सुकांत भट्टाचार्य बँगला कविता का सर्वाधिक लोकप्रिय नाम है। मात्र बीस बरस की अल्पायु पाने वाले इस कवि के बारे में रवीन्द्रनाथ टैगोर का यह उद्गार ग़ौरतलब है। शोषित पीड़ित अवाम का जो शोकगीत वे स्वयं न गा सके, इस कवि ने संभव कर दिखाया। सुकांत की कुछ कविताएं यहां प्रस्तुत हैं। अनुवाद उत्पल बैनर्जी ने किया है। – हरि भटनागर
कविताएँ
बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी
1.
हे महाजीवन
हे महाजीवन, यह काव्य अब और नहीं
अबकी बार लाओ कठिन, कठोर गद्य,
मिट जाए पद-लालित्य-झनकार
गद्य के कठोर हथौड़े से करो वार!
कविता की स्निग्धता का अब कोई प्रयोजन नहीं —
कविते! आज तुझे छुट्टी दी
भूख के राज्य में गद्यमय है पृथ्वी
पूर्णिमा का चाँद मानो झुलसी हुई रोटी।।।।
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2.
पहली-मई की कविता
लाल लपटें धधक उठी हैं चारों दिशाओं में
अब कुत्तों की तरह जीते रहने का क्या अर्थ है?
फेंक दी गई उच्छिष्ट हड्डियों से
संतुष्ट रहोगे! कब तक?
क्षीण अस्पष्ट रिरियाहट में
कब तक व्यक्त करते रहोगे
मन की बातें?
भूखे पेट झुक-झुक कर चलोगे कितने दिन?
लटकती जीभ लिए
साँसों में थकन ढोते हुए
काँपते रहोगे आख़िर कब तक?
सिर पर मीठे तमाचों और पीठ पर हाथ की थपकियों में
कब तक भूले रहोगे
पेट की आग और गले की ज़ंजीर को?
कब तक हिलाते रहोगे दुम?
इसके बजाय अस्वीकार करो पालतूपन —
अस्वीकार करो परवशता!
आओ, सूखी हड्डियों के बजाय
तलाश करें ताज़े ख़ून की,
तैयार हो लाल लपटों में झुलसा हुआ हमारा भोजन!
ज़ंजीर के दाग़ को ढाँपती हुई उग आए
शेर की अयाल हरेक की गर्दन पर!
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3.
अनन्योपाय
गढ़ने की कितनी ही कोशिशें बेकार गईं
व्यर्थ हुआ मेरा उद्यम,
नदियों पर बेकार हुए मछुआरे,
बुनकर घरों में, ख़ामोश हो गए कुम्हार,
अधबना रह गया प्रासाद,
बंद हुए छत पीटने के गीत
बेकार हो गए किसानों के हल
धान से भरे नहीं हैं खेत।
जितनी बार गढ़ता हूँ
अन्याय की अबाध बाढ़
पल-भर में निर्मित सृष्टि को तहस-नहस कर देती है।
बार-बार यह विफलता।
इसीलिए आज मन में जन्मा है विद्रोह
बिना बाधा के कुछ गढ़ने के स्वप्न टूट गए हैं
मोह हुए छिन्न-भिन्न।
अब आज है तोड़ने के स्वप्न, अन्याय के दंभ को तोड़ने के स्वप्न,
विपत्ति के ध्वंस में ही मुक्ति है,
कोई और रास्ता नहीं दिखाई देता,
इसीलिए तंद्रा को तोड़ता हूँ, तोड़ता हूँ अंधविश्वासों की बाधाएँ,
बंद जेलों को तोड़ कर पसार देता हूँ आकाश की नीलिमा
निर्विघ्न सृष्टि चाहते हो?
तो फिर विघ्नों की वेदियों को तोड़ो
तोड़ने के तमाम हथियार
बिखेर दो चारों ओर।
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4.
कब
अनेक स्तब्ध दिनों के इस पार चकित हैं चारों दिशाएँ
आज भी ज़िंदा हूँ,
मौत का सताया हुआ बचा हुआ हूँ आज भी।
हिल उठते हैं दिन
किसान और मज़दूर बस्तियाँ शपथ ले रही हैं
हज़ारों लोगों ने आज मैदानों बंदरगाहों में आवाज़ दी है।
आज होती है रोशनी, हमारी अस्थियों में इकट्ठा होती है बिजली,
मरे हुए दिन की लंबी टहनी पर खिलता है वसंतदूत।
मूढ़ इतिहास, चालीस करोड़ सैनिकों का सेनापति।
एकजुट दिन, कौन रोकेगा इस समवेत गति को?
जानता हूँ हमारे अनेक युगों के संचित सपने
तेज़ी से साकार होंगे
जो तुम्हारे दिन और रातों से ही घिरे हुए हैं।
इसीलिए ओ आदिम क्षत-विक्षत जीवन के विस्मय,
लाओ बाढ़, असहनीय दिन है, इसलिए अब और विलंब नहीं।
समूची पृथ्वी के दरवाज़े पर है मुक्ति, और यहाँ अँधेरा है,
वैतरणी पार होने का समय यहाँ कब आएगा?
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5.
महात्मा जी के प्रति
चालीस करोड़ की जनता में — जानता हूँ — एक मैं भी हूँ,
मैंने अचानक घोषणा सुनी
कि मेरे जीवन में आया है शुभ मुहूर्त,
और तभी मिट गई सहमी हुई चिंताओं की अटपटी रेखाएँ।
ख़ून में बज उठा उत्सव
आज बाँह थामो गाँधी जी।
यहाँ हमने लड़ाइयाँ लड़ी हैं, मरे हैं हम,
हमने अंगीकार किया है
कि मरी हुई देहों की बाधा ठेलकर
हम करेंगे अजेय राज्य को पार।
आई है बाढ़, आई है मृत्यु, बाद में युद्ध का तूफ़ान,
अकाल छोड़ गया है रास्तों पर अपने हस्ताक्षर,
हर पल महसूस हुआ कि
इस बार मिटा देगा इतिहास —
फिर भी उद्दाम हैं हम,
मृत्यु-आहत हमने नहीं भरी आहें,
नगरों गाँवों के श्मशानों में लगे हैं स्मारक-चिह्न,
अनेक मौतों के सामने मैंने दृढ़ किया है विजय का ध्यान।
तभी तो यहाँ आज घनिष्ठ सपनों के बिल्कुल पास,
लगता है जैसे तुम्हारे ही भीतर हम सब ज़िंदा हैं —
कि जैसे तुम्हें हमने पाया है अनेक मृत्युओं को पार कर अंत में,
हम गढ़ेंगे तुम्हें प्राचीर, ध्वस्त-बिखरे इस देश में।
दिग्दिगंत में अपने हाथ पसारकर
पुकारा है तुमने,
तभी तो आज गाँवों और शहरों में
लाखों-लाख लोग धड़क रहे हैं।
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6.
आगामी
मैं जड़ नहीं, मृत नहीं, अँधेरे का खनिज भी नहीं
मैं तो हूँ एक जीवंत प्राण
एक अंकुरित बीज हूँ मैं
मिट्टी में पला, भयभीत
आकाश की पुकार पर आज ही
मैंने अपनी संशय भरी आँखें खोली हैं,
सपनों से घिरा हुआ हूँ मैं।
भले ही नगण्य हूँ, तुच्छ हूँ वटवृक्षों के समाज में
फिर भी इस छोटी-सी देह में
मर्मर ध्वनि बजती है,
धरती को फोड़
मैंने उजाले का आना-जाना देखा है,
इसीलिए मेरी जड़ों में है अरण्य की विराट चेतना।
आज सिर्फ अंकुरित हूँ
जानता हूँ कल छोटी-छोटी पत्तियाँ
उद्दाम हवा के ताल पर अपने सिर हिलाएँगी
फिर दीप्त टहनियाँ पसार दूँगा सबके सामने,
खिलाऊँगा विस्मय के फूल
पड़ोसी पेड़ों के चेहरों पर।
तेज तूफान में भी मज़बूत हैं मेरी जड़ें
जानता हूँ मेरी टहनियों की बाधा से
तूफान थमेगा ही,
जानता हूँ
मेरे अंकुरित साथी मेरे आह्वान पर
नए अरण्य के गीत में मुखरित होंगे,
अगले वसंत में जानना
मैं भी शामिल हो जाऊंगा बड़ों की जमात में
पत्तों की जयध्वनि में आदर प्रकट करेंगे सभी,
छोटा हूँ लेकिन तुच्छ नहीं —
मुझे पता है — मैं भावी वनस्पति हूँ
बारिश में, मिट्टी के रस में मुझे यही सम्मति मिलती है,
उस दिन छाया में आकर
यदि वार करोगे कुल्हाड़ी का
तो भी मैं तुम्हें हाथ के इशारे से पुकारूँगा
फल दूँगा, फूल दूँगा, पक्षियों का कलरव भी दूँगा
एक ही मिट्टी में पला-बढ़ा
मैं तुम्हारा ही रिश्तेदार हूँ।
पौधा
टूटी-सी झोंपड़ी में रहता हूँ,
पड़ोस में एक विशाल महल
हर रोज़ नज़र आता है;
वह महल ज़बर्दस्त होड़ में प्रतिदिन
आसमान से दोस्ती जताता है;
मैं इसे ध्यान से देखता रहता हूँ।
देखता रहता हूँ और मन ही मन सोचता हूँ —
इस अट्टालिका की हरेक ईंट के हृदय में
ख़ून, पसीने और आँसुओं की
बहुत-सी कहानियाँ छिपी हुई हैं।
फिर भी इस महल को
हज़ारों लोग रोज़ सलाम करते हैं
विमूढ़ विस्मयता लिए देखते रहते हैं उसे।
इसीलिए मैंने इस महल में अब तक ऐश्वर्य ही देखा है,
देखी है एक दंभी अभिजात कीर्ति की महिमा।
अचानक उस दिन
मैंने थोड़े विस्मय से देखा
बहुत पुराने उस महल की कंगनी के बग़ल में
बरगद का एक पौधा।
और फ़ौरन पृथ्वी ने
मेरी आँखों और मन के पर्दे पर
आने वाले दिनों की तस्वीर क्षण-भर में उकेर दी।
छोटे-छोटे पौधे —
रसहीन, खाद्यहीन कंगनी के बग़ल में
तन्दुरुस्त शिशुओं की मानिंद पनपने लगे
उग्र उच्छ्वास लिए।
अचानक पल-भर के लिए
मुझे उस शिशु में दिखाई दिया एक विशाल वृद्ध बरगद
जिसकी जड़ों ने उस उद्धत अभिजात महल की देह पर
पैदा कर दी है न रोकी जा सकने वाली दरारें।
छोटे-छोटे पौधे —
हवा में हिलते रहते हैं चुपचाप,
कान लगाकर सुनते हैं–
हरेक ईंट के नीचे दबी पड़ी
ख़ून, पसीने और आँसुओं की अनगिन गुप्त कहानियाँ।
तभी तो अवाक हूँ मैं
बरगद के तमाम पौधों में
चुपचाप सुलगता रहता है विद्रोह
देह में इकट्ठा होता है शक्ति का बारूद;
महल को भेदती बाढ़ आती है हरेक जड़ में।
लगता है
ख़ून, पसीने और आँसुओं की धाराओं में
जन्मे हैं ये बरगद के शिशु,
इसीलिए विद्रोह के दूत हैं वे।
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7.
सीढ़ी
हम सीढ़ियाँ हैं —
तुम हमें पैरों तले रौंदकर
हर रोज़ बहुत ऊपर उठ जाते हो
फिर मुड़कर भी नहीं देखते पीछे की ओर
तुम्हारी चरणधूलि से धन्य हमारी छातियाँ
पैर की ठोकरों से क्षत-विक्षत हो जाती हैं — रोज़ ही।
तुम भी यह जानते हो
तभी कालीन में लपेट कर रखना चाहते हो
हमारे सीने के घाव
छुपाना चाहते हो तुम्हारे अत्याचार के निशान
और दबाकर रखना चाहते हो धरती के सम्मुख
तुम्हारी गर्वोद्धत अत्याचारी पदचाप!
फिर भी हम जानते हैं
दुनिया से हमेशा छुपे न रह सकेंगे
हमारी देह पर तुम्हारे पैरों की ठोकरों के निशान
और सम्राट हुमायूँ की तरह
एक दिन
तुम्हारे भी पैर फिसल सकते हैं!
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8.
आग्नेयगिरि
कभी-कभी अचानक लगता है
कि मैं एक आग्नेय पर्वत हूँ।
शांति की गहरी छाया से घिरी गुफा में सो रहे सिंह की तरह
बहुत दिनों की नींद है मेरी आँखों में।
विस्फोटों के अंतराल में
कितनी ही बार तुमने मेरी हँसी उड़ाई है
मैं पत्थर की तरह सब कुछ सहता रहा।
मेरे चेहरे पर झीनी हँसी है
और सीने में धधक रहा है पुंजीभूत लावा
सिंह की तरह अधखुली आँखों से मैं सिर्फ़ देख रहा हूँ,
झूठ की नींव पर कल्पना के गारे से निर्मित तुम्हारे शहर,
और मुझे घेरे हुए है रचित उत्सव की निर्बोध अमरावती —
कटाक्ष की हँसी और विद्वेष की आतिशबाज़ी —
तुम्हारे नगर में है मदोन्मत्त पूर्णिमा।
देखो, देखो —
घनी छाया, घने जंगल मुझे देखो;
देखो मेरी उदासीन वन्यता।
तुम्हारा शहर उड़ाता रहे मेरा उपहास
कुल्हाड़ी से आहत करे मेरा धैर्य,
तुम मत करना विश्वास कि
विसुवियस-फ़्यूज़ीयामा का सहोदर हूँ मैं!
तुम्हारे लिए अज्ञात ही रहे
भीतर ही भीतर मरोड़ लेते मेरे आग्नेय-उद्गार
अरण्य-ढँकी अंतर्निहित आग की लपटें।
तुम्हारे आकाश में है फीका प्रेत-उजाला
जंगली पहाड़ पर है धुएँ का झीना अवगुंठन,
आशंका की कोई बात नहीं — शायद कोई नया मेघदूत, वह!
उत्सव मनाओ; उत्सव मनाओ —
भूल जाओ कि नेपथ्य में एक आग्नेय-पर्वत है
विसुवियस-फ़्यूज़ीयामा का जाग्रत वंशज।
और हमारे
रोज़नामचे में दर्ज हो जाए
आसन्न विस्फोट की चरम पवित्र तिथि।
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9.
सिगरेट
सिगरेट हैं हम।
तुम हमें जीने क्यों नहीं देते?
जलाकर हमें क्यों ख़त्म किए देते हो?
क्यों इतनी कम है हमारी ज़िंदगी?
मानवता की कौन-सी दुहाई देने वाले हो तुम?
इस धरती पर बहुत कम है हमारी क़ीमत,
तो क्या इसीलिए तुम हमारा शोषण करते हो?
विलास की सामग्री के तौर पर जला डालते हो?
तुम्हारे शोषण के कश-दर-कश हम राख होते हैं,
तुम मस्त हो जाते हो आराम के उत्ताप से।
तुम लोगों का आराम : हम लोगों की मौत है।
इस तरह और कब तक चलता रहेगा?
और कब तक हम इसी तरह निःशब्द
उम्र को हरने वाली तिल-तिल मृत्यु को आवाज़ देते रहेंगे?
दिन और रात — रात और दिन;
तुम लोग हर वक्त़ हमारा शोषण कर रहे हो —
हम लोगों को आराम नहीं, मज़दूरी नहीं —
थोड़ा-सा अवकाश भी नहीं।
इसलिए अब और नहीं;
हम लोग अब क़ैद नहीं रहेंगे
डिबियों और पैकेटों में
उंगलियों और जेबों में;
सोने से मढ़े ’केस’ में नहीं घुटेंगी हमारी साँसें।
हम निकल पड़ेंगे
सब एक साथ, एकजुट होकर —
फिर तुम्हारे बेख़बर क्षणों में
सुलगते हुए हम तुम्हारे हाथों से छिटक पड़ेंगे
बिस्तर या फिर कपड़ों पर;
चुपचाप भभक कर
तुम्हारे घर-भर को जला डालेंगे
जिस तरह इतने अरसे से तुमने हमें जला डाला है।
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10.
अठारह साल की उम्र
कितनी असहनीय होती है अठारह साल की उम्र
स्पर्द्धा से लेती है सिर उठाने की ज़िम्मेवारी,
अठारह की उम्र में ही अहरह
झांकने जो लगते हैं बड़े-बड़े दुस्साहस।
अठारह की उम्र में नहीं होता है डर
लात मारकर तोड़ डालना चाहती है पत्थर-सी बाधाएँ,
इस उम्र में कोई सिर नहीं झुकाता —
अठारह साल की उम्र रोना नहीं जानती।
यह उम्र जानती है ख़ून देने का पुण्य,
भाप की गति से स्टीमर की तरह चलती है,
सौंपकर आत्मा को शपथ के कोलाहल में
जान लेने-देने की झोली ख़ाली नहीं रहती।
भयंकर है अठारह साल की उम्र
ताज़े-ताज़े प्राणों में तकलीफ़ होती है असहनीय,
इस उम्र में तेज़ और प्रखर होते हैं प्राण
इस उम्र में कितनी ही मंत्रणाएँ आती हैं कानों में।
कितनी दुर्वार है अठारह साल की उम्र
पथ-प्रांतर में पैदा करती है कितने ही तूफ़ान,
आंँधी-बरसात में पतवार सँभालना मुश्किल है
क्षत-विक्षत होती हैं हज़ारों जानें।
अठारह साल की उम्र में आती हैं चोटें
लगातार, एक-एक कर जमती जती हैं।
यह उम्र लाखों उसाँसों से हो जाती है स्याह
पीड़ा से थर-थर काँपती है यह उम्र।
फिर भी मैंने अठारह की जयध्वनियाँ सुनी हैं
यह उम्र बची रहती है दुर्दिनों और तूफ़ानों में भी,
विपत्ति के समय सबसे आगे होती है यह उम्र
यह उम्र कुछ तो नया करती है।
तुम जानना, यह उम्र कायर नहीं होती
नहीं होती कापुरुष,
राह चलते हुए नहीं थम जाती यह उम्र,
इसीलिए इस उम्र में कोई संशय नहीं होते —
काश! इस मुल्क़ के सीने में अठारह उतर आए!!
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उत्पल बैनर्जी
जन्म 25 सितंबर, 1967,(भोपाल, मध्यप्रदेश)
मूलतः कवि. अनुवाद में गहरी रुचि.
‘लोहा बहुत उदास है’ शीर्षक से पहला कविता-संग्रह वर्ष 2000 में सार्थक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित.
वर्ष 2004 में संवाद प्रकाशन मुंबई-मेरठ से अनूदित पुस्तक ‘समकालीन बंगला प्रेम कहानियाँ’, वर्ष 2005 में यहीं से ‘दंतकथा के राजा रानी’(सुनील गंगोपाध्याय की प्रतिनिधि कहानियाँ), ‘मैंने अभी-अभी सपनों के बीज बोए थे’ (स्व. सुकान्त भट्टाचार्य की श्रेष्ठ कविताएँ) तथा ‘सुकान्त कथा’ (महान कवि सुकान्त भट्टाचार्य की जीवनी) के अनुवाद पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित. वर्ष 2007 में भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली से ‘झूमरा बीबी का मेला’ (रमापद चौधुरी की प्रतिनिधि कहानियों का हिन्दी अनुवाद), वर्ष 2008 रे-माधव पब्लिकेशंस, ग़ाज़ियाबाद से बँगला के ख्यात लेखक श्री नृसिंहप्रसाद भादुड़ी की द्रोणाचार्य के जीवनचरित पर आधारित प्रसिद्ध पुस्तक ‘द्रोणाचार्य’ का प्रकाशन. यहीं से वर्ष 2009 में बँगला के प्रख्यात साहित्यकार स्व. सतीनाथ भादुड़ी के उपन्यास ‘चित्रगुप्त की फ़ाइल’ के अनुवाद का पुस्तकाकार रूप में प्रकाशन. वर्ष 2010 में संवाद प्रकाशन से प्रख्यात बँगला कवयित्री नवनीता देवसेन की श्रेष्ठ कविताओं का अनुवाद ‘और एक आकाश’शीर्षक से पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित. 2012 में नवनीता देवसेन की पुस्तक ‘नवनीता’ का हिन्दी में अनुवाद ‘नव-नीता’ शीर्षक से साहित्य अकादमी, दिल्ली से प्रकाशित. इस पुस्तक को 1999 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
संगीत तथा रूपंकर कलाओं में गहरी दिलचस्पी. मन्नू भण्डारी की कहानी पर आधारित टेलीफ़िल्म ‘दो कलाकार’ में अभिनय. कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों के निर्माण में भिन्न-भिन्न रूपों में सहयोगी. आकाशवाणी तथा दूरदर्शन केंद्रों द्वारा निर्मित वृत्तचित्रों के लिए आलेख लेखन. इंदौर दूरदर्शन केन्द्र के लिए हिन्दी के प्रख्यात रचनाकार श्री विद्यानिवास मिश्र, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, विष्णु नागर तथा अन्य साहित्यकारों से साक्षात्कार. प्रगतिशील लेखक संघ तथा ‘इप्टा’, इन्दौर के सदस्य.
नॉर्थ कैरोलाइना स्थित अमेरिकन बायोग्राफ़िकल इंस्टीट्यूट के सलाहकार मण्डल के मानद सदस्य तथा रिसर्च फ़ैलो. बाल-साहित्य के प्रोत्साहन के उद्देश्य से सक्रिय ‘वात्सल्य फ़ाउण्डेशन’ नई दिल्ली की पुरस्कार समिति के निर्णायक मण्डल के भूतपूर्व सदस्य. राउण्ड स्क्वॉयर कांफ्रेंस के अंतर्गत टीचर्स-स्टूडेंट्स इंटरनेशनल एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत मई 2009 में इंडियन हाई स्कूल, दुबई में एक माह हिन्दी अध्यापन.
सम्प्रति –
डेली कॉलेज, इन्दौर, मध्यप्रदेश में हिन्दी अध्यापन.
पता – भारती हाउस (सीनियर), डेली कॉलेज कैंपस, इन्दौर – 452 001, मध्यप्रदेश.
दूरभाष – 0731-2700902 (निवास) / मोबाइल फ़ोन – 94259 62072
ईमेल : banerjeeutpal1@gmail.com
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ऐसी होती हैं कविताएँ, अछूते अनुभवों की ओर हमें ले जाने वाली..
स्वागत
समाज की समझ पूरी गहराई से न सिर्फ उजागर करती हैं, बल्कि शोषितों की समझ को शनै: शनै: पकाती हुई उन्हें क्रांति के लिए तैयार (उतावला नहीं) करती हैं। सुकांत की ये कविताएं पढ़ते हुए दृढ़संकल्पित क्रांतिकारी कवि पाश का याद आना (शायद) एक सुयोग ही है। उनकी कविताएं भी विवशता और हार को नकार कर फिर – फिर उठने/लड़ने को उकसाती हैं। जैसे: सुकांत की ये पंक्तियां:-.…….
कब तक भूले रहोगे / पेट की आग को
कब तक हिलाते रहोगे दुम?
….
और फिर ये आह्वान:-
जंजीर के दाग को ढांपती हुई उग आए/ शेर की अयाल हर एक गर्दन पर …
और वह सबकुछ मौजूद है इस कविता में जो दबे-कुचले लोगों को जगाने के लिए जरूरी है।
(पर अफसोस आज चालीस करोड़ (सुकांत का समय) से आबादी 140 करोड़ पहुंच गई लेकिन जागृति उस अनुपात में शून्य के इर्द-गिर्द ही है!) (इस अपढ़ की नज़र में)। पंजीकृत विद्वानों से क्षमा सहित– सत्येन्द्र प्रकाश 🙏🏼
सुकांत की कविताएं समाज की समझ पूरी गहराई से न सिर्फ उजागर करती हैं, बल्कि शोषितों की समझ को शनै: शनै: पकाती हुई उन्हें क्रांति के लिए तैयार (उतावला नहीं) करती हैं। सुकांत की ये कविताएं पढ़ते हुए दृढ़संकल्पित क्रांतिकारी कवि पाश का याद आना (शायद) एक सुयोग ही है। उनकी कविताएं भी विवशता और हार को नकार कर फिर – फिर उठने/लड़ने को उकसाती हैं। जैसे: सुकांत की ये पंक्तियां:-.…….
कब तक भूले रहोगे / पेट की आग को
कब तक हिलाते रहोगे दुम?
….
और फिर ये आह्वान:-
जंजीर के दाग को ढांपती हुई उग आए/ शेर की अयाल हर एक गर्दन पर …
और वह सबकुछ मौजूद है इस कविता में जो दबे-कुचले लोगों को जगाने के लिए जरूरी है।
(पर अफसोस आज चालीस करोड़ (सुकांत का समय) से आबादी 140 करोड़ पहुंच गई लेकिन जागृति उस अनुपात में शून्य के इर्द-गिर्द ही है!) (इस अपढ़ की नज़र में)। पंजीकृत विद्वानों से क्षमा सहित– सत्येन्द्र प्रकाश 🙏🏼