ख़्वाहिशों के पैबन्द…
– तेजेन्द्र शर्मा
ऐसे हादसे मेरे साथ ही क्यों होते हैं…
अच्छी भली ज़िन्दगी चल रही थी। अचानक माइकल मेरे जीवन में कहाँ से चला आया? अगर आया भी था तो मुझे अच्छा क्यों लगा?… अगर अच्छा भी लगा तो मुझे उससे प्यार क्यों हुआ?
मैं बचपन से आयरिश लोगों का मज़ाक उड़ाया करती थी। उनकी सोच… उनकी भाषा… उनका जीने का ढंग… कुछ भी तो मुझे अच्छा नहीं लगता था। मैं तो पैदा भी लंदन में हुई और पढ़ी लिखी भी यहीं…
वैसे पढ़ा तो माइकल भी वारिक युनिवर्सिटी से था। हम दोनों ने पढ़ाई भी तो एक ही विषय में की थी – थियेटर! नाटकों के बारे में पढ़ते-पढ़ते जीवन भी एक नाटक ही बन गया। ऐसा तो बस फ़िल्मों में होते देखा था। कभी सोचा भी नहीं था कि मेरे जीवन में भी फ़िल्मी सिचुएशन आ जाएगी। एक रिश्ता बनने से पहले ही संबंध तक टूट गये।
टूटन तो पूरे शरीर, आत्मा औऱ व्यक्तित्व में फैल गयी है। सोआस युनिवर्सिटी का वो सेमिनार मेरे जीवन में न जाने कैसे तूफ़ान ले आया। 290 सीटों वाली ब्रूनाई गैलरी पूरी तरह से ठसाठस भरी थी। पूरे यू.के. से डेलिगेट्स आये थे। माइकल आज ब्रेख़्त के नाटकों पर बात करने वाला था।
ब्रेख़्त मेरा फ़ेवरिट नाटककार तो नहीं है। मगर एक ज़रूरी नाटककार तो है ही। दरअसल मुझ में एक ख़ास आदत है। जो भी नाटककार मुझे प्रिय नहीं होते, मैं ज्ञानवर्धन के चक्कर में उन पर दिये गये सभी लेक्चर सुन लेती हूं… नोट्स बना लेती हूं। अगर कहीं बात करनी पड़े तो सबके सामने बेवक़ूफ़ न सिद्ध हो जाऊं।
मुझे तो माइकल के लेक्चर से ही पता चला कि ब्रेख़्त केवल 58 वर्ष की ज़िन्दगी जिये। वैसे ‘मदर करेज एण्ड हर चिल्ड्रन’ नाटक तो मैंने वेस्टएण्ड में देखा था। मगर इसके अलावा कुछ ख़ास नहीं जानती थी। माइकल तो ‘मदर करेज’ के अतिरिक्त ‘दि थ्री पेनी ओपेरा’, ‘लाइफ़ ऑफ़ गैलिलियो’, ‘दि कॉकेशियन चॉक सर्कल’ जैसे सभी नाटकों पर बोल रहा था।
जैसे जैसे माइकल की बात आगे बढ़ती जाती मेरी रुची ब्रेख़्त के नाटकों के साथ जुड़ती जा रही थी। वह ब्रेख़्त के ’एपिक थियेटर’, ‘ए-इफ़ेक्ट’, ‘एलिनियेशन थियोरी’ पर पूरे अधिकार से बात कर रहा था। मुझे अपनी बातों के साथ बहाए लिये जा रहा था माइकल। वह ब्रेख़्त के यथार्थवाद की बात कर रहा था और मेरे भीतर भावनाओं के समुद्र की लहरें ऊंची ऊंची उठ रही थीं।
माइकल के भाषण के दौरान, थोड़ी थोड़ी देर बाद, तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दे रही थीं। उसकी आवाज़ ख़ासी गहरी थी। उस भारी आवाज़ के साथ ब्रेख़्त के नाटकों के संवाद भी सुना रहा था। पुरुष पात्रों, नारी पात्रों और बच्चों के संवाद पूरे ड्रामाई अंदाज़ में प्रस्तुत कर रहा था।
मैं प्रतीक्षा कर रही थी लंच ब्रेक की। तय कर लिया था कि इस ब्रिलिएंट स्पीकर से जान-पहचान बनानी ही है। अपनी बेहतरीन त़करीर के बाद ज़ाहिर है कि माइकल सुंदरियों से घिरा हुआ था। शर्माता हुआ प्रशंसा और अभिनंदन बटोर रहा था। पूरी तरह से कैज़ुअल कपड़े पहने था। डेनिम की जीन्स, हल्के नीले रंग की कमीज़ और उस पर नीला ब्लेज़र। कुछ खिलाड़ी जैसा लग रहा था। बाल कुछ बेतरतीब से थे… मगर बहुत ही आकर्षक लग रहे थे।
मैंने जल्दी से एक रेड वाइन ख़रीदी और माइकल के निकट पहुंच गयी, “माइकल, मुझे पूरा विश्वास है कि लंच के साथ आप एक ग्लास रेड वाइन का ज़रूर पसन्द करेंगे।”
माइकल मेरी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगा। अब जब वह मुझे जानता ही नहीं था तो ऐसी ही नज़रों से तो देखता। मैं भी बिंदास बोली, “अरे पहले गिलास तो पकड़िये। फिर अपना परिचय भी देती हूं।”
माइकल ने थैंक्स करते हुए वाइन गिलास पकड़ लिया। वैसे मुझे इस बात का ज्ञान बिल्कुल भी नहीं था कि माइकल को रेड वाइन अच्छी लगती है या फिर व्हाइट वाइन। बस तुक्के से रेड वाइन ले गयी। कुछ ऐसा महसूस करने लगी थी कि माइकल मेरा गहरा दोस्त बनने वाला है। रेड वाइन की तरह मेरे जीवन में भी कुछ रंगीन होने वाला है… मैं अभी तक माइकल की बातों की लहरों के साथ बहे जा रही थी… एक एक शब्द जैसे दिल के हर तार को छू रहा था।
“वैसे मेरा नाम सैली है… सैली स्मिथ। मैं आज अंतिम सेशन में शेक्सपीयर के नारी पात्रों पर लेक्चर करने वाली हूं।… ओफ़िलिया, डेस्डिमोना, कॉर्नीलिया, बिएंका… वगैरह वगैरह…”
“अरे आप को देख कर मैं तो समझ रहा था कि आप शायद अभी किसी कॉलेज में पढ़ती होंगी। अब तो मुझे शाम तक रुकना पड़ेगा। मैं तो सोच रहा था कि लंच के बाद निकल जाऊंगा। मुझे वापिस ऑक्सफ़र्ड जाना है।”
मुझे शरमाना चाहिये था… मगर मैं भी पूरी बेशरम हूं। या फिर मुझे कॉम्पलिमेण्ट लेना ही नहीं आता। अपनी बेशरमी जारी रखते हुए, “मैं आपके लिये लंच प्लेट करके ले आऊं माइकल?” वैसे मुझे लग रहा था कि मैं किसी टीनेजर की तरह व्यवहार कर रही थी। मगर माइकल का जादू ही कुछ ऐसा था जो मुझ से ग़लती पे ग़लती करवाता जा रहा था।”
मैं कोई ऐसी लड़की नहीं हूं जो लड़कों के पीछे भागती फिरती हूं। माइकल तो मुझ से उम्र में भी कुछ बड़ा ही दिख रहा था। मगर मुझे उसमें कुछ ऐसा विशेष दिखाई दे रहा था जो मेरे हमउम्र लड़कों में कभी दिखाई न देता।
मैं कोई वर्जिन नहीं हूं। पंद्रह वर्ष की आयु में स्कूल में ही सब हो चुका था… मगर अनुभव बहुत ही घटिया था। लेसली को तो कुछ करना भी नहीं आता था और मेरा कौमार्य एक बेवक़ूफ अनुभव में ज़ाया हो गया। ख़ासा लिसलिसा सा रहा सबकुछ। मगर माइकल को देख कर मेरी भीतर जो आग लगी है… वो माइकल के साथ एक हो जाने से ही अपनी तपिश की पराकाष्ठा पर पहुंच पाएगी। सच तो यह है कि मुझे आज तक कभी किसी भी पुरुष के बारे में ऐसा महसूस ही नहीं हुआ जैसा कि मैं माइकल के बारे में कर रही थी।
माइकल ने मुस्कुराहट के साथ मेरी ऑफ़र को ठुकरा दिया और स्वयं आगे बढ़ कर अपने लिये सलाद और ग्रिल्ड चिकन प्लेट कर लिया। वह खड़ा हो कर भी किस नफ़ासत से अपना भोजन खा रहा था कि मैं केवल उसे निहारती रह गयी। मुझे याद ही नहीं रहा कि यह मेरा भी लन्च टाइम है और मुझे भी इसी समय में अपना भोजन करना है।
मुझे ऐसा लग रहा था जैसे ब्रह्मांड की सभी शक्तियाँ मुझे कह रही हों कि यही है वह व्यक्ति जिसका तुम्हें इंतज़ार था। मेरे भीतर ऐसी भावनाओं का ज्वार उठ रहा था जो मुझे बार-बार समझा रहा था कि इसी आदमी के साथ मैं अपना सारा जीवन बिताने वाली हूं। माइकल की एक निगाह ने मेरे दिल को जैसे मोम की तरह पिघला दिया था। मुझे विश्वास था कि अब कायनात की सारी ताकतें मुझे और माइकल को मिलाने में हमारा साथ देंगी।
अचानक माइकल की आँखें मुझ से मिलीं, “अरे सैली तुम थियेटर की आलोचक ही हो या स्वयं अभिनय भी करती हो? वैसे तुम तो इतनी सुंदर हो कि किसी भी काल के नाटक की नायिका बन सकती हो।”
“उस आवाज़ ने जैसे मेरे दिल में मीठी मीठी घंटियां बजा दी थीं… “नहीं माइकल, मैं केवल समीक्षा और आलोचना ही लिखती हूं। मगर मेरा फ़ेवरिट पीरियड शेक्सपीयर का काल है। मुझे मार्लो, वेबस्टर बेन जॉन्सन औऱ शेक्सपीयर के समय के अन्य नाटककारों में अधिक रुचि है। मेरी हर शाम तो ग्लोब थियेटर में ही बीतती है।… कभी तुम भी आओ वहां। वहां का माहौल अलग ही होता है।”
“हाँ कुछ अनुभव तो मुझे भी है। मेरी भी कई शामें साउथ बैंक में गुज़री हैं। ऑक्सफ़र्ड में बसने का विशेष कारण यही था कि मैं साहित्य और नाटक के करीब रहना चाहता हूं। मेरी ज़िन्दगी का मक़सद बस मँच और नाटक ही हैं। मुझे नाटक में प्रयोग बहुत अच्छे लगते हैं… आकर्षित करते हैं मुझे। लुइजी पिरेंडलो और इबसन मुझे प्रिय हैं।… दरअसल ‘सिक्स कैरेक्टर्स इन सर्च ऑफ़ एन ऑथर’ मेरे सबसे प्रिय नाटकों में से एक है।”
भला लंच टाइम में इससे अधिक बातें कहां हो सकती थीं। घन्टी बजी। औऱ सब वापिस हॉल के भीतर दाख़िल होने लगे। ढीठ बन कर मैं माइकल के साथ वाली सीट पर जा कर बैठ गयी। दिल धड़क रहा था कि मैं अपना भाषण ठीक से पढ़ पाऊंगी या नहीं। सेमिनार में एक फ़ायदा तो होता है कि हमें पेपर पढ़ना होता है। इसलिये घबराहट में शब्द भूलने जैसी स्थिति नहीं पैदा होती।
हालाँकि माइकल गोरा है… मगर जब मैं अपने लेक्चर में डेस्डिमोना के बारे में बात कर रही थी तो मुझे कुछ ऐसा महसूस हुआ कि माइकल मेरा ओथेलो है… मैं भी तूफ़ानों को चीरती हुई साइप्रस के तट पर जा कर कह सकती हूं, “इफ़ इट वर नाऊ टु डाई, इट वुड नाऊ टु बी दि मोस्ट हैप्पी!”
माइकल को भी मेरा लेक्चर पसन्द आया। ऑडिटोरियम से निकल कर हम साथ-साथ चलने लगे। “सैली, मैंने तो बता दिया कि मैं ऑक्सफ़र्ड में रहता हूं। मगर तुमने नहीं बताया कि तुम कहां रहती हो।”
“मैं तो लंदन में ही रहती हूं… सबर्ब में पिन्नर… मेट्रोपॉलिटन लाइन।”
“मैं तो कार लेकर आया हूं। क्या तुम्हारा घर ऑक्सफ़र्ड के रास्ते में पड़ेगा?”
“तुम तो ए-40 से जाओगे न?… चलो यहीं कहीं कॉफ़ी लेते हैं फिर तुम निकल जाना। मुझे तो पास ही यूस्टन स्क्वेयर से मेट्रोपॉलिटन अण्डरग्राउण्ड मिल जाएगी।”
दोनों रसेल स्क्वेयर तक पैदल चल कर आ गये। थोड़ी ही दूर कोस्टा कॉफ़ी दिखाई दे गया। हम दोनों आहिस्ता आहिस्ता चल कर वहाँ पहुंच गये। मैं चाहती थी कि कॉफ़ी का बिल मैं अदा करूं। मगर माइकल नहीं माना। उसने काउंटर गर्ल से बात करने से पहले पूछा, “तुम क्या लोगी?”
“कॉफ़ी लाते… मीडियम।”… मैं घर में भी दूध में ही कॉफ़ी बनाती हूं। सुबह सुबह मशीन ऑन कर देती हूं… ‘कॉफ़ी परकोलेटर’ से कॉफ़ी पाउडर के भीगने पर जो महक घर में भर जाती है… बहुत रोमांटिक लगता है। पहली कॉफ़ी मज़े ले ले कर पीती हूं।
माइकल ने अपने लिये भी ‘कॉफ़ी लाते’ मीडियम ही ऑर्डर की। दोनों अपनी-अपनी कॉफ़ी लेकर एक मेज़ पर पहुंच गये। मैं तो कॉफ़ी में चीनी नहीं लेती मगर माइकल ने ब्राउन शुगर के दो पैकेट उठा लिये। मैं माइकल के एक एक एक्शन को पूरे ध्यान से देख रही थी। कितनी नफ़ासत से हर काम करता था। उसकी उंगलियां भी बहुत आर्टिस्टिक थीं। कॉफ़ी में चीनी मिलाना भी एक कलात्मक क्रिया हो सकती है… आज पहली बार पता चला था।
माइकल से पूछ ही बैठी, “माइकल, तुम्हारे घर में और कौन-कौन है?”
“मैं तो अकेला ही रहता हूं। माँ-बाप सब डबलिन के एक सबर्ब में रहते हैं। एक बहन भी है। वह वाशिंगटन डी.सी. में रहती है। उसका पति वहां सरकारी नौकरी करता है।”
मैं तो मन ही मन ख़ुश हो रही थी कि माइकल शादीशुदा नहीं है। मैं कुछ कह पाती उससे पहले माइकल ने ही पूछ लिया, “तुम क्या अपने पेरेंट्स के साथ रहती हो?”
“अब मैं इतनी भी बच्ची नहीं हूं। मैं एडल्ट हूं… वैसे तुम्हारी तरह मैं भी अकेली ही रहती हूं।” बातचीत करते कब घन्टा भर निकल गया, कुछ पता ही नहीं चला। जानती थी कि माइकल को वापिस ऑक्सफ़र्ड तक ड्राइव करना है। जी चाह रहा था कि आज की रात माइकल मेरे फ़्लैट पर ही बिताए। मगर मैं सुबह अपने फ़्लैट को ठीक से साफ़ करके भी नहीं आई थी। ऐसे में माइकल को साथ कैसे ले जाती… कितना ग़लत इंप्रेशन पड़ता!
“तुम से मिल कर बहुत अच्छा लगा। हम दोनों एक ही फ़ील्ड से हैं… नेचर भी मिल ही रहा है… उम्मीद है कि दोस्ती लम्बी चलेगी।”
“आमीन!”
हम दोनों उठे और एक साथ कोस्टा से बाहर निकले। वापिस कार पार्क की तरफ़ बढ़ चले जहां माइकल की कार खड़ी थी। रास्ते में चलते हुए हम दोनों के हाथ टकराए और माइकल ने आहिस्ता से मेरा हाथ पकड़ लिया।… मैं तो कब से इस पल की प्रतीक्षा कर रही थी। उसे रोकने का तो कोई कारण हो ही नहीं सकता था।… मन ही मन सोच रही थी कि जाने से पहले क्या माइकल किस करने को कहेगा… क्या मुझे नख़रा करना चाहिये… वैसे ऐसा करना तो मूर्खता ही कहलाएगा…
माइकल के पास काले रंग की मिनी कूपर कार थी। यानि कि बन्दे का टेस्ट अच्छा था। मेरे लिये संतोष की बात यह थी कि कार में पांच दरवाज़े थे। मुझे थ्री-डोर कारें बिल्कुल पसन्द नहीं हैं। इस कार में घुसना और निकलना आसान होगा। “चलो सैली, तुमको यूस्टन स्क्वेयर स्टेशन के बाहर उतार देता हूं। मुझे मॉलिबों रोड से ही जाना है।”
बिना कुछ कहे उसने यात्री साइड का दरवाज़ा खोल दिया और मैं कार के भीतर बैठने लगी। अचानक माइकल ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे आहिस्ता से गले लगा लिया। शायद उसके मन में भी वही चल रहा था जो कि मेरे। ज़ाहिर है कि दिल की धड़कन बढ़ गयी… उसने हल्के से मेरे गाल पर किस किया और कार में बैठने दिया। स्वयं ड्राइवर वाली साइड से कार के भीतर बैठ गया। दोनों ने सीट बेल्ट लगाई… एक दूसरे की तरफ़ मानीख़ेज़ अन्दाज़ से देखा और मुस्कुरा दिये।
यूस्टन स्क्वेयर आ गया… मुझे उतरना था… माइकल की तरफ़ देखा… उसने कार साइड में खड़ी की और मेरी तरफ़ देखा, “मेरा ख़्याल है कि तुम्हारा मोबाइल नंबर माँग ही लेता हूं… वरना हम दोनों एक दूसरे से बात कैसे करेंगे?”
हड़बड़ी में गड़बड़ी करने जा रही थी। मुझे तो कोस्टा कॉफ़ी में ही मोबाइल नंबर ले लेना चाहिये था। मगर कहीं अच्छा भी लगा कि माइकल को भी मेरे फ़ोन नंबर की चाह थी। मैंने अपना मोबाइल निकाला और माइकल से उसका नंबर पूछा, “तुम अपना नंबर बताओ। मैं तुम्हें कॉल करती हूं… नंबर अपने आप आ जाएगा।…” माइकल अच्छे बच्चे की तरह बात मान गया। वो नंबर बोलता गया… मैं की-पैड पर उंगलियां चलाती गयी।… अचानक माइकल के फ़ोन की घन्टी बजी… और मैंने कहा, “लो, अब मेरा नंबर तुम्हारे पास पहुंच गया।”
माइकल मुस्कुरा दिया। और अब मेरी बारी थी। मैंने उसकी बाईं गाल पर हल्का सा किस किया और मन मार कर कार से उतर गयी…
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं चल रही हूं या उड़ रही हूं… जब आपको अपने सपनों का राजकुमार अचानक कहीं मिल जाए तो भला आप सहज कैसे रह सकते हैं?… मैं पुराना गीत गुनगुना रही थी… “आई जस्ट कॉल्ड टु से आई लव यू… एण्ड आई से इट फ़्रॉम दि बॉटम ऑफ़ माई हार्ट!”
अपने ही फ़्लैट में घुसते हुए लग रहा था जैसे किसी अन्जाने घर में जा रही हूं। घर की दीवारों तक को नहीं पहचान पा रही थी। अचानक सब कुछ बदल गया था। घर तो वैसे ही बिखरा-बिखरा था, अब तो जी चाह रहा था कि सब कुछ उठा-उठा कर पटक दूं…
हैरान भी थी कि मुझ में तो जल्दी से किसी पुरुष के प्रति रुचि जागती ही नहीं, फिर यह मुझे क्या हो रहा है। शायद इसीलिये कहते हैं कि प्रेम किया नहीं जाता… बस हो जाता है। सवाल तो यह है कि क्या माइकल मुझे सिर्फ़ अच्छा लग रहा है या मुझे प्यार हो गया है।
और रात को ठीक नौ बज कर बीस मिनट पर फ़ोन भी आ गया… माइकल का नाम मोबाइल में चमक रहा था… क़रीब दस सेकण्ड तक उस नाम को निहारती रही। फिर कॉल रिसीव की, “हैलो!”
“सैली, मैंने सोचा कि तुम्हें बता दूं कि मैं ठीक से ऑक्सफ़र्ड पहुंच गया हूं। और हाँ, तुम्हें मिलने के बावजूद ठीक से पहुंचा।… कुछ कुछ घायल सा महसूस करता रहा रास्ते भर मगर दर्द अच्छा लग रहा था।”
“तो साहब को रोमांटिक बातें करना भी आता है! मुझे तो लगा कि बस गंभीर आलोचना और थियेटर… इसके अलावा साहब को कुछ समझ ही नहीं आता।”
“अभी तो आज पहली बार मिले ही हैं। इतने ड्राई भी नहीं हैं हम… मगर हमारा जीवन का नियम है आहिस्ता आहिस्ता।”
“और पता चला कि आपकी आहिस्ता-आहिस्ता में सैली को कोई और ही ले उड़ा।”
“अब तो ऐसा संभव नहीं लगता। मुझे आज एलविस प्रेसली का एक गीत याद आ रहा था।”
“अरे, तुम्हें भी पुराने गाने अच्छे लगते हैं!… मुझे भी। मैं भी जब घर आई तो स्टीवी वण्डर का गीत गुनगुना रही थी… वही, वुमन इन रेड वाला।… ‘आई जस्ट कॉल्ड टु से, आई लव यू…’ और तुम्हें कौन सा गीत याद आ रहा था?”
“वही, ‘आर यू लोनसम टुनाईट, डू यू मिस मी टुनाईट, आर यू सॉरी वी ड्रिफ़्टिड अपार्ट…”
“सच मैं सॉरी तो हूं… हम क्यों अलग हुए।… मैं कहना चाह रही थी कि रात मेरे फ़्लैट पर ही रुक जाओ।”
“ठीक है, तो मैं अभी चल पड़ता हूं…!”
“हा… हा… हा… तुम मज़ाक अच्छा कर लेते हो।”
“नो डीयर, आई मीन इट। तुम कहो तो अभी वापिस ड्राइव शुरू कर दूंगा।”
“क्या तुम भी मुझे प्यार करने लगे हो या फिर केवल सेक्स के लिये?”
“सच तो यह है कि मुझे पहली बार कोई ऐसी महिला मिली है जिसके साथ मैं इंटेलेक्चुअली कंपैटीबल फ़ील कर रहा हूं। तुम औरों से पूरी तरह अलग हो।”
“माइकल सच तो यह है कि मैं जब से तुम्हें मिली हूं… तुम्हारी दीवानी हो गयी हूं।”
“यह बताओ की अगले वीकेण्ड में तुम क्या कर रही हो।… अगर फ़्री हो तो लेक डिस्ट्रिक्ट चलते हैं। शुक्रवार शाम को चलेंगे। शुक्रवार और शनिवार की रात वहां रहेंगे औऱ रविवार दोपहर बाद वापिस।… और वहां तो वर्डस्वर्थ का घर भी है… आराम से बातें भी होंगी… और…”
“बातें तो ज़रूर होंगी… मगर यह और… और भी होगा न?”
और हम दोनों खिलखिला कर हंस दिये…
“सैली, तुमको लेने आ जाऊं…?”
“मैं ज़रा चेक कर लूं कि वीकेण्ड पर कुछ कर तो नहीं रही।… मगर तुम्हें आने की ज़रूरत नहीं है। मैं मेट्रोपॉलिटन से यूस्टन स्कवेयर चली जाऊंगी और फिर यूस्टन से विंडरमीयर। तुम टाइम फ़िक्स कर के मुझे विंडरमीयर से उठा लेना। वहीं कहीं बेड एण्ड ब्रेकफ़ास्ट में डबल रूम ले लेंगे।”
“पहले तुम कंफ़र्म करो। कमरा तो मैं ऑनलाइन बुक कर लूंगा।… अब तो बस शुक्रवार का इंतज़ार है!”
मैंने कहने को तो कह दिया कि चेक करती हूं कि वीकेण्ड को फ़्री हूं या नहीं। मगर सच तो यह है कि मुझे कहाँ परवाह है किसी और काम की… सुबह सुबह ही अपना ओवरनाइट ट्रॉली बैग तैयार कर लूंगी। इन्सान प्यार में अपने आप के साथ भी कैसे मुस्कुरा लेता है! कल जाकर काँट्रासेप्टिव गोलियाँ भी ख़रीद लूंगी।… कंडोम तो माइकल लेकर ही आएगा… सोच कहाँ-कहाँ तक ले जाती है! क्या माइकल भी ऐसा ही सोच रहा होगा… कल सुबह टेक्सट कर दूंगी कि मैं फ़्री हूं। मुझे ज़्यादा उतावलापन नहीं दिखाना है।
मगर इस बार तो समय उतावला हो गया था और लगा कि मंगलवार के बाद सीधा शुक्रवार ही आ गया है… कहा जाता है कि इन्तज़ार की घड़ियां लम्बी होती हैं। मगर यहाँ तो मामला उलटा लग रहा था।
मुझे सुबह उठ कर अपनी रेलवे की टिकट भी बुक करनी थी। मैंने रात को ही चेक कर लिया था कि मुझे लंदन यूस्टन से प्रेस्टन जाना होगा और वहाँ से विंडरमीयर। यानि कि एक जगह ट्रेन बदलनी होगी।… और वहाँ भी केवल दस मिनट की प्रतीक्षा है… यानि कि समयानुसार पहुंच जाऊंगी। मैंने अपने ओवरनाइट केस में अपनी बेस्ट लाँज़री रखी… एक हल्के जामुनी रंग की और एक लाल रंग की। अपनी सी-थ्रू नाइटी भी रख ली थी… माहौल को पूरी तरह से रोमांटिक बनाने की तैयारी… मन में कहीं डर भी था कि यदि किसी काम की ज़रूरत से अधिक तैयारी की जाए तो मामला टांय-टांय फिस्स हो जाता है।
मेरी ट्रेन का समय दोपहर के ठीक एक बजे का था… वर्जिन ट्रेन… लाल रंग का पेंट लिये… मैं आज सच में ख़ुश थी। जी चाह रहा था कि बिना टिकट यात्रा करूं। जान बूझ कर कुछ ऐसा करूं जिससे मेरा पागलपन दुनिया देखे। दिमाग़ में बीटल्स का गीत गूंज रहा था… “शी हैज़ गॉट ए टिकट टु राईड… बट शी डोण्ट केयर…”
आज बीटल्स मानने वाले नहीं हैं… फिर कान में पूछ रहे हैं, “आई डोण्ट नो व्हाई इज़ शी राइडिंग सो हाई!” अब उनको कैसे समझाऊं कि मामला क्या है। वैसे कह तो मेरे ही मन की बात रहे हैं मगर कम से कम ट्रेन को चलने तो दें। जब ट्रेन चलेगी, तभी तो उसके चलने की आवाज़ के अनुसार मेरा दिल धड़केगा।
आज यूस्टन स्टेशन पर खासी भीड़ है। मैंने कोस्टा कॉफ़ी और सैण्डविच ख़रीद लिया है। ट्रेन के चलने के बाद पेट पूजा भी हो जाएगी। तीन घन्टे दस मिनट की यात्रा है। आज सुबह नाश्ता भी ढंग से नहीं कर पाई थी। बस थोड़े से कॉर्न फ़्लेक्स ले लिये थे।
विंडरमेयर लेक के किनारे माइकल के हाथों में हाथ डाले दिन भर घूमने का ख़्याल ही रोमांचित कर जाने वाला था। यूस्टन से निकल कर ट्रेन कुछ पलों के लिये ‘वॉटफ़र्ड’ में रुकी। मुझे तो ख़्याल था कि सीधी ‘मिल्टन कीन्ज़’ जा कर पहला स्टॉप होगा। मगर मुझे क्या फ़र्क पड़ता है। मैं तो अपने सैण्डविच और कोस्टा कॉफ़ी में बिज़ी थी।
एक सोच मन को बार-बार छुए जा रही थी। मुझे हैरानी भी थी कि मुझे किसी पुरुष के व्यक्तित्व ने कभी ऐसा नहीं छुआ जैसे कि माइकल ने।… डर भी रही थी इतनी अधिक आशाएं जगाने के बाद कहीं निराशा के बादल न हमारे संबन्धों पर छा जाएं। इतना आसान नहीं होता है कि सब कुछ आपकी सोच के अनुसार होता चला जाए। मिल्टन कीन्ज़ पहुंच गयी गाड़ी। रास्ते में हेमेल हेम्पस्टेड स्टेशन भी आया था।… कहीं सरसों के पीले पीले फूल हवा के झोंकों से लहलहा रहे थे तो कहीं सफ़ाई से कटी घास दिल को लुभा रही थी।
‘प्रेस्टन’ में गाड़ी बदलनी थी। शायद नॉर्दर्न लाईन की ट्रेन लेनी थी। तेज़ी से प्लैटफ़ॉर्म बदला और पहुंच गयी अपनी सीट पर। अब तो बस पचपन मिनट की यात्रा और बची थी। दिल धड़क रहा था। माइकल को बता दिया था कि ट्रेन कितने बजे विंडरमीयर पहुंचने वाली है। वैसे माइकल ने दो बार फ़ोन किया मगर मैंने ही उसे मना कर दिया कि कार चलाते हुए फ़ोन पर बात न करे। मुझे सड़क पर सुरक्षा नियमों का पालन करना आवश्यक लगता है।
‘बरबरी’ का काले रंग का रेनकोट पहने माइकल मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। बरबरी के कोट से यह तो अन्दाज़ा हो गया कि माइकल का टेस्ट ऊंचे दर्जे का है। क्ई बार मैं भी जजमेण्टल हो जाती हूं। फिर अपने को ही डाँट भी लगा लेती हूं। वैसे स्वयं भी ब्रैण्डिड चीज़ें पहनने की शौकीन हूं। सस्ते कपड़े, टायलेटरी या परफ़्यूम नहीं ख़रीद पाती। कभी भी सेल का इन्तज़ार नहीं करती। जब कुछ ख़रीदने का जी चाहता है बस ख़रीद लेती हूं। सेलफ़्रिजस या जॉन लुईस के अलावा कहीं से ख़रीददारी नहीं करती। बस अण्डर-गार्मेन्ट्स मार्क्स एण्ड स्पेन्सर से ख़रीदती हूं – सेंट माइकल के।
मैं आगे बढ़ी और माइकल के गले लिपट गयी। माइकल ने आहिस्ता से मेरे सिर पर किस किया और फिर एक हल्की सी किस मेरे होंठों पर। मेरा ट्रॉली केस पकड़ा और अपनी कार की ओर ले चला। मैं मंत्रमुग्ध उसके साथ चल रही थी। सोच रही थी कि आज उसके कोलोन का ब्रैण्ड कौन सा होगा। महसूस हो रहा था जैसे कि ‘अज़ारो’ का ‘वान्टेड’ है। पूछना चाह कर भी पूछ नहीं पाई।
मेरा ट्राली बैग कार की डिकी में रख कर माइकल कार के अगले दरवाज़े की तरफ़ चल दिया। जब तक वह ट्राली बैग डिकी में रख रहा था मैं चुपके से आगे की सीट पर बैठ चुकी थी। “हम कहां ठहर रहे हैं? किसी चेन होटल में तो नहीं?”
“मेरे उतावलेपन पर माइकल के होंठों पर मुस्कान उभर आई। एक प्यारी सी कॉटेज है – ‘मे कॉटेज’। इसमें बड़े कमरे हैं और बड़े बड़े बेड। इतने बड़े कि हम उस पर कुश्ती कर सकते हैं। और कमरे का डेकोर भी नीले रंग का है। और सबसे बड़ी बात कि विंडरमेयर लेक से केवल पाँच मिनट की पैदल दूरी पर है। और इस स्टेशन से सिर्फ़ डेढ़ मील दूर है। इस कॉटेज को पति-पत्नी की जोड़ी चलाती है। यानि कि घर जैसा खाना भी मिलेगा। उनका कहना है कि अगर सुबह ब्रेकफ़ास्ट के वक़्त उन्हें डिनर के लिये अपनी पसन्द का मीनू बता दिया जाए तो वे अपने मेहमान के अनुसार बना देते हैं।
कम शब्दों में माइकल ने ‘मे-कॉटेज’ का पूरा ब्यौरा दे दिया। मेरी आँखों में नये सपने पैदा कर दिये थे। क्या मैं लेक पर जाना भी चाहूंगी… या बस कमरे में बन्द होकर माइकल के साथ लिपटी रहना चाहूंगी।
बस दस मिनट में हम में-कॉटेज के रिसेप्शन में खड़े थे। घर के मालिक जोआना और साइमन हमारा स्वागत इस तरह कर रहे थे जैसे कि हम उनके घर के सदस्य हों। पूरी कॉटेज के सामने फूल ही फूल दिखाई दे रहे थे। वैसे मैं फूलों के मामले में पूरी तरह से अनपढ़ हूं। किसी के भी नाम याद नहीं। कमरे की एक खिड़की से तो लेक भी दिखाई दे रही थी। देख कर मन मचल गया कि हमें अभी घूमने चलना चाहिये। सूर्य तो रात दस बजे तक नहीं डूबने वाला था।
हमने अपना अपना ओवरनाइट केस ठीक से रखा और टायलट किट निकाल कर बाथरूम में सेट कर दी। फिर जल्दी से लिस्टरीन से माउथवॉश किया और कमरे में वापिस। “सुनो सैली, रात का डिनर यहाँ करना है या बाहर खा कर ही आएंगे?”
“मेरा ख़्याल है कि बाहर ही खाएंगे।”
“कैसा फ़ील कर रही हो?”
“दरअसल माइकल ऐसा कभी फ़ील किया ही नहीं। मैं इन तीन दिनों को जी लेना चाहती हूं। किसी तरह की कोई रोक-टोक नहीं।”
माइकल ने आगे बढ़ कर मुझे अपनी ओर हल्के से खींच लिया। और पहली बार हम दोनों ने एक दूसरे को डीप किस किया। मेरा पुराना अनुभव बहुत ख़राब था। इसलिये मैं जल्दबाज़ी में कुछ नहीं करना चाहती थी। मैंने माइकल को सलाह दी कि चलो लेक पर चलते हैं। लेक के किनारे प्यार करने का मज़ा अलग ही होगा।
पतली सड़कों और दुकानों के बीच से निकलते हुए हम विंडरमेयर लेक की ओर चल दिये। चलते चलते माइकल मुझे हल्का सा लिपटा भी लेता। उसके कोलोन का नाम वान्टेड था और मुझे लग रहा था कि माइकल के लिये मैं वान्टेड हूं।…उसके कोलोन की ख़ुशबू मेरे नथुनों में हलचल पैदा कर रही थी। मैंने भी आज अपना फ़ेवरिट ‘डिप्टीक’ लगा रखा था। माइकल ने पूछा भी, “यह परफ़्यूम बहुत हट के है।… क्या नाम है।” जब मैंने नाम बताया तो बेचारे ने नाम ही नहीं सुन रखा था। मगर तसल्ली भी हुई कि महिलाओं को परफ़्यूम गिफ़्ट नहीं करता फिरता।
शाम आहिस्ता आहिस्ता रात के आग़ोश में समाती जा रही थी। माइकल ने कहा, “सैली, उस दिन मैंने रेड वाइन तुम से ले भी ली और पी भी ली। दरअसल मैं वाइन या शैम्पेन नहीं पीता। मैं स्कॉच पीता हूं… और वो भी सिंगल माल्ट… ऑन दि रॉक्स… आज हम अभी किसी पब में चलेंगे।… वैसे तुम क्या पीना चाहोगी?”
“तुम्हारा साथ देने के लिये तो मैं कुछ भी पी लूंगी… मगर वोदका और डाइट कोक चलेगी। उस में नींबू का एक स्लाइस।”
बस फिर तो बन गया काम।… चलो सामने पब है… शायद वहां डिनर भी सर्व करते हों… देख लेते हैं।
“सुनो माइकल, मैं अपना शेयर देना चाहूंगी। मुझे नहीं अच्छा लगता कि तुम सारा ख़र्च करो।”
“सैली, मैं आयरिश हूं। हमारी सोच इंग्लिश सोच से अलग है।… इस ट्रिप पर तुम मेरी मेहमान हो। इसलिये न तो तुम रहने का ख़र्च शेयर करोगी और न ही खाने का। भविष्य में देखा जाएगा कि ऊंठ किस करवट बैठता है।”
मेरे लिये यह भी एक नया अनुभव था। जब मेरी इंडियन या पाकिस्तानी सहेलियां बताया करती थीं कि उनके प्रेमी उन्हें कभी बिल नहीं अदा करने देते तो मैं हैरान हुआ करती थी।… ऐसा कैसे हो सकता है। जब खा दो लोग रहे हैं जो कि पति-पत्नी नहीं हैं तो दोनों को अपने-अपने खाने का बिल अदा करना चाहिये।
आज मैं भी माला और हिना की तरह महसूस कर रही हूं।… इस बार मैं भी उनके सामने शान बघार पाऊंगी कि मेरे प्रेमी ने भी मेरा पूरा बिल दिया।…
कई बार कितनी छोटी छोटी ख़ुशियां जीवन को जीने के क़ाबिल बना देती हैं। पब में माइकल ने अपने लिये ग्लेनलिवेट का डबल पेग ऑन दि रॉक्स ऑर्डर किया और मेरे लिये एब्सोल्यूट वोदका का डबल पेग और डाइट कोक साथ में दो क्यूब बर्फ़ और एक नीबू का स्लाइस। और साथ में स्नैक्स के तौर पर फ़िश फ़िंगर्स।
माइकल के साथ का नशा और उस पर वोदका का एब्सोल्यूट नशा… अब और इन्तज़ार करना आसान नहीं था।
आज माइकल को देख कर कहीं कोई आयरिश जोक याद नहीं आ रहा था… रूमी की लाइनें याद आ रही थीं… ‘ए मुमेण्ट ऑफ़ हैप्पीनेस… सिटिंग इन ए पब!’ ‘वराण्डा’ की जगह पब लगा कर बहुत मज़ा आ रहा था।… हम दोनों ने एक एक ड्रिंक ही लिया।… माइकल का तो सिस्टम ही ग्रेट है… वो हर शाम बस एक ही डबल पेग लेता है… पचास एम.एल. ग्लेनलिवेट ऑन दि रॉक्स… और उसे ख़त्म करने में क़रीब एक घन्टा ले लेता है। इतनी देर में मैं दो पैग ले गयी… मैं तो टल्ली हो गयी… कुछ ऐसा महसूस कर रही थी।
पब में डिनर की ख़ुशबू अच्छी आ रही थी। ख़ास तौर पर मछली की। माइकल ने ‘ग्रिल्ड सामन’ का ऑर्डर दिया तो मैंने ‘सी-बास’ का। हमारे साथ वाली टेबल पर चिकन टिक्का मसाला खाया जा रहा था… मन में आया कि मैं भी यही ऑर्डर करती हूं… फिर डर लगा कि सारी रात मसालों की महक साँसों और बदन में छाई रहेगी। मन मार कर रह गयी।
खाने के बाद हम दोनों उठे और वापिस लॉज की तरफ़ चल दिये। पहली मंज़िल वाले अपने कमरे में पहुंच गये। पहले माइकल ने ब्रश किया और फ़्रेश हुआ। मैंने कहा, “अभी आती हूं।” और अपनी नाइटी और लाल अण्डर-गार्मेण्ट्स ले कर बाथरूम में गयी। तरोताज़ा होकर अपनी तैयारी पूरी की।… अपने आप को सामने लगे शीशे में निहारा। और वापिस कमरे में आ गयी।
माइकल के मुंह से सीटी बज गयी, “माई गॉड, तुम तो पूरी वीनस लग रही हो।… तुम ने अपने बदन को बहुत सलीक़े से मेन्टेन किया हुआ है।… जिम जाती हो क्या?”
“नहीं… जिम तो नहीं जाती। मगर सप्ताह में चार दिन वॉक और जॉग करती हूं… पसीना निकालती हूं और फ़्री-हैण्ड एक्सरसाइज़ करती हूं।”
“यह अच्छा है… वैसे फ़्रीहैण्ड एक्सरसाइज़ का यह बेस्ट समय है…!”
अचानक सेंसोडाइन टुथपेस्ट की ख़ुश्बू मेरे नज़दीक आ गयी और कॉलगेट टोटल की ख़ुश्बू के साथ मिल गयी। रूमी फिर कान में अपनी कविता गुनगुनाने लगा, “ऐपेरेन्टली टू, बट वन इन सोल, यू एण्ड आई!” सच ही तो है… हम दोनों आहिस्ता आहिस्ता दो बदन और एक रूह होते जा रहे थे… कमरे की बत्तियां बुझी हुई थीं, भीतर ज्वाला धधक रही थी और बाहर आकाश पर सितारे टिमटिमा रहे थे।
बिस्तर की सिलवटें हम दोनों की कहानी अपने भीतर समेटे थीं… और मैं अचानक रोने लगी। यह अनुभव ज़बरदस्त भी था और कन्फ़्यूज़िंग भी… मगर मैंने कुछ कहा नहीं… बस रात भर सोचती रही…
सुबह जब ब्रेकफ़ास्ट पर जाने का वक़्त हुआ तो सोचा माइकल से बात करूं… मगर अनुभव ने बताया कि कोई भी निगेटिव बात खाने के वक़्त नहीं करनी चाहिये। जब वर्डस्वर्थ के घर जा रहे होंगे… तब बात शुरू करूंगी।
माइकल पूरी तरह से तृप्त लग रहा था। उसे नहीं मालूम था कि मेरे भीतर क्या तूफ़ान चल रहा है। उसने ब्रेकफ़ास्ट ख़ूब इन्जॉय किया। मैं हल्का ही खा सकी। उसने पूछा भी, “सैली, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?” उसकी आवाज़ में मेरे लिये चिन्ता थी। सुन कर अच्छा लगा और मेरे भीतर की नकारत्मकता थोड़ी कम होने लगी… मगर नारी हूं न। चीज़ों को जल्दी पकड़ लेती हूं। फिर बातें दिमाग़ में घुमड़ती रहती हैं।
ब्रेकफ़ास्ट के बाद दोनों लॉज में वापिस… माइकल ने किस करना चाहा… मैंने रोक दिया। उसे समझ नहीं आया क्यों… समझ तो मुझे भी नहीं आया… मगर बस कर दिया। समझ नहीं पा रही थी कि माइकल से बात कैसे करूंगी…
पार्किंग से गाड़ी निकाली और चल पड़े वर्डस्वर्थ के घर की ओर। माइकल ने अपने गूगल मैप में पोस्ट कोड फ़ीड कर दिया था। “सैली, तुम्हारा मूड कुछ उखड़ा हुआ है… सब ठीक तो है?”
“मैं कल रात से बहुत परेशान हूं माइकल। हमारे बीच जो कुछ भी हुआ, वो अद्भुत था। मुझे इतना सुख कभी नहीं मिला। मगर मैं फिर भी बहुत कन्फ़्यूज़्ड हूं।”
“मैं समझ गया। तुम्हें कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं।”
“क्या समझ गये?”
“तुम मेरी छातियों को लेकर परेशान हो न?”
“तो तुम इस बारे में पहले से सब जानते हो?”
“ज़ाहिर है कि समस्या मेरी है तो जानकारी भी मुझे ही होनी चाहिये।”
“तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें मुझे पहले से बताना चाहिये था?”
“दरअसल हम दोनों के बीच सब कुछ इतनी तेज़ी से हुआ कि कुछ भी बताने का कोई मौक़ा ही नहीं मिला।… अभी भी कहां देर हुई है। अब बता देता हूं।”
मेरे मुंह का स्वाद कसैला सा हो रहा था। मैं अपने आप को समझा नहीं पा रही थी कि मेरे साथ जो हुआ वो क्यों हुआ। क्या यह सब होना चाहिये था।… यह तो अच्छा हुआ कि अपने पिछले नाटक में मुझे ट्रांसजेण्डर के बारे में काफ़ी कुछ पढ़ना पड़ा। शायद इसीलिये मैं रात को भड़की नहीं। और न ही मैंने अपने मुंह से कुछ भी कहा।… मैं चाह रही थी कि बिना कहे ही माइकल को समझ आ जाए कि मुझे किस बात की चिन्ता हो रही है।
“सुनो सैली… मैं जब बीस वर्ष का था तो मुझे पहली बार महसूस हुआ कि मेरे भीतर एक औरत भी है। मैंने उस समय कुछ हारमोनल दवाइयां ली थीं। मगर मैं सर्जरी के ज़रिये अपने आप को बदलने के लिये तैयार नहीं था। मैं अपने साथ संघर्ष करता रहा। मुझे अपना पुरुष रूप पसन्द है।… मैंने समाज में एक स्थान बनाया है और वो माइकल निक्सन का ही है। मैंने उस स्थान को बहुत मेहनत से हासिल किया है। मुझे औरत बनने का कोई शौक़ नहीं है।… यह सच है कि मेरे भीतर बदलाव के सिम्पटम पैदा हुए थे। मगर मैं उनके लिये तैयार नहीं था। इसलिये मैंने उस बदलाव को वहीं दबा दिया।…. सैली मैं निन्यानवे प्रतिशत पूरा और पक्का पुरुष हूं… अगर कहीं एक प्रतिशत गड़बड़ होगी भी तो मैं या हम दोनों मिल कर उसे ठीक कर लूंगा।”
मैं माइकल को कैसे बताती कि वो निन्यानवे प्रतिशत पुरुष तो मुझे जीवन की सबसे बेहतरीन ख़ुशियां दे सकता है। मुझे समस्या तो उस एक प्रतिशत की है। क्या मैं उस एक प्रतिशत को हैण्डल कर पाऊंगी? “तुम्हारी छातियां….”
माइकल ने मुझे वाक्य पूरा नहीं करने दिया, “यह उन हॉरमोन्स का नतीजा है जो मैंने उस समय लिये थे जब मैं ट्रांज़ीशन फ़ेज़ से गुज़र रहा था। वो हॉरमोन छोड़ने के बाद यह वहीं रुक गये। अब और आगे नहीं बढ़ेंगे।… अगर तुम कहोगी तो मैं इनकी सर्जरी करवा लूंगा… मगर मुझे छोड़ने के बारे में मत सोचना!”
माइकल की आवाज़ का दर्द कहीं मुझे भीतर तक छू गया। मेरा कन्फ़्यूज़न और बढ़ गया। मैं जानती थी कि मैं माइकल से प्यार करने लगी हूं।… मगर… सच तो यह है कि यह माइकल का एक पास्ट है… उसका भूतकाल… अब तो वह पूरी तरह से मर्द है और उसने रात को साबित भी कर दिया… फिर मैं क्यों ऐसी बेवक़ूफ़ी कर रही हूं… मुझे माइकल को हर्ट नहीं करना चाहिये…
“क्या हमें वर्डस्वर्थ के घर जाना चाहिये, या फिर समझ लें कि हमारा ट्रिप फ़ियेस्को में बदल चुका है?…”
माइकल को अचानक खो देने का डर मेरे दिल में ख़ौफ़ पैदा कर गया। कल रात को मिले सुख ने दिल के कोने से आवाज़ दी… और मैं सोच में डूब गयी… माइकल के पास्ट के लिये मैं उसे आज क्यों सज़ा दूं… माइकल एक अच्छा इन्सान है… पढ़ा लिखा इंटेलेक्चुअल है… अगर वो मेरा बन कर रहना चाहता है तो मैं उसे मना क्यों करूं… मगर दिमाग़ ने प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया… तुम इतना बेवक़ूफ़ी भरा निर्णय कैसे ले सकती हो? माइकल भीतर से औरत है और बाहर से मर्द… अब तो बाहर से भी मर्द और औरत दोनों ही है…
मेरे पास समय कम था। निर्णय तुरन्त लेना था। अभी तो केवल आकर्षण ही हुआ है। मगर महसूस तो यूं हो रहा है कि हम सदियों से जानते हैं। अगर मुझे माइकल का प्यार मिलता है तो क्या मुझे नकारने से नुक़सान होगा या लाभ… मैं इतनी घटिया बातें कैसे सोचने लगी… प्यार में हानि और लाभ का हिसाब लगाने लगी…
सोचने के लिये समय अधिक नहीं था… मुझे तय करना था कि क्या मैं छली गयी थी या मुझे अपने सपनों का इन्सान मिल गया है। रात का एक एक पल एक फ़िल्म की तरह मेरे सामने से गुज़र रहा था। इतने में हम ‘ग्रासमीयर’ के ‘डव कॉटेज’ के बाहर खड़े थे। सवाल यह था कि जिस घर में विलियम वर्डस्वर्थ नौ साल रहा… जहाँ ‘प्रिल्यूड’ जैसी महान कविता लिखी… क्या यह घर मेरे नये जीवन का प्रिल्यूड बन पाएगा। मैं भी वर्डस्वर्थ की ही तरह आसमान में इन्द्रधनुष को छू लेना चाहती थी…
माइकल कार रोक कर मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहा था… मैंने उसके हाथों को एक बार फिर देखा। एक कलाकार के ख़ूबसूरत हाथ… यह आदमी मुझ से छल नहीं कर सकता… इसे मेरे प्यार की ज़रूरत है… मेरे मन के भीतर से यह आवाज़ बार बार मेरे दिल-ओ-दिमाग़ को छू रही थी…
मैंने एक बार आकाश की ओर देखा… वहाँ सूरज की रौशनी में मेरा इन्द्रधनुष पूरी चमक के साथ मौजूद था… अब बादलों के लिये कोई जगह नहीं थी… मैंने अपने सिर को हल्का सा झटका दिया और माइकल से कहा, “चलो कार को पार्किंग लॉट में खड़ा करो और टिकट विन्डो से टिकट ख़रीदो।”
माइकल ने कार पार्किंग लॉट की ओर बढ़ा दी….
Tejendra Sharma, 33-A Flat No:2, Spencer Road, Harrow & Wealdstone, Middlesex, HA3 7AN
Email: kahanikar@gmail.com ; tejinders@live.com Tel: 00-44-7400313433
तेजेन्द्र शर्मा
– एम.बी.ई.
जन्म – 21 अक्टूबर 1952 (जगराँव) पंजाब।
शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. अंग्रेज़ी, कम्पयूटर कार्य में डिप्लोमा ।
प्रकाशित कृतियां: संदिग्ध (2023), कथामाला शिवना प्रकाशन – 7 कहानियां (2023), मेरी कहानियां – इंडिया नेटबुक्स (2023), तू चलता चल (2021), मृत्यु के इंद्रधनुष (2019), स्मृतियों के घेरे (समग्र कहानियां भाग-1) (2019), नयी ज़मीन नया आकाश (समग्र कहानियां भाग-2) (2019), मौत… एक मध्यांतर (2019), ग़ौरतलब कहानियां (2017); सपने मरते नहीं (2015); श्रेष्ठ कहानियां (2015); प्रतिनिधि कहानियां (2014); प्रिय कथाएं (2014); तेजेन्द्र शर्मा – पांच कहानियां (2013) दीवार में रास्ता (2012); क़ब्र का मुनाफ़ा (2010); सीधी रेखा की परतें (2009); बेघर आंखें (2007); यह क्या हो गया! (2003); देह की कीमत (1999); ढिबरी टाईट (1994); काला सागर (1990) सभी कहानी संग्रह ।
तेजेन्द्र शर्मा समग्र (शिवना प्रकाशन द्वारा 2024 में प्रकाशित) आठ कहानी संग्रह पेपरबैक में – काला सागर, ढिबरी टाइट, देह की कीमत, बेघर आँखें, दीवार में रास्ता, सपने मरते नहीं, मौत… एक मध्यान्तर, संदिग्ध।
ये घर तुम्हारा है… (2007 – कविता एवं ग़ज़ल संग्रह); मैं कवि हूं इस देश का (2014 – द्विभाषिक कविता संग्रह); टेम्स नदी के तट से (2020) ।
अपनी बात (खण्ड-1) – 2022, अपनी बात (खण्ड-2) – 2022, अपनी बात (खण्ड-3) – 2024 पुरवाई पत्रिका में प्रकाशित संपादकीय संग्रह।
साक्षात्कार –
1. बातें (तेजेंद्र शर्मा के 13 साक्षात्कार) : प्रथम संस्करण- 2012, सम्पादक- मधु अरोड़ा, शिवना प्रकाशन, सीहोर- 466001 (मध्य प्रदेश), मोबाइल (पंकज सुबीर) – 09977855399
2. मेरे साक्षात्कार – तेजेन्द्र शर्मा (2020) – संपादकः पूनम मल्होत्रा। प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स, अंसारी रोड, नई दिल्ली-110002 मोबाइलः 95994 83887
आलोचना पुस्तकें –
1. तेजेन्द्र शर्मा (वक़्त के आइने में – 2009) : सम्पादक- हरि भटनागर, रचना समय प्रकाशन, भोपाल, पृष्ठ संख्या– 412, कीमतः पेपर-बैक : ₹400/-, सजिल्द : ₹600/-. मोबाइल- 09424418567.
2. हिंदी की वैश्विक कहानी (सन्दर्भ तेजेंद्र शर्मा का रचना संसार – 2012) : सम्पादक- नीना पॉल, अयन प्रकाशन, 1/20 महरौली, दिल्ली। भूपाल सूद (मोबाइल) – 09818988613.
3. कथा त्रिकोण (2013) : संपादक- श्रीनिवास श्रीकान्त, शिल्पायन प्रकाशक, नई दिल्ली, मूल्य- ₹350/-
4. तेजेन्द्र शर्मा – कभी अपने, कभी पराए (2015) : संपादक– आशीष कंधवे, विश्व हिन्दी साहित्य परिषद, नई दिल्ली-110088, मोबाइल- 09811184393.
5. नई धारा पत्रिका का विशेषांक (2015) : संपादक– शिवनारायण, पटना, मोबाइल- 09334333509.
6. ट्रू मीडिया (अक्टूबर 2016 का विशेषांक) : संपादक– ओम प्रकाश, नई दिल्ली, मोबाईल– 09910749424.
7. तेजेन्द्र शर्मा – मूल्यांकन (2017) : संपादक– डॉ. रमा, महेन्द्र प्रजापति, मूल्य- ₹695/- अनंग प्रकाशन, बी-107/1, युमना विहार, शाहदरा, नई दिल्ली- 110053, संपर्क- 09350563707, 09540176542.
8. तेजेन्द्र शर्मा (मुद्दे और चुनौतियाँ – 2017) : संपादक– डॉ. कमलेश कुमारी, साहित्य संचय प्रकाशन, नई दिल्ली – 110094, संपर्क- 9871418244, 9136175560.
9. तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार (2018) – संपादक : प्रो. प्रदीप श्रीधर, विनय प्रकाशन, 3ए-128, हंसपुरम्, कानपुर – 208021, उत्तर प्रदेश, मूल्य – ₹ 995/- संपर्क – 0512-2626241, 09415731903.
10. कथाधर्मी तेजेन्द्र (2018) – संपादक : प्रो. प्रदीप श्रीधर, शुभम पब्लिकेशन, 3ए – 128, हंसपुरम, कानपुर – 208021 (उत्तर प्रदेश), मूल्य – ₹795/- संपर्क – 0512-2626241, 9452971407.
11. वैश्विक हिंदी साहित्य और तेजेन्द्र शर्मा (2018) – संपादक : प्रो. प्रदीप श्रीधर, शुभम पब्लिकेशन, 3ए – 128, हंसपुरम, कानपुर – 208021 (उत्तर प्रदेश), मूल्य – ₹795/- संपर्क – 0512-2626241, 9452971407.
12. प्रवासी हिंदी साहित्य और तेजेन्द्र शर्मा (2019) – संपादक: प्रो. प्रदीप श्रीधर, शुभम पब्लिकेशन, 3ए – 128, हंसपुरम, कानपुर – 208021 (उत्तर प्रदेश), मूल्य – ₹495/- संपर्क – 0512-2626241, 9452971407.
13. भारतेतर हिंदी साहित्य और तेजेन्द्र शर्मा (2019) – संपादक : प्रो. प्रदीप श्रीधर, शुभम पब्लिकेशन, 3ए – 128, हंसपुरम, कानपुर – 208021 (उत्तर प्रदेश), मूल्य – ₹595/- संपर्क – 0512-2626241, 9452971407.
14. प्रवासी कथाकार – तेजेन्द्र शर्मा (2019) – संपादकः शिवनारायण। (2020)13. वांग्मय विशेषांक (2020) – संपादकः फ़िरोज़ ख़ान, अलीगढ़, फ़ोनः 7007606806, ईमेलः vangmaya@gmail.com
15. वैश्विक संवेदना के कथाकार – तेजेन्द्र शर्मा (2022) – संपादकः अनुज पाल सार्थक एवं नेहा देवी प्रकृति। प्रकाशक – अक्षर पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली-110090. मूल्य – ₹550/- मात्र। फ़ोन – 09999803921.
16. सृजनधर्मी प्रवासी साहित्यकार – तेजेन्द्र शर्मा (2023) – संपादक डॉ. पायल लिल्हारे। प्रकाशक – वान्या पब्लिकेशन्स कानपुर। मूल्य – ₹800/- मात्र।
संपादन –
1 यहाँ से वहाँ तक (ब्रिटेन के कवियों का कविता संग्रह – 2006) : सृजन सम्मान प्रकाशन, रायपुर, पृष्ठ संख्या– 128, कीमत- ₹150/-
2. समंदर पार रचना संसार (21 प्रवासी हिंदी लेखकों की कहानियों का संकलन- 2008) : रचना समय प्रकाशन, भोपाल, पृष्ठ संख्या-208, कीमत – ₹250/-
3. ब्रिटेन में उर्दू क़लम (ब्रिटेन में बसे 8 उर्दू कहानी कारों की कहानियों का हिंदी अनुवाद- 2010) : रचना समय प्रकाशन, भोपाल (मध्यप्रदेश), पृष्ठ संख्या- 208, कीमत – ₹250/-
4. समंदर पार हिन्दी गज़ल (विश्वभर के प्रवासी गज़लकारों की गजलें- 2010) : शिलालेख प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या -182, कीमत – ₹ 300/-
5. प्रवासी संसार (2011): पत्रिका का प्रवासी कहानी अंक
6. सृजन संदर्भ (2012) : मुंबई से प्रकाशित पत्रिका का प्रवासी विशेषांक
7. देशांतर (2012): प्रवासी कहानी संग्रह, हिंदी अकादमी, नई दिल्ली
8. प्रवासी साहित्य – कहानी, कवि, एवं समीक्षा (2022), विकास प्रकाशन कानपुर।
9. पुरवाई: ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाली हिंदी पत्रिका के संपादक।
अनूदित कृतियां –
पंजाबी – ढिबरी टाइट (2004), कल फ़ेर आँवीं (2011).
नेपाली – पासपोर्ट का रंगहरू (2006).
उर्दू – इँटों का जंगल (2007).
English: Grave Profits (2013)
बांग्ला – निर्वाचित काहिनि (2016)
अग्रेंजी साहित्य में –
1. Lord Byron – Don Juan – 1976
2. John Keats – The Two Hyperions – 1977
3. Black & white (Biography of a Banker) – 2007
अन्य –
तेजेन्द्र शर्मा के साहित्य पर 13 एम. फ़िल. और छः पीएच. डी. किये जा चुके हैं। उनकी कहानियां भारत के भिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल की गई हैं।
सम्मान –
1. ब्रिटेन की महारानी द्वारा एम.बी.ई सम्मान से अलंकृत
2. केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा का डॉ॰ मोटूरि सत्यनारायण सम्मान
3. मध्य प्रदेश सरकार का निर्मल वर्मा सम्मान
4. यू.पी. हिन्दी संस्थान का प्रवासी भारतीय साहित्य भूषण सम्मान
5. हरियाणा राज्य साहित्य अकादमी सम्मान
6. ढिबरी टाइट के लिये महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार – प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों से सम्मानित
7. भारतीय उच्चायोग, लन्दन द्वारा डॉ॰ हरिवंशराय बच्चन सम्मान
8. टाइम्स नाऊ एवं आई.सी.आई.सी.आई. बैंक का एन.आर.आई. ऑफ दि ईयर अवार्ड
9. भारत गौरव सम्मान, हाउस ऑफ कॉमन्स में
10. महात्मा हँसराज सम्मान – विज्ञान भवन में – तत्कालीन शिक्षा मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा।
11. ढींगरा फ़ाउण्डेशन का लाइफ़टाइम अचीवमेंट सम्मान।
12. अंतरराष्ट्रीय स्पंदन कथा सम्मान
13. तितली बाल पत्रिका का साहित्य सम्मान – बरेली
14. प्रथम संकल्प साहित्य सम्मान- दिल्ली
15. कृति यू॰के॰ द्वारा वर्ष 2002 में बेघर आंखें को सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार
16. सहयोग फ़ाउंडेशन का युवा साहित्यकार पुरस्कार
17. सुपथगा सम्मान-1987
संप्रतिः ब्रिटिश रेल (लंदन ओवरग्राउण्ड) में कार्यरत।
संपर्क : 33-A, Spencer Road, Harrow & Wealdstone, Middlesex HA3 7AN (U. K.).
Mobile: 07400313433, E-mail: tejinders@live.com; kathauk@gmail.com
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आदरणीय तेजेन्द्र जी!
आपकी कहानी ख्वाहिशों के पैबन्द पढ़ी। अच्छी कहानी है। विदेशी धरती से हमारा बिल्कुल भी परिचय नहीं है और जिन इंग्लिश किताबों या नाटकों का ज़िक्र है,लिटरेचर इंग्लिश में जितनी पढ़ी थीं अब तो वह भी याद नहीं।
भारतीय परिवेश में तो यह इतना सहज नहीं है लेकिन फिर भी आजकल माहौल थोड़ा बदल गया है लेकिन इतना तो फिर भी नहीं बदला।
यहाँ अपन कहानी के केंद्रीय भाव को लेकर चलते हैं।
इस कहानी के अनुरूप प्रेम किया नहीं जाता हो जाता है। यह दिखा और महसूस भी हुआ।
एक चीज जो हमको अच्छी लगी कि दोनों ने सच कहने में संकोच नहीं किया। और सच को जानने के बाद भी साथ रहने का निर्णय लेने में भी वक्त नहीं लिया।
वैसे यह इतना सहज नहीं था।
बहरहाल विदेशी धरती पर यह सब सामान्य हो सकता है लेकिन भारतीय संस्कृति में यह सब मुश्किल है।
कहानी से ज्यादा आपके लंबे चौड़े परिचय से परिचित हुए।
इतनी उपलब्धियाँ हैं आपकी कि कोई भी पाठक आपसे परिचय पर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करेगा। इस कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई है।
आदरणीय तेजेंद्र जी
आपकी यह कहानी “ख्वाहिशों के पैबन्द” “रचना समय” पर अभी पढ़ी। कहानी से ज्यादा आपके परिचय ने प्रभावित किया। सामान्यत: हम परिचय पढ़ते नहीं है। वह कहानी के जितना ही लंबा था आपके लेखन के सफर का इतना लंबा परिचय पढ़कर चेहरे पर एक मुस्कुराहट तो आई और आश्चर्य यह भी हुआ कि इतना लंबा चौड़ा परिचय है! इतनी उपलब्धियाँ हैं !और इतना सहज स्वभाव!!!अभी तो आपसे काफी सहज रहते थे, सहजता से बात भी हो जाती थी। जो मन में आया वह बोल भी दिया करते थे। लेकिन अब आपसे बात करते समय हमको सोचना पड़ेगा। सावधान रहने की जरूरत महसूस हो रही है। एक पल के लिए यह भी लगा कि हम आपकी विद्वता की कद्र शायद नहीं कर पाए।
पूर्व में कभी भी कुछ ऐसा हुआ हो जिसने आपको आहत किया हो तो उसके लिए हम आपसे क्षमा याचना चाहते हैं।
आपके अनुभव हम लोगों के लिए प्रेरणा श्रोत की तरह हैं।
हरि भटनागर जी जब लंदन में थे। तब उन्होंने आपकी यह कहानी हमें पढ़ने के लिए भेजी थी। पर जो छूट जाती है वह छूट ही जाती है।
वैसे चर्चा निकलने पर आपकी बहुत तारीफ करते हैं।
अब पूरा परिचय पाकर आपको सादर प्रणाम ही करने का मन है🙏😊