कात्यायनी की प्रतिबद्धता और प्रतिपक्ष उनके जीवन और उनकी कविताओं में अभिव्यक्त होता है। उनका स्वर प्रतिरोध का स्वर है। स्वयं उनके शब्दों में—‘‘…कवि को कभी-कभी लड़ना भी होता है, बंदूक़ भी उठानी पड़ती है और फ़ौरी तौर पर कविता के ख़िलाफ़ लगने वाले कुछ फ़ैसले भी लेने पड़ते हैं। ऐसे दौर आते रहे हैं और आगे भी आएँगे।’’ उनकी कविताओं का स्त्री-विमर्श जितना निजी है उतना ही सामूहिक। उनका विमर्श हिंदी के लिए मार्क्स और सिमोन के बीच का एक पुल लिए आता है, जिस पुल से उनका वर्ग-चेतस फिर पूरी पीड़ित आबादी को आवाज़ लगाता है। भाषा के स्तर पर उन्होंने कविता में संभ्रांत और अभिजात्य के दबदबे को चुनौती दे उसे लोकतांत्रिक बनाया है।
इस स्त्री से डरो
यह स्त्री
सब कुछ जानती है
पिंजरे के बारे में
जाल के बारे में
यंत्रणागृहों के बारे में
उससे पूछो।
पिंजरे के बारे में पूछो,
वह बताती है
नीले अनन्त विस्तार में
उड़ने के
रोमांच के बारे में।
जाल के बारे में पूछने पर
गहरे समुद्र में
खो जाने के
सपने के बारे में
बातें करने लगती है।
यंत्रणागृहों की बात छिड़ते ही
गाने लगती है
प्यार के बारे में
एक गीत।
रहस्यमय हैं इस स्त्री की उलटबाँसियाँ
इन्हें समझो।
इस स्त्री से डरो।
भाषा में छिप जाना स्त्री का
न जाने क्या सूझा
एक दिन
स्त्री को
खेल-खेल में भागती हुई
भाषा में समा गयी।
छिपकर बैठ गयी।
उस दिन
तानाशाहों को
नींद नहीं आयी रातभर।
उस दिन
खेल न सके कविगण
अग्निपिण्ड के मानिन्द तपते शब्दों से।
भाषा चुप रही सारी रात।
रुद्रवीणा पर
कोई प्रचण्ड राग बजता रहा।
केवल बच्चे
निर्भीक
गलियों में खेलते रहे।
स्त्री का सोचना एकान्त में
चैन की एक साँस लेने के लिए
स्त्री
अपने एकान्त को बुलाती है।
एकान्त को छूती है स्त्री
संवाद करती है उससे।
जीती है,
पीती है उसको चुपचाप।
एक दिन,
वह कुछ नहीं कहती अपने एकान्त से
कोई भी कोशिश नहीं करती
दुख बाँटने की,
बस, सोचती है।
जैसे ही
वह सोचती है
एकान्त में,
नतीजे तक पहुँचने से पहले ही
ख़तरनाक
घोषित
कर दी जाती है!
देह न होना
देह नहीं होती है
एक दिन स्त्री
और
उलट-पुलट जाती है
सारी दुनिया
अचानक!
दाहक जीवन-दाह
ज़िन्दगी की सरहदों में
लपलपाती रहती हैं
अग्नि की लाल जिह्वाएँ।
मृत्यु में ही मुक्ति
देखती है स्त्री।
बार-बार
वरती है
उसे।
एक दिन
मृत्यु के प्रदेश में प्रवेश से पूर्व
एक बार पीछे मुड़कर देखती है स्त्री
जीवन की ओर।
वहाँ सब कुछ शान्त है
मृत्यु की ओर
स्त्री के
प्रस्थान के बाद।
स्त्री पीछे मुड़ती है
प्रचण्ड वेग के साथ।
अपने हाथों आग लगा देती है,
राख कर देती है
वह सब कुछ
जिसे
लोग कहा करते हैं
भरा-पूरा जीवन!
प्रार्थना
प्रभु!
मुझे गौरवान्वित होने के लिए
सच बोलने का मौक़ा दो,
परोपकार करने का
स्वर्णिम अवसर दो प्रभु मुझे।
भोजन दो प्रभु, ताकि मैं
तुम्हारी भक्ति करने के लिए
जीवित रह सकूँ।
मेरे दरवाज़े पर थोड़े से ग़रीबों को
भेज दो,
मैं भूखों को भोजन कराना चाहता हूँ।
प्रभु, मुझे दान करने के लिए
सोने की गिन्नियाँ दो।
प्रभु, मुझे वफ़ादार पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र
लायक़ भाई और शरीफ़ पड़ोसी दो।
प्रभु, मुझे इहलोक में
सुखी जीवन दो ताकि बुढ़ापे में
परलोक की चिन्ता कर सकूँ।
प्रभु,
मेरी आत्मा प्रायश्चित करने के लिए
तड़प रही है,
मुझे पाप करने के लिए
एक औरत दो!
नहीं हो सकता तेरा भला
बेवक़ूफ़ जाहिल औरत!
कैसे कोई करेगा तेरा भला?
अमृता शेरगिल का तूने
नाम तक नहीं सुना
बमुश्किल तमाम बस इतना ही
जान सकी हो कि
इन्दिरा गाँधी इस मुल्क़ की रानी थीं!
(फिर भी तो तुम्हारे भीतर कोई प्रेरणा का संचार नहीं होता)
रह गयी तू निपट गँवार की गँवार।
पी.टी. उषा को तो जानती तक नहीं,
मार्गरेट अल्वा एक अजूबा हैं
तुम्हारे लिए।
‘क ख ग घ’ आता नहीं
‘मानुषी’ कैसे पढ़ेगी भला!
कैसे होगा तुम्हारा भला –
मैं तो परेशान हो उठता हूँ!
आज़िज़ आ गया हूँ मैं तुमसे।
क्या करूँ मैं तुम्हारा?
हे ईश्वर!
मुझे ऐसी औरत क्यों नहीं दी
जिसका कुछ तो भला किया जा सकता!
यह औरत तो बस भात राँध सकती है
और बच्चे जन सकती है
इसे भला कैसे मुक्त किया जा सकता है?
ड्योढ़ी भीतर दुपहरिया
कैसी-कैसी धुनें
गुनगुनाता रहता है
यह उचाट नीरव दुपहरिया में
दिन-प्रतिदिन
ज़्यादा से ज़्यादा बेचैनी भरने वाली।
खा-पीकर सब मरद लोग
सोये हैं बाहर।
सहमा-सा अँगना सहलाता
ऊँघ रहा है
क्रुद्ध खड़ाऊँ की आघातें।
तुष्ट डकारों की प्रतिध्वनियाँ
गूँज रही हैं
भीतर बैठक-दालानों में।
जूठी थाली खुरच रहे हैं काग निगोड़े
नल के नीचे।
ऐसे में तुम,
ए मेहरारू! सो मत जाओ
इस पागल मन को समझाओ।
टें-टें कर बच्चा रोता है
दूध पिलाओ
उसे सुलाओ।
नींद न उचटे,
देखो, कैसे फर-फर मूँछें फरक रही हैं
खर्राटों से,
गहरी नींद उन्हें सोने दो।
जाँगर सेंत-सेंतकर रक्खो,
रात-अँधेरे मरद महाजन
ड्योढ़ी के भीतर आवेंगे।
ए मेहरारू! क्या बुनती हो,
क्या गुनती हो, क्या धुनती हो?
इस पागल मन को समझाओ,
उड़ने की बातें करता है।
ए मेहरारू! उड़ मत जाओ
पंख डोलाओ धीरे-धीरे
बड़ी उमस है,
बड़ी घुटन है,
बड़ी कठिन लम्बी दुपहरिया
तिड़क रही है,
हू-हू करके नाच रही है
खेत-बाग़ में, घर-आँगन में।
ऐसे में तुम, हे मेहरारू!
सो मत जाओ।
इस पागल मन को समझाओ!
गुड़ की डली
ज़िद करता है,
रोता है पैर पटक-पटककर बच्चा
गुड़ की एक डली के लिए।
माँ के लाख इन्कार करने के बावजूद
अड़ा हुआ है बच्चा
अपनी अडिग हठ पर,
जानता है,
कहीं न कहीं आँचल में गाँठ लगाकर
या टोकरी के भीतर
दुनियाभर से छिपाकर
रखा ही होगा माँ ने
गुड़ का एक छोटा-सा टुकड़ा उसके लिए।
चाहे प्रलय हो जाये
या उलट-पुलट जाये पूरी की पूरी दुनिया,
सुरक्षित रहेगी गुड़ की वह डली
माँ के आँचल में
सात तहों के बीच।
दुनिया का कोई बादशाह
छीन नहीं सकता उसे
कोई जिन्न-प्रेत उसे ग़ायब नहीं कर सकता
इन्द्र देवता उसे बारिश में
गला नहीं सकते
माँ अपनी ताक़त से
उन्हें अवश कर देगी।
खो भी जाये यदि कहीं वह गुड़ की डली
खेत-खलिहान, चाय-बाग़ान या
पत्थर-खदान में,
कहीं भी खो जाये,
पर माँ उसे सृष्टि के एक कोने से
दूसरे कोने तक छान-छानकर
ढूँढ़ निकालेगी अपने लाड़ले के लिए।
बच्चा रोता है
गुड़ की उस डली के लिए
जो माँ ने सिर्फ़ उसके लिए
रख छोड़ी है!
तमाम हिफ़ाज़तों के साथ!
कहीं कोई आग
आ रही है ताप
जल रही है कहीं कोई आग
आँच चेहरों पर चमकती है।
बह रही है साँय-साँय हवा
रात है सुनसान, तिमिराच्छन्न
शीत का आतंक गहरा है।
घाटियाँ, मैदान, वन-प्रान्तर
धरी है सबने सजग चुप्पी
आहटें, कुछ आहटें हैं आस-पास।
चिनगियाँ उड़ती-चिटखती हैं,
लगेगी क्या आग जंगल में?
आँच चेहरों पर चमकती है!
रात के सन्तरी की कविता
रात को
ठीक ग्यारह बजकर तैंतालीस मिनट पर
दिल्ली में जी.बी. रोड पर
एक स्त्री
ग्राहक पटा रही है।
पलामू के एक क़स्बे में
नीम उजाले में एक नीम हकीम
एक स्त्री पर गर्भपात की
हर तरक़ीब आज़मा रहा है।
बाड़मेर में
एक शिशु के शव पर
विलाप कर रही है एक स्त्री।
बम्बई के एक रेस्त्राँ में
नीली-गुलाबी रोशनी में थिरकती स्त्री ने
अपना आख़िरी कपड़ा उतार दिया है
और किसी घर में
ऐसा करने से पहले
एक दूसरी स्त्री
लगन से रसोईघर में
काम समेट रही है।
महाराजगंज के ईंट भट्ठे में
झोंकी जा रही है एक रेज़ा मज़दूरिन
ज़रूरी इस्तेमाल के बाद
और एक दूसरी स्त्री
चूल्हे में पत्ते झोंक रही है
बिलासपुर में कहीं।
ठीक उसी रात उसी समय
नेल्सन मण्डेला के देश में
विश्वसुन्दरी प्रतियोगिता के लिए
मंच सज रहा है।
एक सुनसान सड़क पर एक युवा स्त्री से
एक युवा पुरुष कह रहा है
– मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।
इधर कवि
रात के हल्के भोजन के बाद
सिगरेट के हल्के-हल्के कश लेते हुए
इस पूरी दुनिया की प्रतिनिधि स्त्री को
आग्रहपूर्वक
कविता की दुनिया में आमन्त्रित कर रहा है
सोचते हुए कि
इतने प्यार, इतने सम्मान की,
इतनी बराबरी की
आदी नहीं,
शायद इसीलिए नहीं आ रही है।
झिझक रही है।
शर्मा रही है।
(फ़रवरी, 1996)
त्रियाचरित्रं पुरुषस्य भाग्यम्…
गुरु ने कहा, पहली भिक्षा अन्न की लाना
गाँव-नगर के पास न जाना।
लायी मैं
कटिया के बाद झरे हुए
दानों को खेतों से माँगकर।
गौरैया बन
दिन-दिन भर चुनती रही।
गुरु की भूख मिटायी।
गुरु ने कहा, दूसरी भिक्षा जल की लाना
कुँआ-बावड़ी पास न जाना।
स्वाति नक्षत्र में
बादलों से गिरी बूँदें
पीती रही सीपी बन
सँजोती रही।
उसमें भीतर का नमक घुलता रहा।
सारा खारापन उलीचती रही
लगातार
आत्मा से बाहर।
कामना की सारी मिठास सँजोकर
गुरु की प्यास बुझायी।
गुरु ने कहा, तीसरी भिक्षा नींद की लाना
सुख-आराम के पास न जाना।
मख़मल के गद्दे-सी
बिछ गयी।
कोहरे के फाहों से
तकिया बनाया,
आसमान का चँदोवा
ताना,
पलकों से पंखा झलती रही
गुरु को तुष्ट किया।
गुरु ने कहा, चौथी भिक्षा में सेवा लाना
तर्क-प्रश्न के पास न जाना।
आँख-कान मूँदकर
सोचना भी छोड़कर
सेवा जो की गुरु की तो ऐसी कि
तीनों लोकों के स्वामियों के
सिंहासन हिल उठे।
देवों के हृदय में ईर्ष्याग्नि धधक उठी।
गुरु को ख़ुश किया।
तब फिर गुरु ने कहा, अन्तिम भिक्षा प्रेम की लाना
हृदय चीरकर उसे दिखाना।
हे ईश्वर! यह कैसा अनर्थ?
क्या छिपा न रह सकेगा
यह मेरा एकमात्र रहस्य?
गुरुवर! यह जो मैंने
आपकी भूख-प्यास मिटायी,
सुख-आराम की नींद दी,
तन-मन से सेवा की,
यही तो है एक स्त्री का प्रेम एकनिष्ठ।
गुरु लेकिन ताड़ चुके थे
मेरा स्वाँग,
सदियों से जो छिपा रखी थी
आख़िरी उम्मीद
और अपना अन्तिम अमोघ अस्त्र भी,
उसे छीनने के लिए
गुरु झपटे।
मुझे दबोचकर तेज़ चाकू से
उन्होंने मेरी छाती चीर दी।
पर जड़ीभूत हो गये वे
परम आश्चर्य से,
वहाँ मेरा हृदय न पाकर।
क्या थी वह सेवा,
वह निष्ठा, वह लगन,
वह श्रद्धा
आख़िर क्या थी?
त्रियाचरित्र नहीं जान सके गुरु,
स्त्री को नहीं पहचान सके।
प्रेम का स्वाँग तो ताड़ गये
पर प्रेम न पा सके गुरु।
तड़पते रहे लगातार उसे पाने को।
दीक्षा तो अधूरी रही मेरी
लेकिन प्रतिशोध पूरा हुआ।
तपस्या व्यर्थ हुई मेरी
पर गुरु की भी।
मुक्त नहीं हो सकी मैं
पर गुरु भी
सन्देह की आग और प्यार की प्यास में
जलते रहे, भुनते रहे
पकते रहे, सिंकते रहे
धुँआते रहे, झुलसते रहे
और
उनकी आत्मा राख होती रही
और
तमाम सारी तरक़्क़ियों के बावजूद,
दुनिया
बद से बदतर होती रही।
(अगस्त, 1994)
एक भूतपूर्व नगरवधू की दुर्गपति से प्रार्थना
सिर्फ़ एक बार दुर्ग के द्वार खोल दो, दुर्गपति!
प्रार्थना मुझ दुखियारी की सुन लो
नगराधिपति!
मैं अदृश्य परकोटों-बुर्ज़ोंवाले इस महानगर से
बाहर जाना चाहती हूँ,
ध्वनि और प्रकाश के अहर्निश जारी क्रम में
मैं एक अनुगूँज या छाया तक भी
नहीं बनना चाहती,
अब इस शोर और चौंधियाती रोशनी से
मैं दूर जाना चाहती हूँ।
इस मीनाबाज़ार में मेरा दम घुट रहा है।
मुझे मुक्त कर दो दुर्गपति,
वैसे भी मेरा यौवन अब ढलान पर है।
इस नन्दन-कानन के मदनोत्सवों के लिए
राजपुरुषों-श्रेष्ठियों-अभिजनों के आमोद-प्रमोद के लिए,
प्रशस्त राजमार्ग या नगर की जनसंकुल वीथियों से
पुष्पसज्जित यान पर आरूढ़ गुज़रते हुए
अपनी मात्रा एक झलक से कामातुर नागरिकों के हृदय को
उन्मत्त कर देने के लिए,
तुम्हारे पुष्पक विमानों में यात्रा करते
महाजनों की सेवा के लिए,
तुम्हारी सजी-धजी दुकानों के सम्भ्रान्त ग्राहकों को
प्रसन्न करने के लिए,
तुम्हारी मधुशालाओं के लिए और
रात्रि-आमोद-गृहों के लिए
मैं अनुपयोगी हो चुकी हूँ।
वह चपलता नहीं रही पैरों में कि
विद्युत गति से थिरककर नृत्यशालाओं में
या कि चित्रापट पर
झंकृत कर सकूँ कुलीन कलावन्तों के हृदय के तार,
तृप्त कर सकूँ उनकी सौन्दर्य-पिपासा
पूरी कर सकूँ उनकी कला-साधना की कामना।
अब इतनी सकत नहीं रही
कि दिन भर मुस्कुरा सकूँ, अदाएँ दिखा सकूँ,
निर्माता-निर्देशकों को रिझा सकूँ
या दूरदर्शन पर सौन्दर्य-प्रसाधनों का विज्ञापन कर सकूँ।
होंगे दुर्ग के बाहर घेरा डाले हुए तुम्हारे शत्रु,
मैं तो उनके लिए भी वैसे ही एक स्त्री-शरीर हूँ
जैसे तुम्हारे नागर-जनों के लिए।
उनके शिविरों से मैं पार निकल लूँगी
कुछेक वर्षों का नर्क झेलकर
मैं जीवित रहूँगी
क्योंकि अभी भी मैं जीवित रहना चाहती हूँ।
नहीं, यह कहना उचित होगा कि
अब मैं जीवित होना चाहती हूँ दुर्गपति,
मुझे जाने दो
मैं अपनी पहचान तक जाना चाहती हूँ
अपनी आत्मा तक
अपनी अस्मिता तक जाना चाहती हूँ मैं।
मेरे शरीर के ही तो तुम स्वामी हो,
वह तो अब लुंज-पुंज मांस का एक लोथभर है
इसे तिरस्कृत कर दो स्वामी
फेंक दो दुर्ग से बाहर।
देखो, मेरे स्तनों से बहता हुआ दूध
उस अप्रितम सौन्दर्य के अवशेषों को भी
मटियामेट कर रहा है
जो कभी पागल बना देता था तुम्हारे लोगों को।
मुझे इन स्तनों को
प्यासे विकल शिशु अधरों तक ले जाने दो,
इस जन-अरण्य से दूर
मुझे उन फ़सलों तक जाने दो,
अपने यौवन को अमरत्व प्रदान करने के लिए
जिनका रस निचोड़कर तुम पीते हो,
मुझे उन पौधों तक जाने दो
जिनके कण्ठ फूटने को हैं,
उन विशाल सघन वृक्षों तक जाने दो मुझे
जिनके पत्तों से फूटती मर्मर ध्वनि
यहाँ, सीधे मेरी आत्मा तक आ रही है।
ऐसे ही एक वृक्ष के तने से पीठ टिकाकर
कम से कम एक बार,
भले ही वह ज़िन्दगी में आख़िरी बार हो,
अपने मन से एक गीत गाना है मुझे
जिसकी कभी किसी ने फ़रमाइश न की हो।
जलते रेगिस्तान में ही सही,
कम से कम एक बार मैं
अपने लिए नृत्य करना चाहती हूँ।
मुझे अपने लिए एक बार
खुले आसमान के नीचे जाने दो
तारों से टपकती ओस-सनी रोशनी में भीगने दो।
आख़िर तुम इस बात से डरते क्यों हो दुर्गपति
कि मैं उस गाँव को ढूँढ़ लूँगी जहाँ से
कंचे खेलते समय मुझे उठा लाया गया था
बचपन में, मौर्यवंश या गुप्तवंश के
शासनकाल में, या उससे भी पहले कभी।
सहस्त्राब्दियाँ बीत चुकी हैं,
मैं अब थक चुकी हूँ दुर्गपति।
तुम्हारे कि़ले की अदृश्य दीवारों से टकरा-टकराकर
मेरा सिर लहूलुहान हो रहा है,
उनमें गवाक्ष या द्वार टटोलते-टटोलते
मैं निढाल हो चुकी हूँ।
ये दीवारें कहाँ तक फैली हैं दुर्गपति,
कहाँ हैं द्वार?
और ये जो मेरी उँगलियाँ स्पर्श कर रही हैं
ये दुर्ग की दीवारों में पड़ी
दरारें ही हैं न दुर्गपति?
(दिसम्बर, 1993)
औरत और घर
कविगण कहते रहे घर के बारे में
बहुत मासूम और कोमल
प्यार भरी बातें,
शताब्दियों-सहस्त्राब्दियों से रचते रहे वे
ऋचाएँ, गीत और कविताएँ
घर लौट चलने, घर में होने,
कचोटते दिल से घर से बाहर जाने
और घर की उदासी भरी यादों के बारे में।
वहाँ एक औरत रहती रही
घर को हिफ़ाज़त के साथ घर बनाये हुए,
उसे भूतों का डेरा बनने से जतनपूर्वक बचाते हुए,
घर में सुरक्षापूर्वक
होने का अहसास वह एक
बेहद नशीली शराब की तरह पीती रही।
वहाँ गैस थी, मिक्सी और मसालदानी थी,
सिंक, वाशबेसिन,
सैनिफ़्रेश-ओडोनिल और मेंहदी थी,
नहाने-कपड़े धोने के साबुन,
सिंगारदान, झाड़ू, कुर्सियाँ-दिवान, कैलेण्डर, पेण्टिंग्स
स्वर्गीय पिताजी की माला सजी तस्वीर
और शादी के समय की
उसकी अपनी तस्वीर पति के साथ।
बिस्तर था, बच्चे थे,
बेडस्विच से जलने वाला नीला बल्ब भी था,
शब्दकोश भी कई थे और कविताओं की पुस्तकें भी।
एकदम भरा-पूरा था घर,
हृदय की पूरी उदारता और विशालता के साथ उसने
अपना लिया था औरत को प्यार से,
अपना एक हिस्सा बना लिया था।
एक सख़्त अनुशासनप्रिय अभिभावक भी था घर,
लगातार पीछा करता था,
जब भी औरत निकलती थी बाहर सड़क पर।
जानता था वह, औरत का आना सड़क पर
ख़तरनाक होता है औरत के लिए
और पूरे समाज के लिए भी।
जादूगर था घर – देखते ही देखते
अपने ठोस वजूद को उसूल में बदल लेता था,
ज़िन्दा और बेजान चीज़ों के समुच्चय के बजाय
संस्कार और मूल्य बन जाता था
और फिर पलक झपकते ही
पहले जैसा बन जाता था
जैसा कि
लोग देखते-जानते हैं उसे
आम तौर पर।
मसखरा भी था शायद घर,
औरत के सपने में दूसरे रूप धरकर आता था
और उसे डराता था –
आता था कभी वह उचाट पठारी मैदान बनकर,
रेत का टीला बनकर
या चट्टानों की तरह लुढ़कता था
इधर-उधर।
दफ़्तर में भी बना रहता था वह
जच्चाघर और रसोईघर की तरह ही
साथ-साथ औरत के।
घर का एक टुकड़ा होने का अहसास लिये
जो औरत थी –
बस, उसने एक ही मासूम-सा सवाल किया था
एक दिन अचानक कि
औरत क्या एक घर के बिना भी हो सकती है
या फिर क्या कोई और भी चौहद्दी हो सकती है
सुखपूर्वक रहने-खाने-जीने के लिए
घर के अलावा
जिसमें रहते हुए औरत औरत बनी रहे और
घर घर भी बना रहे,
यानी वह न हो घर का हिस्सा,
बल्कि उसकी एक बाशिन्दा हो?
बस इतनी-सी बात हुई थी कि
उसका पासपोर्ट ज़ब्त कर लिया गया
और दुनिया के हर घर की
नागरिकता के लिए उसे अयोग्य घोषित कर
दिया गया।
घर से अलग होकर
एक लम्बा सफ़र तय किया औरत ने
पागलख़ाने तक का। लेकिन आश्चर्य!
आख़िरकार उसे क्षमादान मिल ही गया।
उसने पाया कि यह भी एक घर था
तीमारदारी, चौकसी
और हिदायतों के साथ,
फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि
यह उनका घर था
जिनके लिए दुनिया में नहीं था
कोई और घर!
(मार्च, 1993)
एक फ़ैसला, फ़ौरी तौर पर
कविता के ख़िलाफ़
कविताएँ बहुत नहीं लिखनी चाहिए
और लगातार नहीं लिखनी चाहिए।
इससे मन कुछ उदास-सा रहने लगता है
भले ही लिखी जाने वाली कविताएँ
उद्दाम आशावादी हों।
कविता लिखने के लिए
चीज़ों से दूरी लेनी पड़ती है।
हमेशा कविताएँ लिखते रहने वालों के लिए
चीज़ों से हमेशा के लिए दूर हो जाने का
ख़तरा बना रहता है।
इस हद तक नहीं लिखी जानी चाहिए कविताएँ
कि चीज़ों को सीधे-सादे ढंग से
बयान करने की आदत ही छूट जाये।
वास्तविकता से निर्मित होकर भी
एकदम वास्तविक नहीं होती कविताओं की दुनिया।
हमेशा कविताओं के साथ रहना कभी-कभी
वास्तविक दुनिया से अलग भी कर देता है,
अजनबियत का एक अहसास भी भर देता है।
कविताएँ बहुत अधिक और लगातार लिखने से
‘हैलुसिनेशन’ का रोग हो जाता है।
सावधान रहना चाहिए कि
कविता लिखना कहीं
जीने और लड़ने का विकल्प न बन जाये।
हर त्रासदी पर कविता लिखना
अपने बुनियादी कर्त्तव्यों से मुँह चुराने की
एक कायरता भी हो सकती है।
ऐसा होना चाहिए कि कभी-कभी
कोई घटना इस क़दर जकड़ ले दिलो-दिमाग़ को
कि कविता लिखने की सोच तक न सके आदमी।
हर मार्मिक घटना पर कविता लिखने वाला कवि
दुनिया का सबसे हृदयहीन व्यक्ति होता है।
कभी-कभी कविताएँ न लिखना
जीवन में कविता की हिफ़ाज़त करना होता है
या उसकी उपस्थिति को
सीधे-सीधे महसूस करना।
कभी-कभी कविताएँ न लिखना
पाखण्डी और वाचाल होने से बचाता है।
कविताएँ न लिखना कभी-कभी
दुश्चरित्र होने से रोकता है।
कभी-कभी सम्पादक की माँग पर कविता लिखने
और सुपारी लेने के बीच कोई बुनियादी फ़र्क़
नहीं रह जाता।
कविताएँ न लिखने का निर्णय
कभी-कभी भाड़े के हत्यारों, दरबारियों,
भड़ुओं और मीरासियों के झुण्ड में
शामिल होने से बचने का निर्णय होता है।
और कभी-कभी यह
एक बेहद काव्यात्मक न्यायपूर्ण निर्णय होता है।
जैसे कि अभी मैं सोच रही हूँ
कि आने वाले कुछ वर्षों तक
बन्द कर दिया जाये कविताएँ लिखना,
लोगों को उम्मीदों, भविष्य और लड़ने की
ज़रूरत के बारे में सीधे-सीधे
कुछ बताया जाये,
कुछ राजनीतिक अध्ययन-मण्डल और
कुछ सांस्कृतिक अभियान चलाये जायें,
छँटनी-तालाबन्दी और महँगाई-बेरोज़गारी के ख़िलाफ़
कुछ आन्दोलन किये जायें,
कुछ राजनीतिक प्रचार किया जाये,
कुछ अर्थशास्त्र, कुछ दर्शन
और कुछ अपने समय का अध्ययन किया जाये,
कुछ यात्राएँ की जायें
और कुछ जोखिम उठाये जायें।
इस तरह कविता के भविष्य के प्रति
और अधिक आश्वस्त हुआ जाये,
उसे और अधिक उन्नत बनाया जाये।
(जुलाई, 1997)
आम आदमी का प्यार
जब भी इस पृथ्वी पर कहीं
कोई एक बेहद आम आदमी
किसी से कहता है : “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,”
तो दरअसल वह ख़ुद को ही
विश्वास दिला रहा होता है
कि वह अभी भी प्यार करने की कूव्वत रखता है,
कि वह प्यार कर सकता है
दुनिया की तमाम विपत्तियों, तमाम सन्देहों,
तमाम युद्धों, तमाम अनिश्चय
और तमाम बेगानापन के बावजूद।
उस समय वह ख़ुद को
विश्वास दिला रहा होता है
कि वह सिर्फ़ ख़ुद को ही नहीं
किसी दूसरे को भी चाह सकता है
और शायद इतना चाह सकता है
जितना कि ख़ुद को भी नहीं
या शायद इतना चाह सकता है
कि ख़ुद को भूल सकता है।
जब भी कोई साधारण आदमी
कहता है, “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,”
तो वह ख़ुद से कह रहा होता है
कि वह अच्छाइयों से
प्यार करने की कूव्वत रखता है
(क्योंकि एक बुरा आदमी भी
बुराइयों से कभी प्यार नहीं करता,
वह उनका ग़ुलाम होता है
और एक ग़ुलाम
मालिक को कभी प्यार नहीं करता,
बल्कि अवश होता है उसके सामने)
और इसलिए,
ज़रूरत पड़ी तो
अच्छाइयों पर आने वाले हर संकट के ख़िलाफ़
तनकर खड़ा भी हो सकता है।
जब भी इस पृथ्वी पर
तमाम अन्याय-अत्याचार
शोषण-असमानता, ग़रीबी-बेरोज़गारी
और महँगाई के बीच जीने वाला
कोई एक निहायत मामूली आदमी
किसी से कहता है, “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,”
तो वह इस जाती हुई अनाचारी सदी द्वारा
उपस्थित की गयी चुनौतियों को
स्वीकार कर रहा होता है
(अब यह एक दीगर बात है
कि कब तक वह
अपने संकल्प पर क़ायम रहता है
पर कम से कम उस समय
वह अपने हृदय की सच्ची भावनाओं को
प्रकट कर रहा होता है
और सच्चे विश्वास के साथ
अपने समय के अँधेरे को
चुनौती दे रहा होता है)
जब भी कोई आम आदमी
अपने दिल की गहराइयों में छिपे
प्यार का इज़हार करता है
तो वह बेहतर भविष्य के प्रति ख़ुद को
आश्वस्त कर रहा होता है
या फिर वह अपने घुटनों की ताक़त
आज़मा रहा होता है कि वह अभी भी
कभी उठ खड़ा हो सकता है
हत्यारे की आँखों में झाँकता हुआ।
एक निहायत मामूली आदमी
जब खोलता है अपना हृदय
तो वह विस्मृति के विरुद्ध
संघर्ष कर रहा होता है
या फिर शब्दों के सही अर्थों तक
बेहद बेचैनी के साथ
पहुँचने की कोशिश कर रहा होता है।
(अगस्त, 1997)
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कात्यायनी
जन्म :1 मई 1959 | गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
समकालीन कवयित्री कात्यायनी का जन्म 7 मई 1959 को गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। हिंदी साहित्य में उच्च शिक्षा के बाद वह विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से संबंद्ध रहीं और वामपंथी सामाजिक-सांस्कृतिक मंचों से संलग्नता के साथ स्त्री-श्रमिक-वंचित से जुड़े प्रश्नों पर सक्रिय रही हैं। बकौल विष्णु खरे ‘समाज उनके सामने ईमान और कविता कुफ़्र है, लेकिन दोनों से कोई निजात नहीं है-बल्कि हिंदी कविता के ‘रेआलपोलिटीक’ से वह एक लगातार बहस चलाए रहती हैं।’
‘चेहरों पर आँच’, ‘सात भाइयों के बीच चंपा’, ‘इस पौरुषपूर्ण समय में’, ‘जादू नहीं कविता’, ‘राख अँधेरे की बारिश में’, ‘फ़ुटपाथ पर कुर्सी’ और ‘एक कुहरा पारभाषी’ उनके काव्य-संग्रह हैं। उनके निबंधों का संकलन ‘दुर्ग-द्वार पर दस्तक’, ‘कुछ जीवंत कुछ ज्वलंत’ और ‘षड्यंत्ररत मृतात्माओं के बीच’ पुस्तकों के रूप में प्रकाशित है।
उनकी कविताओं के अनुवाद अँग्रेज़ी, रूसी और प्रमुख भारतीय भाषाओं में हुए हैं।
सम्पर्क : डी-68, निराला नगर, लखनऊ-226020
ई-मेल :katyayani.lko@gmail.com
दूरभाष : 09936650658
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एक निहायत मामूली आदमी
जब खोलता है अपना हृदय
तो वह विस्मृति के विरुद्ध
संघर्ष कर रहा होता है
या फिर शब्दों के सही अर्थों तक
बेहद बेचैनी के साथ
पहुँचने की कोशिश कर रहा होता है।
हर रचना लाजवाब!
आहिस्ते से फटकार लगाने वाली कविताएँ. आपको दूसरा पक्ष दिखाने वाली कविताएँ. सोचने को मजबूर करती और चैन भंग करने वाली कविताएँ.त्रिया चरित्र वाली कविता में प्रेम का स्वांग. का बिंब अदभुत है.
अभिनंदन…
प्रतिबन्ध कविता के मामले में कात्यायनी जी का कोई मुकाबला नहीं है। उनकी कविताएं में बरसों से पसंद करता रहा हूं और उनसे बहुत कुछ सीखने को भी मिलता है। महिला रचनाकारों में वह जाना पहचाना नाम है। वह एक्टिविस्ट है और अनेक लोगों के हितों को लेकर आवाज उठाती रही है और यही कारण है कि उनकी कविता धारदार होती है। रचना समय के जरिए हरि भटनागर सशक्त रचनाकारों की रचनाएं बरसों से प्रकाशित करते रहे हैं और उनका यह अभियान जारी रहे ऐसी कामना करता हूं -नरेंद्र गौड़
आपकी कविताएं नए आयाम खोलती हैं।बार बार पढ़ने को मजबूर करती है हर रचना।
मूलतः मैं नाट्यकर्मी हूं और आपकी रचना नाट्य प्रयोग की प्रबल दावेदार प्रतीत होती है।बधाइयां।
आलोक गच्छ
बेहद संवेदनशील कविताएं 🌸🙏🌸
कात्यायनी हमेशा से मेरी प्रिय कवयित्री रहीं हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता और प्रखरता , विषय कथ्य में नवीनता, गहराई और ठहराव है, भाषा में सहज नवीनता है जो धीमे से पाठक के पास खटखटाती है, धीमे से अपनी बात कहती है। पाठक कविता के विचार के नीचे ऊब, बोझ या दोहराव नहीं देखता बल्कि श्वास के साथ उस दिशा की ओर कल्पना करता है जिस कविता इशारा कर रही है।