श्याम अविनाश हिन्दी कविता के आठवें दशक के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। प्रकृति के विविध रूपों के माध्यम से आप जीवन – स्थितियों को उसकी मूक उदासी को बारीकी से चित्रित करते हैं। जीवन के शाश्वत प्रश्नों के साथ प्रकृति का ऐसा सजीव मूर्त्त रूप समकालीन कवियों के यहां लगमग नदारद है। यही आपकी ख़ासियत है और यही आपकी पहचान ।
प्रस्तुत हैं श्याम अविनाश की कुछ कविताएं जो प्रकृति के रूपाकार के साथ अपने शैल्पिक वैशिष्ट्य के लिए याद की जाती हैं। – हरि भटनागर
कविताएं :
1. अज्ञात
कविता की पुरानी ,शीर्ण, थकी सीढ़ियों पर
कोई बैठा रहता है बहुत रात गए
सांवले जल में कांपती
किसी परछाईं से बातें करता
अपार ऊर्जा की टिमटिमाती रौशनी लिए
सितारे घूमते रहते हैं आसमान में
गहरे दर्द कि कोई बूंद पारे – सी
टलमलाती है अज्ञात की हथेली पर
अदृश्य से जनमता है दृश्य
पोंछता है अपना चेहरा
सूखे अंधेरे से।
2. परदेश
शब्दों के पीछे कुछ दूसरे शब्द
निस्तब्ध हवाओं में चुपचाप बजते
हर उम्मीद एक पीड़ा है
धीमे – धीमे सुलगती
गहरी होती है रात धीरे- धीरे
कोई बैठा है कहीं किनारे
ठंड उतरती है उसके कंधों से
दाख़िल हो जिस्म में हिम होती
उसके जेब में रखा उसका घर
सो चुका है कुछ देर पहले
उसी के सपने में उसे दाख़िल होना है
सर झुकाए ख़ाली हाथ
यह रात अतल पानी में डूबी
अशांत पुकार कोई नौका – सी
स्याह जल में रह- रह कर कांपती
3. झूमर
दर्द टूटता रुक- रुक कर
दूर तक कोई नहीं
आओ रात आओ
चांद का झूमर झुलाये
दोनों हाथों से घाघरा संभालती
पहाड़ की अटारी से
धीरे-धीरे उतरो।
4. ऋतुएं
उम्मीद एक छोटा शहर है
आगामी किसी स्वप्न नदी के किनारे
झिलमिलाता
शहर पर छाये बादल दिनों के
बावलेपन में तुम रखती हो चीज़ें
इधर-उधर, इसी बीच आ जाता है शीत का मौसम, पिंडलियों सी
चमकती है धूप , कहीं कोई काम नहीं है
फिर भी कितना काम पड़ा है
बैशाख दिनों की दोपहर में
भटकती धूल की तरह
कच्चे रास्ते से होकर निकल जायें
चुपचाप, उस नदी में नहाने
जो कहीं नहीं है अब।
5. कहना
आंसुओं से भरे हैं बादल
धीमे-धीमे हो रही है बारिश
बरामदे में खड़ा हूं
सामने भींग रहे हैं मकान
सर झुकाए चुपचाप
दूर नीम का एक पेड़
भींग रहा है या नहीं
दूर से दिखता नहीं है
किसी का भींगना
इतनी बारिश में भी
कहीं कोई सूखापन तरसता
शब्दों में टूट कर बहना
कभी क्या होगा
6. ख़ैरियत
रात धीरे-धीरे झुक आती धरती पर
जागते रहता धीमा नीलापन
धुंधली शर्ट पहने अपनी डगमगाहट को
संभालता , कोई लौट रहा है
पुराने स्याह मकानों के बीच से
बिखरी है चांदनी की बुझी -सी झांइयां
दबी -सी किसी गली से
निकल कर आती है एक स्त्री
चलने लगती है साथ
पूछती है उससे – कैसे हो
यह वही स्त्री है बहुत बरसों पहले
अटूट दर्द में धीरे-धीरे
हो गई थी अस्त
याद आता है वह तो सबसे ही
पूछ लिया करती थी
पेड़ से बिलौटे से रात से
ख़ाली घरों से,
– कैसे हो ?
कोई नहीं पूछता ऐसे समय में
वह आकर पूछती है
कभी- कभार
कैसे हो ।
7. कितनी बारिशें
बारिश चुपचाप एक ही स्वर में
बरस रही है रात के अंतस्तल में
घर जाना इसे खो देना है
सड़क पर चलते इस रात लगता है
समय बरस रहा है मंद – मंद ठहरा सा
इसी तरह झर जाते हैं बरस
स्मृतियां ख़्वाहिशें
सड़कों पर जगह- जगह जम गया है जल
चमक रही है उसमें निरीह रौशनी
पास से गुज़र रहा है , सूखा – सा
बेबस एक आदमी , बारिश में भींगा हुआ
शांता स्टोर के पटिये पर
पीकर धुत पड़ा दशरथ
आज भी वह घर नहीं गया
लाचार देख रहा है उसे पास खड़ा रिक्शा
धीमे- धीमे आंसुओं में झरता
8. आस
जलकर बुझ चुकी है बारिश
पेड़ डोल रहे हैं पाता- नाच की लय में
संजना जा रही है जंगल की ओर
गिरे फल – फूल बटोरने
गहन वन में धीरे-धीरे पत्तों से
झर रहे हैं आंसू
मेघले दिन की स्याह छाया
उतर रही है मन में दूर तलक
सब कुछ कितना भारी और भीगा भीगा है
उसके बिना कितना सूना
ऐसे दिन गर वह रहता
वह चढ़ाती कढ़ाही
तलती सरसों तेल में बैंगनी
साथ उसके बैठ मुड़ी के साथ खाती
बीच – बीच में काटती हरी मिर्च दांत से ।
9. कलंक
शाम की गिरती हुई सांवली शहतीरों के बीच
वह स्त्री चलते – चलते वहां अचानक ठहर गई
पुरानी अधमैली सफ़ेद दीवार पर छोटा – सा एक काला धब्बा
धीरे- धीरे अपने – आप बड़ा हो रहा है
दुनिॅवार असहायता से उसने उसे देखा
धब्बा सिमटता है, मिटता नहीं, फिर अपनी जगह पर
स्थिर हो जाता है, वह अपनी तर्जनी से
उसे छूती है – क्या यही है पाप
हमेशा वह धब्बा सोया – सा वहां टिमकते रहता है
कभी – कभार जागता है और उसे ग्रस लेता है
पुराना एक आतंक
छूता है लम्हे भर के लिए – फिर सब
शांत हो जाता है – वह करवट लेती है
और मुस्कुराती है धीमे -से।
10. आना
गुलमोहर का ठहाका
हवा में दूर तक बिखरा
धूप सूखकर काठ हो गई
कहां है बारिश
बहुत देर तक उसके बारे में
सोचने पर क्या वह
क़रीब आयेगी।
11. अक्स
तुम्हारे चेहरे पर ठहरा हल्का विस्मय
इस विस्मय से तुम क्या देखती हो…
तुम्हारे अस्तित्व में निहां है कुछ और
तुम्हारी देह का धीमापन तुम्हारा नहीं
पीलेपन से पीछे हटता एक पीलापन
तुम्हारे साथ चलते हुए
धूप तक जाता है।
12. राग
रात भर जागती रही
एक पूरिया धनश्री शाम
चांद धीरे- धीरे सीढ़ियां उतरता
डूब गया है शांत जल में
सूदीर्घ वृक्षों पर खिला पतझर
अपने ही उन्माद में सिहरता है
नक्षत्र अक्षरों में छपी रात
देखती है सब निरासक्त।
13. रात
तुम्हारी आवाज़ की उदासी के परे
कुछ स्वप्न हैं धूसर और प्राचीन
तुम्हें कोई देख रहा है
इससे बाहर आकर
तुम देखते हो आकाश
एक रात
लम्बे पेड़ों के ऊपर तारों भरी
एक रात
निहारती है तुम्हें
तुम लौटने के बारे में सोचते हो
पूरी सभ्यता के लौटने के बारे में
और बैठे रहते हो ख़ामोश
रात भर अपने ही लहू में
तर ब तर
14. हमारा घर कविता
मुझमें मौजूद तुम देखती रहती हो मुझे
जैसे कि देखता है ईश्वर
कैसा लगता होगा मेरे साथ जीना
उठना बैठना सोचते रहना
सड़कों पर पैरों में पैर रख
उदास चलना
मुझमें और मुझसे दूर कहीं
एकांत एक कांपते कोने में
तुम्हारी ही याद में डूबे
मेरे चेहरे को संभालना
इस दुनिया में हमीं एक दूसरे के
घर हैं
अदेखी हताश बारिश में भींगते
15. अतिजीवित
छोटा – सा एक सितारा और उसकी टिमटिमाती व्यथा
रात का सूखा अंधेरा दूर हवा में बजता
गली में कोई किसी से पूछ रहा है रास्ता
कोई एक सांस एक आस एक राह
कोई टटोल रहा है एक ठौर एक ठिया
सबका है वास्ता एक दूसरे से
किसी का नहीं तो भी किसी से
कहीं नहीं है कुछ भी तो भी सब कुछ यहीं है
एक अशेष युग्मिता अति आदिकाल से
दिक् रहितता में जीवती जाग रही है सतत्
बलखाई दो सांपों की सीढ़ियां चेतनता सी
जागती, ख़ामोश डंसती है मृत्यु को
श्याम अविनाश
जन्म : 1948
प्रकाशित पुस्तकें :
काव्य संग्रह – सबके जीवन में , आगामी स्मृतियों की बंदिश , धीमेपन के क़रीब ।
कहानी संग्रह – हफ़्ते का दिन , उत्तर कथा ।
संपर्क – पी .एन .घोष स्ट्रीट , पुरुलिया ( पश्चिम बंगाल )।
मो. 9932690690.
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