डाॅ. तबस्सुम बेग़म हिंदी आलोचना का एक युवा नाम है। आपने हैदराबाद विश्ववविद्यालय से पीएच -डी की उपाधि प्राप्त की। कई काॅलेजों में अध्पापन के साथ आप मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू विश्वविद्यालय के दूरस्थ शिक्षा निदेशालयों में अतिथि प्राध्यापिका रहीं। वर्तमान में आप डाॅ. भीमराव अम्बेकर ओपन विश्वविद्यालय में अकेदमिक काउंसलर हैं।
डाॅ. तबस्सुम ने हिंदी आलोचना के शीर्षस्थ पुरुष प्रो. रवि रंजन के आलोचना साहित्य का रचनात्मक मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। विश्वास है, सुधी पाठकों को पसंद आएगा।
– हरि भटनागर

आलेख:

समकालीन हिन्दी आलोचना में रवि रंजन अपनी काव्य-मर्मज्ञता, गहन एवं तीक्ष्ण आलोचना-दृष्टि और धारदार गद्य के कारण ख़ूब पढ़े जाने वाले आलोचकों में एक हैं. उनके अध्ययन एवं लेखन का दायरा व्यापक है. भक्तिकाव्य में ख़ासकर मलिक मुहम्मद जायसी के ‘पद्मावत’ और तुलसीदास से लेकर 2025 में प्रकाशित अरुण देव की ‘मृत्यु कविताएँ’ तक का उन्होंने जो विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत किया है उसे पढ़ना हिन्दी के विद्यार्थी, शोधार्थी या प्राध्यापक के लिए अकादमिक दृष्टि से लाभप्रद तो है ही, साहित्य के आम पाठक की समझ में इज़ाफा करने में भी समर्थ है.
नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल,त्रिलोचन, शमशेर सरीखे प्रगतिशील कवियों के अलावा अज्ञेय, नवगीतकार राजेन्द्र प्रसाद सिंह, अरुण कमल, नरेन्द्र पुण्डरीक, दिनेश कुशवाह के साथ ही ‘प्रेमचन्द के कथासाहित्य का समाजशास्त्र’, ‘समकालीन कविता का समाजशास्त्र’, ‘समकालीन कहानी का समाजशास्त्र’, ‘यथास्थिति के विरुद्ध खड्गहस्त बतरस की कला’ और विशेष रूप से ‘विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों का समाजशास्त्र’, “‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’: प्रेमकथा के शिल्प में स्त्री यातना का महाख्यान” शीर्षक से ‘आलोचना’, ‘सापेक्ष’, ‘बहुवचन’, ‘वागर्थ’, ‘दायित्वबोध’, ‘लमही’, ‘पाखी’, ‘इन्द्रप्रस्थ भारती’, ‘समालोचन’, ‘रचना समय’ आदि कई हिन्दी की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित रवि रंजन के वृहद आलेख अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं. हिन्दी बड़े आलोचकों में रवि रंजन ने कवि-आलोचक दिनकर, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, मलयज, नामवर सिंह एवं मैनेजर पाण्डेय के आलोचनात्मक अवदान पर मूल्यांकनपरक आलेख लिखा है. सुप्रसिद्ध दलित चिन्तक, अनुवादक और आलोचक सूर्यनारायण रणसुभे, आदिवासी जीवन के चितेरे लीलाधर मंडलोई ,बहुजन विचारक प्रेमकुमार मणि, स्त्रीवादी कवि रंजना मिश्र तथा स्त्रीवादी कथाकार और आलोचक गरिमा श्रीवास्तव के अवदान पर लिखित उनके निबन्ध नि:संदेह उत्कृष्ट आलोचनात्मक लेखन के उदाहरण हैं. रवि रंजन के जो सैद्धांतिक आलेख और पुस्तकें महत्त्वपूर्ण हैं उनमें ‘सौंदर्यशास्त्र का मार्क्सवादी परिदृश्य’, ‘गीतकाव्य: रचना और अभिग्रहण’, ‘लोकप्रिय हिन्दी कविता का समाजशास्त्र’ विशेष रूप में उल्लेखनीय हैं. लगभग छः वर्षों तक विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्यापन के दौरान प्राप्त अनुभवों को उनके द्वारा ‘वारसा डायरी’ में दर्ज़ करने के दौरान अनेक प्रसंगों में साहित्यालोचन के उत्कृष्ट उदाहरण मिलते हैं . पेशे से हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर होने के बावजूद उनकी आलोचना को चालू अर्थों में ‘प्राध्यापकीय आलोचना’ कहकर खारिज़ कर देना विवेकसम्मत नहीं माना जा सकता.
‘नवगीत का विकास और राजेन्द्र प्रसाद सिंह’ रवि रंजन की पहली पुस्तक है जिसमें उन्होंने नवगीत के उदय एवं उसके नाम-लक्षण निरूपक प्रथम संकलन ‘गीतांगिनी’(1958) की भूमिका के हवाले से ‘नई कविता’ और ‘नवगीत’ के बीच अंत:सम्बन्ध को विस्तार से विवेचित-विश्लेषित किया है.इस पुस्तक में स्थापना की गयी है कि “हिन्दी कविता के इतिहास में ‘छायावाद के मेनिफेस्टो’ के रूप में जो महत्त्व ‘पल्लव’ की भूमिका का है, हिन्दी नवगीत के सन्दर्भ में ‘गीतांगिनी’ की भूमिका का भी वही महत्त्व है….इसमें किसी प्रवर्तक का पैंतरा नहीं,उद्घोषक का उल्लास है….नवगीत को नयी कविता का दूसरे अर्थों में पूरक मानने वाले लोग दोनों की रचना-प्रक्रिया की जगह दोनों आन्दोलनों को ही परस्पर पूरक मान बैठे हैं. जबकि असलियत उलटी है. वस्तुत: दोनों के बीच पूरक संबंध दोनों की रचना-प्रक्रियाओं के भिन्न पहलुओं का मनोनीत संबंध है,जिसके अभाव में शायद कविता-मात्र की रचना-प्रक्रिया संपूर्णता प्राप्त नहीं करती.” (पृ.67)
इस पुस्तक में कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह की अनेकानेक कविताओं, नवगीतों एवं जनगीतों का भी विस्तार से मूल्यांकन किया गया है. उदाहरण के लिए ‘मैं का गीत’ शीर्षक रचना की व्याख्या करते हुए इस पुस्तक में कहा गया है : “ नयी कविता के सर्वाधिक द्वन्द्वग्रस्त नारों –‘व्यक्तित्व की खोज’ और ‘पहचान की तलाश’ का संबंध उस एकान्तवादी एवं व्यक्तिनिष्ठ पहलू से रहा है जिसमें व्यक्ति अपने पूरे अस्तित्व का सामूहिक नियति से विलगाव महसूस करने लगता है,पर समूह से जुड़ा रहने के लिए स्वयं को विवश महसूस करता है और इस प्रकार वह अपनी नगण्यता से फलीभूत आत्महीनता की चुनौती स्वीकार करता है.इस आतंरिक क्षोभ के फलस्वरूप वह समूह से भिन्न और आतंरिक रूप से स्वतंत्र रहने के लिए ‘पहचान की तलाश’ करता है….इन नारों के खोखलेपन को वैचारिक कविता के रचनाकारों ने 1965 के आस पास समझा. मगर नवगीतकारों ने सन 1960 के आसपास ही पहचान लिया था कि व्यक्ति और समाज के सहज संबंध को नकारना एक तरह से वैज्ञानिक सूझबूझ से मुँह मोड़ना होगा.राजेन्द्र प्रसाद सिंह के ‘मैं का गीत’ से पता चलता है कि वैयक्तिकता के रचनात्मक विकास से ऐसे दायभागी व्यक्तित्व का गठन होना चाहिए जिसकी पहचान पूरे व्यक्तित्व के निर्वाह में हो. ‘मैं का गीत’ का रचनाकार अपने व्यक्तित्व के बहुमुखी अंत:संगीत में दूसरे का साझी है जिससे आम आदमी के समूह में संलयात्मक आन्तरिकता पैदा हो सकती है.अत: कहना अनुचित न होगा कि नवगीत के मूल स्वर ‘व्यक्तित्व-बोध’ का अभिप्राय सामूहिक सापेक्षता में आम आदमी का ही बोध है, जिसके अनुभव को सूक्ष्म स्तर पर ‘व्यक्तित्व के बहुमुखी अंत:संगीत’ का बोध भी मान सकते हैं.” (पृ.76)
‘प्रगतिवादी कविता में वस्तु और रूप’ पुस्तक की प्रकृति शोधपरक है, जिसमें साहित्य की अंतर्वस्तु और रूप को लेकर रूसी रूपवादियों एवं लुकाच तथा ब्रेख्त समेत दुनिया के अनेक बड़े विचारक-आलोचकों के बीच हुई बहस का ब्योरा देते हुए नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल एवं त्रिलोचन की कविता की अंतर्वस्तु और रूप के बीच द्वंद्वात्मक संबंध को अनेक कविताओं के विशेष सन्दर्भ में विवेचित-विश्लेषित किया गया है. नागार्जुन के बारे में रवि रंजन लिखते हैं: “ नागार्जुन क्रान्ति के ढिंढोरची कवियों से भिन्न एक यथार्थवादी कलाकार हैं. उनकी कविता में सौन्दर्य के कई अछूते बिम्ब मिलते हैं …नागार्जुन की कई कविताओं में हम भारतीय काव्य-परम्परा के वैभव से परिपूर्ण क्लासिकी बिम्बविधान देखते हैं जिनमें आधिभौतिक अनुभूति और पारदर्शी अभिव्यक्ति के बाह्यान्तर योग से कला की सिद्धि संभव हुई है.” (पृ.125)
इसी प्रकार त्रिलोचन की कविता में वस्तु और रूप के बीच द्वंद्वात्मकता पर विचार करते हुए रवि रंजन ने लिखा है : “…अनेक कविताओं की अंतर्वस्तु यथार्थवादी है पर कवि के कहने का ढंग कुछ ऐसा है कि यथार्थवादी अंतर्वस्तु भी सफलता के साथ रोमांटिक ढंग से अभिव्यक्त कर दी गयी है. ख़ूबी यह कि इनमें न तो वस्तु द्वारा रूप की सीमाओं की अवहेलना की गयी है और न ही रूपतत्त्व ने वस्तु का गला घोंटकर काव्य-प्रभाव को बाधित किया है.”
‘सृजन और समीक्षा: विविध आयाम’ तथा ‘अनमिल आखर’ सरीखी रवि रंजन की पुस्तकें उनके द्वारा समय-समय पर दिए व्याख्यानों और लिखित निबन्धों के संग्रह हैं. इनमें ‘प्रेमचन्द के कथासाहित्य का समाजशास्त्र’,मलयज की आलोचना-दृष्टि, केदारनाथ सिंह की सौन्दर्यात्मक संवेदनशीलता जैसे अनेक बेहद ज़रूरी आलेख हैं. हिन्दी के रचनात्मक एवं आलोचनात्मक साहित्य को समृद्ध करने के बावजूद एक लम्बे समय तक उपेक्षित मलयज के संदर्भ में रवि रंजन लिखते हैं: “मलयज उत्तरशती में हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में ‘आलोचना के हथियार’ से ‘हथियारों की आलोचना’ का काम लेने को उत्सुक उन दुस्साहसी तथा लकीरपीटू आलोचकों से नितांत भिन्न हैं जिनके पास हरेक सवाल का एक बना-बनाया जवाब हमेशा मौजूद रहा करता है…इससे विलग मलयज की आलोचना की प्रकृति समावेशी है.उसमें रचना को समग्रता में पकड़ने के लिए बेचैनी दिखाई पड़ती है और इसके चलते वहाँ कई बार अंतर्विरोध की स्थिति भी पैदा हो गयी है.” (पृ.97)
केदारनाथ सिंह की कविता में सौन्दर्य तत्त्व को जगह-जगह रेखांकित करते हुए लिखे गए निबंध में अर्नाल्ड हाउज़र के हवाले से बताया गया है कि कला की व्याख्या केवल समाजशास्त्रीय शब्दावली में संभव नहीं है. इसलिए यहाँ केदार जी की सौन्दर्य-चेतना के समाजशास्त्रीय सन्दर्भ को व्याख्यायित किया गया है. केदारनाथ सिंह की ‘नमक’ कविता की व्याख्या करते हुए रवि रंजन लिखते हैं: “चूँकि एक लम्बे समय से भारत के वर्चस्वशाली वर्ग के इशारे पर नाचने वाली ज़्यादातर सरकारों की प्राथमिकताओं की सूची में से नमक और रोटी धीरे-धीरे ग़ायब होते जा रहे हैं, इसलिए इनको मुद्दा बनाकर सीधे-सीधे राजनीतिक कविता लिखने वाले कवियों की आज कमी नहीं है. किन्तु, केदारनाथ सिंह की इस कविता की वैधानिक और भाषिक संरचनात्मक वैशिष्ट्य की यदि पड़ताल की जाए तो स्पष्ट होगा कि यह कविता हमारे चित्त में जो चित्र-विधान व संवेदनशीलता पैदा करती है, वह भारतीय पारिवारिक जीवन की ज़मीनी हक़ीकत के क़रीब होने के बावजूद काव्यात्मकता के नये नियमों की खोज से उत्पन्न एक भिन्न प्रकार के काव्यबोध से परिपूर्ण है. इसमें एक अपेक्षाकृत भरे-पुरे मध्यवर्गीय तथाकथित आधुनिक परिवार में पुरुष-वर्चस्व के चलते व्याप्त लगभग दहशत-भरे माहौल में स्त्री की करुण बेबसी और कुल मिलाकर परिवार में मानवीय सम्बन्धों की ऊष्मा के अभाव को मार्मिक ढंग से उकेरा गया है. निराला की शब्दावली का प्रयोग करते हुए कहा जाए तो ऐसे दमघोंटू वातावरण में एक घरेलू स्त्री खुद को बाहर से ही बाहर नहीं, बल्कि भीतर से भी बाहर कर दी गई-सी महसूस करती है :
एक शाम शहर से गुजरते हुए
नमक ने सोचा
मैं क्यों नमक हूँ
और जब कुछ नहीं सूझा
तो वह चुपके से घुस गया एक घर में
घर सुन्दर था
जैसा कि आम तौर पर होता है
अक्टूबर के शुरू में
***
और ठीक समय पर
जब सज गई मेज
और शुरू हुआ खाना
तो सबसे अधिक खुश था नमक ही
जैसे उसकी जीभ
अपने ही स्वाद का इन्तजार कर रही हो
कि ठीक उसी समय
पुरुष जो कि सबसे अधिक चुप था
धीरे से बोला-
“दाल फीकी है”
फीकी है ?
स्त्री ने आश्चर्य से पूछा
“हाँ फीकी है –
मैं कहता हूँ दाल फीकी है”
पुरुष ने लगभग चीखते हुए कहा
अब स्त्री चुप
कुत्ता हैरान
बच्चे एकटक
एक दूसरे को ताकते हुए
फिर सबसे पहले पुरुष उठा
फिर बारी-बारी मेज से उठ गये सब
***
न सही दाल में
कुछ न कुछ फीका ज़रूर है
सब सोच रहे थे
लेकिन वह क्या है?

यह सीधी सरल भाषा में आज के संवेदनहीन होते जा रहे पारिवारिक जीवन के यथार्थ की जटिलताओं की सकारात्मक तथा अर्थबहुल पहचान कराने वाली कविता है. कथित सरलता की लीक से हटकर रचित सरल कविता में बुनियादी सरलता के निहितार्थ कितने जटिल हो सकते हैं, ‘नमक’ कविता उसका सार्थक उदाहरण है…. केदारनाथ सिंह के ‘अंतःकरण का आयतन’ काफी विस्तृत प्रतीत होता है. भारतीय समाज एवं परिवार में मौजूद पितृसत्ता की महीन बख़िया उधेड़ते हुए उन्होंने जो कविताएँ लिखी हैं, उनमें एक है- ‘जाना’, जो कवि के शब्दों में हिंदी की सबसे ‘ख़ौफ़नाक क्रिया’ है :
मैं जा रही हूँ – उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है.

अपने इसी आलेख में सिमोन द बोउआर को उद्धृत करते हुए रवि रंजन लिखते हैं : “‘जो व्यक्ति दूसरों की यातना के लिए हृदयहीन हो सकता है, वह खुद अपनी तकलीफ़ के लिए पहले ही संवेदनहीन हो चुका होता है.’ इसलिए परिवार व समाज में जहाँ कहीं भी ऐसी स्थिति हो, वहाँ हमें उत्तेजना के बजाय संवेदनशून्यता ही देखनी चाहिए. भारतीय पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में दाम्पत्य व प्रेम संबंधों में एक ओर यदि अतिशय आवेश-उत्साह के दर्शन होते हैं, तो दूसरी ओर कालांतर में उन्हीं संबंधों के प्रति तटस्थता, उपेक्षा एवं संवेदनशून्यता की स्थिति भी दिखाई पड़ती है, जिसके मूल में हमारी समाजव्यवस्था के अंतर्विरोधों से पैदा हुई ‘अलगाव’ (एलियनेशन) की भावना अन्तर्निहित है. कहने की आवश्यकता नहीं कि ‘जाना’ कविता में इसी अलगाव से उत्पन्न संवेदनशून्यता का प्रतिपक्ष रचा गया है.”
‘गीतकाव्य: रचना और अभिग्रहण’ एक महत्त्वपूर्ण सैद्धांतिक निबन्ध है जिसमें हिन्दी के कुछ प्रगीतों का विश्लेषण करते हुए सिद्धांत का विनियोग क़ाबिल-ए-गौर है.गीत को आदिम काव्य-विधा बताते हुए इस आलेख में कहा गया है कि इसका सीधा संबंध ‘गायन-योग्य मनोदशा’ से है; “कहना न होगा कि यह गायन-योग्य मनोदशा ध्वनि-शब्द का आधार लेकर ही गीत के रूप में व्यक्त होती है.वस्तुत: किसी रचना के गीत होने के लिए उसमें भावों की तीव्रता और उनकी एकतानता का होना अनिवार्य है,क्योंकि इसी से उस ‘मनोलय’ का जन्म होता है जो गीत का प्राण-तत्त्व है.” इस आलेख में जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ में आए ‘तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की बात रे मन’ को विश्लेषित करते हुए रवि रंजन लिखते हैं : “यह कोलाहल और कलह वह है जिसे छोड़कर कभी नाविक को विकल्प खोजने के लिए कहा जा रहा था…वह ‘तुमुल कोलाहल’ चाहे प्रकृति का हो या मानव समाज का कलहपूर्ण कोलाहल हो, हृदय की बात उसमें ‘हारमनी’ पैदा कर देती है….गीत के पहले टुकड़े में बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक अनुभव की परिपक्वता को गीतात्मक रूपांतरण द्वारा कई सोपानों में रखा गया है.गीत के आरभ में कुतूहल और विस्मय है . ‘मलय की वात’ शैशव के पुलक की तरह आ रही है और चेतना का थकना उस शैशव को धारण किए शिशु को जन्म देने वाली माता का प्रसव पीड़ा से थकना है जिसकी रचनात्मक प्रतिध्वनि ‘रघुवंश’ में सुनी जा सकती है : ‘पाश्चिमात यामिनी यामात प्रसादमिव चेतना’- रात्रि के अंतिम प्रहार में जैसे चेतना प्रसार पाती है वैसे ही इंदुमती ने वृद्धावस्था में पुत्र को जन्म देकर अपनी चेतना का प्रसार पाया.”
‘भक्तिकाव्य का समाजशास्त्र और पद्मावत’ पुस्तक में रवि रंजन ने शुक्ल जी, वासुदेवशरण अग्रवाल, माताप्रसाद गुप्त एवं विजयदेव नारायण साही के अलावा मुजीब रिज़वी और रामपूजन तिवारी सरीखे विद्वानों के पद्मावत विषयक शोध एवं समीक्षा को आधार बनाकर जो अध्ययन प्रस्तुत किया है उसमें कुछ नई बातें जुड़ी हैं. भक्तिकाव्य के सन्दर्भ में अवधारणा से अवबोध तक की जायसी समेत तमाम संत-भक्त कवियों की रचना-यात्रा के अनुशीलन के दौरान कुछ सैद्धांतिक बिन्दुओं पर सोदाहरण बातचीत इस पुस्तक की विशेषता है. इसी विषय से जुड़े नित्यानंद तिवारी के आलोचनात्मक लेखन पर रवि रंजन का ‘मध्ययुगीन काव्य की सामयिक व्याख्या’ शीर्षक ‘बहुवचन’ में प्रकाशित आलेख पठनीय है. भक्तिकाव्य के समाजशास्त्रीय विश्लेषण के दौरान उपस्थित होने वाली कठिनाइयों की और इशारा करते हुए रवि रंजन लिखते हैं: “यह ठीक है कि समाजशास्त्रीय दृष्टि से मध्ययुगीन भारत की सामाजिक ,सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक प्रक्रिया के विश्लेषण के बग़ैर भक्तिकाव्य पर कोई सार्थक बातचीत आज असंभव है,किन्तु इस महान काव्य की केवल ऐतिहासिक और स्थूल समाजशास्त्रीय व्याख्या के अपने ख़तरे हैं…भक्तिकाव्य के समाजशास्त्रीय विश्लेषण के क्रम में यह बात ध्यान देने योग्य है कि भक्त कवि वर्णव्यवस्था के खिलाफ़ केवल वहीं खड़े नहीं होते जहाँ वे उसकी खुलकर निंदा करते हैं.गहराई से विचार करते हुए भक्तिकाव्य में जगह-जगह व्यक्त भगवान् के स्पर्श की कामना के भी सामाजिक निहितार्थ ढूंढ़े जा सकते हैं.” इस आलेख में जायसी द्वारा ‘धर्म भाषा’ और ‘दीक्षागम्य भाषा’ के बजाय ठेठ अवधी का ठाठ खड़ा करके बोलचाल की भाषा को काव्यभाषा के शिखर पर पहुँचा सकने की जायसी की सामर्थ्य की प्रशंसा करते हुए उनके ‘प्रेम की पीर’ के स्वरूप को नारद भक्तिसूत्र के ‘अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् मूकास्वादनवत्’ से न केवल गुणात्मक रूप में भिन्न,बल्कि कहीं अधिक मानवीय बताया गया है.
‘साहित्य का समाजशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र: व्यावहारिक परिदृश्य’ मूलत: व्यावहारिक आलोचना की पुस्तक है, जिसमें रवि रंजन ने हिन्दी के अनेक बड़े कवियों और कथाकारों की रचनाओं के हवाले से समाजशास्त्रीय तथा सौन्दर्यशास्त्रीय आलोचना का मणिकांचन योग उपस्थित किया है.अगर सिर्फ एक उदाहरण से अपनी बात स्पष्ट करनी हो, तो इसमें संकलित ‘विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों का समाजशास्त्र’ शीर्षक आलेख से गुज़रना काफी होगा.इसमें उन्होंने विनोद कुमार शुक्ल के तीन उपन्यासों के साथ ही उनकी ‘महाविद्यालय’ कहानी और कुछ कविताओं के हवाले से स्तरीय समाजशास्त्रीय एवं सौन्दर्यशास्त्रीय आलोचना का उदाहरण पेश किया है. विनोद जी की रचना-भाषा की खूबियों को रेखांकित करते हुए यहाँ कहा गया है कि “विनोद कुमार शुक्ल के प्रगीतात्मक गल्प का वैशिष्ट्य इस बात में है कि यह अपनी बनावट और बुनावट में अनेकानेक स्थानीय सांस्कृतिक तत्त्वों को इस कदर समेटे हुए है कि पाठक के सामने बिंदु-दर-बिंदु ,प्रश्न-प्रतिप्रश्न एक सृजनात्मक संसार खुलता चला जाता है,जिसे आलोचना-क्रम में विवेचित,विश्लेषित व पुनर्रचित करना मुश्किल है.सच तो यह है कि इस दरमियान रचनाकार के निगूढ़ वर्णन एवं अभिप्राय के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ भी स्पृहणीय नहीं है, क्योंकि गहरे संवेदन-द्रव से लबरेज़ मूल पाठ के साथ ऐसा कोई भी आलोचकीय बर्ताव उपन्यासकार की किस्सागोई एवं चित्रण करने की उसकी निजी कला को नष्ट-भ्रष्ट कर दे सकता है.” (पृ.61)
इस पुस्तक में ‘नामवर सिंह के गद्य का सौंदर्यशास्त्र’ पर विचारते हुए उसे ‘लिखा हुआ बोलता-सा गद्य’ कहा गया है. इस सन्दर्भ में कालिदास के ‘रघुवंश’ में आए एक श्लोक के हवाले से आम तौर पर कविता को विप्र मानने वाली धारणा पर चोट करते हुए कहा गया है कि “लिपि गद्य की पार्वती है, पर गद्य का परमेश्वर बोलचाल का लहज़ा है. इस दृष्टि से गद्य द्विज है। उसका जन्म दो बार होता है.”
जाहिर है कि नामवर सिंह आलोचना को रचना की अर्थमीमांसा पर आधारित मूल्यनिर्णय मानते थे.किन्तु, इस महत सांस्कृतिक दायित्व का निर्वाह उन्होंने जिस भाषा में किया है उस पर हिन्दी में बात बहुत कम हुई है. पुस्तक में छपने के पूर्व अनेक पत्रिकाओं में परिवर्धित रूप में प्रकाशित रवि रंजन के इस आलेख से वह कमी एक हद तक पूरी होती दिखाई देती है. उनके अनुसार “नामवर सिंह के निबंधों में देशी-विदेशी साहित्यशास्त्रीय पारिभाषिक शब्दावली की संग्रह-वृत्ति के बजाय रचना से रू-ब-रू होने के दौरान अनुभूत विशिष्ट काव्यानुभूति का विवेचन-विश्लेषण करते हुए आलोचना की एक स्वतंत्र पद्धति की तलाश और उसके लिए ज़रूरी शब्दावली का विकास करने की सर्जनात्मक आकांक्षा दिखाई पड़ती है.” (पृ.130) रवि रंजन का यह भी मानना है कि “आलोचना की भाषा में चमत्कारपूर्ण शीर्षकों-उपशीर्षकों के प्रति नामवर सिंह में जो आकर्षण ‘कहानी:नयी कहानी’ पुस्तक में दिखाई देता है,उसके व्यामोह से वे ‘छायावाद’ में भी एक हद तक ग्रस्त थे.किन्तु, आगे चलकर वे इस व्यामोह से बहुत हद तक मुक्त होते गए और उनकी आलोचना में आए कुछ वाक्यों की बनावट और बुनावट के साथ ही उनके गद्य में विचार और व्याकरण के बीच अद्भुत संतुलन से उपनिषद के गद्य जैसी सुषमा उत्पन्न हो गयी…‘गद्य की विलुप्त कला’ के इस दौर में उनका लेखन हिन्दी गद्य की जातीय प्रकृति का श्रेष्ठ उदाहरण है.” (पृ.132)
मैनेजर पाण्डेय की आलोचना पर केन्द्रित ‘आलोचना का आत्मसंघर्ष : मैनेजर पाण्डेय का आलोचना कर्म’ पुस्तक के सम्पादक के रूप में लिखित इसकी भूमिका को आगे चलकर विस्तार देते हुए रवि रंजन ने ‘मैनेजर पाण्डेय का आलोचना संसार’ शीर्षक जो निबन्ध लिखा वह अपनी व्यापकता और गहराई की वजह से अकादमिक जगत में बहुचर्चित रहा है. इस आलेख में ‘सुविधा में रहकर दुविधा की भाषा’ बोलने के आदतन शिकार भारतीय मध्यवर्ग की पोल खोलने के लिए पाण्डेय जी की तारीफ़ करते हुए लेखक को नागार्जुन की ‘घिन तो नहीं आती’ कविता की याद हो आती है.इस दौरान लेखक ने मैनेजर पाण्डेय को उद्धृत किया है जिनका कहना है कि “लेखक का आत्मसंघर्ष तभी सार्थक और सर्जनात्मक होता है ,जब वह व्यापक सामाजिक संघर्षों से जुड़ा हो.” रवि रंजन का मानना है कि “साहित्यिक कृतियों की आलोचना के क्रम में मैनेजर पाण्डेय उनकी अर्थवत्ता के साथ-साथ सार्थकता की पड़ताल करते हुए कृति-विशेष के रचनात्मक अभिप्राय और प्रभाव की मीमांसा पर बल देते हैं. वे अपने समय के चिन्तन और मूल्यों , चेतना एवं विवेक को एक तार्किक क्रम के द्वारा अपने समय की दशाओं, समस्याओं को जाँचते-परखते हैं और उनको चिन्तन और विवेक की शक्ल देकर केवल साहित्य की रचना में ही नहीं, स्वस्थ बौद्धिक समाज और रचनात्मक वातावरण के निर्माण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.” (पृ.139)
‘लोकप्रिय कविता का समाजशास्त्र’ पुस्तक में रवि रंजन ने लोक साहित्य और संस्कृति के साथ लोकप्रिय साहित्य के जटिल रिश्ते की शिनाख्त की है.इस क्रम में ‘कविता की लोकप्रियता’ और ‘लोकप्रिय कविता’ के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए ग्राम्शी के हवाले से लोक साहित्य, अभिजन साहित्य,राष्ट्रीय लोकप्रिय साहित्य और लोकप्रिय साहित्य पर गंभीर विमर्श प्रस्तुत किया गया है. जाहिर है कि दुनिया में ज़्यादातर लोकप्रिय उपन्यासों को केंद्र में रखकर ही लोकप्रिय साहित्य पर विचार किया गया है. इस चर्चा के केंद्र में कविता को लाकर संभवत: पहली बार इस पुस्तक में उन सामाजिक शक्तियों को बेनकाब करने की कोशिश की गयी है जो कला-साहित्य समेत हर चीज़ को खरीद-फरोख्त का माल बना देने पर आमादा हैं.
इसमें हिन्दी की अनेक कविताओं पर आलोचकीय टिप्पणी हमारा ध्यान आकृष्ट करती है.उदाहरण के लिए रघुवीर सहाय की ‘सन्नाटा छ जाए जब कविता सुनाकर उठूँ’ कविता उद्धृत करने बाद कहा गया है कि “इससे गुज़रते हुए हिन्दी कविता के मौजूदा हालात के मद्देनज़र एक कवि द्वारा अपने लेखन एके औचित्य को लेकर किए जाने वाले ईमानदार आत्ममंथन की पीड़ाजनक प्रक्रिया से हमारा साक्षात्कार होता है…इस ईमानदार अभिव्यक्ति में निहित वह गतिशील सर्जनात्मक तनाव ख़ास तौर से रेखांकन के योग्य है जिसके चलते कोई कला न केवल अपने प्रति सच्ची बनती है,बल्कि भावक से भी सक्रिय साझेदारी की अपेक्षा रखती है और स्पष्ट ही इसके बग़ैर कविता की सृजन-प्रक्रिया से लेकर अभिग्रहण प्रक्रिया तक का वृत्त पूरा नहीं होता.”(पृ.95)
पुस्तक में लेखक ने सुप्रसिद्ध चीनी कथाकार लुशून के ‘मारा कविता की शक्ति’ शीर्षक विख्यात निबन्ध का हवाला देते हुए लिखा है : “ कई बार किसी समाज का सांस्कृतिक बहरापन उसका गूंगापन भी बन जाता है.हिन्दी समाज और खासकर लोकप्रिय हिन्दी कविता के सन्दर्भ में गूंगेपन के बजाय कवियों का बड़बोलापन ज्यादा चिंताजनक है.संस्कृति बाज़ार में कवियों द्वारा हँसोड़ और उदास ,दोनों प्रकार के बड़बोलेपन को नाटकीय अंदाज़ में विभिन्न नगरों और महानगरों में बेचते देखकर ‘द लेक्सस एंड ओलिव ट्री’ नामक बहुचर्चित ग्रन्थ के विद्वान लेखक थौमस फ्रीडमैन की एक चेतावनी याद आती है : ‘बाज़ार का छिपा हुआ हाथ,छिपे हुए मुक्के के बिना काम नहीं कर सकता. संभवत: इस मुक्के की सबसे ज्यादा चोट सहने के लिए कविता अभिशप्त है.” (पृ.106)
कविता की अर्थ मीमांसा करते हुए रवि रंजन अक्सर उसके केन्द्रीय भाव या संवेदनात्मक धुरी को पकड़ने की कोशिश करते दिखाई देते हैं. यह महवर कई बार जिस शब्द के माध्यम से उनकी पकड़ में आता है उसे वे रेमण्ड विलियम्स के हवाले से ‘बीज शब्द’ (‘की वर्ड’) कहते हैं. रंजना मिश्र के कविता संग्रह का मूल्यांकन करते हुए रवि रंजन लिखते हैं : “ ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ की कविताओं से गुज़रते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें ‘बीज शब्द’ है दुःख, जो रोज़ी-रोटी या दैनंदिन आवश्यकताओं के अभाव के बजाय रचनाकार के अस्तित्वमूलक भावबोध एवं चिंतन की उपज है.इस दृष्टि से ‘अपना होना’ एक अनूठी रचना है :
एक दुःख
मेरे भीतर बैठा है
एक ख़ामोशी
उसे स्वर देती है
मैं
इनके बीच
अपना होना तलाशती हूँ.

-अज्ञेय की ‘वेदना में एक शक्ति है जो दृष्टि देती है’ …के साथ ही ‘दुःख सबको माँजता है’ सरीखी कविता पंक्तियों का स्मरण करते हुए देरिदा की शब्दावली में कहें तो ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ की अनेकानेक कविताओं में दुःख का जो स्वरूप विनिर्मित या विखंडित होता है, उसका संबंध उस विषाद-दृष्टि से है जिसे रचनाकार-विशेष के सामाजिक समूह से जोड़कर ‘साहित्य का समाजशास्त्र’ के क्षेत्र में नवीन व्याख्या-विश्लेषण के उद्गाता लुसिएँ गोल्डमान ने अपने ग्रन्थ ‘प्रच्छन्न ईश्वर’ में रासीन और पास्काल की रचनाओं का विवेचन किया है.गोल्डमान कहते हैं कि ‘ट्रैजिक विज़न’ वाले काव्य के नायकों में चूँकि समझौतापरस्ती नहीं होती,इसलिए त्रासदी लगभग उनकी नियति है और कविता में उसकी अभिव्यक्ति का अंदाज़ क्लासिकल होता है.” (समालोचन,मार्च 2022)
रवि रंजन की पुस्तक ‘वारसा डायरी’ में यूं तो चीन के सुप्रसिद्ध पेकिंग विश्वविद्यालय और पोलैंड के ‘वारसा विश्वविद्यालय’ में प्रतिनियुक्ति के दौरान देखे-सुने गए अनुभवों के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीति एवं कूटनीति के लिहाज़ से भारत-पाक सम्बन्ध को लेकर समय-समय पर होने वाली घटनाओं के आतंरिक एवं बाह्य कारणों की शिनाख्त की गयी है,पर यह पुस्तक संस्कृत, हिन्दी और उर्दू कविता की स्वर्णमंजूषा भी है. इसलिए उसमें भी जगह-जगह पर स्वभावत: कविता की सम्यक आलोचना विद्यमान है.
‘वारसा डायरी’ के बारे में कवि-आलोचक अरुण कमल ने लिखा है: “इस पुस्तक को पढ़ते हुए मैंने जब जगमग करते उद्धरणों को अपनी डायरी में उतारना शुरू किया तो देखा कि वह आधी से अधिक भर चुकी है. इन उद्धरणों से लेखक के विशद अध्ययन और स्मृति-कोष का अनुमान तो होता ही है, साथ ही साथ लगभग नि:शस्त्र कर देने वाली उस भाव-विधि का क़ायल होना पड़ता है जो अहंपूर्वक स्वयं सब कुछ न कहकर दूसरों के माध्यम का सहारा लेती है. रवि जी ने प्राचीन यूनानी दार्शनिकों से लेकर नवीनतम कवियों तक के किंचित लम्बे उद्धरण पिरोये हैं जो न केवल कथ्य को दृढ़ करते हैं बल्कि उसे एक वृहत्तर परिप्रेक्ष्य भी देते हैं और लगता है कि यह केवल एक व्यक्ति की डायरी नहीं है वरन् अन्य स्वर भी वृन्दगान-सा वातावरण निर्मित कर रहे हैं.”
डायरी लेखन के क्रम में रवि रंजन ने कविताओं को उदारता के साथ उद्धृत करते हुए उन्हें जिस तरह सामाजिक सन्दर्भ से जोड़ा है वह बग़ैर मूल को पढ़े समझा नहीं किया जा सकता.एक उदाहरण द्रष्टव्य है :
“यजुर्वेद में मन को अमृतस्वरूप एवं कल्पवृक्ष के समान बताते हुए यह आही कहा गया है कि वह अत्यंत वेगवान है, कभी बूढ़ा नहीं होता:
सुषारथिश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयते भीशुभिर्वाजिन इव ।
ह्रुत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु । (यजुर्वेद 34-6)
बावजूद इसके उम्र के इस पड़ाव पर पोलिश लड़के-लड़कियों की हरकतों को देखते हुए अपना मन टटोलने पर अनायास इक़बाल याद आए:
न वो इश्क़ में रहीं गर्मियां न वो हुस्न में रहीं शोखियाँ
न वो गज़नवी में रही तड़प न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ में.
शृंगार के रसराजत्व को अपनी रचना के माध्यम से प्रतिष्ठित करनेवाले और उसकी शास्त्रीयता पर चिंतन-मनन करनेवाले भारतीय आचार्यों का सौन्दर्यबोध यूरोप में अब शायद आदिम माना जाएगा. भारत में भी नयी पीढ़ी के छात्रों का परिधान और सौन्दर्यबोध तेजी से बदल रहा है. इसलिए वे अब पुराने कवियों को पढ़कर पहले की पीढ़ी की तरह आनंद का अनुभव नहीं करते. जायसी की सुप्रसिद्ध पंक्ति-
‘भंवर केस वह मालति रानी।
बिसहर लुरई लीन्ह अरघानी।।’
या
‘शशिमुख अंग मलयगिरि रानी।
नागन्ह झांप लीन्ह अरघानी।l’
-में निहित सौन्दर्यबोध का मर्म समझना अब बीते दिनों की बात है. इसी प्रकार ‘राम को रूप निहारती जानकी कंकन की नग की परिछाहीं’ को सुनने-गुनने वाले छात्र और अध्यापक अब विरले हैं.
किन्तु, रघुवंश में वर्णित इंदुमती-स्वयंवर के प्रसंग में आए उस सुप्रसिद्ध श्लोक के प्रति परिशंसा का भाव शिक्षक के रूप में मैंने स्वयं देशी-विदेशी विद्यार्थियों के चेहरे पर महसूस किया है, जिसकी वजह से मल्लिनाथ ने उन्हें ‘दीपशिखा कालिदास’ कहा था:
संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा।
नरेंद्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपाल: ।।
अकुंठ भाव से सार्वजनिक स्थलों पर प्रेमालाप करती यूरोपीय युवा पीढ़ी की तुलना में हमारे भारतीय युवकों और युवतियों की समस्या समझ में आ सकती है, जिनके ऊपर परिवार और समाज की तरफ से अनेक तरह की घोषित-अघोषित नैतिक पाबंदियाँ आयद हैं और इन पाबंदियों की वजह से वे प्राय: यौन कुंठा से ग्रस्त होने या कई बार यौन विकृति तक का शिकार हो जाने के लिए अभिशप्त हैं. भारत में आए दिनों स्त्रियों पर जिस कदर यौन हिंसा की घटनाएँ हो रही है उसकी एक वजह युवकों की यौन कुंठा भी है.” (वारसा डायरी, पृष्ठ. 61)
डायरी में प्रसंगवश इक़बाल की कविता पर की गयी एक टिप्पणी प्रकारांतर से समाजशास्त्रीय आलोचना का उदाहरण है : “इस्लाम धर्म के मानने वाले हमारे बंधु जुम्मे के रोज मस्जिद में नमाज़ अदा करने के साथ ही किसी भी दिन नमाज़ का वक्त होने पर कालीन या चादर बिछाकर कहीं भी नमाज़ अदा कर सकते हैं. इसे रेलवे स्टेशन जैसी भीड़भाड़ वाली जगह पर भी देखा जा सकता है.और, ऐसा करना चूँकि बहुत अच्छा माना जाता है इसलिए वहाँ सही वक्त पर नमाज़ पढ़ने और नमाज़ी कहलाने का एक अनजाना दबाव भी रहता है. कहने की ज़रूरत नहीं कि हिन्दू धर्म में ऐसा कोई दबाव संभवत: नहीं है. एक हिन्दू शुद्ध ब्रह्मवादी हो सकता है और वह पीपल की पूजा भी कर सकता है.पूजा करना या अनिवार्यत: मंदिर जाना एक हिन्दू के लिए कतई ज़रूरी नहीं.चूँकि मुसलमान रहते हुए व्यावहारिक जीवन में कोई ख़ुदा से शिकवा भले ही कर ले पर उसके वज़ूद को नकारने की हिमाक़त नहीं कर सकता, इसीलिए उर्दू कविता में इस मजहबी दबाव के प्रति विद्रोह की अभिव्यक्ति मिलती है.” उदाहरण के लिए मीर का यह शेर गौरतलब है:

‘मीर’ के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया

आगे इक़बाल का एक शेर उद्धृत करते हुए रवि रंजन लिखते हैं:

“जो मैं सर-बे-सिज़दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
तेरा दिल तो है सनम – आशना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में

लगभग यही मानसिकता इकबाल की ‘मन अपना पुराना पापी है बरसों में नमाज़ी बन न सका’ वाली नज़्म में भी है. ज़ाहिर है कि इक़बाल की ऊपर उद्धृत पंक्तियों में बन्दे पर अनजाने ही एक धार्मिक और नैतिक दवाब बनाया जा रहा और अपेक्षा है कि वह सिर्फ़ फ़र्ज़ अदाआयगी के बजाए मुक़म्मल तौर पर अपना ध्यान ख़ुदा की ओर लगाए. हिन्दू धर्मग्रन्थ के एक श्लोक में भी कहा गया है कि “मैं पापी हूँ,पापात्मा हूँ.इसलिए मुझसे पाप हो जाना संभव है- ‘पापोहं पापकर्माहं पापात्मा पापसंभवः’.” श्लोक के अंत में भगवान से इस संभावित पाप से उबार लेने का आग्रह है.
उर्दू कविता में ईश्वर के प्रति विद्रोह के उदाहरण अनेकानेक हैं. मसलन –

सियाह रातों के वजीफ़े से बंधे हैं मुल्ला
क्या हुआ रिंद को जो सुबह की सनद न हुई.

रवि रंजन ने कई प्रसंगों में ज़ोर देकर कहा है कि हिन्दीवालों के लिए थोड़ी उर्दू के साथ-साथ संस्कृत का ज्ञान भी आवश्यक है : “शमशेर का साहित्य इस बात की ताकीद भी करता है कि हिन्दी के छात्रों और अध्यापकों को थोड़ी उर्दू और संस्कृत ज़रूर आनी चाहिए. संस्कृत साहित्य की क्लासिकी परम्परा में भी उनकी गहरी पैठ थी.शमशेर की ‘उषा’ कविता की अंतिम पंक्ति –‘और…जादू टूटता है इस उषा का अब/सूर्योदय हो रहा है’ पढ़ते हुए मुझे अनायास ऋग्वेद की ‘उषा स्तुति’ छंद की याद हो आती है :

उषो देव्यमर्त्या वि भाहि चन्द्ररथा सूनृता ईरयन्ती ।
आ त्वा वहन्तु सुयमासो अश्वा हिरण्यवर्णां पृथुपाजसो ये ।।”

(हे उषा देवी ! चंद्रमा जैसे तेजस्वी रथ पर सवार होकर, सत्य और कल्याणकारी वाणी से जग को प्रेरित करती हुई अपनी किरणों से जगत को प्रकाशित करो. वे सुंदर जीन वाले, स्वर्णिम चमक वाले, विशाल खुरों वाले घोड़े तुम्हें यहाँ लाएँ.)
शिष्ट साहित्य के साथ ही ‘वारसा डायरी’ में पर्व-त्यौहार के अवसर पर गाए जाने वाले कुछ लोकगीतों की समाजशास्त्रीय आलोचना भी मौजूद है.एक उदाहरण द्रष्टव्य है: “बिहार प्रदेश के विभिन्न अंचलों में ही नहीं, बल्कि बिहार से बाहर रहने वाली बिहारी मूल के लोगों द्वारा कार्तिक माह में छठ के अवसर पर गाए जाने वाले लोकगीतों की कुछ पंक्तियों से मन ही मन गुजरते हुए ‘देहात और शहर’ (Country and the City) पुस्तक में रेमण्ड विलियम्स द्वारा इंग्लैण्ड के ग्राम गीतों के विवेचन-विश्लेषण की याद न आए, यह मुमकिन नहीं. कहना न होगा कि पर्व-त्यौहार के अवसर पर गाए जानेवाले लोकगीतों में जनसमुदाय की आत्मा की चीख़ प्रतिध्वनित होती है.एक गीत हमेशा मन में गूँजता-सा रहता है –

घाट मोरा छेकले घटवहवा लोगवा अउरो सिपहिया लोगवा हे !
छठी मैया दऊरिया भर छेकले जगदीश पुत्र अउरो से जानकी बेटी हे !

…यहाँ ‘घटवहवा’ नदी के आसपास के गाँवों के ज़मींदारों के कारिंदे हैं और ‘सिपहिया’ उच्चाधिकारियों के अलमबरदार, जो अपने मालिक-महाजन के हित में प्राय: क्रूरता बरतने में नहीं हिचकते. इसलिए उन श्रीमंतों के परिवार के लिए वे नदी या तालाब के किनारे समतल और साफ़-सुथरी जगह को छठ पूजास्थल के तौर पर दबंगई से ‘छेंक’ लेते हैं और आम लोगों को भगवान के दरबार में भी अपने ही समाज के दबंगों से दबना पड़ता है. मुख्यत: सूर्यनारायण की अर्चना-आराधना को लेकर मनाए जाने वाले इस महापर्व में गाए जानेवाले लोकगीत की इन पंक्तियों में भगवान सूर्य के बजाए आम
आदमी छठी माता के सामने अपनी व्यथा-कथा गा रहा है. मार्क्स ने ठीक ही धर्मं को केवल अफीम ही नहीं,बल्कि ‘पीड़ित प्राणियों की आह’ और ‘हृदयहीन दुनिया का हृदय’ भी कहा है.”
उपर्युक्त विवेचन के मद्देनज़र समकालीन आलोचना में ख़ास तौर से कविता, आलोचनात्मक लेखन, उपन्यास एवं आत्मकथा की आलोचना के क्षेत्र में रवि रंजन के अवदान को देखते हुए उन्हें हमारे समय का एक सुधी आलोचक कहा जा सकता है. हिन्दी के अलावा संस्कृत और उर्दू कविता के साथ ही लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति में गहरी रुचि से सराबोर उनके आलोचनात्मक लेखन से कुछ मायने में हिन्दी आलोचना नि:संदेह समृद्ध हुई है.

 

 

 

 


 

डॉ. तबस्सुम बेगम

जन्म- 20 अक्तूबर, 1979

जन्म-स्थान – बालासोर जिला, ओड़िशा

स्कूली शिक्षा- केन्द्रीय विद्यालय

उच्च शिक्षा – एम.ए.(हिन्दी-2003), उस्मानिया विश्वविद्यालय

  • एम.ए. (अंग्रेज़ी-2014), मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी
  • एम.फिल.(हिन्दी-2004),पी.एच.डी.(हिन्दी-2009), हैदराबाद विश्वविद्यालय
  • बी.एड.(2013), पालमुरु विश्वविद्यालय, महबूबनगर, तेलंगाणा
  • पी.जी. अनुवाद कोर्स(2003), हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद

शैक्षिक अनुभव   – अतिथि प्राध्यापिका 2017-2019

(दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद)

  • अकादमिक काउन्सलर(पी.जी., यू.जी.) 2005 – अबतक (डॉ. भीमराव अम्बेदकर ओपन यूनिवर्सिटी, हैदराबाद)
  • अतिथि व्याख्याता, अनुवाद कोर्स 2025, हिन्दी विभाग, अहमदनगर महाविद्यालय, अहमदनगर, महाराष्ट्र

अन्य अनुभव           –  गूगल के जैमिनि व अन्य प्रोजेक्ट में हिन्दी भाषा-विशेषज्ञ के रूप में दो वर्ष (2023-2025) का अनुभव

  • मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी द्वारा संचालित बी.एड. कोर्स के लिए पुस्तक ‘हिन्दी भाषा शिक्षण’ में भाषा संपादक का कार्य अनुभव

प्रकाशन                      – स्त्री मुक्ति का प्रश्न और “मुझे चाँद चाहिए” (पुस्तक)

  • दक्खिनी हिन्दी : एक भाषावैज्ञानिक अध्ययन (पुस्तक)
  • मौलाना आज़ाद के पत्राचार का कैलन्डर (अनुदित पुस्तक, मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित)

दर्जनों राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में प्रपत्र पठन व प्रकाशन तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख उपलब्ध हैं। साथ ही मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के इन्सट्रक्शनल मिडिया सेन्टर(IMC) के यूट्यूब चैनल पर स्नातक कोर्स के लिए ऑनलाइन पाठ भी प्रसारित हुए हैं। पूर्व-प्राध्यापिका, दूर शिक्षा केंद्र, मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद.

संपर्क:

tabassumhcu@gmail.com

मो:8686800863/7997201076


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