफ्रीका के संदर्भ को स्त्रियों के निहितार्थों के साथ प्रस्तुत करती हैं । जब स्त्रियां पारिस्थितिक विषयों पर चिंतन करती हैं तो सबसे महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि यह है कि यह प्रश्न जीवन और मृत्यु के मामलों से संबंधित हैं न कि सिद्धांतों या आंकड़ों से ।
उदारवादी पारिस्थितिक स्त्रीवादियों के लिए पर्यावरणीय समस्याएं प्राकृतिक संसाधनों के तेजी से दोहन के साथ-साथ कीटनाशकों और अन्य पर्यावरण प्रदूषकों के विनियमन की कमी का परिणाम हैं । इसे एक ऐसे सामाजिक उत्पादन से दूर किया जा सकता है जो पर्यावरण के अनुकूल हो । इसके लिए बेहतर विज्ञान, संरक्षण और कानूनों की जानकारी की जरूरत है । समान शैक्षिक अवसरों के साथ, स्त्रियां पुरुषों की तरह वैज्ञानिक, प्राकृतिक संसाधन संरक्षक, वकील आदि बन सकती हैं ।
पर्यावरणीय स्त्रीवाद की आलोचना
1.पर्यावरणीय स्त्रीवाद स्त्री एवं प्रकृति के ऐतिहासिक शोषण और वर्चस्व को एक साथ चित्रित करता है और दोनों को विकास के शिकार के रूप में प्रस्तुत करता है । सैद्धांतिक रूप से यह मानता है कि प्रकृति का कोई भी नुकसान स्त्रियों को समान रूप से नुकसान पहुंचाता है, क्योंकि स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में प्रकृति से निकटता से जुड़ाव होता है परंतु कोई भी पारिस्थितिक स्त्रीवादी यह तर्क मजबूत रूप से इसे स्थापित कर पाने में विफल रही हैं ।
2.यह विचारधारा आर्थिक लाभ और राजनीतिक शक्ति पर आधारित प्रभुत्व के परस्पर संबंधित भौतिक स्रोतों के साथ-साथ श्रम के लिंग विभाजन और स्त्रियों के लिए अवसरों की उपलब्धता जैसे महत्वपूर्ण बिन्दुओं की अनदेखी करता है । स्त्रियों की ये छवियां वास्तव में पुरुषों से स्त्रियों की अपेक्षा की पितृसत्तात्मक रूढ़िवादिता को बरकरार रखती है ।
3.यह विचार स्त्रियों की मानवीय क्षमताओं की पूरी श्रृंखला का विस्तार करने की बजाय स्त्रियों को केवल देखभाल और पोषण करने वाले प्राणी के रूप में ही देखता है । पृथ्वी की तरह ‘पोषणकारी’ का स्त्रियों के लिए रूपकों का उपयोग स्त्रियों को मुक्त करने के बजाय प्रतिगामी है ।
4.इन तर्कों से जिस चीज की अनदेखी होती है, वह है प्रकृति, संस्कृति तथा लिंग संबंधी अवधारणाएं जिनकी निर्मिति ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से भिन्न -भिन्न होती हैं । यह अनिवार्यता स्त्रियों को एक सजातीय श्रेणी के रूप में प्रस्तुत करती है जिसके कारण वर्ग, नस्ल, जातीयता आदि के आधार पर स्त्रियों के बीच अंतर को रेखांकित करना मुश्किल हो जाता है ।
5.पर्यावरणीय स्त्रीवाद का अनिवार्यतावाद समाज में ऐतिहासिक परिवर्तन के किसी भी घटनाक्रम को प्रस्तुत करने में विफल रहा है । प्रकृति और स्त्रियों के विशेष संबंधों पर जोर देने का अर्थ यह है कि पुरुष पृथ्वी पर जो भी करते हैं वह स्त्रियों के लिए अहितकर है जिससे इस तथ्य की अनदेखी होती है कि पुरुष भी प्रकृति की देखभाल करने की नैतिकता विकसित कर सकते हैं।
6.यह पूंजीवाद और प्रकृति पर उसके प्रभुत्व का विश्लेषण करने में भी विफल रहा है । इसलिए यह सामाजिक परिवर्तन के लिए एक प्रभावी रणनीति विकसित नहीं कर पाया है, क्योंकि यह दो श्रेणियों को अनिवार्य करते हुए पुरुषों और स्त्रियों की दुनिया के ध्रुवीकरण पर समाप्त होता है।
7.समाजवादी ढांचे के भीतर काम करने वाली पर्यावरणीय स्त्रीवादी, प्रकृति को सामाजिक रूप से निर्मित, नस्ल, वर्ग और लिंग के विश्लेषण में निहित तत्व के रूप में देखते हैं । इसमें वर्चस्व के मुद्दे की अधिक गहन आलोचना करने की क्षमता है । पर्यावरणीय स्त्रीवाद पूंजीवादी पितृसत्ता की आलोचना को सामने रखता है, जो उत्पादन और प्रजनन और उत्पादन और पारिस्थितिकी के बीच के द्वंद्वात्मक संबंधों पर ध्यान केंद्रित करता है ।
8.प्रसिद्ध पार्यावरणीय स्त्रीवादी चिंतक वंदना शिवा के तर्कों की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि उन्होंने उत्तर-पश्चिमी भारत में ग्रामीण स्त्रियों के अध्ययन तीसरी दुनिया की सभी स्त्रियों के विश्लेषण के लिए सामान्यीकृत किया है । वे एक ऐसे समाज की कल्पना करती हैं जो लोकतांत्रिक रूप से संगठित है और जहाँ सभी के पास अपनी उपज पर जीवित रहने के लिए पर्याप्त भूमि है । वह जातिगत कारकों और राजनीतिक विकल्पों को अस्तित्वहीन मानती हैं और पारंपरिक आदिवासी और किसान समुदायों के भीतर पदानुक्रम, अधीनता, पितृसत्ता और हिंसा की वास्तविकताओं की उपेक्षा करती है।
9.वह तीसरी दुनिया की स्त्रियों को अनिवार्य रूप से प्रकृति के साथ करीबी रिश्ते में देखती हैं । इसके अलावा उनके लेखन में शक्ति और प्रकृति की धारणाओं को समग्र रूप से भारतीय दर्शन के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया गया है और वे पर हिंदू धर्म के शब्दों में स्त्री एवं प्रकृति के संबंध को अधिक व्यक्त करती हैं । जो सांख्य दर्शन के करीब हैं और मुख्य रूप से उत्तर भारत में लोकप्रिय है । दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के संदर्भ में स्त्री एवं प्रकृति के रुपकों का प्रयोग नहीं हुआ है ।
10.पर्यावरणीय स्त्रीवाद पुरुषों और स्त्रियों के बीच सख्त द्विभाजन का पालन करता है । कुछ पारिस्थितिकी विज्ञानी आलोचकों ने ध्यान दिया कि – पुरुषों ,प्रकृति और संस्कृति के बीच द्वंद्ववाद एक द्वैतवाद पैदा करता है जो बहुत कठोर और स्त्री एवं पुरुष के मतभेदों पर केंद्रित है । इस अर्थ में, पारिस्थितिकतावाद भी गैर-जरूरी दृष्टिकोण के बजाय प्रकृति की सामाजिक स्थिति के साथ स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को दृढ़ता से सहसंबंधित करता है, जिसमें प्रकृति के साथ-साथ स्त्रियों के पास मर्दाना और स्त्रैण दोनों गुण मौजूद हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पर्यावरणीय स्त्रीवाद अपनी दार्शनिक प्रस्थापनाओं को स्त्री एवं प्रकृति के संबंध में विविध दृष्टिकोणों से प्रस्तुत करता है । पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में कार्य करने वाली स्त्रीवादी कार्यकर्ताओं तथा लेखिकाओं ने पर्यावरण, पर्यावरणीय क्षरण तथा उसके संरक्षण में स्त्रियों की भूमिका को न सिर्फ दृश्यमान किया है बल्कि उनकी सार्थक भागीदारी की अनिवार्यता को भी रेखांकित किया है । समय के साथ-साथ पर्यावरणीय स्त्रीवाद ने अन्य मुद्दों के प्रति भी एकजुटता दिखाई है और उसके लिए अहिंसक प्रतिरोध का मार्ग चुना है । हालांकि, पर्यावरणीय स्त्रीवाद की अपनी सीमाएं हैं जिसके लिए उसकी आलोचना भी हुई है । बावजूद इसके, पर्यावरणीय स्त्रीवाद धरती पर मनुष्य जीवन को बचाए रखने तथा पशु, पक्षी, पेड़-पौधों से धरती को हरा-भरा एवं जीवंत बनाए रखने के लिए लगातार प्रयासरत है।


 

डॉ सुप्रिया पाठक स्त्री विमर्श के सैद्धांतिक पक्ष, स्त्रीवादी साहित्य आलोचना, सिनेमा, दलित स्त्रीवाद पर लगातार गंभीर लेखन एवं शोध कर रही हैं. संप्रति : एसोसिएट प्रोफेसर, स्त्री अध्ययन विभाग, महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, क्षेत्रीय केंद्र प्रयागराज.

 


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