कहानी
फरवरी माह…जाती हुई ठंड के दिन हैं। रोज की तरह मैं गंगा घाट के किनारे बैठी हूं। उन घाटों से बहुत दूर…जहां शाम को आरती होती है। शुरू में उत्सुकता थी, तो जाती थी दशाश्वमेध घाट गंगा आरती देखने। मगर अब….
पानी से तो पुराना रिश्ता है मेरा। यह चनाब का हो, डल झील का या गंगा का, मेरे लिए तो आईना है जैसे। शाम ढलने लगी है। परछत्ती पर पसरी धूप सरक कर नीचे आ रही है। नीला आसमान शांत है। पीछे से कुछ आवाज़ें आती हैं। देखती हूं, एक बच्चा जमीन पर पड़े पत्थर को पैरों से उछाल कर खेल रहा है। उसी क्षण सामने खड़ी दीवार पर नजर पड़ती है मेरी। उस गुलाबी महलनुमा भवन की दीवार पर, जिसे किसी राजा ने अपनी रानी के लिए बनवाया था कभी, उसी दीवार पर तीन कबूतर एक दूसरे को चोंच मारने में लगे हैं। तभी एक खयाल कौंधता है भीतर, तो कबूतरों में भी तीसरा घुस आता है….? यह खयाल हो कि सवाल, पर उन तीन कबूतरों के साथ मिलकर मुझे अतीत की वीथियों में खींचे लिए जा रहा है…
उन दिनों पापा की पोस्टिंग कश्मीर में थी। अक्सर रविवार को हम शिकारे में बैठकर घूमने निकल जाते। मेरी जिद पर कभी-कभी हाउसबोट पर भी ठहरते थे हमलोग। पानी की सतह पर तैरते किसी स्वप्न-घर की तरह लगते थे मुझे वे हाउसबोट। मुझे बहुत पसंद था तैरता घर, जैसे सपनों का घर। झील में लगने वाला सब्जियों का बाजार मेरे साथ-साथ मां को भी बहुत पसंद था। भले ही इसके लिए हमें बहुत सुबह उठना होता था मगर शिकारे पर बिकती ताज़ा सब्जियां मां को लुभाती थीं।
हंस पड़ती हूं…कैसा था जीवन, कैसा हो गया है जीवन।
सुहाती-सी धूप बदन को छू रही है। हल्का गुनगुना अहसास मन के खालीपन को भरने लगा है जैसे। मन में उतरी उदासी कुलबुला रही है बाहर निकलने को मगर कोई जरिया नहीं मिल रहा। यूं लग रहा है जैसे उदासी इस पल के लिए पहले से तय थी, कि इस वक्त उसे जाना नहीं है कहीं दूर मुझसे…।
चुबुक…सामने पानी में हलचल हुई। एक मछली सतह से उछलकर पानी में फिर डूबी। मेरी चौकन्नी नजरें देखने लगीं कि कहीं आसपास कोई बगुला इन्हें आहार बनाने की ताक में तो नहीं।
” चूम लो उठाकर….” कानों में पापा की आवाज तैरी जैसे।
जिस हाउसबोट पर हम रूकते, उसके मालिक का नाम बिलाल था। पर वो हमारे लिए कभी महज हाउसबोट वाले नहीं थे। उनका शिकारा हमारे लिए घर का ही एक्सटेंसन था। मां कहती हैं, बिल्कुल अक्षय कुमार की तरह दिखता था बिलाल। मगर मेरा वास्ता तो जावेद से ही था। शिकारे वाले अंकल का लड़का जावेद मेरा हमउम्र था। जब भी हम हाउसबोट पर ठहरते, मैं उसके साथ खेलती रहती। सुबह बर्फ की परत बिछी होती पूरे बोट पर और मां-पापा अंदर कहवे का आनंद उठाते होते, मैं जावेद के साथ कभी इस छोर, कभी उस छोर दौड़ती रहती।
बिलाल अंकल अक्सर अपनी छोटी-सी नाव लेकर मछली मारने निकल जाते। एक दिन हम हाउसबोट पर खेल रहे थे और अंकल ने मछलियों से भरा जाल हमारे सामने पलट दिया। छटपटाती मछलियों को देखकर जाने क्या हुआ कि मैं एक-एक कर उन्हें उठाती और चूमकर पानी में डालती जाती।
बिलाल अंकल लौटे तो यह देखकर मुझे डांटने के बजाय हंसते हुए पापा के पास लेकर गए..
” साहब, आपकी बेटी तो सबसे अलग है। हमलोग मछलियां खाते हैं, ये मछलियां चूमती है।”
बहुत देर तक मम्मी-पापा इस बात पर हंसते रहे थे। मैं बिलाल अंकल का शिकारा और डल लेक में चार चिनार पर बिताया वक्त कभी नहीं भूलती। पतझड़ के मौसम में जब चिनार के पत्ते झड़कर पूरी धरती को लाल कर देते थे, तो जी करता था कि बस उन्हें देखती ही रहूं। कश्मीर छोड़ते वक्त जितना दुख हमें हुआ था उतना ही बिलाल अंकल को भी। मुझे रोते से चुप कराने के लिए ही शायद अंकल ने कहा था –
” ओ बेबी, रोने का नहीं। क्या तुम जावेद से शादी बनायेगा? देखो, तब तुम्हें यहां से नहीं जाना होगा कहीं। बड़ी होकर लौट आना तुम….हमलोग इंतजार करेगा। आओगी न ? ”
जाने के बाद कब कौन लौटता है ? बहुत सालों तक पापा चिढ़ाते रहे…जावेद इंतजार करता होगा, चलो कश्मीर चलते हैं। मछलियां नहीं चूमोगी ?
शुरू में मैं चिढ जाती, फिर सोचती कभी-कभी, जावेद भी तो मेरी तरह बड़ा हो गया होगा। कहीं मिलेगा तो क्या एक-दूसरे को पहचान भी पाएंगे? क्या वो भी मुझे याद करता होगा? अक्सर जब डल लेक या मीनाबाजार जाती थी मां, तो अलिफा आंटी को साथ लेकर ही जाती थीं। तब मैं और जावेद उनके साथ-साथ घूमते रहते, उन दुकानों में जहां कपड़े से लेकर आभूषण तक मिलते थे। वहीं एक अंकल ने हमारे सामने लकड़ी के दो नाव बनाकर दिए थे। मैं उसे अपने साथ लेकर आई थी, दूसरा जरूर जावेद ने संभालकर रखा होगा।
उसके लिए मुझे ढूंढ़ पाना मुश्किल का काम है। मगर मैं तो उन्हें तलाश ही सकती हूं। तब मैं अंकल के हाउसबोट को गुलाबी परदों में लगे बड़े-बड़े लाल फूलों के कारण दूर से ही पहचान लेती थी।
उस हाउसबोट का नाम आंटी के नाम पर था- ‘अलिफा हाउसबोट’। बेशक अब भी होगा… कई बार सोचा था कि किसी दिन पापा से पूछूंगी कि उनके पास बिलाल अंकल का फोन नंबर है क्या ?
” दीदी…आज नहीं चलोगी बीच नदी में…?” नाव वाला लड़का रंधीर आवाज दे रहा था। वह जानता है कि अकेले नाव पर बैठकर मंथर गति से नदी के साथ बहते जाना पसंद है मुझे। “नहीं…” उसे तो यह भी पता है कि देर रात किसी के साथ नाव की सैर करना कभी बहुत प्रिय था मुझे। हमारे प्रेम का गवाह रहा है यह लड़का, मगर इसने कभी कोई सवाल नहीं पूछा।
मैंने भी कहां पूछा था कोई सवाल अयन से…. ? उस दिन भी नहीं, जब पहली बार गंगा किनारे हम बैठे थे। गहराती रात में पानी पर झिलमिल करती रौशनी की झालर थी। खाली किश्तियां किनारों से बंधी बस डोल रही थीं। पानी में काँपती उन रंगबिरंगी छवियों को मैं एकटक निहार रही थी कि तभी गूंजा था उसका स्वर- ” मैंने जोग ले लिया…अब जोगी हो गया हूं मैं।”
आंखों में सवाल था मगर जुबां चुप थी मेरी। जानती थी, खुद ही कहेगा वो जो कहना है। किसी से कुछ कुरेदकर पूछना मेरी आदत नहीं। हालांकि हमें मिलते हुए एक महीना होने को आया था, मगर उसने जो बताया, जितना बताया, बस उतना ही सुना।
मां की अस्थियां लेकर आया था अयन बनारस। उदास और दुनिया से बेजार-सा फिरा करता था गंगा घाट पर। वहीं किसी दिन टकराया था मुझसे। मैं गंगा आरती देखने अक्सर जाया करती थी। नदी का कलकल बहुत भाता था पर उदासी सख्त नापसंद थी मुझे।
एक खिलंदड़ और जीवन से भरपूर लड़की का सामना हुआ बेहद उदास और मायूस से लड़के से। फिर दोस्ती हो गई। तब लगता था मैंने उसे अपने रंग में रंग लिया है… पर अब उसके रंग में रंगी मैं सोचती हूँ- क्या वो रंग असली था, जो मुझे दिखता था उन दिनों ? सच कहूँ तो पानी की तरह रंग भी बहुत पसंद हैं मुझे, पर रंगों का यह खेल कभी नहीं समझ पाई मैं।
उस दिन हम गंगा किनारे तुलसी घाट पर बैठे थे। जरा और करीब सरक आया था वह – ” हां, जोगी ही तो हूं। सब छोड़ आया हूं पीछे। वैसे भी मां के सिवा कुछ और नहीं रह गया था जीवन में। मगर अब….”
कहकर ठहरा वो, मेरी आंखें ठहरीं उस पर…
”सच कहता हूं…बनारस को अंतिम ठिकाना मानकर ही आया था मैं। गंगा बहुत विशाल हैं। जी न लगा तो इस मां की गोद में ही…” गंगा की छोटी-छोटी लहरियाँ उसकी आँखों में किसी सागर-सी उतर आई थीं। निमिष भर खुद को सहेजने के बाद किसी गहरे इनार से आती-सी उसकी आवाज़ फिर से गूंजी थी- “आखिर बनारस में मोक्ष प्राप्त करने ही तो लोग आते हैं… तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है न- महामंत्र जोई जपत महेसू, कासी मुकुति हेतु उपदेसू।”
उस क्षण उसके शब्दों में उतर आया वह वैराग्य मेरे लिए नितांत अपरिचित था। एक पल को बहुत अनजाना-सा लगा मुझे अयन, मगर दूसरे ही पल वही पहचाना हुआ लड़का मेरे सामने था- ” आंखों में अब तेरे सिवा कोई नहीं अपरा। एक भी ऐसा चेहरा नहीं दुनिया में जिसे देखने का दिल करे। अब तो मैं किसी को देखकर भी नहीं देखता। मुझे हर तरफ बस तुम नजर आती हो। और मैं किसी को देखना भी नहीं चाहता। दुनिया से उदासीन हूं, इसलिए खुद को जोगी कह रहा हूं।”
मैं हंस पड़ी थी। ” मेरे प्यार में आकंठ डूबने का दावा कर रहे हो और खुद को जोगी कहते हो?”
”जो ईश्वर में रम जाता है, सिवा उसके जिसे कुछ नहीं नजर आता, दुनिया उसे जोगी ही तो कहती है। मैं भी सिर्फ तुममें डूबा हूं। जोग लगा लिया। सब कुछ मान लिया तुम्हें। अब बताओ तुम्हीं, ऐसे इंसान को और क्या कहेंगे, क्या कहते हैं? ”
”चलो, आज गंगा की लहरों को नाप आएं। तुम चप्पू चलाना और मैं नाव में लेटकर सुनूंगी जल-संगीत।” मंत्रबिद्ध सी बोल उठी थी मैं।
पूर्णिमा थी उस रोज। लहरों पर हिचकोले खाती नाव में लेटकर नीले आसमान पर जगमगाते चाँद तारों के देखने का सुख अनिर्वचनीय था। अर्धचंद्राकार बनारस के घाट दूर से बेहद खूबसूरत लग रहे थे। चप्पू की नोक से निकलते जलसंगीत और आसमान से बरसती चाँदनी के मध्य किसी स्वपनलोक में तैरते हुये मैंने उस दिन जाना कि अयन एक कुशल खेवैया भी है। मुझे याद नहीं कि रंधीर को क्या कहकर नाव से उतारा था अयन ने। पर दियारे की शीतल रेत को छूकर आती हवा ने जब मेरी नाभि को सहलाया तो जैसे किसी मीठी नींद से जागी थी मैं।
चाँदनी रात का वह नौका विहार महज एक सफर नहीं, सुरों के आरोह-अवरोह से भरा एक जिंदा अहसास था। गंगा पर तैरती हमारी अकेली किश्ती…झिलमिल..झिलमिल पानी की चादर, हवाओं का ओढ़ना, प्रेम का बिछौना और एकांत का संगीत। अयन का स्पर्श तो जैसे हमेशा के लिए मेरी काया का हिस्सा हो गया। बीच नदी में था वह रेत का द्वीपनुमा टीला, जहां रूकी थी नाव। उस जागरण के बाद देर तक मैं अयन के कांधे पर सिर टिकाये बैठी रही… मेरे कंधे को सहलाती उन हथेलियों का ताप मेरे अंतस को शीतल कर रहा था।
” दीदी, कुछ कहती क्यों नहीं…मैं रूकूं या जाऊं? ” एकदम चौंक पड़ी मैं। निमिष भर में नदी के उस द्वीप से किनारे पर आ लगना कुछ पल को अनमना कर गया था मुझे।
” आं…जाओ, आज मन नहीं मेरा कहीं जाने का। यहीं बैठूंगी मैं। ”
” ठीक है दीदी, मगर देर तक मत बैठना। मैं सवारी लेकर जा रहा हूं।” यह छोटा-सा रंधीर इन दिनों मेरा बड़ा भाई बनता जा रहा है, शायद हमराज भी। कई बार वो मेरी आंखें पढ़ने की कोशिश करता है। जब नजरें मिलती हैं तो आंखें झुका लेता है वह।
आज यादों की नदी उफनाई हुई है। मैं बह रही हूं….
बनारस की गलियां हमारे साथ की गवाह हैं। ये सभी घाट हमारे साहचर्य के गीत दुहराते हैं। दूर लहरों पर कोई नाव डगमगाती नजर आती है तो लगता है, कोई दोनों हाथ हिलाकर मुझे बुला रहा है। पहली बार जब हमदोनों रंधीर की नाव में बैठे थे, उसने किसी कुशल गाइड की तरह हमारा परिचय बनारस के घाटों से कराया था। मणिकर्णिका घाट पर पहुंचते ही अयन भावुक हो आया था- ”उस दिन जब मां की अस्थियां प्रवाहित की थी, दुख मेरे अंदर इतना पसरा हुआ था कि कुछ नजर नहीं आ रहा था। आज देखता हूं तो लगता है कि वाकई जीवन का अंतिम सत्य तो यही है। एक दिन इसी घाट पर सैकड़ों जलती चिताओं के बीच एक चिता मेरी भी होगी। ”
अनुराग और वैराग्य का एक मिलाजुला ताप उसके चेहरे पर दिखाई पड़ रहा था। धू-धू कर जलती चिताएँ, हवा में फैली चिरायन्ध… मोक्ष की प्राप्ति के लिए लगी लाइनें। रोज़मर्रा के व्यापार की तरह तोल-मोल करते कुछ पंडितनुमा दलाल। शवों से चटकती आवाज़ों के बीच कपालक्रिया के दृश्य… मेरे लिए लगभग असह्य था सबकुछ, पर अयन लगातार उन्हें किसी निर्विकार भाव से निर्निमेष देखे जा रहा था और मैं उसे… उस दिन पहली बार मुझे अहसास हुआ कि विकर्षण में भी कहीं एक आकर्षण होता है।
अयन के चेहरे पर वैराग्य की छाया घनी हो गई थी। मैं उसके विराग को जीवन के राग में बदलना चाहती थी। शंकर ने पार्वती के खोए कर्णफूल ढूंढे थे यहां, पर मैंने तो जैसे खुद को ही खो दिया था।
चिताओं की लपट में सिंके गंगा घाट पर कब गुम हो गई मेरे धड़कनों की नमी, यह पता ही नहीं चला। अब मणिकर्णिका घाट पर धूनी रमाने का मन होता है। सोचती हूँ, औघड़ों की तरह शरीर पर राख लपेटकर बम शंकर का आह्वान करती रहूं। डोम राजा की तरह लकड़ी लेकर जलती चिता को कोंचती रहूं, निर्विकार…।
रोज ही फेरा लगाया करते थे हमलोग। पानी से मेरी मुहब्बत देखकर उसे भी प्यार हो गया था इससे। कई बार मुझे आने में देर होती तो उदास-सा बैठा मिलता था अयन असि घाट के किनारे। कितनी मछलियां देख लीं मेरे इंतजार में या फिर किस तरफ से किस चिड़िया ने आवाज लगाई, सब कुछ बहुत तफसील से बताता था मुझे। अगर कोई मछली किंगफिशर का शिकार बन जाती, तो वह मेरी तरह ही दुखी होने लगा था।
बनारस के घाटों पर बिताए वे दिन मेरे बहुत करीब आ गए थे। इतने करीब कि अतीत की तहाई चादरों को खोलते हुए यह भी भूल गई कि घाट पर अकेली हूँ मैं। वह जैसे हमेशा की तरह मेरे साथ था। उसकी उँगलियाँ सहसा मेरी उँगलियों के साथ खेलती सी लगीं… खुद में डूबी जैसे मैं उसी से बातें कर रही थी। समय ने हम दोनों के बीच से अपनी चौहद्दियाँ करीने से समेटी ली थी –
”अपरा, तुम्हें मछलियां बहुत पसंद हैं न। बिना नागा तुम्हें इनको चारा डालते देखता हूं”
”हां, ये भी पूछने वाली बात है?”
”तब तो तुम जावेद को भी नहीं भूल पाई होगी?” न जाने वो मुझसे पूछ रहा था कि बता रहा था।
”बचपन या कहूँ कि तरुणाई के शुरुआती दिनों का दोस्त था जावेद। भूली तो वाकई नहीं हूं, मगर तलाशने की कोशिश भी नहीं की कभी।”
” क्यों नहीं की? अगर वो किसी दिन सामने आ गया तो…?”
” तो…तो उस दिन का उस दिन देखा जाएगा। वैसे तुम क्यों उत्सुक हो इतना जावेद के लिए ?” मेरे जवाब में एक सवाल भी शामिल हो आया था।
”मैं जानना चाहता हूं कि तुम कितनी शिद्दत से किसी के साथ जुड़ती हो, और बिछड़ने के बाद क्या रुख होता है तुम्हारा?”
अयन के इस अनायास प्रश्न से कुछ असहज हुई थी मैं पर खुद को सहेजते हुये प्रकटतः इतना ही कहा था- ” कौन कितने दिन किसके साथ रहता है, यह कहना मुश्किल। हमराही भी अक्सर बिछड़ जाते हैं कुछ दूर चलने के बाद।”
नहीं जानती मेरे इस जवाब से कितना संतुष्ट हुआ है वह, पर मैं भीतर से जरूर अनमनी हो गई हूँ। मेरे बिलकुल करीब बैठा अयन जैसे कुछ इंच अलग खिसक गया है, पर हमारा संवाद अब भी जारी है…
कितनी अजीब बात है न, अतीत का भी अतीत होता है और एक ही समय में वक्त कहां से कहां पहुंचा देता है हमें। मैं असि घाट के किनारे बैठी हूं। गंगा और असि नदी का संगम स्थल है यह। हालांकि अब असि नदी विलुप्त हो गई है, बस गंगा ही गंगा है। जैसे मेरा अस्तित्व तुममें विलुप्त हो गया है फिर भी तुम मुझमें जिंदा हो। क्या तुम्हें मेरा नाम याद है ? क्या तुम भी मुझे याद करते हो, जैसे असि नदी को लोग याद रखते हैं विलुप्त होने के बाद भी। सबसे अंतिम घाट है ये असि घाट। इसके बाद दूर-दूर तक है बस नदी का उफनता फैलाव….
कितने उत्साहित हुए थे तुम इस घाट पर आकर, जहां तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ की रचना की। और हाँ, इसी घाट पर देह भी तो त्यागा था उन्होंने। दो नदियों का संगम स्थल असि घाट एक दिन हमारे संगम का भी गवाह बना था। मगर इस जगह की नियति है कि कोई एक ही रह सकता है, दूसरा विलीन हो जाएगा। असि और हमारी नियति एक ही कैसे हो गई अयन? महाराज बनारस के बनाए इस घाट पर हमने साथ-साथ डुबकी लगाई थी। तीर्थ के लिए नहीं…अपने साथ की कामना से। और देखो…मैं विलीन हो गई। विलीन तो पंडित जगन्नाथ भी हुए थे, मगर अकेले नहीं। लवंगी साथ थी उनके।
गंगा दशहरा के दिन ‘गंगालहरी’ सुनकर मुग्ध हो गए थे तुम। पहली बार मैंने भी जब सुना था तो इसके रचियता के बारे में जानने को व्यग्र हो उठी थी।
मेरी जिज्ञासा ने मुझे एक अनोखी प्रेम-कथा तक पहुंचा दिया था। 17वीं शताब्दी की बात है जब पंडित जगन्नाथ को एक मुस्लिम लड़की लवंगी से प्यार हो गया था। शाहजहां की छत्रछाया में उन दोनों की ज़िंदगी लालकिले में सुख से गुजर रही थी। मगर जब औरंगजेब ने दाराशिकोह का कत्ल कर दिया और शाहजहां को कैद में डाल दिया तो पंडित जगन्नाथ लवंगी के साथ भागकर मथुरा चले गए। मगर वहां जब उनकी विद्वता की कद्र न हुई तो विद्वानों के गढ़ काशी पहुंच गए, जहां मुस्लिम कन्या से विवाह के कारण ब्राह्मणों ने उनकी निंदा करते हुए जाति से निष्काषित कर दिया। अवसाद की दशा में वह गंगा की शरण में गए। किंवदन्ती है कि अपनी पवित्रता का प्रमाण देने के लिए पंडित जगन्नाथ ने गंगा घाट की 52 वीं सीढ़ी पर बैठकर गंगाजी की स्तुति की थी। हर श्लोक पर गंगा एक-एक सीढ़ी ऊपर उठती गईं और इस तरह उनके पास पहुँच कर उनका उद्धार किया।
दो प्रेम करने वाले गंगा में समाहित हो गए, मगर उनकी गंगालहरी का पाठ अब भी होता है उसी गंगा किनारे। शताब्दियां बदल गईं, मगर क्या अब भी प्रेमियों की राह आसान हुई है ? पर अब तो ये सवाल ही बेमानी है मेरे लिए। नहीं, कोई शिकायत नहीं तुमसे। तुम्हें जाना था… तुम चले गये।
बनारस से जीवंत कोई और शहर नहीं, यह तुम भी मानने लगे थे और यहीं बस जाना चाहते थे। बनारस की तंग गलियों से गुजरते हुये गंगा घाट पर घंटों साथ गुज़ारना हमारी दिनचर्या का जरूरी हिस्सा हो गया था। उस दिन कचौड़ी गली की कचौड़ियों का स्वाद लेने के बाद बहुत दूर तक पैदल चलते हुये हम केदार घाट की तरफ बढ़ चले थे। बड़ी संकरी-सी गली से होकर जाता है वहाँ का रास्ता- ठीक तुम्हारे प्रेम गली की तरह। उस दिन दूर-दूर तक कोई नज़र नहीं आ रहा था। गली में गूँजता सन्नाटा मेरे भीतर किसी अनाम भय की तरह उतर रहा था। तुम्हारी उँगलियों पर मेरी पकड़ मजबूत हुई जा रही थी और तुमने बहुत एहतियात से मुझे अपनी भुजाओं का सहारा दिया था। कुछ ही देर पहले बहुत तेज बारिश हुई थी। तुम्हारी बाँहों में बंधी मैं केदार घाट की ऊंची-ऊंची सीढ़ियों पर फिसलने के भय से मुक्त एक अनोखे आत्मविश्वास के साथ उतर रही थी।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में केदार घाट को आदि मणिकर्णिका क्षेत्र के अन्तर्गत माना गया है, जहाँ प्राण त्यागने से भैरवी यातना से मुक्ति मिल जाती है और व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है। तब न तो मुझे भैरवी यातना की कोई समझ थी न ही मोक्ष के प्रति कोई जिज्ञासा। तुम्हारा अनुराग ही जैसे जीवन का एक मात्र प्राप्य था…।
अचानक एक हूक-सी उठती है मेरे भीतर… पर तुम तो मुझे जीते-जी भैरवी यातना दे गए, अयन ! जाने अब इस जीवित अपराजिता को इस भैरवी यातना से कौन मुक्ति देगा ?
तुम्हें पता भी है कि यह भैरवी-यातना कैसी होती है ? काश ! इस यातना की तीव्रता का अहसास पहुँच पाता तुम तक। पर कितना अजीब है न, तुम ही मुझे इस यातना में छोड़ गए और तुम्हारी ही यादें सुकून भी देती हैं।
तुमने बार-बार मुझे स्पेशल होने का अहसास कराया। कितना स्निग्ध है तुम्हारे स्पर्श का वह अहसास जैसे कोमल फूल की पंखुडियों को कोई इस एहतियात से छुए कि छू भी ले और दाग भी न पड़े कोई। तब तो पीड़ा में भी आनन्द था पर अब कई बार उस आनन्द की खुरचनें भी पीड़ा देती हैं। सोचती हूँ कभी मिल जाओ तो उसी तरह तुम्हारा हाथ थाम केदार घाट की सीढ़ियों पर बैठ तुम्हें सुकून और यातना के दुकूल का यह अनुभव सुनाऊँ।
घर में मम्मी-पापा को सब पता था। यह भी कि तुम अपनी मां को खोने के बाद नितांत अकेले हो गए हो। उन्हें कोई परेशानी नहीं थी इस बात से क्योंकि उनकी अकेली संतान थी मैं। मेरी खुशी में उनकी खुशी। मगर उनको भी खुश कहां रख पाई मैं। तुम तो मोक्ष प्राप्ति के लिए आए थे। मुक्त होने की आकांक्षा थी तुम्हारी, और तुम मुक्त हो गए। न बताया तुमने कि कहां हो, न कभी पूछा था मैंने कि किस शहर की किस गली में घर हुआ करता है तुम्हारा।
बनारस की भूल-भुलैया जैसी गलियां हों या सारनाथ की हरियालियों में फैली विश्रांति….चाहे जितनी भी बार हो आऊँ, वहाँ हर बार तुम्हारे साथ जाकर कुछ नया-सा अहसास होता था। उस दिन गंगा उस पार रेत के फैलाव पर तुम्हारे साथ दौड़ते हुए जैसे मैं अपने किशोर दिनों में चली गई थी। तुम आगे-आगे थे और मैं तुम्हारे पीछे-पीछे। दौड़ते हुए थक कर मैंने अपनी हाँफती साँसों के साथ तुम्हें आवाज़ दिया था- ”जावेद प्लीज स्टॉप …रूक जाओ, अब दौड़ा नहीं जा रहा…”
जब तक मुझे अपनी गलती का अहसास होता और मैं तुम्हें तुम्हारे नाम से पुकारती तुम वापस आ गए थे… ”क्या कहा…. जावेद?”
”जाने कैसे निकल गया मुंह से। कभी उसके साथ खूब लम्बी रेस लगाया करती थी। तुमने उन्हीं दिनों की याद दिला दी अयन!”
तुम मुस्करा कर रह गये थे।
हम वहीं बैठ गए रेत पर। दिन बीत रहे थे, माहौल में एक उमस थी। मैंने महसूस किया थोड़े अनमने से हो गए थे तुम। घाट पर पसरा सन्नाटा जैसे हम दोनों के बीच आ कर बैठ गया था। उस दिन हम जल्दी ही घर लौट आए थे। हमेशा की तरह मुझे तुम घर तक छोडने आए… पर हमारे साझे पदचापों के बीच उस दिन एक गाढ़ी चुप्पी ने डेरा डाल दिया था।
जाने क्यों उसी दिन मां ने पूछा था तुमसे- ”क्या सोचा है तुमलोगों ने?”
”आंटी, बस कोई नौकरी मिल जाए। अपराजिता को घुमाने लायक तो हो जाऊँ… इसने तो बनारस का चप्पा-चप्पा दिखा दिया मुझे।”
”कहां, कश्मीर न?” मां मुझसे मुखातिब हुईं फिर खुद ब खुद बताने लगीं… ” इसे कश्मीर जाने का बहुत मन है। इसकी ज़िंदगी के शुरुआती सोलह साल वहीं गुजरे हैं। बहुत मिस करती है यह कश्मीर को। डल झील पर तैरते हाउसबोट, सेब के बगान, बर्फबारी… सबकी बहुत याद आती है इसे…”
” और जावेद की? ” अयन मुझसे पूछ रहा था।
”ऑफकोर्स हां !” तुम्हारे सवाल से खीजी थी मैं। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि तुम उन दिनों बार-बार जावेद का जिक्र क्यों करते थे। तुम्हारे इस रवैये के प्रति मेरी यह प्रतिक्रिया थी या कुछ और, कश्मीर जाने की मेरी इच्छा जैसे और तेज हो गई थी…। वैसे भी आए दिन मीडिया में कश्मीर की चर्चा होती ही रहती है। एक बार जावेद नामक एक आतंकी के मारे जाने की खबर पढ़कर बहुत ही घबरा गई थी मैं। न्यूज़ एंकरों द्वारा निर्मित कश्मीर की छवियों ने पल भर को मुझे एक आशंका से भर दिया था… कहीं वह वही जावेद तो नहीं। पर अगले ही पल मैंने बरजा था खुद को। नहीं, जावेद ऐसा नहीं हो सकता।
तुम्हारी आवाज़ में जावेद का नाम अब भी गूँजता है मेरे इर्द-गिर्द। कहीं से भी चलकर कोई बात आती है और लगता है, तुम बोल रहे हो मेरे आसपास। कितना अजीब है न यह कि कोई पंक्ति…कोई बात या कोई मुहावरा जो तुम कभी बोल चुके हो, वो अब मेरे सामने आता है तो तुम्हारी आवाज़ बनकर। शब्द बड़े पहचाने से लगते हैं और स्वर तो जैसे तुम्हारे अलावा कोई बोल ही नहीं सकता।
उस रात बारिश हुई थी बहुत तेज। गंगा घाट किनारे रोज की तरह बैठे थे कि अचानक बरस पड़े बादल। दौड़कर छतरी के नीचे छिप गये थे हम। भीगा बदन कांपने लगा था मेरा। तुम्हारी चढ़ती सांसों ने जता दिया था कि बाहर की सर्दी अंदर की तपिश से हारने वाली है। कोई नहीं था आसपास। हाँ, दूर दो-एक चिताओं की धुआँती लपटें जरूर बारिश के बूंदों से लड़ने की कोशिश कर रही थीं। जिसे जहां जगह मिला भाग गया। वैसे भी हमारी तरह का पागल कौन होता जो मणिकर्णिका के आसपास प्रेम की माला में सांसों की मोतियाँ पिरोता। घाट की नीरव शांति के बीच तुम्हारे बाँहों का कसाव हमारे लिए कोई नई बात नहीं थी… पर नहीं जानती कि पल के सौंवे हिस्से में मेरे अंदर क्या कौंधा था उस दिन और मैंने तुम्हें रोक दिया था।
“चलो अयन, देर हो रही है… हम घर चलते हैं…। सुबह ही कश्मीर के लिए निकलना है। मम्मी पैकिंग के लिए मेरा इंतज़ार कर रही होंगी…।”
तुमने झटके से बाहों के बंधन ढीले कर दिए और मेरी हथेली थाम उसे रगड़कर गर्म करने की कोशिश करने लगे थे। कुछ पलों के मौन के बाद नरमाई से कहा था तुमने – ” तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है…।”
मैं जूझ रही थी खुद से। जाने क्या चाहिए था मुझे। शायद यह अतीत का आकर्षण था जो अपनी अनिश्चितताओं के बावजूद मुझे खींचे जा रहा था। जाने क्यों यह अहसास हुआ कि तुम्हारा हाथ ही नहीं, साथ भी छूट रहा है। मैं डर गई थी। ऐसा तो मैंने कभी नहीं चाहा।
किसी अंत की शुरुआत थी वह शायद। तुम साथ थे…प्रेम छूट रहा था। मैंने तो हर पल सहेजने की ही कोशिश की थी, पर नहीं जानती थी कि साथ रहते भी साथ छूटता जाता है।इस बात को समझने में बहुत वक्त लग गया कि प्रेम भी छीजता है… कई बार अकारण ही।
मुझे अतीत इतना खींच रहा था कि वर्तमान को रोक कर रखना चाहती थी। अकेलापन से बड़ा दुख कोई और नहीं, यह तुम्हें देखकर महसूस किया था मैंने। कोई न जाए मेरे पास से, मैं न जाऊं कहीं दूर….नित यही प्रार्थना करती रही। मैं बचाना चाहती थी तुम्हें…खुद को….अपने रिश्ते को और उस अतीत को भी जिसकी स्मृतियाँ बार-बार खींचती थी मुझे। अंकल के कहे शब्द बार-बार याद आने लगे थे… बड़ी होकर आना एक बार, हम इंतजार करेंगे। झील पर शिकारे में घूमने, कमल के फूल को छूने और चिनार के लाल पत्तों पर चलने की ख्वाहिश इतनी बुरी तो न थी। उन मासूम और अल्हड़ दिनों में डल की सतह पर तैरते हाउसबोट पर दिन-रात गुजारना और यहाँ गंगा की धारा पर हिचकोले खाते नाव की सैर अलग होकर भी मेरे लिए कभी अलग नहीं रहे। गंगा से डल को जोड़ती उन अदृश्य तरंगों को महसूसने से बड़ा कोई सुख नहीं था मेरे लिए। पर सारे सुख छलावा ही होते हैं, कहाँ पता था तब…..
शाम का अंधेरा घना हो गया है। दशाश्वमेध घाट से घंटे-घड़ियाल के साथ आरती का स्वर आना भी बंद हो गया है। बस दूर लहरों पर दीप जलते दिख रहे हैं। रोज की तरह आज भी वह बच्ची मेरे बगल में दीप और माचिस रख गई है। कभी हर शाम हमदोनों फूल के दोने के ऊपर कपूर की टिकिया जलाकर प्रवाहित करते थे। अब मैं अकेले ही दो दीये एक साथ प्रज्वलित कर गंगा को अर्पित करती हूं।
सामने की दीवार पर बैठे वे तीन कबूतर जाने किधर गए… पर कबूतरों का एक झुंड उतर आया है घाट पर। किसी पक्षी-प्रेमी ने जरूर दाना डाल दिया होगा।
याद आया कश्मीर में चरार-ए-शरीफ की दरगाह के ऊपर भी ढेर सारे कबूतर चक्कर काट रहे थे… कश्मीर पहले-सा कश्मीर नहीं रहा। चारों तरफ फौज ही फौज भरी है वहां। हाउसबोट और शिकारों से भरी डल झील की खूबसूरती भी कहीं से सहमी हुई-सी लगती है।
अलिफा हाउसबोट जिसके पर्दे पर लाल-लाल बड़े फूलों का प्रिंट हुआ करता था मुझे कहीं नहीं दिखा… जगह-जगह खोजने के बाद भी जब अंकल, आंटी और जावेद का कोई ठिकाना नहीं मिला मैं सूफी संत नूरुद्दीन नूरानी जिन्हें नुंद ऋषि भी कहा जाता है, की दरगाह में हाजिरी लगाने गई थी। वहां हिन्दू और मुस्लिम दोनों की श्रद्धा है। मैं वहाँ मन्नत के रंगीन धागे बांध आई। सुना है बाबा के मेहर से सब की मुरादें पूरी होती हैं।
धागा बांधकर जब मैं लकड़ी की जालियों से अंदर झांकने की कोशिश कर रही थी तो वहां अरबी या उर्दू में लिखी कुछ पंक्तियाँ नज़र आईं… शायद कोई पाक आयातें होंगी… उन्हें नहीं पढ़ पाने का बहुत अफसोस हुआ था। मगर वहाँ की हवाओं में कुछ ऐसा था जिसने एक रूहानी सुकून से भर दिया था मुझे… यह ठीक वैसा ही था जैसा गंगा घाट पर लगता है। लोगों ने बताया कि उस दरगाह को कई बार क्षति पहुंचाने की कोशिश हुई… मन्नत का रंगीन धागा बांधते हुए मेरे मन में चरार-ए-शरीफ की सलामती की दुआएं और आंखों में दरगाह पर लिखी उन आयतों की कौंध के बीच कानों में गंगालहरी के श्लोक गूंज रहे थे।
कबूतरों के झुंड के गायब होते ही जैसे मैं किसी नींद से जागी थी। मणिकर्णिका घाट की चिताओं से जलता धुआं बहुत ऊपर तक जा रहा है। दूर लाउडस्पीकर पर कहीं से रामचरितमानस के पाठ की आवाजें फिजाँ में गूंज रही हैं। बनारस इतने साल रहकर भी कभी यहाँ चैत्र नवरात्रि के सातवें दिन नहीं आ पाई । मगर इस साल जरूर जाऊंगी श्मशान महोत्सव में….नगर वधुओं का नृत्य देखने, भैरवी यातना में बदल चुकी उन स्मृतियों से दूर जाने की प्रार्थना करने…।
रश्मि शर्मा
राँची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक, इतिहास में स्नात्कोत्तर।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविता, लेख, यात्रा-वृतांत, लघुकथा, हाइकु आदि का नियमित प्रकाशन।
कहानी – संग्रह – ‘बंद कोठरी का दरवाजा ‘ ( सेतु प्रकाशन)
तीन कविता-संग्रह ‘ नदी को सोचने दो’ (बोधि प्रकाशन), ‘मन हुआ पलाश’ और ‘वक़्त की अलगनी पर’ (अयन प्रकाशन) प्रकाशित।
यात्रा वृत्तांत – झारखंड से लद्दाख ( प्रभात प्रकाशन)
संपादन – धूप के रंग ( कविता-संग्रह) हिंद-युग्म से प्रकाशित।
फेलोशिप एवं सम्मान
सी.एस. डी. एस .नेशनल इनक्लूसिव मीडिया फेलोशिप (2013 )
सूरज प्रकाश मारवाह साहित्य रत्न सम्मान – (2020)
शैलप्रिया स्मृति सम्मान – (2021)
झारखंड गौरव सम्मान – ( 2024 )
‘निर्वसन’ कहानी को कथा-संवेद श्रेष्ठ कहानी चयन में प्रथम स्थान (2020-21)
कुछ कहानी/ कविताओं का अंग्रेजी और मराठी में अनुवाद
संप्रति –
एक दशक तक सक्रिय पत्रकारिता करने के बाद अब पूर्णकालिक रचनात्मक लेखन एवं स्वतंत्र पत्रकारिता।
संपर्क – आदर्श फार्मा, रमा नर्सिंग होम, शर्मा लेन, मेन रोड, रांची, झारखंड – 834001
फोन – 9204055686
ई मेल – rashmiarashmi@gmail.com
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यह कहानी अप्रत्याशित रूप से निर्मल वर्मा की कहानियों के शिल्प की याद दिलाती है। रश्मि समर्थ कहानीकार हैं। उनसे उम्मीदें बढ़ गयी हैं।
यह कहानी क अप्रत्याशित रूप से अपनी संघन बनावट में निर्मल वर्मा के शिल्प की याद दिलाती है। रश्मि एक समर्थ कहानीकार के रूप में और संभावनाओं से भरी हुई दिखती हैं। उम्मीद है कि भविष्य में कुछ यादगार कहानियाँ वे हिन्दी को देंगी।
समकालीन कहानियों की भीड़ से बिल्कुल अलग रश्मि शर्मा की यह कहानी’ महाश्मशान में राग-विराग ‘हमेंजहाँ एक ओर बनारस की विरासत औ र गौरवमयी परम्परा की मनमोहक व लुभावन छवियों को अक्षुण्ण बनाये रखने की याद दिलाती है ,वहीं दूसरी तरफ कश्मीर की सुन्दरता की बखान के साथ वहाँ की नष्ट होती रमणीयता औ र प्राकृतिक सुन्दरता की विलुप्त होती आकर्षक व मोहक दृश्यों की खोज भी करती है।
प्रेम पर आधारित यह कहानी भाषा औ र शिल्प की गहन बुनावट के साथ साथ शब्दों के चयन की बारीकियों से भी रुबरु कराती है। प्रेम पर हर रोज कोई न कोई कहानी कही औ र लिखी जा रही है।लेकिन प्रेम की काया को तो कहानीकार गढ़ लेते हैं ,लेकिन उस काया के अंदर प्रेम की सुन्दर आत्मा को उप स्थापित करने में अक्सर असफल रहते हैं।इसके दो प्रमुख कारण हैं-एक तो वो प्रेम के शाश्वत स्वरुप से परिचित नहीं हैं औ र दूसरा वे जिस प्रेम में कहानी के फ्रेम को गढ़ रहे होते है,वे आज के समय के सच औ र सामजिक सरोकार से बहुत अलग थलग होते दिखते हैं।
दरअसल प्रेम को अतीत की स्मृतियों से समेट कर वर्तमान के सांचे में ले जाना बड़ा ही दुष्कर कार्य है।
कहानी में बिम्ब का चयन औ र उसके अनुकूल पात्रों के संवाद की कडियों को सजाना कम मुश्किल नहीं है।
रश्मि शर्मा द्वारा लिखित कहानी उपन्यास के फलक से भी ज्यादा भावनाओं में डुबोती हैं कुछ इस तरहप्रतीत होते जैसे कहीं न कहीं हम भी काश इस कहानी के पात्र हो पाते!
रश्मि शर्मा को बधाई औ र शुभकानाएं!
कहानी पर वृहद समीक्षा बाद में,,,,,