“नकारती हूं निर्वासन” प्रभा मुजुमदार लिखित कविता संग्रह मनुष्य के भाव जगत, सामाजिक अंतर्विरोधों, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विघटनकारी शक्तियों को विश्लेषित कर उन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर दृष्टिपात करता है जिनका संज्ञान लिए बिना एक सुखद समाज और लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाए रखने की कवायद को मूर्त रूप देना संभव नहीं हो सकता।मानवीय संवेदनशीलता को बनाए रखने की मुहिम साहित्य हमें देता है। यही क़लम की ताक़त रचनाओं में व्यक्त होकर पाठक को आंदोलित करने की क्षमता रखती है। इसी क्षमता से लैस हैं नकारती हूं निर्वासन की कविताएं। यह केवल भावुक उच्छवास न होकर संकल्प की दृढ़ इच्छा शक्ति से ओत-प्रोत हैं जिस से जग जीता न जा सके तो भी जीवन को अवश्य सुदृढ़ ,सुगठित बनाए जाने के चिंतन का प्रतिबिंब इनमें दिखाई देता है। जिनमें अतीत से लेकर वर्तमान तक की अनेक छवियों का दृश्यमान किया जा सकता है।
खुदेजा ख़ान की इस समीक्षा के आलोक में प्रभा मुजुमदार की पुस्तक के मर्म को समझा जा सकता है। – हरि भटनागर

समीक्षा:
समय और सत्ता की प्रतिकूलताओं का पानी जब सर से ऊपर चढ़ जाए और सामान्य सांस लेना भी दूभर हो जाए तो छटपटाहट लाज़मी है। लाज़मी है हाथ- पैर मार कर इन कठिन परिस्थितियों से बाहर निकलने की जद्दोजहद करते हुए स्वच्छ वातावरण में प्राण वायु ग्रहण करने के प्रयास करना। लाज़मी है विरोध में प्रतिरोध के स्वर मुखर करना ताकि सुप्त चेतना को जागृत किया जा सके। अपनी क़लम से असंवेदनहीनता को संवेदनशीलता में बदला जा सके।
हर युग अपने विकट दौर से गुज़रता है। कुछ ऐसी स्थिति-परिस्थिति निर्मित करता है जिससे जन सामान्य में विचलन और असंतोष गहरा जाता है इसका सीधे-सीधे तत्काल निदान संभव भले न दिखे किंतु इन्हीं अंतर्विरोधों के बीच कविता का जन्म होता है।
सन 1982 से 2017 की लंबी कालावधि तक और उसके बाद के घटनाक्रमों को क़लमबद्ध करते हुए वरिष्ठ एवं प्रतिबद्ध कवयित्री प्रभा मुजुमदार के अब तक चार कविता संग्रह -अपने-अपने आकाश (2003) तलाशती हूं ज़मीन (2010) अपने हस्तिनापुरों में (2014) सिर्फ स्थगित होते हैं युद्ध (2019)के बाद एक और कविता संग्रह बोधि प्रकाशन (जयपुर) से प्रकाशित होकर –
“नकारती हूं निर्वासन”( 2025) हमारे समक्ष आया है।
संग्रह की रचनाओं का समय वैश्विक तथा राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं उनके निजी जीवन के भी अनेक बदलाव अर्थात संक्रमण काल का है। अपनी बात में वह कहती हैं-” कटुता, विद्वेष, एकाधिकार तथा शाही मानसिकता के दौर में अलग विचारों, मान्यताओं को नकारने अथवा हाशिए पर धकेले जाने के षड्यंत्र को पहचान कर उनके निर्वासन की ये अस्वीकृति भी है।”
यानी यह केवल स्त्री जगत ही नहीं बल्कि समूचे उपेक्षाग्रस्त जनजीवन एवं परिस्थितियों के प्रति अपनी आवाज बुलंद करने का एक सजग प्रयास है।
समय की विद्रूपताओं से जरूरी हस्तक्षेप करती यह कविताएं वैश्विक स्तर पर एक क्रूर तटस्थता की मानसिक स्थिति से गुजर रही दुनिया के बहुस्तरीय विघटन से परिचित कराती हैं।
यह बात करती हैं मनुष्य के बदलते व्यवहार की, प्रकृति से जुड़े सह अस्तित्व की, साझा संस्कृतियों की जहां विविधताएं घुल-मिल कर रहने में असुविधा महसूस नहीं करतीं। मौसम हो या मानव, राहत की तलाश दोनों को है।
हॉर्न की अनवरत कर्कश्ता में
बसंत ढूंढता है
कोयल की कूक
कहीं नदी का खत्म होना
एक नदी का ही अंत नहीं होता
ये सभ्यताओं का भी अवसान है
तुम्हारा आकाश
अनंत अपरिमित
क्षितिज के उस पार
मेरा आसमान
पेड़ की फुनगियों तक
सामर्थ्य भर पंखों की उड़ान
जबकि तुम्हारे आकाश में
सत्ता का सूरज
मेरे आसमान में चिंता, उदासियां, अनिश्चितता
प्रभा मुजुमदार की कविताओं में अंतरमन के कोलाहल को स्पष्ट सुना जा सकता है। यह कोलाहल बाहरी और भीतरी दोनों तरफ़ से प्रभाव डालता है कहीं वेदना को बढ़ाता, कहीं संवेदना को झकझोरता। जीवनानुभव और मनोजगत के सूक्ष्म आवेग कैसे सामाजिक सरोकारों से निबद्ध होकर कविताओं का रूप ले लेते हैं कि सुगढ़ शब्द संयोजन की तीव्रता पाठक तक पहुंचने में अहम भूमिका निभाती है।
रचना धर्मिता जीवन यात्रा की तरह विभिन्न पड़ाव से होते हुए कुछ ऐसे प्रस्थान बिंदु दे जाती है जो क़लमबद्ध होकर कविता दर कविता दर्ज होते जाते हैं। प्रभा मुजुमदार एक चिंतनशील कवि होने के साथ-साथ जागरूक नागरिक की तरह समाज, संस्कृति, राजनीतिक समीकरणों पर पैनी नज़र रखती हैं इनके श्रृंखलाबद्ध विचारों में आपसी रिश्ते, दैनंदिनी जीवन की आहटें, स्वभावगत चेष्टाएं, भावनाएं विभिन्न रूपों में प्रकट होती हैं।
ज़िद,शब्द, शब्दों की रोशनी में, नदी, स्मृति, आकाश प्रतीक्षा, मां, डर,मेरा देश, बापू तुम मरते नहीं,कोरोना काल में,ये कुछ ऐसी कविताएं हैं जो दो भागों में बंटकर अभिव्यक्ति के दो पक्षों को समक्ष रखती हैं।जिनमें नकारात्मक और सकारात्मक भावों का गहन व संतुलित समावेश देखने को मिलता है।
एक कविता “स्थानांतरण पर” यह चार भागों में विभिन्न मन: स्थितियों को उद्घाटित करती है।
एक- अपने उसी पुराने शहर
लौट आई हूं मैं
परिचय और पहचान की
तलाश कर रही हूं
दो- दहलीज के भीतर छूटे
अपने ही कितने हिस्से
तीन-हर बार
एक अनजान शहर
यूं ही चुपचाप
दाखिल हो जाता है
मेरे भीतर
चार -अकेलेपन का घेरा
असुरक्षा का एहसास
किसी एक बिंदू के सापेक्ष
अपनी उपस्थिति को
दर्ज करना चाहती हूं।
पृष्ठ 47-56
स्थानांतरण भी किसी विस्थापन से कम नहीं होता। जगह नयी हो या पुरानी हर दफ़ा अपनी पहचान नये सिरे से गढ़ना श्रमसाध्य कार्य है, इस प्रक्रिया से गुज़रना पीड़ा दायक भी हो सकता है और सीखने योग्य भी।
कविताओं में कवि की भावुक उपस्थिति अपरिहार्य है लेकिन इस संग्रह में कवि के सरोकार बहुत व्यापक और सार्वभौमिक बनकर उभरे हैं-
“विभाजन”
कुछ भी हो सकता है
नफ़रत का नाम
कुरुक्षेत्र से लेकर
गज़ा पट्टी
कहीं भी हो सकती है
वह ख़ूनी विभाजक रेखा
पृष्ठ -86
हम जिस परिवेश, देशकाल में रहते हैं उसके प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष असर से अछूते नहीं रह पाते। निरपेक्ष रहकर भी ये भाव अचेतन मन में अपनी सुगबुगाहटों से गाहे-बगाहे सतह पर आकर झलक दिखा ही देते हैं।
“डर”
दरिंदगी की हद तक भी
ले जाता है कई बार
डर से मुक्ति
डराकर तो नहीं हो सकती
पृष्ठ 87-88
वर्तमान की विडम्बनाएं, बहरुपिए की तरह भिन्न-भिन्न छवियों में कभी चौराहों पर,कभी जुलूस की शक्ल में, कभी सभाओं में दृष्टिगोचर होती रहती हैं।इस समय कवि की चिंताएं मशाल बनकर जन समुदाय के साथ खड़ी रहती हैं। प्रयोजन, झूठ, कविता में आधिपत्य और वर्चस्व की स्थापना के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जाने की साज़िशें चरम पर हैं जिनके चलते –
बिन प्रयोजन
नहीं रखा जाता है
चौराहे पर पत्थर। पृष्ठ -89
इन दिनों
झूठ का सबसे बड़ा मुक़ाबला
झूठ से ही है
सच से ज़्यादा
सच्चे होने का
प्रमाण पत्र हासिल है उसे। पृष्ठ – 91
समय के अंधे मोड़ पर,कब तक, चुप नहीं रहतीं औरतें,निर्धार, आदि स्त्री मूलक कविताओं में उनका पक्ष सशक्त होते हुए भी इक्कीसवीं सदी ने स्त्री जीवन को और भी चुनौतीपूर्ण स्थिति में ला खड़ा किया है। आज दुश्शासन कुकर्म के बाद भी अदालतों से बरी किए जा रहें हैं।बिलक़ीस बानो और श्रद्धा से जुड़ी त्रासद घटनाओं की स्मृति मिट नहीं पाती है।
शीर्षक कविता – नकारती हूं निर्वासन, एक जयघोष की उद्घोषणा है-
मगर इस बार इंद्रप्रस्थ की महारानी हो
या अमृतकाल की सांसद
अनुनय -विनय नहीं
वन गमन तो कतापि नहीं। पृष्ठ -110
बापू तुम मरते नहीं, जनतंत्र,देश,मेरा देश ये कविताएं आम जनता का प्रतिनिधित्व करते हुए, सर्वहारा की बात करती हैं जहां लोकतंत्र न बापू को कभी अप्रासंगिक होने देता है,न देश को केवल एक झंडा समझता है। लोक की ताक़त से बड़ी कोई शक्ति नहीं।
इनकी एक जुटता को खण्डित करने के प्रयास को, सामान्य जीवन को क्षतिग्रस्त करने की मंशा को सिरे से नकारती हैं प्रभा मुजुमदार।
तमाम विराधाभासों के बावजूद
मेरा देश
इतिहास, वर्तमान और
भविष्य की निरंतरता है
अपने – अपने सपनों का
अंतरिक्ष है मेरा देश। पृष्ठ -122
जिसमें विभिन्न संस्कृतियों की सड़कें और पंगडंडिया आपस में मिलजुल कर जन साधारण के आवागमन का सुगम साधन बनतीं हैं।
इन कविताओं के शीर्षक ही पर्याप्त हैं जो स्वयं चुग़ली कर देते हैं कि दोमुंही नीतियों से किस तरह अपना उल्लु सीधा किया जाता है।
तानाशाह के लिए,राजा नंगा है, राजा ने कहा रात है,
स्वर्ण युग,डर के साये में,नीरो,इन दिनों, हस्तिनापुर, लाक्षागृह, रेवड़ियां,डरो ये सभी कविताएं सत्ता और सत्ताधारियों के छल-छद्म का महीन पोस्टमाॅर्टम करतीं हैं। जिन्हें अक्सर बड़ी चालाकी से छुपा लिया जाता है।
फिर भी आश्वस्त, संभावना, उम्मीदों के द्वीप जैसी कविताएं आशा के प्रकाश स्रोतों के माध्यम से मनुष्य और मनुष्यता की जिजीविषा को बचाए रखने,बनाए रखने में अपना विश्वास जताती हैं। यही विश्वास हमें और हमारी सभ्यता को अक्षुण्ण रखने में मदद करता है।
प्रभा मुजुमदार की कविताओं का भाषा सौष्ठव सुगठित है,शिल्प कसा हुआ और शैली प्रवाहमयी है।
वैचारिक चिंतन से लैस इन कविताओं का आस्वादन, पठनीय,सम्प्रेषणीय है। इसे पढ़ा जाना सम सामयिकी से साक्षात्कार करना है।
पुस्तक – नकारती हूं निर्वासन
लेखिका – प्रभा मुजुमदार
प्रकाशन- बोधि प्रकाशन (जयपुर)
2025
मूल्य – ₹275/-

ख़ुदेजा ख़ान
जन्म- भोपाल।
हाई स्कूल तक की पढ़ाई म.प्र.के शहरों में।
स्नातक- बी एस सी
स्नातकोत्तर- हिंदी व संस्कृत।
लेखन कर्म -1985 से
जगदलपुर (छत्तीसगढ़) में निवासरत।
5 किताबें प्रकाशित।
हिंदी में ‘सपना सा लगे’ (ग़ज़ल संग्रह),2001
‘संगत'(कविता संग्रह)2014
ऊर्दू नज़्म का संग्रह ‘आबगीना’ 2018
हिंदी-ऊर्दू (bilingual)’ फ़िक्र ओ फ़न’ (2021)
सुनो ज़रा ( कविता संग्रह)
2024
कविता, समीक्षा और संपादन में सक्रियता।
Discover more from रचना समय
Subscribe to get the latest posts sent to your email.
