1.

टक्कर

मैं भूल रहा हूँ रास्ते, पगडंडियां
तारीखें, तीज, त्योहार
मिले हुए लोगों के चेहरे
बहुत चाहने वालों के नाम

मैं भूल रहा हूँ पढ़ी हुई किताबें
सुनी हुई कहानियां, देखे हुए दृश्य

मैं भूल रहा हूँ जातियां, धर्म
हिन्दू, मुसलमान, होली, दीवाली, ईद
राजाओं, देवताओं और ईश्वरों
के नाम

बचपन से जो चीजें
मुझे बहुत याद करायी गयीं, सब भूल रहा हूं
केवल उम्र में बड़ों का सम्मान करना
हमेशा सच बोलना, किसी को दुखी न करना
सबकी नजर में अच्छा बने रहना
पूजा पाठ करना
सब भूल रहा हूँ धीरे-धीरे

मैं भूल रहा हूँ अपना-पराया
वक्त- बेवक्त, घर-गांव, पुरखों की संपदा

अक्सर चलते हुए मैं भूल जाता हूँ चलना
टकराते-टकराते बचता हूँ

अभी इतना याद है कि मैं भूल रहा हूँ
एक दिन जब यह भी भूल जाऊंगा
कोई डर नहीं होगा बड़ी से बड़ी टक्कर
का भी

फिर कोई हवा, कोई आंधी, कोई साजिश
भले मुझे मिटा दे पर मेरे आगे बढ़ते
कदम रोक नहीं पायेगी

फिर लोग भूल नहीं पायेंगे कि‌
मेरी टक्कर से किले की दीवारों में कितनी
दरारें आयीं

१२/४/२०२४

2.

वफादारी

कानून के गले में पट्टा डालकर
एक आदमी पालतू कुत्ते की तरह उसे
टहला रहा है

वह उसे पुचकारता है और किसी के
पीछे छोड़ देता है

कुत्ता पीछा करता है और पास पहुंचते
ही अपनी टांग उठा देता है

वह मालिक का वफादार प्यादा है
मूतता कम, काटता ज्यादा है

6/4/2024

3.

चीते की तरह

लाल कारपेट की जगह अखबार
बिछे हैं उसके स्वागत में
वह उन पर पांव रखता हुआ आगे बढ़ रहा है
अखबारों के मास्ट हेड तुड़- मुड़ गये हैं
कुछ पन्ने जो उड़ने की कोशिश कर रहे थे
उन्हें बाउंसरों ने बिजली की फूर्ती से
अपनी मुट्ठियों में कसकर
चींथ दिया है

उसके पांवों के नीचे आ गये हैं कई शीर्षक
संविधान, अधिकार, विरोध, चुनौती
और इस तरह के कुछ और
तने हुए शब्दों को कुचलते हुए
निकल गये हैं जूते

रौंदे हुए पन्नों को माथे पर लगाते हुए
टीवी के कई ऐंकर चीख रहे हैं
उसके जूतों से उड़ी धूल के लिए
माकूल शब्द की तलाश में हैं संवाददाता

सब कुछ लाइव है, लोग घरों में बैठे
टीवी पर देख रहे हैं उसका चीते की तरह चलना

19/9/2022

4.

सुनो, ध्यान से सुनो

खून से लथपथ, अतीत और
भविष्य की संधि पर कराहता हुआ
मैं समय हूँ, सुनो मुझे, ध्यान से
सुनो

मेरे पीछे खड़ा एक आदमी
मेरी हर चीख पर लाठियां बरसा रहा है
उसके चेहरे पर खून के छींटे हैं
जिन्हें वह अपने हाथों से पोंछकर
तिलक की तरह माथे पर लगा रहा है

वह अपने पांवों पर उल्टे भाग रहा है
उसके पीछे पागल भीड़ है
उसकी जयजयकार करती हुई

सब के सब बढ़े चले जा रहे हैं
अपने पुरखों की प्रेम लिपियां रौंदते हुए
उनके शव कंधे पर उठाये

भविष्य की तलाश में वे पहुँच गये हैं
अंधेरी पाषाण गुफाओं में

देखो सामने, बिलकुल सामने देखो
शताब्दियों का गोल चक्कर पूरा कर
वे आ रहे हैं नंग-धड़ंग

वर्तमान को लिंच करने और
भविष्य का सिर कुचलने का इरादा लिए

19/9/2023

5.

हिसाब चुकाना है

जिन कवियों को गोली मार दी गयी
किसी कविता के लिए, उनके शब्द मेरे भीतर
आज भी धड़क रहे हैं

जिन दार्शनिकों को जहर दे दिया गया
किसी नये रास्ते की ओर संकेत करने के लिए
उनके हाथ मेरी चेतना में
आज भी लहरा रहे हैं

जिन वैज्ञानिकों को सूली पर चढ़ा दिया गया
धार्मिक विश्वासों को चुनौती देने के लिए
उनके कटे सिर मेरे सपनों में
आज भी कांपते रहते हैं

जिन बागियों को आजादी मांगने के बदले
फांसी के तख्ते पर टांग दिया गया
उनकी सांसों की गर्मी मेरे खून में
आज भी प्रवाहित हो रही है

जिन लड़कियों को मार दिया गया प्रेम
करने के नाम पर, उनकी आंखें हर
सरहद पार करने और मर जाने का
आज भी निमंत्रण दे रही हैं

मुझे सुनायी पड़ती हैं वे सारी आवाजें
जो पिंजरों और काल कोठरियों के
भीतर बजती जंजीरों, सांकलों
और हथकड़ियों से आती हैं

मुझे चारो ओर नजर आती हैं कपूर में लगी
आग की तरह धधकती हुई बेचैनियां
क्या तुम्हें थोड़ी सी भी आंच
महसूस नहीं हो रही?

17/6/2023

6.

सुरंगें

हम सब फंसे हैं सुरंगों में
कोई रास्ता नहीं दिखता
बहुत अंधेरा है दिमागों पर
गहरी चोट करता हुआ

एक औरत आ रही है दफ्तर से
इसी सुरंग से होकर
वह रह-रहकर जांचती है
अपने ऊपर कभी भी ढह
जाने वाली काली दीवारों को
कोई पतंगा उड़ता है और
उसका वजूद थरथरा उठता है

अपने घरों में भी लोगों को
महसूस होती हैं सुरंगें
उनके मुहाने नजर नहीं आते
लेकिन डर बना रहता है
कि कभी भी कोई हमलावर
फर्श या दीवार तोड़कर
उनकी नींद उड़ा सकता है।

बच्चे इधर-उधर भाग रहे हैं
सुरंगों में खिलौने नहीं हैं
रोशनी नहीं है, किताबें नहीं
खेलने के लिए भी कोई जगह नहीं है

अपना बोला हुआ पत्थरों से टकराकर
अपनी ही ओर लौट आता है बार- बार
आजादी भी कैद है सुरंगों में

जुलूस, प्रदर्शन, विरोध सब कुछ
इन सुरंगों में समा गया है
बाहर जंगलों, नदियों तक
कोई आवाज नहीं पहुंच पा रही

बड़े-बड़े बुलडोजरों के साथ कोई
हमारे सिर पर चढ़ आया है
सुरंगों की दीवारें थरथरा रहीं हैं
वह सबको सुरंगों से मुक्त करने का
वादा कर रहा है लेकिन भरोसा
करना मुश्किल है

वह पहुंचना चाहता है सुरंगों में फंसी
आवाजों तक और उन्हें भी खामोश
कर देना चाहता है

जैसे-जैसे सुरंगों की हवा कम हो रही है
सीने पर दबाव बढ़ रहा है
लगता है किसी समय दम
घुट जायेगा

28/11/2023

7.

उनसे जो साथ हैं

आज के दिन नींद
बहुत आंखो में
डर है अपने ही सपनों से
कहीं छूट न जायं

इतने जंगल हैं घने
पर्वतों, नदियों से भरे
रास्ते मिलते-मिलते
ही कहीं रूठ न जायं

रात कुछ और देर
ठहरो, दासतां कह लूं
सुब्ह का क्या, कहीं
सूरज भी राह भूल न जाय

रोशनी पर न रहा
अब सुनो यकीन मुझे
डर है ये आफताब
रोशनी में डूब न जाय

क्या पता नज्म ये
कैसी लगेगी लोगों को
साथ जो बच गये
वो पढ़ के कहीं ऊब न जायं

जिंदगी में न झुके
प्रार्थना आयी न कभी
ढंग चलने का न बदला
तो कहीं टूट न जायं

15/10/2023

————————————————————-

सुभाष राय

जन्म जनवरी 1957 में उत्तर प्रदेश के एक गांव बड़ागांव (मऊ) में । प्रारंभिक पढ़ाई-लिखाई गांव की पाठशाला में। आगरा विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध साहित्य संस्थान के.एम.आई. से हिंदी भाषा और साहित्य में स्रातकोत्तर की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वहीं से विधि की पढ़ाई पूरी की और उत्तर भारत के विख्यात संत कवि दादूदयाल के रचना संसार पर डाक्टरेट पूरी की। आपातकालीन ज्यादतियों के खिलाफ आंदोलन, जेलयात्रा। चार दशकों से पत्रकारिता। कई प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्रों में शीर्ष जिम्मेदारियां संभालने के बाद इस समय लखनऊ में जनसंदेश टाइम्स के प्रधान संपादक के रूप में कार्यरत। मासिक साहित्यिक पत्रिका ‘समकालीन सरोकार’ का एक वर्ष तक संपादन। दो कविता संग्रह ‘सलीब पर सच’ और ‘मूर्तियों के जंगल में’, एक निबंध संग्रह ‘जाग मछन्दर जाग’ और संस्मरण एवं आलोचनात्मक लेखों का एक संग्रह ‘अंधेरे के पार’ प्रकाशित। हाल में रजा पुस्तक माला के अंतर्गत सेतु प्रकाशन से कन्नड़ संत कवि के जीवन पर नयी पुस्तक ‘दिगम्बर विद्रोहिणी अक्क महादेवी’ प्रकाशित हुई है। नयी धारा रचना सम्मान, माटी रतन सम्मान एवं देवेन्द्र कुमार बंगाली स्मृति कविता सम्मान से सम्मानित। निवास डी -1 /109 , विराज खंड, गोमतीनगर , लखनऊ। संपर्क -94550 8 1 8 9 4

 


Discover more from रचना समय

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Categorized in: