जाने कहाँ से वे सब के सब एकसाथ नमूदार हुए और गली-गली अपना हुनर दिखाने में मशगूल हो गये थे। दिखने में बहुत ही साधारण, किंतु गज़ब के कारीगर। औरत, मर्द, बच्चों की शक्ल में वे इस तरह छा गये थे जैसे अरसे से इस इलाके की हर नब्ज़ अच्छी तरह पहचानते हों।
सर्दी इस कदर थी कि घरों के भीतर बैठे-बैठे भी हम लोगों के हाड़ कांप रहे थे और वे थे कि चलते पानी के बीच भी नालियाँ ऊँची करने में लगे थे। मोज़े न जूते, सामान्य चप्पलों में पैंट-पाजामों का पहुंचा ऊंचा किए वे ईंटें उठा-उठा कर ला रहे थे। मसाला बना रहे थे। मांग-मांग कर घरों से पानी इकट्ठा कर रहे थे। ऊंची आवाज़ों में वे जैसे ठंड को भगा रहे थे और एक-दूसरे का उत्साह प्यारभरी गाली-गुफ़्तार के साथ बढ़ाने में लगे थे।
गली में अचानक हुई उनकी आमद से स्थानीय लोग भौंचक थे। उन्हें इस तरह देख रहे थे जैसे वे किसी दूसरे ग्रह से धरती पर उतर आये हों।
सुबह की पहली चाय पीने के बाद मैं भी उन आवाज़ों के खिंचाव में अपना गेट खोल कर खड़ा था। जाने कब पत्नी भी पीछे आ खड़ी हुई थी। उसने मेरे कंधे पर हथेली दबाकर भरपूर हैरानी से सवाल किया- ‘‘इनके बच्चों को तो देखो ज़रा! क्या इन्हें सच में ठंड नहीं लगती होगी?’’
पत्नी के सवाल का जवाब देने के बजाय मैं उन खेलते हुए बच्चों को देखने लगा जो बमुश्किल साल भर से पांच साल के बीच की उम्र के होंगे। नंगे पांव नंगी और ठंडी ज़मीन पर वे इस तरह बेफिक्र खेल रहे थे जैसे गर्मियों का मौसम हो। वे आपस में लड़ रहे थे, बतिया रहे थे, दौड़ लगा रहे थे, ईंट उठाकर अपने लिए बिछौना बनाने की कोशिश में थे और आती-जाती साइकिलों, स्कूटर, मोटरसाइकिलों से बचने की कोशिश में लगे अलग ही किस्म का उत्साह भरा शोर पैदा कर रहे थ्े।
एक बहुत छोटा बच्चा दौड़ में पीछे छूट जाने की वज़ह से रोने लगा था और रुआंसी आवाज़ में ही अपनी मां को पुकार रहा था। माँ दूर थी और उसके सर पर मसाले का तसला रखा हुआ था। उसने बोली पगी ज़बान में बच्चे से कुछ कहा और मसाला मिस्त्री के पास पटककर उसकी तरफ भागी। उसने उसे एक हाथ में लटका कर एक घर की सीढ़ी पर बिठा दिया और फिर वहीं बैठे रहने की हिदायत दी और उसकी बड़ी बहन को डांटते हुए कहा- ‘‘मात्ते-मात्ते तेरो मुंह लाल कद्दऊंगी…।’’ मां के अपने काम पर लौटते ही बच्चा एहतियात से सीढ़ी से उतरा और गिरते-गिरते बचने के बावजूद पूरे उत्साह से साथ के दूसरे बच्चों के गोल में फिर जा मिला।
हमारी नज़र उस गोल पर टिकी थीं कि मिश्रा जी की आवाज़ ने हमें चौंका दिया- ‘‘पेपर ले लीजिए…’’ और कोई दिन होता, तो मिश्रा जी पेपर जंगले में फंसाते, साइकिल की घंटी बजाते और निकल लेते। बंद दरवाजों को भेदती उनकी घंटी की आवाज़ ही बता देती कि अखबार आ गया है।
मिश्रा जी की बात को अनसुनाकर मैं अब भी उन बच्चों की मस्ती में खोया था और पत्नी वहीं खड़े-खडे़ अखबार पर नज़र मारने लगी थी। अचानक जाने उसे क्या हुआ, उसने मेरा हाथ पकड़ा और खींचते हुए भीतर ले जाने लगी- ‘‘न टोपी न मफलर, यूं ही चले आये बाहर। चलो अंदर, जानते हो चार से भी नीचे हो गया है टैम्प्रेचर!’’
न चाहते हुए भी मैं पत्नी के साथ भीतर तो चला आया, पर पत्नी का अनुत्तरित सवाल अब भी मुझसे चिपटा हुआ था- ‘क्या इन्हें सच में ठंड नहीं लगती होगी?’ मैं सोच रहा था कि एक तरफ तो पत्नी यह सवाल कर रही है और दूसरी तरफ मुझे ठंड से बचाने में लगी है।
‘‘तुम अब नाश्ता करो, दवाई खाओ और फिर धूप आने तक चुपचाप कंबल ओढ़कर पड़े रहो।’’ यह आदेशात्मक स्वर सुनकर वैसा ही करता हुआ भी मैं मन ही मन गली में घूमता रहा। मुझे याद आया, बचपन में जब हम पहाड़ के अपने घर के पथरीले आंगन में सर्दी की परवाह किए बगैर पिट्ठू खेलने में मस्त रहते थे, तब बड़बाजू चिलम पीकर धुंआ उड़ाते हुए अपने दगड़ुओं से कहते- ‘बच्चों का जाड़ा पत्थरों में घुस जाने वाला हुआ कहा। इन्हें सर्दी जो क्या लगने वाली हुई।’’ जाने कब से चली आ रही यह उक्ति तो पहाड़ के बच्चों के लिए थी। लेकिन ये बच्चे न तो पहाड़ से आये हैं और न ही यह कोई पहाड़ी इलाका है। और फिर दिल्ली शहर भी ऐसा, जिसका न अपना कोई मौसम और न कमी सर्दी-गर्मी-बरसात की कोई गारंटी।
‘‘पापा, आज डाक्टर साहब से बात करके तुन्नू की दवाई ज़रूर ले आइएगा! लगता है, कल शाम से इसे सर्दी लग गई है…’’ बहू के स्वर में आत्मीय फिक्र घुली हुई थी।
‘‘ठीक है। ले आऊंगा।’’ मैंने कह तो ज़रूर दिया, लेकिन बच्चों और बच्चों के बीच जाने कहां से एक तुलनात्मक अध्ययन खुद-ब-खुद आ बिराजा था!
मैं सोच रहा था- एक वो बच्चे हैं, एक हमारे बच्चे हैं! तभी गली से एक बच्चे के रोने की आवाज़ सुनाई दी- ‘‘मम्मी, भूख लग रई है…’’
‘‘अबई हाल तो बिस्कुट खाए हैं!’’
‘‘बे तो कब के खतम है गये!’’
मैं यह संवाद सुन रहा हूं और पत्नी पोलिथीन की थैली में लाई के लड्डू लिए रसोई से निकल आई है- ‘‘ज़रा ये लड्डू दे आऊं। बच्चा भूखा लग रहा है!’’
लड्डू हैं। बच्चा है। बच्चे हैं, लड्डू हैं। बच्चे खा रहे हैं, पत्नी खुश है। बच्चों के मां-बाप दूर काम करते हुए उन्हें तृप्त भाव से देख रहे हैं।
‘‘तुमने देखा, कैसे नंगे पैर खेल रहा है इतना छोटा बच्चा!’’
‘‘हूं!’’
‘‘ज़रा देखो तो, तन्नू के छोटे हो गए जूते-चप्पल कहीं पड़े हों तो इसके काम आ जाएंगे न!’’
बहू ने हमारी बातें सुन ली हैं। कुछ ही देर बाद वह छोटे-छोटे जूते-चप्पलें लेकर हाज़िर है- ‘‘लो पापा, ये उन्हें दे दो!’’
‘‘अरे तुम्हीं दे दो न। खुश हो जाएंगे।’’
‘‘ले बेटा ऽऽऽ’’ बहू की आवाज़ है। उसके जवाब में दौड़ते हुए बच्चे हैं। जूते-चप्पल देखकर वे ठिठक गए हैं। शायद उन्हें किसी खाने की चीज़ की उम्मीद थी।
‘‘लै लो बेटा। पहरबे के काम आ जांगे।’’ मां दूर से बच्चों को नसीहत दे रही है।
चप्पलें-जूते पाकर बच्चों में खींच-तान शुरू हो गई है।
‘‘जे मेरा है… जे मैं पहरूंगा… जे मोय दै दे!’’ चप्पलें बड़े बच्चे के पैर में आ गई हैं। जूता छोटे के पांव से बड़ा है। वह उदास हो गया है। उसने रोना शुरू कर दिया है। मां उसे समझा रही है- ‘‘रो मत, तोय और मिल जांगे।’’
इलाके में अचानक विकास के नाम पर नालियां ऊंची की जा रही है। जितनी ऊंची नाली, उतनी ऊंची गली। जितनी ऊंची गली, उतने नीचे होंगे मकान। जिनके मकान ऊंचे हैं, वे खुश हैं लेकिन जिनके नीचे हैं, वे परेशान हैं। हर बार गली ऊंची होती रहेगी, तो क्या बार-बार कोई तोड़कर मकान बनवाएगा! जिंदगी में आखिर कितनी बार मकान बनवा सकता है कोई! गली शोर से भर गई है। कोई कहता है- ‘गली ऊंची करो, कोई कहता है- ‘सीवर का पाइप सालों पहले पड़ा था, उससे कनेक्शन क्यों नहीं जोड़ते? बार-बार का ये स्याप्पा ही न खत्म हो जाये।’’
सचमुच, जितने मुंह उतनी बातें हैं। तभी एक आवाज़ आती है- ‘बस इस बार ऊंची होगी, फिर कभी ऊंची नहीं होगी गली।’
‘क्यों, फिर क्या इलाके को सुरखाब के पर लग जाएंगे?’
‘वो क्या होते हैं, ये तो हम नहीं जानते। पर इस बार ए ब्लॉक के सीवर कनेक्शन दिए जा रहे हैं। जिसका घर ए ब्लॉक में आता है, वो बिजली-पानी का बिल दिखा दे और सीवर कनेक्शन करवा ले। अभी सिर्फ कनेक्शन मिलेगा, फिर जल्द ही जुड़ भी जाएगा।’
‘और जो बी और सी ब्लॉक में आते हैं, उनका क्या होगा?’
जवाब देने वाला तो खामोश है, लेकिन पीछे से आवाज़ आती है- ‘वे अगले इलेक्शन में देखे जाएंगे जी।’
‘ये कौन बोला बे?’ एक आवाज़।
सब खामोश हैं।
लोग घरों से निकल आए हैं- ‘जोड़ना है, तो एक साइड से गली में सबके कनेक्शन क्यों नहीं जोड़ते!’
जवाब में एक लड़का सामने हो आया है- ‘देखो जी, हमारे पास ए ब्लॉक का ऑर्डर है। ऑर्डर के बाहर हम कुछ नहीं कर सकते।’
‘तो ये बता कि बी ब्लॉक के कई घरों में सीवर कनेक्शन कैसे जोड़ दिया!’
‘वो तो जी लोगों ने पिराइवेट जुड़वा लिया है। हम तो खाली बाहर से कनेक्शन दे रहे हैं। जोड़ने का काम अगले ऑर्डर पे होगा।’
भीड़ हैरान है। भीड़ परेशान है। जिस इलाके में काम होता है, वहां के लोगों से क्यों नहीं पूछा जाता? ये कोई सरकारी कॉलोनी है कि सारे ब्लॉक अलग-अलग कटे हों। जिसका जो जी किया, रख लिया मकान का नंबर। ऐसे में कनेक्शन का काम इलाकावाइज़ होना चाहिए कि कागजी ब्लॉक की मक्खी पे मक्खी बिठाते रहोगे! ‘आप खुद ही देख लो। ये शर्मा जी का ए ब्लॉक है और इनकी बगल में सक्सेना साहब का बी ब्लॉक में है। सारे के सारे नंबर ऐसे ही पड़े हैं। तो क्या अभी गली पक्की करके दो महीने बाद फिर बी ब्लॉक के लिए खोदेंगे! फिर उसके दो महीने बाद इसी इलाके में सी ब्लॉक के लिए होने लगेगी रोड कटिंग!’
‘सरकारी ऑर्डर है जी, हम कुछ नहीं कर सकते।’ लड़के ने हाथ खड़े कर दिये हैं।
लोग नाराज़ हैं। लोग भुनभुना रहे हैं। कोई चुपके से आकर कह रहा है- ‘परेशान क्यों होते हो जी, आप भी कुछ दे-दिवाकर कनेक्शन ले लो। जेब में पैसा पहुंचा नहीं कि ब्लॉक का लफड़ा खत्म समझो।’
‘क्यों, मैं क्यां ले लूं! मेरे ब्लॉक वाले बाकी लोगों का क्या होगा? मैं कनेक्शन ले लूंगा अकेले तो क्या ये अच्छा लगेगा?’ सुनने वाला तैश में आ गया।
गरमागरमी बढ़ ही रही थी कि अचानक नाली बनाने वाले मिस्त्री की तेज आवाज़ ने सबको चौंका दिया- ‘‘अजी साहब, जे नाली का पानी तो रोको भीतर से… सगरा सीमेंट बहा जा रा है।’’
जिस घर से पानी आ रहा था, बाहर खड़ा उसका मालिक चिल्लाया- ‘‘अरे पानी बंद करो, दिखता नहीं काम चल रहा है!’’
आवाज़ पहचानकर घर की मालकिन निकल आयी है, ‘‘पानी तो बंद कर देंगे, लेकिन जब काम शुरू करना हो तो कम से कम आधा घंटा पहले बता तो दिया करें ये लोग!’’
मिस्त्री पर आ गई बात उसकी मजदूर पत्नी को बर्दाश्त नहीं हुई, ‘‘च्यों तुमैं दिख नाय रओ कि झां नाली का काम चल रओ है!’’
‘‘अरे दिख तो अब रहा है। मैं जो कह रही हूं, वो भी तुम सुनोगी कि नहीं!’’ स्थानीय रौब लिए अपनी तेज़ आवाज़ में घर की मालकिन ने डपटने की कोशिश की।
मजदूरन भला क्यां दबती- ‘‘अब दिख गओ कि नाय! अब तलक पानी आ रओ है!’’
पाइप में प्रवेश कर चुके पानी को भला कौन बाहर निकलने से रोक सकता था! घर की मालकिन चुप है। मजदूरन बड़बड़ाए जा रही है- ‘‘जे सब पढ़े-लिखे लोगन के चोंचला हैं। दो ईंट लगावे को कह दो, फिर देखो…’’
घर के मालिक ने हाथ जोड़ दिए हैं और पत्नी से भीतर चले जाने का आग्रह किया है- ‘‘चलो अब और पानी नहीं आयेगा भई, माफ कर दो। गलती हो गई, ठीक है! बस अब चुप हो जाओ…।’’
सीवर कनेक्शन पीछे रह गया है। स्थानीय गर्व की सुरक्षा आगे आ गई है।
‘ज़रा-सी बात सहन करने की ताकत नहीं रही साहब अब इंसान में!’ किसी ने कहा।
‘मुंह पै गंदा पानी आ रओ है, जा जरा-सी बात है का? जाने कहां-कहां को पानी है!’ मिस्त्री झल्लाकर आक्रामक मुद्रा में उठ खड़ा हुआ।
‘अरे यार, प्यार से बात करो न! ज़रा-ज़रा-सी बात पर लड़ने को उतारू हो जाओगे क्या!’ कोई समझा रहा है।
तनाव है। खीझ है। नाली है। सीवर है। ऊटपटांग विकास का सिलसिला है। छंटती हुई भीड़ है। कम होती आवाज़ें हैं। बिजली-पानी के बिल हैं। सीवर कनेक्शन है। नाली का काम है। काम की रफ़्तार है। मसाला है। ईंटें हैं। मजदूर हैं। मजदूरन हैं। बच्चे हैं। उनके अपने ईजाद किए खेल हैं। अपना पैदा किया उत्साह है।
उत्साह है काम का भी। जो लोग कभी बाहर नहीं दिखते थे, वे भी गली में आ खड़े हुए हैं। बाहर से आदमी खुद को कितना भी अलग रखना चाहे, भीतर का भाव उसे सामुहिकता के प्रवाह में बांध ही देता है। इलाके के लोग आपस में बतियाते हुए भी, मज़दूरों के काम करने की चाल देखकर चकित हैं। उनकी बातें बता रही हैं कि वे उनके बारे में जानने को उत्सुक हैं।
‘‘ये लोग राजस्थान के लग रहे हैं।’’ एक आवाज़।
‘‘अजी नहीं, राजस्थान के तो कतई नहीं। न वो कपड़े न बोली। मुझे तो ये झांसी साइड के लगते हैं।’’ दूसरी आवाज़।
‘‘झांसी के ना भी हों, बुंदेलखंड के तो हैं ही।’’ एक जानकार का दावा।
जानकार की बात सुन अब तक अपने में मगन मिस्त्री का हाथ रुक गया है। नाराज़ हो गई मजदूरन आवाज़ की तरफ देखने लगी है। उसके साथ दो-तीन मजदूर स्वर उभरते हैं- ‘‘झांसी साइड सेई हैं ज्यादातर। रोटी जहां खींच लै जाय…’’
स्थानीय लोगां में कुछेक की रिश्तेदारी झांसी की तरफ की जाहिर हो रही हैं। कोई झांसी के गुणगान में लगा है। कोई अपने वालों को याद कर रहा है। कोई जानकारी का बखान कर रहा है- ‘‘बड़ी खूबसूरत जगह है साहब। घूमने जाओ तो पूरा एक महीना चाहिए। ऐतिहासिक शहर है झांसी। शहर का शहर, कस्बा का कस्बा। पुराना का पुराना, नया का नया।’’
तभी इलाके की झांसी वाली सचमुच सामने हो आयी हैं। रोज़ नियम से मंदिर जाती हैं दोनों बख़त। कोई छेड़ भर दे, फिर देखो उनका झांसी पुराण।
‘‘हमाए झांसी में तो घर-घर मंदिर मिलंगे। इत्ते पुराने कि जाने कब से हैं!’’
‘‘अरे हां, एक बार हम भी गए थे मिलने किसी से। बाजार कित्ता घना है पुरानी झांसी का। पैदल चलने तक को जगह ना मिले। दुबे जी का घर ढूंढ़ते-ढूंढ़ते आगे निकल गए थे हम तो। किसी ने नाम पूछा, तो फिर घर तक पहुंचा के ही माना। उनके यहां भी तो तीन सौ साल पुराना बजरंगबली का मंदिर था। हम लोगों के पहुंचने की वजह से कपाट खुले रखे थे। कैसे जाते ही दर्शन कराये थे उन्होंने।’’
‘‘मंदिर जिस घर में हो, समझ लो उसका सारा काम-काज मंदिर के हिसाब से ही चलैगा। मंदिर के नियम-पालन में कोई कोताही नहीं की जा सकती।’’
‘‘हां जी, जे आपने बिलकुल सही कहा।’’
मिस्त्री की चलती कन्नी अचानक रुक गई है। वह तरल आंखों से इलाके के लोगों को देख रहा है- ‘‘हमारा इलाका ऐसाई है जी। आप झांसी, गरौठा, मऊ, तहरौली, बबीना, बरुआसागर, ओरछा तक कहीं निकल जाओ, घूमते-घूमते थक जाओगे पर एक के बाद एक जगह देखने को निकलती ही चली जाएगी।
‘‘क्यां हम ओरछा गए नहीं थे! कितनी खूबसूरत जगहें थीं! घूमते-घूमते मोहित हो जाए इंसान।’
‘‘गए तो थे। पर राज्य बदल गया था। वहां पहुंच कर तो हम मध्य प्रदेश में थे। पर ऐसा कोई फर्क कहां नज़र आया था! वही संस्कृति, वही लोग! बस राम वहां राजा बन गए हैं।
धूप है, काम की गति है, प्राकृतिक खेल खेलते बच्चे हैं और अपने इलाके की बातों पर कान धरे मजदूर हैं। हाथ काम पर लगे हैं, कान और ज़बान अलग जा पहुंचे हैं।
‘‘जे बात सही कही आपने। राजा राम के बगैर किसी घर कोई मंगल काज नहीं होता। हर जगह से हमेशा पहला निमंत्रण उन्हीं को जाता है। अजब कहानी है जी उस मंदिर की भी। कहते हैं रानी गणेश कुंवर मंदिर की मूर्ति को अयोध्या से लेकर आई थीं। सोचा था, उसे चतुर्भुज मंदिर में स्थापित करेंगी, सो कुछ वक्त के लिए उसे महल में ही स्थापित कर दिया गया। मंदिर बनकर तैयार हुआ, तो मूर्ति को कोई हिला तक नहीं पाया। बस, फिर क्या था, महल को ही मंदिर में तब्दील कर दिया गया। तभी से उस महल को लोगों ने राजा राम का मंदिर कहना शुरू कर दिया…।’’ नाली बना रहा मिस्त्री पूरे उत्साह में कहानी सुना गया। कौन होगा भला इस धरती पर जो अपने इलाके से लगाव न रखता हो!
यह वही मिस्त्री है जो कुछ देर पहले लड़ने को खड़ा हो गया था। उसकी पत्नी अब पास आकर बातचीत में हिस्सेदारी कर रही है- ‘‘आप गए हो जी वहां?’’
‘‘हां। हम दोनों गए थे।’’ पत्नी बता रही है।
बातां-बातों में सारे शिकवे खत्म हो चले हैं। मिस्त्री की मजदूरन पत्नी कह रही है- ‘‘अब शाम तक पानी मत चलैयो। इसके बाद इस्तेमाल किया पानी बाल्टी से बीच नाली में डाल दीजो। पिलास्टर खराब नहीं होगा।’’
बातचीत कुछ आगे बढ़ती कि बीच में ही मिस्त्री का बेटा रोता हुआ आ गया है- ‘‘उनने मेरी गाड़ी तोड़ दई।’’
किसी बच्चे ने उसकी बनाई गाड़ी पर पैर मारकर उसे तोड़ दिया है। टिफिन के डिब्बे में डोर बांधकर बनाई उसकी गाड़ी में रेत भरी थी। रेत को वह पिता तक पहुंचाना चाहता था। उसका यह खेल आसपास के देखने वाले बच्चों से बर्दाश्त नहीं हुआ।
मजदूर-मिस्त्री के बच्चों के खेल भी उनके मां-बाप के काम-काज जैसे ही हैं। कोई कन्नी ले कर दौड़ रहा है तो कोई फावड़ा उठाने की कोशिश में है। कोई ईंट पर ईंट बिठा रहा है तो कोई मसाला बनाने की कोशिश कर रहा है।
एक छोटा बच्चा बड़े बच्चे से पूछ रहा है, ‘‘ऐ भैया, ऐ भैया! बताऔ हमारी उंगली में कितने फत्थर हांय?’’
बड़ा बच्चा उसकी बात अनसुनी कर एक आंटी के पीछे लग गया- ‘‘आंटी, हमें चीज दिवा दो!’’
‘‘आंटी रिसाय गई हैं… अब तोय कछु न देंगी।’’ छोटा बच्चा अपनी बात की अनसुनी रह जाने के जवाब में जैसे तीर-सा छोड़ता है, ‘‘कल दिन भर आंटी का गेट नाय बजायौ… रिसाय गईं आंटी। जा, अब लै ले चीज…’’
मजदूरों के कुछ बच्चे गली के गेट पर झूल रहे हैं। इलाके की कुछ महिलाएं उन्हें डांट रही हैं।
दो-एक बच्चे किसी घर का दरवाज़ा खटखटा रहे हैं। दरवाज़ा काम वाली बाई ने खोला तो वे उसी से कहने लगे- ‘‘आंटी, हमें खिलौना दे दो।’’
‘‘यहां खिलौना की दुकान खुल रई है क्या?’’ वह बड़ी मुश्किल से अपनी जान छुड़ाती है।’
तभी अचानक पूरा का पूरा सीन चेंज हो गया। मिसेज गुप्ता अपनी बेटी की तीन पहियों वाली छोटी पुरानी साइकिल ले आईं, ‘‘ले बेटा, तू ये चला!’’
मिस्त्री का बेटा पल भर तो हैरानी से मिसेज गुप्ता को देखता रहा, फिर एक झटके से साइकिल लेकर चल दिया। उसे साइकिल लेकर आता देख सारे बच्चों में खलबली मच गई। जिसे देखो, वही चलाने की ज़िद कर रहा है। जिसे मिली है साइकिल, वह उस पर अपना हक समझ कर किसी को पास फटकने तक नहीं दे रहा।
तनातनी है। छीना-झपटी है। हाथापाई है। झगड़ा है। टंटा है। शोर है। बच्चों का ज़ोर है। साइकिल एक, ड्राइवर अनेक।
‘‘ऐसा करो, तुम सब बारी-बारी से चलाओ। ठीक है!’’ मिसेज गुप्ता समझा रही हैं।
‘‘पहले मैं चलाऊंगा।’’ जिसके हाथ में है, उसका दावा है।
‘‘नहीं, पहले मेरा नंबर है।’’ एक लड़की आगे आने को आतुर है।
‘‘देखो, झगड़ा करोगे न, तो फिर मैं साइकिल रख दूंगी अंदर। सब मिल के खेलो। एक-एक कर चलाओ साइकिल। समझ गए!’’
कई बच्चों के सर एक साथ इस तरह सहमति में हिल रहे हैं जैसे जाने कब से कहा मानते चले आ रहे हों।
लोग फुसफुसा रहे हैं। इशारे हो रहे हैं। शिकायत है, पर करें किससे? भड़ास निकाली जा रही है- ‘‘कल शाम के झुटपुटे में देखा नहीं, कैसे बड़ी चतुराई से सरकारी रेत-सीमेंट भरवा के ले गया था वो। मजदूरों का क्या है, सरकारी सामान से जो चाहे बनवा ले! उनकी तो मुट्ठी गरम होनी चाहिए!’’
‘‘किसकी बात कर रहे हो?’’
‘‘अरे वही, जो सरकारी माल पे ऐश करना जानता है। सारे इलाके के सीवर कनैक्शन तो बाद में होंगे, उसने पहले ही करवा लिए। जिसमें हो दम, वो रोक के दिखाए!’’
‘‘अरे सब मिलीभगत है। ऐसे लोगों की वज़ह से सारा इलाका बदनाम होता है। ब्लॉक का लफड़ा तो बस भोले-भालों के लिए है।’’
‘‘बदनामी और मशहूरी तो आप देखो जी, हम तो यू जाणैं कि चुप मार के रहोगे तो ऐसेई लोग ऐश करते रहेंगे देख लैणा।’’
मिस्त्री चुप है। मजदूर-मजदूरिन खामोशी साधे अपने-अपने काम में लगे हैं। उन्हें जैसे अब किसी से कोई मतलब ही नहीं। जो हुकुम है ठेकेदार का, सो बजा रहे हैं। जानते हैं, लोकल लफड़े में फंसने से कुछ का कुछ हो जाता है।
तभी किसी ने पूछा, ‘‘अरे भई, ये ठेकेदार गया कहां?’’
‘‘किसी का बिल और आई डी लेने गया होगा!’’ जवाब जाने कहां से आया।
‘‘लो, वो रहा ठेकेदार!’’ दो-तीन लोगों के मुंह से एक साथ निकला।
‘‘चलो, ज़रा इससे बात करते हैं!’’ किसी ने कहा।
‘‘चलो-चलो।’’
सब चल पड़े हैं।
‘‘क्यों भई, ये तुम सारी की सारी गलियां एक साथ क्यों छेड़ बैठे हो? ये कोई तरीका है काम करने का! किसी को कहीं आना-जाना हो, तो कैसे करेगा?’’
‘‘जे हम क्या बताएं साहब?’’
‘‘क्यों, काम तू करवा रहा है। बताने कोई और आएगा क्या?’’
बातें है। बातों के सिरे नहीं हैं। सवाल हैं। जवाब नहीं हैं। परेशानियां हैं। समाधान नहीं हैं। रेत हैं। सीमेंट नहीं है। नाली है। टिकाऊ नहीं है। लोग खुश हैं। लोग नाराज़ हैं। नाराज़गी और खुशी को बढ़ाता नेता जी का दौरा है।
‘‘लो, अब ये भी आ गये!’’ किसी ने कहा।
‘‘क्यों, विकास करवा रहे हैं, तो क्या नारियल न फोड़ेंगे यहां!’’ दूसरी आवाज़।
‘‘नारियल तो आज फोड़ा, कल भूल जाएंगे लोग। बोर्ड लगवाएंगे देख लेना।’’ धीमी आवाज़ में एक कथन।
‘‘हां-हां! और फिर वह लगा ही रहेगा। नाली टूट जाए, पर बोर्ड पर कोई आंच नहीं आ सकती!’’ सुनाने वाली एक आवाज़।
नेता जी और उनका दल-बल करीब आ चुका है।
‘‘भाइयो-बहनो, अब तो खुश हैं न! नाली बनवाते वक्त इसका ढलान अपने सामने खुद देख लें। पानी कहीं रुकना नहीं चाहिए बस! हमारा इलाका चकाचक दिखना चाहिए!’’ नेता जी अभिवादन स्वीकार करते हुए भी लोगों को आगाह कर रहे हैं।
‘‘शर्मा जी ने काम तो खूब कराया है इलाके में। ये मानना पड़ेगा!’’ एक तरफदार।
‘‘और नहीं तो क्या काम करवाने को कोई बाहर से आएगा! इलाके की नेतागिरी संभाली है तो काम तो कराना ही होगा।’’
‘‘अरे भई, ऐसे काम का क्या फायदा जो पानी नाले तक ही न पहुंचे!’’
‘‘क्यों, ये नाले तक नहीं पहुंचेगा क्या!’’
‘‘देख लो जा के खुद ही। नाले की ऊंचाई और अपनी नाली की ऊंचाई! सब समझ में आ जाएगा।’’
‘‘नाले में ना जायेगा, तो फिर पानी जाएगा कहां?’’
‘‘आपके-हमारे घरों की नींव में और कहां?’’
‘‘इससे तो भारी नुकसान हो जायेगा जी!’’
‘‘हो जाएगा नहीं, बरसों से होता रहा है। देखते नहीं, कितनी सीलन बनी रहती है दीवारों पर!’’
‘‘अरे हां, वर्मा जी तो परेशान हैं कि नीचे हुए उनके घर में पानी आखिर आ कहां से रहा है!’’
‘‘ये सारा पानी नालियों से ही तो रिस-रिस कर भीतर पहुंच रहा है! इससे पहले जब भी नाली ऊंची की गई, उसका आधार थोड़े ही ऊंचा किया गया।’’
‘‘ऐसे विकास का क्या फायदा भला!’’
‘‘ये तो चुनाव जीतकर मौज उड़ाने वालों से पूछो जी।’’
भीड़ है। भीड़ के हजार मुंह हैं। हर मुंह की अलग बात है। हर बात का एक अलग मतलब है। हर मतलब की एक अलग मंशा है।
‘‘नाली ऊंची होगी, तो सीढ़ियाँ तो टूटेंगी ही जी!’’
‘‘अभी छह महीना पहले तो बनवाई हैं, अब तुम तोड़ डालोगे… मज़ाक समझ रखी है क्या?’’
‘‘सीढ़ी नहीं तुड़वाओगे, तो नाली का बेड नहीं बन पाएगा… फिर कहोगे पानी जमा हो रहा है!’’
‘‘देखो जी, हमें कोई शौक तो है नहीं। जित्ती ज़रूरी होगी, उत्ती तो तोड़नी ही पड़ैगी। अब जे कोई लकड़ी तो है नईं कि आरी से काट डारो। तोड़-फोड़ के काम में उन्नीस-बीस तो होई जात है!’’
‘‘तू भैया हमारी सीढ़ी तो छोड़ ही दे! नाली-फाली अपनी हम खुद ही देख लेंगे!’’
नेता जी के छुटभैये आ पहुंचे हैं- ‘‘कौन कै रा है के सीढ़ी नईं टूटने देगा? सारी कालोनी की टूट गईं और तुम्हारी ना टूटैगी! यू नाली प्राइवेट ना है, सरकारी है सरकारी। और जे जो सीढ़ी बनाई है न तुमने, जे सरकारी जमीन पै बनी है समझे कि नईं! दो मिनट में चालान काट देंगे मुनिसपालिटी वाले।’’
‘‘तो भैया जा, तू आज चालान ही कटवा दे। हम भी तो देखें जरा, कौन आता है चालान काटने!’’
काम रुक गया है। सीढ़ी का मालिक सीढ़ी पर बैठा है। ठेकेदार के आदमी परेशान हैं। वे सीढ़ी छोड़कर आगे बढ़ गए हैं। उन्हें ऐसे मामले संभालना खूब आता है।
अचानक एक शोर उठता है- ‘‘लो जी लो, नाली बनी बाद में, टूट पहले गई।’’
‘‘अरे, किसने तोड़ी नाली?’’
‘‘देख नहीं रहे, अभी ट्रैक्टर गया है मलबा ले के। उसी ने तोड़ी है!’’
‘‘कोई बात नहीं जी, अभी तो ठेकेदार यहीं है। फिर बनवा देगा। दस-एक का मसाला है। कौन बड़ा नुकसान हो रहा है!’’
‘‘दस-एक का होता तो क्या बात थी, ये तो बीस-एक का भी नहीं लगता। ऊपर से सीमेंट का पानी फैला देते हो तुम लोग।’’
‘‘ठीक है जी, सरकारी काम तो ऐसे ही होता है!’’
बातें सब करते हैं, पर ये कोई नहीं पूछता कि ऐसे ही क्यों होता है? आज तक कोई ये पूछने आया कि पीने का पानी इतना गंदा क्यों आता है? कहने को गंग नहर का पानी है और घर-घर आर.ओ. और प्यूरीफायर लगे पड़े हैं! जो नहीं लगवाते, वे रोज बीस रुपये की पानी की बड़ी बोतल मंगा रहे हैं। जाने कितने लोगों को खराब पानी से बीमारियां हो रही हैं। असल काम की तरफ किसी का ध्यान नहीं, बस ऊपरी चकाचक के फेर में पड़े हैं सब के सब।
रोज़ तरह फिर शाम घिर आई है। साड़े पांच के बाद ही अंधेरा पसरने लगा है। नाली का काम चल रहा है। गीला मसाला यूं छोड़ा नहीं जा सकता। सुबह के चलते हाथों की गति में कोई कमी नहीं आई है। इन हाथों ने नाली के ऊपर आई सीढ़ियाँ और रैम्प तोड़े हैं घनों के प्रहार से। इन हाथों ने ईंटें ढोई हैं। मसाला तैयार किया है। भरे तसले उठाए हैं सिर पर। ताकि परिवार का पेट पाल सकें। हिम्मत बंधाने में साथ दिया है तो बस हमेशा के इनके साथी तंबाकू ने। वही लाता है इन्हें काम की तरंग में। यह नशा कम, दोस्ती ज्यादा है। यही इन्हें ठंड में भी लड़ने की ताकत देता है। एक तरफ सटासट ईंटें ला रही मजदूरनें हैं और दूसरी तरफ फिक्र इस बात की है कि कहीं भी मसाले की कमी की वज़ह से हाथ रुक न जाएं। इन हाथों को रोकने का काम कर रहा है बच्चों का रोना।
उन्हें भूख लग आई है। वे खाने को कुछ मांग रहे हैं। वे रो रहे हैं। वे नाराज़गी में ज़मीन पर पसर गए हैं। उनकी हरचंद कोशिश यही है कि मां-बाप में से कोई आकर उन्हें चुप कराये और कुछ खाने को दे दे। मां-बाप का मन है कि एक रौ में काम खत्म हो जाये तो बच्चों के साथ अपने ठिकाने की राह लें।
काम की रौ है। बच्चों की ज़िद है। होड़ है काम और भूख के बीच। जंग है जिंदगी के उजाले और अंधियारे के बीच।
बच्चे इस कदर रो रहे हैं कि पूरी गली उनके रुदन से भर गई है। इलाके के रहवासी परेशान हैं। कौन होगा जो बच्चों का रोना बर्दाश्त कर सके! वो भी भूख से!
एक लड़का कहीं से बिस्कुट और कुरकुरे के पैकेट ले आया है। वह हर बच्चे को पैकेट थमा रहा है। कुछ बच्चे एक स्थानीय लड़की के हाथ में चिप्स का पैकेट देखकर मचल रहे हैं। वह चिप्स घर न ले जाकर उन्हीं बच्चों में बांट देती है। वे रोते-रोते अचानक खामोश हो गए हैं। उनकी सारी खुशी बिस्कुट, चिप्स और कुरकुरों के बीच सिमट गई है। अब उन्हें ठंड की कोई परवाह नहीं।
मिस्त्री के हाथों में जैसे और जान आ गई है। मजदूरनें खुश हैं कि चलो, बच्चों को कुछ तो खाने को मिला कम से कम! तभी उनमें से एक की नज़र पास के एक ताज़ा रंगाई-पुताई हुए मकान पर चली गई है। वहां पेंट की खाली हुई बाल्टियां रखी हैं। वह उस मकान के गेट के पास जाकर खड़ी हो गई है। उसे देख किसी ने पूछा है- ‘‘क्या चाहिए?’’
‘‘साहब, एक बाल्टी हमें दे देते तो पीने के पानी लईं काम आ जाती।’’
कभी-कभी दूसरे की जरूरत का अंदाजा हो जाता है। सुनने वाले ने रंग की एक खाली बालटी उसे ढक्कन सहित थमा दी। वह खुश हो गई। वहीं सड़क पर बैठ पत्थर से बालटी के भीतर का सूखा पेंट छुड़ाने लगी। देखते-देखते उसने भीतर से सारी बालटी साफ कर डाली।
‘‘ये तुझे किसने दे दई?’’ एक मजदूरन ने ईर्ष्या भरे स्वर में पूछा।
‘‘बाऊजी नै दई है अभी!’’ उसकी पकड़ बालटी पर और मजबूत हो गई है।
‘‘बालटी तो हमें भी चइये थी।’’
‘‘कल मांग लेना किसी से… या इलाका के लोग बड़े अच्छे हैं।’’
‘‘अब चलैगी भी या…’’ एक के मर्द ने कहा।
बस, जैसे पूरा सीन ही चेंज हो गया-
सर पर तसला, गोद में बच्चा, एक हाथ में बालटी लिए वह चल दी। वह क्या, सब मजदूरनों ने अपना-अपना सामान-औजार उठाए और चल दीं अपने मर्दों के पीछे-पीछे।
उनके जाते ही गली सूनी हो गई है। जैसे अचानक ठंड और बढ़ गई हो। झांकते हुए इलाके के रहवासियों के चेहरे भी घरों में दुबक गए हैं।
‘‘अंकल, बे बिस्कुट और कुरकुरे वाले भैया कहां गए?’’
किसी मजदूर का एक बच्चा किसी बुजुर्ग से पूछ रहा है।
‘‘चल रे हट यहां से। मैं अबई आय रई।’’ बच्चे की मां उसे डपटती हुई छोटी गली में नज़रें घुमाती मुड़ गई है। गली में पहुंचकर उसने दोनों छोरों की तरफ सावधानी से देखा-परखा और फिर नाली के पास ही धोती सरकाकर बैठ गई। उसका बैठना था कि एक मकान का दरवाज़ा खुला और सब्जी धोए पानी को पतीले से उछालकर घर की मालकिन मुड़ ही रही थी कि उसकी नज़र झपाटे से उठती उस मजदूरन पर पड़ गई।
‘‘ओह, मुझे पता नहीं था कि तुम…’’
‘‘क्या करें बीबी जी, पेशाब करने में भी बड़ी मुस्किल हो जात है।’’
‘‘सो तो है। अब ऐसे ही काम चलाना पड़ता है!’’
‘‘ऐसेई चल रओ है! का करें!’’
दो स्त्रियों की अलग-अलग किस्म की मुस्कराहटें हैं। एक-दूसरे को समझने की कोशिश है और किसी की समझ में न आने वाली परेशानी है।
सामने की गली में सीवर कनेक्शन के लिए मशीन से कटिंग जारी है। शोर ऐसा कि कान फाड़ दे। देखते-देखते सीवर में पाइप लगा कर कनेक्शन का मुंह घर के पास खुला छोड़ दिया जाएगा ताकि फाइनल कनेक्शन के समय परेशानी न हो। जिस घर का कनेक्शन का काम चल रहा है उसके सदस्य खास तरह का संतुष्ट किंतु सतर्क चेहरा लिए सामने खड़े हैं। आसपास के लोग उन्हें ईर्ष्यामिश्रित भाव से देखते हुए भी खुशी जाहिर कर रहे हैं- ‘‘चलो जी, आखिरकार नंबर तो आया इस इलाके का भी!’’
‘‘हां जी, वरना अपना इलाका तो दिल्ली की पूंछ का एक बाल बताया था बाबा ने!’’
‘‘कौन बाबा?’’
‘‘अरे, वो घूमते नहीं थे उठंग पाजामे में हमारी गलियों में चार्ली चैप्लिन की तरह लठिया लिये!’’
‘‘बाबा नागार्जुन की बात तो नहीं कर रहे?’’
‘‘वही। हां-हां, देखा तो होगा तुमने भी…’’
‘‘पर, वो पूंछ का बाल, वो भी दिल्ली की… इसका क्या मतलब?’’
‘‘अरे मतलब ये कि पूंछ के एक बाल की क्या देखभाल करनी! झड़ भी जाए तो क्या फर्क पड़ता है!’’
‘‘हमारे इलाके को सब ऐसे ही समझते हैं क्या?’’
‘‘और नहीं तो क्या! देखा नहीं, कित्ते साल बाद तो नाली की सुध आई है। अब भी असल सीवर कनेक्शन का कोई पता नहीं!’’
‘‘ये तो ख़ैर सही बात है। बस ये तसल्ली है कि इतने लोगों को काम-काज तो मिल रहा है इसी बहाने कम से कम! जाने कहां-कहां से आके अपने घर-बार से दूर ये बेचारे यहां काम पे लगे हुए हैं बाल-बच्चों सहित!’’
एक शोर ने इस वार्ता में व्यवधान दिया है- ‘‘सारी की सारी गलियां एक साथ उधेड़ डालीं तुम लोगों ने, काम करने का कोई तरीका है कि नहीं! कहां है ठेकेदार तुम्हारा? कुछ लोगों ने मजदूरों को घेर रखा है।
‘‘वो रहा जी ठेकेदार। उसी से बात करो।’’
‘‘इधर आ भई! ये क्या तरीका है!’’
‘‘तरीका पूछना है तो इंजीनियर साब से पूछो। हमें तो काम कन्नौ है बस। जैसा हुकुम होगा, वैसेई करिंगे। हमारा काम हम करिंगे, सड़क का काम सड़क बारे करिंगे। सगरे काम का जिम्मा कोई हमारा थोड़ेई है!’’
‘‘अरे वो तो ठीक है, लेकिन ये तो सोचो कि न सब्जी वालों के आने जाने की जगह है न कूड़ा ले जाने वाली की। सौ बार घर के काम से निकलना पड़ता है बच्चों को भी बुजुर्गों को भी…तुमने तो आना-जाना तक मुहाल कर दिया मेरे यार!’’
‘‘काम होगा बाबू जी, तो तनिक सबर तो रखना ही पड़ेगा! थोड़ा-बहुत बर्दाश्त कर लो, फिर आराम भी तो आप लोगन का ही है! हमारा का है, हम तो आज यहां तो कल वहां। आप लोगन के लिए तो हम भी पूंछ का बाल सरीखे हैं।’’
सब अपनी-अपनी तरह से सोचने में लगे रहते हैं। पर ये मान लेना कि मजदूर के दिमाग, कान, आंख और मुंह नहीं, ये गलत है। ठीक ही तो कहा है उसने कि काम होगा इलाके में, तो सब्र तो करना ही पड़ेगा। कैसे उसने अपने बारे में भी इलाके के लोगों की सोच जाहिर कर दी!
सोच रहे हैं आस-पास खड़े लोग। सच, उनके मन में उनके प्रति कोई भाव ही नहीं है। वे जो कुछ भी हैं, उनकी कोई पहचान नहीं। काम करें और आगे बढ़ लें! जहां काम खत्म, उनकी पहचान खत्म। वे तभी तक मायने रखते हैं जब तक इलाके में काम चलता रहता है। न हमें उनके बच्चों के भविष्य की फिक्र है न उनके स्कूल जाने की। नागरिक हो कर भी वे जैसे इस देश से कोई वास्ता ही नहीं रखते। काम के साथ-साथ भागते वे भी कामगर बन जाएंगे एक दिन।
‘‘अरे ऽ ऽ रे ऽ ऽ रे ऽ ज़रा संभल के भाई! इतनी भी क्या जल्दी है!’’ कोई घबराकर बाइक सवार को समझा रहा है! गेट के पास आदतन तेज़ी से मुड़ती उसकी बाइक ज़मीन पर लिटाये बच्चे पर चढ़ ही जाती अगर किसी ने टोक न दिया होता। सुबह से ही एक मजदूरन ने पुरानी चादर गली के किनारे बिछाकर दूध पीते बच्चे को लिटा दिया था। दूध पीते-पीते बच्चे की नींद लग गई थी। उसकी सुरक्षा के लिए उसकी मां ने चार ईंटें उसके आगे एक थैले के साथ रख दी थीं।
बाइक वाला शर्मिंदा और हैरान है। बच्चा निसाखातिर है।
‘‘अब जब तक ये काम चल रहा है, तुम लोग भी बेटा ज़रा संभल के चला करो। समझे कि नहीं!’’ किसी के कहने पर बाइक सवार सिर झुकाए आगे बढ़ गया है।
काम अब धीरे-धीरे सिरे लग रहा है। जैसे-जैसे काम पूरा होता जा रहा है, वैसे-वैसे गलियां साफ नज़र आने लगी हैं। शोर पहले से कम हो रहा है। मज़दूर भी उतने ज्यादा नज़र नहीं आ रहे।
पुरानी साइकिल लिए अचानक मजदूरों में से किसी एक का एक बच्चा गली में दौड़ लगा रहा है।
‘‘ये साइकिल कुछ पहचानी-सी लग रही है।’’ मिसेज गुप्ता पड़ोसन से पूछ रही हैं।
‘‘अरे, उस दिन आपने ही तो दी थी उसे… भूल गईं!’’
दोनों पड़ोसनें हंस पड़ी हैं।
तभी एक साथ मजदूर-मजदूरनों का एक झुंड सर पर गट्ठर उठाए नमूदार हो गया है। एक साथ वे अब शायद कहीं और निकल रहे हैं।
‘‘क्यों, अब क्या काम खत्म हो गया तुम लोगों का?’’ मिसेज गुप्ता ने पूछा।
‘‘और का। काम खत्म हो गऔ। पर काम तुमाओ हतो, हमाओ नईं। हम तो मजदूर हैं, जहां लगा दो।’’ दो मजदूर ने एक साथ जवाब दे रही हैं।
‘‘अरे रुको ज़रा। मैंने तुम्हारे लिए कुछ सामान रखा हुआ है।’’ मिसेज गुप्ता कह रही हैं।
चलते-चलते पैर किसी उम्मीद में ठिठक गए हैं। मजदूरनें मिसेज गुप्ता की सीढ़ी पर बैठ गई हैं। बच्चे उनके मस्त हो वहीं खेलने लगे हैं। उन्हें सीढ़ियां जानी-पहचानी जो नज़र आ रही हैं। कुछ दिन पहले तक यहीं तो धमा-चौकड़ी मचाते रहे थे वे!
‘‘लो बे आ गईं!’’ मिसेज गुप्ता को दो-तीन बड़े थैले लाती देख खड़ी होती मज़दूरनों के मुंह से निकला।
‘‘बैठी रहो। लो, ये कुछ कपड़े, चादरें और लेडीज़-जैंट्स कपड़े हैं। तुम लोगों के काम आ जायेंगे। मिल-बांटकर देख लेना। और ये हैं बच्चों के लिए खिलौने! थोड़े-थोड़े सबको दे देना।’’
‘‘हऔ!’’ एकसाथ दो-तीन मजदूरनों के मुंह से निकला।
सामान में जुड़ गया कुछ और सामान है। चेहरे पर खुशी और कृतज्ञता का भाव है। नयी यात्रा का उत्साह है और इस इलाके से अलग हो जाने का दर्द भी है।
आगे बढ़ते अपने बड़ों के साथ मुड़मुड़कर पीछे देखते बच्चे हैं। उन्हें अब भी उम्मीद है शायद कि कोई अचानक आएगा और कुछ न कुछ खाने को थमा जाएगा। उन्हें जाते देख लग रहा है जैसे वह किसी आत्मीय पड़ाव से जबरन कहीं और ले जाये जा रहे हों।
महेश दर्पण
1 जुलाई, 1956 को जन्म।
बीए ऑनर्स, एमए (हिंदी) के उपरांत सूर्या हिंदी, सारिका, दिनमान, सांध्य टाइम्स और नावभारस्त टाइम्स के संपादकीय विभाग में चार दशक से अधिक सक्रिय रहने के बाद 2016 में सेवानिवृत्त। मूलतः कथाकार-आलोचक और सम्पादक।
अब तक नौ कहानी संग्रह, पांच चयनित संग्रह, एक उपन्यास, तीन लघुकथा संग्रह, पांच जीवनियाँ, एक यात्रा वृत्तांत, दस बाल साहित्य की पुस्तकें, दो पुस्तकों के अनुवाद, बीसवीं शताब्दी की हिंदी कहानियां, स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी कोश सहित साठ से अधिक ग्रंथों व कुछ लेखकों के रचना समग्र का सम्पादन।
विविध : गणेशशंकर विद्यार्थी सम्मान, पूश्किन सम्मान, हिंदी अकादमी, स्पंदन आलोचना सम्मान एवं नई धारा रचना सम्मान सहित अनेक देशी-विदेशी सम्मान। मास्को विश्वविद्यालय सहित अनेक भारतीय विश्वविद्यालयों व स्कूलों में रचनाएं पाठ्यक्रम में। कहानी ‘छल’ पर दूरदर्शन की फ़िल्म। संप्रति कथाकार वनमाली पर एक पुस्तक लेखन में व्यस्त।
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