गीतकार शैलेंद्र का पूरा नाम शंकरदास केसरीलाल शैलेंद्र था। जनता की आवाज़ को शब्द देनेवाले इस गीतकार का जन्म 1923 में तत्कालीन रावलपिंडी, पंजाब में हुआ। विस्थापन का दर्द या समाज के बैरी हो जाने की कसक लिए इस गीतकार ने फ़िल्मों के लिए सजनवा बैरी हो गए हमार जैसे जो भी गीत लिखे जन – जन की पीड़ा के शोकगीत बन गये।
जय सिंह ने इस गीतकार के जीवन और जन मानस के कंठहार बने गीतों पर ‘ सजनवा बैरी हो गए हमार ‘ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी है जो वाम प्रकाशन से छपके आई है। यहां हम पुस्तक का एक अंश प्रस्तुत कर रहे हैं।
– हरि भटनागर
आलेख :
यदि हिरामन और हीराबाई मिल जाते
दृश्य-एक
हिरामन स्टेशन पर भागता-भागता पहुंचता है। उधर रेलगाड़ी दूसरी तरफ़ के प्लैटफॉर्म पर पहुंचती है। हिरामन पटरी पारकर उधर के प्लैटफॉर्म पर पहुंचना चाहता है लेकिन तब तक रेलगाड़ी प्लैटफॉर्म पर आ जाती है। मुसाफ़िर डिब्बों से उतरते हैं। तभी हम देखते हैं कि हिरामन रेल के नीचे से निकलकर प्लैटफॉर्म पर पहुंच जाता है। हीराबाई हिरामन को देखकर ख़ुश होती है। हिरामन उसके नज़दीक जाता है।
हीराबाई- ‘तुम आ गए हिरामन! ये लो अपने रुपये … लोगे नहीं क्या?…… लो ना … मैं तो उम्मीद ही खो बैठी थी। सोचा … चलो भेंट हो गई। मैं वापस जा रही हूं अपने देश की कंपनी में। लो मेरी निशानी। सर्दी में काम आएगी।… गंज के मेले में मेरा तमाशा देखने आओगे ना? दिल छोटा ना करो हिरामन। तुमने कहा था ना महुआ को सौदागर ने खरीद लिया …
सेठ -बाई समान लग चुका…।’
हीराबाई – ‘मैं बिक चुकी हूं …।’
सेठ -बाई जल्दी करो ना, गाड़ी छूट जाएगी… बाई चलो ना।’
सेठ (हिरामन से)-’अरे लाद-फाद के बाहर निकाल जाओ यार कोई पकड़ लेगा, चलो यहां से…।’
इस बीच सीटी बजती है।
हिरामन अभी भी निःशब्द और बेजान-अनजान सा खड़ा हीराबाई को देखता है, हीराबाई हिरामन को ही देख रही है। इंजन भाप उगलने लगता है, पहिये धड़ाधड़ खिसकने लगते हैं हिरामन अभी भी …।
दृश्य-दो
हीरामन प्लेटफारम पर आता है…बाकी बातें ठीक हैं…आपने अच्छा लिखा है…पर मेरे को कहना है बिदाई का टेंस सीन…कभी हीराबाई का क्लोजअप…कभी हीरामन का क्लोजअप…चेहरे पर कभी एक एम्प्रेशन कभी दूसरा…बाकी डायलाग ठीक हैं…तभी हीरामन की आंखें गीली हो जाती हैं…वह चेहरा घुमा लेता है…क्लोजअप ऑफ हीरामन…आंसू से भीगा एक दुखी चेहरा…यहां राज साहब कमाल कर देंगे…मेरा दावा है, उनके चेहरे को देखकर पब्लिक की आंखें भीग जायेंगी…कट टू इंजन का ऊपरी हिस्सा- धुआं…जैसे ज़िंदगी अब धुएं के सिवा कुछ नहीं- जैसे हीराबाई भी एक धुआं-सी आयी और हवा में उड़ गयी…लेखक साहब, आप खुद सोचिए, ढेर सारे माने निकलेंगे…कट, इंजन के भीतर के ड्राइवर का सिर्फ हाथ…सीटी वाली रस्सी पर…कट, इंजन का ऊपरी हिस्सा- जोर की सीटी…कट- हीरामन पीठ फेरे खड़ा है…कट- हीराबाई देख रही है…गाड़ी धीरे-धीरे सरक रही है…हीरामन पीठ फेरे खड़ा है…हीराबाई हीरामन के चेहरे को आखिरी बार देखना चाहती है…अपने-आप में घुटती है…गाड़ी सरकती जा रही है…कट- इंजन का ऊपरी हिस्सा…फिर जोर की सीटी…कट- रस्सी पर ड्राइवर का हाथ…धीरे-धीरे वह हाथ एक लड़की के हाथ में बदल जाता है- चेन पर…कट- वही हाथ हीरामन के कंधे पर…हीरामन घूमकर देखता है…सामने हीराबाई खड़ी है…दोनों की आंखें गीली हैं…दोनों एक-दूसरे से लिपट जाते हैं…गाड़ी चली जा रही है…दोनों लिपटे हुए हैं. यह शॉट क्रेन से लिया जाये, तो मजा आ जायेगा…दोनों लिपटे खड़े हैं…दूर, बहुत दूर तक जाती हुई गाड़ी…अनंत में खो जाती है…
तीसरी कसम का दृश्य-एक असली है यानी जिसे हम फिल्म में देखते हैं और जिसके साथ फिल्म समाप्त होती है और दृश्य-दो वह दृश्य है, जिसको एक फिल्म वितरक ने उस मीटिंग में सुनाया जो तीसरी कसम के अंत को लेकर बुलाई गई जिसमें शैलेंद्र, रेणु, बासु भट्टाचार्य,सुब्रत आदि थे। वितरक ने ज़ोर दिया कि फिल्म को इसी तरह ख़त्म करो।
फिल्म का यह सुखांत सिर्फ डिस्ट्रीब्यूटर यानी तीसरी कसम के फिल्म वितरक का ही विचार नहीं था बल्कि शैलेंद्र और फणीश्वरनाथ रेणु को छोड़कर फिल्म से जुड़े लगभग सभी का था कि फिल्म के अंत को बदला जाना चाहिए। वितरक ही नहीं, निर्देशक से लेकर फिल्म के नायक यानी राज कपूर और नायिका वहीदा रहमान भी चाहती थीं कि फिल्म का अंत बदल दिया जाए। राज कपूर ने तो अपनी फिल्म आग का हवाला दिया कि कैसे उन्होंने फिल्म का अंत नहीं बदला तो, फिल्म नहीं चली। अगर इस फिल्म का अंत नहीं बदला गया तो यह फिल्म भी नहीं चलेगी। फिल्म का अंत बदलने की यह राय या कह लीजिए विचार राज कपूर ने बतौर नायक नहीं, बतौर शैलेंद्र के एक मित्र के नाते भी दिया लेकिन बाकी लोगों ने अपनी-अपनी हैसियत से शैलेंद्र पर दबाव बनाया कि फिल्म का अंत बदला जाए नहीं तो हम फिल्म नहीं करेंगे!
फिल्म के अंत को लेकर राज कपूर ही नहीं बासु भट्टाचार्य, फणीश्वर नाथ रेणु और शैलेंद्र के बीच काफ़ी मशवरा हुआ, बहस हुई, हां और ना के बीच आख़िर में फणीश्वरनाथ रेणु के ऊपर फ़ैसला छोड़ा गया कि अगर उनको कोई आपत्ति नहीं होगी तो फिल्म का अंत बदल दिया जाएगा हालांकि फिल्म के निर्देशक बासु भट्टाचार्य ने कहा कि फिर इस फिल्म का नाम तीसरी कसम नहीं होगा। इसका नाम भी बदलना पड़ेगा। नाम बदलने को लेकर सबसे अधिक आपत्ति स्वयं शैलेंद्र को थी कि अगर नाम बदल दिया गया तो फिल्म की आत्मा ही मर जाएगी। फिल्म का मकसद और फिल्म का जो कथानक है वही ख़त्म हो जाएगा।
तीसरी कसम के अंत को लेकर काफ़ी कुछ लिखा गया है। शैलेंद्र, राज कपूर, बासु भट्टाचार्य और फिल्म की कहानी और पटकथा लेखक स्वयं फणीश्वरनाथ रेणु के वक्तव्य उपलब्ध हैं।
‘शैलेंद्र के साथ राज कपूर एवं उनके वितरकों की अंतिम बैठक हुई। रेणु बाहर थे। शैलेंद्र ने रेणु को बुलवाया। कमरे में अच्छा-खासा जमघट था। उन्हें देखते ही शैलेंद्र बोले- ‘‘रेणुजी, ये लोग कहानी का अंत बदलना चाहते हैं। मैंने साफ-साफ कह दिया है, मैं अंत नहीं बदलना चाहता। यदि रेणुजी तैयार हो जायेंगे, तो ठीक है।’’…रेणु शैलेंद्र के चेहरे को देखते रहे। इतना चुक जाने पर भी इस कहानी पर कितना विश्वास था और कितना लगाव! रेणु चुपचाप खड़े थे कि शैलेंद्र ने लोगों को सम्बोधित कर कहा- ‘‘इस कहानी के लेखक आ गये हैं। अगर आप इन्हें यकीन दिला सकें..।’’ 1 और रेणु की ओर एक दृष्टि फेंककर चुपचाप बाहर चले गये। रेणु थोड़ी देर तक शांत खड़े रहे, तब किसी ने उन्हें बैठने के लिए कहा। वे बैठ गये किन्तु उन्हें लगा कि किसी दलदल में फंस गये हों और धीरे-धीरे भीतर धंसते ही जा रहे हों।
फिर भाषण शुरू हुआ। उपन्यास क्या है? साहित्य क्या है? फिल्म क्या है? पाठक क्या है? ख़र्च क्या है और फिल्म-निर्माण क्या है? उसका आर्थिक-पक्ष क्या है? -ऐसे विचार-प्रवर्त्तक भाषण शायद पूना फिल्म इंस्टीट्यट में भी नहीं होते होंगे। फिर शैलेंद्र पर चढ़े क़र्ज़ और उसे उतारने की दुहाई दी गयी। इसके बाद एक वितरक ने वही नया अंत सुनाया जिसका ऊपर दृश्य दो में उल्लेख किया गया है। जब उस वितरक ने बड़े कॉन्फिडेंस से रेणुजी से पूछा कि ‘जमता है न’ तो रेणुजी के मुंह से सिर्फ़ इतना ही निकला, ‘नहीं’। इतना कहकर वह कमरे से बाहर निकल आए।
बाहर शैलेंद्र बड़ी बेचैनी से इधर-उधर टहल रहे थे। जब उन्होंने रेणुजी को बाहर निकलते देखा तो वह उनके पास गए और पूछा, ‘क्या फैसला किया?’ रेणुजी बोले, ‘वही जो आपने किया था।’ इस तरह से तीसरी कसम का अंत या कहें कि इसके कथानक का असामयिक अंत होने से बच गया!
‘शैलेंद्र ने एक साहित्यिक कृति पर ‘‘बिग स्टार’’ वाली फिल्म बनाकर भी कृति को मरने नहीं दिया, बल्कि फिल्म तकनीक और भाषा के माध्यम से कहानी की रक्षा करते हुए उन बातों को और भी उभारा जो प्रस्तुति की दृष्टि से अनिवार्य थीं। जैसे सारी फिल्म बन चुकी थी। कई एक ‘‘ट्रायल शो’’ हो चुके थे और फिल्म के व्यावसायिक पक्षधरों ने सर्वसम्मति से चाहा कि नायक- नायिका को मिला दिया जाए। और उन लोगों में राज कपूर साहब भी थे जो फिल्म के नायक ही नहीं, शैलेंद्र के अच्छे मित्रों में थे। निर्माता की हैसियत से शैलेंद्र के अंग के गिरह-गिरह बंधे हुए थे। एक ओर थी कथा की आत्मा दूसरी ओर बॉक्स ऑफिस की खिड़की तोड़ भीड़। मुझे विशेष रूप से बुलवाया गया और शैलेंद्र ने कहा, “ रेणुजी, मैं अभी तक डटा हूं, अब यह आपके ऊपर है कि हिरामन और हीराबाई को मिला दें…।” मैंने पूछा था, “आप क्या चाहते हैं? तब उन्होंने कहा था कि न मिलें- और यही राय बासु की भी थी।”2
तीसरी कसम की असफलता (बॉक्स ऑफिस पर कमाई के संदर्भ में) और फिर बाद में इसकी सफलता और एक कल्ट क्लासिक फिल्म का दर्जा प्राप्त करने की कहानी भी इस फिल्म के अंत की तरह दिल तोड़ने वाली और दुखद है। सच्चाई यह है कि इस फिल्म के चाहने वाले लाखों-करोड़ों हैं। उस दौर के भी और इस दौर के भी। एक संवेदनशील, सशक्त कहानी उस पर फिल्म के गीत जैसे एक-एक हीरा।
बेहतरीन सिनेमैटोग्राफी, बेहतरीन संपादन, बेहतरीन निर्देशन, मन-मस्तिष्क पर छा जाने वाले संवाद, रगों में उतर जाने वाला संगीत और उससे भी अधिक दिल को हर लेने वाली राज कपूर और वहीदा रहमान की अदाकारी! बाज़ार के नज़रिए से भी देखें तो एक फिल्म को सफल होने के लिए इन्हीं सब की जरूरत पड़ती है। तीसरी कसम में भी तो वह सब कुछ था जो एक अच्छी और सफल फिल्म के लिए दर्शक चाहते हैं। फिर ऐसा क्या था, कौन से कारण थे कि यह बॉक्स ऑफिस पर एक आम मुंबइया मसाला फिल्म के बराबर भी नहीं चली।
यह सवाल बहुत से पाठकों, लेखकों, निर्देशकों कलाकारों, फिल्म समीक्षकों को परेशान करता रहा है। फिल्म के अंत को लेकर काफी जद्दोजहद हुई। सब लोगों ने शैलेंद्र का साथ छोड़ दिया। आर्थिक और मानसिक कठिनाइयों से लड़ते हुए उन्होंने फिल्म रिलीज की और जब फिल्म नहीं चली तो इन्हीं लोगों ने अपनी बातों को सही सिद्ध करने के लिए फिल्म के अंत को ही सबसे बड़ा कारण बताना शुरू कर दिया जबकि दर्शकों की अंत को लेकर प्रतिक्रियाएं बहुत कम या ना के बराबर उपलब्ध हैं। फिल्म समीक्षकों ने भी मिली-जुली प्रतिक्रियाएं दीं। शैलेंद्र ने अपनी डायरी में इनका ज़िक्र किया है।
कई समीक्षकों ने इसे औसत, कई ने उत्कृष्ट और कई ने इसे हिट फिल्म बताया। स्वयं शैलेंद्र ने अपनी डायरी में लिखा है-‘इट विल बी ए हिट।’
तो क्या सभी ने शैलेंद्र के निर्णय को ग़लत साबित करने के लिए तीसरी कसम के अंत को दोषपूर्ण बताने का अभियान चलाया? फिल्म का अंत दर्शकों को पसंद नहीं आया? फिल्म के अंत से दर्शक सहमत नहीं हुए जिस कारण यह फिल्म नहीं चली?
अगर फिल्म का अंत बदल दिया जाता यानी हिरामन और हीराबाई को मिला दिया जाता तो क्या फिल्म चलती? लोगों को पसंद आती? फिल्म का अंत एक कारण हो सकता है लेकिन और भी बहुत से कारण थे। जिनमें सबसे बड़ा कारण फिल्म बाज़ार की शक्तियां थी।
बाज़ार को साधने वाले, बाज़ार को चलाने वाले, इसे उठाने और गिराने वालों का इसमें बहुत बड़ा हाथ था। वितरक और थियेटर मालिकों ने, उसी की फिल्म नहीं चलने दी, जिसके गीतों पर वे अपनी तिजोरियां भरते थे। शैलेंद्र बाज़ार साधने वाले निर्माता नहीं थे। वे कला-संगीत के साधक थे, जहां ग़ैर-कला मर्मज्ञ को हस्तक्षेप करने की इजाज़त नहीं थी। जबकि यह लॉबी अन्य फिल्म निर्माताओं, जिनमें बड़े-बड़े नायक-नायिकाएं और निर्माता-निर्देशक शामिल थे, के काम में प्रायः दखलंदाज़ी करते थे (करते हैं)। तीसरी कसम के डिस्ट्रीब्यूटरों और फाइनेंसरों ने फिल्म का अंत उनके हिसाब से न बदलने पर फिल्म से हाथ खींच लिए, अपने पैसे वापस ले लिए। सोचिए, अगर किसी फिल्म का वितरक ही अपने पैसे वापस लेकर उस फिल्म से निकल जाए तो पहली बार फिल्म बनाने वाले निर्माता के दिल पर क्या बीतेगी।
सबसे दुखद यह था कि तीसरी कसम के वितरक और फाइनेसर वे थे जो राज कपूर और बिमल रॉय की फिल्मों पर आंख मूंदकर पैसा लगाते थे लेकिन शैलेंद्र को लेकर इनका रवैया अलग था। जबकि तीसरी कसम के दो गीत प्रसिद्धि के पायदान पर पहले से ही ऊपर चढ़ चुके थे। राज कपूर साहब ने भी अपनी फिल्म आग का हवाला दिया लेकिन शैलेंद्र साहब ने तीसरी कसम को ‘तीसरी कसम’ ही रहने दिया बल्कि उन्होंने एक चौथी कसम खाई कि कुछ भी हो जाए अंत नहीं बदलेंगे। उनका कहना था कि हर स्टोरी हैप्पी एंडिंग में नहीं बदलती। तो क्या सारी ताक़तें, जिनमें अधिकतर शैलेंद्र के अपने लोग थे, उनके ‘कॉन्फिडेंस’ को तोड़ना चाहती थीं? क्या स्टार सिस्टम (जिसका राज कपूर-वहीदा रहमान भी हिस्सा थे) को तीसरी कसम से ख़तरा लगने लगा था। क्या उन्हें यह लगने लगा था अगर इस तरह की फिल्में चलने लगीं तो फार्मूला फिल्मों का बाज़ार ध्वस्त हो जाएगा!
यदि अंत बदल दिया जाता अर्थात हिरामन और हीराबाई मिल जाते तो क्या होता? ये सवाल मेरे मन में बार-बार आता है और इसका जवाब पाने के लिए मैंने तीसरी कसम के निर्माण, इसके वितरण, वितरकों की मनमानी और उस समय के दर्शकों की मानसिकता को समझने की कोशिश की। अगर फिल्म का अंत बदल दिया जाता यानी हिरामन और हीराबाई को मिला दिया जाता तो क्या दर्शक इस फिल्म को पसंद करते? इस सवाल का जवाब हां और ना दोनों में हो सकता है।
फिल्म की कहानी, उसका प्लॉट और उसकी प्रस्तुति ठेठ गंवई थी। उस दौर में सिनेमा मनोरंजन का नया माध्यम था और ख़ूब फल-फूल रहा था। जनता सिनेमा हॉल में अपने दुख-दर्द, परेशानियों से निजात पाने और ख़ालिस मनोरंजन की तलाश में जाती थी। यह फिल्म अंत में दर्शकों के मन को भारी कर जाती है। इस फिल्म के पात्रों से दर्शकों का जो जुड़ाव होता है वह अंत तक बना रहता है लेकिन बिछुड़ने का जो अंतिम सीन है वह मन को कचोट जाता है। दर्शकों ने अपने मन में शायद यह मान लिया होगा कि वह अपने मन-मस्तिष्क पर इतना मानसिक बोझ लेकर थियेटर से बाहर नहीं आना चाहते।
यह भी एक सत्य है कि अगर अंत बदल दिया जाता तो तीसरी कसम सच में ‘तीसरी कसम’ ही नहीं रहती। पूरी कहानी बदलनी पड़ती, पटकथा बदलनी पड़ती, फिल्म दोबारा से शूट करनी पड़ती क्योंकि पहली और दूसरी कसम खाने के बाद जो कहानी आगे बढ़ती है वही अंत ‘तीसरी कसम’ के साथ न्याय करता है। अंत बदलने का मतलब होता ‘तीसरी कसम’ की आत्मा को मार देना ! इस तरह से मारे गए गुलफाम कहानी पर शैलेंद्र ने जो तीसरी कसम बनाई उसको मारे गए गुलफाम और तीसरी कसम के अलावा कोई तीसरा नाम देना पड़ता लेकिन फिल्म के निर्माण में लगा आवश्यकता से अधिक समय, वितरकों का हाथ खींचना और रिलीज में देरी; इसके अलावा बिना प्रचार-प्रसार के फिल्म का रिलीज होना उसका दुर्भाग्य बन गया जो अंततः शैलेंद्र का भी दुर्भाग्य बना।
अतः यह कहना शायद ठीक नहीं होगा कि फिल्म का अंत बदलने से फिल्म का भाग्य कुछ और होता। यदि हिरामन और हीराबाई मिल जाते अर्थात तीसरी कसम का सुखद अंत हो जाता तो यह एक आम मुंबइया मसाला फिल्म से ज़्यादा न रहती। यह कभी क्लासिक नहीं बन पाती। इस बात में कोई संशय नहीं है कि यह भारतीय सिनेमा के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है जिसका श्रेय सिर्फ़ और सिर्फ़ शैलेंद्र को जाता है।
फिल्म में हिरामन गाना गाता है- ‘सजनवा बैरी हो गए हमार, चिट्ठियां हो तो हर कोई बांचे. भाग ना बांचे कोइ करमवा बैरी हो गए हमार’। दरअसल इसके कहानीकार और संवाद लेखक फणीश्वरनाथ रेणु और मुकेश के अलावा जितने भी सजनवा थे, आगे चलकर उनके बैरी हो गए। शैलेंद्र सरल हृदय के कवि थे, अपने आसपास के लोगों को न भांप सके। जिनमें उनके अपने भी थे पराए भी! शैलेंद्र की बेटी अमला शैलेंद्र के शब्दों मेः
ये ठीक बात है कि फिल्म बनाने के दौरान काफ़ी पैसे लग गए थे। घर में पैसे नहीं थे लेकिन बाबा अपने जीवन में पैसों की परवाह नहीं करते थे। उन्हें इस बात का फ़र्क नहीं पड़ा था कि फिल्म नाकाम हो गई क्योंकि उस वक़्त में वे सिनेमा में सबसे ज़्यादा पैसा पाने वाले लेखक थे। उन्हें धोखा देने वाले लोगों से चोट पहुंची थी। बाबा भावुक इन्सान थे। इस फिल्म को बनाने के दौरान उन्हें कई लोगों से धोखा मिला। इसमें हमारे नजदीकी रिश्तेदार और उनके दोस्त तक शामिल थे। जान-पहचान के दायरे में कोई बचा नहीं था जिसने बाबा को लूटा नहीं। नाम गिनवाना शुरू करूंगी तो सबके नाम लेने पड़ जाएंगे।3
जिन लाखों-करोड़ों दर्शकों के सुख-दुख में शामिल होते हुए शैलेंद्र ने एक से एक बेहतरीन गाने दिए, क्या उन लोगों को पता नहीं चला कि तीसरी कसम का निर्माता उनका अपना कवि- गीतकार है, जिसने उनके लिए एक से एक नगीना दिया?
संदर्भ:
1. मैं मेरा कवि और मेरे गीत, आत्म परिचय, शैलेंद्र, धर्मयुग, 16 मई 1965
2. वही।
3. तीसरी कसम की नाकामी से नहीं टूटे थे शैलेंद्र, अमला शैलेंद्र से प्रदीप कुमार की बातचीत, बीबीसी, 30 अगस्त 2016
जयसिंह
जयसिंह चर्चित फिल्म-समीक्षक और स्तंभकार हैं। उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैंः भारतीय सिनेमा का सफरनामा, सिनेमा बीच बाजार और ज़ीरो माइल अलीगढ़। उन्होंने विभिन्न विषयों की सौ से अधिक पुस्तकों का संपादन किया है, जिनमें फिल्म निर्देशक एन. चंद्रा की दो फिल्म पटकथाएं हंगामा है क्यों बरपा और अब के हम बिछड़े तो शामिल हैं। उन्होंने एक लघु फिल्म का निर्माण और निर्देशन भी किया है। वह भारतीय सूचना सेवा से संबद्ध हैं और फिलहाल ‘रोज़गार समाचार’ में बतौर संपादक कार्यरत हैं।
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बहुत शानदार सर