मीर : आपबीती से जगबीती तक

-लीलाधर मंडलोई

गयी वो बात कि हो, गुफ़्तगू तो क्यूं कर हो
कहे से कुछ न हुआ फिर कहो तो क्यूं कर हो

अपनी बात रखने के पहले ,मीर साहब की ज़िंदगी से, इक छोटा-सा फ्लैशबैक-

मीर के पुरखे सऊदी अरब से अपने परिवार और सामान सहित दक्षिणी भारत की सरहद पर पहुंचे थे।यह तब उस दौर का बेहद कठिन विस्थापन था।उसमें जो झेलना पड़ा वह वर्णन से परे है। अहमदनगर गुजरात में पड़ाव।परदादा बीमार पड़े और दुनिया से कूच कर गये।दादा जिंदगी की तलाश में काफ़िला लिए भटकते रहे। अकबराबाद, ग्वालियर और दीगर रास्तों की मुसीबतों को पार करते और ठिकाना न बना जाते,इस ज़द्दोजेहद में उम्र के पचासवें साल में ,उनका इंतक़ाल हो गया। उनके दो बेटे थे।बड़े को मानसिक बीमारी थी, वे छोटी उम्र में चल बसे।छोटे, मीर के अब्बा थे जो दरवेश सिफ़त इंसान थे।वे एकांत में तप करने चले गये।मीर की तब कोई बड़ी उम्र न थी। पिता ने मीर को सिखाया –

-संसार में सब कुछ प्यार की अभिव्यक्ति है।
-आग इश्क़ की तपन है।
-पानी इश्क़ का बहाव है।
-मिट्टी इश्क़ का ठहराव है।
-और हवा उसकी व्याकुलता है।
-मौत इश्क़ की मस्ती और ज़िंदगी उसकी होशियारी है।

आगे कहा-बेटे, ये संसार एक हंगामे के शोर शराबे के सिवा कुछ नहीं, तुम्हें चाहिए इससे मुंह मोड़े रहो।
अपना मुंह उसकी ओर करो,संसार जिसका दर्पण कहा जाता है।

सो मीर के मानस की निर्मिति इसी भक्ति की ज़मीन पर हुई। और एक दिन पिता अचानक घर छोड़ लाहौर चले गये।वहां से दिल्ली।यानी ताउम्र की खानाबदोशी।दरवेशी ज़िंदगी का तप।चचा भी ख़ुदा की राह पर।बस दरवेशों के आस्ताने खोजना और चक्कर लगाना। चचा और पिता भी दुनिया छोड़ गये। फिर मीर भी, बुजुर्गों की नसीहतों और रास्तों पर रहे । रोजी रोटी की फिराक में ताउम्र दौड़ते रहे।जैसे हिंदी कवि मुक्तिबोध। तकलीफ़ और तकलीफ़। दर-बदरी की ज़िंदगी।जैसे निराला।और दरवेशी मन लिए भटकते नागार्जुन।विस्थापित होते रहना ,मीर की ज़िंदगी हो गयी। उन्हें न कोई ढंग का काम मिला,न सुकून।उनका एक शेर-

*जबसे आंख खुली हैं अपनी ,दर्दो-रंजो-ग़म देखे
इन ही दीदए -नमदीदों से क्या-क्या हमने सितम देखे

*हम जानते हैं कि भक्ति काल के कई कवि भी ऐसे ही हालात में जिए। यानी यह सिर्फ़ अफ़साना नहीं है। एक
सोची-समझी राह।ज़माने या नसीब से कोई शिकायत नहीं।हां ! स्वाभिमान से कोई समझौता नहीं।

जो शेर मैंने ऊपर लिखा है।उसकी शुरुआत की पंक्ति है-जबसे आंखें खुली हैं।
यह मेरी आपबीती की आने वाली किताब का शीर्षक है।
इसमें मीर साहब से अपनी मुहब्बत का इशारा है। दरअसल रु सियाह मीर ही हमारे आदर्श इसलिए हैं कि उनका शायर कठिन संघर्षों में जिया। एक आम इंसान की तरह और जिनके इश्क़ की और फ़ाकामस्ती की ,दूसरी मिसाल नहीं मिलती ।मुहब्बत,करुणा और इंसानियत।ये ही शायरी के क्लासिकल तत्व हैं,ऐसा हम पढ़ने-लिखने वाले सोचते हैं।और मीर साहब में ये तीनों तत्व हैं।और उनकी पोएट्री में पांचों तत्व,जिनसे इंसान बना।वे अपने लिखे में पेड़-पौधों,दरख्तों,दरियाओं,समंदरों,आसमानों,पहाड़ों, पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं की बात करते ,आज भी मौजू आदिवासी दर्शन के हमबगल दिखते हैं।जो कायनात को बचाने का अकेला उपाय नज़र आता है।

-उनकी कविता फ़कीराना रंगो-आब लिए है।जो है ,वही है। कास्मेटिक्स के बिना।इल्म है पर उसका साज-सिंगार नहीं। ज़िंदगी के सफ़र में जो अनुभव,शब्द,भाषा के ज़मीनी रंग मिले,वे उन्हें बड़े अर्थों में व्यंजना देते रहे।ये शब्द समाज के थे। भावनात्मक के साथ वैचारिक थे।और उनमें रोज़मर्रा वाला हुस्न था।
मीर के शब्द जब कविता में आते हैं तो वे हमारे लोक की यादों के रास्ते आकर चमत्कार बन जाते हैं। -जी,टुक,किसू,कभू , ढब,कुढब,छछंद ,भख,तहदारी,साहब,डाढ़ी,यां,वां,कीकर,बगुला,सदरंग,लगाव,
आईयां,कोली,दारु ,बेजा जैसे हज़ारों शब्द हैं ,जो लोक के पानियों में चमकते ,मानियों लिए साकार होते हैं। वे शब्दों के अर्थ -रंग और आब लिए आते हैं-
# रंगे -बेरंगी जुदा तो हैं वले,
आब सा हर रंग में शामिल हैं मियां

बस एक-एक पंक्ति सुनें और नये जादुई सच को जानें-

# जामे खूं बिन नहीं मिलता है हमें सुब्ह को आब।
#आंखें हों तो ये चमन आईनए -नैरंग है।
#भीगे से तेरा रंगे हिना और भी चमका।
# वस्ल में रंग उड़ गया मेरा ।
मीर की अभिव्यक्ति के हज़ार रंग हैं।कहने के सैकड़ों अंदाज़ हैं। हर मूड की इमेज़ है। व्याख्या मुश्किल।
इसे अपनी , संकेतों में काम चलाने की असफल कोशिश मानिए।
अब दो एक बातें और-

* मीर साहब कहते हैं-
अब हौसला करे है हमारी ही तंगियां।जाने भी दो बुतों के तईं, क्या ख़ुदा हैं ये।

मीर में अथाह पीड़ा है और बगावत का अंदाज़ भी।वे ख़ुदा से सवाल करने का हौसला रखते हैं।
मीर का मर्तबा बड़ा है । मीर में भाषा के बेतकल्लुफ़ प्रयोग मिलते हैं ,जिनकी अभी चर्चा की। ऐसा ही हमारी खड़ी बोली में हैं। उसमें अनेक भाषाओं के शब्द घुल -मिल गये हैं।
मीर फारसी,प्राचीन उर्दू और प्राकृत के सहमेल से रेख़्ता को, अपने पांवों पर खड़े करने वाले , पहले शायर हैं।यह बात हम ,अपनी तरह से भारतेन्दु में पाते हैं।वे न होते तो खड़ी बोली न होती।मीर और भारतेन्दु सिर्फ़ शायर ही नहीं हैं बल्कि वे भाषा निर्माण के नायाब उदाहरण हैं। दोनों ने सही वक़्त और ज़रुरत के समय भाषा के लिए,क्लासिकल हक़ अदा किया। अभिव्यक्ति की निगाह से ग़ालिब मीर के रास्ते पर चलते दिखाई देते हैं। फ़िराक़ साहब भी कहते हैं ,जब मीर और ग़ालिब में बतौर आइडियल चुनाव करना हो ,तो उनके लिए वे मीर होंगें।
मीर में जिंदगी के रोज़मर्रा के हवाले और दृष्टांत अर्थबहुल हैं।उनके यहां तंगियां, ज़िल्लत,फक्कड़पन , ऐंद्रिक आनंद और आत्मविस्मृति के जितने यथार्थ चित्रण हैं,वैसे कहीं और नहीं मिलते।और हां! उनका कहना, व्यंजना और उक्ति वैचित्र्य में जुदा आश्चर्य पैदा करता है। देखिए –

*जहां में मीर से काहे को होते हैं पैदा
सुना ये वाक़िआ जिनने ,उसे तअस्सुफ़ था।

मीर के दुर्भाग्य की यह बयानी गहरी व्यंजनामूलक है।मौत का कहीं उल्लेख नहीं और पूरी बात एक शब्द- वाक़िआ में , उन्होंने ऐसे कहा कि उसी एक बारे में है। तिस पर ,वैसा सुनाई नहीं पड़ता।रंग गहरा हो जाता है।यहां आर्ट और क्रेफ्ट का कमाल है।मीर ,रोज़मर्रा की ज़ुबान को ,जिस तरह शायरी की ज़ुबान बना देते हैं,वह सिर्फ़ उनके नाम है।और हां!वो ज़ुबान विचार से महरूम नहीं।वह आज में धड़कती और सोचने पर मजबूर करती है। कैफियत का ऐसा सादा सिग्नेचर ,ऐसा इज़्हारे -अंदाज़,कोई और हासिल न कर सका।

* अब तंग हूं बहुत मैं,मत और दुश्मनी कर
लागू हो मेरे जी का ,उतनी ही दोस्ती कर

या फिर ये बात

*दिल वो नगर नहीं ,कि फिर आबाद हो सके
पछताओगे सुनो हो ,ये बस्ती उजाड़ कर

देखिए,यहां आम आदमी की सी बातें हैं।इन अशआरों में दुख है,सटायर है ,चुभन है ,अपने पर भरोसा भी है तो
उसकी शान भी है।बस इल्म का घमंड नहीं।यह बात हमारे दिल की सी लगती है।

और यह बात भी हम सरीखों के लिए बड़ी है कि मीर हमारी तरह रोते-किलसते हैं,हमारी तरह सगामन ग़रीब हैं।फटेहाली में भी मस्त । दरवेशी अमीर।और यह शायरी में खूब दिखता है। इतने पास और इतनी दूर से भी, कि किसी और से जानने की ज़रूरत पेश नहीं आती।मीर सूक्तियों,मुहावरों , कहावतों की तरह याद में बने रहते हैं।वे लोक की टेरती पुकारों की पुकार हैं।जिनमें हम पले-बढ़े।जिस तरह की कबीरी भाषा में ,मेरी आंख खुलीं-मीर में सुनाईं देती है-

*तस्बीहें टूटीं,फ़िरके मुसल्ले फटे-जले
क्या जाने ख़ानक़ाह में ,क्या मीर कह गये
और
*शाईर हो मत चुपके रहो अब चुप में जानें जाती हैं
बात करो अब्यात पढ़ो कुछ बैंते हमको बताते रहो

मीर ज़माने की सच्चाइयों की गहरी अनुभूति वाले और रोशन दिमाग शायर हैं।वे आपबीती को जगबीती में बदल देते हैं।वे ज़िंदगी और शायरी में ,पवित्र दीवानगी की मन: स्थिति में होते हैं।मीर साहब का एक शेर याद
है-
* कहता था किसी से कुछ,तकता था किसू का मुंह
कल मीर खड़ा था यां,सच है कि दीवाना था

यह एक ध्यान स्थिति, आध्यात्मिक चिंतन का दृश्य है।जो भारतीय ऋषियों में रहा है।वे हमें – एक साझा संस्कृति में बिनबताये ले जाते हैं।मीर की शायरी में सौंदर्य विवेक,जीवन के दुखों से आकार लेता है।और उसमें
पराजय का भाव नहीं है बल्कि आग – चिंगारियों की शक़्ल में है और नैसर्गिक प्रतिरोध भी ।जैसा मैंने पहले इशारा किया। मीर की शायरी का केंद्र ऊपरी तौर पर ,अपने भावों की तरफ़ लगता है, दरअसल वह सृष्टि में खुलता है।वहां प्रेम एक महान सरोकार है।ग़मे जानां से ग़मे दौरां में आकाश होता हुआ, जीवन के रहस्यों को उजागर करता हुआ। वह कल्चरल है और क्रिटिएव।वह तत्कालीन शायरी में वर्णित दैहिक और भौतिक प्रेम को ट्रांसेड करता है, इसलिए वह अधिक मानवीय है।

ज़रा ये दो पंक्तियां सुनें –
*
दिल की तह की ,कही नहीं जाती, नाज़ुक हैं असरार बहोत
अंछर तो है इश्क़ के दो ही लेकिन है बिस्तार बहुत

सो मीर के बिस्तार को हम जनाब शीन काफ निज़ाम और डा जानकी प्रसाद शर्मा,अपने वरिष्ठ लेखकों से समझने आए हैं।

मीर को हम जितना टुक समझ पाए ,उतना भी न कह पाए कि उनका इतना बड़ा केनवस है। केनवस अमूर्त पेंटिंग सा है-
*
आलम-आलम इश्क़ो जुनूं हो, दुनिया -दुनिया तुहमत है
दरिया -दरिया रोता हूं मैं,सहरा सहरा वहशत है

साहित्य अकादमी का बहुत – बहुत शुक्रिया कि हिंदी के इस अदने से लेखक को ,मीर साहब पर बोलने का मौक़ा दिया।
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लीलाधर मंडलोई
1953 (छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश)


प्रकाशन
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अनुवाद -अनातोली पारपरा(रूसी), शकेब जलाली (उर्दू) सहित कई विश्व कवियों के अनुवाद,
संकलन- अंदमान निकोबार की लोक कथाएं, बुंदेली लोक गीतों का संग्रह -बुंदेली लोकरागिनी

चित्रकला प्रदर्शनी
At Bharat Kala Bhawan,Banaras (BHU),Bharat Bhawan  Bhopaland Expressio Jabalpur

 


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