पल्लवी त्रिवेदी कविता कहानी के अलावा कथेतर गद्य लिखती हैं । यह गद्य सिर्फ़ विवरण नहीं वरन् इसमें समकालीन जीवन अपने ऐतिहासिक रूप में प्रदीप्त दीखता है।यहां हम पल्लवी त्रिवेदी का एक यात्रा संस्मरण प्रस्तुत कर रहे हैं जो सुंदर गद्य के साथ पक्षी जीवन की सौंदर्य गाथा है।
– हरि भटनागर

यात्रा संस्मरण:

फ्लेमिंगो … हाँ, यही वो नाम था जिसने मुझे गुजरात की यात्रा करने को बेताब कर दिया था। एक प्रवासी हंस जिसकी खूबसूरती अब तस्वीरों की बजाय मैं अपनी आँखों से देखना चाहती थी। सफ़ेद गुलाबी रंग का लंबी गर्दन वाला ये राजहंस गुजरात की कई झीलों में सर्दियां गुज़ारने आता है । गुजरात का क्लाइमेट , यहाँ की विस्तृत झीलें और दलदली भूमि सर्दियों में प्रवासी पक्षियों के लिए बहुत मुफीद स्थान हैं । फ्लेमिंगोज़ का चलना ,उड़ना ,नाचना ,एक दूसरे से गर्दन लपेटकर प्रेम करना सब अद्भुत है । कितनी कितनी दूर तक जाते हैं फोटोग्राफर इसकी तस्वीरें लेने ।गुजरात तो फिर भी नज़दीक है भोपाल से ।
अपने एक फोटोग्राफी के शौक़ीन घुमक्कड़ किस्म के दोस्त को साथ लिया और चल दिए हम फ्लेमिंगो के बहाने एक और सफ़र पर । हाँ , सफरी लोगों के लिए कोई भी कारण बस एक बहाना ही तो है , असली मकसद तो रास्ते नापना है । अब ये हाल है इस तलब का कि हर दूसरे महीने एक नयी राह , नयी जगह पर होने की तलब उठने लगती है । तो बीच दिसंबर की किसी तारीख को हम अपनी सफारी से भोपाल से अहमदाबाद की ओर रवाना हो गए । भोपाल से अहमदाबाद के ग्यारह घंटे लंबे सफ़र में महज बीस मिनिट याद रह जाने वाले हुए । पच्छिम की ओर मुंह किये तेज़ भागती गाड़ी से ठीक सामने हाइवे पर चमकती दुनिया की सबसे बड़ी गेंद का क्षितिज में लुढ़कते जाना और पश्चिम का नारंगी से लाल और मुसलसल फीका होते हुए सलेटी हो जाना ।चन्द ही पलों पहले आसमान पर रंग ऐसे बिखरे पड़े थे जैसे स्कूल की आखिरी घंटी के बाद स्कूल के गेट के बाहर बच्चों की चटर पटर करती फौज हो । अब आसमान सूना था और बेसब्री से अगले दिन का इंतज़ार कर रहा था । पूरब स्कूल की पहली घंटी और पश्चिम आखिरी घंटी के इंतज़ार का नाम हैं । कभी-कभी सोचती हूँ कि एक इंतज़ार के दम पर कितनी भी लम्बी उमर जी जा सकती है । इंतज़ार बड़ी वंडरफुल शय है सही में । उस सलेटी आकाश के सबसे बाएं कोने पर एक लाल छींटा फिर भी देर तक बचा रह गया था अकेला ।जैसे कोई के.जी. टू का बच्चा स्कूल से छुट्टी के बाद बन्दर का तमाशा देखने ठहर गया हो । इस दुनिया से मज़ेदार तमाशा और कुछ होता होगा क्या ?
लो .. खेल ख़तम , पैसा हज़म । दो पल बाद वो के .जी. टू का बालक भी चला जा रहा था पीठ पर बस्ता और कंधे पर बोतल टाँगे । रात नौ बजे हम अहमदाबाद पहुंचे और एक होटल में टिक गए ।

नलसरोवर बर्ड सेंक्चुरी –

अगले दिन सुबह 6 बजे उठकर हम निकले सीधे नलसरोवर बर्ड सेंक्चुरी के लिए । नलसरोवर बर्ड सेंक्चुरी अहमदाबाद से 64 किलोमीटर दूर सानंद गाँव के समीप स्थित है जिसमे लगभग 120 वर्ग किमी में फैली झील व दलदली भूमि है । यह गुजरात की सबसे बड़ी वेटलैंड बर्ड सेंक्चुरी है और प्रवासी पक्षियों की 200 से भी ज्यादा प्रजातियाँ यहाँ सर्दियां गुज़ारने आती हैं । फ्लेमिंगों भी उनमे एक है । यहाँ मुझे सौ प्रतिशत से भी ज्यादा उम्मीद थी कि फ्लेमिंगो ज़रूर मिलेंगे । या ख़ुदा … सुबह की सर्द हवा , हरे-भरे खेतों के बीच से गुज़रता खाली रास्ता और सूर्योदय की लाली में एक रक्तिम आभा में लिपटे सैकड़ों सफ़ेद बगुले । क्यों कहीं जा रही हूँ मैं ? यहीं क्यों नहीं रुक जाती किसी खेत की मेंढ पर । इससे सुन्दर क्या होगा भला ? पर सुबह का समय ही पंछियों को देखने के लिए सबसे सही होता है । इसके बाद धीरे धीरे उनकी संख्या कम होती जाती है । फ्लेमिंगो का लालच अभी रूककर इस खूबसूरत नज़ारे को जीने से कहीं ज्यादा था । लिहाज़ा हमने अभी रुकने की बजाय चलते रहना चुना ।
जब नलसरोवर के अन्दर प्रवेश किया , तभी जान गयी थी कि आज मेरे कैमरे का मेमोरी कार्ड फुल होने वाला है । झील के किनारे पहुँचते तो जो नज़ारा देखा , मुंह खुला का खुला रह गया । मैं ख़ुशी के मारे बस चीखी नहीं । नहीं .. अभी फ्लेमिंगो नहीं थे लेकिन हज़ारों की तादाद में ब्राउन हैडेड गल्स पूरी झील में मोतियों की तरह बिखरी हुई थीं । ऐसा लगता था जैसे नीले सिल्क पर किसी अल्हड लड़की ने सफ़ेद मोतियों की डिब्बी बिखरा दी हो । लाल चोंच , लाल पंजों वाली झक्क सफ़ेद ये गल्स एक साथ पूरे सरोवर और आकाश को ढके हुए थीं । भोपाल में इन्हें देखने बड़ी दूर जाना पड़ता है और दो चार भी दिख जाएँ तो हम अपनी किस्मत सराहते हैं । मुझे अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था कि मैं इनके देश में हूँ , हाँ बिलकुल यह इन्हीं का देश था । हम मेहमान थे । जल्दी से नाव में बैठे और बैठते बैठते फीके सेव के दो चार पैकेट खरीदकर रख लिए । इन्हें पानी में डालने से सारी गल्स इन्हें खाने नाव के पास आ जाती हैं । फिर जितने चाहे फोटो ले सकते हैं , जितना चाहें इन्हें निहार सकते हैं । अभी हमने अपने सेव के पैकेट नहीं खोले थे , दूसरी नावों के ऊपर उड़तीं गल्स को देखकर मैं मंत्रमुग्ध थी , इतनी ज्यादा कि पहले पन्द्रह मिनिट तो कैमरा चालू करने का ख़याल भी नहीं आया । सब कुछ कितना सुन्दर , कुछ देखने से छूट न जाए , पहले आँखों से तो देख लूं इन्हें जी भर के , पता नहीं फिर कब जीने को मिलेंगे ऐसे खूबसूरत लम्हे । हम तीन घंटे तक पूरी झील में घूमते रहे । शांत झील में तरह तरह की बतखों , क्रेन्स , हेरोन्स के झुण्ड एक मधुर शोर मचा रहे थे । बीच-बीच में कोई सी-ईगल या मार्श हैरियर ऊपर से गुज़रता तो पंछियों में एक भय की लहर दौड़ जाती और एक अफरातफरी सी मच जाती । मैं सोच रही थी जब सर्दी ख़त्म होगी और ये सारे प्रवासी पक्षी अपने घर लौट जायेंगे तब इस झील को कैसा लगेगा । मुझे ये झील बिलकुल मेरे ननिहाल की तरह लगी जहां गर्मियों की छुट्टी में सारे बच्चे छुट्टियां मनाने आते और जून ख़त्म होते होते चले जाते । झील नानी … मुझे सोचकर एक मुस्कराहट आ गयी । झील में घूमते हुए किनारे पर नाव रुकी । बताया गया कि यहाँ आप पैदल घूम सकते हैं , थोड़ी दूर पर ही एक दलदली इलाका है जहां कुछ पक्षी देखे जा सकते हैं और साथ ही यहाँ काठियावाड़ी भोजन का लुत्फ़ लिया जा सकता है । हम उतर गए और पैदल आगे चल पड़े । कंटीली झाड़ियों और दलदल कीचड़ से बचते बचाते हम थोड़ा आगे पहुंचे तो वापस लौटते हुए कुछ टूरिस्ट्स ने बताया कि आगे फ्लेमिंगो का एक जोड़ा है । लगभग भागते हुए हम आगे पहुंचे तो देखा बहुत दूर वाकई एक फ्लेमिंगो का जोड़ा उथले पानी में विचरण कर रहा था । हांलाकि बहुत दूर था ये जोड़ा मगर इसकी पहली झलक ने हमें बहुत उत्साहित कर दिया था । हाँ ..मैंने भी फ्लेमिंगो देखे हैं , अब यह कह सकती हूँ । कैमरे को ज़ूम करके कुछ फोटोग्राफ्स लिए और इंतज़ार करते रहे कि शायद ये उड़कर थोड़ा नज़दीक आ जाएँ मगर काफी देर इंतज़ार करने के बाद भी वे पास नहीं आये । हम फ्लेमिंगो की पहली झलक से ही संतुष्ट होकर वापस चल दिए । आख़िर ये सफ़र का आगाज़ मात्र था । अब भूख भी लगने लगी थी सोचा कि काठियावाड़ी भोजन का लुत्फ़ ही लिया जाए । चूल्हे पर ताज़ा ताज़ा बनी मक्खन लगीं मोटी रोटी ,बैंगन का भरता और लाल मिर्च और लहसुन की चटनी मेनू में थी । खाना बढ़िया था । हम उम्मीद कर रहे थे कि सिल पर पिसी खालिस देसी चटनी मिलेगी मगर भोजन बनाने वाली वाली महिला ने बताया कि अब मिक्सी में ही पीसते हैं और खड़ी लाल मिर्च की जगह पिसी हुई लाल मिर्च डालते हैं । निराशा हुई जानकर क्योंकि खड़ी लाल मिर्च , खड़ा लहसुन जब तक बट्टे पर न पीसा जाए तब तक असली स्वाद पाना मुश्किल है । खैर, खाना स्वादिष्ट था और खाना खाकर वापस हम नाव में सवार हुए और फिर से एक घंटे झील में पक्षियों को कभी आँखों में , कभी दिल में और कभी कैमरे में सहेजते हम वापस लौटे । दोपहर हो गयी थी और दिसंबर के महीने के बावजूद गर्मी काफी ज्यादा थी लिहाज़ा हम वापस होटल में आ गए । दिन में थोड़ी देर सोने के बाद हमारा प्लान था शाम को पुराना अहमदाबाद शहर देखने का ।

थोल बर्ड सेंक्चुरी –

अगले दिन सुबह हम ठीक 6 बजे निकल गए ‘थोल बर्ड सेंक्चुरी’ के लिए। थोल लेक और सेंक्चुरी अहमदाबाद से केवल 20 किमी की दूरी पर है और इस उथली झील में भी वाटरबर्ड्स की ढेर सारी प्रजातियाँ देखी जा सकती हैं । अहमदाबाद से इतने करीब दो-दो पक्षी विहार होना पक्षी प्रेमियों के लिए लॉटरी के लगने जैसा ही है । एक और बेहद खूबसूरत सुबह । सूर्योदय से पहले उठकर बाहर सैर पर निकल जाना मानो एक अलग सी दुनिया में ले जाता है । और अगर आप गावों से होकर निकल रहे हों तब आश्चर्य होता है कि जिस वक्त हम अपनी मीठी नींद में सोये हुए होते हैं उस वक्त तक उनका चूल्हा जल चुका होता है , बच्चा बच्चा जाग चुका होता है , खेतों पर काम शुरू हो चुका होता है और गलियों में चहल पहल शुरू हो चुकी होती है । हमारे रास्ते में कई गाँव पड़े । मध्यप्रदेश और गुजरात के गाँवों में कोई अंतर महसूस नहीं हुआ मुझे । सारे गाँव एक से ही होते हैं । वही नंगे पैर दौड़ते बच्चे , शौच को जाते स्त्री पुरुष ,ओटलों पर चाय पीते बुजुर्ग और लगभग वही धूलभरी गलियाँ और आसपास खेत ही खेत ।
सुबह के लाल आसमान और ठंडी बयार के बीच कई पक्षी खेतों , तालाबों और पेड़ों पर चहकने लग गए थे और उनके फोटो लेते हुए हम लगभग एक घंटे बाद थोल पहुँचे । तब तक सूरज पूरा निकल चुका था और अब आगे के दो घंटे फोटोग्राफी के लिए सबसे उपयुक्त थे । सुबह और शाम की रौशनी फोटोग्राफी के लिए सबसे अच्छी होती है ।
थोल लेक वाकई बहुत खूबसूरत थी । बहुत बड़ी फ़ैली हुई झील के किनारे किनारे घने पेड़ और झील में किलोल करते हज़ारों पक्षी । सचमुच प्रकृति कितनी सुन्दर है । हर झील यूं तो एक सी होती है । वही लहर लहर धीमी गति में डोलता मचलता पानी , वही जलपाखी ,वही किनारे-किनारे लगी काई और पास में तमाम तरह के वृक्ष । यही सब तो होता है एक झील में, फिर भी हम देश विदेश में अलग-अलग झीलों को देखने जाते हैं । हर जगह का अपना कच्चा सौन्दर्य होता है ,हर जगह की अपनी एक अलहदा फील । इसलिए हर झील एक सी होकर भी कतई एक सी नहीं होती । यह झील पक्षी प्रेमियों के लिए जानी पहचानी झील है और हर बर्ड फोटोग्राफर कभी न कभी यहाँ ज़रूर आना चाहता है । इस झील में नौका विहार की सुविधा नहीं है लिहाज़ा किनारे पर बैठकर ही जितने फोटो लिए जा सकते हैं ,उनके अलावा अच्छे क्लोज़अप्स मिलना तभी संभव है जब आपकी किस्मत अच्छी हो और किनारे के एकदम पास ही पक्षी आकर बैठ जाए । मगर इंसानी दखल पक्षियों को परेशान ही करता है इसलिए वे उनकी पहुँच से एक सुरक्षित दूरी पर ही ये बैठना पसंद करते हैं । सुबह आठ बजे की गुनगुनी धूप ने झील पर सुनहली रौशनी की एक चादर सी बिछा दी थी जिसपर ढेर सारी ग्रे लेग गूज़ , सुरखाब , कोर्मोरेंट, पेलिकन्स, पेंटेड स्टॉर्क, ग्रे हेरॉन ,पर्पल मूरहेन, स्नेक बर्ड , ओपन बिल स्टॉर्क और भी तमाम तरह के जलपक्षी अठखेलियाँ कर रहे थे । पंछियों का मीठा कलरव इस सुबह की नीरसता और नीरवता दोनों को एक सुख से भर रहा था .. प्रकृति के करीब होने का सुख, खुद के करीब होने का सुख ,ताज़ा हवा को पूरे बदन में भर लेने का सुख । मैंने झील के किनारे किनारे पूरा चक्कर लगाया कि दूर कहीं फ्लेमिंगो का झुण्ड भी पक्के से मिल जाएगा । फ्लेमिंगो तो एक भी नहीं थे मगर कॉमन क्रेन्स का एक बड़ा झुण्ड ज़रूर दिखाई दिया जिसने हमें फिर से उत्साह से भर दिया । एक बर्ड फोटोग्राफर के लिए किसी ऐसे पक्षी का दिख जाना जिसे उसने सिर्फ चित्रों में ही देखा हो , एक ऐसी ख़ुशी का लम्हा होता है जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता । ये ऐसा ही उत्साह है जैसे बचपन में डाक टिकट इकठ्ठा करने के शौकीनों को उनके विदेश में रहने वाले अंकल वहाँ का कोई स्टाम्प लाकर दे दें । झील का एक पूरा चक्कर मारने के बाद हम झील के एक शांत किनारे पर खुली जगह में अपने स्टूल डालकर बैठ गए । दूर से पंछियों के जितने फोटो ले सकते थे ,उतने ले लिए थे । अब बेकार कैमरा थामे रहने का कोई मतलब नहीं था । अब मन था कि इस खूबसूरत जगह पर एक अच्छा वक्त बिताया जाए । मुझे एकाएक अपनी विश लिस्ट याद हो आई । हाँ ..मैंने अपनी छोटी छोटी इच्छाओं की एक विश लिस्ट बना रखी है जिसमे एक इच्छा ठीक ऐसी ही झील के किनारे ऐसे ही बैठकर अपना मनपसंद संगीत सुनना भी था । अब एक झील का किनारा था । दिसंबर की गुनगुनी धूप थी ।मेरे सामने ढेर सारी तैरती बतखें थीं, सुरखाब का एक जोड़ा था,धूप से चमकीला नीला हुआ मछली का इंतज़ार करता हुआ किंगफिशर था , झील के ऊपर से शोर मचाकर उड़ते जाते क्रेन्स के झुण्ड थे।हवा के साथ इठलाती सुनहली लहरें थीं।कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं थीं ।भरपूर आती साँसें थीं ।तसल्ली से धड़कता दिल था । गहरे अंदर तक भरती जाती शान्ति थी और मुसलसल गाते मोहित चौहान थे।
उस रोज़ ज़िन्दगी इतनी करीब बैठी थी कि मैं उसकी गर्माहट अपनी हथेली पर महसूस कर सकती थी ।सारे दुख उस मीठे ताप से पिघलते जाते थे ।उसकी खिलखिलाहट मेरे कानों में जल तरंग सी बजती थी । उन पलों में दिल सारी कायनात को सजदा करना चाहता था । दिल दुखाने वालों को बिना शर्त माफ़ कर देना चाहता था ।बरगद के नीचे एक दूसरे को चूमते उस टीन एजर जोड़े के लिए दुआ माँगना चाहता था।
मैंने उस उजास भरी सुबह को अपनी कमीज़ की बाईं जेब में भर लिया था । मैं एक पल में संसार की सबसे रईस लड़की बन गयी थी ।
करीब दो घंटे यूं ही बैठे रहने के बाद हल्की भूख का एहसास हुआ । हम उठ पड़े । जाते हुए मैंने एक बार झील को बेहद मुहब्बत भरी निगाह से देखा और शुक्रिया कहा । मेरी जिंदगी की एक यादगार सुबह मुझे यहीं आकर मिली थी और खुद से रूबरू होने का मौक़ा भी । बाहर की यात्राओं में गए और बाहरी दुनिया ही घूमकर आ गए तो क्या पाया ? जब तक ये यात्राएं थोड़ा और खुद के भीतर न ले जाएँ ,थोड़ा और खुद से परिचय न कराएं तो क्या फायदा ?यहाँ दो घंटे एकदम मौन होकर बैठी तो खुद को थोड़ा सा और जाना , थोड़ा और पहचाना ।
करीब साढ़े दस बजे हम सेंक्चुरी से निकलकर कई गाँवों को क्रॉस करते हुए वापस अहमदाबाद में प्रवेश कर गए । बीच में कोई एक क़स्बा पड़ा , जिसका मुझे अब नाम स्मरण नहीं है मगर यहाँ से गुज़रते हुए मुझे महसूस हुआ कि ठीक ऐसी ही जगह पर मैं पहले भी जा चुकी हूँ । वही दुकानें , वही रास्ते, वही गलियाँ । जबकि यह पक्की बात थी कि मैं गुजरात ही पहली बार आ रही थी । मगर हर इंसान के साथ हूबहू ऐसा जीवन में कम से कम एक बार तो ऐसा होता ही है कि वह किसी पल को जीते हुए अचानक से याद करे कि ठीक यही पल उसने पहले भी जिए हैं , समय की गणना से परे । मैं उत्साहित होकर दोस्त को बताने लगी और एक मजेदार सा संवाद यूं सामने आया ।
“जानते हो ?हर शहर का एक जुड़वां शहर होता है ।हूबहू वही शक्ल ,वही तासीर और वही मौसम ।वही जाने पहचाने से चौराहे, वही रेलपेल गलियां ।शहर में पहला कदम रखते ही एहसास होता है कि फर्क सिर्फ दूरी का है वरना एक ऐसा ही शहर तो कहीं और भी बसता है ।”
“क्या शहरों को इनके जुड़वां भाइयों के होने का इल्म होता होगा ?”
“हाँ , दुनिया भर में घूमते घुमक्कड़ इन्हें इनके भाइयों के बारे में बताते हैं।इनका झोला उलट दोगे तो दुनिया के तमाम शहरों की कुण्डलियाँ मिलेंगी ।”
“हम्म.. लाओ ,तुम्हारा झोला उलटकर देखता हूँ । ”
“घुमक्कड़ों का सर खा जाना ही उनका झोला उलटना है बुद्धू …”
हम एक दूसरे का सर खाते रहे , सफ़र को यादगार बनाते रहे ।

दोपहर में एक अच्छी नींद लेने के बाद हम फिर से शहर से दूर गाँवों की तरफ चल दिए । फ्लेमिंगो , जिसके लिए इतनी दूर तक आये थे ,वो अभी तक नहीं मिल पाए थे । आज आखिरी दिन था उन्हें खोजने का । कल हमें अहमदाबाद छोड़कर दीव और सोमनाथ के लिए रवाना होना था । अगर आज न मिले तो इस यात्रा में अब नहीं मिल सकेंगे ,यह सोचकर एक शाम और फ्लेमिंगो की तलाश में भटकने का निश्चय किया हमने । सूर्यास्त से थोड़ा पहले हम वापस कपास और अरंडी के हरे भरे खेतों के बीच से गुज़र रहे थे । सूरज को अपने सामने ढलते देखना खुद को आनंद से मालामाल करने जैसा अनुभव होता है मेरे लिए । उस रक्तिम आभा में धुल उड़ाते गायों के झुण्ड का वापस लौटना , चूल्हों पर पकते खाने की महक से हवा का स्वादिष्ट हो जाना , बच्चों को दौड़ते भागते देखना , पक्षियों का बसेरों की ओर चहकते हुए लौटना और सोने की उस गेंद को आँख भर कर देखना कितना सुखद होता है । वही आग उगलता सूरज जिससे पूरे दिन हम आँख मिलाने की हिम्मत नहीं कर पाते , उगते और ढलते हुए कितना कोमल हो जाता है । सोचती हूँ , बचपन और बुढापा बिलकुल एक जैसे ही होते हैं । कोमल, प्रेमिल और कमज़ोर ।

लगभग हर आदमी को फ्लेमिंगो का फोटो दिखाकर हमने जानकारी लेने की कोशिश की कि कहीं आसपास इसे देखा है ? सभी फोटो देखते , दो पल सोचते , आसपास वालों को दिखाते और ना में सर हिला देते । हम थोड़े निराश ज़रूर थे मगर सारा रास्ता पेंटेड स्टॉर्क , आइबिस ,हेरॉन्स और तरह तरह के पंछियों से आबाद था , ये सारे पंछी इतनी संख्या में भोपाल में नहीं मिलते हैं इसलिए इतनी करीब से इन्हें सूर्यास्त की परफेक्ट लाईट में देखना और क्लिक करना उत्साह से भर रहा था । आगे चलकर एक बस स्टैंड नुमा टपरे पर चाय पीते हुए कुछ लोगों को देखा और वहीं जाकर चाय पीने लगे । वहीं बातों-बातों में एक ने बताया कि इसी तरह के पक्षियों का एक जोड़ा दो किलोमीटर आगे एक खेत में है । चाय वहीं छोड़ी हमने और गाड़ी भगाई । थोड़ी दूर चलने पर एक खेत में दूर दो बड़े आकार के पक्षी नज़र आये । गाड़ी से उतरकर कैमरे को ज़ूम करके देखा तो ख़ुशी से आँखें चमक गयीं । न न … फ्लेमिंगो नहीं थे , सारस का एक जोड़ा था । अहा सारस … मेरे सबसे पसंदीदा पक्षियों में से एक । प्रेमी परिंदे जो जोड़े में ही रहते हैं मानो जन्मों जन्मों के प्रेमी हों । एक दूजे के बिना नहीं रह सकते । खूबसूरत लाल गर्दन वाला यह जोड़ा आसमान की ओर सर उठाये नृत्य कर रहा था । एकदम अद्भुत .. यह सोचकर ही जी दुखता है कि इनमे से एक मर जाता होगा तो दूसरा कैसे जीता होगा । एक दुआ निकलती है जब भी इस जोड़े को देखती हूँ । हम उतर कर खेत की मेंढ़ पर चलते हुए थोड़ा आगे पहुंचे कि आहट होते ही दोनों सारस उड़ गए । हमें कोई फोटो न मिल सका लेकिन देखने का सुख भी कम न था ।
अँधेरा होने लगा था , रौशनी कम होती जा रही थी और अगले दस मिनिट और हम फोटो ले सकते थे और हम बिलकुल नहीं जानते थे कि इन्ही दस मिनिटों में आगे हमें एक और खूबसूरत नज़ारा मिलने वाला था । सारस के जोड़े का फोटो न मिल पाने का हल्का मलाल लिए हम वापस लौट रहे थे कि अगले पांच मिनिट बाद एक खेत में सारस माँ , सारस पिता और एक नन्हा सारस धीमे-धीमे चलते हुए नज़र आये । न केवल नज़र आये बल्कि मेहरबान होते हुए उन्होंने फोटो भी दे दिए। ऐसे कितने ही सुखद आश्चर्यों ने मुझे सिखाया है आखिरी पल तक करिश्मे का इंतज़ार करना । जो होता है अच्छे के लिए होता है .. एक बार फिर हमने एक दूसरे से और अपने आप से कहा ।
फ्लेमिंगो नहीं मिलने थे .. नहीं मिले । कोई बात नहीं , अगली बार फिर गुजरात घूमने का बहाना तो चाहिए था ।
बहरहाल तीन खूबसूरत दिन अहमदाबाद में गुज़ारने के बाद हम चौथे दिन दीव के लिए बढ़ लिए । अहमदाबाद के आखिरी दिन मेरी बहन मयूरी ने भी मुंबई से आकर आगे की यात्रा के लिए हमें ज्वाइन कर लिया था । चौथा दिन पूरा यात्रा में गुजरा । सुबह 9 बजे निकलकर हम लोग शाम 7 बजे दीव पहुंचे ।

दीव –

जब दीव में प्रवेश कर रहे थे तब सूरज ढल रहा था और सड़क के दोनों ओर समंदर की मार्शी लैंड नज़र आने लगी थी । कई तरह के पक्षी उस उथले पानी में विचरण करते दिखाई दे रहे थे । दीव में इतने पक्षी हमें मिलेंगे , यह आशा नहीं थी । दीव में घुसते ही अचानक बाईं ओर हम तीनों की नज़र एक साथ पड़ी और चर्र से गाड़ी को ब्रेक लगे । हम तीनों एक दूसरे को प्रसन्नता से देख रहे थे । ग्रेटर फ्लेमिंगो का पूरा का पूरा झुण्ड … क्या हम स्वप्न देख रहे हैं ? अहमदाबाद छोड़ते ही जिसकी उम्मीद भी छोड़ चुके थे , वे यहाँ हमारे सामने क्रीडा करते नज़र आ रहे हैं । दस मिनिट हम गाड़ी रोककर उन्हें देखते रहे । फिर सारा झुण्ड अपनी लम्बी लम्बी टांगें और पंख फैलाए दूसरी जगह उड़ गया । हम भी सफ़र की थकान भूल उत्साहित मन से अपने होटल आ गए ।

अगले दिन सुबह जल्दी उठकर हम पक्षियों के फोटो लेने चल दिए । लगभग दस बजे तक हम उन उथली झीलों के किनारों पर बैठकर फोटोग्राफी करते रहे । इन दलदली झीलों की सुन्दरता बयान करना वाकई मुश्किल है । जहां तक नज़र जाती है , वहाँ तक ये झीलें फ़ैली हुई हैं । झील का एक बड़ा हिस्सा लाल , सफ़ेद कमल के फूलों से ढंका हुआ था । उसके ठीक पीछे घास का मैदान जिस पर हिरन और नीलगाय का समूह विचरण कर रहा था । कमल ताल में तरह तरह की बतखें पानी में किलोल करती हुई बेहद खूबसूरत लग रही थीं । खासकर नॉब बिल्ड डक बहुत सारी थीं इस जगह पर जिनके सफ़ेद बदन पर नीले हरे पंख धूप में खिलकर चमकीले हो गए थे । हमने ढेर सारे फोटो लिए । थोड़ा आगे बढ़े तो पेलिकन्स का एक बड़ा झुण्ड पानी में नाश्ता खोज रहा था । पेलिकन की चोंच के नीचे एक बड़ी थैली होती है जिसमें ये बड़े-बड़े आकार की मछलियों को भी भर लेती हैं और फिर उसे निगल जाती हैं । इनकी मछली को निगलने की प्रक्रिया देखना बड़ा मजेदार होता है । प्रकृति ने हर पक्षी को उसका शिकार करने के हिसाब से उपयुक्त चोंच और पंजों की बनावट दी है । इतनी विविधता कि देखकर कुदरत के आगे हम नतमस्तक हो जाते हैं । 9 बजे के आसपास जब कई तरह के पक्षियों के मनमाफिक शॉट लेने के बाद हम और आगे बढ़े तब करीब पचास मीटर की दूरी पर हमारा सपना हमारा इंतज़ार कर रहा था । हमसे करीब सौ मीटर अन्दर झील में ग्रेटर फ्लेमिंगो का पूरा का पूरा झुण्ड बैठा हुआ था । हम बेहद सावधानी से ज़मीन पर झुककर बैठते हुए आगे बढ़ रहे थे । ज़रा सी आहट मिलते ही फ्लेमिंगो काफी दूर उड़ जाते हैं और फिर बहुत देर तक उस स्थान पर दुबारा नहीं आते । हम लगभग रेंगते हुए आगे बढ़ रहे थे । थोड़ी दूर जाते ही हम रुक गए । हम उन्हें उड़ाने का कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे। हमने ज़मीन पर लेटे लेटे ही फ्लेमिंगोज़ के कई आई लेवल शॉट्स लिए । फ्लेमिंगो कपल के शॉट्स बहुत ही मनोहारी होते हैं , इनकी लचीली और लम्बी गर्दन कई खूबसूरत आकार बनाती है । खासकर जब कपल अपनी निचली गर्दन को एक साथ मिलाकर ऊपरी गर्दन और चोंच को मोड़कर नीचे घुमा लेते हैं तब परफेक्ट दिल की आकृति बनती है । अद्भुत नज़ारा था जिसे हम कैमरे और अपनी निगाहों दोनों में कैद कर रहे थे । उस दूरी से सारे शॉट ले चुकने के बड़ा हमने थोड़ा रिस्क लेने का निश्चय किया और सावधानी से थोड़ा और नज़दीक पहुँचने के लिए दोबारा रेंगने लगे । हम सफलता पूर्वक लगभग बीस मीटर आगे सरक आये थे और फोटो ज्यादा क्लियर मिलने लगे थे । मगर फोटोग्राफर बहुत लालची जीव होता है और अच्छे क्लोज़ अप लेने का लालच हमें और नज़दीक जाने के लिए उकसा रहा था । आखिर हम फिर से रेंगे , झाड़ियों के बीच छुपते छुपाते बीस मीटर और आगे पहुंचे । आकर पोजीशन सेट की ही थी कि उन्हें हमारी आहट मिल गयी और एक एक करके सारे फ्लेमिंगो उड़ने लगे । हमने जल्दी से उनके कुछ फ़्लाइंग शॉट लिए और पांच मिनिट बाद खड़े हो गए । सारे फ्लेमिंगो जा चुके थे और हमारी पीठ बुरी तरह अकड़ चुकी थी । हम खुश थे , बेहद खुश । काम ख़त्म होते ही भूख का एहसास हुआ और हम वापस होटल के लिए लौटने लगे । लेकिन तब मैं नहीं जानती थी कि एक और बड़ा सरप्राइज़ मेरा इंतज़ार कर रहा है । मेरी विश लिस्ट की एक और विश अगले दस मिनिटों में पूरी होने वाली है ।
मेरी विश लिस्ट की एक ख्वाहिश थी किसी ऐसी ट्रिप पर जाने की जहां जाकर वहाँ के फल और फूल बेचते बच्चों के साथ हांक लगाकर मैं भी उनके साथ फल फूल बेचूं ।
दस मिनिट बाद उसी कमल ताल के सामने रास्ते से गुज़रते हुए तीन बहुत प्यारे से बच्चों को देखा जिनका घर सड़क के किनारे ही था और वे तीनों कमल के ताज़े बड़ी-बड़ी डंडियों वाले फूल हाथ में लेकर बेच रहे थे । मेरी आँखें चमक उठीं । पहले उनसे उनके हाथों के सारे फूल खरीदे फिर उन्हें और फूल लेकर आने को कहा । तीनों बच्चे भागकर गए और झट से तीन गुच्छे लेकर आ गए । अब मैं तीन कमल के फूल बेचते बच्चों के साथ कमल का एक गुच्छा हाथों में लेकर हांक लगाकर कमल बेच रही थी । बच्चे मुझे हांक लगाने का तरीका समझा रहे थे ।
” अंकल कमल ले लो …. आंटी ले लीजिये ना .. सर एक कमल प्लीज़ ” मेरा उत्साह उन बच्चों से कहीं ज्यादा था ।
लोग मुझे देखते , पलटकर देखते और हँसते हुए गुज़र जाते । अंत में एक बन्दे ने अपनी बाइक धीमी की और हमारे करीब रुका ।
“लीजिये सर .. कमल के ताज़े फूल लीजिये ना ” मेरी आवाज़ बहुत बेसब्र थी ।
“एक दे दीजिये ” उसने मुस्कुराकर कहा
“एक कितने का गुलफाम ?” मैंने बगल में खडी गुलफाम से पूछा ।
” पांच रूपये का । ” सबसे छुटकी गुलफाम ने हँसते हुए कहा ।
पैसे देते हुए उस बन्दे ने पूछा ” आप फूल बिकवाने में इनकी मदद कर रही है? ”
” नहीं .. ये मेरी ख़्वाहिश पूरी करने में मेरी मदद कर रहे हैं ” मैंने जवाब दिया ।
तीनों कमल के फूलों जैसे ही बच्चे सलाहुद्दीन , अफरोज़ा और गुलफाम कभी नहीं भूलेंगे मुझे । और पन्द्रह मिनिट बाद होटल लौटते हुए मैं सोच रही थी कि जाने किस शहर , किस जगह पर हमारे लिए क्या उपहार रखा हुआ है , हम नहीं जानते । लोग घूमने जाते हैं , लाखों रुपया खर्च करते हैं , लक्जरी होटल में रुकते हैं , साईट सीइंग करते हैं और फोटो खिंचवाकर लौट आते हैं । यात्रा तो छूट ही जाती है । पर्यटक की तरह यात्रा करने से ज्यादा आनंद आता है यायावर की तरह घूमने में । लोगों से मिलना , दो दिन के लिए उस शहर के रंग में रंग जाना , वहाँ की खुशबू में शांत होकर बैठना , उससे बतियाना हमें कितना समृद्ध बना देता है , ये हम बाद में महसूस कर पाते हैं ।
हमारा होटल सी बीच पर ही था और होटल के बगीचे से एक गेट सीधे बीच पर ही खुलता था । यह बीच शांत था और भीड़-भाड़ से दूर था । दीव का सबसे पॉप्युलर बीच नगोआ बीच है जहां कदम रखते ही हम जान गए थे कि ये बीच हमारे मतलब का नहीं है । खूब सारी भीडभाड़ , तरह तरह की वाटर स्पोर्ट्स एक्टिविटी और खाते पीते खेलते परिवार । बच्चों और फैमिली के हिसाब से अच्छा था मगर हमें चाहिये था ऐसा बीच जहां की शांत रेत पर हम बैठकर लहरों का संगीत सुन सकें , गीली रेत में बिना शोर शराबे के एक लम्बी वॉक कर सकें और देर रात चाँद को देखते हुए अपनी पसंदीदा ग़ज़लें सुन सकें । समंदर किनारे रेत पर चांदनी रात में ग़ज़लें सुनना … ये एक और पुरानी ख्वाहिश थी जो यहाँ आकर पूरी हुई । मैं और मयूरी देर रात तक उस चांदनी रात में ठंडी रेत पर पड़े हुए जगजीत सिंह को सुनते रहे ।

दिनभर हम दीव घूमते रहे । दीव का अपना एक रोचक इतिहास है। आज़ादी से पहले लगभग चार सौ सालों तक पुर्तगालियों का शासन रहने से पुर्तगाली संस्कृति यहाँ हर जगह दिखाई देती है। तीन तरफ से समुद्र से घिरा दीव का किला दर्शनीय है और पुर्तगाली वास्तु का एक अच्छा नमूना है । दीव गुजरात से नज़दीक केंद्र शासित प्रदेश होने के कारण गुजराती अपना शराब का शौक पूरा करने यहाँ आते हैं । यहाँ के खानपान व संस्कृति पर भी गुजरात का प्रभाव है । शहर इतना तरतीब और खूबसूरती से बसाया हुआ है कि एक आदर्श शहर का मॉडल नज़र आता है । सुन्दर खाली-खाली चौराहे , साफ़ सुथरे और खूबसूरत अस्पताल, शासकीय भवन और दुकानें इसे ऐसा शहर बना देती हैं कि कोई भी यहाँ बार बार आना चाहेगा । दीव शहर की एक और खासियत कि यहाँ लोग साइकलों का बहुत इस्तेमाल करते हैं । बढ़िया वाली साइकलें आप किराए से ले सकते हैं और पूरा शहर घूम सकते हैं । हमारा मन था साइकल से घूमने का मगर धूप तेज़ थी और साइकल पर चलने की आदत भी नहीं थी तो हमने हमारी गाड़ी से ही घूमना पसंद किया ।
दो दिन दीव में गुजारकर बेहद संतुष्ट और प्रफुल्लित मन से हम अपने आख़िरी पड़ाव सोमनाथ की ओर बढ़ गए ।

सोमनाथ –
दीव से सोमनाथ डेढ़ घंटे का ही रास्ता है तो हम लोग अगले दिन सुबह निकले और दस बजे तक सोमनाथ पहुँच गए । सोमनाथ के बारे में जब भी पढ़ती सुनती थी तो इसका एक लम्बा और पुराना इतिहास नज़रों के आगे से घूम जाता था । ईश्वर की पूजा वगैरह मैं करती नहीं , मंदिरों में भी उसका वास्तु देखने जाती हूँ तो इसका बारह ज्योतिर्लिगों में सबसे पहला ज्योतिर्लिंग होना मुझे सोमनाथ लेकर नहीं आया था । मैं सोमनाथ आई थी उस भव्य और वैभवशाली विरासत को देखने जिसे न जाने कितनी बार उजाड़ा गया और आज ये उसी शान से सर ताने अरबसागर के किनारे खड़ा हुआ है । सोमनाथ पहुंचकर एक यात्रीग्रह में सामान टिकाया और नाश्ता करके हम मंदिर पहुँच गए ।
अहा ,, क्या भव्य और खूबसूरत मंदिर । पत्थर पर ऐसी शानदार नक्काशी कि नज़र न हटे। बेहद साफसुथरा प्रांगण जिसकी बाउंड्री के किनारे खड़े होकर विशाल समंदर देखा जा सकता है । इसकी दीवारों पर सर टकराती , गरजती लहरें मानो इसकी जिजीविषा को सजदे करती हैं । मैं प्रांगण में बाउंड्री के किनारे एक बेंच पर बैठी समंदर देख रही थी , तभी मेरी नज़र एक बोर्ड पर पड़ी जिस पर लिखा था कि अगर इस स्थान से नाक की सीध में समंदर में चलते जायें तो बिना किसी रुकावट के सीधे अन्टार्कटिका पहुँच जायेंगे । मैं मन ही मन कल्पना करने लगी उस छोर की जो सिर्फ इसलिए नहीं देखा जा सक रहा है क्योंकि हमारी आँख की सीमाएं हैं । अगर मैं एक नाव में बैठकर सीधे चलती जाऊं तो कितने दिन में दक्षिणी ध्रुव पर पहुँच जाउंगी ?पहले के खोजी यात्री ऐसे ही तो देश ढूंढते होंगे । यह कल्पना मात्र ही मुझे रोमांचित कर रही थी ।
मंदिर के भीतर और बाहर का एक चक्कर लगाकर हम वापस अपनी लॉज में आ गए । दोपहर हो गयी थी और शाम को दुबारा मंदिर आकर हम लाईट एंड साउंड शो देखना चाहते थे । दोपहर में आराम से खाना खाकर सो गए और शाम को 6 बजे से हम मंदिर में आकर बैठ गए ।
ढलते सूरज की रौशनी में शांत होकर मैं मंदिर प्रांगण में उन सीढ़ियों पर बैठी थी जहां एक घंटे बाद लाईट एण्ड साउंड शो होने वाला था । ये एक घंटे मानो मैं सोमनाथ के पूरे इतिहास को जी रही थी । किसी भी ऐतिहासिक अथवा पुरातात्विक स्थान पर जाते ही मेरी मनोदशा एकदम अलग ही हो जाती है । मैं जैसे साक्षी की तरह इतिहास को अपने समक्ष सजीव होते देखने लगती हूँ । इतिहास के पात्र उस काल से निकलकर दृश्यमान हो उठते हैं । सोमनाथ के बारे में सोचते सोचते मैं सिहर उठती थी । यही वह सबसे ऐश्वर्यपूर्ण मंदिर है जो इतना प्राचीन है कि इसे सबसे पहले किसने बनवाया ,यह तक ज्ञात नहीं है । यही वह मंदिर है जिसकी कथा में शिव आते हैं ,कृष्ण आते हैं , चन्द्रमा आता है , जिसके साथ न जाने कितने राजवंशों का नाम जुड़ा है, इसी मंदिर से बाबा सोमनाथ की अनन्य भक्त नृत्यांगना चौला देवी और राजा भीमदेव की प्रेमकथा जुड़ी हुई है और यही वह मंदिर है जिसे महमूद गजनी ने सत्रह बार समूल नष्ट कर दिया था । जिन सीढ़ियों पर मैं बैठी हूँ , समय के किसी हिस्से में यहाँ गजनी के सैनिक रक्तपात कर रहे थे । इतिहास को जीने बैठ जाओ तो काल के प्रभाव से हम मुक्त हो जाते हैं । यही सब सोचते सोचते सात बज गए और दर्शकों की भीड़ जुटने लगी । मैं वर्तमान में लौटी और शो शुरू होने का इंतज़ार करने लगी ।
अमरीश पुरी की गंभीर और खरजदार आवाज़ में सोमनाथ की कथा प्रारम्भ हुई और साथ में मंदिर की दीवारों और कंगूरों पर परछाइयों के चित्र उपस्थित होने लगे । ध्वनि और प्रकाश के माध्यम से सोमनाथ अपनी कहानी कहने लगा । इसकी कहानी और खासकर इसके बार बार उजड़ने का इतिहास शरीर के रोयें खड़े करने वाला था । कोई कैसे इतना झेल सकता है ? समूल नष्ट हो चुका मंदिर आज अपने पूरे गौरव के साथ हमारे सामने खड़ा है यह बताता हुआ कि विनाश का सबसे सटीक बदला सृजन के अतिरिक्त कुछ नहीं हो सकता । जब कथा समाप्त हुई तो मेरे समूची देह में सिहरन और आँखों में आंसू थे ।
कथा समाप्त होने पर हमने मंदिर के भीतर आरती अटेंड की और एक बेहतरीन अनुभव के साथ बाहर आये । रात भर मैं सोमनाथ के बारे में ही सोचती रही । सुबह दस बजे हमें वापस अहमदाबाद निकलना था तो इसके पहले एक चक्कर बीच पर लगाने का सोचा मगर बीच पर कोलाहल, भीडभाड़ , गंदगी के चलते हम मुश्किल से पन्द्रह बीस मिनिट ही वहाँ रुक पाए और वापस आकर अहमदाबाद के लिए रवाना हो गए ।

लौटते वक्त सफ़र में मैं सोच रही थी कि एक हफ्ते की इस यात्रा ने मुझे क्या दिया ? जवाब मिला कि खुद से रूबरू होने का मौका , प्रकृति के थोड़ा और नजदीक जाने का मौका , इतिहास को जीने का मौका और यायावरी के जरिये दुनिया को समझने का मौका । मैं समृद्ध , संतुष्ट और प्रसन्न होकर वापस लौट रही थी ।


पल्लवी त्रिवेदी:

8 सितम्बर, 1974 को ग्वालियर, मध्यप्रदेश में जन्म। प्रारम्भिक शिक्षा मुरैना व शिवपुरी में । उच्च शिक्षा मंडला और शाजापुर में । वर्ष 2000 में वे मध्यप्रदेश में उप पुलिस अधीक्षक के रूप में नियुक्त हुईं।

प्रकाशित कृतियाँ –
1- अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा (व्यंग्य-संग्रह)
2- तुम जहाँ भी हो (कविता-संग्रह)
3 – ख़ुशदेश का सफ़र( यात्रा वृत्तांत)
4- ज़िक्रे यार चले- लवनोट्स ( प्रेम कथा संग्रह)
5- पत्तियों पर काँपता कोमल गांधार ( कविता संग्रह )

रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित। लेखन के अतिरिक्त वे प्रकृति प्रेमी हैं व यात्राओं, संगीत व फ़ोटोग्राफ़ी का शौक रखती हैं। बर्ड फ़ोटोग्राफ़ी में विशेष रुचि । अब तक वे देश भर से 200 से अधिक प्रजातियों के पक्षियों की तस्वीरें ले चुकी हैं।

सम्मान-
वागीश्वरी सम्मान एवं पुलिस विभाग में सराहनीय सेवा के लिए ‘राष्ट्रपति पुलिस पदक’ से सम्मानित।

सम्प्रति : मध्यप्रदेश में राज्य पुलिस सेवा की अधिकारी। वर्तमान में आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ ,भोपाल में ए.आई.जी. के रूप में पदस्थ।
Mobile no. 9425077766

 

 

 

 

 

 


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