‘ मेरा जीवन ‘ चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा है जो अपने में महाकाव्य के गुण छिपाए हुए है। चार्ली का बचपन ग़रीबी में ग़ुज़रा। अपने कॅरियर की शुरुआत के बारे में चार्ली का यह अंश ग़ौरतलब है – मां की आवाज़ के ख़राब होते चले जाने के कारण ही था कि मुझे पांच बरस की उम्र में पहली बार स्टेज पर उतरना पड़ा। उस रात मैं अपनी ज़िंदग़ी में पहली बार स्टेज पर उतरा था और मां आखिरी बार। अभी मैंने आधा ही गीत गाया था कि स्टेज पर सिक्कों की बरसात होने लगी। मैंने तत्काल घोषणा कर दी कि मैं पहले पैसे बटोरूंगा और उसके बाद ही गाना गाऊंगा। इस बात पर और अधिक ठहाके लगे…
चार्ली ने अधिकांश मूक फ़िल्में बनायीं और जीवन भर बेज़ुबान ट्रैम्प के चरित्र को साकार करते रहे और दुनिया भर के असंख्य लोगों से संवाद बनाए रखा और पीड़ित अवाम की ढरेॅ की जीवनशैली को बदलने का संदेश दिया और बड़े से बड़े तानाशाह को चिढ़ा डाला।
चार्ली की आत्मकथा एक शोकगीत की तरह है जो हँस- हँस के जीवन – स्थितियों का पाठ प्रस्तुत करती है।
यहां हम आत्मकथा का प्रारम्भिक अंश प्रस्तुत कर रहे हैं। सम्पूर्ण आत्मकथा का अनुवाद सूरज प्रकाश ने किया है जो इसी दीवाली पर नए एडिशन में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होकर आई है – हरि भटनागर
आत्मकथा
मेरा जन्म ईस्ट लेन, वेलवर्थ में 16 अप्रैल 1889 को रात आठ बजे हुआ था। इसके तुरंत बाद, हम, सेंट स्क्वायर, सेंट जॉर्ज रोड, लैम्बेथ में रहने चले गये थे। मेरी मां का कहना है कि मेरी दुनिया खुशियों से भरी हुई थी। हमारी परिस्थितियां कमोबेश ठीक-ठाक थीं। हम तीन कमरों के घर में रहते थे जो सुरुचिपूर्ण तरीके से सजे हुए थे। मेरी शुरुआती स्मृतियों में से एक तो ये है कि मां रोज़ रात को थियेटर जाया करती थी और मुझे और सिडनी को बहुत ही प्यार से आरामदायक बिस्तर में सहेज कर लिटा जाती थी और हमें नौकरानी की देख-रेख में छोड़ जाती थी। साढ़े तीन बरस की मेरी दुनिया में सब कुछ संभव था; अगर सिडनी, जो मुझसे चार बरस बड़ा था, हाथ की सफाई के करतब दिखा सकता था और सिक्का निगल कर अपने सिर के पीछे से निकाल कर दिखा सकता था तो मैं भी ठीक ऐसे ही कर के दिखा सकता था। इसलिए मैं अध पेनी का एक सिक्का निगल गया और मज़बूरन मां को डॉक्टर बुलवाना पड़ा।
रोज़ रात को जब वह थियेटर से वापिस लौटती थी तो उसका यह दस्तूर-सा था कि मेरे और सिडनी के लिए खाने की अच्छी-अच्छी चीज़ें मेज़ पर ढक कर रख देती थी ताकि सुबह उठते ही हमें मिल जायें – रंग-बिरंगे और सुगंधित केक का स्लाइस या मिठाई। इसके पीछे आपसी रज़ामंदी यह थी कि हम सुबह उठ कर शोर-शराबा नहीं करेंगे। वह आम तौर पर देर तक सो कर उठती थी।
मां वैराइटी स्टेज की कलाकार थी। अपनी उम्र के तीसरे दशक को छूती वह नफ़ासत पसंद महिला थी। उसका रंग साफ़ था, आंखें बैंजनी नीली और लम्बे, हल्के भूरे बाल। बाल इतने लम्बे कि वह आसानी से उन पर बैठ सकती थी। सिडनी और मैं अपनी मां को बहुत चाहते थे। हालांकि वह असाधारण खूबसूरत नहीं थी फिर भी वह हमें स्वर्ग की किसी अप्सरा से कम नहीं लगती थी। जो लोग उसे जानते थे उन्होंने मुझे बाद में बताया था कि वह सुंदर और आकर्षक थी और उसमें सामने वाले को बांध लेने वाले सौन्दर्य का जादू था। रविवार के सैर-सपाटे के लिए हमें अच्छे कपड़े पहनाना उसे बहुत अच्छा लगता था। वह सिडनी को लम्बी पतलून के साथ चौड़े कालर वाला सूट पहनाती, और मुझे नीली मखमली पतलून और उससे मेल खाते नीले दस्ताने। इस तरह के मौके आत्मतुष्टि के उत्सव होते जब हम केनिंगटन रोड पर इतराते फिरते।
तभी कुछ हुआ। ये एक महीने के बाद की बात भी हो सकती है या थोड़े ही दिनों के बाद की भी। अचानक लगा कि मां और बाहर की दुनिया के साथ सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। वह सुबह से अपनी किसी सखी के साथ बाहर गयी हुई थी और वापिस लौटी तो बहुत अधिक उत्तेजना से भरी हुई थी। मैं फर्श पर खेल रहा था और अपने ठीक ऊपर चल रहे भीषण तनाव के बारे में सतर्क हो गया था। ऐसा लग रहा था मानो मैं कुंए की तलहटी में सुन रहा होऊं। मां भावपूर्ण तरीके से हाव-भाव जतला रही थी, रोये जा रही थी और बार-बार आर्मस्ट्रंग का नाम ले रही थी – आर्मस्ट्रंग ने ये कहा और आर्मस्ट्रंग ने वो कहा। आर्मस्ट्रंग जंगली है। मां की इस तरह की उत्तेजना हमने पहले नहीं देखी थी और यह इतनी तेज थी कि मैंने रोना शुरू कर दिया। मैं इतना रोया कि मज़बूरन मां को मुझे गोद में उठाना पड़ा और दिलासा देनी पड़ी। कुछ बरस बाद ही मुझे उस दोपहरी के महत्त्व का पता चल पाया था। मां अदालत से लौटी थी। वहां उसने मेरे पिता पर बच्चों के भरण पोषण का खर्चा-पानी न देने की वजह से मुकदमा ठोक रखा था और बदकिस्मती से मामला उसके पक्ष में नहीं जा रहा था। आर्मस्ट्रंग मेरे पिता का वकील था।
मैं पिता को बहुत ही कम जानता था और मुझे इस बात की बिल्कुल भी याद नहीं थी कि वे कभी हमारे साथ रहे हों। वे भी वैराइटी स्टेज के कलाकार थे। एकदम शांत और चिंतनशील। आंखें उनकी एकदम काली थीं। मां का कहना था कि वे एकदम नेपोलियन की तरह दीखते थे। उनकी हल्की महीन आवाज़ थी और उन्हें बेहतरीन अदाकार समझा जाता था। उन दिनों भी वे हर हफ्ते चालीस पौंड की शानदार रकम कमा लिया करते थे। बस, दिक्कत सिर्फ एक ही थी कि वे पीते बहुत थे। मां के अनुसार यही उन दोनों के बीच झगड़े की जड़ थी।
स्टेज कलाकारों के लिए यह बहुत ही मुश्किल बात होती कि वे पीने से अपने आपको रोक सकें। कारण यह था कि उन दिनों शराब सभी थियेटरों में ही बिका करती थी और कलाकार की अदाकारी के बाद उससे उम्मीद की जाती थी कि वह थियेटर बार में जाये और ग्राहकों के साथ बैठ कर पीये। कुछ थियेटर तो बॉक्स ऑफिस से कम और शराब बेच कर ज्यादा कमा लिया करते थे। कुछेक कलाकारों को तो तगड़ी तन्ख्वाह ही दी जाती थी जिनमें उनकी प्रतिभा का कम और उस पगार को थियेटर के बार में उड़ाने का ज्यादा योगदान रहता था। इस तरह से कई बेहतरीन कलाकार शराब के चक्कर में बरबाद हो गये। मेरे पिता भी ऐसे कलाकारों में से एक थे। वे मात्र सैंतीस बरस की उम्र में ज्यादा शराब के कारण भगवान को प्यारे हो गये थे।
मां उनके बारे में मज़ाक ही मज़ाक में और उदासी के साथ किस्से बताया करती थी। शराब पीने के बाद वे उग्र स्वभाव के हो जाते थे और उनकी इसी तरह की एक बार की दारूबाजी की नौटंकी में मां उन्हें छोड़-छाड़ कर अपनी कुछ सखियों के साथ ब्राइटन भाग गयी थी। पिता जी ने जब हड़बड़ी में तार भेजा,”तुम्हारा इरादा क्या है और तुरंत जवाब दो?” तो मां ने वापसी तार भेजा था,”नाच, गाना, पार्टियां और मौज-मज़ा, डार्लिंग!”
अट्ठारह बरस की उम्र में मां एक अधेड़ आदमी के साथ अफ्रीका भाग गयी थी। वह अक्सर वहां की अपनी ज़िंदगी की बात किया करती थी कि किस तरह से वह वहां पेड़ों के झुरमुटों, नौकरों और जीन कसे घोड़ों के बीच मस्ती भरी ज़िंदगी जी रही थी।
उसकी उम्र के अट्ठारहवें बरस में मेरे बड़े भाई सिडनी का जन्म हुआ था। मुझे बताया गया था कि वह एक लॉर्ड का बेटा था और जब वह इक्कीस बरस का हो जायेगा तो उसे वसीयत में दो हजार पौंड की शानदार रकम मिलेगी। इस समाचार से मैं एक साथ ही दुखी और खुश हुआ करता था।
मां बहुत अरसे तक अफ्रीका में नहीं रही और इंग्लैंड में आ कर उसने मेरे पिता से शादी कर ली। मुझे नहीं पता कि उसकी ज़िंदगी के अफ्रीकी घटना-चक्र का क्या हुआ, लेकिन भयंकर गरीबी के दिनों में मैं उसे इस बात के लिए कोसा करता था कि वह इतनी शानदार ज़िंदगी काहे को छोड़ आयी थी। वह हँस देती और कहा करती कि मैं इन चीज़ों को समझने की उम्र से बहुत कम हूं और मुझे इस बारे में इतना नहीं सोचना चाहिये।
वह पिताजी को अफ्रीका जाने से पहले के दिनों से जानती थी। वे एक दूसरे को प्यार करते थे और उन्होंने शामुस ओ’ब्रीयन नाम के एक आयरिश मेलोड्रामा में एक साथ काम किया था। सोलह बरस की उम्र में मां ने उसमें प्रमुख भूमिका निभायी थी। कम्पनी के साथ टूर करते हुए मां एक अधेड़ उम्र के लॉर्ड के सम्पर्क में आयी और उसके साथ अफ्रीका भाग गयी। जब वह वापिस इंग्लैंड आयी तो पिता ने अपने रोमांस के टूटे धागों को फिर से जोड़ा और दोनों ने शादी कर ली। तीन बरस बाद मेरा जन्म हुआ था। मैं नहीं जानता कि शराबखोरी के अलावा और कौन-कौन सी घटनाएं काम कर रही थीं लेकिन मेरे जन्म के एक बरस के ही बाद वे दोनों अलग हो गये थे। मां ने गुज़ारे भत्ते की भी मांग नहीं की थी। वह उन दिनों खुद एक स्टार हुआ करती थी और हर हफ्ते 25 पौंड कमा रही थी। उसकी माली हैसियत इतनी अच्छी थी कि अपना और अपने बच्चों का भरण पोषण कर सके। लेकिन जब उसकी ज़िंदगी में दुर्भाग्य ने दस्तक दी तभी उसने मदद की मांग की। अगर ऐसा न होता तो उसने कभी भी कानूनी कार्रवाई न की होती।
मां को उसकी आवाज़ बहुत तकलीफ दे रही थी। वैसे भी उसकी आवाज़ कभी भी इतनी बुलंद नहीं थी लेकिन ज़रा-सा भी सर्दी-जुकाम होते ही उसकी स्वर तंत्री में सूजन आ जाती थी जो फिर हफ्तों चलती रहती थी; लेकिन उसे मज़बूरी में काम करते रहना पड़ता था। इसका नतीजा यह हुआ कि उसकी आवाज़ बद से बदतर होती चली गयी। वह अब अपनी आवाज़ पर भरोसा नहीं कर सकती थी। गाना गाते-गाते बीच में ही उसकी आवाज़ भर्रा जाती या अचानक गायब ही हो जाती और फुसफुसाहट में बदल जाती। तब श्रोता बीच में ठहाके लगने लगते। वे गला फाड़ का चिल्लाना शुरू कर देते। आवाज़ की चिंता ने मां की सेहत को और भी डांवाडोल कर दिया था और उसकी हालत मानसिक रोगी जैसी हो गयी। नतीजा यह हुआ कि उसे थियेटर से बुलावे आने कम होते चले गये और एक दिन ऐसा भी आया कि बिल्कुल बंद ही हो गये।
ये उसकी आवाज़ के खराब होते चले जाने के कारण ही था कि मुझे पांच बरस की उम्र में पहली बार स्टेज पर उतरना पड़ा। मां आम तौर पर मुझे किराये के कमरे में अकेला छोड़ कर जाने के बजाये रात को अपने साथ थियेटर ले जाना पसंद करती थी। वह उस वक्त कैंटीन एट द’ एल्डरशाट में काम कर रही थी। ये एक गंदा, चलताऊ-सा थियेटर था जो ज्यादातर फौजियों के लिए खेल दिखाता था। वे लोग उजड्ड किस्म के लोग होते थे और उन्हें भड़काने या ओछी हरकतों पर उतर आने के लिए मामूली-सा कारण ही काफी होता था। एल्डरशॉट में नाटकों में काम करने वालों के लिए वहां एक हफ्ता भी गुज़ारना भयंकर तनाव से गुज़रना होता था।
मुझे याद है, मैं उस वक्त विंग्स में खड़ा हुआ था जब पहले तो मां की आवाज़ फटी और फिर फुसफुसाहट में बदल गयी। श्रोताओं ने ठहाके लगाना शुरू कर दिये और अनाप-शनाप गाने लगे और कुत्ते बिल्लियों की आवाजें निकालना शुरू कर दिया। सब कुछ अस्पष्ट-सा था और मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि ये सब क्या चल रहा है। लेकिन शोर-शराबा बढ़ता ही चला गया और मज़बूरन मां को स्टेज छोड़ कर आना पड़ा। जब वह विंग्स में आयी तो बुरी तरह से व्यथित थी और स्टेज मैनेजर से बहस कर रही थी। स्टेज मैनेजर ने मुझे मां की सखियों के आगे अभिनय करते देखा था। वह मां से शायद यह कह रहा था कि उसके स्थान पर मुझे स्टेज पर भेज दे।
और इसी हड़बड़ाहट में मुझे याद है कि उसने मुझे एक हाथ से थामा था और स्टेज पर ले गया था। उसने मेरे परिचय में दो चार शब्द बोले और मुझे स्टेज पर अकेला छोड़ कर चला गया। और वहां फुट लाइटों की चकाचौंध और धुंए की पीछे झांकते चेहरों के सामने मैंने गाना शुरू कर दिया। ऑरक्रेस्टा मेरा साथ दे रहा था। थोड़ी देर तक तो वे भी गड़बड़ बजाते रहे और आखिर उन्होंने मेरी धुन पकड़ ही ली। ये उन दिनों का एक मशहूर गाना जैक जोन्स था।
अभी मैंने आधा ही गीत गाया था कि स्टेज पर सिक्कों की बरसात होने लगी। मैंने तत्काल घोषणा कर दी कि मैं पहले पैसे बटोरूंगा और उसके बाद ही गाना गाऊंगा। इस बात पर और अधिक ठहाके लगे। स्टेज मैनेजर एक रुमाल ले कर स्टेज पर आया और सिक्के बटोरने में मेरी मदद करने लगा। मुझे लगा कि वो सिक्के अपने पास रखना चाहता है। मैंने ये बात दर्शकों तक पहुंचा दी तो ठहाकों का जो दौरा पड़ा वो थमने का नाम ही न ले। खास तौर पर तब जब वह रुमाल लिये-लिये विंग्स में जाने लगा और मैं चिंतातुर उसके पीछे-पीछे लपका। जब तक उसने सिक्कों की वो पोटली मेरी मां को नहीं थमा दी, मैं स्टेज पर वापिस गाने के लिए नहीं आया। अब मैं बिल्कुल सहज था। मैं दर्शकों से बातें करता रहा, मैं नाचा और मैंने तरह-तरह की नकल करके दिखायी। मैंने मां के आयरिश मार्च थीम की भी नकल करके बतायी।
और कोरस को दोहराते हुए मैं अपने भोलेपन में मां की आवाज़ के फटने की भी नकल कर बैठा। मैं ये देख कर हैरान था कि दर्शकों पर इसका जबरदस्त असर पड़ा है। खूब हंसी के पटाखे छूट रहे थे। लोग खूब खुश थे और इसके बाद फिर सिक्कों की बौछार। और जब मां मुझे स्टेज से लिवाने के लिए आयी तो उसकी मौज़ूदगी पर लोगों ने जम के तालियां बजायीं। उस रात मैं अपनी ज़िंदगी में पहली बार स्टेज पर उतरा था और मां आखिरी बार।
जब नियति आदमी के भाग्य के साथ खिलवाड़ करती है तो उसके ध्यान में न तो दया होती है और न ही न्याय ही। मां के साथ भी नियति ने ऐसे ही खेल दिखाये। उसे उसकी आवाज़ फिर कभी वापिस नहीं मिली। जब पतझड़ के बाद सर्दियां आयीं तो हमारी हालत बद से बदतर हो गयी। हालांकि मां बहुत सावधान थी और उसने थ़ोड़े-बहुत पैसे बचा कर रखे थे लेकिन कुछ ही दिन में ये पूंजी भी खत्म हो गयी। धीरे-धीरे उसके गहने और छोटी-मोटी चीज़ें बाहर का रास्ता देखने लगीं। ये चीज़ें घर चलाने के लिए गिरवी रखी जा रही थीं। और इस पूरे अरसे के दौरान वह उम्मीद करती रही कि उसकी आव़ाज़ वापिस लौट आयेगी।
इस बीच हम तीन आरामदायक कमरों के मकान में से दो कमरों के मकान में और फिर एक कमरे के मकान में शिफ्ट हो चुके थे। हमारा सामान कम होता चला जा रहा था और हर बार हम जिस तरह के पड़ोस में रहने के लिए जाते, उसका स्तर नीचे आता जा रहा था।
मां जब से धर्म की शरण में गयी थी, वह थियेटर की अपनी सखियों से कभी-कभार ही मिल पाती। उसकी वह दुनिया अब छू मंतर हो चुकी थी और उसकी अब यादें ही बची थीं। ऐसा लगता था मानो हम हमेशा से ही इस तरह के दयनीय हालात में रहते आये थे। बीच का एक बरस तो तकलीफों के पूरे जीवन काल की तरह लगा था। हम अब बेरौनक धुंधलके कमरे में रहते थे। काम-धाम तलाशना बहुत ही दूभर था और मां को स्टेज के अलावा कुछ आता-जाता नहीं था, इससे उसके हाथ और बंध जाते थे। वह छोटे कद की, लालित्य लिये भावुक महिला थी। वह विक्टोरियन युग की ऐसी भयंकर विकट परिस्थितियों से जूझ रही थी जहां अमीरी और गरीबी के बीच बहुत बड़ी खाई थी। गरीब-गुरबा औरतों के पास हाथ का काम करने, मेहनत मजूरी करने के अलावा और कोई चारा नहीं था या फिर थी दुकानों वगैरह में हाड़-तोड़ गुलामी। कभी-कभार उसे नर्सिंग का काम मिल जाता था लेकिन इस तरह के काम भी बहुत दुर्लभ होते और ये भी बहुत ही कम अरसे के लिए होते। इसके बावजूद वह कुछ न कुछ जुगाड़ कर ही लेती। वह थियेटर के लिए अपनी पोशाकें खुद सीया करती थी इसलिए सीने-पिरोने के काम में उसका हाथ बहुत अच्छा था। इस तरह से वह चर्च के लोगों की कुछ पोशाकें सी कर कुछेक शिलिंग कमा ही लेती थी। लेकिन ये कुछ शिलिंग हम तीनों के गुज़ारे के लिए नाकाफी होते।
पिता जी की दारूखोरी के कारण उन्हें थियेटर में काम मिलना अनियमित होता चला गया और इस तरह हर हफ्ते मिलने वाला उनका दस शिलिंग का भुगतान भी अनियमित ही रहता।
मां अब तक अपनी अधिकांश चीज़ें बेच चुकी थी। सबसे आखिर में बिकने के लिए जाने वाली उसकी वो पेटी थी जिसमें उसकी थियेटर की पोशाकें थीं। वह इन चीज़ों को अब तब इसलिए अपने पास संभाल कर रखे हुए थी कि शायद कभी उसकी आवाज़ वापिस लौट आये और उसे फिर से थियेटर में काम मिलना शुरू हो जाये। कभी-कभी वह ट्रंक के भीतर झांकती कि शायद कुछ काम का मिल जाये। तब हम कोई मुड़ी-तुड़ी पोशाक या विग देखते तो उससे कहते कि वह इसे पहन कर दिखाये। मुझे याद है कि हमारे कहने पर उसने जज की एक टोपी और गाउन पहने थे और अपनी कमज़ोर आवाज़ में अपना एक पुराना सफल गीत सुनाया था। ये गीत उसने खुद लिखा था। गीत के बोल तुकबंदी लिये हुए थे:
आश्चर्यजनक तरीके से तब वह गरिमापूर्ण लगने वाले नृत्य की भंगिमाएं दिखाने लगती। वह तब कसीदाकारी भूल जाती और हमें अपने पुराने सफल गीतों से और नृत्यों से तब तक खुश करती रहती जब तक वह थक कर चूर न हो जाती और उसकी सांस न उखड़ने लगती। तब वह बीती बातें याद करते लगती और हमें अपने नाटकों के कुछ पुराने पोस्टर दिखाती।
जब वह हमारे सामने प्रदर्शन करती तो वह अपने खुद के मनोरंजक अंश तो दिखाती ही, दूसरी अभिनेत्रियों की भी नकल दिखाती जिन्हें उसने तथा कथित वैध थियेटरों में काम करते देखा था।
किसी नाटक को सुनाते समय वह अलग-अलग अंशों का अभिनय करके दिखाती। उदाहरण के लिए द’ साइन ऑफ द’ क्रॉस’ में मर्सिया अपनी आंखों में अलौकिक प्रकाश भरे, शेरों को खाना खिलाने के लिए मांद वाले पिंजरे में जाती है। वह हमें विल्सन बैरट की ऊंची पोप जैसी आवाज़ में नकल करके दिखाती। वह छोटे कद का आदमी था इसलिए पांच इंच ऊंची हील वाले जूते पहन कर घोषणा करता:”यह ईसाइयत क्या है, मैं नहीं जानता लेकिन मैं इतना ज़रूर जानता हूं कि..कि यदि ईसाइयत ने मर्सिया जैसी औरतें बनायी हैं तो रोम, नहीं, जगत ही इसके लिए पवित्रतम होगा।” इस अंश को हास्य की झलक के साथ करके दिखाती लेकिन उसमें बैरेट की प्रतिभा के प्रति सराहना भाव ज़रूर होता।
मुझे ओक्ले स्ट्रीट में तहखाने वाले एक कमरे के घर की वह शाम याद है। मैं बुखार उतरने के बाद बिस्तर पर लेटा आराम कर रहा था। सिडनी रात वाले स्कूल में गया हुआ था और मां और मैं अकेले थे। दोपहर ढलने को थी। मां खिड़की से टेक लगाये न्यू टेस्टामेंट पढ़ रही थी, अभिनय कर रही थी, और अपने अतुलनीय तरीके से उसकी व्याख्या कर रही थी। वह गरीबों और मासूम बच्चों के प्रति यीशू मसीह के प्रेम और दया के बारे में बता रही थी। शायद उसकी संवेदनाएं मेरे बुखार के कारण थीं, लेकिन उसने जिस शानदार और मन को छू लेने वाले ढंग से यीशू के नये अर्थ समझाये वैसे मैंने न तो आज तक सुने और न ही देखे ही हैं। मां उनकी सहिष्णुता और समझ के बारे में बता रही थी; उसने उस महिला के बारे में बताया जिससे पाप हो गया था और उसे भीड़ द्वारा पत्थर मार कर सज़ा दी जानी थी, और उनके प्रति यीशू के शब्द – “आप में से जिसने कभी पाप न किया हो वही आगे आ कर सबसे पहला पत्थर मारे।”
सांझ का धुंधलका होने तक वह पढ़ती रही। वह सिर्फ लैम्प जलाने की लिए ही उठी। तब उसने उस विश्वास के बारे में बताया जो यीशू मसीह ने बीमारों में जगाया था। बीमार को बस, उनके चोगे की तुरपन को ही छूना होता था और वे चंगे हो जाते थे।
जब वह ये सब सुना रही थी तो उसके गालों पर आंसू ढरके चले आ रहे थे। मां ने बताया कि किस तरह से साइमन ने क्रॉस ढोने में यीशू मसीह की मदद की थी और किस तरह भाव विह्वल हो कर यीशू ने उसे देखा था। मां ने बाराबास के बारे में बताया जो पश्चातापी था और क्रॉस पर उनके साथ ही मरा था। वह क्षमा मांग रहा था और यीशू कह रहे थे,”आज तुम मेरे साथ स्वर्ग में होवोगे”, और क्रॉस से अपनी मां की ओर देखते हुए यीशू ने कहा था,”मां, अपने बेटे को देखो।” और उनके अंतिम, मरते वक्त की पीड़ा भरी कराह,”मेरे परम पिता, आपने मुझे क्षमा क्यों नहीं किया?”
और हम दोनों रो पड़े थे।
“तुमने देखा”, मां कह रही थी, “वे मानवता से कितने भरे हुए थे। हम सब की तरह उन्हें भी संदेह झेलना पड़ा।”
मां ने मुझे इतना भाव विह्वल कर दिया था कि मैं उसी रात मर जाना और यीशू से मिलना चाहता था। लेकिन मां इतनी उत्साहित नहीं थी,”यीशू चाहते हैं कि पहले तुम जीओ और अपने भाग्य को यहीं पूरा करो।” उसने कहा था। ओक्ले स्ट्रीट के उस तहखाने के उस अंधेरे कमरे में मां ने मुझे उस ज्योति से भर दिया था जिसे विश्व ने आज तक जाना है और जिसने पूरी दुनिया को एक से बढ़ कर एक कथा तत्व वाले साहित्य और नाटक दिये हैं: प्यार, दया और मानवता।
हम समाज के जिस निम्नतर स्तर के जीवन में रहने को मज़बूर थे वहां ये सहज स्वाभाविक था कि हम अपनी भाषा-शैली के स्तर के प्रति लापरवाह होते चले जाते लेकिन मां हमेशा अपने परिवेश से बाहर ही खड़ी हमें समझाती और हमारे बात करने के ढंग, उच्चारण पर ध्यान देती रहती, हमारा व्याकरण सुधारती रहती और हमें यह महसूस कराती रहती कि हम खास हैं।
हम जैसे-जैसे और अधिक गरीबी के गर्त में उतरते चले गये, मैं अपनी अज्ञानता के चलते और बचपने में मां से कहता कि वह फिर से स्टेज पर जाना शुरू क्यों नहीं कर देती। मां मुस्कुराती और कहती कि वहां का जीवन नकली और झूठा है और कि इस तरह के जीवन में रहने से हम जल्दी ही ईश्वर को भूल जाते हैं। इसके बावज़ूद वह जब भी थियेटर की बात करती तो वह अपने आपको भूल जाती और उत्साह से भर उठती। यादों की गलियों में उतरने के बाद वह फिर से मौन के गहरे कूंए में उतर जाती और अपने सुई धागे के काम में अपने आपको भुला देती। मैं भावुक हो जाता क्योंकि मैं जानता था कि हम अब उस शानो-शौकत वाली ज़िंदगी का हिस्सा नहीं रहे थे। तब मां मेरी तरफ देखती और मुझे अकेला पा कर मेरा हौसला बढ़ाती।
सर्दियां सिर पर थीं और सिडनी के कपड़े कम होते चले जा रहे थे। इसलिए मां ने अपने पुराने रेशमी जैकेट में से उसके लिए एक कोट सी दिया था। उस पर काली और लाल धारियों वाली बांहें थीं। कंधे पर प्लीट्स थी और मां ने पूरी कोशिश की थी कि उन्हें किसी तरह से दूर कर दे लेकिन वह उन्हें हटा नहीं पा रही थी। जब सिडनी से वह कोट पहनने के लिए कहा गया तो वह रो पड़ा था,”स्कूल के बच्चे मेरा ये कोट देख कर क्या कहेंगे?”
“इस बात की कौन परवाह करता है कि लोग क्या कहेंगे?” मां ने कहा था,”इसके अलावा, ये कितना खास किस्म का लग रहा है।” मां का समझाने-बुझाने का तरीका इतना शानदार था कि सिडनी आज दिन तक नहीं समझ पाया है कि वह मां के फुसलाने पर वह कोट पहनने को आखिर तैयार ही कैसे हो गया था। लेकिन उसने कोट पहना था। उस कोट की वजह से और मां के ऊंची हील के सैंडिलों को काट-छांट कर बनाये गये जूतों से सिडनी के स्कूल में कई झगड़े हुए। उसे सब लड़के छेड़ते,”जोसेफ और उसका रंग बिरंगा कोट।” और मैं, मां की पुरानी लाल लम्बी जुराबों में से काट-कूट कर बनायी गयी जुराबें (लगता जैसे उनमें प्लीटें डाली गयी हैं।) पहन कर जाता तो बच्चे छेड़ते,”आ गये सर फ्रांसिस ड्रेक।”
इस भयावह हालात के चरम दिनों में मां को आधी सीसी सिर दर्द की शिकायत शुरू हुई। उसे मज़बूरन अपना सीने-पिरोने का काम छोड़ देना पड़ा। वह कई-कई दिन तक अंधेरे कमरे में सिर पर चाय की पत्तियों की पट्टियां बांधे पड़ी रहती। हमारा वक्त खराब चल रहा था और हम गिरजा घरों की खैरात पर पल रहे थे, सूप की टिकटों के सहारे दिन काट रहे थे और मदद के लिए आये पार्सलों के सहारे जी रहे थे। इसके बावजूद, सिडनी स्कूल के घंटों के बीच अखबार बेचता, और बेशक उसका योगदान ऊंट के मुंह में जीरा ही होता, ये उस खैरात के सामान में कुछ तो जोड़ता ही था। लेकिन हर संकट में हमेशा कोई न कोई क्लाइमेक्स भी छुपा होता है। इस मामले में ये क्लाइमेक्स बहुत सुखद था।
एक दिन जब मां ठीक हो रही थी, चाय की पत्ती की पट्टी अभी भी उसके सिर पर बंधी थी, सिडनी उस अंधियारे कमरे में हांफता हुआ आया और अखबार बिस्तर पर फेंकता हुआ चिल्लाया,”मुझे एक बटुआ मिला है।” उसने बटुआ मां को दे दिया। जब मां ने बटुआ खोला तो उसने देखा, उसमें चांदी और सोने के सिक्के भरे हुए थे। मां ने तुरंत उसे बंद कर दिया और उत्तेजना से वापिस अपने बिस्तर पर ढह गयी।
सिडनी अखबार बेचने के लिए बसों में चढ़ता रहता था। उसने बस के ऊपरी तल्ले पर एक खाली सीट पर बटुआ पड़ा हुआ देखा। उसने तुरंत अपने अखबार उस सीट के ऊपर गिरा दिये और फिर अखबारों के साथ पर्स भी उठा लिया और तेजी से बस से उतर कर भागा। एक बड़े से होर्डिंग के पीछे, एक खाली जगह पर उसने बटुआ खोल कर देखा और उसमें चांदी और तांबे के सिक्कों का ढेर पाया। उसने बताया कि उसका दिल बल्लियों उछल रहा था और वह बिना पैसे गिने ही घर की तरफ भागता चला आया।
जब मां की हालत कुछ सुधरी तो उसने बटुए का सारा सामान बिस्तर पर उलट दिया। लेकिन बटुआ अभी भी भारी था। उसके बीच में भी एक जेब थी। मां ने उस जेब को खोला और देखा कि उसके अंदर सोने के सात सिक्के छुपे हुए थे। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं था। ईश्वर का लाख-लाख शुक्र कि बटुए पर कोई पता नहीं था। इसलिए मां की झिझक थोड़ी कम हो गयी थी। हालांकि उस बटुए के मालिक के दुर्भाग्य के प्रति थोड़ा-सा अफ़सोस जताया गया था, अलबत्ता, मां के विश्वास ने तुरंत ही इसे हवा दे दी कि ईश्वर ने इसे हमारे लिए एक वरदान के रूप में ऊपर से भेजा है।
मां की बीमारी शारीरिक थी अथवा मनोवैज्ञानिक, मैं नहीं जानता। लेकिन वह एक हफ्ते के भीतर ही ठीक हो गयी। जैसे ही वह ठीक हुई, हम छुट्टी मनाने के लिए समुद्र के दक्षिण तट पर चले गये। मां ने हमें ऊपर से नीचे तक नये कपड़े पहनाये।
पहली बार समुद्र को देख मैं जैसे पागल हो गया था। जब मैं उस पह़ाड़ी गली में तपती दोपहरी में समुद्र के पास पहुंचा तो मैं ठगा-सा रह गया। हम तीनों ने अपने जूते उतारे और पानी में छप-छप करते रहे। मेरे तलुओं और मेरे टखनों को गुदगुदाता समुद्र का गुनगुना पानी और मेरे पैरों के तले से सरकती नम, नरम और भुरभुरी रेत.. मेरे आनंद का ठिकाना नहीं था।
वह दिन भी क्या दिन था। केसरी रंग का समुद्र तट, उसकी गुलाबी और नीली डोलचियां और उस पर लकड़ी के बेलचे। उसके सतरंगी तंबू और छतरियां, लहरों पर इतराती कश्तियां, और ऊपर तट पर एक तरह करवट ले कर आराम फरमाती कश्तियां जिनमें समुद्री सेवार की गंध रची-बसी थी और वे तट। इन सबकी यादें अभी भी मेरे मन में चरम उत्तेजना से भरी हुई लगती हैं।
बालू घड़ी में भरी रेत की तरह हमारा खज़ाना चुक गया। मुश्किल समय एक बार फिर हमारे सामने मुंह बाये खड़ा था। मां ने दूसरा रोज़गार ढूंढने की कोशिश की लेकिन कामकाज कहीं था ही नहीं। किस्तों की अदायगी का वक्त हो चुका था। नतीजा यही हुआ कि मां की सिलाई मशीन उठवा ली गयी। पिता की तरफ से जो हर हफ्ते दस शिलिंग की राशि आती थी, वह भी पूरी तरह से बंद हो गयी।
हताशा के ऐसे वक्त में मां ने दूसरा वकील करने की सोची। वकील ने जब देखा कि इसमें से मुश्किल से ही वह फीस भर निकाल पायेगा, तो उसने मां को सलाह दी कि उसे लैम्बेथ के दफ्तर के प्राधिकारियों की मदद लेनी चाहिये ताकि अपने और अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए पिता पर मदद के लिए दबाव डाला जा सके।
और कोई उपाय नहीं था। उसके सिर पर दो बच्चों को पालने का बोझ था। उसका खुद का स्वास्थ्य खराब था। इसलिए उसने तय किया कि हम तीनों लैम्बेथ के यतीम खाने (वर्कहाउस) में भरती हो जायें।
हालांकि हम यतीम खाने यानी वर्कहाउस में जाने की ज़िल्लत के बारे में जानते थे लेकिन जब मां ने हमें वहां के बारे में बताया तो सिडनी और मैंने सोचा कि वहां रहने में कुछ तो रोमांच होगा ही और कम से कम इस दमघोंटू कमरे में रहने से तो छुटकारा मिलेगा। लेकिन उस तकलीफ से भरे दिन मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता था कि क्या होने जा रहा है जब तक हम सचमुच यतीम खाने के गेट तक पहुंच नहीं गये। तब जा कर उसकी दुखदायी दुविधा का हमें पता चला। वहां जाते ही हमें अलग कर दिया गया। मां एक तरफ महिलाओं वाले वार्ड की तरफ ले जायी गयी और हम दोनों को बच्चों वाले वार्ड में भेज दिया गया।
मैं मुलाकात के पहले ही दिन की दिल को छू लेने वाली उदासी को भला कैसे भूल सकता हूं। यतीम खाने के कपड़ों में लिपटी मां को मुलाकातियों के कमरे की ओर जाते हुए देखना। वह कितनी बेचारी और परेशान हाल दिखायी दे रही थी। एक ही सप्ताह में उसकी उम्र ज्यादा नज़र आने लगी थी और वह दुबला गयी थी। लेकिन उसका चेहरा हमें देखते ही दमकने लगा था। सिडनी और मैं रोने लगे जिससे मां को भी रोना आ गया और उसके गालों पर बड़े-बड़े आंसू ढरकने लगे। आखिर उसने अपने आप को संभाला और हम तीनों एक खुरदरी बेंच पर जा बैठे। हम दोनों के हाथ उसकी गोद में थे और वह धीरे-धीरे उन्हें थपका रही थी। वह हमारे घुटे हुए सिर देख कर मुस्कुरायी और जैसे सांत्वना देते हुए थपकियां सी देने लगी। हमें बताने लगी कि हम जल्दी ही एक बार फिर एक साथ रहने लगेंगे। अपने लबादे में से उसने नारियल की एक कैंडी निकाली जो उसने एक नर्स के कफ को लेस लगा कर कमाये पैसों से खरीदी थी। जब हम अलग हुए तो सिडनी लगातार भरे मन से उससे कहता रहा कि उसकी उम्र कितनी ज्यादा लगने लगी है।
सिडनी और मैंने जल्दी ही अपने आपको यतीम खाने के माहौल के हिसाब से ढाल लिया लेकिन उदासी की काली छाया हमेशा हमारे ऊपर मंडराती रहती थी। मुझे बहुत ही कम घटनाएं याद हैं लेकिन दूसरे बच्चों के साथ एक लम्बी-सी मेज़ पर बैठ कर दोपहर का भोजन करना अच्छा लगता था और हम इसकी राह देखा करते थे। इसका मुखिया यतीम खाने का ही एक निवासी हुआ करता था। यह व्यक्ति पिचहत्तर बरस का एक बूढ़ा आदमी था। उसका चेहरा गम्भीरता ओढ़े रहता था। उसकी दाढ़ी सफेद थी और उसकी आंखों में उदासी भरी होती थी। उसने मुझे अपने पास बैठने के लिए चुना क्योंकि मैं ही वहां सबसे छोटा था और जब तक उन लोगों ने मेरे सिर की घुटाई नहीं कर दी, मेरे बहुत ही सुंदर घुंघराले बाल हुआ करते थे। बूढ़ा आदमी मुझे अपना “शेर” कहा करता था और बताता कि जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तो मैं एक टॉप हैट लगाया करूंगा और उसकी गाड़ी में पीछे हाथ बांधे बैठा करूंगा। वह मुझे जिस तरह का स्नेह देता, मैं उसे बहुत पसंद करने लगा था। लेकिन अभी एकाध दिन ही बीता था कि वहां एक और छोटा-सा लड़का आया और उस बूढ़े के पास मेरी वाली जगह पर बैठने लगा। लेकिन जब मैंने पूछा तो उसने मौज में आ कर बताया कि हमेशा छोटे और घुंघराले बालों वाले लड़के को ही वरीयता दी जाती है।
तीन सप्ताह के बाद हमें लैम्बेथ यतीम खाने से यतीमों और असहायों के हॉनवैल स्कूल में भेज दिया गया। ये स्कूल लंदन से कोई बारह मील दूर था। घोड़ों द्वारा खींची जाने वाले बेकरी वैन में यह बहुत ही रोमांचकारी यात्रा थी और इन परिस्थितियों में सुखद भी क्योंकि हॉनवैल के आस-पास का नज़ारा उन दिनों बहुत ही खूबसूरत हुआ करता था। वहां शाहबलूत के दरख्त थे, पकते गेहूं से भरे खेत थे और फलों से खूब लदे फलोद्यान थे; और तब से खुले इलाकों में बरसात के बाद की खूब तेज़ और माटी की सोंधी-सोंधी खुशबू मुझे हमेशा हॉनवैल की याद दिला जाती है।
वहां पहुंचने पर हमें अनुमति वाले वार्ड के हवाले कर दिया गया और विधिवत स्कूल में डालने से पहले हमें डॉक्टरी और मानसिक निगरानी में रखा गया। इसका कारण ये था कि तीन या चार सौ बच्चों में अगर एक भी ऐसा बच्चा आ गया जो सामान्य न हो या बीमार वगैरह हो तो ये स्कूल के स्वास्थ्य के लिए खराब होता ही, खुद बच्चे को भी विकट हालत से गुज़रना पड़ सकता था।
शुरू के कुछ दिनों तक तो मैं खोया-खोया सा रहा। मेरी हालत बहुत ही खराब थी। इसका कारण यह था कि यतीम खाने में तो मां को मैं हमेशा अपने आसपास महसूस करता था और इससे मुझे बहुत सुकून मिलता था लेकिन हॉनवैल में आने के बाद यही लगता कि हम एक दूसरे से मीलों दूर हो गये हैं। सिडनी और मेरा दर्जा बढ़ा दिया गया और हमें अनुमति वाले वार्ड से निकाल कर विधिवत स्कूल में डाल दिया गया। यहां हमें एक दूसरे से अलग कर दिया गया। सिडनी बड़े बच्चों के साथ जाने लगा और मैं शिशुओं के साथ। हम अलग-अलग ब्लाकों में सोते थे और एक-दूसरे से कभी-कभार ही मिल पाते। मेरी उम्र छ: बरस से कुछ ही ज्यादा थी और मैं तन्हा था। ये बात मुझे खासी परेशान करती। खास तौर पर गर्मियों की रात, सोते समय प्रार्थना करते समय जब मैं रात के सोने की कमीजें पहने वार्ड के बीचों-बीच दूसरे बीस नन्हें मुन्ने बच्चों के साथ घुटनों के बल झुक कर प्रार्थना करता और दूर डूबते सूर्य को और ऊंची नीची पहाड़ियों की तरफ लम्बोतरी खिड़की में से देखता और जब हम सब भर्राये गले से बेसुरी आवाज़ में गाते तो मैं अपने आपको इससे सब से अलग-थलग पाता।
साथ दो मेरा; रात तेजी से गहराती है
अंधियारी होता जाता है घना: प्रभु साथ दो मेरा
जब और मददगार रह जायें पीछे और आराम हो जाये दुश्वार
ओ निर्बल के बल, साथ दो मेरा
ये तभी होता कि मैं अपने-आपको पूरी तरह हताश पाता। हालांकि मैं प्रार्थना के बोल नहीं समझता था, लेकिन ये धुन और धुंधलका मुझे उदासी से भर जाते।
लेकिन तब हमारी खुशी और आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब दो महीने के भीतर ही मां ने हमारी रिहाई का बंदोबस्त कर दिया था और हमें एक बार फिर से लंदन और लैम्बेथ यतीम खाने में भेज दिया गया। मां यतीम खाने के गेट पर अपने खुद के कपड़े पहने हमारी राह देख रही थी। उसने रिहाई के लिए आवेदन सिर्फ इसीलिए दिया था कि वह एक दिन अपने बच्चों के साथ गुज़ारना चाहती थी और उसकी इच्छा थी कि दो-चार घंटे बाहर गुज़ार कर फिर उसी दिन वापिस लौट आये। मां चूंकि यतीम खाने में ही रह रही थी इसलिए यह प्रपंच ही एक मात्र तरीका बचा था उसके पास कि दिन हमारे साथ गुज़ार सके।
हमारे भीतर जाने से पहले ही हमारे निजी कपड़े हमसे ले लिये गये थे और उन्हें गर्म पानी में खंगाल दिया गया था। अब ये कपड़े हमें बिना इस्त्री किये लौटा दिये गये। जब हम यतीम खाने के गेट से बाहर निकले तो मां, सिडनी और मैं, तीनों ही मुचड़े हुए कपड़ों में नमूने नज़र आ रहे थे। एकदम सुबह का वक्त था और हमें कहीं भी नहीं जाना था इसलिए हम केनिंगटन पार्क की तरफ चल दिये। पार्क तकरीबन एक मील दूर था। सिडनी के पास नौ पेंस थे जो उसने रुमाल में गांठ बांध कर रखे हुए थे। इसलिए हमने आधा पौंड ब्लैक चेरी ली और पूरी सुबह पार्क में एक बेंच पर बैठ कर चेरी खाते हुए गुज़ार दी। सिडनी ने अखबार के पुराने कागज़ों को मोड़-तोड़ कर उसे सुतली से कस कर बांध दिया और हम तीनों काफी देर तक इस काम चलाऊ गेंद से पकड़ा-पकड़ी खेलते रहे। दोपहर के वक्त हम एक कॉफी शॉप में गये और अपने बाकी सारे पैसों से दो पेनी का केक, एक पैनी की सूखी, नमक लगी मछली और अध पेनी की दो कप चाय खरीद कर खर्च कर डाले। हमने ये चीज़ें मिल बांट कर खायीं। इसके बाद हम फिर पार्क में वापिस लौट आये। इसके बाद मैं और सिडनी फिर से खेलते रहे और मां क्रोशिया ले कर बैठ गयी।
दोपहर के वक्त हम वापिस यतीम खाने की तरफ चल दिये क्योंकि मां बहुत ही बेशरमी से बोली कि हम चाय के वक्त तक ज़रूर पहुंच जायेंगे। वहां के अफसर लोग बहुत ही खड़ूस थे क्योंकि इसका मतलब होता कि हमें फिर से उन सारी प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता। हमारे कपड़े गर्म पानी में खंगाले जाते और सिडनी और मुझे हॉनवैल लौटने से पहले यतीम खाने में और वक्त गुज़ारना पड़ता। हां, इससे हमें मां से एक बार फिर मिलने का मौका मिल जाता।
लेकिन इस बार हम हॉनवैल में लगभग एक बरस तक रहे। यह बरस बहुत ही रचनात्मक था। मैंने स्कूल जाना शुरू किया और मुझे अपना नाम लिखना सिखाया गया, “चैप्लिन।” ये शब्द मुझे बहुत आकर्षित करते और मुझे लगता – ये ठीक मेरी ही तरह हैं।
हॉनवैल स्कूल दो हिस्सों में बंटा हुआ था। एक हिस्सा लड़कों के लिए था और दूसरा लड़कियों के लिए। शनिवार की दोपहर स्नानघर नन्हें मुन्नों के लिए आरक्षित रहता और बड़ी लड़कियां उन्हें नहलाती। हां, ये बातें उस वक्त से पहले की हैं जब मैं सात बरस का नहीं हुआ था। और एक तरह की नाज़ुक मिज़ाजी वाली लज्जा इस तरह के अवसरों के साथ जुड़ी रहती। चौदह बरस की युवा लड़की मेरे पूरे शरीर पर तौलिया रगड़ रही हो तो झेंप तो होनी ही थी। सचेत झेंप के ये मेरे पहले मौके थे।
सात बरस की उम्र में मुझे नन्हें मुन्ने बच्चों के वार्ड में से स्थानांतरित करके बड़े बच्चों के वार्ड में भेज दिया गया। यहां बच्चों की उम्र सात से चौदह बरस के बीच थी। अब मैं बड़े बच्चों की सभी गतिविधियों में भाग ले सकता था। ड्रिल, एक्सरसाइज और हफ्ते में दो बार स्कूल के बाहर हम नियमित रूप से सैर को जाते।
हालांकि हॉर्नवेल में हमारी अच्छी तरह से देखभाल की जाती थी लेकिन फिर भी माहौल पर मुर्दनगी छायी रहती। वहां की हवा में ही उदास थी। उन गांवों की गलियों में से हम सैकड़ों बच्चे एक के पीछे एक चलते। मैं सैर के उन अवसरों को कितना अधिक नापसंद करता था, और उन गांवों को, जिन में से हम गुज़र कर जाया करते थे, उन स्थानीय लोगों का हमें घूर-घूर कर देखना। हमें ‘बूबी हैच के बाशिंदे’ के नाम से पुकारा जाता था। ये यतीम खाने के लिए बोलचाल का शब्द था।
बच्चों के खेल का मैदान लगभग एक एकड़ लम्बा-चौड़ा था। इसमें लम्बे-चौड़े पत्थर जड़े हुए थे। इसके चारों तरफ ईंट की एक मंज़िला इमारतें थीं जिनमें दफ्तर, भंडार घर, डॉक्टर का एक औषधालय, दांतों के डॉक्टर का कमरा और बच्चों के कपड़ों के लिए अल्मारियां थीं। अहाते के आखिरी सिरे पर एक अंधेरा कमरा था। उसमें इन दिनों चौदह बरस के एक छोकरे को बंद करके रखा गया था। लड़कों के अनुसार वह लड़का आफत की पुड़िया था। एक गया गुज़रा चरित्र। उसने दूसरी मंज़िल की खिड़की से कूद कर स्कूल से भाग जाने की कोशिश की थी और वहां से छत पर चढ़ गया था। जब स्टाफ के लोग उसके पीछे चढ़े तो उसने उन पर चीज़ें फेंक कर मारनी शुरू कर दीं और उन पर शाहबलूत फेंके। ये किस्सा तब हुआ जब हम नन्हें-मुन्ने सो रहे थे। अगली सुबह हमें इस किस्से का पूरा का पूरा हिसाब-किताब बड़े बच्चों ने सुनाया था।
इस तरह की बड़ी हरकतों के लिए हर शुक्रवार को बड़े वाले जिमनाशियम में दंड मिला करता था। ये एक साठ फुट लम्बा और चालीस फुट चौड़ा अंधियारा-सा हॉल था। इसकी छत ऊंची थी और ऊपर की कड़ियों तक रस्सियां लटकी हुई थीं। शुक्रवार की सुबह, सात से चौदह बरस के बीच की उम्र के दो या तीन सौ बच्चे प्रवेश करते और वे मिलिटरी के जवानों की तरह आते, और स्क्वायर के तीनों तरफ खड़े हो जाते। सबसे दूर वाले सिरे पर, यानी चौथी तरफ एक लम्बी-सी स्कूली मेज़ के पीछे शरारती बच्चे अपने-अपने अपराध की सज़ा सुनने और सज़ा पाने के लिए एकत्र होते। ये मेज़ आर्मी वालों की खाने की मेज़ जितनी लम्बी थी। डेस्क के सामने तथा दायीं तरफ एक ईज़ल थी जिस पर हाथों में बांधने वाले स्ट्रैप लटकते रहते और फ्रेम से एक टहनी झूलती रहती।
छोटे-मोटे अपराधों के लिए बच्चे को लम्बी मेज़ पर लिटा दिया जाता। बच्चे का चेहरा नीचे की तरफ होता और उसके पैर एक सार्जेंट पट्टों से कस देता। तब दूसरा सार्जेंट आता और बच्चे की कमीज को उसकी पतलून में से खींच कर बाहर निकाल देता और उसके सिर के ऊपर की तरफ कर देता, और उसकी पतलून को कस कर खींचता।
एक थे कैप्टन हिन्ड्रम। नेवी से रिटायर हुए शख्स। वजन उनका रहा होगा कोई दो सौ पौंड। उनका एक हाथ पीछे रहता और दूसरे हाथ में वे मारने के लिए छड़ी थामे रहते। छड़ी की मोटाई होती हाथ के अंगूठे के बराबर और लम्बाई कोई चार फुट। वे तन कर खड़े हो जाते।
वे छड़ी को लड़के के चूतड़ों के आर-पार नापते, और तब हौले से और पूरी नाटकीयता के साथ वे छड़ी ऊपर उठाते और एक सड़ाक के साथ लड़के के चूतड़ों पर पड़ती। नज़ारा दिल दहला देने वाला होता और निश्चित रूप से लड़का बेहोश हो कर नीचे गिर जाता।
पिटाई के लिए कम से कम तीन छड़ियों का और अधिकतम छ: का प्रावधान था। यदि दोषी को तीन से ज्यादा छड़ियों की मार पड़ती तो उसकी चीखें दिल दहला देने वाली होतीं। कई बार ऐसा भी होता कि वह आश्चर्यजनक रूप से शांत रहता या बेहोश ही हो चुका होता। ये मार आदमी को अधमरा कर देने वाली होती इसलिए शिकार को तो अक्सर ही एक तरफ ले जाना पड़ता और उसे जिमनाशियम में ले जा कर लिटाना पड़ता, जहां उसे दर्द कम होने तक कम से कम दस मिनट तक तिलमिलाना और दर्द के मारे ऐंठना पड़ता था। दर्द कम होने पर उसके चूतड़ों पर धोबन की उंगलियों की तरह तीन चौड़ी धारियां बन चुकी होतीं।
भूर्ज का मामला अलग था। तीन संटियां खाने के बाद लड़के को दो सार्जेंट सहारा कर इलाज के लिए सर्जरी में ले जाते।
लड़के यही सलाह देते कि कोई भी आरोप लगने पर मना मत करो, बेशक आप निरपराध हों, क्योंकि दोष सिद्ध हो जाने पर आपको अधिकतम मार पड़ेगी। आम तौर पर लड़के निर्दोष होने पर भी अपनी ज़ुबान नहीं खोलते थे और चुपचाप मार खा लेते थे।
अब मैं सात बरस का हो चला था और बड़े बच्चों के सैक्शन में था। मुझे याद है जब मैंने पहली बार इस तरह की पिटाई देखी थी। मैं शांत खड़ा हुआ था और मेरा दिल तेजी से धड़कना शुरू हो गया जब मैंने अधिकारियों को भीतर आते देखा। डेस्क के पीछे वह जांबाज़ बहादुर था जिसने स्कूल से भाग जाने की कोशिश की थी। डेस्क के पीछे से हमें मुश्किल से उसका सिर और कंधे ही नज़र आ रहे थे। वह एकदम पिद्दी-सा नज़र आ रहा था। उसका चेहरा पतला, लम्बोतरा और आंखें बड़ी थीं। वह बहुत छोटा-सा लगता था।
प्रधान अध्यापक ने धीमे स्वर में आरोप पत्र पढ़ा और पूछा,”दोषी या निर्दोष?”
हमारे जांबाज़ हीरो ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन सीधे उनकी आंखों में देखता रहा। इसके बाद उसे ईज़ल पर ले जाया गया और चूंकि वह ज़रा-सा ही था, उसे साबुन की एक पेटी पर खड़ा कर दिया गया ताकि उसकी कलाइयों में पट्टे बांधे जा सकें। उसे भूर्ज की छड़ी से तीन बार पीटा गया और फिर उसे मरहम पट्टी के लिए ले जाया गया।
गुरुवार के दिन खेल के मैदान में एक बिगुल बजता और हम खेलते हुए जहां के तहां मूर्तियों की तरह जड़ खड़े हो जाते। तब कैप्टन हिन्ड्रम एक मेगाफोन के ज़रिये उन छोकरों के नाम पुकारते जिन्हें शुक्रवार को दंड भोगने के लिए हाजिर होना है।
मेरी हैरानी का ठिकाना न रहा जब एक गुरुवार मेरा नाम पुकारा गया। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि मैंने ऐसा क्या कर डाला होगा। फिर भी किसी नामालूम कारण से मैं रोमांचित था। शायद इसलिए कि मैं इस नाटक के केन्द्र में होने जा रहा था। ट्रायल के दिन मैं आगे की तरफ बढ़ गया। हैड मास्टर ने पूछा,”तुम पर आरोप है कि तुमने लैट्रिन को आग लगायी।”
यह सच नहीं था। कुछ छोकरों ने पत्थर के फर्श पर कुछ कागज जला डाले थे और संयोग से मैं उस वक्त लैट्रिन का इस्तेमाल करने के लिए वहां जा पहुंचा। लेकिन आग जलाने में मेरी कोई भूमिका नहीं थी।
“तुम दोषी हो या नहीं?”
मैं नर्वस हो गया था और अपने नियंत्रण से बाहर की ताकत में मैं चिल्लाया,”दोषी।” न तो मैंने प्रायश्चित महसूस किया और न ही अन्याय की भावना ही महसूस की लेकिन एक तरह का भयमुक्त रोमांच मुझे लगा जब मुझे डेस्क के पास ले जाया गया और मेरे चूतड़ों पर तीन संटियां फटकारी गयीं। दर्द इतना जानलेवा था कि मेरी तो सांस ही थम गयी। लेकिन मैं चिल्लाया या रोया नहीं और हालांकि मैं दर्द के मारे अधमरा हो गया था और आराम करने के लिए चटाई पर ले जाया गया था, मैं अपने आपको पराक्रम के साथ विजेता समझ रहा था।
सिडनी तो रसोई में काम कर रहा था, उस बेचारे को सज़ा के दिन तक इसके बारे में कुछ पता ही नहीं चला। और उसे दूसरों के साथ जिम में लाया गया तो वह मुझे सज़ा वाली मेज़ पर औंधे लेटे और सिर लटकाये देख कर हैरानी से दंग रह गया था। उसे झटका लगा था। उसने बाद में मुझे बताया था कि जब उसने मुझे चूतड़ों पर तीन बेंत खाते देखा था तो वह गुस्से के मारे रो पड़ा था।
छोटा भाई अपने बड़े भाई को “भैया” कहकर बुलाता था तो उसमें एक तरह की गर्व की भावना भर जाती थी और एक सुरक्षा का भी अहसास होता था। मैं अक्सर डाइनिंग रूम से बाहर आते समय अपने इस “बड़े भैया” को देखा करता था। वह रसोई में काम करता था इसलिए अक्सर मेरे हाथ में ढेर सारे मक्खन के साथ एक बेड स्लाइस चुपके से सरका देता था। मैं इसे अपनी जर्सी में छुपाकर बाहर ले आता और एक अन्य छोकरे के साथ मिल-बांट कर खा लेता। ऐसा नहीं था कि हमें भूख लगी होती थी, दरअसल मक्खन का इतना बड़ा लोंदा एक असाधारण विलासिता की बात होती थी। लेकिन यह अय्याशी भी बहुत ज्यादा दिन तक नहीं चली क्योंकि उसे हॉनवेल छोड़कर एक्समाउथ ट्रेनिंग शिप पर जाना पड़ा।
यतीम खाने में रहने वाले लड़कों को ग्यारह बरस की उमर में विकल्प दिया जाता था कि वे जल सेना या थल सेना, दोनों में से कोई एक चुन लें। यदि वह जल सेना पसन्द करे तो उसे एक्समाउथ पर भेज दिया जाता था, हालांकि यह अनिवार्य नहीं था लेकिन सिडनी तो सागर की विराटता में रह कर अपना जीवन बनाना चाहता था। और एक दिन वह मुझे हॉनवेल में अकेला छोड़कर चला गया।
बच्चों का अपने बालों से खास तरह का जुड़ाव होता है। जब उनके बाल पहली बार काटे जाते हैं तो वे बुरी तरह से रोते और छटपटाते हैं। चाहे बाल घने उगें, सीधे हों या घुंघराले हों, उन्हें ऐसा ही लगता है कि मानो उनसे उनके व्यक्तित्व का कोई हिस्सा अलग किया जा रहा हो।
हॉनवेल में दाद, रिंगवार्म की महामारी फैली हुई थी। यह बीमारी छूत की बीमारी है और बहुत ही तेजी से फैलती है। इसलिए जो भी बच्चा इसकी चपेट में आता था उसे पहली मंजिल पर एक अलग कमरे में रहना पड़ता था, जहां से खेल का मैदान नज़र आता था। अक्सर हम खिड़कियों में से देखते कि वे दीन-हीन बच्चे बड़ी हसरत भरी निगाहों से हमारी ओर टकटकी लगाए देखते रहते थे। उनके घुटे हुए सिरों पर आयोडिन के भूरे चकत्ते नज़र आते। उन्हें देखना बहुत ही दिल दहला देने वाला होता और हम उनकी तरफ बहुत ही घृणापूर्वक देखते।
इसलिए जैसे ही एक दिन अचानक ही एक नर्स ने डाइनिंग हाल में मेरे सिर पर हाथ रखा और बालों में उंगलियां फिराने के बाद घोषणा की कि मेरे सिर में दाद हो गयी है तो मैं सकते में आ गया और बुक्का फाड़ कर रो पड़ा।
इलाज में हफ्तों लग गये। लगता था, समय ठहर गया है। मेरा सिर मूंड दिया गया था और मैं रुई धुनने वालों की तरह हर समय सिर पर एक रुमाल बांधे रहता था। बस, मैं एक ही काम नहीं करता था और वो ये कि कभी भी खिड़की से नीचे झांक कर नीचे खड़े लड़कों की तरफ नहीं देखता था, क्योंकि मैं जानता था कि वे लड़के ऊपर फंसे बच्चों को किस हिकारत भरी निगाह से देखते थे।
मेरी बीमारी के दौरान मां मुझसे मिलने आयी। उसने कुछ जुगत भिड़ा कर हमें यतीम खाने से बाहर निकालने का रास्ता निकाल लिया था और अब हम लोगों के लिए एक बार फिर अपना घर बसाना चाहती थी। उसकी मौजूदगी फूलों के गुलदस्ते की तरह थी। ताज़गी और स्नेह की महक से भरी हुई। उसे इस तरह देख कर मुझे अपनी गंदी और बेतरतीब हालत पर और घुटे सिर पर आयोडिन लगा देख कर अपने आप पर शर्म आयी।
नर्स ने मां से कहा,”इसके गंदे मुंह की वजह से इस पर नाराज़ न हों।”
मां हँसी और मुझे याद है कि किस तरह से ये कहते हुए उसने मुझे अपने सीने में भींच लिया था और चूम लिया था,”तेरी इस सारी गंदगी के बावजूद मैं तुझे प्यार करती हूं मेरे लाल।”
इसके तुरंत बाद ही सिडनी एक्समाउथ पर चला गया और मैंने हॉनवेल छोड़ दिया ताकि मैं अपनी मां के पास रह सकूं। उसने केनिंगटन रोड के पीछे वाली गली में एक कमरा किराये पर ले लिया था और कुछ दिन तक तो वह हमारा भरण-पोषण करने की हालत में रही। थोड़े ही दिन बीते थे कि हम एक बार फिर यतीम खाने के दरवाजे पर खड़े थे। हमारे इस तरह से वहां वापिस जाने के पीछे कारण ये थे कि मां कोई ढंग का रोजगार तलाश नहीं पायी थी और थियेटर में पिता जी के दिन खराब चल रहे थे। इस थोड़े से अरसे के दौरान हम पिछवाड़े की गलियों के एक कमरे से दूसरे कमरे में शिफ्ट होते रहे। ये गोटियों के खेल की तरह था और अपनी आखिरी चाल के बाद हमने खुद को फिर से यतीम खाने में पाया।
अलग ही अलग रहते हुए हमें दूसरे यतीम खाने में भेज दिया गया। और वहां से हमें नॉरवुड स्कूल भेज दिया गया। यह स्कूल हॉनवेल के मुकाबले बेहतर था। यहां की पत्तियां गहरी हरी और दरख्त ज्यादा ऊंचे थे। शायद इस ग्रामीण इलाके में भव्यता तो ज्यादा थी लेकिन परिवेश मायूसी से भरा हुआ था।
एक दिन की बात, सिडनी फुटबाल खेल रहा था। तभी दो नर्सों ने उसे खेल से बाहर बुलाया और उसे बताया कि तुम्हारी मां पागल हो गयी है, उसे केनहिल के पागलखाने में भेजा गया है। सिडनी ने जब यह खबर सुनी तो किसी भी किस्म की प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और वापिस जाकर अपने खेल में मशगूल हो गया। लेकिन खेल खत्म होते ही वह एक सुनसान कोने में गया और फूट-फूट कर रोया।
सिडनी ने जब मुझे यह खबर दी तो मैं यक़ीन ही नहीं कर पाया। मैं रोया तो नहीं लेकिन पागल कर देने वाली उदासी ने मुझे घेर लिया। उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। माँ जो इतनी खुशमिजाज और दिल की साफ़ थी, भला पागल कैसे हो सकती है। मोटे तौर पर मैंने यही सोचा कि माँ ने जान-बूझ कर अपने दिमाग के दरवाज़े बंद कर दिये होंगे और हमें बेसहारा छोड़ दिया है। मैं हताशा में यह कल्पना करने लगा कि वह परेशान हाल मेरी तरफ देख रही है और उसके बाद शून्य में घूर रही है।
आधिकारिक रूप से यह खबर हमें एक हफ्ते बाद मिली। यह भी सुनने में आया कि अदालत ने पिता के ख़िलाफ डिक्री जारी कर दी है कि उन्हें सिडनी और मुझे अपनी निगहबानी में लेना ही होगा। पिता के साथ रहने की संभावना ही उत्तेजना से भर देने वाली थी। मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी में उन्हें सिर्फ़ दो बार ही देखा था। एक बार मंच पर और दूसरी बार केनिंगटन रोड में एक घर के आगे से गुज़रते हुए जब वे फ्रंट गार्डन के रास्ते से एक महिला के साथ चले आ रहे थे। मैं एक पल के लिए ठिठका था और उनकी तरफ देखने लगा था। मुझे पूरा यक़ीन था कि वे मेरे पिता ही हैं। उन्होंने मेरी पीठ पर हाथ रखकर मुझसे मेरा नाम पूछा था। इस परिस्थिति की नाटकीयता का अंदाज़ा लगाते हुए मैंने भोलेपन से सिहरते हुए कहा था,”चार्ली चैप्लिन।” तब उन्होंने जानबूझ कर उस महिला की तरफ देखा, अपनी जेब में हाथ डालकर कुछ टटोला और आधे क्राउन का सिक्का मुझे थमा दिया। बगैर कुछ और सोचे मैं सीधा घर की तरफ लपका और माँ को बताया कि मैं अपने पिता से मिलकर आ रहा हूं।
और अब हम उनके साथ जाकर रहने वाले थे। कुछ भी हो, केनिंगटन रोड जानी-पहचानी जगह थी और वहां नॉरवुड की तरह अजनबियत और मायूसी नहीं थी।
अधिकारी हमें एक बेकरी वैन में बिठा कर 287 केनिंगटन रोड ले गये। यह वही जगह थी जहां मैंने अपने पिता को बगीचे के रास्ते से गुज़रते हुए देखा था। दरवाजा एक महिला ने खोला। यह वही महिला थी जो उस दिन पिता के साथ थी। वह अय्याश और चिड़चिड़ी-सी लगने वाली औरत लगती थी। इसके बावजूद वह आकर्षक, लम्बी और सुंदर देहयष्टि की मालकिन थी। उसके होंठ भरे-भरे और उदास थे। आंखें कबूतरी जैसी थीं। उसकी उम्र तीस बरस के आसपास हो सकती थी। उसका नाम लुइस था। ऐसा प्रतीत हुआ कि मिस्टर चैप्लिन घर पर नहीं थे। लेकिन सामान्य कागज़ी कार्रवाई पूरी करने और हस्ताक्षर वगैरह करने के बाद अधिकारी हमें लुइस के जिम्मे छोड़ गये। लुइस हमें ऊपर वाली मंज़िल पर आगे वाली बैठक में ले गयी। जब हम कमरे के भीतर पहुंचे तो एक छोटा-सा बच्चा फर्श पर खेल रहा था। बड़ी-बड़ी, गहरी आंखों और घने भूरे बालों वाला एक निहायत ही खूबसूरत बच्चा। ये बच्चा लुइस का बेटा था। मेरा सौतेला भाई।
परिवार दो कमरों में रहता था और हालांकि सामने वाला कमरा बहुत ब़ड़ा था लेकिन उसमें रौशनी ऐसे छन कर आती थी मानो पानी के नीचे से आ रही हो। सारी चीज़ें लुइस की ही तरह मायूस नज़र आती थीं। वॉल पेपर उदास नज़र आता था। घोड़े के बालों से भरा फर्नीचर उदासी भरा था और ग्लास केस में पाइक मछली जो अपने ही बराबर एक और पाइक अपने भीतर ठूंसे हुए थी, और उसका सिर पहले वाली के मुंह से बाहर लटक रहा था, बुरी तरह से उदास नज़र आते थे।
लुइस ने पिछवाड़े वाले कमरे में सिडनी और मेरे सोने के लिए एक अतिरिक्त बिस्तर लगवा दिया था लेकिन ये बिस्तर बहुत ही छोटा था। सिडनी ने सुझाव दिया कि वह बैठक में सोफे पर सो जाया करेगा लेकिन लुइस ने उसे बरज दिया,”तुम्हें जहां सोने के लिए कहा गया है, तुम वहीं सोवोगे।” इस संवाद से विकट मौन पसर गया और हम चुपचाप पिछवाड़े वाले कमरे की तरफ बढ़ गये।
हमारा जिस तरीके से स्वागत हुआ था, उसमें लेशमात्र भी उत्साह नहीं था। और इसमें हैरानी वाली कोई बात भी नहीं थी। सिडनी और मैं अचानक उसके ऊपर लाद दिये गये थे। वैसे भी हम अपने पिता की छोड़ी गयी पत्नी के ही तो बच्चे थे।
हम दोनों चुपचाप बैठे उसे काम करते देखते रहे। वह खाने की मेज़ पर कुछ तैयारियां कर रही थी। तब उसने सिडनी से कहा,”ऐय, क्या निठल्ले की तरह से बैठे हो, कुछ काम-धाम करो और इस सिगड़ी में कोयले भरो।” और तब वह मेरी तरफ मुड़ी और कहने लगी,”और तुम लपक कर जाओ और व्हाइट हार्ट की बगल वाली कसाई की दुकान से एक शिलिंग के छीछड़े लेकर आओ।”
मैं उसकी मौजूदगी और पूरे माहौल के आतंक से बाहर निकलने पर खुश ही था क्योंकि एक अदृश्य भय मेरे भीतर उगने लगा था और मैं चाहने लगा था कि हम वापिस नॉरवुड लौट जायें।
पिताजी देर से घर वापिस आये और उन्होंने गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया। वे मुझे बहुत अच्छे लगे। खाना खाते समय मैं उनकी एक-एक गतिविधि को ध्यान से देखता रहा। वे किस तरह से खाते थे और किस तरह से चाकू को पैन की तरह पकड़ते थे और उससे गोश्त की बोटियां काटते थे। और मैं बरसों-बरस उनकी नकल करता रहा।
जब लुइस ने पिताजी को बताया कि सिडनी यह शिकायत कर रहा था कि उसका बिस्तर छोटा है तो उन्होंने कहा कि वह बैठक में सोफे पर सो जाया करेगा। सिडनी की जीत ने लुइस को और भी भड़का दिया और उसने सिडनी को इस बात के लिए कभी माफ़ नहीं किया। वह हमेशा पिताजी के कान सिडनी के खिलाफ भरती रहती। लुइस हालांकि अक्खड़ और चिड़चिड़ी थी और हमेशा असहमत ही रहती थी लेकिन उसने मुझे एक बार भी पीटा नहीं या कभी डांटा फटकारा भी नहीं। लेकिन इस बात ने कि वह सिडनी को नापसंद करती है, मुझे हमेशा डराये रखा और मैं उससे भय खाता रहा। वह जम के पीती थी और उसकी यह बात मुझे भीतर तक हिला कर रख देती थी। वह अपने छोटे बच्चे के मासूम चेहरे को निहारती हुई हंसती थी और वह अपनी खराब ज़बान में उसे कुछ कहता रहता था। पता नहीं क्यों, मैं उस बच्चे के साथ हिल-मिल नहीं सका। वैसे तो वह मेरा सौतेला भाई था लेकिन मैंने उससे शायद ही कभी बात की हो, बेशक मैं उससे चार बरस बड़ा भी था। जब कभी भी लुइस पी कर बैठती और क़ुड़-कुड़ करती रहती तो मैं भीतर तक हिल जाता था। दूसरी तरफ सिडनी था, उसने इन बातों पर कभी भी ध्यान ही नहीं दिया। शायद ही कोई ऐसा समय रहा हो जब वह रात में देर से न आया हो। मुझ पर यह बंदिश थी कि मैं स्कूल से सीधा ही घर आऊं और घर आते ही मुझे तरह तरह के कामों के लिए दौड़ाया जाता।
लुइस ने हमें कैनिंगटन रोड के स्कूल में भेजा। यह मेरे लिए बाहरी दुनिया का एक छोटा-सा टुकड़ा था क्योंकि मैं दूसरे बच्चों की मौजूदगी में खुद को कम तन्हा महसूस करता था। शनिवार के दिन आधी छुट्टी रहती थी, लेकिन मैं कभी भी इस दिन का इंतज़ार नहीं करता था क्योंकि मेरे लिए इसका मतलब था कि जल्दी घर जाना, झाड़ू पोंछा करना, चाकू साफ करना, और तो और, लुइस उस दिन हर हाल में पीना शुरू कर देती थी। जब मैं चाकू साफ कर रहा होता था तो वह अपनी एक सखी के साथ बैठ जाती, पीती रहती और ज़ोर-ज़ोर से अपनी सखी से कड़ुआहट भरे स्वर में शिकायतें करती रहती कि उसे सिडनी और मेरी देखभाल करनी पड़ती है और किस तरह से उसके साथ यह अन्याय किया जा रहा है। मुझे याद है कि उसने मेरी तरफ इशारा करते हुए अपनी सखी से कहा था कि ये तो फिर भी ठीक है लेकिन दूसरा वाला तो आफत की पुड़िया है और उसे तो ज़रूर ही सुधार घर में भेज देना चाहिए। इतना ही नहीं, वो तो चार्ली की औलाद भी नहीं है। सिडनी के बारे में यह बदज़ुबानी मुझे भयभीत कर देती थी। मैं हताशा से भर जाता और मायूस-सा अपने बिस्तर पर जा कर ढह जाता और आंखें खोले निढाल-सा पड़ा रहता था। उस वक्त मैं आठ बरस का भी नहीं हुआ था लेकिन वे दिन मेरी ज़िन्दगी के सबसे लम्बे और उदासी भरे दिन थे।
कई बार शनिवार की रात को जब मैं बुरी तरह से हताश महसूस करता तो पिछवाड़े के बेडरूम के पास से गुज़रते हुए किसी दो धौंकनियों वाले बाजे, कन्सर्टिना का संगीत सुना करता। कोई जाते-जाते हाइलैंड मार्च की धुन बजा रहा होता और उसके साथ लुच्चे लड़कों और खिड़-खिड़ करती फेरी करके सामान बेचने वाली लड़कियों की आवाजें सुनाई देतीं। संगीत का प्रवाह और प्रभाव भी मेरी बेरहम उदासी पर कोई खास असर नहीं कर पाता था। इसके बावजूद संगीत दूर जाता हुआ धीमा होता चला जाता और मैं उसके चले जाने पर अफ़सोस मनाता। कई बार कोई फेरी वाला गली से गुज़रता। एक खास फेरी वाले की मुझे याद है जो रात को रूल ब्रिटानिया की धुन पर आवाज़ निकालता था और उसे झटके के साथ खत्म कर देता। दरअसल वह घोंघे बेच रहा होता था। तीन दरवाजे छोड़कर एक पब था, जिसके बंद होते समय मैं ग्राहकों की आवाज़ें सुन सकता था। वे नशे में धुत गाते, भावुकता भरा एक उदास गीत जो उन दिनों खासा लोकप्रिय हुआ करता था।
मैं भावनाओं को कभी पसंद नहीं कर पाया था लेकिन मुझे ये गीत मेरी उदास हालत में एक बहुत ही नजदीकी साथी की तरह प्रतीत होता था और मुझे लोरी की तरह से सुला दिया करता था।
जब सिडनी रात में देर से लौटता, और ऐसा अक्सर होता था कि वह बिस्तर में सोने के लिए जाने से पहले खाने की अलमारी पर हल्ला बोलता था। इससे लुइस बहुत ताव खाती थी। एक रात जब वह पी रही थी तो वह कमरे में आयी और सिडनी की चादर खींच कर चिल्लाई और उससे बोली कि दफा हो जाओ यहां से। लेकिन सिडनी इसके लिए तैयार था, तुरंत उसने अपने तकिये के नीचे हाथ डाला और एक छोटा-सा खंजर निकाला। इसमें एक लम्बा बटन हुक था और उस पर उसने तेज धार दे रखी थी।
“आओ तो ज़रा मेरे पास और मैं ये तुम्हारे पेट में घुसेड़ दूंगा,” सिडनी चिल्ला पड़ा था। लुइस हक्की-बक्की सी पीछे हटी थी,”ऐ क्यों रे, ये हरामी का पिल्ला तो मुझे मार डालेगा।”
“हां, मैं तुम्हें मारूंगा,” सिडनी ने बड़े ही नाटकीय अंदाज में कहा।
“ज़रा घर आने तो दे मिस्टर चैप्लिन को।”
लेकिन मिस्टर चैप्लिन कभी-कभार ही घर आते थे। अलबत्ता, मुझे शनिवार की एक शाम की याद है। लुइस और पिताजी बैठे पी रहे थे। और पता नहीं किस वज़ह से हम मकान मालकिन और उसके पति के साथ पहली मंज़िल पर उनके सामने वाले कमरे के आगे की जगह पर बैठे हुए थे। चमकीली रौशनी में मेरे पिता का चेहरा बहुत ही ज्यादा पीला लग रहा था। और वे बहुत ही खराब मूड में अपने आपसे कुछ बड़बड़ा रहे थे। अचानक उन्होंने अपनी जेब में हाथ डाला और ढेर सारे पैसे निकाले और गुस्से में चारों तरफ उछाल दिये। सोने और चांदी के सिक्के। इसका असर अतियथार्थवादी था। कोई भी अपनी जगह से नहीं हिला। मकान मालकिन अपनी जगह से चिपकी रह गयी। लेकिन मैंने देखा कि उसकी निगाह सोने के एक सिक्के का पीछा कर रही थी जो लुढ़कता हुआ दूर एक कुर्सी के नीचे जा पहुंचा था। मेरी निगाहें भी उसी सिक्के का पीछा कर रही थी। अभी भी कोई भी नहीं हिला था। मैंने सोचा, मैं ही सिक्के उठाने का श्रीगणेश करूं। मेरे पीछे मकान मालकिन और दूसरे लोग भी उठे। और सावधानी पूर्वक बिखरे सिक्के बीनने लगे, इस तरह से कि पिता की धमकाती आंखों के आगे अपनी हरकत को वाजिब ठहरा सकें।
एक शनिवार की बात है, मैं स्कूल से लौटा तो देखा, घर पर कोई भी नहीं है। सिडनी हमेशा की तरह सारे दिन के लिए फुटबाल खेलने गया हुआ था। मकान मालकिन ने बताया कि लुइस अपने बेटे के साथ सुबह से ही बाहर गयी हुई है। पहले तो मैने राहत महसूस की क्योंकि लुइस के न होने का मतलब था कि मुझे पोंछा नहीं लगाना पड़ेगा, चाकू-छुरियां साफ नहीं करनी प़ड़ेंगी। मैं खाने के समय के बाद भी बहुत देर तक उनका इंतज़ार करता रहा, तब मुझे चिंता घेरने लगी। शायद वे लोग मुझे अकेला छोड़ गए थे। जैसे-जैसे दोपहर ढलती गयी, मुझे उनकी याद सताने लगी। ये क्या हो गया था? कमरा मनहूस और पराया-सा लग रहा था और उसका खालीपन मुझे डरा रहा था। मुझे भूख भी लग आयी थी। इसलिए मैंने अलमारी में खाने को कुछ तलाशा लेकिन वहां कुछ भी नहीं था। मैं अब खाली घर के भीतर और देर तक खड़ा नहीं रह सकता था इसलिए मैं हताशा में बाहर आ गया और पूरी दोपहर मैंने बाजारों में आवारागर्दी करते हुए गुज़ार दी। मैं लैम्बेथ वॉक पर और दूसरी सड़कों पर भूखा-प्यासा केक की दुकानों की खिड़कियां में झांकता चलता रहा और गाय और सूअर के मांस के गरमा-गरम स्वादिष्ट लजीज पकवानों को और शोरबे में डूबे गुलाबी लाल आलुओं को देख-देख कर मेरे मुंह में पानी आता रहा। मैं घंटों तक सड़क के किनारे मजमेबाजों को तरह-तरह की चीज़ें बेचते देखता रहा। इस तरह के भटकाव से मुझे थोड़ी राहत मिली और कुछ देर के लिए मैं अपनी परेशानी और भूख को भूल गया था।
जब मैं वापिस लौटा तो रात हो चुकी थी। मैंने दरवाजा खटखटाया लेकिन कोई जवाब नहीं आया। सब बाहर गये हुए थे। थका मांदा मैं केनिंगटन क्रॉस रोड पर जा कर, घर के पास ही एक पुलिया पर जा कर बैठ गया और निगाह अपने घर पर रखी कि शायद कोई आ जाये। मैं थका हुआ था और बुरी हालत थी मेरी। मैं इस बात को भी सोच-सोच कर परेशान हो रहा था कि सिडनी भी कहां चला गया। आधी रात होने को थी और एकाध भूले-भटके आवारा को छोड़ कर केनिंगटन रोड पूरी तरह शांत और उजाड़ थी। कैमिस्ट और सरायों की बत्तियों को छोड़ कर बाकी सारी दुकानों की बत्तियां बंद होने लगी थीं।
तभी संगीत की आवाज़ सुनायी दी। दिल की गहराइयों को छू लेने वाला संगीत। ये आवाजें व्हाइट हार्ट कार्नर पब की दहलीज से आ रही थीं और सुनसान चौराहे पर एकदम साफ गूंज रही थीं। धुन जिस गीत की थी वह था, ‘द हनीसकल एंड द बी’ और इसे क्लेरिनेट और हार्मोनियम पर पूरी तन्मयता से बजाया जा रहा था। मैं इससे पहले कभी भी संगीत लहरियों को ले कर सचेत नहीं हुआ था। लेकिन ये गीत तो अद्भुत और शानदार था। इतना अलौकिक और खुशी से भर देने वाला। गर्मजोशी और आश्वस्ति से भर देने वाला। मैं अपनी हताशा भूल गया और सड़क पार वहां तक चला गया जहां वे संगीतज्ञ थे। हार्मोनियम बजाने वाला अंधा था और उसकी आंखों की जगह पर गहरे खोखल थे। और एक जड़ कर देने वाला, बदसूरत चेहरा क्लेरिनेट बजा रहा था।
संगीत सभा जल्द ही खत्म हो गयी और उनके जाते ही रात फिर से पहले से भी ज्यादा उदास हो गयी। मैं सड़क पार कर घर की तरफ आया। थका मांदा और कमज़ोर। मैंने इस बात की भी परवाह नहीं की कि कोई घर लौटा भी है या नहीं। मैं सिर्फ बिस्तर पर पहुंच कर सो जाना चाहता था। तभी मैंने हल्की रौशनी में बगीचे के रास्ते से किसी को अपने घर की तरफ जाते हुए देखा। ये लुइस थी और साथ में उसका बेटा था जो उसके आगे-आगे भागा जा रहा था। मुझे ये देख कर गहरा सदमा लगा कि वह बुरी तरह से लड़खड़ा रही थी और एक तरफ बहुत ज्यादा झुकी जा रही थी। पहले तो मैंने यही सोचा कि कहीं उसके साथ कोई दुर्घटना हो गयी होगी और उसमें उसका पैर जख्मी हो गया होगा लेकिन तभी मैंने महसूस किया कि वह बुरी तरह से नशे में थी। मैंने उसे पहले कभी भी इस तरह से नशे में धुत्त नहीं देखा था। उसकी इस हालत में मैंने यही उचित समझा कि उसके सामने न ही पड़ा जाये तो बेहतर। इसलिए मैं तब तक रुका रहा जब तक वह घर के अंदर नहीं चली गयी। कुछ ही पलों के बाद मकान मालकिन आयी तो मैं उसके साथ भीतर गया। मैं जब अंधेरे में सरकते हुए सीढ़ियां चढ़ रहा था कि किसी तरह उसकी निगाह में आये बिना अपने बिस्तर तक पहुंच जाऊं। लुइस सीढ़ियों पर एकदम सामने आ खड़ी हुई,”ऐ, कहां चले जा रहे हो ओ नवाबजादे? ये तेरा घर नहीं है।”
मैं बिना हिले डुले खड़ा रहा।
“आज रात तुम यहां नही सोवोगे। समझे। बहुत झेल चुकी मैं तुम दोनों को। दफा हो जाओ यहां से। तुम और तुम्हारा वो भाई। करने दो अपने बाप को तुम लोगों की तीमारदारी।”
मैं बिना हिचकिचाहट के मुड़ा और सीढ़ियों से नीचे उतर कर घर से बाहर हो गया। अब मैं बिल्कुल भी थका हुआ नहीं था। मुझे मेरी दूसरी दिशा मिल चुकी थी। मैंने सुना था कि पिता जी प्रिंस रोड पर क्वींस हैड पब में जाया करते हैं। ये पब आधा मील दूर था। इसलिए मैं उस दिशा में चल पड़ा। मैं उम्मीद कर रहा था कि वे वहां पर मुझे मिल जायेंगे। लेकिन मैंने जल्दी ही उनकी छाया आकृति अपनी तरफ आती देखी। वे गली के लैम्प की रौशनी में चले आ रहे थे।
मैं कुनमुनाया,”वो मुझे अंदर नहीं आने दे रही। और मुझे लगता है वह पीती रही है।”
जब हम घर की तरफ चले आ रहे थे तो वे हिचकिचाये,”मेरी खुद की हालत बहुत अच्छी नहीं है।”
मैंने उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश की कि वे बिलकुल ठीक-ठाक हैं।
“नहीं, मैं नशे में धुत्त हूं।”
उन्होंने बैठक का दरवाजा खोला और वहां मौन और डराने की मुद्रा में खड़े रहे और लुइस की तरफ देखते रहे। वह फायर प्लेस के पास खड़ी, मैंटलपीस पकड़े लहरा रही थी।
“तुमने इसे भीतर क्यों नहीं आने दिया?”
वह अकबकाई-सी पिता जी की तरफ देखती रही और फिर बुड़बुड़ाई,”तुम भी जहन्नुम में जाओ। तुम सब।”
अचानक पिता ने बगल की अलमारी में से कपड़े झाड़ने का भारी ब्रश उठाया और लुइस की तरफ ज़ोर से दे मारा। ब्रश का पिछला हिस्सा ठीक उसके चेहरे के एक तरफ जा लगा। उसकी आंखें बंद हुईं और वह फर्श पर ज़ोर की आवाज़ करते हुए भहरा कर गिर गयी मानो वह खुद इस उपेक्षा का स्वागत कर रही हो।
पिता की ये करनी देख कर मुझे धक्का लगा। उनकी इस तरह की हिंसा देख कर मेरे मन से उनके प्रति सम्मान की भावना जाती रही थी। और उसके बाद फिर क्या हुआ था, इस बारे में मेरी याददाश्त बहुत धुंधली-सी है। मेरा विश्वास है कि बाद में सिडनी आया था और पिता जी ने हम दोनों को बिस्तर पर लिटा दिया था और घर से चले गये थे।
मुझे पता चला था कि पिता जी और लुइस का उस सुबह ही झगड़ा हुआ था क्योंकि पिता जी उसे छोड़ कर अपने भाई स्पैंसर के पास दिन बिताने के लिए चले गये थे। उनके भाई के लैम्बेथ के आसपास कई सराय घर थे। अपनी हैसियत के प्रति संवेदनशील होने के कारण लुइस ने इस बात को पसंद नहीं किया कि वह स्पैंसर चैप्लिन के घर जाये और पिता जी अकेले ही चले गये थे। और बदले के भावना से जलते हुए लुइस ने दिन कहीं और बिताया था।
वह पिता को प्यार करती थी। हालांकि मैं उस वक्त बहुत छोटा था लेकिन मैं इस बात को महसूस कर सका था कि जब वह रात के वक्त फायरप्लेस के पास बेचैन और उनकी उपेक्षा से आहत खड़ी थी। मुझे इस बात का भी यकीन है कि वे भी उसे प्यार करते थे। मैंने इस बात को कई मौकों पर खुद देखा। ऐसे भी वक्त आते थे कि जब वे आकर्षक लगते, स्नेह से पेश आते और थियेटर के लिए निकलने से पहले शुभ रात्रि का चुंबन दे कर जाते। और किसी रविवार की सुबह, जब उन्होंने पी नहीं रखी होती थी, वे हमारे साथ नाश्ता करते और लुइस को उन कलाकारों के बारे में बताते जो उनके साथ काम कर रहे होते थे। वे हम सब को ये बातें बता कर खूब हंसाते। मैं मुंह बाये गिद्ध की तरह उनकी तरफ देखता रहता और उनकी हर गतिविधि को अपने भीतर उतारता रहता। एक बार जब वे बहुत ही खिलंदड़े मूड में थे तो अपने सिर पर तौलिया बांध कर मेज़ के चारों तरफ अपने नन्हें बेटे के पीछे-पीछे दौड़ते हुए बोलते रहे,”मैं हूं राजा टर्की रूबार्ब।”
शाम को आठ बजे थियेटर के लिए निकलने से पहले वे पोर्ट वाइन के साथ छ: कच्चे अंडे निगल जाते। वे शायद ही कभी ठोस आहार लेते। यही उनकी खुराक थी जो उन्हें पूरा दिन चुस्त-दुरुस्त बनाये रखती। वे शायद ही कभी घर आते। कभी आते भी तो सिर्फ़ नशा उतरने तक सोने के लिए आते थे।
एक दिन बच्चों के प्रति क्रूरता की रोक-थाम करने वाली सोसाइटी से कुछ लोग लुइस से मिलने आये। वह उन्हें देख कर बुरी तरह बेचैन हो गयी थी। वे लोग इसलिए आये थे क्योंकि पुलिस ने उन्हें बताया था कि उन्होंने सिडनी और मुझे आधी रात को तीन बजे चौकीदार की कोठरी के पास सोये हुए पाया था। यह उस रात की बात थी जब लुइस ने हम दोनों को बाहर निकाल कर दरवाजा बंद कर दिया था और पुलिस ने जबरदस्ती उससे दरवाजा खुलवाया था और हमें भीतर लेने के लिए उससे कहा था।
अलबत्ता, कुछेक दिनों के बाद, पिता जब दूसरे प्रदेशों में अभिनय में व्यस्त थे, लुइस को एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि मां ने पागलखाना छोड़ दिया है। एक या दो दिन के बाद मकान मालकिन ऊपर आयी और बताने लगी कि दरवाजे पर एक औरत खड़ी है जो सिडनी और चार्ली को पूछ रही है।
“जाओ, तुम्हारी मां आयी है।” लुइस ने कहा। थोड़ी देर के लिए भ्रम की स्थिति पैदा हो गयी। तभी सिडनी कूदा और तेज़ी से दौड़ते हुए सीधे मां की बांहों में जा समाया। मैं उसके पीछे-पीछे लपका। यह वही हमारी प्यारी, मुस्कुराती मां थी और उसने हम दोनों को स्नेह से अपने सीने से लगा लिया था।
लुइस और मां का एक-दूसरे से मिलना, खासा परेशानी का कारण बन सकता था, इसलिए मां दरवाजे पर ही खड़ी रहीं और हम दोनों भाई अपनी चीज़ें समेटते रहे। दोनों तरफ कोई कड़ुवाहट या दुर्भावना नहीं थी बल्कि सिडनी को विदा करते समय लुइस का व्यवहार बहुत ही अच्छा था।
मां ने हेवर्ड अचार फैक्टरी के पास केनिंगटन क्रॉस के पीछे वाली गली में एक कमरा किराये पर ले लिया था। हर दोपहर को वहां एसिड की तीखी गंध वातावरण में फैलने लगती, लेकिन कमरा सस्ता था और हम सब एक बार फिर साथ-साथ रह पा रहे थे। मां की सेहत बहुत अच्छी थी और ये बात हमने कभी सोची ही नहीं कि वह कभी बीमार भी रही थी।
मुझे इस बात का ज़रा-सा भी गुमान नहीं है कि हमारा वह अरसा कैसे गुज़रा। न तो मुझे किसी सीमा से ज्यादा तकलीफ की याद है और न ही किसी ऐसी समस्या की जिसका समाधान हमारे पास न हो। पिता की ओर से हर सप्ताह मिलने वाली दस शिलिंग की राशि आम तौर पर नियमित रूप से मिलती रही और, हां, मां ने सीने-पिरोने का काम फिर से हाथ में ले लिया था और गिरजा घर के साथ फिर से संबंध बना लिये थे।
उस समय की एक घटना खास तौर पर याद आ रही है। हमारी गली के एक सिरे पर कसाईघर था जहां हमारी गली में से हो कर कटने के लिए भेड़ें ले जायी जाती थीं। मुझे याद है कि एक भेड़ बच कर निकल भागी थी और गली में दौड़ती चली गयी थी। सब लोग ये तमाशा देखने लगे। कुछेक लोगों ने उसे दबोचने की कोशिश की और दूसरे कुछ लोग अपनी जगह ही कूद-फांद रहे थे। मैं खुशी के मारे खिलखिला कर हँस रहा था। ये नज़ारा इतना ज्यादा हास्यास्पद लग रहा था। लेकिन जब भेड़ को पकड़ लिया गया और वापिस कसाईघर की तरफ ले जाया गया तो त्रासदी की सच्चाई मुझ पर हावी हो गयी और मैं भाग कर घर के अंदर चला गया। मैं चिल्ला रहा था और ज़ार-ज़ार रोते हुए मां को बता रहा था,”वे लोग उसे मारने के लिए ले जा रहे हैं, वे लोग उसे मारने के लिए ले जा रहे हैं।” वह तीखी, वसंत की दोपहर और उस भेड़ का कॉमेडी-भरा पीछा करना, कई दिन तक मेरे दिलो-दिमाग पर छाये रहे। और मुझे लगता है कि शायद कहीं इसी घटना ने ही मेरी भावी फिल्मों के लिए ज़मीन तैयार की हो। त्रासदी और कॉमेडी का मिला-जुला रूप।
स्कूल अब नयी ऊंचाइयां छू रहा था। इतिहास, कविता और विज्ञान। लेकिन कुछ विषय बहुत ही जड़ और नीरस थे। खास तौर पर अंक गणित। उसके जोड़-भाग मुझमें किसी लिपिक और कैश रजिस्टर, उसके इस्तेमाल की छवि पैदा करते थे और सबसे बड़ी बात, ये लगता था कि ये रेज़गारी की कमी से एक बचाव की तरह है।
इतिहास मूर्खताओं और हिंसा का दस्तावेज था। कत्ले-आम और राजाओं द्वारा अपनी रानियों, भाइयों और भतीजों को मारने का सतत सिलसिला; भूगोल में सिर्फ नक्शे ही नक्शे ही थे; काव्य के नाम पर अपनी याददाश्त की परीक्षा लेने के अलावा कुछ नहीं था। शिक्षा शास्त्र मुझे पागल बनाता था और तथ्यों की जानकारी में मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी।
काश, किसी ने कारोबारी दिमाग इस्तेमाल किया होता, प्रत्येक अध्ययन की उत्तेजनापूर्ण प्रस्तावना पढ़ी होती जिसने मेरा दिमाग झकझोरा होता, तथ्यों के बजाये मुझ में रुचि पैदा की होती, अंकों की कलाबाजी से मुझे आनंदित किया होता, नक्शों के प्रति रोमांच पैदा किया होता, इतिहास के बारे में मेरी दृष्टिकोण विकसित किया होता, मुझे कविता की लय और धुन को भीतर उतारने के मौके दिये होते तो मैं भी आज विद्वान बन सकता था।
अब चूंकि मां हमारे पास वापिस लौट आयी थी, उसने थियेटर की तरफ मेरी रुचि फिर से जगानी शुरू कर दी थी। उसने मुझमें यह अहसास भर दिया था कि मुझ में थोड़ी-बहुत प्रतिभा है। लेकिन ये सुनहरा मौका बड़े दिन से पहले तब तक नहीं आया था जब तक स्कूल ने अपना संक्षिप्त नाटक सिंडरेला नहीं खेला था और मुझे अपने आपको वह सब अभिव्यक्त करने की ज़रूरत महसूस होने लगी थी जो मुझे मां ने सिखाया-पढ़ाया था। कुछ कारण थे कि मुझे नाटक के लिए नहीं चुना गया था, और भीतर ही भीतर मैं कुढ़ रहा था और महसूस कर रहा था कि बेहतर होता, मैं नाटक में भूमिका करूं बजाये उनके जो इस नाटक के लिए चुने गये थे। जिस तरह से बच्चे नीरस ढंग से और कल्पना शक्ति का सहारा लिये बिना अपनी भूमिका अदा कर रहे थे, उससे मुझमें खीज पैदा हो रही थी। बदसूरत बहनों में न कोई उत्साह था न ही भीतरी उमंग। वे अपनी लाइनें रटे-रटाये ढंग से पढ़ रही थीं जिसमें स्कूल के बच्चों वाली भेड़-चाल और खीझ पैदा करने वाली कृत्रिमता का दबाव था। मैं मां की दी हुई शिक्षा के साथ बदसूरत बहनों में से एक की भूमिका भला कैसे कर सकता था। अलबत्ता, जिस लड़की ने सिंडरेला की भूमिका की थी, उसने मुझे बांध लिया था। वह खूबसूरत और नफासत पसंद थी और उसकी उम्र चौदह बरस के आसपास थी। मैं उससे गुपचुप प्यार करने लगा था। लेकिन वह मेरी पहुंच से दूर थी। सामाजिक तौर पर भी और उम्र के लिहाज से भी।
मैंने जब नाटक देखा तो मुझे ये बकवास लगा लेकिन लड़की की खूबसूरती के कारण मैंने इसे पसंद किया। उस लड़की ने मुझे उदास कर दिया था। अलबत्ता, मैंने इस बात को शायद ही महसूस किया था कि दो महीने बाद मेरी ज़िंदगी में कितने शानदार पल आने वाले थे कि मुझे हर क्लास के सामने ले जाया गया और मिस प्रिशिला की बिल्ली का पाठ करने के लिए कहा गया। ये एक स्वांग भरी कविता थी जो मां ने अखबारों की दुकान के बाहर देखी थी और ये उसे इतनी अच्छी लगी कि वह खिड़की पर से नकल करके घर लेती आयी। कक्षा में खाने की छुट्टी के समय मैं उसे एक लड़के को सुना रहा था। तभी मिस्टर रीड, हमारे स्कूल के अध्यापक, ने अपने कागजों पर से ध्यान हटा कर देखा। वे इसे सुन कर इतने खुश हुए कि जब कक्षा के सब बच्चे वापिस आ गये तो उन्होंने मुझे ये सुनाने के लिए कहा। पूरी कक्षा हंसते-हंसते लोट पोट हो गयी। इस वजह से पूरे स्कूल में मेरा नाम फैल गया और अगले दिन मुझे स्कूल की हर कक्षा में, लड़के-लड़कियों की सभी कक्षाओं में ले जाया गया और उसका पाठ करने के लिए कहा गया।
हालांकि मैंने पांच बरस की उम्र में दर्शकों के सामने मंच पर मां की जगह लेते हुए अभिनय किया था लेकिन ग्लैमर से मेरा पहला होशो-हवास वाला साबका था। अब स्कूल मेरे लिए उत्तेजनापूर्ण हो चुका था और अब मैं शर्मीला और गुमसुम-सा लड़का नहीं रहा था। अब मैं अध्यापकों और बच्चों, सबका चहेता विद्यार्थी बन चुका था। इससे मेरी पढ़ाई में भी सुधार हुआ, लेकिन मेरी पढ़ाई में फिर से व्यवधान आया जब मुझे अष्टम लंकाशायर बाल गोपाल मंडली के साथ क्लॉग नर्तकों के एक ट्रुप में हिस्सा लेना पड़ा।
पिता जी मिस्टर जैक्सन को जानते थे। वे एक ट्रुप के संचालक थे। पिता जी ने मां को इस बात के लिए मना लिया कि मेरे लिए स्टेज पर कैरियर बनाना एक अच्छी शुरुआत रहेगी और साथ ही साथ मैं मां की आर्थिक रूप से मदद भी कर पाऊंगा। मेरे लिए खाने और रहने की सुविधा रहेगी और मां को हर हफ्ते आधा क्राउन मिला करेगा। शुरू-शुरू में तो वह अनिश्चय में डोलती रही, लेकिन मिस्टर जैक्सन और उनके परिवार से मिलने के बाद मां ने हामी भर दी।
मिस्टर जैक्सन की उम्र पचास-पचपन के आसपास थी। वे लंकाशायर में अध्यापक रहे थे और उनके परिवार में चार बच्चे थे। तीन लड़के और एक लड़की। ये चारों बच्चे अष्टम लंकाशायर बाल गोपाल मंडली के सदस्य थे। मिस्टर जैक्सन परम रोमन कैथोलिक थे और अपनी पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरा विवाह करने के बारे में उन्होंने अपने बच्चों से सलाह ली थी। उनकी दूसरी पत्नी उम्र में उनसे भी थोड़ी बड़ी थी। वे हमें पूरी नेकनीयती से बता दिया करते कि उन दोनों की शादी कैसे हुई थी। उन्होंने एक अखबार में अपने लिए एक बीवी के लिए एक विज्ञापन दिया था और उसके जवाब में तीन सौ से भी ज्यादा ख़त मिले थे।
भगवान से राह सुझाने के लिए दुआ करने के बाद उन्होंने केवल एक ही लिफाफा खोला था और वह खत था मिसेज जैक्सन की ओर से। वे भी एक स्कूल में पढ़ाती थीं और शायद ये मिस्टर जैक्सन की दुआओं का ही असर था कि वे भी कैथोलिक थीं।
मिसेज जैक्सन को बहुत अधिक खूबसूरती का वरदान नहीं मिला था और न ही उन्हें किसी भी निगाह से कमनीय ही कहा जा सकता था। जहां तक मुझे याद है, उनका बड़ा-सा, खोपड़ी जैसा पीला चेहरा था और उस पर ढेर सारी झुर्रियां थीं। शायद इन झुर्रियों की वज़ह यह रही हो कि उन्हें काफी बड़ी उम्र में मिस्टर जैक्सन को एक बेटे की सौगात देनी पड़ी थी। इसके बावजूद वे निष्ठावान और समर्पित पत्नी थीं और हालांकि उन्हें अभी भी अपने बेटे को छाती का दूध पिलाना पड़ता था, वे ट्रुप की व्यवस्था में हाड़-तोड़ मेहनत करके मदद किया करती थीं।
जब उन्होंने रोमांस की अपनी दास्तान सुनायी तो यह दास्तान मिस्टर जैक्सन की बतायी कहानी से थोड़ी अलग थी। उनमें आपस में पत्रों का आदान-प्रदान हुआ था लेकिन उन दोनों में से किसी ने भी दूसरे को शादी के दिन तक नहीं देखा था और बैठक के कमरे में उन दोनों के बीच जो पहली मुलाकात हुई थी और परिवार के बाकी लोग दूसरे कमरे में इंतज़ार कर रहे थे, मिस्टर जैक्सन ने कहा था,”बस, आप वही हैं जिनकी मुझे चाह थी।” और मैडम ने भी वही बात स्वीकार की। हम बच्चों को ये किस्सा सुनाते समय वे विनम्र हो कर कहतीं,”लेकिन मुझे नहीं पता था कि मुझे हाथों-हाथ आठ बच्चों की मां बन जाना पड़ेगा।”
उनके तीन बच्चों की उम्र बारह से अट्ठारह बरस के बीच थी और लड़की की उम्र नौ बरस थी। उस लड़की के बाल लड़कों की तरह कटे हुए थे ताकि उसे भी मंडली के बाकी लड़कों में खपा लिया जा सके।
हर रविवार को मेरे अलावा सब लोग गिरजाघर जाया करते थे। मैं ही उन सब में अकेला प्रोटैस्टैंट था, इसलिए अक्सर उनके साथ ही चला जाता। मां की धार्मिक भावनाओं के प्रति सम्मान न होता तो मैं कब का कैथोलिक बन चुका होता क्योंकि मैं इस धर्म का रहस्यवाद पसंद करता था और घर की बनी हुई छोटी-छोटी ऑल्टर तथा लास्टर की मेरी वर्जिन की मूर्तियां, जिन पर फूल और मोमबत्तियां सजी रहतीं, मुझे अच्छी लगतीं। इन्हें बच्चे अपने बेडरूम के कोने में सजा कर रखते और जब भी उसके आगे से गुज़रते, घुटने टेक कर श्रद्धा अर्पित करते।
छ: सप्ताह तक अभ्यास करने के बाद मैं अब इस स्थिति में था कि बाकी मंडली के साथ नाच सकूं। लेकिन चूंकि मैं अब आठ बरस की भी उम्र पार कर चुका था, मैं अपनी आश्वस्ति खो चुका था और पहली बार दर्शकों के सामने आने पर मुझे मंच का भय लगा। मैं मुश्किल से अपनी टांगें हिला पा रहा था। हफ्तों लग गये तब कहीं जा कर मैं मंडली के बाकी बच्चों की तरह एकल नृत्य करने की हालत में आ सका।
मैं इस बात को ले कर बहुत अधिक खुश नहीं था कि मुझे भी मंडली के बाकी आठ बच्चों की तरह क्लॉग डांसर ही बना रहना पड़े। बाकी बच्चों की तरह मैं भी एकल अभिनय करने की महत्त्वाकांक्षा रखता था। सिर्फ इसलिए नहीं कि इस तरह के काम के ज्यादा पैसे मिलते थे बल्कि इसलिए भी कि मैं शिद्दत से महसूस करता था कि नाचने के बजाये इस तरह के अभिनय से कहीं ज्यादा संतुष्टि मिलती है। मैं बाल हास्य कलाकार बनना चाह सकता था लेकिन उसके लिए स्टेज पर अकेले खड़े रहने का माद्दा चाहिये था। इसके अलावा मेरी पहली भीतरी प्रेरणा यही थी कि मैं एकल नृत्य के अलावा जो कुछ भी करूंगा, हास्यास्पद होगा। मेरा आदर्श दोहरा अभिनय था। दो बच्चे कॉमेडी ट्रैम्प की तरह कपड़े पहने हों। मैंने यह बात अपने एक साथी बच्चे को बतायी और हम दोनों ने पार्टनर बनना तय किया। ये हमारा कब का पाला सपना पूरा होने जा रहा था। हम अपने आपको ब्रिस्टॉल और चैप्लिन – करोड़पति ट्रैम्प कहते और ट्रैम्प गलमुच्छे लगाते, और हीरे की बड़ी बड़ी अंगूठियां पहनते। हमने उस हर पहलू पर विचार कर लिया था जो मज़ाकिया होता और जिससे कमाई हो सकती लेकिन अफ़सोस, ये सपना कभी भी साकार न हो सका।
दर्शक अष्टम लंकाशायर बाल गोपाल मंडली पसंद करते थे क्योंकि जैसा कि मिस्टर जैक्सन कहते थे – हम थियेटर के बच्चों जैसे बिलकुल भी नहीं लगते थे। उनका यह दावा था कि हमने कभी भी अपने चेहरों पर ग्रीज़ पेंट नहीं पोता, और हमारे गुलाबी गाल वैसे ही गुलाबी थे। यदि कोई बच्चा स्टेज पर जाने से पहले ज़रा-सा भी पीला दिखायी देता तो वे हमें बताते कि अपने गालों को मसल दें। लेकिन लंदन में एक ही रात में दो या तीन संगीत सदनों में काम करने के बाद अक्सर हम भूल जाते और स्टेज पर खड़े हुए थके-मांदे और मनहूस लगने लगते। तभी हमारी निगाह विंग्स में खड़े मिस्टर जैक्सन पर पड़ती और वे ज़ोर-ज़ोर से खींसें निपोरते हुए अपने चेहरे की तरफ इशारा कर रहे होते। इसका बिजली का-सा असर होता और हम अचानक हँसी के मारे दोहरे हो जाते।
प्रदेशों के टूर करते समय हम हर शहर में एक-एक हफ्ते के लिए स्कूल जाया करते। लेकिन इससे मेरी पढ़ाई में कोई खास इज़ाफा नहीं हुआ।
क्रिसमस के दिनों में हमें लंदन हिप्पोड्रोम में सिंडरेला पैंटोमाइम में बिल्ली और कुत्ते का मूक अभिनय करने का न्यौता मिला। उन दिनों ये नया थियेटर हुआ करता था और इसमें वैराइटी शो और सर्कस का मिला-जुला रूप हुआ करता था। इसे बहुत खूबसूरती से सजाया जाता और काफी हंगामा रहा करता था। रिंग का फर्श नीचे चला जाता था और वहां पानी भर जाता था और काफी बड़े पैमाने पर बैले होता। एक के बाद एक बला की खूबसूरत लड़कियां चमकीली सज-धज में आतीं और पानी के नीचे एकदम गायब हो जातीं। जब लड़कियों की आखिरी कतार भी डूब जाती तो मैर्सलाइन, महान फ्रांसीसी जोकर, शाम की बेतुकी, चिकनी पोशाक में सजे धजे, एक कैम्प स्टूल पर बैठे हाथ में मछली मारने की रॉड लिये अवतरित होते और बड़ा-सा गहनों का बक्सा खोलते, अपने कांटे में हीरे का एक नेकलेस फंसाते और उसे पानी में डाल देते। थोड़ी देर के बाद वे छोटे आभूषण निकालते और ब्रेसलेट फेंकते, और इस तरह पूरा का पूरा बक्सा खाली कर डालते। अचानक वे एक झटका खाते और तरह-तरह की मज़ाकिया हरकतें करते हुए रॉड के साथ संघर्ष करते हुए प्रतीत होते और आखिर कांटे को खींच कर बाहर निकालते और हम देखते कि पानी में से एक छोटा-सा प्रशिक्षित कुत्ता बाहर आ रहा है। कुत्ता वही सब कुछ करता जो मार्सलीन करते। अगर वे बैठते तो कुत्ता भी बैठ जाता और अगर वे खड़े होते तो कुत्ता भी खड़ा हो जाता। मार्सलीन साहब की कॉमेडी हंसी-ठिठोली से भरी और आकर्षक थी और लंदन के लोग उनके पागलपन की हद तक दीवाने थे।
रसोई के एक दृश्य में मुझे उनके साथ करने के लिए एक छोटा-सा मज़ाकिया दृश्य दिया गया। मैं बिल्ली बना हुआ था और मार्सलीन एक कुत्ते की तरफ से पीछे आते हुए मेरे ऊपर गिर जाने वाले थे जबकि मैं दूध पी रहा होता। वे हमेशा शिकायत किया करते कि मैं अपनी कमर को इतना नहीं झुकाता कि उनके गिरने के बीच आड़े आऊं। मैंने बिल्ली का एक मुखौटा पहना हुआ था और मुखौटा ऐसा कि जिस पर हैरानी के भाव थे। बच्चों के लिए पहले मैटिनी शो में मैं कुत्ते के शरीर के पिछले हिस्से की तरफ चला गया और उसे सूंघने लगा। जब दर्शक हंसने लगे तो मैं वापिस मुड़ा और उनकी तरफ हैरानी से देखने लगा और मैंने एक डोरी खींची जिससे बिल्ली की घूरती हुई आंख मुंद जाती थी। मैं जब कई बार सूंघने और आंख मारने का अभिनय कर चुका तो स्टेज मैनेजर लपका हुआ बैक स्टेज में आया और विंग्स में से पागलों की तरह हाथ हिलाने लगा। लेकिन मैं अपने काम में लगा रहा। कुत्ते को सूंघने के बाद मैंने रंगमंच सूंघा और फिर अपनी टांग उठा दी। दर्शक हँस-हँस कर दोहरे हो गये। शायद इसलिए क्योंकि ये हरकत बिल्ली जैसी नहीं थी। आखिरकार मैनेजर से मेरी आंखें मिल ही गयीं और मैं इतना कूदा-फांदा कि लोग हँसते-हँसते लोट पोट हो गये। वे मुझ पर झल्लाये,”इस तरह की हरकत फिर कभी मत करना।” यह कहते हुए उनकी सांस फूल रही थी,”तुम ज़रूर इस थियेटर के मालिक लॉर्ड चैम्बरलिन को ये थियेटर बंद करने पर मज़बूर करोगे।”
सिंडरेला को आशातीत सफलता मिली। और हालांकि मार्सलीन साहब को कहानी तत्व या प्लॉट के साथ कुछ लेना-देना नहीं था, फिर भी वे सबसे बड़ा आकर्षण थे। कई बरसों के बाद मार्सलीन न्यूयॉर्क के हिप्पोड्रोम में चले गये और उन्हें वहां भी हाथों-हाथ लिया गया। लेकिन जब हिप्पोड्रोम की जगह सर्कस ने ले ली तो मार्सलीन साहब को जल्दी ही भुला दिया गया।
1918 या उसके आसपास की बात है, रिंगलिंग ब्रदर्स का थ्री रिंग सर्कस लॉस एंजेलेस में आया तो मार्सलीन उनके साथ थे। मैं ये मान कर चल रहा था कि उनका ज़िक्र पोस्टरों में होगा लेकिन मुझे यह देख कर गहरा धक्का लगा कि उनकी भूमिका बहुत से उन दूसरे जोकरों की ही तरह थी जो पूरे रिंग में यहां से वहां तक दौड़ते नज़र आते हैं। एक महान कलाकार तीन रिंग वाले सर्कस की अश्लील तड़क-भड़क में खो गया था।
बाद में मैं उनके ड्रेसिंग रूम में गया और अपना परिचय दिया और उन्हें याद दिलाया कि मैंने उनके साथ लंदन के हिप्पोड्रोम में बिल्ली की भूमिका अदा की थी। लेकिन उनकी प्रतिक्रिया उदासीन थी। यहां तक कि अपने जोकर वाले मेक-अप में भी उनका चेहरा सूजा हुआ लग रहा था और वे उदास और सुस्त लग रहे थे।
एक बरस बाद न्यू यार्क में उन्होंने खुदकुशी कर ली। अखबारों में एक कोने में छोटी-सी खबर छपी थी कि उसी घर में रहने वाले एक पड़ोसी ने गोली चलने की आवाज़ सुनी थी और मार्सलीन को फर्श पर पड़े हुए देखा था। उनके एक हाथ में पिस्तौल थी और ग्रामोफोन रिकार्ड अभी भी घूम रहा था। रिकार्ड पर जो गीत बज रहा था, वह था,”मूनलाइट एंड रोजेज़।”
कई मशहूर अंग्रेज़ी कॉमेडियनों ने खुदकुशी की है। टी ई डनविले, जो बहुत ही आला दरजे के हंसोड़ व्यक्ति थे, ने सैलून बार के भीतर जाते समय किसी को पीठ पीछे यह कहते सुन लिया था,”अब इस शख्स के दिन लद गये।” उसी दिन उन्होंने टेम्स नदी के किनारे अपने आप को गोली मार दी थी।
मार्क शेरिडन, जो इंग्लैंड के सर्वाधिक सफल कॉमेडियन थे, ने ग्लासगो में एक सार्वजनिक पार्क में अपने आपको गोली मार दी थी क्योंकि वे ग्लासगो के दर्शकों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे थे।
फ्रैंक कॉयन, जिनके साथ हमने उसी शो में काम किया था, जांबाज़, हट्टे-कट्टे कॉमेडियन थे और जो अपने एक हल्के-फुल्के गाने के लिए बहुत प्रसिद्ध थे:
स्टेज के बाहर वे हमेशा खुश रहते और मुस्कुराते रहते। लेकिन एक दोपहर, अपनी पत्नी के साथ घोड़ी वाली गाड़ी पर सैर की योजना बनाने के बाद वे कुछ भूल गये और अपनी पत्नी से कहा कि वह इंतज़ार करे और वे खुद सीढ़ियां चढ़ कर भीतर गये। बीस मिनट के बाद जब वह ऊपर यह देखने के लिए गयी कि उन्हें आने में देर क्यों हो रही है तो उसने उन्हें बाथरूम के फर्श पर खून से लथपथ पड़े हुए पाया। उनके हाथ में उस्तरा था और उन्होंने अपना गला काट कर अपने आपको लगभग खत्म ही कर डाला था।
अपने बचपन में मैंने जिन कई कलाकारों के साथ काम किया था और जिन्होंने मुझे प्रभावित किया था, वे स्टेज पर हमेशा सफल नहीं थे बल्कि स्टेज से बाहर उनका विलक्षण व्यक्तित्व हुआ करता था। जार्मो नाम के एक कॉमेडी ट्रैम्प बाजीगर हुआ करते थे जो कड़े अनुशासन में काम करते थे और थियेटर के खुलते ही हर सुबह घंटों तक अपनी बाजीगरी का अभ्यास किया करते थे। हम उन्हें स्टेज के पीछे देख सकते थे कि वे बिलियर्ड खेलने की छड़ी को अपनी ठुड्डी पर संतुलित कर रहे हैं और एक बिलियर्ड गेंद उछाल कर उसे इस छड़ी के ऊपर टिका रहे हैं। इसके बाद वे दूसरी गेंद उछालते और पहली गेंद के ऊपर टिका देते। अक्सर वे दूसरी गेंद टिकाने में चूक जाते। मिस्टर जैक्सन ने बताया कि वे चार बरस तक लगातार इस ट्रिक का अभ्यास करते रहे थे और सप्ताह के अंत में इसे पहली बार दर्शकों के सामने दिखाना चाह रहे थे। उस रात हम सब विंग्स में खड़े उन्हें देखते रहे। उन्होंने बिलकुल ठीक प्रदर्शन किया और पहली ही बार ठीक किया। गेंद को ऊपर उछालना और बिलियर्ड की छड़ी पर ऊपर टिका देना और फिर दूसरी गेंद उछालना और उसे पहली गेंद के ऊपर टिका देना लेकिन दर्शकों ने मामूली सी तालियां ही बजायीं।
मिस्टर जैक्सन ने उस रात का किस्सा बताया था, उन्होंने जार्मो से कहा था,”तुम इस ट्रिक को बहुत ही आसान बना डालते हो। इस वज़ह से तुम इसे बेच नहीं पाते। तुम इसे कई बार मिस करो, तब जा कर गेंद को ऊपर टिकाओ, तब बात बनेगी।” जार्मो हंसे थे,”मैं इतना कुशल नहीं हूं कि इसे मिस कर सकूं।” जार्मो मानस विज्ञान में भी दिलचस्पी रखते थे और हमारे चरित्र पढ़ा करते। उन्होंने मुझे बताया था कि मैं जो कुछ भी ज्ञान हासिल करूंगा, उसे बनाये रखूंगा और उसका बेहतर इस्तेमाल करूंगा।
इनके अलावा, ग्रिफिथ बंधु हुआ करते थे। मज़ाकिया और प्रभाव छोड़ने वाले। उन्होंने मेरा मनोविज्ञान ही उलट-पुलट डाला था। वे दोनों कॉमेडी ट्रैपीज़ जोकर थे और दोनों ट्रैपीज़ पर झूला करते। वे मोटे पैड लगे जूतों से एक दूसरे के मुंह पर ज़ोर से लात जमाते।
“आह,” लात खाने वाला चिल्लाता।
“ज़रा एक बार फिर मार कर तो दिखा।”
“ले और ले। एक और लात”
और फिर लात खाने वाला हैरानी से देखता रह जाता और आंखें नचाता और कहता,”अरे देखो, उसने फिर से लात मार दी है।”
मुझे इस तरह की पागलपन से भरी हिंसा से तकलीफ होती। लेकिन स्टेज से बाहर वे दोनों भाई बहुत प्यारे, शांत और गम्भीर होते।
मेरा ख्याल है, किंवदंती बन चुके ग्रिमाल्डी के बाद डान लेनो महान अंग्रेज़ कॉमेडियन रहे। हालांकि मैंने कभी भी लेनो को उनके चरम उत्कर्ष पर नहीं देखा, वे मेरे लिए कॉमेडियन के बजाये चरित्र अभिनेता अधिक थे। लंदन के निचले वर्गों के सनक से भरे जीवन के उनके खाके, स्कैच अत्यंत मानवीय और दिल को छू लेने वाले होते, मां ने मुझे बताया था।
प्रसिद्ध मैरी लॉयड की प्रसिद्धि छिछोरी औरत के रूप में थी। इसके बावजूद जब हमने उनके साथ स्ट्रैंड में ओल्ड टिवोली में अभिनय किया तो वे ज्यादा गम्भीर और सतर्क अभिनेत्री लगीं। मैं उन्हें आंखें चौड़ी किये देखता रहता। एक चिंतातुर, छोटी-मोटी महिला जो दृश्यों के बीच आगे-पीछे कदम ताल करती रहती थीं।
वे तब तक गुस्से में और डरी रहतीं जब तक उनके लिए मंच पर जाने का समय न आ जाता। उसके बाद वे एकदम खुशमिजाज दिखतीं और उनके चेहरे पर राहत के भाव आ जाते।
और फिर, ब्रांसबाय विलियम्स, जो डिकेंस के पात्रों का अभिनय करते थे, वे उरिया हीप, बिल साइक्स और द’ ओल्ड क्यूरोसिटी शॉप के बूढ़े आदमी की नकल से मुझे आनन्दित किया करते थे। इस खूबसूरत, अभिजात्य पुरुष का ग्लासगो की उजड्ड जनता के सामने अभिनय करना और अपने आप को इन शानदार चरित्रों में ढाल कर करतब दिखाना, थियेटर के नये ही अर्थ खोलता था।
उन्होंने साहित्य के प्रति भी मेरे मन में अनुराग जगाया था। मैं जानना चाहता था कि आखिर वह अबूझ रहस्य क्या है जो किताबों में छुपा रहता है, डिकेंस के ये ज़मीनी रंग के चरित्र जो इस तरह की आश्चर्यजनक क्रुक्शांकियाई दुनिया में विचरते हैं। हालांकि मैं मुश्किल से पढ़ पाता था, मैंने आखिरकार ऑलिवर ट्विस्ट की प्रति खरीदी।
मैं चार्ल्स डिकेंस के चरित्रों के साथ इतना ज्यादा रोमांचित था कि मैं उनकी नकल करने वाले ब्रांसबाय विलियम्स की नकल करता। इस बात से इनकार कैसे किया जा सकता है कि इस तरह की उभरती हुई प्रतिभा पर किसी की निगाह न जाती। इसे छुपा कर कैसे रखा जा सकता था। तो हुआ ये कि एक दिन मिस्टर जैक्सन ने मुझे अपने दोस्तों का द’ ओल्ड क्यूरोसिटी शॉप के बूढ़े का चरित्र निभा कर उसकी नकल करते देख लिया। मुझे तब और तभी जीनियस मान लिया गया और मिस्टर जैक्सन ने तय कर लिया कि वे पूरी दुनिया से इस प्रतिभा का परिचय करवा के रहेंगे।
अचानक मौका आया मिडल्सबोरो में थियेटर में। हमारे क्लॉग नृत्य के बाद मिस्टर जैक्सन स्टेज पर कुछ इस तरह का भाव लिये हुए आये मानो वे एक नये मसीहा का परिचय कराने के लिए चले आ रहे हों। उन्होंने घोषणा की कि उन्होंने एक बाल प्रतिभा खोज निकाली है और द’ ओल्ड क्यूरोसिटी शॉप के उस बूढ़े की ब्रांसबाय विलियम्स की नकल करके दिखायेगा जो अपने नन्हें नेल की मृत्यु को पहचान नहीं पाता।
दर्शक इसके लिए बहुत ज्यादा तैयार नहीं थे, क्योंकि वे पहले ही पूरी शाम का एक बोर मनोरंजन झेल चुके थे। अलबत्ता, मैं अपनी डांस वाली सामान्य पोशाक पहने हुए ही मंच पर आया। मैंने सफेद लीनन का फ्रॉक, लेस वाले कॉलर, चमकीले निक्कर, बॉकर पैंट, और नाचने के समय के लाल जूते पहले पहने हुए थे। और मैं अभिनय कर रहा था ऐसे बूढ़े का जो नब्बे बरस का हो। कहीं से हमें एक ऐसी पुरानी विग मिल गयी थी – शायद मिस्टर जैक्सन कहीं से लाये होंगे, जो वैसे तो बड़ी थी लेकिन जो मुझे पूरी नहीं आ रही थी हालांकि मेरा सिर बड़ा था लेकिन विग उससे भी बड़ी थी। ये एक गंजे आदमी वाली विग थी और उसके चारों तरफ सफेद लटें झूल रही थीं इसलिए मैं जब स्टेज पर एक बूढ़े आदमी की तरह झुका हुआ पहुंचा तो इसका असर घिसटते गुबरैले की तरह था और दर्शकों ने इस तथ्य को दबी हंसी के साथ स्वीकार किया।
इसके बाद तो उन्हें चुप कराना ही मुश्किल हो गया। मैं दबी हुई फुसफुसाहट में बोल रहा था,”हश़ . . . हश़ . . शोर मत करो, नहीं तो मेरा नेल जग जायेगा।”
“ज़ोर से बोलो, ज़ोर से बोल़ो” दर्शक चिल्लाये।
लेकिन मैं बहुत ही अनौपचारिक तरीके से उसी तरह से फुसफुसाहट के स्वर में ही बोलता रहा। मैं इतने अंतरंग तरीके से बोल रहा था कि दर्शक पैर पटकने लगे। चार्ल्स डिकेंस के चरित्रों को जीने के रूप में ये मेरे कैरियर का अंत था।
हालांकि हम किफायत से रहते थे लेकिन हम अष्टम लंकाशायर बाल गोपालों का जीवन ठीक-ठाक चल रहा था। कभी कभी हम लोगों में छोटी-मोटी असहमति भी हो जाती। मुझे याद है, हम दो युवा एक्रोबैट्स के साथ एक ही प्रस्तुति में काम कर रहे थे। प्रशिक्षु लड़के मेरी ही उम्र के रहे होंगे। उन्होंने हमें विश्वासपूर्वक बताया कि उनकी मांओं को तो सात शिलिंग और छ: पेंस हफ्ते के मिलते हैं और हर सोमवार की सुबह उन्हें नाश्ते की बैकन और अंडे की प्लेट के नीचे एक शिलिंग की पाकेट मनी भी रखी मिलती है। और हमें तो, हमारे ही एक साथी ने शिकायत की,”हमें तो सिर्फ दो ही पेंस मिलते हैं और ब्रेड जैम का नाश्ता मिलता है।”
जब मिस्टर जैक्सन के पुत्र जॉन ने ये सुना कि हम शिकायत कर रहे हैं तो वह रुआंसा हो गया और एकदम रो पड़ा। हमें बताने लगा कि हमें कई बार लंदन के उन उपनगरों में ऐसे भी सप्ताह गुज़ारने पड़ते हैं जब उसके पिता को पूरी मंडली के लिए मात्र सात पौंड ही मिल पाते हैं और वे किसी तरह गाड़ी खींचने में बहुत ही मुश्किल का सामना कर रहे हैं।
इन दोनों युवा एक्रोबैट्स की इस शानदार जीवन शैली का ही असर था कि हमने भी एक्रोबैट बनने की हसरतें पाल लीं। इसलिए कई बार सुबह के वक्त, जैसे ही थियेटर खुलता, हम में से एक या दो जन एक रस्सी के साथ कलाबाजियां खाने का अभ्यास करते। हम रस्सी को अपनी कमर से बांध लेते, जो एक पूली से जुड़ी होती, और हम में से एक लड़का रस्सी को थामे रहता। मैंने इस तरीके से अच्छी कलाबाजियां खाना सीख लिया था कि तभी मैं गिरा और अपने अंगूठे में मोच खा बैठा। इसी के साथ ही मेरे एक्रोबैट के कैरियर का अंत हुआ।
नृत्य के अलावा हमेशा हम लोगों की कोशिश होती कि अपने आइटम में नया कुछ जोड़ें। मैं एक कॉमेडी बाजीगर बनना चाहता था। और इसके लिए मैंने इतने पैसे बचा लिये थे कि मैंने उनसे रबर की चार गेंदें और टिन की चार प्लेटें खरीदीं। मैं अपने बिस्तर के पास खड़ा घंटों इनके साथ अभ्यास किया करता।
मिस्टर जैक्सन अनिवार्य रूप से एक बेहतरीन आदमी थे। मेरे ट्रुप छोड़ने से तीन महीने पहले उन्होंने मेरे पिता की सहायतार्थ एक आयोजन किया था और उसमें हम लोग शामिल हुए थे। मेरे पिता उन दिनों बहुत बीमार चल रहे थे। कई वैराइटी कलाकारों ने बिना कोई शुल्क लिये अपनी सेवाएं दीं। मिस्टर जैक्सन की अष्टम बाल गोपाल मंडली ने भी अपनी सेवाएं दीं। उस सहायतार्थ आयोजन में मेरे पिता स्टेज पर मौज़ूद थे और वे बहुत मुश्किल से सांस ले पा रहे थे। बहुत तकलीफ़ से वे अपना भाषण दे पाये थे। मैं स्टेज पर एक तरफ खड़ा उन्हें देख रहा था। उस वक्त मैं नहीं जानता था कि वे तिल-तिल मौत की तरफ बढ़ रहे थे।
जब हम लंदन में होते तो मैं हर सप्ताह मां से मिलने के लिए जाता। उसे लगता कि मैं पीला पड़ गया हूं और कमज़ोर हो गया हूं और कि नाचने से मेरे फेफड़ों पर असर हो रहा है। इस बात ने उसे इतना चिंतित कर दिया कि उसने इस बारे में मिस्टर जैक्सन को लिखा। मिस्टर जैक्सन इतने नाराज़ हुए कि आखिरकार उन्होंने मुझे घर का ही रास्ता दिखा दिया कि मैं चिंतातुर मां का लाडला इतनी बड़ी परेशानी के लायक नहीं हूं।
अलबत्ता, कुछ ही हफ्तों के बाद मुझे दमा हो गया। दमे के दौरे इतने तेज होते कि मां को पूरा यकीन हो गया कि मुझे टीबी हो गयी है और वह मुझे तुरंत ब्राम्पटन अस्पताल ले गयी। वहां मेरी अच्छी तरह से पूरी जांच की गयी। मेरे फेफड़ों में कोई भी खराबी नहीं थी, बस, मुझे अस्थमा हो गया था। महीनों तक मैं उसकी तकलीफ से गुज़रता रहा और मुझे सांस लेने में भी तकलीफ होती थी। कई बार तो खिड़की से बाहर कूद जाने की मेरी इच्छा होती। सिर पर कंबल डाले जड़ी-बूटियों की भाप लेने से भी मेरे सिर दर्द में कोई कमी न आती। लेकिन जैसा कि डॉक्टर ने कहा था, अंतत: मैं ठीक हो जाऊंगा, मैं ठीक हो ही गया।
इस दौरान की मेरी स्मृतियां स्पष्ट और धूमिल होती रहती हैं। सबसे उल्लेखनीय छवि तो हमारी दयनीय हालात का निचाट कछार है। मुझे याद नहीं पड़ता कि उन दिनों सिडनी कहां था। चूंकि वह मुझसे चार बरस बड़ा था, वह कभी-कभार ही मेरे चेतन में आता। ऐसा हो सकता है कि मां की तंग हालत के कारण वह नाना के पास रह रहा हो। हम अपना डोरा-डंडा उठाये एक गरीबखाने से दूसरे गरीबखाने की ओर कूच करते रहते। और अंतत: 3 पाउनाल टैरेस की दुछत्ती पर आ बसे थे।
मुझे अपनी गरीबी के सामाजिक कलंक का अच्छी तरह से भान था। गरीब से गरीब बच्चे भी रविवार की शाम को घर के बने डिनर का लुत्फ ले ही लिया करते थे। घर पर कोई भुनी हुई चीज़ का मतलब सम्मानजनक स्थिति हुआ करता था जो एक गरीब को दूसरे गरीब से अलग करती थी। वे लोग, जो रविवार की शाम घर पर डिनर के लिए नहीं बैठ पाते थे, उन्हें भिखमंगे वर्ग का माना जाता था और हम उसी वर्ग में आते थे। मां मुझे नज़दीकी कॉफी शॉप से छ: पेनी का डिनर (मीट और दो सब्जियां) लेने के लिए भेजती। और सबसे ज्यादा शर्म की बात ये होती कि ये रविवार की शाम होती। मैं उसके आगे हाथ जोड़ता कि वह घर पर ही कोई चीज़ क्यों नहीं बना लेती और वह बेकार में ही यह समझाने की कोशिश करती कि घर पर ये ही चीज़ें बनाने में दुगुनी लागत आयेगी।
अलबत्ता, एक सौभाग्यशाली शुक्रवार को, जब उसने घुड़दौड़ में पांच शिलिंग जीते थे, मुझे खुश करने की नीयत से मां ने तय किया कि वह रविवार के दिन डिनर घर पर ही बनायेगी। दूसरी स्वादिष्ट चीज़ों के अलावा वह भूनने वाला मांस भी लायी जिसके बारे में वह तय नहीं कर पा रही थी कि ये गाय का मांस है या गुर्दे की चर्बी का लोंदा है। ये लगभग पांच पौंड का था और उस पर चिप्पी लगी हुई थी,”भूनने के लिए।”
हमारे पास क्योंकि ओवन नहीं था, इसलिए मां ने उसे भूनने के लिए मकान-मालकिन का ओवन इस्तेमाल किया और बार-बार उसकी रसोई के भीतर आने-जाने की जहमत से बचने के लिए अंदाज से उस मांस के लोंदे को भूनने के लिए ओवन का टाइम सेट कर दिया और उसके बाद ही वह रसोईघर में गयी। और हमारी बदकिस्मती से हुआ ये कि हमारा ये मांस का पिंड क्रिकेट की गेंद के आकार का ही रह गया था। इसके बावजूद, मां के इस दृढ़ निश्चय के बावजूद कि हमारा खाना बाहर के छ: पेंस के खाने से कम तकलीफदेह और ज्यादा स्वादिष्ट होता है, मैंने उस भोजन का भरपूर आनंद लिया और यह महसूस किया कि हम भी किसी से कम नहीं।
हमारे जीवन में अचानक एक परिवर्तन आया। मां अपनी एक पुरानी सहेली से मिली जो बहुत समृद्ध पहुंचेली चीज़ बन गयी थी, खूबसूरत हो गयी थी और चलती-पुरजी टाइप की महिला बन गयी थी। उसने एक अमीर बूढ़े कर्नल की मिस्ट्रैस बनने के लिए स्टेज को अलविदा कह दी थी।
वह स्टॉकवेल के फैशनपरस्त जिले में रहा करती थी और मां से फिर से मिलने के अपने उत्साह में उसने हमें आमंत्रित किया कि गर्मियों में हम उसके यहां आ कर रहें। चूंकि सिडनी गांवों की तरफ मस्ती मारने के लिए गया हुआ था इसलिए मां को मनाने में ज़रा भी तकलीफ नहीं हुई और उसने अपनी सुई और कसीदेकारी के हुनर से अपने-आपको काफी ढंग का बना लिया था और मैंने अपना संडे सूट पहन लिया। यह अष्टम बाल मंडली का अवशेष था और इस मौके के हिसाब से ठीक-ठाक लग रहा था।
और इस तरह रातों-रात हम लैंसडाउन स्क्वायर में कोने वाले एक बहुत ही शांत मकान में पहुंचा दिये गये। ये घर नौकरों-चाकरों से भरा हुआ था। वहां गुलाबी और नीले बैडरूम थे, छींट के परदे थे और सफेद भालू के बालों के नमदे थे। मुझे कितनी अच्छी तरह से याद हैं डाइनिंग रूम के साइड बोर्ड को सजाने वाले बड़े नीले हॉट हाउस ग्रेप्स की और मुझे यह बात कितनी लज्जा से भर देती जब मैं देखता कि वे रहस्यमय तरीके से गायब होते चले जा रहे हैं और हर दिन बीतने के साथ उनके ढांचे भर नज़र आने लगे थे।
घर के भीतर काम करने के लिए चार औरतें थीं। रसोईदारिन और तीन नौकरानियां। मां और मेरे अलावा वहां पर एक और मेहमान थे। बहुत तनावग्रस्त, एक सुदर्शन युवक जिनकी कुतरी हुई लाल मूंछें थीं। वे बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे और बहुत सज्जन थे। वे उस घर में स्थायी सामान की तरह थे लेकिन सफेद मूंछों वाले कर्नल महाशय के नज़र आने तक ही। उनके आते ही वह खूबसूरत नौजवान गायब हो जाता।
कर्नल महोदय का आना कभी-कभार ही होता। हफ्ते में दो-एक बार। जब वे वहां होते तो पूरे घर में एक रहस्य का आवरण तना रहता और उनकी मौजूदगी हर जगह महसूस की जाती। और मां मुझे बताती कि उनके सामने न पड़ा करूं और उन्हें नज़र न आऊं। एक दिन मैं ठीक उसी वक्त हॉल में जा पहुंचा जब वे सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे।
वे लम्बे, भव्य, राजसी ठाठ-बाठ वाले व्यक्ति थे और उन्होंने फ्रॉक कोट और टॉप हैट पहने हुए थे। उनका चेहरा गुलाबी था। लम्बी सफेद कलमें चेहरे पर दोनों तरफ काफी नीचे तक थीं और सिर गंजा था। वे मेरी तरफ देख कर शिष्टता से मुस्कुराये और अपने रास्ते चले गये।
मैं समझ नहीं पाया कि उनके आने के पीछे ये सब क्या हंगामा था और उनके आते ही क्यों अफरा-तफरी मच जाती थी लेकिन वे कभी भी बहुत अधिक अरसे तक नहीं रहे और कुतरी मूंछों वाला नौजवान जल्दी ही लौट आता और सब कुछ पहले की तरह सामान्य ढंग से चलने लगता।
मैं कुतरी हुई मूंछों वाले नौजवान का मुरीद हो गया। हम दोनों क्लाफाम कॉमन तक लम्बी सैर पर जाते और हमारे साथ मालकिन के दो खूबसूरत ग्रेहाउंड कुत्ते होते। उन दिनों क्लाफाम कॉमन का माहौल बेहद खूबसूरत हुआ करता था। यहां तक कि कैमिस्ट की दुकान भी, जहां हम अक्सर खरीदारी किया करते थे, फूलों के अर्क की गंध, इत्रों और साबुनों और पाउडरों के साथ भव्य लगा करती थी। मेरे अस्थमा के इलाज के लिए उन्होंने मां को बताया था कि रोज़ सवेरे वह मुझे ठंडे पानी से नहलाया करे और शायद इससे फायदा भी हुआ। ये स्नान बहुत ही स्वास्थ्यकर थे और मैं उन्हें पसंद करता हुआ बड़ा हुआ।
यह एक उल्लेखनीय बात है कि हम किस सफाई से अपने आपको सामाजिक मान मर्यादाओं के अनुसार ढाल लेते हैं। आदमी उपलब्ध सृष्टि की भौतिक सुविधाओं के साथ कितनी अच्छी तरह से एकाकार और आदी हो जाता है। एक सप्ताह के भीतर ही मेरे लिए सब कुछ सहज स्वीकार्य हो चला था। बेहतर होने का बोध – सुबह सवेरे की औपचारिकताएं, कुत्तों को एक्सरसाइज कराना, उनके नये चमड़े के पट्टे लिये जाना, फिर खूबसूरत घर में वापिस लौटना, जहां चारों तरफ नौकर-चाकर हों, शानदार तरीके से चांदी के बरतनों में परोसे जाने वाले लंच की प्रतीक्षा करना।
हमारे घर का पिछवाड़ा एक दूसरे घर के पिछवाड़े से सटा हुआ था और उस घर में भी उतने ही नौकर थे जितने हमारे घर पर थे। उस घर में तीन लोग रहा करते थे, एक युवा दम्पत्ति और उनका एक लड़का जो लगभग मेरी ही उम्र का था। उसके पास एक बालघर था जिसमें बहुत खूबसूरत खिलौने भरे हुए थे। मुझे अक्सर उसके साथ खेलने के लिए बुलवा लिया जाता और रात के खाने के लिए रोक लिया जाता। हम दोनों आपस में बहुत अच्छे दोस्त बन गये थे। उसके पिता सिटी बैंक में किसी बहुत अच्छे पद पर काम करते थे और उसकी मां युवा और बेहद खूबसूरत थी।
एक दिन मैंने अपनी तरफ वाली नौकरानी को लड़के की नौकरानी से गुपचुप बात करते हुए सुन लिया कि उन्हें लड़के के लिए एक गवर्नेस की ज़रूरत है।
“और इसे भी उसी की ज़रूरत है।” हमारी वाली नौकरानी ने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा। मैं इस बात से बेहद रोमांचित हो गया कि मेरी भी अमीर लड़कों की तरह देखभाल की जायेगी लेकिन मैं इस बात को कभी भी समझ नहीं पाया कि क्यों उसने मेरा दर्जा इतना ऊपर उठा दिया था। हां, तब की बात अलग है कि वह जिन लोगों के लिए काम करती थी या जिनके पड़ोस में वे लोग रहते थे उनका कद ऊपर उठा कर वह खुद ही अपना दर्जा ऊपर उठाना चाहती हो। आखिर, मैं जब भी पड़ोस के उस छोकरे के साथ खाना खाता था, मुझे कमोबेश यही लगता कि मैं बिन बुलाया मेहमान ही तो हूं।
जिस दिन हम उस खूबसूरत घर से अपने 3 पाउनाल के घर लौटने के लिए वापिस चले, वह उदासी भरा दिन था, फिर भी एक तरह की राहत भी थी कि हम अपनी आज़ादी में वापिस लौट रहे हैं। मेहमानों के तौर पर वहां रहते हुए आखिर हमें कुछ तनाव तो होता ही था। और जैसा कि मां कहा करती थी, हम केक की तरह थे। अगर उसे बहुत देर तक रखा जाये तो वह बासी और अखाद्य हो जाता है। और इस तरह से उस संक्षिप्त और शानो शौकत से भरे वक्त के रेशमी तार हमसे छिन गये और हम एक बार फिर अपने जाने पहचाने फटेहाल तौर-तरीकों में लौट आये।
सिडनी अब चौदह बरस का हो चला था। उसने स्कूल छोड़ दिया था और उसे स्ट्रैंड डाक घर में तार वाले के रूप में काम मिल गया था। सिडनी की पगार और मां की सिलाई मशीन की वज़ह से होने वाली कमाई से हमारा घर किसी तरह ठीक-ठाक चल रहा था लेकिन इसमें मां का योगदान मामूली ही था। वह मज़दूरों का खून चूसने वाली किसी दुकान के लिए काम करती थी और उसे वहां पर ब्लाउज सीने के एवज में एक दर्जन ब्लाउज के लिए एक शिलिंग और छ: पेंस मिलते थे। हालांकि उसे डिजाइन पहले से ही कट कर मिला करते थे, फिर भी एक दर्जन ब्लाउज सीने में उसे पूरे बारह घंटे लग जाया करते थे। मां का रिकार्ड था एक हफ्ते में चौदह दर्जन ब्लाउज सी कर देने का। इससे उसे छ: शिलिंग और नौ पेंस की कमाई हुई थी।
अक्सर रात को मैं अपनी दुछत्ती में लेटा जागता रहता और उसे अपनी मशीन पर झुके काम करते देखा करता। उसका सिर तेल की कुप्पी की रौशनी में झुका रहता और उसका चेहरा नरम छाया में नज़र आता। उसके होंठ तनाव के कारण थोड़े से खुले होते और वह अपनी मशीन पर तेज़ी से सिलाई का काम करती रहती। और उसके इस काम की उबा देने वाली भिन-भिन की आवाज़ की वजह से मुझे झपकी आ जाती। वह जब भी रात-बेरात इस तरह से देर तक काम करती थी तो उसके सामने एक ही मकसद होता – पैसों की अगली किसी न किसी किस्त की मीयाद सिर पर होती। हमेशा किस्तों की अदायगी की समस्या सिर पर खड़ी होती।
अब एक और संकट सिर पर आ खड़ा हुआ था। सिडनी को कपड़ों के नये जोड़े की ज़रूरत थी। वह अपनी टेलिग्राफ वाली यूनिफार्म हफ्ते के सभी दिन, यहां तक कि रविवारों को भी डाटे रहता था और आखिर एक ऐसा दिन भी आया कि उसके यार दोस्त उसे इस यूनिफार्म को लेकर छेड़ने लगे। इस वज़ह से वह दो हफ्ते तक, उस वक्त तक घर पर ही रहा जब तक मां के पास उसके लिए नीले सर्ज का सूट खरीदने लायक पैसे नहीं हो गये। उसने किसी तरह से अट्ठारह शिलिंग का बंदोबस्त कर ही लिया था। इससे हमारी अर्थव्यवस्था में भारी दिवालियेपन की हालत आ गयी थी। इसलिए मां को मज़बूरन हर सोमवार को, जब सिडनी टेलिग्राफ आफिस चला जाता था, सूट गिरवी रखना पड़ता था। उसे सूट के लिए सात शिलिंग मिलते थे। और हर शनिवार को सूट छुड़वा लिया जाता ताकि सिडनी उसे हफ्ते की छुट्टियों के दौरान पहन सके। यह साप्ताहिक व्यवस्था पूरे साल तब तक चलती रही जब तक सूट फट कर तार-तार नहीं हो गया। तभी ये झटका लगा।
सोमवार की सुबह मां हमेशा की तरह गिरवी वाली दुकान पर गयी तो दुकानदार हिचकिचाया,”माफ करना, मिसेज चैप्लिन, लेकिन अब हम आपको सात शिलिंग उधार नहीं दे सकते।”
मां हैरान रह गयी थी,”लेकिन क्यों?” उसने पूछा था।
“अब इसमें अच्छा-खासा जोखिम है। पैंट तार-तार हो रही है। देखो तो ज़रा,” दुकानदार पैंट की सीट पर हाथ रखते हुए बोला,”आप उसके आर-पार देख सकती हैं।”
“लेकिन इन कपड़ों को अगले हफ्ते छुड़वा लिया जायेगा।” मां ने कहा था।
गिरवी वाले ने सिर हिलाते हुए कहा,”बहुत हुआ तो मैं आपको कोट और वेस्टकोट के लिए तीन शिलिंग दे सकता हूं।”
मां कभी भी रोती नहीं थी लेकिन इस तरह के अचानक आये धक्के को सह न पाने के कारण वह आंसू बहाती घर वापिस आयी। पूरा हफ्ता घर की गाड़ी खींचने के लिए उसे इन सात शिलिंग का ही सहारा था।
इस बीच मेरे खुद के कपड़े, कम से कम कहूं तो चीथड़े हो रहे थे। हम अष्टम लंकाशायर बाल गोपालों की जो पोशाक थी, उसकी वाली मेरी पोशाक अब तार-तार हो चली थी। जहां-तहां थिगलियां लगी हुई थीं। कुहनी पर, पैंट पर, जूतों पर और मोजों पर। और अपनी इसी हालत में मैं स्टॉकवैल के अपने खास नन्हें दोस्त से जा टकराया। मुझे नहीं पता था कि वह केनिंगटन रोड पर क्या कर रहा था, लेकिन उसे देख कर मैं बहुत परेशानी में पड़ गया था। हालांकि वह मुझसे बहुत प्यार से मिला लेकिन मैं अपनी खस्ता हालत के कारण उससे आंखें भी नहीं मिला पर पा रहा था। अपनी परेशानी को छुपाने के लिए मैंने अपना आजमाया हुआ तरीका अपनाया और अपनी बेहतरीन, सधी हुई आवाज़ में उसे बताया कि चूंकि मैं बढ़ईगिरी की अपनी कक्षा से आ रहा हूं इसलिए मैं ये सब पुराने कपड़े पहने हुए हूं।
लेकिन उसे मेरी इस सफाई में ज़रा-सी भी दिलचस्पी नहीं थी। वह जैसे आसमान से गिरा लग रहा था और अपनी हैरानी-परेशानी को छुपाने के लिए दायें बायें देखने लगा। उसने तब मां के बारे में पूछा।
मैंने तत्काल जवाब दिया कि मां तो आजकल गांव गयी हुई है और तब मैंने उसी की तरफ ध्यान देना शुरू किया,”और सुनाओ, आजकल वहीं रह रहे हो क्या?”
“हां।” उसने मुझे ऊपर से नीचे तक इस तरह से घूरते हुए देखा मानो मैंने कोई अपराध कर दिया हो।
“अच्छा, तो मैं ज़रा चलूंगा,” मैंने अचानक कह कर अपनी जान छुड़ायी।
वह सहर्ष मुस्कुराया और अच्छा विदा कह कर चला गया। वह एक तरफ चला और मैं उसकी विपरीत दिशा में बढ़ा। मैं गुस्से और शर्म के कारण गिरते पड़ते भागा जा रहा था।
मां हमेशा कहा करती थी,”तुम हमेशा अपनी मर्यादा का त्याग कर सकते हो, लेकिन हो सकता है तुम्हें कुछ भी न मिले।” लेकिन वह खुद ही इस सूत्र वाक्य का पालन नहीं करती थी और अक्सर मेरी शिष्टता के बोध को ठेस लगती थी। एक दिन जब मैं ब्राम्पटन अस्पताल से लौट रहा था तो मैंने देखा कि मां कुछ सड़क छाप लड़कों को धकिया रही थी क्योंकि वे एक पागल औरत को सता रहे थे। उस औरत ने बुरी तरह से गंदे चीथड़े लपेटे हुए थे और खुद भी गंदी थी। उसका सिर मुंडा हुआ था और ये उन दिनों असामान्य बात समझी जाती थी। लड़के उस पर हँस रहे थे और एक दूसरे को उस पर धकिया रहे थे। और उसे छू नहीं रहे थे मानो उसे छू लेने से उन्हें गंदगी लग जायेगी। वह दुखियारी तब तक हिरणी की तरह सड़क के बीचों-बीच खड़ी रही जब तक जा कर मां ने उसे उन दुष्ट लड़कों से छुड़वा नहीं लिया। तब उस औरत के चेहरे पर पहचान के चिह्न उभरे। उस औरत ने कमज़ोर आवाज़ में मां को उसके स्टेज के नाम से पुकारा,”तुम मुझे नहीं पहचानती क्या? मैं इवा लेस्टॉक हूं।”
मां ने उसे तुरंत पहचान लिया। वह मां के साथ की वैराइटी स्टेज की पुरानी दोस्त थी।
मां की इस बात से मैं इतना परेशान हो गया कि आगे बढ़ गया और आगे कोने पर जा कर मां का इंतज़ार करने लगा। बच्चे मेरे पास से गुज़र गये। वे फब्तियां कस रहे थे और खी खी करके हँस रहे थे। मैं गुस्से से लाल पीला हो रहा था। मैं ये देखने के लिए मुड़ा कि मां को क्या हो गया है। हे भगवान, वह औरत मां के साथ लग ली थी और अब दोनों मेरी तरफ चली आ रही थीं।
मां ने कहा,”तुम्हें नन्हें चार्ली की याद है?”
“तुम याद की बात करती हो, जब वो ज़रा-सा था तो मैंने कितनी बार उसे अपनी बांहों में उठाया है।” उस औरत से लाड़ से कहा।
ये विचार ही लिजलिजे थे क्योंकि वह औरत इतनी गंदी और घिनौनी थी। और जब हम चले आ रहे थे तो मुझे इस बात से खासी कोफ्त हो रही थी कि लोग मुड़-मुड़ कर हम तीनों को देख रहे थे।
मां उसे वैराइटी के दिनों से ‘डैशिंग इवा लैस्टाक’ के नाम से जानती थी। वह उन दिनों आकर्षक और सदाबहार हुआ करती थी, मां ने मुझे ऐसा बताया था। उस औरत ने मां को बताया कि वह बीमार थी और अस्पताल में थी और अस्पताल छोड़ने के बाद से वह मेहराबों के तले और सैल्वेशन आर्मी के रैन बसेरों में ही सो रही थी।
सबसे पहले तो मां ने उसे स्नान के लिए सार्वजनिक स्नानघर में भेजा और उसके बाद, मेरे आतंक की सीमा न रही जब मां उसे अपने साथ हमारी दुछत्ती पर ले आयी। उसकी इस हालत के पीछे उसकी बीमारी ही थी या कोई और कारण, मैं नहीं जान पाया। इससे वाहियात बात और क्या हो सकती थी कि वह सिडनी की आराम कुर्सी वाले बिस्तर में सोयी थी। अलबत्ता, मां ने उसे वे कपड़े निकाल कर दिये जो वह दे सकती थी और उसे दो शिलिंग भी उधार दिये। तीन दिन बाद वह चली गयी और वही आखिरी बार थी जब हमने ‘डैशिंग इवा लैस्टाक’ के बारे में देखा या सुना था।
पिता के मरने से पहले मां ने पाउनाल टैरेस वाला घर छोड़ दिया था और अपनी एक सखी, गिरजा घर की सदस्या और समर्पित ईसाई महिला मिसेज टेलर के घर में एक कमरा किराये पर ले लिया था। वे एक छोटे कद की, लगभग पचास बरस की चौड़े बदन की महिला थीं। उनका जबड़ा चौकोर था और पीला झुर्रियोंदार चेहरा था। उन्हें गिरजा घर में देखते समय मैंने पाया था कि उनके दांत नकली थे। जब वे गातीं तो उनके दांत उनके ऊपरी जबड़े से जीभ पर गिर जाते। बहुत ही मोहक नज़ारा होता।
उनका व्यवहार प्रभावशाली था और उनके पास अकूत ताकत थी। उन्होंने मां को अपनी ईसाइयत की छत्र-छाया में ले लिया था और अपने बड़े से घर की दूसरी मंज़िल पर सामने की तरफ वाला कमरा बहुत ही वाजिब किराये पर दे दिया था। ये घर कब्रिस्तान के पास था।
उनके पति चार्ल्स डिकेंस के मिस्टर पिकविक की हूबहू प्रतिकृति थे और उनके घर की सबसे ऊपर वाली मंज़िल पर गणित में काम आने वाले रूलर बनाने का अपना कारखाना था। छत पर आसमानी रौशनी आती और मुझे वह जगह बिलकुल स्वर्गतुल्य लगती। वहां बहुत अधिक शांति होती। मैं अक्सर मिस्टर टेलर को काम करते हुए देखता जब वे अपने मोटे-मोटे कांच वाले चश्मे से और मैग्नीफाइंग ग्लास से गहराई से देख रहे होते और स्टील का कोई स्केल बना रहे होते और इंच के भी पांचवें हिस्से को नाप रहे होते। वे अकेले काम करते और मैं अक्सर उनके छोटे-मोटे काम कर दिया करता।
मिसेज टेलर की एक ही इच्छा थी कि वे किसी तरह अपने पति को ईसाई धर्म की ओर मोड़ दें। उनकी धार्मिक नैतिकता के हिसाब से तो उनके पति पापी ही थे। उनकी बेटी जो शक्ल-सूरत में ठीक अपनी मां पर गयी थी, सिर्फ उसका चेहरा कम सूजा हुआ था और हां, वह काफी जवान भी थी, आकर्षक होती अगर उसका व्यवहार ढीठपने का न होता और उसके तौर-तरीके आपत्तिजनक न होते। अपने पिता की तरह वह भी चर्च नहीं जाती थी। लेकिन मिसेज टेलर ने उन दोनों को धर्म की शरण में लाने की उम्मीद कभी भी नहीं छोड़ी। बेटी अपनी मां की आंखों का तारा थी लेकिन मेरी मां की आंखों का नहीं।
एक दोपहरी को, जब मैं ऊपर वाली मंज़िल पर मिस्टर टेलर को काम करते हुए देख रहा था, मैंने नीचे से मां और मिसेज टेलर के बीच कहा-सुनी की आवाज़ सुनी। मिसेज टेलर बाहर थीं। मुझे नहीं पता कि ये सब कैसे शुरू हुआ लेकिन वे दोनों एक दूसरे पर ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रही थीं। जब मैं नीचे सीढ़ियों पर पहुंचा तो मां सीढ़ियों के जंगले पर झुकी हुई थी,”तुम अपने आपको समझती क्या हो? औरत जात की लेंड़ी?”
“ओह,” बेटी चिल्लायी,”एक ईसाई औरत की जुबान से कितने शानदार फूल झर रहे हैं?”
“चिंता मत करो,” मां ने तुरंत जवाब दिया,”ये सब बाइबिल में है। ओल्ड टेस्टामेंट का पांचवां खंड, अट्ठाइसवां अध्याय, सैंतीसवां पद, हां, वहां इसके लिए एक दूसरा शब्द दिया हुआ है। बस, तुम्हें लेंड़ी शब्द ही सूट करेगा।”
इसके बाद हम अपने पाउनाल टैरेस में वापिस चले आये।
चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा का ये अनुवाद सूरज प्रकाश ने किया है। इसे राजकमल प्रकाशन से, बंबई में परिदृश्य प्रकाशन से या अमेजन से खरीदा जा सकता है
सूरज प्रकाश
(जन्म १४ मार्च, १९५२; देहरादून) हिन्दी और गुजराती के लेखक और कथाकार हैं।
सूरज प्रकाश का जन्म उत्तराखण्ड (तब के उत्तर प्रदेश) के देहरादून में हुआ था। सूरज प्रकाश ने मेरठ विश्वविद्यलय से बी॰ए॰ की डिग्री प्राप्त की और बाद में उस्मानिया विश्वविद्यालय से एम ए किया। तुकबंदी बेशक तेरह बरस की उम्र से ही शुरू कर दी थी लेकिन पहली कहानी लिखने के लिए उन्हें पैंतीस बरस की उम्र तक इंतजार करना पड़ा। उन्होंने शुरू में कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं और फिर 1981 में भारतीय रिज़र्व बैंक की सेवा में बंबई आ गए और वहीं से 2012 में महाप्रबंधक के पद से रिटायर हुए। सूरज प्रकाश कहानीकार, उपन्यासकार और सजग अनुवादक के रूप में जाने जाते हैं। 1989 में वे नौकरी में सज़ा के रूप में अहमदाबाद भेजे गये थे लेकिन उन्होंने इस सज़ा को भी अपने पक्ष में मोड़ लिया। तब उन्होंने लिखना शुरू ही किया था और उनकी कुल जमा तीन ही कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं। अहमदाबाद में बिताए 75 महीनों में उन्होंने अपने व्यक्तित्व और लेखन को संवारा और कहानी लेखन में अपनी जगह बनानी शुरू की। खूब पढ़ा और खूब यात्राएं कीं। एक चुनौती के रूप में गुजराती सीखी और पंजाबी भाषी होते हुए भी गुजराती से कई किताबों के अनुवाद किए। इनमें व्यंग्य लेखक विनोद भट्ट की कुछ पुस्तकों, हसमुख बराड़ी के नाटक ’राई नो दर्पण’ राय और दिनकर जोशी के बेहद प्रसिद्ध उपन्यास ’प्रकाशनो पडछायो’ के अनुवाद शामिल हैं। वहीं रहते हुए जॉर्ज आर्वेल के उपन्यास ’एनिमल फॉर्म’ का अनुवाद किया। गुजरात हिंदी साहित्य अकादमी का पहला सम्मान 1993 में सूरज प्रकाश को मिला था। वे इन दिनों मुंबई में रहते हैं। सूरज प्रकाश जी हिंदी, पंजाबी, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी भाषाएं जानते हैं। उनके परिवार में उनकी पत्नी मधु अरोड़ा और दो बेटे अभिजित और अभिज्ञान हैं। मधु जी समर्थ लेखिका हैं।
प्रकाशित पुस्तकें
उपन्यास
हादसों के बीच (1998),
देस बिराना (2000),
नॉट इक्वल टू लव (हिंदी का पहला चैट उपन्यास) 2017,
ख्वाबगाह 2019
कहानी-संग्रह
अधूरी तस्वीर (1992)
छूटे हुए घर (2002)
खो जाते हैं घर (2012)
मर्द नहीं रोते (2012)
छोटे नवाब बड़े नवाब (2013)
संकलित कहानियां (2015),
लहरों की बांरीस
इनके अलावा इनकी शोध आधारित किताब लेखकों की दुनिया उल्लेखनीय है। सूरज प्रकाश की जीवनी उम्र भर देखा किये का लेखन विजय अरोड़ा ने किया है। थ
व्यंग्य-संग्रह
ज़रा संभल के चलो (1999)
दाढ़ी में तिनका (2011)
अंग्रेजी से अनुवाद
ऐन फ्रेंक की डायरी (2002)
मिलेना (2004)
चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा (2006)
चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (2007)
एनिमल फार्म (2013)
क्रानिकल ऑफ ए डैथ फोरटोल्ड
गुजराती से अनुवाद
भूल चूक लेनी देनी (विनोद भट्ट के व्यंग्य)(1991)
चेखव और बर्नार्ड शॉ (विनोद भट्ट के व्यंग्य) (1993)
हसमुख बराड़ी का नाटक राई नो दर्पण राय (1994)
प्रकाशनो पडछायो (महात्मा गांधी के बेटे हरिलाल के जीवन पर दिनकर जोशी का उपन्यास) (1998)
दिवा स्वप्न (गीजू भाई बधेका की पुस्तक) (1996)
मां बाप से (गीजू भाई बधेका की पुस्तक (1997)
(गीजू भाई बधेका की दो सौ किशोर कहानियां (1998)
महात्मा गांधी की आत्मकथा (2012)
संपादन [संपादित करें]
बंबई एक (बंबई पर आधारित कहानियां) (1999)
कथा दशक (कथा यूके से सम्मानित लेखकों की कहानियां)
कथा लंदन (लंदन में लिखी जा रही कहानियां)
इसके अलावा बैंकिंग साहित्य से संबंधित 6 पुस्तकों का संपादन
देस बिराना
देस बिराना सूरज प्रकाश का महत्वपूर्ण उपन्यास है। यह एक ऐसे अकेले लड़के की कहानी है जो बचपन के एक छोटे से हादसे के कारण घर छोड़ देता है और आजीवन अपनी शर्तों पर अपनी तरह के घर की तलाश करता रहता है। उसका अपना घर ही अपना नहीं रहता और वह घर नाम की जगह की चाहत में बंबई और लंदन में भटकता रहता है। जो घर उसे मिलता है वह उस तरह का घर नहीं होता जो उसकी चाहत है। वह सोचता है कि जिदंगी भी हमारे साथ कैसे कैसे खेल खेलती है। हम बंद दरवाजों के बाहर खड़े होते हैं और भीतर खबर नहीं होती और कहीं और किन्हीं बंद दरवाजों के पीछे कोई हमारी राह देख रहा होता है और हमें ही खबर नहीं होती। 2000 में लिखे गये इस उपन्यास को बंबई की दृष्टिहीन व्यक्तियों के लिए काम करने वाली बंबई की संस्था नेशनल एसोसिएशन फॉर ब्लाइंड ने देश भर में फैले अपने सदस्यों के लिए ऑडियो उपन्यास के रूप मे रिकार्ड करवाया था। ये उपन्यास सूरज प्रकाश की वेबसाइट www.surajprakash.com पर ऑडियो रूप में भी उपलब्ध है।
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