अवधेश प्रीत हिंदी कथा के नौवे दशक के सबसे समादृत कथाकार हैं। आपके अभी तक सात कहानी संग्रह और दो उपन्यास प्रकाशित हैं जो काफी लोकप्रिय रहे। आपकी रचनाएं हमें समाज के उस अंधेरे में ले जाती हैं जहां अमूमन लोगों की निगाह नहीं जाती है तभी डाॅ नामवर सिंह ने आपकी ‘नृशंस’ कहानी पर कहा था कि यह कहानी आज के समय के अमानवीय समाज की छिपी नृशंसता का खुलासा करती है। कहानी ऊपर से जितनी सरल है, अंदर से गूढ़ है अर्थात भीतर का दमघोंटू वातावरण हमें हिला देता है…
ऐसे कथाकार की कहानी प्रस्तुत है जो हमें विचलित करती है, जगाती है ।
– हरि भटनागर

कहानी:

वह औसत कद, कंजी आँखें, खल्वाट खोपड़ीवाला बूढ़ा उम्र के हिसाब से पचास-पचपन साल के आस-पास का होगा, लेकिन चेहरे पर फैली झुर्रियाँ, आँखों के धँसे गड्ढे, उनके चारों ओर पसरी स्याही और बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी उसके साठ के ऊपर का होने की चुगली खातीं । उसकी ढीली-लड़खड़ाती चाल और झोल-झोलंग लिबास से भी उसकी उम्र का सही अनुमान लगा पाना सहज नहीं था। अनुमानतः वह एक ऐसा शख्स था, जो उम्र से पहले बूढ़ा हो गया था और शायद उसे इसका कतई कोई अफसोस नहीं था।
वह ज्यादातर अपने पैतृक घर में किसी परछाई की तरह इधर-उधर डोलता रहता जैसे कोई बेचैन आत्मा अपनी मुक्ति का बन्द रास्ता खोलने के लिए गुम गई चाभी खोज रही हो। वह कभी छेनी, आरी और दाँव लेकर घर के काठ-कबाड़ चीरता-फाड़ता और उनकी चैली-चुन्नियाँ बनाकर खुश होता, तो कभी हथौड़ी लेकर दीवारों में कील-काँटी ठोंकता। कील ठोंकते हुए हथौड़ी की ’ठुक-ठुक” होती आवाज उसके भीतर तक बजती और वह अपने पूरे शरीर को एक लय में थिरकता महसूस करता। वह रोमांच और अलभ्य सुख से भरी हथौड़ी तब तक चलाता रहता, जब तक कि दीवार में जुम्बिश नंहीं होने लगती। दीवार हिलती तो उसके अन्दर ठहरी हुई कोई चीख फड़फड़ाती और वह एक कोने में बैठकर बेसाख्ता दारू पीने लगता।
घर कभी अच्छा-खासा रहा होगा, लेकिन अर्से से पुरसाहाल न होने के कारण-उसकी तरह ही असमय जर्जर हो गया था। नोनी खाई ईंटों के बीच दरारें उभर आई थीं, जिनसे होकर पीपल-बरगद के हरे पौधे उग आए और तरह-तरह की दूसरी झाड़ियाँ फैल-पसर गई थीं। बरसात में इन दीवारों पर मटमैले चकत्तों जैसे कुकुरमुत्ते उग आते, जिन्हें देखकर वह खुशी से भर जाता और सारी बरसात वह उन चकत्तों को इस सावधानी से तोड़ता कि कुकुरमुत्तों की छाते जैसी पंखुड़ियाँ कहीं टूट कर न बिखर जाएँ । वह इन पंखुड़ियों को सहेज कर रखता और जरूरत के मुताबिक तलकर खाता और’ छककर दारू पीता।
कुकुरमुत्तों की मुफ्त आमद के अलावा भी उसे बरसात और कई मायनों में रास आती। सबसे ज्यादा सुकून उसे इन्हीं दिनों में मिला करता। न कोई उसके इर्द-गिर्द आता-जाता, न ही उसे कहीं जाने की जरूरत पड़ती । चूल्हा जलाने के लिए चैली-चुन्नियाँ होतीं ही। कभी देर शाम तक आँधेरा गहरा चुका होता, वह चुपके से निकलता और जरूरत-भर दारू और दूसरी चीजें खरीद लाता। फिर इत्मीनान से दारू पीता और बरसात का शुक्रिया अदा करता।
जिन दिनों काफी तेज बारिश होती, वह कागज की नाव बनाता और आँगन में छोड़कर उसका बहना, तैरना और भटकना देखता रहता। उसे तब बेहद आनन्द आता, जब नाव अपने ही गीलेपन के बोझ से तैरने के बजाय, गड़ाप से पानी में डूब जाती। वह किसी बच्चे-सा किलक पड़ता और तालियाँ बजाते हुए नाचने लगता। वह फिर-फिर नाव बनाता और उसे डूबते हुए देखने की प्रतीक्षा करता रहता।
उन दिनों, जब वह दुबारा और हमेशा के लिए इस घर में रहने आया था बारिश आते ही गली में निकल आया था और गली के बच्चों को उसने ’नाव-नाव” खेलने की दावत दी थी, तो ज्यादातर बच्चे उसे हैरानी से देखने लगे थे। लेकिन उसने बच्चों की हैरानी पर ध्यान दिए बगैर कागज की नाव बनाई थी और उसे पानी में उतार दिया था। पानी में तैरती नाव, तेज धार के सहारे जब हिचकोले खाती हुई तेजी से बहने लगी थी, बच्चे तालियाँ बजाते हुए उसके साथ-साथ दौड़ने लगे थे। वह बच्चों को दौड़ता, खुश होता देखकर उनके पीछे-पीछे दौड़ा था। बच्चे उसे अपने पीछे दौड़ता देखकर ’हुल्ल-हुल्ल’ कर शोर मचाने लगे थे और तभी किसी बच्चे ने नाव पर पाँव रख दिया था। नाव पानी में डूबकर पुर्जा-पुर्जा बिखर गई थी। अचानक उसे तेज गुस्सा आया था और उसने उस बच्चे को जिसने नाव पर पाँव रखा था, पकड़ने के लिए झपटा ही था कि सारे बच्चों ने मिलकर उसे घेर लिया था और उसके ढीले-ढाले लिबास को खींचना शुरू कर दिया था। इस खींच-तान में उसकी बुशर्ट फट गई थी। जब तक वह फटी बुशर्ट को सँभालता, किसी ने उसका पाजामा खींच दिया था और देखते-ही-देखते पाजामा गिरकर टाँगों में जा फँसा था। वह गुस्से और अपमान का घूट पीता, उस बच्चे की ओर, जिसने पाजामा खींचा था, दौड़ा था कि याँगों में फँसे पाजामे ने उसके पैरों को बाँध दिया था, फलतः वह औंधे मुँह पानी में गिरा था और ’छपाक” की आवाज के साथ पानी काफी दूर तक फैल गया धा। बच्चों में विजय का-सा उल्लास फूटा था। वे “हो-हो” करते गली में दौड़ लगाने लगे धे। पूरी गली उनके पाँवों से उठती ’छप-छप’ की लय से भर गई थी।
उस दिन को बाद उसने तय किया था कि वह बदमाश बच्चों को मुँह नहीं लगाएगा, लैकिन पता नहीं क्घ्या होता कि बच्च्चों को देखते ही उसका मन मचलने लगता। वह उनके साथ हो लेता और फिर उनके ’हो-हो’ का मजा भी लेता द्य कभी-कभी वह बनावटी गुस्सा भी दिखाता, लेकिन बच्चों का भय फट चुका था। वे उसके आगे बढ़ते ही दबे पाँव उसके पीछे लग जाते और मौका देखकर उसका झोल-झोलंग लिबास खींच देते। वे इस कोशिश में उसका पाजामा खींचने को ज्यादा तरजीह देते, लेकिन कामयाबी हमेशा नहीं मिलती। ऐसे में वह खिसियाकर बच्चों को पकड़ने के लिए दौड़ता। दाँत किटकिटाता और उन्हें माँ-बहन की गालियाँ देता, तब तक हवा में बड़बड़ाता रहता, जब तक वह खुंद से ही आजिज नहीं आ जाता।
उसका यूँ हवा में बड़बड़ाना अचानक एक दिन तब कयामत में बदल गया था, जब किसी मनचले ने उस पर फब्ती कस दी थी, “मेजर साहेब, पाकिस्तान को मेसेज भेज रहे हैं।”
एकबारगी उसकी रंगों में चिंगारियाँ फूट पड़ी थीं। झपट्टा मार कर उसने उस मनचले की गर्दन दबोच ली थी और गला फाड़कर चीख पड़ा था, “हाँ, स्साले, हाँ, भेज रहा हूँ पाकिस्तान को मेसेज, जो करना हो, कर ले।”
अनायास ही एक तमाशे में तब्दील हो गया था वह। आँखों की कोरों पर रिस आई नमी, हवा में हिलती दाढ़ी और बेबसी में विद्रप हो चुका चेहरा, उसके व्यक्तित्व को इस कदर हास्यास्पद बना गया था, कि सारा का सारा माहौल एक बेडौल ठहाके में तब्दील हो गया था। वह पैर पटकता, गालियाँ बकता घर लौट आया और दारू की पूरी बोतल गटागट हलक के नीचे उतारने के बाद फर्श पर लुढ़क गया था। वह नशे और नींद में गाफिल बड़बड़ाते हुए सिसिकियाँ भरता रहा था, सिसकियाँ भरता हुआ बड़बड़ाता रहा था।
वह दारू पीते हुए अक्सर सोचता कि गलती कहाँ हुई ? इस कोशिश में वह एक सिरा खोजते हुए इस बुरी तरह उलझ जाता कि गाँठों के सिवा कुछ हाथ नहीं आता। गाँठों के ऊपर उभरे दो सिरों को देखकर यह तय करना और भी मुश्किल हो जाता कि सही और शुरुआती सिरा वह है भी या नहीं ! उस दौरान उसकी स्म्ृतियों में धुँधले अक्स उभरते और वह उन्हीं अक्सों को कभी माँ मान लेता, कभी बाप। माँ को तो उसने देखा भी नहीं था। उसे जन्म देते ही मर गई थी। फिर भी माँ की शक्ल अक्स में उभरती-सी लगती। लेकिन बाप ? बाप को जरूर देखा था उतना ही सही, जितना वह जेल से बाहर रहता। बाप चोरियाँ करता और जेल जाता। जेल से आते ही, चोरियाँ शुरू कर देता, फिर जेल चला जाता । एक दिन जेल में ही मर गया था वह। किसी कैदी ने उसकी बेतहाशा पिटाई की थी। मुँह से खून फेंकता मरा था बाप।
बाप की मौत के साथ ही, पता नहीं कहाँ से आ टपकी थी जैनुल फूफी। भरी जवानी में ही बेवा हो चुकी फूफी ने घर में घुसते ही उसकी लानत-मलामत शुरू कर दी थी, “मनहूस कहीं का। पहले माँ को खाया। अब बाप को भी चबा गया।”
उसने अपने दूध के दाँतों तो छूकर देखा था।.उसे यकीन नहीं आया था कि वह अपने बाप को चबा गया है। लेकिन फूफी ने कहा था और इतनी बार कहा था कि धीरे-धीरे उसे विश्वास हो गया था कि जरूर उसी ने माँ को खाया होगा और बाप को चबा गया होगा। उसे अपने आप से डर लगने लगा था। स्वयं से घृणा होने लगी थी। वह अपनी मनहूस सूरत लेकर किसी के सामने जाने से भय खाता और अगर किसी के सामने पड़ जाता तो सामनेवाला उससे बिदकने लगता। अपनी अभिशप्त सूरत पर उसका कोई वश नहीं था। वह इस बेबसी के आलम में घर के किसी कोने में पड़ा-पड़ा बिसूरता रहता और थक-हार कर वहीं-सो जाता।
उसकी नींद में सपनों से पहले फूफी दाखिल होती-तेज, नुकीले, लम्बे-लम्बे दाँत बाहर को निकले हुए, सिर पर दो काली लम्बी सींगें। आँखें लाल, अँगारों-ली दहकती हुईं। वह थरथर काँपने लगता। कई बार तो वह डर के मारे चीखने लगता-“बचाओ ! बचाओ !” आँख खुलती तो पाता कि जाँघिया गीली हो चुकी है। जमीन भीगी हुई है। ठीक सिर पर फूफी खड़ी है-“क्यों रे, नासपीटे, फिर कर दी जाँघिया गीली ? इसे धोएगी तेरी माँ ?”
माँ कभी सपने में नहीं आती, लेकिन ख्यालों में हमेशा बनी रही। बिना देखी शकक्लवाली माँ को लेकर उसके मन में तरह-तरह के सवाल थे। एक चोर की बीवी बनकर रहना कैसा लगता होगा उसे ? मेरे चोर बाप को क्घ्यों कर बर्दाश्त करती होगी वह ? मुझे पैदा करने से पहले क्या-क्या सोचती रही होगी ? मुझे जन्म देते ही क्यों मर गई वह ?
सवाल बेशुमार थे, जवाब एक भी नहीं। उस मामूली सवाल का जवाब भी नहीं दे पाया था वह, “तेरा बाप चोरियाँ करता था, तू कया करेगा ?”
मास्टर आब्दीन के इस सवाल का जवाब फूफी ने दिया था, “चोर की औलाद, चोरी ही करेगी ।”
उस दिन उसने तय किया था, कुछ भी करेगा, चोरी तो कतई नहीं करेगा। लेकिन अपने फैसले पर टिक नहीं पाया था वह। फूफी के बन्द कमरे से उठती चीखों-आहों को चोरी-चोरी देखने-सुनने लगा था। बन्द कमरे में फूफी होती, मास्टर आब्दीन होता और होती चीखों-आहों की नग्न परछाइयाँ। मास्टर आब्दीन की परछाईं, अक्सर फूफी से पूछती, “जैनुल, ऐसे कब तक चलेगा ? बेहतर हो, हम निकाह कर लें।”
फूफी की परछाईं हँसती, “बेवा निकाह करे, क्घ्या कहेंगे लोग ?”
मास्टर आब्दीन मायूस हो जाता और कई-कई दिनों तक फूफी के पास नहीं आता। उसकी इच्छा होती कि मास्टर आब्दीन आए और फूफी से निकाह करे ले, लेकिन फूफी ने मास्टर आब्दीन के लिए अपने कमरे का दरवाजा बन्द कर दिया था। उस बन्द कमरे में अब कभी फैजल आता, तो कभी लालचन्द। फूफी के बन्द कमरे में आहों-चीखोंवाली नंगी परछाइयाँ आती-जाती रहीं। मास्टर आब्दीन ने आना-जाना बन्द कर दिया।
वही मास्टर आब्दीन उसे एक दिन अकेले में मिला था। वह फैजल के दिए नोट लेकर सींक कबाब खरीदकर घर लौट रहा था, जब गली के-नुक्कड़ पर मिला था मास्टर आब्दीन। शाम के झुटपुटे में वह मास्टर आब्दीन को देख नहीं पाया था, लेकिन मास्टर आब्दीन ने उसे आवाज दी थी, तो उसके पाँव ठिठक गए थे। वह मास्टर आब्दीन को ठीक अपने सामने पाकर सहम गया था। कजेला हलक को आ लगा था। मास्टर आब्दीन ने उम्मीद के उलट बेहद प्यार से पूछा था, “पढ़ेगा तू ?”
“हाँ-ना” कुछ नहीं कह पाया था वह। मास्टर आब्दीन ने ही उसकी मुश्किल आसान कर दी थी, “कल स्कूल आना। तेरा नाम लिख जाएगा।”
तब नहीं जान पाया था वह कि यह फूफी से बदला लेने का अपना तरीका था मास्टर आब्दीन था। मास्टर आब्दीन उसे स्कूल में दाखिला दिलाकर इस कदर खुश हुआ था, कि अपने मन की बात छुपा नहीं पाया था, “तेरी फूफी को मेरा पहला संबक है यह ?”
वाकई यह सबक बहुत करारा था। फूफी नेः उसके गाल पर करारा थप्पड़ जड़ा था, “चोर की औलाद कोतवाल बनेगा।”
उस दिन, पहली बार उसके भीतर फूफी के खिलाफ गुस्सा बलबलाकर फूटा था और पैर पटकता हुआ घर से बाहर चला गया था। देर रात तक इधर-उधर भटकता रहा था। जब लौटा था, घर का दरवाजा बन्द मिला था। वह बगैर फूफी को आवाज लगाए, बाहर बरामदे में ही सो गया था। सुबह फूफी ने दरवाजा खोला था, तो उसे बरामदे में पड़ा देखकर बिफर पड़ी थी, “सारी हकड़ी उतर गई तेरी…लौट आया छाती पर मूँग दलने।”
उसने फूफी को आँख उठाकर देखा था। फूफी उसकी आँखों का ताब सह नहीं पाई थी। सहमी-सी दरवाजे में थोड़ा पीछे खिसक गई थी। वह नहीं समझ पाया था कि उसकी आँखों में ऐसा क्या था कि फूफी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी थीं, आँखें झुक गई थीं और वह बगैर कुछ बोले पलट कर अन्दर चली गई थी।
उस शाम जब लालचन्द आया था, फूफी ने फुसफुसाकर उसे बताया था, “छोकरा बड़ा हो गया है। सब कुछ समझने लगा है अब ।” उस रात फैजल भी बैरंग वापस हो गया था। उस रात में अच्छी नींद आई थी। उस रात पहली बार नींद में मुस्कुराता रहा था वह।
रात के वाकये का सुबह मास्टर आब्दीन को पता चला तो मास्टर आब्दीन की आँखें तर हो आईं। हाथ आसमान में उठाकर दुआ माँगी और प्यार से उसका सिर सहलाया। उसके भीतर खुशी की लहर-सी उठी। उसने मास्टर आब्दीन की शक्ल में एक सपने को देखा था।
यह सपना जैसे-जैसे उसकी रूह के करीब होता जा रहा था, फूफी की तड़प बढ़ती जा रही थी। वह उससे आँखें नहीं मिलाती । उससे सीधे बात नहीं करती। ज्यादातर दोनों के बीच एक गहरी चुप्पी तनी रहती। इस चुप्पी के उसके सिरे पर कलेजे को ठंडक पहुँचाती खुशी थी, तो फूफी के सिरे पर भीतर-ही-भीतर खदबदाता गुस्सा था। वह अर्से तक नहीं समझ पाया कि फूफी के गुस्से को मतलब क्या है ?
बहुत बाद में मास्टर आब्दीन ने मतलब समझाते हुए कहा था, “खामोश गुस्सा कहीं ज्यादा खतरनाक होता है। तेरी फूफी चोटिहल नागिन है, उससे सावधान रहना !””
उस दिन के बाद वह फूफी से सावधान रहने लगा था। वह सावधानी सचमुच काम आई थी। रात के गहरे सन्घ्नाटे में फैजल आगबबूला हो फूफी से कह रहा था, “तू कह तो स्साले इस छोकरे का किस्सा ही खत्म कर देते हैं ?”
“नहीं !” फूफी ने विरोध किया था, “तुझे मेरी कसम ! तू ऐसा कुछ नहीं करेगा ।”
“क्यों ?” फैजल भड़का था।
“सब्रसे काम ले, फैजल, सब्र से ।” फूफी ने उसे प्यार से समझाया था, “तुझे आम खाने से मतलब है, या पेड़ गिनने से ?”
उस रात उसने जिसे महज मुहावरा समझा था, वह एक खतरनाक खेल का आगाज था, वह बात उसे बहुत बाद में समझ आई थी। जब तक वह खेल के नियम समझ पाता, तब तक खेल अपने अंजाम पर पहुँच चुका था। वह खेल के बाहर, सिर्फ एक तमाशबीन होकर रह गया था।
खेल की शुरुआत फूफी ने की थी, “लालचंन्द, हाथ तंग चल रहा है, कुछ मदद कर।”
“फोकट में मदद कब तक चलेगा, जैनुल ?” लालचन्द नशे में था।
“क्या करूँ, छोकरा सब कुछ समझने लगा है।” फूफी ने लाचारी जताई थी।
“बोल, हमेशा के लिए रास्ते से हटा दूँ उसे ।” लालचन्द की ठंडी आवाज लपलपाई थी।
“नहीं !” फूफी ने पासा फेंका था, “छोकरे को नहीं। हटाना ही है तो मास्टर आब्दीन को रास्ते से हटा। वही खुराफात की जड़ है।”
“लेकिन !” लालचन्द हिचकिचाया था, “यह काम रिस्की है…अकेले मुमकिन नहीं।!
“फैजल है न ! उसे साथ ले लो।” फूफी ने सुझाया था।
वह बदहवास भागता हुआ मास्टर आब्दीन को खोजने लगा था। मास्टर आब्दीन अपनी कोठरी में नहीं था। ताला लटक रहा था उसके दरवाजे पर। वह हताश-हॉफता कोठरी के बाहर दरवाजे से लगकर रात-भर बैठा रहा था।
सुबह मास्टर आब्दीन की लाश गली के उसी नुक्कड़ पर मिली थीं, जहाँ एक दिन रोककर मास्टर आब्दीन ने उससे पूछा था, “पढ़ेगा, तू ?”
मास्टर आब्दीन की लाश देखकर सकते में आ गया था वह। उसके होश गुम हो गए थे। कोई गहरी चीख उसके भीतर घुट कर रह गई थी।
मास्टर आब्दीन की लाश को घेरे खड़ी भीड़ में फैजल भी था। लालचन्द भी था।
उस पर नजर पड़ते ही फैजल उसके करीब आया था और उसकी बाँह पकड़कर खींचते हुए बोला था, “तू यहाँ क्या कर रहा है ? भाग, जल्दी से भाग।”
उस दिन से भागता रहा है वह ! बदहवास साए की तरह अपने-आप से भागता रहा है। पहले माँ, फिर बाप और उसके बाद मास्टर आब्दीन की मौत। तीन-तीन लाशों के ताबूत लिए कहाँ-कहाँ नहीं भागा है वह ?
“इन लाशों को दफना क्घ्यों नहीं देता, तू ?” उसकी बदहवास भागम-भाग देख उस्ताद जयराम ने टोका था।
“फिर मेरे पास बचेगा ही.क्या ?” उसने उल्टा सवाल किया था।
“तेरा वजूद !” उस्ताद जयराम ने समझाया था, “अपने वजूद से बड़ी कोई चीज नहीं ।”
उस्ताद जयराम ट्रेनिंग के दौरान बार-बार एक ही जुमला दुहराता “ख़ुद का वजूद बचाना हो तो दुश्मन का वजूद खत्म कर दो।!
वह ऐसा नहीं कर पाया थां। अपना वजूद बचाने के लिए उसने दुश्मन का वजूद खत्म करने से इनकार कर दिया था। फौज का नियम तोड़ा था उसने द्य एक फौजी होकर भी नहीं समझ पाया था दोस्त और दुश्मन का अन्तर। .
“यह कैसा मोर्चा है, भाई ? यहाँ कौन दुश्मन है हमारा ?” कर्फ्यूग्रस्त शहर के सन्घ्नाटे में डूबी सड़क पर गश्त लगाते हुए उसने अपने एक फौजी साथी से पूछा था।
“दंगाई देश के, समाज के दुश्मन होते हैं।” उस फौजी ने रटी-रटाई सूक्ति उँड़ेल दी थी।
“ये दंगाई देश में, समाज में आते कहाँ से हैं ? इन्हें लाता कौन है ?” उसने तल्खी से पूछा था।
फौजी साथी चुप लगा गया था, शायद इस सवाल का उसके पास कोई जवाब नहीं था।
अचानक कर्फ्यू के कलेजे से चिपटा सन्नाटा थर्रा गया था। संगीत की नोक पर टिकी शान्ति बारूद में बदल गई थी। आकाश धुएँ और धमाकों से भर गया था। पलक झपकते ही फौजी कवायद कहर बनकर टूटी थी और गलियों, नाकों, नुक्कड़ों चौराहों की घेरेबन्दी शुरू हो गई थी। युद्ध के मोर्चे में तब्दील शहर फौज के निशाने पर था।
डरी हुई भीड़ के पीछे राइफल ताने दौड़ते फौजी आड़ी-तिरछी जाल-सी फैली अँधेरी तंग गलियों में गुम हो जाती दहशत के साथ आँख-मिचौली खेल रहे थे, जब उनकी जद में आ गया था एक बालक। महज दस ग्यारह साल का वह बालक खेल के रोमांच से भरा मौत के मुहाने पर तन कर खड़ा था। उसके हाथ खाली थे, फिर भी आक्रामक लग रहा था वह।
सार्जेट की एँगलियाँ तनी राइफल के ट्रिगर पर जा पहुँची थीं। अगले हीः क्षण उसने छलाँग लगाई थी और उस बालक के सामने जा खड़ा हुआ था। सार्जेट जब तक कुछ समझता वह-उस बच्चे को धक्का देते हुए चीख पड़ा था, “भाग जा ! भाग जा, नहीं तो मारा जाएगा !!
उसकी इस अप्रत्याशित हरकत पर उसके फौजी साथी स्तब्ध रह गए थे। क्षण-भर को जैसे सारा दृश्य फ्रीज हो गया था। वह अपनी पीठ पर नन्हे पाँवों की धमक महसूस करता हुआ सार्जेंट की राइफल और अपने सीने के बीच दुनिया-भर के बच्चों की किलकारियाँ सुनता रहा था। ऐन इसी वक्घ्त उसके इर्द-गिर्द एक तेज धमाका हुआ था और उसके वजूद के परखच्चे उड़ गए थे।
“तूने उस बच्चे को भागने दिया, क्योंकि वह मुसलमान था।” सार्जेट का हिंस्र चेहरा बुरी तरह विकृत हो गया था। “मुझे नहीं पता, वह बच्चा हिन्दू था या मुसलमान ।” उसने निरपेक्ष भाव से जवाब दिया था।
न कोई सफाई। न कोई दलील। न कोई अदालत। न कोई अपील। सिर्फ फैसला। ताउमग्र शापित जिन्दगी जीने की सजा। अपनी आत्मा का लहू पीने को अभिशप्त।
बैरक से बाहर निकलते हुए उसे ताज्जुब हुआ था कि वह बच्चा, जिसकी माँ जन्म देते ही मर गई थी, जिसका बाप चोरियाँ करते.हुए गुजर गया था, अपना वजूद बचाने में कामयाब हो गया है। अचानक उसकी एड़ियाँ एक-दूसरे से टकराई थीं और उसने उस्ताद जयराम को आखिरी सैल्यूट ठोंका था, “उस्ताद, ठीक कहते थे तुम, खुद का वजूद बचाना हो तो दुश्मन का वजूद खत्म करना ही पड़ता है।
आखिरकार घर लौट आया था वह ! घर में फूफी की लाश मिली थी। लाश पर मव्खियाँ भिनभिना रही थीं। चींटियाँ रेंग रही थीं। पता नहीं कब मरी थी फूफी ? पता नहीं कब से सड़ रही थी उसकी लाश ? लाश को एकटक निहारते हुए उसके सीने में एक ठंडी आह अटक गई थी-फूफी किससे बदला लेती रही सारी उम्र ? खुद से या खुदाई से ?
फूफी की लाश उठाने कोई नहीं आया था। उसने फैजल को भी आवाज दी थी। लालचन्द को भी पुकारा था। लेकिन एक बदजात औरत की मैय्यत के क्घ्या मायने ? वह फूफी की लाश ठेले पर लादकर कब्रिस्तान ले गया था।
कब्र की मिटघ्टी खोदते हुए कब्रिस्तान के बेलदार ने आदतन उसे तसल्ली दी थी, “यूँ ही खत्म हो जाता है एक दिन सबका वजूद ।”
सहसा उसे लगा था, बेलदार ने फलसफा नहीं फूफी की हकीकत समझाई हो उसे। तो इस तरह लड़ती रही फूफी अपने वजूद की लड़ाई ? पहली बार फूफी के लिए गहरी उदासी से भर गया था वह।
उस शाम कब्रिस्तान से लौटने तक वह किस्से में तब्दील हो चुका था।

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अवधेश प्रीत

एमए( हिन्दी) कुमायूं विश्वविद्यालय नैनीताल ।
पुस्तकें: हस्तक्षेप, नृशंस, हमजमीन, कोहरे में कंदील, चांद के पार एक चाभी, मेरी चुनी हुई कहानियां,अथ कथा बजरंगबली कहानी संग्रह और अशोक राजपथ, रुई लपेटी आग उपन्यास प्रकाशित.
दैनिक हिन्दुस्तान( पटना) में दैनिक व्यंग्य काॅलम लेखन। सैकड़ों लेख , रिपोर्ट, टिपण्णियां और समीक्षाएं विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
सम्मान: बनारसी प्रसाद भोजपुरी कथा सम्मान( हिन्दी) ,अ.भा. विजय वर्मा कथा सम्मान, मुबंई, सुरेन्द्र चौधरी कथा सम्मान, फणीश्वरनाथ रेणु कथा सम्मान ।
संपर्क: 8877614422/ 9431094596
avadheshpreet950@gmail.com

 


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