भगवान दास मोरवाल हिंदी कहानी के नौवे दशक के समादृत कथाकार हैं। देश की राजधानी से सटे मेवात का प्रतिनिधित्त्व करने वाले मोरवाल के अभी तक ग्यारह उपन्यास जिनमें काला पहाड़, रेत, नरक मसीहा, सुर बंजारन, ख़ानज़ादा, मोक्षवन और कांस प्रमुख हैं। मोरवाल कई शीर्षस्थ पुरस्कारों से सम्मानित हैं। यहां हम मोरवाल का एक संस्मरण – अंश प्रस्तुत कर रहे हैं जो उनकी स्मृति कथा से लिया गया है। – हरि भटनागर

संस्मरण:

मेवात के इतिहास संबंधी, अपनी स्मृतियों, लोकानुभव, लोक साहित्य और मौखिक परंपरा के जितने भी पक्ष और संभावित तत्त्व अपने इस पहले उपन्यास के लिए मुझे ज़रूरी लगे, उनका मैंने सबसे पहले संचयन किया l मेवाती दोहों, लोकोक्तियों और मुहावरों को एकत्रित करने का एक तरीक़ा मैंने यह अपनाया कि जहाँ कुछ लोग इकट्ठे होकर बातचीत करते, मैं उनमें शामिल हो जाता और उनकी बातों को ध्यान से सुनता l इस दौरान अपनी बातचीत में वे जो मुहावरे, लोकोक्तियाँ और दोहे इस्तेमाल करते, बाद में मैं एक-एक कर अपने साथ लाई छोटी-सी डायरी या कभी-कभी साथ लाए काग़ज़ पर लिख लेता l उन दिनों मेरी जेब में पेन/पेंसिल और काग़ज़ हमेशा रहता था l
अस्सी मॉडल उर्फ़ सूबेदार के प्रकाशन के बाद पहले मद्रास के राजाजी पुरस्कार, और फिर सालभर के अन्दर हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा इसी संग्रह को मिले साहित्यिक कृति पुरस्कार का समाचार, नवभारत टाइम्स के हरियाणा संस्करण में प्रकाशित होने का लाभ यह हुआ कि गाँव के साथ-साथ मेरे मेवात के लोग भी मुझे जानने लगे l इसी दौरान मैं एक बार अपने गाँव के मास्टर सिताब खाँ की कचेड़ी (बैठक) के सामने से गुज़र रहा था कि वहाँ बैठे उनके बड़े बेटे असग़र ने मुझे बुला लिया l असग़र मुझसे स्कूल में वरिष्ठ था जबकि उसका छोटा भाई उस्मान खाँ मेरा सहपाठी था l इसी मोहल्ले के मुन्शी रहमत खाँ जो अपने समय के पढ़े-लिखे व्यक्ति थे और जिनके दो बेटों में से एक राजस्थान में जज के पद तक पहुँच गया था l जबकि मुन्शी जी का छोटा बेटा अलवर में वकालत करता था l इसी मुन्शी रहमत खाँ का बड़ा पोता मोहम्मद इक़बाल स्कूल में मेरा सहपाठी था और अपने क़स्बे की क्रिकेट क्लब एमसीसी अर्थात मेवात क्रिकेट क्लब से लेकर स्कूल की क्रिकेट टीम में हम दोनों साथ खेलते थे l इस बीच असग़र अपने पिता मास्टर सिताब खाँ की अलमारी से एक पतला-सा रजिस्टर निकालकर लाया l उसे मेरे सामने खोलते हुए वह बोला कि अब्बा ने मेवात के कुछ दोहे लिखे हैं l क्या ये छप सकते हैं ?
मैं समझ गया कि यह उन समाचारों का प्रभाव है जो गत दिनों नवभारत टाइम्स के हरियाणा संस्करण में छपे थे l मैंने उन दोहों को देखा तो पाया दरअस्ल मास्टर जी ने इस रजिस्टर में बहुत सारे मेवाती दोहों का संकलन किया हुआ था l लेकिन इनकी इतनी संख्या नहीं थी कि इन्हें पुस्तकाकार में प्रकाशित कराया जा सके l दूसरा, इतने होते भी तो उन्हें कौन प्रकाशित करता l मैंने प्रकाशन संबंधी जटिल प्रक्रिया के बारे में उसे स्पष्ट बता दिया था l मेरी बात असग़र के समझ में आ भी गई थी l बाद में मैंने उनमें से कुछ दोहे अलग से उतार लिए थे l इतना ही नहीं बल्कि मुझे जहाँ से भी मेवात के दोहे, लोक साहित्य या इतिहास संबंधी कोई जानकारी मिलती, मैं उसे संकलित कर लेता l इस तरह मेरे पास आज भी मेवाती साहित्य और इतिहास संबंधी अच्छा कलेक्शन है l अपने पहले उपन्यास की सामग्री के लिए मेवात में मैं जगह-जगह गया l उन दिनों राजस्थान के अलवर के जिलाधीश और आईएएस अरविंद मायाराम के निजी सहायक के पद पर तैनात अनिल जोशी मेवाती लोक साहित्य पर लगतार परिश्रमपूर्वक कार्य कर रहे थे l
मैं यह बात पूरी प्रमाणिकता के साथ ज़ोर देकर कह सकता हूँ कि मेवात संबंधी लोक साहित्य पर जितना कार्य अनिल जोशी ने किया, उतना मेवात के कथित और तथाकथित किसी भी बुद्धिजीवी ने नहीं किया l अलवर का कलात्मक ख़ज़ाना (1987), मेवात का इतिहास (1989) (यह पुस्तक अनिल जोशी के अनुसार मुरक़्क़ा-ए-मेवात का अनुवाद है l इस पुस्तक का मूल लेखक उन्होंने शर्फ़अल्लाउद्दीन अहमद बताया है l जबकि पाकिस्तान से मिली इस पुस्तक के बारे में जो प्रमाणिक दस्तावेज़ी जानकारी है, उसके अनुसार उर्दू में लिखी गई इस पुस्तक के लेखक का नाम है शर्फ़उद्दीन शर्फ़ l इनका संबंध मेवात में मेरे गाँव से मात्र दो किलोमीटर दूर छोटे-से गाँव साँठावाड़ी से था l पेशे से अध्यापक ये ख़ानज़ादा थे l इस ऐतिहासिक पुस्तक का प्रथम संस्करण 1935 में, जबकि दूसरा संस्करण 2002 में पाकिस्तान से हुआ है l), मेवाती बात-साहित्य दो भाग (1991), महाभारत पर आधारित पंडून कौ कड़ा (1992) और मेवाती काव्य (1996) तथा मेवात संबंधी इनकी कुछ प्रमुख पुस्तकें हैं l
इस तरह 1995 में मैंने दो रजिस्टर में अपना पहला उपन्यास काला पहाड़ लिखकर उसे अलमारी में यह सोचकर बन्द कर दिया कि पता नहीं उपन्यास जैसी कोई बात बनी है या नहीं l लेकिन लगभग छह महीने के बाद मैंने इसे फिर से निकाला और यह सोचकर इसका पुनर्लेखन शुरू कर दिया कि जब इसमें इतनी मेहनत की है तो क्यों न इस पर काम करूँ l इस उपन्यास को लिखने में मेरे मित्र और गुरुभाई फजरुद्दीन बेसर की भी बहुत बड़ी भूमिका थी l
पहले इस उपन्यास को अध्यायों में बाँटने का मेरा विचार था इसलिए कुछ अध्यायों के नाम रख भी लिए थे l जैसे पहले अध्याय का नाम रखा गया था – पहाड़ ऊपर : पहली ख़बर l दूसरे अध्याय का नाम भी रख लिया गया था – पहाड़ नीचे : दूसरी ख़बर l पहले, दूसरी ख़बर के बजाय अंतिम ख़बर रखा गया था l लेकिन बाद में न जाने क्यों अध्यायों का विचार त्याग दिया गया l हो सकता है कि मुझे लगा होगा कि उपन्यास की संरचना पारंपरिक अध्यायों में ही होनी चाहिए l हालाँकि उन दिनों खण्डों और अध्यायों में बाँटकर लिखे गए कुछ उपन्यास आ चुका थे l इनमें मुझे दो उपन्यासों की याद आती है l एक था 1993 में प्रकाशित सुरेन्द्र वर्मा का मुझे चाँद चाहिए और दूसरा था 1994 में प्रकाशित बदीउज़्ज़माँ का सभा पर्व l पता नहीं यह कितने पाठकों को मालूम है कि 2016 में प्रकाशित उपन्यास अकबर के लेखक शाज़ी ज़माँ के पिताश्री बदीउज़्ज़माँ साहब का यह उपन्यास सभा पर्व उनके देहान्त (16 मई, 1986) के आठ साल बाद प्रकाशित हुआ था l इस उपन्यास का संपादन शाज़ी ज़माँ ने ही किया था l 25 अक्टूबर, 1994 की शाज़ी ज़माँ द्वारा सभा पर्व पर लिखी गई भूमिका पढ़ने योग्य है l
शुरू में काला पहाड़ का अंत एक उपसंहार के साथ करने का विचार था जिसे आधे से ज़्यादा लिख भी लिया था और जिसका शीर्षक रखा-और अंत में l एक तरह से यह अरावली अर्थात काला पहाड़ द्वारा अपने पाठकों को संबोधन था l परन्तु बाद में इसका निर्णय बदल दिया गया l यह अधूरा उपसंहार क्या था, आप भी पढ़ें-
प्रिय पाठक, आपने मेरी दुर्गम घाटियों, मेरे जिस्म पर उगे ढाक के चौड़े-चिकने और उलझी टहनियों से होते हुए मेरे शिखर पर पहुँच कर, मेरी तलहटी में बिछे मेवात के गाँव-खेड़ों और क़स्बों के गैल-दगड़ों को तो देख लिया, लेकिन मुझे लगता है मेरे जिन पात्रों से आप रू-ब-रू हुए हैं उनका मुकम्मल तआरुफ़ आपसे अभी तक नहीं हुआ है l आपने सिर्फ़ उनके सुख-दुःख, हँसी-ख़ुशी, रीति-रिवाजऔर काज-करनी को ही छू कर देखा है l सलेमी, रोबड़ा, मनीराम, हरसाय, बाबू खाँ, रुमाली, हरदेई, रहमानी, रमजानो, रामप्यारी को एक-दूसरे के सुख-दुःख और हारी-बीमारी में शरीक होते हुए मनों को, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों मेरी इच्छा है कि मैं अपने उन पात्रों का आपसे तआरुफ़ कराऊँ जिनके बारे में अनेक संशय और शंकाएँ आपके भीतर करवटें ले रही होंगी l मसलन, आप सोच रहे होंगे कि इस समाज में सिर्फ़ हिन्दू और मेव दो ही समुदाय हैं ? उनकी वे उपशाखाएँ नहीं हैं जिनको सामने रखकर हमारा भारतीय समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित है ?
आप सही सोच रहे हैं l सच में ऐसा होता है जैसा आप सोच रहे हैं l इसलिए तो मैं आपसे इन वर्गों और उपशाखाओं की उन इकाइयों से परिचित करा देना चाहता हूँ जिनकी अँगुली पकड़े आप कभी मेरी देह के विशाल और छोटे-छोटे पाषाणों से ठोकर खाकर गिरते-गिरते बचे हैं, तो कभी एक ही साँस में उस ऊँचाई तक पहुँच गए हैं, जहाँ से नीचे झांकते ही अनेक विद्रूपताओं और अभिशप्तता की अतल गहराई को आपकी दृष्टि नहीं बेंध पाई है l
(इसके बाद इसे छोड़ दिया गया l पाठक चाहें तो इसे भी उपन्यास काला पहाड़ का अंत मान सकते हैं l)

मेरा मानना है कि हर लेखक को अपनी रचनाओं के पात्रों के बारे में ज़रूर बात करनी चाहिए l क्योंकि पाठक की हमेशा यह जिज्ञासा रहती है कि एक लेखक अपने जिन पात्रों को सिरजता है, उनकी वह कैसे कल्पना करता होगा l काला पहाड़ के पात्र और चरित्र मेरी पूर्व की कहानियाँ चाहे वे मेरे पहले संग्रह सिला हुआ आदमी के रहे हों या दूसरे संग्रह सूर्यास्त से पहले के l फिर चाहे वे अस्सी मॉडल उर्फ़ सूबेदार के हों या फिर कुछ वे कहानियाँ जैसे अँखियाँ थक गईं पथिक निहार, बोझिल होते शब्द, बन्द मुट्ठियों का दर्द, मोक्ष जो किसी संग्रह में नहीं हैं और वे तीन (दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन प्रथम बार 2014) की बात करूँ , तो सबके पात्र मेरे अपने परिवार, मोहल्ले, समाज और आसपास से लिए गए हैं l
अगर किसी रचनाकार के पात्रों की सही मायने में पड़ताल करनी हो, तो शोधार्थियों को उसकी प्रारंभिक रचनाओं को खंगालना चाहिए l इसी तरह अगर आपको मेरे उपन्यास काला पहाड़ और मेरी अन्य रचनाओं के पात्रों और वास्तविक जीवन के व्यक्तियों का प्रतिबिंब देखना है, तो मेरे एकदम शुरुआती लेखन अर्थात अपनी 20 साल की उम्र में लिखी गई तथाकथित कहानियों में देखना चाहिए l वास्तव में ये कहानियाँ नहीं हैं अपितु बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों (1980-2000) में कहानियों के नाम पर एक गाँव-गँवई, देहाती युवा-मन द्वारा उकेरी गईं वे इबारतें हैं, जिसे अपनी दिशाओं का ही नहीं पता था l इन कहानियों में आपको खुरदरे वर्तमान और अनिश्चित भविष्य के दुर्गम बीहड़ों से सिर टकराते एक अभावग्रस्त सर्वहारा युवक की चीख़ें सुनाई देंगी l
लगभग एक मुकम्मल और मज़बूत बुनियादवाले परिपक्व लेखक के रचनात्मक स्वभाव उसके अनुभव-क्षेत्र और वह कैसे अपनी रचनाओं के लिए गारा-माटी अपने मन-मस्तिक में जमा करता रहता है, इस प्रक्रिया को जानना-समझना है तो उसकी प्रारंभिक रचनाओं को देखा जाना चाहिए l एक लेखक की रचना-प्रक्रिया क्या होती है, उसे जानने और समझने के लिए उसकी उन डायरियों, रजिस्टर और दूसरे दस्तावेज़ों का अध्ययन करना चाहिए, जिनमें वह छोटी-छोटी और मामूली लगनेवाली बातों को दर्ज करता रहता है l
काला पहाड़ के कुछ पात्रों जैसे मंगतू, बनवारी, सलेमी, दादा सुग्गन, हरसाय, सुलेमान, छोटेलाल सुभान खाँ, मेमन, चौधरी करीम हुसैन और चौधरी मुर्शीद अहमद के बारे में मैं ज़रूर बताना चाहूँगा l इसके तीसरे अध्याय में दो प्रसंग है पतंगबाजी और नौटंकी का l इनमें एक पात्र है मंगतू l जो पतंग उड़ाने और नौटंकी-रामलीलाओं में नक्काड़ा-नक्काड़ी बजाने में माहिर है l दरअस्ल, मंगतू कोई और नहीं वे मेरे पिता हैं l पात्र का नाम भी मैंने असली दिया है l इसी तरह दादा सुग्गन कोई और नहीं मेरे अपने दादा हैं l बनवारी के रूप में आप मुझे देख सकते हैं क्योंकि दिल्ली में रहनेवाला बनवारी मैं ही हूँ l छोटेलाल मेरा चाचा हैं l मेमन वही आयशा है जो मेरे दूसरे उपन्यास बाबल तेरा देस में शकीला हो जाती है, परन्तु मेरी एक कहानी लेकिन में उसका असली नाम आयशा रहता है l वही आयशा जिसे मेरा एक पड़ोसी 1971-72 में हैदराबाद के गोलकुंडा क्षेत्र से लाया था l ऐसी ही स्त्रियों को, जो मेवात में बाहर से ब्याहकर लाई जाती हैं, मेवात में वे पारो कहा जाता है l चौधरी मुर्शीद अहमद व चौधरी करीम हुसैन के बारे में मैं पहले ही बता चुका हूँ l
एक आम पाठक के रूप में मेरी स्वयं की कई बार यह जानने की जिज्ञासा रहती है कि हिन्दी साहित्य के जो बड़े उपन्यास या कृतियाँ हैं, मैं उनकी उस मूल संरचना (प्रथम ड्राफ्ट) को देखूँ जिनसे छन और निथर कर वे अपना अंतिम रूप ग्रहण करते हैं l हिन्दी शोध में अभी यह प्रविधि नहीं पनपी है कि शोधार्थी रचना की उन शिराओं में उतरकर उसकी उस अतलता को छूकर, उसकी सतह पर उठते बुलबुलों के मानस को जानने का प्रयास करे, जिनसे लेखक उन्हें रचते समय गुज़रा होगा l मेरा यह मानना है अगर किसी कृति, विशेषकर बड़े उपन्यास को जानना-समझना है तो उसकी प्रारंभिक संरचना को समझना ज़रूरी है l उसके प्रारंभिक प्रारूपों, ख़ाकों और उन पर दर्ज आड़ी-तिरछी लेखकीय टिप्पणियों को खंगालना चाहिए l

इस तरह इक्यावन अध्यायों की पांडुलिपि जनवरी 1996 में तैयार हो गई l
अब समस्या यह थी कि इसके प्रकाशन के बारे में किससे बात की जाए l चूँकि मेरी पहचान एक कथाकार के बजाय एक लेखक के रूप में बड़ी चलताऊ-सी थी l एक ऐसे लेखक की जो कविता भी लिख रहा था, तो उसके साथ-साथ कहानी में भी अपना हाथ आज़मा रहा था l न वह पूरी तरह कथाकार था, न सलीक़े का कवि l बहुत-से लेखकों की तरह मैं भी इस ज़द्दोजहद से गुज़र रहा था कि लोग मुझे एक लेखक ही मान लें l तीसरे संग्रह अस्सी मॉडल उर्फ़ सूबेदार से थोड़ी उम्मीद बंधी मगर एक साधारण से क़स्बाई लेखक की l एक तो हरियाणा का ऊपर से उसके एक बेहद पिछड़े मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र मेवात का रहनेवाला l यह तो वह बात हो गई एक नीम चढ़ा, ऊपर से करेला l वैसे भी हरियाणा को हिन्दी साहित्य में कितना गंभीरता से लिया जाता है, आप सब जानते हैं l जिस तरह हिन्दी पट्टी में हरियाणा के लेखकों का उपहास उड़ाया जाता है, उससे कौन परिचित नहीं है l ऐसे में मेरे जैसा मेवात का लेखक भला किस खेत की मूली है l
उन दिनों मैं अपनी पांडुलिपि को लिए अक्सर दरियागंज की गलियों में लिए घूमता रहता था l एक दिन शाम को शायद उस दिन शनिवार था, अरविंद जैन जी के अंसारी रोड स्थित, सबसे ऊपर की मंज़िल यानि उनके कार्यालय में रामशरण जोशी जी, अरुण प्रकाश जी, मैं और ख़ुद जैन साहब बैठे थे l बातचीत के दौरान अचानक अरुण प्रकाश जी बोले,”यार मोरवाल, सुना है तूने कोई उपन्यास लिखा है ?”
चूँकि इसकी जानकारी केवल जैन साहब को थी इसलिए मैं समझ गया कि किसी दिन बातों-बातों में उन्होंने अरुण प्रकाश जी को इसके बारे में बता दिया होगा l मैं संकोचवश बोला,”जी भाईसाब l”
“तो यार किसी दिन उसका कोई अंश सुना !”
अरुण प्रकाश के इस प्रस्ताव पर जोशी जी भी बोले,”हाँ यार सुनाओ किसी दिन l”
उस दिन संयोग से पांडुलिपि मेरे साथ थी l मैं बोला,”पांडुलिपि तो मेरे पास इस समय भी है l”
“तो फिर देर किस बात की l” अरुण प्रकाश ने एक तरह से हुमकते हुए कहा l
मैंने धीरे-से पोलिथीन के बड़े से लिफ़ाफ़े से पांडुलिपि निकाली, तो जोशी जी और अरुण प्रकाश जी उसे हैरानी के साथ ऐसे देखने लगे जैसे मन-ही-मन कह रहे हों कि इतनी मोटी पांडुलिपि ?
देर तक मैं पांडुलिपि के पन्ने पलटता रहा l मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें कौन-सा अंश सुनाऊँ l मेरी इस दुविधा का कारण यह था कि पता नहीं उन्हें मेवाती के संवाद समझ में आएँगे भी या नहीं l चूँकि मैं पांडुलिपि निकालकर उसके पन्ने पलट रहा था, तो इतना तय था कि इसमें से कुछ-न-कुछ तो सुनना पड़ेगा ही l हिम्मत कर मैंने इसके शुरुआत का तीसरा अध्याय खोला और उसके पतंगबाज़ीवाले अंश पर मेरी अँगुलियों के पोर ठिठक गए l
तीजवाले दिन मेरे गाँव नगीना और मेवात के एक गाँव साकरस के बीच होनेवाली पतंगबाज़ी के लिए, उपरलीघाँ की थड़ी पर शीशे पिसने के प्रसंग से शुरू हुआ अध्याय जैसे-जैसे आगे बढ़ने लगा, वैसे-वैसे उन तीनों की गर्दनें झुकती चली गईं l नगीना की छतों पर दोनों गाँवों के पतंगबाज़ों और दर्शकों के रोमांच के बीच जब-जब दोनों पक्षों की पतंगें एक-दूसरे को आसमान में गोता लगाते हुए दबोचने की कोशिश करतीं, जैन साहब के केबिन का सन्नाटा और गाढ़ा होने लगा l जब-जब नगीना की छतों से पतंग कटने पर दर्शकों की किलकारियाँ गूँजती, तब-तब लगता जैसे दर्शकों की नहीं, इन तीनों की मुट्ठियाँ भी हवा में तन रही हैं l कुछ क्षणों तक जब केबिन में सन्नाटा छाया रहा और मेरी आवाज़ आनी बन्द हो गई, तब अरुण प्रकाश ने सर उठाया और पूछा,”फिर आगे ?”
“अध्याय खत्म !” मैंने मुस्कराते हुए जवाब दिया l
इस बीच जैन साहब ने अपने पसंदीदा ब्रांड क्लासिक के पैकेट से एक सिगरेट निकाली, उसे सुलगाया और एक कश लेकर धुआँ हवा में छोड़, उसे ऐसे निहारने लगे जैसे कट गई पतंग को आसमान में छाए बादलों के गुच्छे में तलाश रहे हों l पांडुलिपि मैंने वापस रख दी l इसके बाद सभी ने इस प्रसंग की खूब तारीफ़ की l लेकिन तारीफ़ करने से तो कुछ नहीं बनता l बाद में एक दिन मैंने अरविंद जैन से कहा कि कहीं करो न इसका जुगाड़ ? मेरे आग्रह पर उन्होंने राजकमल प्रकाशन समूह के मालिक अशोक माहेश्वरी से बात की l अशोक जी ने उनसे कहा कि मैं किसी दिन पांडुलिपि लेकर उनके पास चला जाऊँ l मैं ज़ल्दी ही एक दिन राजकमल प्रकाशन पहुँच गया और अशोक जी को पांडुलिपि दे आया l
लगभग एक महीना बाद मेरे पास अशोक माहेश्वरी का फोन आया और मुझे अपने कार्यालय आने के लिए कहा l आप समझ सकते हैं कि किसी प्रकाशक के यहाँ से ऐसी स्थिति में एक ही वजह से फोन आता है, और वह तब जब किसी लेखक से उसकी आनेवाली किताब का अनुबंध करना होता है l वरना अस्वीकृति की स्थिति में खेद सहित पांडुलिपि डाक द्वारा भेज दी जाती है l लेखक को बुलाने की ज़हमत भी नहीं उठाने दी जाती है l तय दिन और समय पर मैं राजकमल पहुँच गया l अशोक माहेश्वरी ने शिष्टचार निभाते हुए पहले चाय पिलाई l चाय पीने के बाद अशोक जी ने एक बड़ा-सा लिफ़ाफ़ा मेरी तरफ़ बढ़ा दिया l मैंने अचकचाते हुए जब इसके बारे में पूछा तब बोले इसमें पांडुलिपि है l
एक प्रकाशक द्वारा जब किसी लेखक की पांडुलिपि लौटाई जाती है, तब उस लेखक के दिल पर क्या गुज़रती होगी, उस पल को बयां करना बेहद मुश्किल है l मैं निर्निमेष उनकी तरफ़ देखता रहा l उसके बाद उन्होंने एक काग़ज़ मेरी तरफ़ बढ़ाया और कहा,”आप इसको पढ़ लें l हमने इस पांडुलिपि को रामशरण जोशी जी से पढ़वाया था l उनके कुछ सुझाव हैं आप उन्हें देख लें l”
जोशी जी का नाम सुन मुझे हैरानी हुई कि कहाँ तो वे उस दिन इसके अंश की तारीफ़ कर रहे थे और कहाँ उन्होंने ने इसे रिजेक्ट कर दिया l बहरहाल, घर आकर बे-मन से मैंने अपनी पांडुलिपि को फिर से पढ़ा और जो मुझे लगा तथा रामशरण जोशी ने जो सुझाव दिए उसके अनुसार उसमें संशोधन कर दिए l
यह 23 मार्च, 1996 अर्थात शनिवार का दिन था l
पहले से समय लेकर मैं पांडुलिपि के साथ राजकमल कार्यालय पहुँच गया और उन्हें पांडुलिपि सौंप दी l पांडुलिपि को अशोक माहेश्वरी जी ने उलटा–पुलटा और फिर अपनी मेज़ पर एक तरफ़ रख दिया l इस बीच चाय आ गई l चाय पीने के दौरान उन्होंने एक ख़ाली काग़ज़ मेरी तरफ़ बढ़ाया और बोले,”इस पर अपना और पता लिख दो !”
मैंने डब्ल्यू ज़ेड-528 वाला अपना पता लिखकर उन्हें दे दिया l मुझसे पता लेकर उन्होंने अपने एक कर्मचारी को आवाज़ दी l कर्मचारी उनके पास आया तो उसे उस काग़ज़ को देते हुए बोले,”इसे राधाकृष्ण के एग्रीमेंट पर भरवाकर ले आओ !”
कुछ देर बाद मेरे पहले उपन्यास काला पहाड़ के एग्रीमेंट की दो प्रतियाँ मेरे सामने थीं l मैंने बिना पढ़े जैसाकि अक्सर होता है, जहाँ-जहाँ हस्ताक्षर होने थे, कर दिए l उसके बाद अशोक माहेश्वरी जी ने अनुबंध पर अपने हस्ताक्षर किए और बधाई देते हुए मुझे अनुबंध की एक प्रति थमा दी l
राधाकृष्ण प्रकाशन से हुए काला पहाड़ के अनुबंध के बारे में मेरे और अशोक माहेश्वरी जी के अलावा सिर्फ़ अरविंद जैन जानते थे l जैन साहब ने एक दिन मुझे अपने पास बैठाकर सख़्त हिदायत देते हुए समझाया कि अगर तू अपने इस उपन्यास को छपवाना चाहता है, तो इसकी किसी को भनक भी नहीं लगने देगा l अगर तूने किसी को इसके बारे में बता दिया, तो यह कभी नहीं छप पाएगा l
मैं बड़ी हैरानी के साथ जैन साहब को ताकने लगा कि ये कैसी शर्त लगा रहे हैं ? यहाँ तो हिन्दी का लेखक लिखना भी शुरू नहीं करता है उससे पहले मुनादी पीटना शुरू कर देता है कि, मैंने फलाँ उपन्यास या कहानी या अगड़म-बगड़म लिखना शुरू दिया है l जबकि मेरे पास तो बाक़ायदा अनुबंध है l
वे मेंरी दुविधा भाँप गए और धीरे-से बोले,”देख बेटा, जैसे ही तुम्हारे किसी बड़े दुश्मन को पता चलेगा कि यहाँ से तुम्हारा कोई उपन्यास छपने जा रहा है, वह पता है क्या करेगा ?” जैन साहब ने मेरी आँखों में अपनी आँखें घुसेड़ते हुए पूछा l
“क्या करेगा ?”
“वह एक दिन अशोक माहेश्वरी को फोन करेगा और पूछेगा कि यार अशोक, सुना है तुम मोरवाल का कोई उपन्यास छाप रहे हो ? अशोक हाँ कहेगा तो वह इस पर तुरन्त कहेगा कि एक बार दिखा तो सही उसने क्या लिखा है l इसके बाद पांडुलिपि प्रकाशक से उसके पास पहुँच जाएगी l महीनों उसे वह आदमी अपने पास पटके रखेगा और फिर एक दिन फोन करके कहेगा कि यह तू क्या छप रहा है l मोरवाल को तो लिखना ही नहीं आता है l क्या है इसमें ? अब एक बात बता, ऐसे में प्रकाशक उस बड़े आदमी की बात मानेगा कि नहीं ?”
सारी कहानी मेरी समझ में आ गई l वैसे भी पिछले डेढ़ दशक से दिल्ली में रहते हुए, मैं दरियागंज ही नहीं पूरी दिल्ली की साहित्यिक साज़िशों से परिचित हो चुका था l उस दिन के बाद सचमुच मैंने दिल पर पत्थर रखकर किसी को इस बारे में हवा भी नहीं लगने दी l
पत्रकार और इन दिनों दिल्ली के राजपुर रोड स्थित सीएसडीएस अर्थात सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपमेंट सोसाइटीज़ में संपादक अभय कुमार दुबे ने 1995-96 में अपनी एक मासिक पत्रिका शुरू की थी – समय चेतना l मुझे याद है अरविंद जैन ने उन्हीं दिनों हिन्दी के कुछ महत्त्वपूर्ण उपन्यासों पर समय चेतनामें एक शृंखला शुरू की थी l अपनी इस शृंखला की शुरुआत जैन साहब ने वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती के उपन्यास सूरजमुखी अँधेरे के से की थी l इस पत्रिका में छपे वस्तु से व्यक्ति बनती औरत शीर्षकवाले इस लंबे लेख की खूब चर्चा हुई थी l अरविंद जैन ने इसके बाद हिन्दी के कई उपन्यासों पर लिखा l बाद में इन लेखों की पुस्तक सारांश प्रकाशन से सन 2000 में औरत : अस्तित्व और अस्मिता शीर्षक से प्रकाशित होकर आई l मेरे पास जब पहला प्रूफ़ पढ़ने के लिए आया तब मुझे पता चला कि यह उपन्यास अभय कुमार दुबे के यहाँ टाइप हो रहा है l उन्होंने उन दिनों पत्रिका के लिए नया-नया डीटीपी सिस्टम लगाया था l चूँकि समय चेतना तो मासिक पत्रिका थी इसलिए अभय दुबे प्रकाशकों के इस तरह के जॉब वर्क भी करने लगे थे l
मैंने पहला प्रूफ़ पढ़कर दे भी दिया लेकिन मुझसे एक चूक हो गई जो जान-बूझकर नहीं बल्कि अज्ञानता के चलते हुई थी l यह अज्ञानता ऐसी थी कि इसकी हम किसी लेखक से कम-से-कम उमीद नहीं कर सकते l अभय दुबे जी ने पौने पाँच सौ पृष्ठ के इस वृहद उपन्यास की करेक्शन्स लगा दीं l मगर मुझे जब अपनी इस ग़लती का अहसास हुआ तो मैंने दूसरा प्रूफ़ पढ़ने के लिए उसे फिर से मँगा लिया l मैंने दूसरा प्रूफ़ पढ़ा और पहले प्रूफ़ में मैंने सही टाइप किए हुए को भी अपनी अज्ञानता के चलते कर ग़लत कर दिया था, उसे फिर से जैसा पहले प्रूफ़ में था, वैसा ही कर दिया l खैर, भले आदमी और बेहद शालीन व्यक्ति अभय कुमार दुबे ने कुछ नहीं कहा और जैसा मैंने प्रूफ़ पढ़ा था, उसकी करेक्शन्स लगा दीं l
इस दौरान एक दिन अभय कुमार दुबे मुझे अरविंद जैन के कार्यालय में मिल गए l वे समय चेतना के नए अंक की कुछ प्रतियाँ लेकर दरियागंज आए थे जिसमें जैन साहब का लेख छपा हुआ था l जैन साहब से फ़ुरसत मिलने पर वे मुस्कराकर बोले,”मोरवाल जी, गुरु आपने हमारी डबल मेहनत करा दी l”
मैंने अपनी अज्ञानता स्वीकार करते हुए कहा,”सच कहूँ अभय जी, इससे पहले मुझे ही नहीं पता था कौन-सा कहाँ प्रयुक्त होता है l”
“कोई बात नहीं l मैंने तो ऐसे ही कह दिया l” वे मुस्कराकर बोले l
अब आप सोच रहे होंगे कि वह ऐसी कौन-सी अज्ञानता थी जिसकी किसी लेखक से उम्मीद नहीं की जा सकती ? वह अज्ञानता यह थी कि पहले प्रूफ़ में जहाँ-जहाँ अनुस्वर लगा हुआ था, वहाँ मैंने चन्द्रबिन्दु कर दिया और जहाँ चन्द्रबिन्दु था, वहाँ अनुस्वर कर दिया l जबकि सच्चाई यह थी कि कहाँ चन्द्रबिन्दु लगता है और कहाँ अनुस्वर, मुझे इसका ज्ञान नहीं था l
जैसे-जैसे यह ख़बर लीक होने लगी कि मेरा कोई उपन्यास प्रकाशित होने जा रहा है, दिल्ली के कुछ विशेष गलियारों में सुगबुगाहट शुरू हो गई l चूँकि वकील साब अर्थात अरविंद जैन की हिदायत का मैं अभी तक पालन करता आ रहा था, इसलिए किसी को इसकी भनक नहीं पा रही थी कि कहाँ से आ रहा है l यह तो कोई उस समय सोच भी नहीं सकता था कि मेरा उपन्यास और राधाकृष्ण प्रकाशन से l मेरे कार्यालय केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड की अंग्रेज़ी पत्रिका सोशल वेलफेयर की उन दिनों संपादक थीं श्रीमती पूनम शर्मा l वे मेरे लिखने-पढ़ने के शौक से परिचित थीं l उनका किसी तरह के लिखने-पढ़ने कोई संबंध नहीं था l हाँ, वे अंग्रेज़ी में अच्छा गिटर-पिटर कर लेती थीं l एक दिन पूनम शर्मा ने जो बात बताई उस पर तब भी एक पल के लिए मुझे विश्वास नहीं हुआ और आज भी नहीं हो रहा है l लेकिन उनकी बात पर इसलिए विश्वास किया जा सकता है कि उनकी साहित्यिक में कोई रुचि नहीं थीं l जैसे समाज कल्याण पत्रिका में काम करनेवाले हम लोगों की हुआ करती थी l तब तक लेखक और समाज कल्याण पत्रिका के पूर्व संपादक प्रदीप पंत की संयुक्त निदेशक के पद पर पदोन्नति हो चुकी थी और उन दिनों वे बोर्ड के पब्लिकेशन डिवीज़न जिसका बाद में मीडिया डिवीज़न नाम रख दिया था, उसके भी संयुक्त निदेशक थे l इसलिए बोर्ड की दोनों पत्रिकाओं के भी एक तरह से मुखिया वही थे l
एक दिन पूनम शर्मा ने मुझसे कहा,”मोरवाल, सुना है तुम्हारा कोई नॉवेल पब्लिश होनेवाला है ?”
“मैडम आपको कैसे पता ?” मैंने हैरानी के साथ पूछा l
“मिस्टर प्रदीप पंत बता रहे थे l”
यह सुनकर मैंने बात टाल दी l ऐसा न हो कि मैं बातों-बातों में इन्हें कुछ बता दूँ और ये अपने संयुक्त निदेशक को बता दें l
इस पर वे बोलीं,”पता है पंत साहब क्या कह रहे थे ? कह रहे थे कि मैं देखता हूँ इसका उपन्यास कैसे छपता है l”
इतना सुनते ही मेरा दम ख़ुश्क हो गया कि उसे कैसे पता चला कि मेरा उपन्यास छपनेवाला है l बाद में मुझे याद आया कि मैंने इस बारे में नानक चन्द जी को बताया था लेकिन यह नहीं बताया कि उपन्यास कहाँ से आ रहा है l
मैंने पूनम शर्मा को टोहते हुए पूछा,”कौन-से प्रकाशक से नहीं छपने देंगे ?”
“अरे वही कोई सामयिक प्रकाशन है ?”
पूनम शर्मा के इतना कहते ही एक बार तो मेरी हँसी छूटने को हुई मगर अपने आपको रोक गया l मैंने उसे ऐसा जताया जैसे सचमुच मेरा उपन्यास सामयिक प्रकाशन से ही आ रहा है l परन्तु मैं बाद में सोचने लगा कि ऐसा प्रदीप पंत ने क्यों कहा होगा ? ऐसा इसलिए कि सामयिक प्रकाशन के मालिक जगदीश भारद्वाज जी से इनके बहुत पुराने संबंध थे l इनकी शुरुआती पुस्तकें यहीं से प्रकाशित हुई हैं l सामयिक प्रकाशन से मेरा परिचय इन्हीं के माध्यम से हुआ था l ये इस बात से भली-भांति परिचित थे कि सामयिक प्रकाशन में मेरा आना-जाना लगा रहता था l पूनम शर्मा जी के कहे पर मुझे इसीलिए यक़ीन करना पड़ा था कि सामयिक प्रकाशन के ये पुराने लेखक थे l इस प्रसंग के बाद मैं और चौकन्ना हो गया l
उपन्यास काला पहाड़ का आवरण बनकर तैयार हो गया l इसे मशहूर चित्रकार चंचल ने बनाया था l जहाँ तक मैं जानता हूँ ये वही चंचल जी हैं जिन्हें लोग सोशल मीडिया पर चंचल BHU के नाम से जानते हैं l चित्रकार, व्यंग्यकार और लेखक चचंल लोक कलाओं के प्रति अपने गहरे जुड़ाव के कारण जाने जाते हैं l अपने समय में ये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष भी रह चुके हैं l एक समय इनका समाजवादी आन्दोलन से गहरा नाता था लेकिन समाजवादियों के सत्तालोलुप आचरण और उनके बिखराव के कारण फ़िलहाल इनका झुकाव कांग्रेस की तरफ़ है l बहुत से लोगों की तरह चंचल जी का बनाया काला पहाड़ के प्रथम संस्करण का यह आवरण मेरी दृष्टि में एक क्लासिक आवरण है l
इस बीच रामशरण जोशी जी से मैंने अनुरोध किया कि वे उपन्यास का फ्लैप लिख दें l मेरे आग्रह पर उन्होंने फ्लैप लिख दिया और 7 फरवरी, 1999 को टाइप की हुई टिप्पणी मुझे दे दी l मेरी इच्छा थी कि फ्लैप के लिए जोशी जी द्वारा लिखी गई टिप्पणी उनके नाम के साथ जाए l इसका कारण यह था कि एक तो उन्होंने उपन्यास की पांडुलिपि पढ़ी हुई थी; दूसरा, उन दिनों रामशरण जोशी जी की पहचान तेज़ी से एक समाजशास्त्री की बन रही थी l अगर इनका नाम जाएगा तो इससे उपन्यास का वज़न और बढ़ जाएगा l किन्तु ऐसा नहीं हुआ क्योंकि अशोक माहेश्वरी ने नाम छापने से यह कहकर मना कर दिया कि, हमारे यहाँ फ्लैप पर दी जानेवाली टिप्पणी के साथ किसी का नाम नहीं जाता है l भूमिका या फ्लैप पर लिखी गई टिप्पणी का पाठकों पर कोई ख़ास प्रभाव पड़ता होगा, मुझे नहीं लगता l लेकिन नामचीन लेखकों से हमारे यहाँ भूमिका लिखवाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है, विशेषकर युवा और नए लेखकों की पुस्तकों पर l यही सोचकर मैं नाम देना चाहता था l हालाँकि बाद के अपने उपन्यासों और अन्य पुस्तकों के फ्लैप मैं ख़ुद लिखने लगा l मेरा मानना है कि किसी भी कृति या रचना को जितना स्वयं उसका लेखक जानता है, उतना दूसरा नहीं l इसके अलावा हमारी हिन्दी में ज़्यादातर भूमिकाएँ या फ्लैप, रचना को बिना पढ़े लिखी जाती हैं l इसलिए अपनी पुस्तकों की भूमिका, आमुख या फ्लैप लेखक को स्वयं लिखनी चाहिए l
अशोक माहेश्वरी जी के इस निर्णय ने मेरे सामने एक धर्म संकट पैदा कर दिया और वह यह कि मैंने उनसे बिना पूछे या बिना सलाह लिए रामशरण जोशी जी से उपन्यास का जो फ्लैप लिखवाया, जब वह बिना उनके नाम के छपेगा, तब वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे ? बहरहाल, मैं अशोक जी के इस निर्णय पर चुप्पी साध गया l मैंने इस पर ज़ोर भी नहीं दिया और बिना नाम के जोशी जी की टिप्पणी को प्रकाशित करने के लिए हाँ कह दिया l जोशी जी ने मेरे इस पहले उपन्यास काला पहाड़ के फ्लैप के लिए क्या लिखा, आप भी उसे पढ़ें-
उपन्यास का काम समकालीन यथार्थ के प्रतिनिधित्व के माध्यम से अतीत को पुनर्जीवित और भविष्य के मिज़ाज को रेखांकित करना है l युवा कथाकार भगवानदास मोरवाल के पहले उपन्यास ‘काला पहाड़’ में ये विशिष्टताएँ हैं l ‘काला पहाड़’ के पात्रों की कर्मभूमि ‘मेवात क्षेत्र’ है l हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश की सीमाओं में विस्तृत यह वह क्षेत्र है, जिसने मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर से टक्कर ली थी और जिसने भारत की ‘मिलीजुली तहज़ीब को आजतक सुरक्षित रखा है l
‘काला पहाड़’ केवल एक उपन्यास का शीर्षक नहीं है, वरन मेवात के भौगोलिक-सांस्कृतिक अस्मिता और समूचे देश में व्याप्त बहुआयामी विसंगतिपूर्ण प्रक्रिया का प्रतीक है l इसके पात्र सलेमी, मनीराम, रोबड़ा, हरसाय, सुलेमान, छोटेलाल, बाबूखाँ, सुभानखाँ, रुमाली, अंगूरी, रामदेई, तरकीला, मेमन, चौधरी करीम हुसैन व चौधरी मुर्शीद अहमद आदि ठेठ देहाती हिन्दुस्तान की कहानी कहते हैं l मेवात के ये अकिंचन पात्र अपने में वे सभी अनुभव, त्रासदी, खुशियाँ समेटे हुए हैं, जो किसी दूरदराज़ अनजाने हिंदुस्तानी की भी जीवन-पूँजी हो सकते हैं l
लेखक जहाँ ऐतिहासिक पात्र व मेवात-नायक ‘हसन खाँ मेवाती’ की ओर आकृष्ट है, वहीं वह अयोध्या त्रासदी की परछाइयों को भी समेटता है, इस त्रासदी में झुलसनेवाली बहुलतावादी संस्कृति को रचनात्मक अभिव्यक्ति देता है l उपन्यास की विशेषता यह है कि इसने समाज के हाशिए के लोगों को अपने कथा फ़लक पर उन्मुक्त भूमिका निभाने की छूट दी है l मोरवाल की पृष्ठभूमि दलित ज़रूर है लेकिन किरदारों के ‘ट्रीटमेंट’ में वह दलित-ग्रंथि से अछूते हैं l
उपन्यास में आधुनिक सत्तातंत्र एवं विकास प्रक्रिया भी लेखक की नजरों से ओझल नहीं हो सके हैं l लेखक के पात्र प्रक्रियाओं की जटिलताओं एवं विकृतियों को पूरी तटस्थता के साथ उघाड़ते हैं l पात्रों के अन्दर झाँकने से एक विमर्श उठता दिखाई है कि क्या वर्तमान विकास प्रक्रिया के प्रहारों से इनसान की निर्ममता और रिश्तों की कोमलता को कालांतर में अक्षुण्ण रखा जा सकेगा ?
अगर इस फ्लैप को बिना किसी आग्रह या पूर्वाग्रह के गंभीरता और थोड़ा रूककर पढ़ें, तो रामशरण जोशी जी की यह टिप्पणी अपने आप में जिन समाजशास्त्रीय और महत्त्वपूर्ण सवालों को उठाती है, सचमुच यह इस उपन्यास को पढ़ने के लिए प्रेरित तो करती ही है l इस टिप्पणी में जिन दो पात्रों चौधरी करीम हुसैन और चौधरी मुर्शीद अहमद का उल्लेख किया गया है l दरअस्ल, ये दोनों मेवात के वही कद्दावर राजनेता हैं जिन पर 6 दिसंबर, 1992 के बाद 30 जनवरी, 1993 के दिन नूंह में होनेवाली तथाकथित सद्भावनाएँ रैलियों की आड़ में, मेवात का सांप्रदायिक सौहार्द ख़राब करने और फिर मेवों को हिन्दुओं के ख़िलाफ़ किए गए आर्थिक बहिष्कार के लिए उकसाने का आरोप लगा था l
जब उपन्यास का प्रकाशक द्वारा प्रिंट ऑर्डर दे दिया गया अर्थात प्रेस में छपने के लिए चला गया, मैंने तब दबी ज़बान से मित्रों को बताना शुरू किया कि मेरा उपन्यास आनेवाला है l उपन्यास आने तक वकील अरविंद जैन की सख़्त हिदायत मेरे कानों में गूँजती रही l
राजकमल प्रकाशन समूह के मासिक पत्र प्रकाशन समाचार के द्वारा अपने अप्रैल 1999 के अंक के मुखपृष्ठ पर अपनी नई आमद के तहत जिन पुस्तकों की घोषणा की उसमें काला पहाड़ भी था l इस घोषणा के बाद ही मेरी जैसे जान में जान आई वरना चौबीस घंटे अरविंद जैन साहब की हिदायत मेरा पीछा करती रहती l
हिन्दी में उपन्यास-युग शीर्षक से प्रकाशित इस पूरे पृष्ठ के अग्र लेख में आनेवाले जिन चार उपन्यासों की घोषणा की गई थी, उनमें भगवान सिंह का उन्माद, ज्ञान चतुर्वेदी का बारामासी, नवारुण भट्टाचार्य का हरबर्ट और काला पहाड़ शामिल थे l प्रकाशन समाचार के 20 मार्च, 1999 के संपादकीय में कहा गया-
अपने नए सेटों हम जो चार उपन्यास लेकर आ रहे हैं, उनसे हमें काफ़ी अपेक्षाएँ है l इनमें एक है बांग्ला से अनुदित साहित्य अकादमी द्वारा पिछले साल पुरस्कृत कवि नवारुण भट्टाचार्य की पहली ही गद्य रचना ‘हरबर्ट’ l बीहड़ कथ्य और साहसी भाषा की ऐसी महानगरीय जुगलबंदी हमारे लिए एक नई चीज़ है l गहरे विमर्शों के लिए चर्चित भगवान सिंह के उपन्यास ‘उन्माद’, के बारे में अपनी ओर से फ़िलहाल हम इतना ही कहना चाहते हैं कि हिन्दी में सांप्रदायिकता को संदर्भ बनाती हुई इतनी जीवंत कथाएँ उपन्यास के स्तर पर कम कही गई हैं l ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास ‘बारामासी’ से व्यंग्य-उपन्यास की बिरली विधा में एक नया आयाम इस भरोसे का जुड़ा है कि जीवन का कोई भी रस, करुण रस भी, व्यंग्य से अछूता रहने को बाध्य नहीं है l अंतर्धार्मिक पहचान वाली मेव जातीयता के तनावों को कथावस्तु बनाता भगवानदास मोरवाल का पहलौठी उपन्यास ‘काला पहाड़’ आंचलिक लेखन की नई संभावनाएँ लिए हुए है l हिन्दी उपन्यासों के क्षेत्र में जो नया घटित हो रहा है, उसमें ये चारों अपने-अपने ढंग से कुछ ठोस योगदान करेंगे, ऐसी हमें उम्मीद है l
प्रकाशन समाचार के इस अंक के अन्दर एक पृष्ठ पर दूसरे उपन्यासों की तरह एक आधा पृष्ठ का अंश इस इंट्रो के साथ प्रकाशित किया गया- सांप्रदायिकता से सघन मुठभेड़ करते भगवानदास मोरवाल के इस पहले उपन्यास के पात्रों की कर्मभूमि हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश की सीमाओं में विस्तृत वह मेवात क्षेत्र है जिसने भारत की मिलीजुली तहज़ीब को आज तक सुरक्षित रखा है l


भगवानदास मोरवाल

जन्म : 23 जनवरी, 1960; नगीना, ज़िला नूँह (मेवात) हरियाणा।

शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी) एवं पत्रकारिता में डिप्लोमा।

कृतियाँ : ‘काला पहाड़’ (1999), ‘बाबल तेरा देस में’ (2004), ‘रेत’ (2008), ‘नरक मसीहा’ (2014), ‘हलाला’ (2015), ‘सुर बंजारन’ (2017), ‘वंचना’ (2019), ‘शकुंतिका’ (2020), ‘ख़ानज़ादा’ (2021), ‘मोक्षवन’ (2023) (उपन्यास); ‘सीढ़ि‍याँ, माँ और उसका देवता’ (2008), ‘लक्ष्मण-रेखा’ (2010), दस ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ (2014), ‘धूप से जले सूरजमुखी’ (2021), ‘महराब और अन्य कहानियाँ’ (2021), ‘कहानी अब तक’ (दो खंड, 2023) (कहानी-संग्रह); ‘पकी जेठ का गुलमोहर’ (2016), ‘यहाँ कौन है तेरा’ (2023) (स्मृति-कथा); ‘लेखक का मन’ (2017) (वैचारिकी); ‘दोपहरी चुप है’ (1990) (कविता); ‘बच्चों के लिए कलयुगी पंचायत’ (1997) एवं अन्य दो पुस्तकों का सम्पादन; कुछ कृतियों का अंग्रेज़ी और अन्य भाषाओं में अनुवाद।

सम्मान/पुरस्कार : मुंशी प्रेमचन्द स्मारक सारस्वत सम्मान (2020-21), दिल्ली विधानसभा; वनमाली कथा सम्मान, भोपाल (2019); स्पन्दन कृति सम्मान, भोपाल (2017); श्रवण सहाय अवार्ड (2012); जनकवि मेहरसिंह सम्मान (2010), हरियाणा साहित्य अकादमी; अन्तरराष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान (2009); कथा (यूके) लन्दन; ‘शब्द साधक ज्यूरी सम्मान’ (2009); कथाक्रम सम्मान, लखनऊ (2006); साहित्यकार सम्मान (2004), हिन्दी अकादमी, दिल्ली सरकार; साहित्यिक कृति सम्मान (1994), हिन्दी अकादमी, दिल्ली सरकार; साहित्यिक कृति सम्मान (1999), हिन्दी अकादमी, दिल्ली सरकार; पूर्व राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरमण द्वारा मद्रास का राजाजी सम्मान (1995); डॉ. अम्बेडकर सम्मान (1985), भारतीय दलित साहित्य अकादमी; पत्रकारिता के लिए प्रभादत्त मेमोरियल अवार्ड (1985) तथा शोभना अवार्ड (1984)।

पूर्व सदस्य, हिन्दी अकादमी, दिल्ली सरकार एवं हरियाणा साहित्य अकादमी।

ई-मेल : bdmorwal@gmail.com


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