व्यंग्य रचना वही अर्थपूर्ण होती है जो गहरी करुणा – पैथाज़ से हमें भर दे। उसकी भूमिका सुलाने की नहीं, वरन् चेतनासम्पन्न करने की होती है।
मलय जैन की प्रस्तुत रचना हमें गहरी पीड़ा से आहत कर देती है जब पिता अपनी पुत्री को तथाकथित कुलीनता का पाठ पढ़ाता है लेकिन इस कुलीनता की आड़ में अवाम के लिए उसके अंदर गहरी हमददीॅ है – उसके पक्ष में खड़ा होने का भाव है जो रचना की ताक़त है।
पाठकों को यह रचना पसंद आएगी, ऐसा भरोसा है।
– हरि भटनागर

 

व्यंग्य रचना :

ई मेल 1

मेरी प्यारी पुत्री ,

( मुझे पता है , पुत्री जैसा आउटडेटेड सम्बोधन पढ़कर तुम्हारे पहले से निकले दाँत और बाहर निकल आये होंगे , मगर ऐसा इसलिए लिखा कि तुम हिन्दी साहित्य की विद्यार्थी हो और साहित्य में ऐसा ही लिखने की परम्परा है । सो तुम्हें मेरा यह मेल घोर असाहित्यिक होते हुए भी साहित्यिक सा ही लगता रहेगा । और तुम इसे वैसे ही उबासियां लेती पढ़ोगी , जैसे एक रीतिकाल को छोड़ दो तो बाकी आदिकाल और भक्तिकाल आदि को पढ़ती होगी )

प्रिय पुत्री , तुम्हारे कॉलेज का किन शब्दों में धन्यवाद करूँ कि तुम्हें ऐसे प्रोजेक्ट के लिए चुना जिसमें छात्राओं को सिलिकॉन वैली न ले जाया जाकर पीपलखेड़ा और नारियल खेड़ा टाइप के गांवों में ले जाया जा रहा है । तुम आज पहली बार गांव जा रही हो । निदा फ़ाज़ली ने लिखा है , ‘ धूप में निकलो , घटाओं में नहाकर देखो , ज़िंदगी क्या है , क़िताबों को हटाकर देखो ,’ सो मेरे लिए ये बड़े सुकून की बात है कि तुमने किताबों को हटाकर ज़िंदगी क्या है ये जानने देखने का मन बनाया ।

अभी तक तो तुमने गांवों को फ़िल्मों में ही देखा है । हो सकता है , इंटरनेट पर कभी न्यूयॉर्क , वेनिस और बैंगलोर – मुंबई से फ़ुर्सत मिली होगी तो ऑनलाइन भी देखा होगा । मगर गाँव शायद वैसे न मिलें जैसे फ़िल्मों में होते हैं । तुमने अदम गोंडवी की पंक्तियां पढ़ी होंगी न कि ” तुम्हारी फाइलों में गांव का रंग गुलाबी है मगर ये वायदे झूठे हैं , ये बातें किताबी हैं , ।” सो इतना तो तय है कि स्थिति दूसरी ही होगी । फिर भी तुम्हें गाँव का रंग फ़िल्मों जैसा गुलाबी दिखे और जैसा कि गाँव के बारे में राष्ट्र कवि ने लिखा है , अहा ! ग्राम्य जीवन भी क्या है , तुम्हारे मुंह से यदि निकल पड़े कि वॉव , ग्राम्य जीवन भी क्या है , तो बताना , मैं भी देखने आऊंगा ।

अभी तुम्हें बस में लम्बी यात्रा करनी है । हर मां बाप की तरह मैं भी तुम्हें कुछ सावधानियां बरतने की सलाह दूँगा । तुम मेरी इन बातों का ज़रूर ध्यान रखना । इससे तुम्हारी यात्रा सुरक्षित और सुखद होगी ।

सबसे पहली बात तो ये है बच्चों को बस में चढ़ाते वक़्त हर भारतीय मां बाप पहली सलाह यह देता है कि खिड़की से हाथ बाहर मत निकालना । ऐसे माँ बाप बच्चों को डरपोक बनाते हैं । जब तक हाथ बाहर नहीं निकलेगा , तुम कुँए के मेंढक की तरह संकुचित रहोगी सो मेरी सलाह मानना और तुम खिड़की से हाथ जरूर बाहर निकालना । लेकिन तभी , जब बगल में सिर पर समोसों की टोकरी रखे कोई निकल रहा हो । तुमने पढ़ा ही होगा , श्वान निद्रा , बको ध्यानम । यूँ मुझे पता है , एक योग्य पिता की सुयोग्य पुत्री होने के नाते और श्वान निद्रा की बजाय कुंभकर्ण निद्रा पर अधिक विश्वास के कारण श्वान निद्रा तुम्हारे वश में नहीं , तथापि बगुले की तरह ध्यान तो तुम लगा ही सकती हो । ऐसे में तुम समोसों की टोकरी पर ध्यान अवश्य रखना और जैसे ही अवसर मिले , हाथ बढ़ाकर दो चार समोसे उठा लेने में संकोच मत करना ।

बेटी , किसी के सिर का बोझ उतारने से बड़ा पुण्य दूसरा नहीं । हालाँकि तुम पूरा पुण्य लेने के चक्कर में न रहना , वरना परिणाम दूसरा भी हो सकता है । सो तुम कुछ समोसे उठा कर उसके सिर का बोझा थोड़ा भी कम कर सको , वही पर्याप्त होगा । एक बात और , ऐसा करते वक्त ग़रीबों का हमेशा ख़्याल रखना ।

मैं अपने निजी अनुभव से अमीर और ग़रीब के बीच अंतर करने का सीधा उपाय बताता हूँ । यदि दो लोग सिर पर समोसे की टोकरी रखे हों , उनमें से एक की टोकरी में दस समोसे और दूसरे की टोकरी में पंद्रह समोसे हों तो ज़ाहिर है , पंद्रह समोसे वाला अमीर होगा और दस समोसे वाला ग़रीब । तो जो पंद्रह समोसे वाला है न , उसकी टोकरी में से पांच समोसे चुपचाप उठा लेना । इसके कई फ़ायदे होंगे । एक तो उसके सिर से बोझ कम हो जाएगा । दूसरे , जो काम बड़े बड़े नहीं कर पाये वो तुम कर पाओगी । अमीर और ग़रीब को बराबरी पर ला सकोगी । इससे समाजवाद लाने का अधूरा स्वप्न भी कुछ हद तक पूरा होगा । सबसे बड़ी बात , जो आमतौर पर नहीं मिल पाता , तुम्हें तुम्हारी मेहनत का फल भी मिल जाएगा , वहीं कूप मण्डूकता से भी तुम्हारा मोहभंग होगा ।

एक सावधानी और बताता हूँ जो जीवन में सदैव काम आएगी । जैसे दीवारों के कान होते हैं न , वैसे ही खिड़कियों के भी आँखें होती हैं । कई कई आँखें । यदि समाजवाद लाने के ऐसे उदाहरणीय प्रयत्न करते तुम्हें कोई देख ले और उसका मुंह असामाजिक भाव से खुलने को उद्यत हो तो बिना देर किये पांच में से दो समोसे उसके मुंह में ठूंसकर उसका मुंह बंद कर देना । इससे तुम्हें भविष्य में मुंह बंद करने की तकनीक भी समझ आ जाएगी जो आजीवन काम आएगी । यूँ भी अभ्यास से धीरे-धीरे यह ज्ञान बढ़ता चला जाएगा और तुम ज़्यादा से ज़्यादा समोसे (या टोकरी में जब जो उपलब्ध हो ) प्राप्त करती अमीर और ग़रीब का अंतर भी मिटा पाओगी , दूसरों का मुंह बंद रखते ख़ुद का ख़्याल भी रख पाओगी ।

बचे हुए तीन समोसे में से दो समोसे तुम तत्काल पेट के हवाले कर लेना क्योंकि ख़ुद का ख़्याल रखना पहले ज़रूरी है , दुनिया का बाद में , सो तुम इसमें देर मत करना । मेहनत की रोटी का आनन्द एकदम अलहदा होता है , ये तुम ख़ूब अनुभव कर पाओगी । मेहनत की रोटी के बारे में फिर बताऊंगा । अभी तो समोसों की बात करता हूँ । हाँ , तो बाक़ी एक समोसा तुम्हारे साथियों और आम लोगों के लिए अवश्य रखना । मुझे पता है , समोसे तुम्हें बहुत पसंद हैं और ऐसा करना तुम्हारे लिये बड़ा मुश्किल होगा , मगर फिर भी तुम दिल पर पत्थर रख लेना और समोसे के करीब सौ सवा सौ छोटे छोटे टुकड़े कर सबों में बांट देना । भारी मन से ही सही , मगर इससे तुम्हारी दयालुता के क़िस्से युगों युगों तक गाये जायेंगे ।

ध्यान रखो , तुम्हें जीवन में हर जगह नुक्स निकालने और बात बेबात सवाल उठाने वाले ख़ूब मिलेंगे । कोई न कोई इतने छोटे टुकड़े पर भी सवाल उठायेगा । भले तुम्हारे मन में भुजाएं उस वक़्त अगले के कान के पीछे चार बजाने को फड़क रही हों , मगर प्रत्यक्ष में मुस्कराकर कहना , ये फलानी जगह का प्रसाद है । फिर देखना जिस टुकड़े को चींटी भी न छोड़कर चल दे , उसे लेने कैसे लोग लपकते हैं । देखा तो होगा न , अपने यहाँ लोग प्रसाद के नाम पर आधी चुटकी भर पंजीरी भी घण्टों लाइन में लग कर लेते हैं । तुम्हारे ऐसा करने से लोग धर्म के प्रति तुम्हारी आस्था के गुण गाएंगे । तुम बड़े अफ़सोस के साथ लोगों से कहना कि मेरा बस चलता तो प्रसाद का एक एक कण मोहल्ले में क्या , सारे शहर में बांटती । इससे तुम्हारी सबका भला चाहने की प्रवृत्ति आम लोगों में ज़ाहिर होगी । तुम यह मत सोचना कि अपने पड़ोसियों को आज तक पंजीरी नहीं बांटी , मोहल्ले और शहर की बात कहना कुछ ज़्यादा ऊंची बात नहीं हो जायेगी । मैं तुम्हें बताऊँ , आजकल सब ऐसी ही ऊंची ऊंची बातें करते हैं , इसीलिए ऊंचाई पर रहते हैं । किसी को फ़ुर्सत है भी नहीं देखने की , लिहाज़ा तुम हर मौक़े पर बातें ऊंची ही करना । ख़बरदार जो कभी अपने पिता की नाक नीची होने दी ।

मैं भी देखो कहाँ से कहाँ भटक गया । भूल ही गया कि तुम्हारी बस अभी चली ही है और मुझे तुम्हें कई सलाहें और देनी हैं । तो पहली सलाह मानो । सबसे पहले तुम अभी जाकर बस के ड्राइवर को बिना बात के डांटो । अब तुम मुझसे ये मत कहने लगना , ‘ अरे ऐसा क्यूं भला और ड्राइवर ने क्या बिगाड़ा है ? अच्छी भली गाड़ी तो चला रहा है ! ‘

देखो बेटी , तुम्हें पढ़ – लिखकर अफ़सर बिटिया बनना है न ? तो इसका अभ्यास अभी से प्रारम्भ करना ठीक होगा । पढ़ाई लिखाई तो बाद में होती रहेगी , एटिट्यूड रखना पहले ज़रूरी है सो डाँटने फटकारने की आदत अभी से डाल लो । ज़रूरी थोड़े है कि हर बात के पीछे कोई कारण हो । तुमने अपनी मम्मी को नहीं देखा क्या ? बोलो ? उसका बस चले तो वो मुझे सुबह सुबह इसी बात पर डाँटने लग जाये कि आज भी सूरज पूरब से ही क्यों निकला और दुनिया में जो कुछ भी ऐसा वैसा है वह सब मेरी ही वजह से है ।

सो थोड़ा कहा , बहुत समझना । कल को तुम्हारा ब्याह होगा सो वहाँ भी यह कला हर पल काम आनी ही है । हां , जीवन में एक बात का हमेशा ख़्याल रखना , भले तुम हिन्दी साहित्य की विद्यार्थी हो मगर जिसे भी डांटना , हमेशा अंग्रेजी में डाँटना । इसका बड़ा जादुई प्रभाव पड़ता है । डाँटते समय इतने ज़ोर से चीख चीखकर डाँटना कि सारे लोग तुम्हारी ओर देख कह सकें , धन्य हो ! इसे कहते हैं स्त्री शक्ति !

हो सकता है , बहुत से लोग तुम्हारा साथ देने आ जाएं और जिसे तुमने डाँटने का विचार किया है , पीट पीट कर उसकी कपार ही खोल दें । हमारे देश के लोग इतने तो सहयोगी हैं ही और ऐसे मौक़ों पर उनके उत्साह और हाथ बंटाने वाली भावना की तुम कल्पना भी नहीं कर सकतीं कि तुम्हारी मदद के लिए कितने हाथ उस अभागे की खोपड़ी पर उठेंगे ।

हालांकि , हमेशा ऐसे लोगों की मदद पर निर्भर मत रहना । वास्तव में जब किसी को मदद की ज़रूरत होती है , तब सब तमाशा देखते हैं या आंखें मूंद लेते हैं सो इस बात का ख़ास ख़्याल रखना और संकट में कोई मदद करेगा , इसका मुग़ालता मत पालना । तुम्हें इसके लिए स्वयं को ही मज़बूत बनाना होगा और मज़बूती इन्हीं कार्यों से आती है जो मैं तुम्हें करने के लिए कह रहा हूँ सो अभी तो जाओ और बस के ड्राइवर को डांट कर आओ । इससे उसका ध्यान इस बात पर पूरे रास्ते रहेगा कि उसे डांटा क्यों गया , इससे वो अधिक चौकन्ना होकर बैठेगा और गाड़ी भी ठीक से चलायेगा । इतना ही नहीं , रास्ते में मुफ़्त चाय के लिए पूछेगा सो अलग ।

एक बात और , यदि कहीं तुम्हारी आत्मा को बिला वजह डांटना गवारा न हो तो कारण खोजना कठिन थोड़े ही है । तुम चाहो तो इसी बात पर डांटने लग जाओ कि , इतने पढ़े लिखे लोग पीछे बैठे हैं और वो कम पढ़ा बेहया इंसान आगे बैठा है । इससे उसे पढ़ने लिखने वाले लोगों का महत्त्व पता चलेगा और यह भी , कि आगे रहने का अधिकार केवल पढ़े लिखे लोगों का है । वैसे न , अब समय थोड़ा बदल गया है । हो सकता है ड्राइवर ख़ूब पढ़ा लिखा हो । यदि वह बताता है कि उसने भी घास नहीं छील रखी है बल्कि इंजीनियरिंग कर रखी है या मैनेजमेंट में ग्रेजुएट है तो उसकी डिग्रियां सुन तुम निराश मत होना । बल्कि इससे तुम्हें आज की पढ़ाई का महत्त्व पता लगेगा साथ ही अब आगे और डिग्रियां लेकर तुम क्या बनने वाली हो , इसका भी बेहतर अंदाज़ लग जायेगा ।

ऐसी हालत में तुम सब लोग ड्राइवर को आदर के साथ ढाबे ढाबे चाय पिलाना और पकौड़े भी खिलाना और भविष्य के लिए ज्ञान प्राप्त करना । याद रखो , ज्ञान बांटने से बढ़ता है इसलिए ज्ञान ज़रूर प्राप्त करना फिर जहाँ आवश्यक न हो , वहाँ भी बाँटना । लोग तुम्हारे ज्ञान पर दांतों तले उंगलियां दबाएंगे ।

अच्छा एक मज़े की बात और करो । बस है तो कंडक्टर तो होगा ही , और है तो सीटी भी बजायेगा । उसका काम ही है सीटी बजाना ।

जिसका जो काम है , तुम्हें उसमें भी विवाद के बीज खोजने की दृष्टि विकसित करनी होगी । यह वर्तमान की सबसे बड़ी आवश्यकता है । फिर इससे जो आनन्द मिलता है वह शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता । सो , बस में तुम लोग मुंह लटकाकर मत बैठना । विवाद प्रारंभ करने के लिए कुछ भी बहाना खोजना । हमारे देश में अधिकांश लोग यही करते हैं सो तुम कंडक्टर पर निगाह रखना । जैसे ही वह सीटी बजाये तो सारी लड़कियां मिलकर उसे इस बात पर कूट देना कि बस में लड़कियां भरी हैं और वह बेशर्मी से सीटी बजा रहा है । इससे उसे एकता की शक्ति का भी पता चलेगा । पिटपिटाया कंडक्टर सीटी फेंक के सिटपिटाया बैठा रहेगा और तुम लोगों का समय भी आनन्द से कटेगा । अनुभव साधारण सा है , मगर आगे चलकर तुम कॉलेज के प्रोफ़ेसरों पर भी इसको बेहतरी से आजमा पाओगी ।

मुझे पता है तुम्हें अब नींद आ रही होगी । यों भी सोने के मामले में तुम्हारे आगे सौ कुम्भकर्ण पानी भरते हैं । चूंकि तुम बस में हो , ऐसी विकट नींद में तुम्हें अपने सामान की चिंता होगी और सोना मुश्किल होगा ।

इसके लिए मैं तुम्हें हौआथेरेपी वाला उपाय बताता हूँ । हौआथेरेपी , यानी दूसरों को चिन्ता में डालकर स्वयं कैसे निश्चिंत रहा जा सकता है । तुम बस इतना करो कि सबकी नज़र बचाकर बगल के स्लीपरों पर सो रही कुछ लड़कियों की चोटी अचानक ज़ोर से खींच दो । इससे उनके मन में चोटीकटवा का हौआ फिर से ताज़ा हो जायेगा और वो चौकन्नी होकर सोएंगी । बल्कि यूँ कहो , जागती ही बैठी रहेंगी । इसका फ़ायदा ये होगा कि तुम मज़े से खर्राटे मारकर सो पाओगी और दूसरे चिन्ता करते जागेंगे ।

इस दुनिया में लोगों को जगाना ही सबसे कठिन काम है । सो इसके लिए उन्हें चिन्ता में डाले रखने में कोई बुराई नहीं है । भविष्य में दो चार बार और ऐसे ही कोशिशें करना । हमेशा सुखी रहोगी । प्रशासन में हौए का बड़ा महत्त्व है । कल को मान लो , तुम्हें अफ़सरी करने का अवसर मिला तो हौआ बनाने की यह कला ही तुम्हें शीर्ष पर पहुंचाएगी । अब आज के लिए इतना ही । शेष बातें कल ।

तुम्हारा पप्पा

ई- मेल 2

प्रिय क्यूटीपाई पुत्री ,

तुम अब गाँव पहुंच गई होगी । जैसे हिन्दी फ़िल्मों में हीरो की एंट्री उसके जूतों से शुरू होती है , ऐसे ही हिन्दी साहित्य में गांवों की एंट्री सड़क किनारे और खेतों में लोटा और डिब्बा लिये बैठे स्त्री पुरुषों की क्यू से होते पढ़ी है मैंने । तुमने भी तो न जाने कितने उपन्यासों में पढ़ा होगा । याद करो , मेरे अपने उपन्यास ‘ ढाक के तीन पात ‘ में भी तुमने नींद में गिरते गिरते ऐसा ही तो पढ़ा था । हो सकता है , आज तुम्हें ऐसे दृश्य न मिले हों । यदि तुम नाक पर रुमाल धरे बग़ैर गाँव में पहुंच गई हो और महिलाओं बच्चों को भरी धूप में गाँव के किनारों पर शर्मिंदगी की हालत में न पाया हो तो मान लेना , गाँव का रंग फ़कत फाइलों में ही गुलाबी नहीं रहा , वरन असलियत में भी कुछ गुलाबीपन आया है ।

तुमने बताया कि तुम लोगों के रुकने की व्यवस्था स्कूल में की गई है जहाँ क्यू में लग कर भोजन लेना होगा । संडास भी एक ही है सो समस्या तो होगी ही । हालांकि इसे दूसरे नज़रिए से देखो तो समस्या सुलझी ही मानोगी । जिन लोगों ने भोगी है , उनसे पूछना ज़रा । तुम ख़ुद को ख़ुशकिस्मत मानोगी कि कैसे उस शर्मिंदगी का सामना करने से तुम्हें मुक्ति मिल गई जिसका सामना गाँव की स्त्रियां और बच्चियां सदियों से करती आईं हैं । फिर भी तुम्हें कुछ सुझाव देना मेरा कर्तव्य बनता है ।

पहली बात तो यह , कि तुम हमेशा की तरह देर से जागना । जो लोग जल्दी उठ जाते हैं , मेरी दृष्टि में वे किसी काम के नहीं । मेरा विश्वास न मानो तो देखना , जल्दी उठने के बाद भी संडास के बाहर वे कैसे क्यू में लगकर अपना नंबर आने की प्रतीक्षा में बाल नाचते हैं । तुम देर से उठोगी तब तक क्यू अपने आप समाप्त हो चुकी होगी ।

कई बार आख़री में आना भी बड़ा लाभप्रद होता है । यों एक आशंका अवश्य है कि कभी तुम्हें ऐसा करने पर पानी ख़त्म मिले और एक नई समस्या खड़ी हो जाए । मगर तुम हिम्मत मत हारना । आगे आने वाले समय में तुम चाहे अफ़सर हो जाओ या कुछ और , भोगना तो यही सब है । गांवों में भी और शहरों में भी । तुम्हारे पास पैसा होगा , मगर पानी होगा इसका कोई भरोसा नहीं । वैसे भी पानी की कीमत यहां घर में तो पता चलती नहीं जहाँ तुम घंटों शावर लेती रही और मजाल है जो पानी ख़त्म हो जाए । किसी भी चीज़ की क़ीमत तो उसके न रहने पर ही पता चलती है ।

वैसे तुम्हें पानी की कीमत पता करनी है तो इसके लिए एक प्रयोग बताता हूँ । यह प्रयोग शहरों में संभव नहीं है मगर गांव में तो प्रयोग के अवसर हैं ही ।

गाँव है तो गोरियां तो होंगी ही । यों साँवली भी होंगी , मगर हमारी फ़िल्मों ने उनके बारे में कुछ नहीं कहा । ‘ गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा ‘…. ‘ गोरी की बस इसी अदा ने प्रीतम पर डाली है डोर ‘ … ‘ ओ गोरिया रे , तेरे आने से सज गई हमरी नाव ‘ जैसे गाने बताते हैं कि जिस प्रकार शहरों में गोरे , वैसे गाँव में गोरियाँ ही महत्त्वपूर्ण हुआ करती थीं ।

अब समय बदल गया है और मैं भी वर्ण भेद के सख़्त ख़िलाफ़ हूँ सो तुम काली गोरी का भेद मत करना और आगे जो बता रहा हूँ , उसे ध्यान से समझना ।

तुमने कवि दुष्यंत की पंक्तियां पढ़ी होंगी, कौन कहता है आसमां में सुराख़ नहीं हो सकता , एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो । मुझे पता है आसमाँ में सुराख़ करना तुम्हारे क्या , तुम्हारे पिता जी के बस की बात नहीं और एक बार कोशिश की थी मगर पत्थर से अपनी ही खोपड़ी में सुराख़ हो गया था , सो पत्थर उछालने की तुम्हें कह भी नहीं रहा । मैं बस उस मटकी में सुराख़ करने की बात कर रहा हूँ जो गाँव की छोरियां पानी भरने के बाद अपने सर पर रखकर लाती तुम्हें दिख रही होंगी । मुझे भरोसा है , तुम ऐसा कर लोगी । इससे तुम्हारा भी अभ्यास बढ़ेगा और उनका भी । वैसे तो मैंने फ़िल्मों में देखा है , मटकी फूटने के बाद ऐसे मौक़ों पर गोरियों को खी खी कर ठिलठिलाते । मगर चूंकि यह फ़िल्म नहीं हक़ीक़त है सो इस बात की संभावना बिल्कुल ही नहीं है कि तुम्हारी इस हरक़त पर वे खी खी करेंगी । जो भी हो , उनकी खों खों का जोखिम उठाने को तुम हमेशा तैयार रहना और पानी की क़ीमत जानने ये जोखिम भरा प्रयोग करना । वे खों खों करती तुम्हें बतायेंगी कि किन मुश्किलों से उन्हें मटकी भर पानी नसीब होता है । हो सकता है वे तुम्हें चार कोस दूर से मटकी भरकर लाने को बाध्य करें , मगर मुझे विश्वास है , इसके बाद तुम्हें पानी की क़ीमत आजीवन नहीं भूलेगी और जैसा अदम गोंडवी ने कहा था , ‘ आप कहते हो सरापा गुलमोहर है ज़िंदगी , हम ग़रीबों की नज़र में इक कहर है ज़िंदगी ‘ भी सच होता दिखेगा ।

मेरी बेटी , तुम ऐसे ही जोखिम भरे प्रयोग और भी करना । इससे चंहु ओर से तुम्हें ज्ञान प्राप्त होगा और ‘ आ नो भद्रा: , कृत्वो यन्तु विश्वत:’ का मार्ग भी प्रशस्त होगा जो तुम्हें हमेशा काम आयेगा ।

एक बात और ध्यान रखना । तुम देर से तो उठना ही , मुंह धोने में हड़बड़ी भी मत करना । बिना मुंह धोये सबको ज्ञान बांटना । तुम देखकर हैरान होगी कि गांव के अनपढ़ देहाती सुबह उठते ही दिमाग़ की बजाय दाँत घिसना पसन्द करते हैं । तुम्हारे बिना मुंह धोये ज्ञानदान से सबको तुम्हारे पढ़े लिखे होने का अवदान समझ आयेगा । उन्हें पता लगेगा , सुबह उठते ही बबूल की दातून तोड़कर दाँत माँजने से अच्छा है , गूगल से दिमाग़ मांजना । वैसे इधर गाँवों में भी ख़ूब बदलाव आया है । नई पीढ़ी तो शहरों को मात कर रही है और सुबह होते ही वह भी बबूल के पेड़ की ओर भागने की बजाय खटिया पर टाँगें फैलाई गूगल करती नज़र आ रही है । जैसा मैंने ऊपर बताया , उससे नई पीढ़ी क्या , पुरानी भी प्रेरित होगी और अफ़सोस करेगी कि फ़ालतू ही आज तक बबूल से दाँत माँजते जीवन ख़राब करते रहे । गूगल से दिमाग़ को माँजते तो कहीं के कहीं होते । तुम बताना कि अभी भी देर नहीं हुई । जब जागे तभी सवेरा । तुम उन्हें शहर के हाल बताना कि कैसे एक अस्सी साल के दद्दू भी सुबह उठते ही मोबाइल पहले उठाते हैं , टूथ ब्रश बाद में । इससे उन्हें अद्भुत प्रेरणा मिलेगी । यों तो शहरों को गांवों से सीखना चाहिए मगर देखता हूँ , गाँव ही शहरों से सीख रहे हैं वो भी बड़ी तेजी से । तुम्हारे दिये ज्ञान से उन्हें विकास का नया मार्ग मिलेगा । भटके हुओं को रास्ता बताने से बड़ा पुण्य दूसरा नहीं ।

एक बात और । ज्ञान देते वक़्त शब्दों का प्रयोग उचित ढंग से करना । मसलन , मेहनत का मूल्य वैसे तो तुमसे ज़्यादा गांव वाले समझते होंगे फिर भी गांव में किसी से मेहनत की रोटी की बात मत कहना वरना वो तुम शहरी लोगों को मूर्ख समझेंगे । वहाँ सबको पता है , रोटी मेहनत से नहीं , आटे से बनती है । एक बार किसी गाँव में मैंने भी ज्ञान देते हुए कहा था कि मेहनत का फल मीठा होता है । गाँव के लोग अड़ गए कि नहीं , सरपंच की बगिया के आम का फल ज़्यादा मीठा होता है । अपनी बात को साबित करने के लिए उन्होंने बड़ी मेहनत से आम तोड़कर तोड़कर मुझे खिलाये फिर पूछा , अब बताओ , आम का फल मीठा होता है कि नहीं । एक टोकरा आम खा चुकने के बाद मुझे कहना पड़ा था कि तुम्हीं सही हो भइया , मीठा फल तो सरपंच की बगिया का आम ही होता है ।

खाने की बात पर याद आया , तुमने बताया कि भोजन के लिए भी क्यू में लगना पड़ता है और पीछे रह जाने से तुम भूखी रह गईं । देखो , प्रेम और युद्ध की तो मुझे नहीं पता लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ कि भोजन की क़तार में सब जायज़ है । ज्ञानीजन कह गए हैं कि जिसने की शरम , उसके फूटे करम । तुम इस बात को गांठ बांध कर सबसे आगे रहना और आगे न हो पाओ तो येन केन प्रकारेण पहुंचने का प्रयास करना । कभी भी सोचविचार में मत पड़ना और भोजन पर सबसे पहले टूट पड़ना । इससे सबको आगे रहने की प्रेरणा मिलेगी । दूसरी महत्त्वपूर्ण बात , खाना कितना ही अच्छा क्यों न बना हो , उसमें दो चार कमियां अवश्य निकालना । इससे बनाने वाले को प्रोत्साहन मिलेगा और तुम्हारे आलोचकीय दृष्टिकोण की भी सर्वत्र सराहना होगी । तटस्थ भाव कभी मत रखना । दिनकर जी की पंक्तियों को हमेशा याद रखना ,’ जो तटस्थ हैं , समय लिखेगा उनका भी अपराध ‘ । लिहाज़ा बाद में समय कुछ ऐसा वैसा लिखे ,इसका उसे मौक़ा ही मत देना ।

मुझे पता है , भले ही तुम साहित्य की विद्यार्थी हो मगर कविता , कहानी में तुम्हें ठठेरे का ठ लिखना भी नहीं आता , तथापि किसी महान लेखक की क्लासिक रचना को पढ़कर बुरा सा मुँह बनाते मैं तुम्हें कई बार देख चुका हूँ । यह मेरे लिए बड़ी ही प्रसन्नता का विषय है और कल को साहित्य जगत को एक बड़ी आलोचक मिलने की प्रबल संभावना मुझे उत्साहित कर रही है । एक अच्छे आलोचक की पहचान भी यही है कि वह स्वतः भले चार पंक्तियां न लिख पाये , मगर दूसरे की चार पंक्तियों में कम से कम चालीस कमियां अवश्य निकाल दे । साहित्य से दूर वहाँ गाँव में रहकर भी तुम इस कला का सही अभ्यास कर सकती हो । तुम्हारा हमेशा नाक पर चश्मा चढ़ाकर बात करना मुझे ख़ूब भाता है । नकचढ़ियों में पहला नाम तुम्हारा ही गिना जाए इससे अच्छी बात क्या होगी भला । यह नकचढ़ापन आजीवन तुम्हारा साथ देगा । घर के भीतर भी , घर के बाहर भी । दफ़्तर में भी और साहित्य जगत में भी ।

सो अब तुम यों करो कि भोजन कितना ही स्वादिष्ट क्यों न बना हो , चेहरे पर थोड़ा नकचढ़ापन लाकर उसमें तुम कमी अवश्य निकालो । जैसे साहित्य में कभी भाषा को लेकर , कभी शैली को लेकर तो कभी सरोकार को लेकर इतनी कमियां निकाली जा सकती हैं कि रचना से बड़ी और कालजयी तो आलोचना हो जाये , ऐसे ही कभी नमक को लेकर , कभी शक्कर को लेकर , कभी कम , कभी ज़्यादा पक जाने को लेकर तुम भोजन की कमियां निकालो । कुछ शब्द पहले से तय कर लो , इससे तुम्हें यह लाभ होगा कि बिना चखे भी तुम त्वरित प्रतिक्रिया दे पाओगी । शब्द जितने तीखे होंगे , प्रतिक्रिया उतनी ही तीखी होगी ।

इसका त्वरित लाभ तुम्हें यह देखने मिलेगा कि रसोइए के मन में तुम्हें लेकर भय मिश्रित विशेष भाव आकार लेने लगेंगे । तुम आगे देखोगी कि वह अब तुम्हें और भी स्वादिष्ट पकवान खिलाने के लिए आतुर होगा ।

ऐसा भी नहीं है कि तुम केवल कमियां ही निकालो । जब रसोइया तुम्हारा ख़ास ध्यान रखने लगे यानी पूरियां कढ़ाही से बाहर निकलें , इससे पहले ही वह उन्हें तुम्हारी थाली में धरने को बेचैन दिखने लगे तो सार्वजनिक रूप से उसकी पाक कला की प्रशंसा करना न भूलना । इसका दूसरा लाभ यह होगा कि और भी लोग चाहेंगे कि तुम उनके बनाए पकवानों का स्वाद लो और प्रतिक्रिया दो । भोजन में स्वाद है या नहीं , ऐसे ही साहित्य के क्षेत्र में ठीक यही बात देखना , सरोकार है या नहीं । एक अच्छे आलोचक के रूप में निश्चित तौर पर तुम जगह बना पाओगी ।

मुझे लगता है , तुम्हारे भीतर अब पर्याप्त जोश आ गया होगा । तुम्हें अभी बाहर संडास की क्यू और उसके बाद भोजन की क्यू का भी सामना करना है । मैं उन लोगों से बड़ा रश्क़ करता हूँ जो पढ़ाई से ज़्यादा ध्यान पिटाई पर देते हैं , सो क्यू में धक्का देकर आगे निकलने में संकोच मत करना । जहां आवश्यकता न हो वहां भी स्कूल में सीखी कराटे कला का प्रयोग मौक़ा निकाल कर अवश्य करना । इससे तुम्हारा अभ्यास भी बना रहेगा वहीं आम लोगों के बीच तुम्हारी एक सार्थक छवि निर्मित होगी । इसे भी हौआथेरेपी का पार्ट ही समझो । यही छवि आगे जाकर तुम्हारे बहुत काम आयेगी । सो अब तुम लैपटॉप परे रखो । तुम्हारी मां तो हौआथेरेपी की विशेषज्ञ है और अब हौआ बन इधर आने को है सो शेष बातें कल बताऊंगा ।

तुम्हारा पप्पा

ई- मेल 3

प्रिय पुत्री ,
तुम्हें फिर पुत्री लिख रहा हूं । ऐसा लिखते तुम्हारे ही नहीं , मेरे भी दांत बाहर आ रहे हैं । मगर दो मेल भेजने के बाद मुझे भी ऐसा लिखना अच्छा लगने लगा है । ज़िंदगी में कुछ तो हट कर हो यार । हालांकि पिछली दोनों ई चिट्ठियों में मैंने ज़िंदगी में कुछ हटकर करने के तुम्हें ढेर सारे उपाय बताए थे , लेकिन मुझे बड़ी ख़ुशी है कि तुमने उनमें से एक भी उपाय नहीं अपनाया । पंचतंत्र में लिखा है , ‘ उपायं चिंतयेतप्राज्ञस्तथापायं च चिंतयेत ‘ अर्थात बुद्धिमान मनुष्य को उपाय के साथ-साथ अपाय को भी सोच लेना चाहिए सो तुमने उन उपायों पर सम्भावित हानियों के बारे में भी सोचकर शास्त्र सम्मत कार्य ही किया है ।

तीन दिन में तुम अब गांव को ख़ूब समझने लगी हो । तुमने बताया कि गाँवों को किताबों में जैसा देखा पढ़ा था , असलियत में बहुत कुछ अलहदा है । तुम्हारी इस बात पर मैं भी चिंतित हूँ कि जिस सौंधी महक की बातें तुम किताबों में पढ़ती आईं , उसकी खोज में साँस खींचते खींचते तुम्हारे फेफड़े फुंक गये , नाक टमाटर सी लाल पड़ गई , मगर वो महक नहीं मिली तो नहीं मिली बल्कि एक विचित्र गन्ध भीतर भर गई है जिसकी वजह से तुम बेचैन हो सो भी नहीं पा रहीं ।
तुमने बताया कि गुलाबी होते गांव में कुछ रंग ऐसे भी मिल आए हैं कि एक बदरंग – सा दृश्य खिंच आया है । जैसे कि तुम गाँव में मेहनत की रोटी की बात करने जा रही थी मगर तुमने पाया कि अब नई पीढ़ी मेहनत की रोटी की बजाय मुफ़्त की रोटी पर ज़्यादा भरोसा रखने लगी है । जिसे देखो , शहरों की ओर भागना चाहता है । लोग एक अलग ही सम्मोहन में खप रहे हैं । लड़कियां पहले की तरह काम में खट रही हैं मगर अच्छी बात यह लगी कि वे इसके बाद भी समय चुराकर पढ़ रही हैं । कुछ बनने के सपने देख रही हैं और उन्हें साकार भी कर रही हैं ।

मैं समझ सकता हूँ , जुम्मन शेख और अलगू चौधरी की केमिस्ट्री अब पहले जैसी नहीं रही होगी । इनके टोलों के बीच पक्की सड़कें ज़रूर बन गई होंगी मगर बीच में खोदी गई खाइयां भी तुम्हें दिखी होंगी । गांव में इनके अलग-अलग गुट होंगे और आए दिन ये गुट गांव की सड़कें लाल भी करते होंगे । तुमने गांव में देखा होगा, शहरी दा साहब और सुकुल बाबू जैसों का प्रभाव ख़ूब बढ़ गया होगा और टोला मोहल्ला का मनहि गांव के गुलाबी होने की आस में सावन के अंधे सा हो गया होगा। वैद्यजी जैसे प्रभावशाली लोग अब केवल छंगामल कॉलेज तक सीमित नहीं होंगे बल्कि गांव की नदी , तालाब और जंगल भी उनकी निगाह में होंगे ।

तुमने बताया कि तुम्हें दो बैलों की जोड़ी खोजने पर भी गाँव में नहीं मिली और जहाँ देखो , ट्रैक्टरों और भीमकाय हार्वेस्टरों ने तुम्हें डरा दिया , यहां तक कि पीपल के भूत और मसान के प्रेत भी गाँव वालों को डरा नहीं पाते , बल्कि वो डरते हैं उन महाभूतों से जो गाँवों को गुलाबी करते चढ़ आये हैं उनकी छाती तक । वो डरते हैं अट्ठहास मारती पोकलेन के पंजों से जो नदी के कलेजे तक घुस प्राणों को खींच लाते हैं , वो डरते हैं उन डरावने डम्परों से जो रेत और खेत दोनों लील जाते हैं , हैवान बनी उन हाइवा मशीनों से जो जंगलों से पेड़ चट कर जाती हैं और जो विशाल पहाड़ों के हाड़ कुचल जाती हैं । नदी , पहाड़ों और जंगलों का यह महाभोज तुम्हें क्या , मुझे भी डरा रहा है ।

तुमने बताया , डरे हुए गाँव वालों के मुँह में पैसे और दिमाग़ में गुलाबी सपने ठूंस दिये गए हैं । ज़ुबानें कील दी गई हैं । चारों ओर देख ऐसा लगता है , मानो कूलन में , केलिन में , कुंजन में , कछारन में , बनन में , बागन में , बीथिन में , बहारन में अब बसंत नहीं , बस अंत पसरो है। मैंने तुमसे उस दिन हौए की बात कही थी न । सही बताऊं तो गाँवों क्या , दुनिया के सामने असल और सबसे बड़ा हौआ यही है कि सब कुछ बड़ी तेज़ी से ख़त्म हो रहा है और चिन्ता किसी को नहीं है । हौआ खों खों कर रहा है और सब खी खी करते ख़ुश हैं । श्रीलाल जी ने लिखा था तुम सोते हुए को तो जगा सकते हो , मगर जो जागते हुए सोने का अभिनय कर रहे हों उन्हें कैसे जगाओगे ? हम सब जागते हुए सोने का अभिनय ही तो कर रहे हैं । तुम बस यही करना और सबको जगाए रखना । तुमने एलेनिस ओबमसाविन की चार पंक्तियां पढ़ी होंगी न , ‘ जब आखरी पेड़ कट जाएगा, जब आख़िरी नदी के पानी में ज़हर घुल जाएगा और जब आख़िरी मछली का शिकार हो जाएगा तब इंसान को एहसास होगा कि वह पैसे नहीं खा सकता । यह अहसास तुम अभी से लोगों में जगा पाओ तो तुम्हारा गाँवों में जाना सार्थक मानूँ । ‘

एक पिता होने के नाते यही कहना है कि तुम इस महाभोज को रोकना और आख़िरी पेड़ , आख़िरी नदी की नौबत न आने देना । तुम गाँवों को ख़ूब गुलाबी होने देना , लेकिन यह देखना , गुलाबी रंग के पीछे धरती के ख़ून का लाल रंग और हमारी मरी हुई आत्मा का सफ़ेद रंग न हो ।
इस वक़्त हम सब जानते हुए भी तटस्थ हैं । मैं इस बात को लेकर भी डरा हुआ हूं कि समय लिख रहा है हम सबका अपराध । तुम रोक लो यह अपराध , इससे ज़्यादा कुछ और नहीं चाहिये ।

अब लिखना बंद करता हूँ । बहुत सारा लिख दिया । यों बताते हैं , नेहरू जी ने तो पुत्री के नाम इतने पत्र लिखे थे कि पूरा ग्रंथ ही बन गया । हालांकि वो महान थे और मैं एक आम इंसान । उनकी मेरी क्या तुलना । फिर भी जो थोड़ा लिखा , बहुत बांचना । उबासियां लेते ही सही ।

तुम्हारा पप्पा

 


मलय जैन

*जन्म* 27 फरवरी 1970 को मध्य प्रदेश के सागर में
( मूल भूमि राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की जन्मस्थली चिरगाँव जिला झाँसी )

*प्रारंभिक प्रकाशन*
किशोर उपन्यास “दीवान गढ़ी का रहस्य ” तथा ” यक्षहरण ” *सुमन सौरभ* में प्रकाशित ।
पराग , सुमन सौरभ , बालभारती आदि में क़रीब तीन दर्ज़न कहानियां प्रकाशित ।
अब व्यंग्य लेखन में सक्रिय

*प्रकाशित कृतियां*
व्यंग्य उपन्यास ‘ ढाक के तीन पात ( 2015 )
व्यंग्य संग्रह हलक़ का दारोग़ा ( 2023 )
राजकमल से प्रकाशित ।

*पत्रिकाओं में प्रकाशन*
नया ज्ञानोदय , हंस , आउटलुक , अहा जिंदगी , व्यंग्य यात्रा , अट्ठहास , बनमाली , हरिगन्धा , समहुत , अनवरत आदि पत्रिकाओं में व्यंग्य प्रकाशित ।

*अनुवाद*
– व्यंग्य नाटक लेखन के साथ पोलिश लेखक वलेरियन डोमिंस्की की अंग्रेज़ी कहानियों एवं व्यंग्य रचनाओं के हिन्दी अनुवाद ।

*सम्मान / पुरस्कार*
•साहित्य अकादमी मप्र से उपन्यास ढाक के तीन पात पर बाल कृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार

• रवींद्रनाथ त्यागी स्मृति सोपान पुरस्कार
• सरदार दिलजीत सिंह रील व्यंग्य सम्मान
• दुष्यंत पांडुलिपि अलंकरण अंतर्गत कमलेश्वर सम्मान
•अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान
•भगवती चरण वर्मा कथारंग पुरस्कार
* ज्ञान चतुर्वेदी राष्ट्रीय व्यंग्य सम्मान 2023

सराहनीय सेवाओं के लिए हाल ही में राष्ट्रपति पदक

मो. 9425465140

 


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