वीणा सिन्हा की कविताएँ

पेशे से चिकित्सक वीणा सिन्हा की प्रस्तुत कविताएँ जाहिरा तौर पर स्त्री केंद्रित है जो स्त्री के दुःख- दर्द को विभिन्न विभिन्न कोणों से अभिव्यक्त करती हैं लेकिन स्त्री पुरुष के वर्ग विभाजन का पर्दा हटा दे तो साफ है कि ये इंसान की पीड़ा को जुबां देती कविताएं हैं, इनमें दया जैसा भाव नहीं, तटस्थ बल्कि तल्ख निगाह दिखेगी जो उन कुसूरवारों को सामने लाती है जो प्रकृति प्रदत्त खूबसूरती को विकृत कर रहे हैं.
-हरि भटनागर

माँ
1.
आग जला देती है सब कुछ
पवित्र वस्त्र नीली त्वचा
गलते मांस के रेशे
पीला पड़ता रक्तप्रवाह
अस्थियां चुप चाप टूटती है
माँ तैरती थी तिलक वाड़ी के कुएं में
फिर बहती रही
जीवन दायिनी नदी की तरह
हमेशा सोचती रही
दूसरों की भूख और प्यास के बारे में
कोई हिलाता है रुका हुआ पालना
गालों को थपथपाती हथेलियां
पोंछती है आंसुओं की लकीरें
बीच भाग फाग में गिर गया है पानी
कहीं गिरे हैं ओले भी
आग से निकलकर माँ तैरेगी
देखेगी शायद नर्मदा में दीपोत्सव
भले ही जला देती है आग सब कुछ
फिर भी बचे रहते हैं माँ के सपने

2.
आग की लपटों के बीच
हिलता है तुम्हारा चेहरा
उसे छूना मुमकिन नहीं है
धुएँ के बिस्तर पर किस तरह
लेटी रहीं चुपचाप
जबकि बगैर नींद के बीत गए थे
बीसों बरस
पल भर को डूब जाती है
धरती अंधेरे में
आकाश में दूर तक
नाचते हैं अग्नि कण
एक साथ चीखते हैं कौए
बच्चा करवट बदलता है
बुरे सपने के बाद
अम्बाझरी में चुप चाप
सिसकते है पीपल के पत्ते
शाखों से टपकता है अमलतास
कोई मीठा किस्सा दूध रोटी जैसा
नरम नरम घी भात सा
बादलों के बीच फैलती है उसकी बाहें
जल गया है सब बची है कुछ गर्म राख
ओर अस्थियों के भुरभुरे टुकड़े
धुंधली नहीं होती यादें
बीतते वक्त के साथ
क्योंकि मेरी बेटी
मेरी उँगली थाम लेती है माँ

3.
किसी नेक बख्त चेहरे पर
फबती होंगी तुम्हारी आंखें
ज़िंदगी का सफर बदस्तूर जारी है
कोलार नदी में डुबकी लगाती है
आग खाने वाली चिड़िया
गुड़हल के फूल शोखतरीन है
तुम अब भी देखती होगी
बहार का मौसम
कलियों से लदी बेल
हरे होते हुए पत्तों के गुच्छे
जल भरे बादल और नीला आकाश
नंगे सिर चलता हुआ हुजूम है
जहाँ से हट गया है नदी का पानी
वहाँ मछलियां छटपटा रही है
कच्चा रेशम बार बार टूटता है
जमीन के भीतर
गए हुए लोग
नदी में छोड़ने लगते हैं
पांव के निशान

4.
वह भूरी आँखों वाली औरत
जिंदगी की कैद से देखती थी
उस पार फैला अंतरिक्ष
मानो एक हाथ की
दूरी पर हो सातवां नक्षत्र
पांवों से छूटती नहीं काली मिट्टी
लाल हंडिया से उठता है धुआँ कंडे का
और पानी की जगह गिरती है आग
आसान नहीं है किसी को
पुराने कपड़े उतार कर
नया कमख्वाब पहनते देखना
गंधक के पीले फूलों पर ओस नहीं ठहरती
कागज़ से मढ़ी हुई लालटेन घूमती है हवा में
छोटी नदियां मुड़ती है बड़ी नदियों में
कहीं तो होगा चश्म ए खिज्र
नवें आसमान के अलावा
उसके पास था महीन सूत डालती थी
कपड़े की बुनाई में बाना
पेड़ों के ऊपरी हिस्से में
गुंथी हुई आकाश बेल लगातार झूलती है
पहाड़ों से टकराती हैं हवाएँ
जंगलों में राह भूल जाती है रौशनी
एक साथ रोते हैं गलियों में यतीम बच्चे
फड़फड़ाती है पिंजरे में कैद चिड़ियाँ
ज़िंदगी तक आना
फिर लौट लौट जाना
मन्नतों और मुरादों की गांठें बांधना
किसे पता है
जादू के मकान में रखी
उस तख्ती के बारे में
जिसपर ज़िंदगी के तिलिस्म का
तोड़ लिखा है

5.
किसी का नौ दरवाजों वाली
कोठरी से बाहर निकलना
दरअसल हद से गुज़रना है
जो घटता है आंखो के सामने
उसी तरह समझ लेना मुश्किल है
उससे सरल है
किसी से सुनी बात को
ज्यों का त्यों दोहरा देना
फ़रिश्ते आसमान हुक्म सुनाते हैं
ऐलान करते हैं आरामगाहो का
हवा में टंगा हुआ है सलीब
उठे हुए हैं हाथ
की हर दुआ कुबूल हो जाए
खून का सिलसिला टूटता नहीं है
हमारे बाद हमारे बच्चे हैं
आदमी के भीतर बहता है झरना
इसीलिए कुछ रिश्तों में
पेंच नहीं होते हैं
एक हाँडी रात भर पकती है
पवित्र ग्रंथ का पाठ
खत्म नहीं होता एक रात में
आग ही आग है
जलते हैं लकड़ी के दोनों सिरे
कोई घुमाता है उसे चक्र की तरह
ये तो रीमिया है
कीड़े को पांव से डोरे की तरह
खींचकर निकालते निकालते
कोई तैरने लगे खारे पानी की नदी में
मरने के ठीक पहले
नीला पड़ता जाए चेहरा
अचानक बरसने लगे बादल
पल भर में सारे दर्द मिट जाएं
कहीं देखा था सौ पंखुड़ियों वाला
प्रदीप्त सुनहरा फूल
अचानक गुम हो गया है

बेटियां सोखती है मांओं के आंसू

1.
सड़कों पर भागती मौत
दरवाजों पर दस्तक देती है
खोलता है कोई आकाश के झरोखे
पृथ्वी के छोर से सुनाई देती नहीं
लगातार रोने की ध्वनि
यह सच है पत्थर तराशकर
बनाए गए हैं बुत
पर वे अचानक झपकाते हैं आंखें
जब अपनी बेटियों के जन्मने पर
हम गाने लगते हैं विलाप गीत
परमेश्वर के पहाड़ पर
पलिश्तियों की चौकी
उतरता है नदियों नबियों का दल
डफ ,सितार और बांसुरी लिए
हर चौराहे पर बनी है वेदियां
गूंजती है मंत्र ध्वनियां
किससे पूछा जाए यहाँ कि
कौन उठा सकता है
पृथ्वी के इस पार से कोहरा
बंधे हुए हैं हाथ
और पांव में खनकती है बेड़ियाँ
दिया जलाकर खाट के नीचे रखा है
जिसकी कोख से चलती है दुनिया
भला कैसे निर्वंश
कहलाएगा उसका पिता
नामिब का रेतीला फैलाव
मिलता है समुद्र की
ठंडी धार से जिस जगह
वहाँ उछलती है हजारों सील मछलियाँ
मानो पीना चाहती हों
रेत का ताप
जैसे बेटियां सोखती है मां के आंसू
और कुनबों का श्राप
2.
एक ठंडा कमरा
एक मशीन की आंख
हजारों सपनों की छाया मेँ सोती बेटियां
थरथराती है कोख में
3.
आकाश से पंछी गुम
जल से मछली गुम
बाग से कलियां गुम
कोख से बेटियां गुम
और हमारे जिस्म से
हमारे दिल भी गुम

4.
धरती से जंगल गायब
जंगल से जानवर गायब
आंगन से गौरैया गायब
माँ की कोख से बेटियां गायब
इंसानों की बस्ती पर
शैतान का साया
4.
बेटी को देखा
कुछ हंस दिए
कुछ गुमसुम हुए
कुछ रोए
कुछ खीझे
कुछ मुस्कुराए
कुछ उठ पड़े
कुछ चिल्लाए
कुछ खड़े रहे कुछ चल दिए
कुछ खोदते रहे मिट्टी
कुछ ने पत्थर जड़ दिए

5.
हमने जिंदगी की दौड़ में
खुशबू खोई
फूल खोए
बेटियां खोई
फुरसत खोई
यहाँ तक कि भूल गए
सही वक्त पर सांस खींचना

6.
एक औरत
कोख में सपने बुनती है
आंचल में उरसती है
पायल की रूम झुम
फूलों की क्यारियाँ और
फुदकती हुई चुटिया
और मुस्कुराती है करवट बदलकर

7.
हमारे पास एक मशीन है
जिससे हम गर्भ जल में तैरती
जलपरियों की पहचान कर सकते हैं
हमारे पास भाषा है
जिससे हम निशानियाँ ज़ाहिर कर सकते हैं
हमारे पास औजार हैं
जिनसे उन्हें पकड़ सकते हैं
यकीनन हमारे बुत पूजे जाएंगे

8.
जब पहाड़ों से नदी उतरेगी
पगडंडियों पर धूप टहलेगी
सर्दियों की सुबह
क्या हवाएँ सुना पाएंगी
बेटियों के तराने
9.
बरस पड़े बादल अचानक
बर्फ़ की चादर पर
छा जाए रंग अचानक
रेत से उफन पड़े
समन्दर अचानक
बेटियों के कदमों से बदलते हैं मौसम

10.
उनके चेहरे पर नकाब
हाथों में खोज बत्ती
स्क्रीन पर हिलती तस्वीरें
घर घर औज़ारों से खोलता है कोई
दुनिया का ताना -बाना
बेटियों के खून से लिखी इबारत को पढ़ लें
इन गुनाहों के लिए
माफी मयस्सर नहीं

11.
नौ माह तक
चांदनी मेरी नसों से
कोख में रिसती रही
और एक सुबह अचानक
सूरज दूध से नहाकर
आकाश चूमने लगा

 

4.

हीरों पटी जमीन पर

1.
हीरों पटी जमीन पर
चलना सीख चुकी
लड़कियों का बचपन
ढूंढती रही केन के
किनारों पर फैली रेत में
रंगीन पत्थरों की चौड़ी बिछावन में
पंडवन की सुराखों वाली
चट्टानों के भीतर
कैथे , अमिया और इमली की खटास में
गुनगुनी धूप की सुनहरी छाँव में
वही बचपन मिला नान चाँद के
सामूहिक विवाहोत्सव में
घूंघट ओढ़े
चूल्हे में
धुआंती लकड़ियों को
सुलगाकर रोटियां बनाते
खिचड़ी के मेले में जाते
ट्रैक्टर की ट्रॉली में
रंग बिरंगे पल्लो की
ओट से बौछार की ठंडक
आंखो मे उतारते
वही बचपन
लिथोटॉमी पोज़ीशन में
चिथी हुई देह में
टाँके के लगवाते मिल गया है
ऑपरेशन थिएटर में
इस खतरनाक अपहरण की
वारदात कहीं दर्ज नहीं हुई है
और बचपन छुप गया है जवानी की आड़ में

2.
खदानों से निकली चाल से
हीरे चुनती ऊँगलियाँ घर आकर
रोटी बेलती है
कोदई पकाती है
छत पर चढ़ी बेल की
तोरई तोड़ कर
सब्जी बनाती है
इन्हीं उंगलियों वाली औरत
हर साल कोख को
हीरे की उजास से
भरने की कोशिश में निचुड़ कर
सरकारी अस्पताल के गंधाते वार्ड में
दवाइयों के साथ उलाहनों का
जहर पीकर खड़ी हो पाए
तो फिर चुनने लगती है हीरे
या मृत देह के साथ
इस रत्नगर्भा धरती में ही
घुल मिलकर समय की चट्टानों से
जूझने लगती है
खुद ही हीरे में रूपांतरित होने

3.
बरसो से अत्याचार की
आतताई लपटों में जलते भुनते भी
यह औरत मृत्यु पूर्व बयान में
अपने जलने को
हादसा दर्ज करवाकर
फूली सोंधी रोटी
बन कर मर्द की
थाली में उतर गई है

4.
बड़वारा के ट्रक अड्डे पर
रूखी लटें चबाती
दबे पांव लंगड़ाती
मचकती आती है बौरी
चुभलाती है सूखी रोटी
सुड़कती है चाय और
फिक्क से हंसती है
जवान होती बौरी
चिंचियाती खाट पर
पथरीली जमीन पर
ट्रक की सीटों पर
लोहे के पट्टों पर
टायर के बिस्तर पर
रात रात पौरुष की आग में
बरती है बौरी
भिदती है , छिदती है
बिलखती है फिर छूट कर
फिक्क से हंसती है बौरी
दर्द से चीखती ,जार जार रोती
तड़पकर खींचती है कोख से
मरे हुए बच्चे को
लोटती हुई बौरी
सड़क के बीचोबीच
ठुमका लगा कर हमारे मुँह पर
सरेआम थूकती है बौरी

5.

सालों से मंदिरों में
ओझा पीरो के दरवाजे से
गंडे ताबीजो में लिपटी हुई
देवरी रनवहा की
बांझ कहलाने वाली औरत
जिला अस्पताल की देहरी चढ़ गई
फोर्टीफाइड प्रोकेन पेनिसिलिन के इंजेक्शन
लगवाने के बाद भारी पांव लेकर
मन्नतें उतारने घूमती रही
सातवें महीने में फूली सूजी
एनीमिक देह लेकर
वापस लौटी है
खेत गहन रखकर
चमार टोले वाली
देवरी रनवहा की औरत
खून खरीदकर चढ़वा गई है
बींसवीं सदी के
आखिरी दशक की छाती पर
मरे बच्चे को पटक
स्त्रीत्व को सिद्ध करते करते
गुजर गई है वह औरत

5
दुनिया से गायब हो कर

दुनिया से गायब हो कर
कहा मिलोगी बेटियों
हमारी पकड़ से बचती रहना
हमारी पकड़ में पाप है
तुम छटपटाओ दम तोड़ दो
बच जाओ तो हम
पहना सकते हैं
तुम्हारे नन्हें पांवों में
लोहे के जूते
सूखे होंठों पर जीभ फिरती
देखती हो माँ के दूध की धार
मेरी दुखांत कथा की नायिकाओं
पी क्यों नहीं जाती
समुद्र का जल
सोती होंगी तुम्हारे गर्भ में
अनागत सभ्यताएं
कैसी लपटों में जलता है देश काल
हमने ज्वालामुखियों के
मुहाने में सिर डाल दिए है
इस दुनिया से गायब हो कर
फिर कहा मिलोगी बेटियों

6
हम काम नहीं आए अपनी बेटियों के

सपनों का क्या मतलब है
सोनागाछी में
सड़कें गीली है
रात में उनका रंग
दिखता भी नहीं
हवाएं उभारती है नया बादल
चर्च गेट के आसमान में
मुर्दा शहर की छतों पर
बादलों का सुबकना
सख्त अजाब है
हमने सुना तो था
पर माना नहीं
जब आग में पकने लगी खालें
तो अब रास्ता भी नहीं
यह कैसा फज्ल है
सोने के कंगन और
मोतियों से सजे हमारे जिस्मों पर
रेशमी कम ख्वाब है
और हम काम नहीं आए
अपनी बेटियों के
यहाँ कोई मादा
अब बच्चे नहीं देगी
बेशक बनाए जाएंगे जोड़े
यह आसान है
कोई पानी मीठा हो या खारा
पर उन से निकाली जाती है
बढ़िया मछलियां
दरिया से होते हुए मछलियां
चली जाती है समंदर में
उनकी तिजारत में आठसौ परसेंट मुनाफा
मछलियां पानी में उछलती है
ऊपर वाले मेहरबान
तो दिन घटते जाते हैं लगातार
रात सरेशाम गहरी हो जाती है
झड़ने से बचें जो पत्ते
कब तक टिके रहेंगे डालो पर

7
जिस वक्त उजाले नहीं होते
हामिला बेटियों के चेहरे पे
उतरे थे फरिश्ते आसमान से
कोई लड़की हो सकती हैं
अल्लाह की अता
पर हर बेटी नहीं होती
हजरत मरियम
जिसे जमाने भर की औरतों
में से चुन लेता है रब और
जो बढ़ती है एक दिन में
साल भर की उम्र जितना
नसीब होते हैं उसे
बेफसल मेंवे और
उन्हें नहीं पिलाया जाता
औरत का दूध
जिसकी बाईं ओर उगता हैं चाँद
और दाहिनी ओर होता है सूरज
वैसे तो हर लड़की
अपने जमाने की औरतों में होती है
किसी न किसी लम्हे में
सबसे अज्मल और अफज़ल
फिर भी उनके हामिला होने पर
न कोई करता है सजदे न बन्दगी
न कोई गढ़ता है मिट्टी का परिंद
न ही फूंकता है जान
कि वे उड़ जाएं आसमान में
अजीब तर परिंद है चमगादड़
वह हंसती है दांत रखती हैं
अंडे नहीं बच्चे जनती है
और उन्हें पिलाती भी है
अपनी छातियों से दूध
किसी अंधेरे में
भले ही कोई जानता जाए
दिलों की बातें पर
फरिश्ते बुलाये नहीं आते
जिस वक्त उजाले नहीं होते
हामिला बेटियों के चेहरे पर
8
डिस्पोज़ेबल पीपुल्स

देखिये वे लड़कियां अभी ताजा हैं
हिरनी सी उमंग है उनमें
और निखरी है चांदनी सी
वे एचआईवी निगेटिव है
उनके अपने फिसलते हैं ढलान पर
उन्हें मिल जाएंगे हजार डॉलर
समन्दर में भर जाएगी रेत
उजाड़ हो जाएंगे गांव के खेत
कुछ दिन तो चल जाएंगी
लड़कियां ब्रॉथल में
खूब नाचेंगी ,समेटेंगी
दोनों हाथों से बख्शीश
शैतान बिल्ली बैठी है
रोशनदान में
लड़कियां देखेंगी रंगीनियां
उनका मतलब समझने के पहले
वक्त उड़ा पाए
उनकी यादों से नदी का संगीत
और ऋतुओं की महक
इसके पहले ही
उनकी जांघों पर
बहने लगता है
जलता हुआ दही जैसा स्त्राव
लड़कियों का नाम
कुछ भी रहा हो
तेज बुखार में एक बार लेट जाएं ,
शक हो जाए एड्स का,
तो फेंक दी जाती है लत्ते सी
फिर नहीं चूमता कोई
तपते ओंठों को
वे जानते हैं
अब पिघलेगा सांचे में ढला
उनका मोम जैसा तन
ज़िंदगी में डूबना चाहती थीं बेटियां
वे कहते हैं डिस्पोज़ेबल पीपुल्स
कोई छांह नहीं उनके जख्मों के लिए
9
उन्हें आंखें कैसे कहें
मिदान तहरीर में बहुत शोर है
कौन रोया तूतनखामन की मौत पर
कहना मुश्किल है
उतार दिए जाएं सोने के जूते
मुकुट और सोने का मुखौटा
क्या तब भी हाथ रखेगी रानी
फराओ के कंधे पर
किसे पता होता है
कि जिस जगह आप खड़े हैं
वहाँ इतिहास रचा जा रहा है
इतिहास में शामिल होने का मतलब है
खौफनाक मौसम को करीब से देखना
तूफान की आवाज सुनना
सहरा के साथ साथ हवाओं का मिज़ाज बदलते देखना
हवाएं भला किसका हुक्म मानती है
दिल करे तो उकेर लाती है
समन्दर की तलहटी से जवाहर
अलमा अता के सब्ज़ ख्वाब
फरिश्ते बेकार नहीं उतरते धरती पर
औरतों को सौंपे जाने हैं
उनके गर्भाशय
जिन पर ताले लगे हैं
चाबियां तो मिलेंगी
धरती की तहों में
या कि दरख्तों की फुनगियों पर
नील के पानी में आग बसती है
बांस की टोकरियों में बहते बच्चे
औरतें चेहरों से नकाब नहीं उठाती
उन्हें आंखें कैसे कहें
जिनसे दिखता नहीं है
* मिदान तहरीर-काहिरा का प्रमुख चौराहे
* अलमा अता- प्रजनन स्वास्थ्य का प्रथम वैश्विक सम्मेलन जो काहिरा में हुआ थ
10.
सबसे छोटी चूड़ियां
बिना लपट का
काला धुआं बड़ा गहरा है
किस से पूछें कि
बीजों की खातिर
किसने बनाए बिछौने
बेटियों का होना इस कदर
नागवार है लोगों को
कि ढूंढना पड़ती है बेटियां
धुआं ही नहीं सन्नाटा भी है
आवाज नहीं है पायल की
बरसों से नहीं बिक रही हैं
सबसे छोटी चूड़ियां
लगता है कभी भी जलने लगेंगे
धरती जंगल दरिया और पहाड़
फैलती जाएगी
बिना धुएं वाली अजीम आग
कब्रों से बाहर आएँगे लोग
कौन सी नियामत झुठला दी जाए
शायद फट पड़े आसमान
और झरने लगे
गुलाब के फूलों सी बेटियां
कोई घसीटता है बेटियों को
पीठ के पीछे से लाकर
मिला देता है पांव पेशानी से
हम मर जाए
और हड्डियाँ मिट्टी हो जाए
इससे पूरा नहीं होता फर्ज
पूछ लें आसमान से
किस घर में जन्मी हैं बेटियां
और कह दे हवाओं से
पहुंचा आए हमारी
दुआएँ उन तक
ज़ुल्म और तारीकी से
भरी हुई है दुनिया
धुआँ बाहर नहीं निकलता
भीतर नहीं आती रोशनी
हमारी हदों से क्या सुन पाएंगे
उनकी खनकती हँसी
11.
दरख्त पर लटकी है तलवार
मुनकिरो के लिए सजाए हैं
औरतों से सोहबत करो तो
पाक मिट्टी से तयम्मुम करो
अपने मुँह और हाथ मसह करो
औरतों की तो दुनिया में रुसवाई
और आखिरत में
बदी है दोजख
हमल गिनकर कत्ल करते जाएं
जो बचे उन्हें तंबाकू या नमक चटाएं
या फिर एक हाथ और पांव काटकर
ढक दें उनके चेहरे
और रुखसत कर दे एक अंधेरे से
दूसरे अंधेरे में
बेटियों के आंसुओं से ही
जारी होते हैं पत्थरों से चश्मे
और उनके कदमों से बनती है
दरिया मेरा राह
जिस जमाने में मकबूल
हुआ करती थी कुर्बानियां
आसमान से उतरती थी एक आग
उन्हें उठाने की खातिर
क्या करे हम
अपनी बेटियों की लाशों का
कैसे कबूल होंगी कुर्बानियां
वे गुलरुख हसीनाएं
अब तो डरती है
हमारी ख्वाबों में आने से भी
12.
फिर भी जीना लड़की
बच भी जाओगी
केरोसिन में छुलाई जाती
तीली की बदबूदार लपट से
पर कैसे बच पाओगी
पिता के माथे पर
गहरा आए लकीरों के फंदे से
या तुम्हें पैदा करने के
अपराधबोध से ग्रस्त
माँ की आँखों के
अंधे कुएं से
बिटिया, अब तो
माँ की कोख भी
महफूज नहीं रही तुम्हारे लिए
जहाँ तैर लेती थी तुम
नौ माह निर्द्वंद्व
तुम्हें तलाशते
गंडे ताबीजों के अलावा
हमारे पास अब
अल्ट्रा साउंड की
भेदती आंखें हैं
कोरियान बायोप्सी की
तीखी सलाई है
तुम फिर भी जीना लड़की
जितनी बार मरना
उतनी ही बार जी जाना
हमारी मृत संवेदनाओं के किलिमिंजारो में
13.
औरत जान लो
औरत जान लो
तुम गढ़
सकती हो समूचा ब्रह्मांड
सिर्फ छुड़ाने होंगे माथे से चिपके
पौरुषीय मानदंड
उतारने होंगे पवित्रता और सतीत्व के लेबल
फेंकना होगा जोक की तरह
चिपका हुआ डर
फिर देख लो
तुमने गढ़ ही लिया है ब्रह्मांड
इसी देह से
14.
देखना चाहता था स्त्री को सिर्फ स्त्री की तरह
जिस वक्त पृथ्वी हरी थी
और आसमान था नीला
उस वक्त देखना चाहा एक स्त्री को सिर्फ स्त्री की तरह
पर ऐसा हुआ नहीं
कुछ चुप थी
झुकी हुई थी उनकी आंखें
पिता ,पति ,पुत्र ही नहीं
दादियों और माँओ की
असंख्य छायाओं में
छुपी स्त्रियों की नींद को
नसीब नहीं थे सपने
वे कुछ भी नहीं कहती थी
प्रेम के बारे में
जब समुद्र में लहरें
इठला रही है
नई फुनगी पर
सतरंगी चिड़िया चहक रही है
उस वक्त तलाश जारी है
उस औरत की
जो बता सके आंखें खोलकर
कि उसके पोर पोर में
बसता है प्रेम
और बिना किसी
शिकंजे के भी
उतनी खूबसूरत है उसकी देह
जितना की पूरे खिले फूल को होना चाहिए
15.
दरवाजों से निकल आई औरतें
देह को अलगनी पर टांगकर
दरवाजों से निकल आई औरतें
अब तक सिद्ध हुए
तमाम पौरुषीय प्रमेयों को
उलट पुलट गई है
बिना देह वाली औरतें
छीन लेती हैं अपना हक
घसीट लाती है वक्त की दुकान से
जिन्दा पल
चुप चाप सांस लेती है
पत्तों की तरह और
खिलना भी जानती है
भरपूर फूलों की तरह
17.
तुम्हारे साथ थिरकेंगे खून से लथपथ बारह सौ कदम
बेटी, सजाना है तुमको
तरुण तहलियानी के जड़ाउ डिजाइनर लहंगे से
तो खत्म करना होगा छः सौ बेटियों को
जो जानती नहीं पूरी तरह से
हमारी दुनिया के बारे में
बस चुपचाप हिलती डुलती
रहती है माँ की कोख में
तेरा लहंगा खूबसूरत होगा
हीरे मोतियों ओर सूर्यकांत
मणियों से सजा
तुम नाचो तुम्हारे साथ
थिरकेंगे खून से लथपथ बारह सौ कदम
तुम गाओ तुम्हारे स्वर में घुलेंगे
छः सौ स्वर
बस तुम रोना मत
तुम्हारे साथ रोने लगेंगी छः सौ बेटियां
डूब जाएगी धरती और
हमारी दुनिया आंसुओं के दरिया में
२०
दुनिया से गायब होकर कहा मिलोगी बेटियों

हमारी पकड़ से बचती रहना
हमारी पकड़ में पाप है
तुम छटपटाओ
दम तोड़ दो
बच जाओ तो हम
पहना सकते हैं
तुम्हारे नन्हें पांवों में
लोहे के जूते
सूखे होठों पर जीभ फेरती
देखती हो
माँ के दूध की धार
दुखांत कथा की नायिकाओं
पी क्यों नहीं जाती
समुद्र का जल
सोती होंगी तुम्हारे गर्भ में
अनागत सभ्यताएं
कैसी लपटों में जलता है देश काल
हमने ज्वालामुखियों के मुहाने में
सिर डाल दिए है
इस दुनिया से गायब हो कर
फिर कहा˙ मिलोगी बेटियों

 

परिचय
वीणा सिन्हा
जन्म: 24 अगस्त 1957 बस्तर, छत्तीसगढ़ के गांव सुकमा में हुआ पिता मुरलीधर तथा माता बिंदु की तीसरी पुत्री
शिक्षा : इंजीनियर पिता के तबादलों के साथ मध्यप्रदेश के गांव व कस्बों में पढ़ते हुए स्वर्ण पदकों के साथ स्त्री रोगविज्ञान में एम डी की उपाधि प्राप्त की
रचनाएँ: पहला काव्य संकलन “तुम्हें जाना है मैंने“ वाणी प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित ,पहले उपन्यास “पथ प्रज्ञा” की पांडुलिपि को आर्य स्मृति साहित्य सम्मान व अखिल भारतीय दिव्य पुरस्कार प्राप्त ,दूसरा उपन्यास “सपनों से बाहर” वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित, काव्य संकलन “तो कभी टूटता नहीं सॉबीबोर” मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत ,”सुबह की धूप” कविता संग्रह राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा पुरस्कृत, इसके अतिरिक्त “फिर भी जीना लड़की” अंग्रेजी में “ए ग्लो इन द मिरर” कविता संकलन और उपन्यास “अनलेस ए परफेक्ट रिदम सेट्स इन” प्रकाशित. हाल ही में प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली से प्रकाशित बहुचर्चित उपन्यास “अग्नि गर्भ में में जलती पंखुरियां” विश्व पुस्तक मेले में लोकार्पित.
सम्प्रति :अपर संचालक स्वास्थ्य सेवा के पद से सेवानिवृत्त तथा वर्तमान में भ्रमण व स्वतंत्र लेखन
संपर्क- एम आई जी 3 रवि शंकर शुक्ला मार्केट, शिवाजी नगर ,भोपाल 462016
ईमेल drveenapatkisinha@gmail.com


Discover more from रचना समय

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Categorized in: