डी एम मिश्र एक ऐसे ग़ज़लगो हैं जो किसी भी विषय को कवित्त का रूप दे देते हैं। लेकिन इस कवित्त में शिल्प का झाग नहीं रहता वरन् एक विचार प्रवहमान रहता है जो आपको विवेकपूर्ण सोच से घेर लेता है। यहां कुछ ग़ज़लें प्रस्तुत हैं। – हरि भटनागर

 ग़ज़लें:

1

काट दो तो और कल्ले फूटते हैं
और भी ताज़े, हरे वे दीखते हैं

खूं उतर आता है जब आँखों में यारो
तब उन्हीं झरनों से शोले फूटते हैं

चींटियों के संगठित दल देखकर के
हाथियों के भी पसीने छूटते हैं

मान लूँ कैसे कि वो इंसान चुप है
उसके माथे पर पड़े बल बोलते हैं

ऐसे अय्यारों को भी देखा है मैंने
ख़ास बनकर के जो पत्ता काटते हैं

जिनको अपने आप पर होता भरोसा
आसमानों को वो छूकर लौटते हैं

वो कभी प्यासे नहीं मरते यक़ीनन
जो बियाबानों में दरिया ढूँढते हैं

2

जलेगा चमन तो धुआँ भी उठेगा
धुआँ जो उठेगा तो सबको दिखेगा

अकेला नहीं घर है बस्ती में मेरा
मेरा घर जलेगा तो किसका बचेगा

अभी आप के हाथ में है चला लें
यही अस्त्र कल आप पर भी चलेगा

अदावत करे लाख मुझ से ज़माना
झुका है न यह सर , न आगे झुकेगा

यही साँप जो पल रहा आस्तीं में
रहे याद कल यह तुम्हें भी डसेगा

सितमगर तुझे मेरी चेतावनी है
हमेशा यही वक्त थोड़े रहेगा

यही शाम को रोज़ महसूस होता
भले कोई मौसम हो सूरज ढलेगा

उसी को मगर याद रखेगी दुनिया
जो सुकरात बनकर ज़हर भी पियेगा

3

बात सच्ची थी तो मैं भी अड़ गया
इक अकेला फ़ौज से भी लड़ गया

नेवले से था छुड़ाया साँप को
साँप वो मेरे गले ही पड़ गया

जांय पशु पंछी बेचारे अब कहाँ
ताल का पानी तो सारा सड़ गया

आँख मैंने खोल रक्खी थी ज़रूर
पर , अचानक आँख में कंकड़ गया

दूर तक दिखता नहीं मुझको बसंत
मान लूँ कैसे भला पतझड़ गया

दंभ में आकर हुई ऐसी ख़ता
शर्म के मारे ज़मीं में गड़ गया

यकबयक सब लोग धोखा खा गये
बंद पिंजरे से सुआ जब उड़ गया

4

सफ़र में ये होता है हैरां नहीं हूँ
थका हूँ मगर मैं परीशां नहीं हूँ

अगर ज़िंदगी है तो ख़तरे भी होंगे
मगर डरने वाला मैं इन्सां नहीं हूँ

समय के मुताबिक तो चलना ही पड़ता
बदलता हूँ , हर पल मैं यक्सां नहीं हूँ

भरोसा तो करिए वफ़ादार हूँ , पर
मुझे लूट लो , मैं वो सामां नहीं हूँ

ढले शाम हो जाए जिसका शटर बंद
मुहब्बत की कोई मैं दूकां नहीं हूँ

समझता हूं मैं क्या वहाँ चल रहा है
मैं भोला हूँ , लेकिन मैं नादां नहीं हूँ

भले चार पल की है यह ज़िंदगानी
मैं मालिक हूँ तब तक , मैं मेहमां नहीं हूँ

5

ज़माने से औरत सतायी हुई है
नहीं ख़त्म होती जो वो त्रासदी है

दरिंदे इधर तो उधर भेड़िये हैं
बचे कैसे हिरनी मुसीबत बड़ी है

कोई डर दिखाता कोई देता लालच
कोई बोलता है कि मछली फंसी है

महल में हो या झोपड़ी में हो औरत
जहाँ भी हो औरत कहानी वही है

सरलता ही देखी है औरत की तूने
प्रलय भी मचा दे ये ऐसी नदी है

जो आँगन में कल तुमको अबला दिखी थी
समर में वही आज चंडी बनी है

बहुत देर से साँप पीछे पड़ा था
पर अब मोरनी भी वो तनकर खड़ी है

पतंगों को जाकर ख़बरदार कर दो
ज़माना नया है, नयी रोशनी है

6

और कितना जलें रोशनी के लिए
बुझ गए जो दिए, बुझ गए वो दिए

इक तरह से ही दुनिया से रुख़्सत हुए
वो जो भूखे थे, वो जो थे खाए पिए

यूँ तो बरसों बरस ठाट से हम रहे
चार पल भी मगर कब सुकूँ से जिए

लीक पर चल के क्या, कुछ नया पा सके?
ले के जोख़िम नये रास्ते खोजिए

चार दिन के लिए ही थी कुर्सी मिली
दूसरों के लिए अब इसे छोड़िए

काफ़ी दौलत बनायी हुज़ूर आपने
साथ ले जा सकें गर तो ले जाइए

साथ मेरा तुम्हारा यहीं तक का था
मैं चला दोस्त कोई नया ढूँढिये

7

क़ातिलों के नगर में ज़िंदा हूँ
भीड़ है साथ मगर तन्हा हूँ

मुरदा होता तो पूछता ही कौन
ज़िंदा हूँ इसलिए तो ऐसा हूँ

उसने फ़तवा भी कर दिया ज़ारी
उसके धंधे के बीच रोड़ा हूँ

जब तलक हूँ ये घर सुरक्षित है
यूँ तो छोटा सा एक ताला हूँ

मुझको विज्ञान का भरोसा है
पर, ख़ुदा पर यक़ीन करता हूँ

सिर्फ़ माँ के जिगर का टुकड़ा नहीं
बाप का भी मैं अपने बेटा हूँ

मुस्कराना तो मेरी आदत है
तुम समझते रहो कि अच्छा हूँ

ज्ञान बेशक नहीं है उर्दू का
प्यार उर्दू से मगर करता हूँ

हिन्दू – मुस्लिम हैं जिसकी दो आँखें
ऐसे हिन्दोस्ताँ में रहता हूँ

8

फूल से पाँव में चुभे काँटे
बेरहम कितने हो गये काँटे

कुछ थे छोटे तो कुछ बड़े काँटे
कुछ थे सूखे तो कुछ हरे काँटे

क्या कहें ऐसे जाहिलों को जो
साफ़ रस्ते में बो दिए काँटे

ज़िन्दगी रुक सी है गयी मेरी
राह में विघ्न बन गये काँटे

सिलसिला ख़त्म ही नहीं होता
और कितने अभी बचे काँटे

क्या बिगाड़ा था मैंने काँटों का
क्यों मेरे पाँव में चुभे काँटे


डी एम मिश्र:
जन्म स्थान – सुलतानपुर
प्रकाशित पुस्तकें – कविता की छ: और ग़ज़ल की सात।

जनवादी ग़ज़लकार के रूप में ख्यात।

इनसे अलग मेरी ग़ज़लों पर केन्द्रित तीन पुस्तकें प्रकाशित
1 – आलोचक डॉ जीवन सिंह के संपादन में आयी है पुस्तक ” ग़ज़ल संचयन : डी एम मिश्र “।
2- डी एम मिश्र के चुने शेर संपादन किया है हरेराम समीप ने।
3- आलोचना पुस्तक ” ग़ज़लकार डी एम मिश्र : सृजन के समकालीन सरोकार ” संपादन किया है पतहर पत्रिका के संपादक विभूति नारायण ओझा ने।

” कविता कोश ” और ”
” हिंदवी ” पर भी उपलब्ध हैं मेरी गज़ल़ें।

विशेष – कई गायकों ने भी ग़ज़लें गायी हैं। नेशनल न्यूज़ चैनल पर एंकरों द्वारा समाचार वाचन के दौरान अक्सर शेरों को उद्धृत करना। मेरी ग़ज़लों को केन्द्र में रखकर शोध कार्य भी हो रहे।

सम्पर्क — मो नं 7985934703
ई मेल – dmmishra28@gmail.com

 


Discover more from रचना समय

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Categorized in: