काजी नज़रुल इस्लाम रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद बांग्ला कविता के सबसे महत्त्वपूर्ण और विद्रोही कवि थे। उन्हें आधुनिकता का अग्रदूत माना जाता है। 1899 में पश्चिम बंगाल के बर्धमान के चुरुलिया में जन्मे काजी नज़रुल इस्लाम सेना में हवलदार थे। उनका साहित्यिक जीवन कराची की बैरकों से शुरू हुआ। नज़रुल ने कविताओं के साथ निबंध और उपन्यास भी लिखे।
1972 में जब नया बांग्लादेश बना , नज़रुल को सादर बांग्लादेश ले जाया गया और उन्हें राष्ट्रकवि का दर्ज़ा प्रदान किया गया।
नज़रुल ने 1922 में आनन्दमयीर आगमने ( आनन्दमयी के आगमन पर ) शीर्षक कविता लिखी थी जो अंग्रेज सरकार को प्रतिक्रियादी और आपत्तिजनक लगी। अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ़्तार किया और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया।
नज़रुल ने अदालत में ‘राजबन्दी का बयान’ के रूप में अपना पक्ष रखा।
प्रस्तुत है यह बयान। मूल बांग्ला से अनुवाद उत्पल बॅनजीॅ ने किया है।
– हरि भटनागर

 

नज़रुल इस्लाम के सम्पादन में प्रकाशित बँगला साप्ताहिक पत्रिका ‘धूमकेतु’ में 26 सितंबर, 1922 को स्वयं नज़रुल की एक कविता प्रकाशित हुई थी, जिसका शीर्षक था ‘आनन्दमयीर आगमने’ (आनन्दमयी के आगमन पर)। इस कविता को अंग्रेज़ सरकार ने घोर प्रतिक्रियावादी तथा आपत्तिजनक मानते हुए नज़रुल को गिरफ्तार किया था और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला कर उन्हें एक वर्ष सश्रम कारावास का दण्ड दिया गया था । इस कविता में महिषासुर मर्दिनी देवी दुर्गा का एक रूपक था, जिसमें देवी के आह्वान के माध्यम से देश की तत्कालीन राजनीतिक हताशा और उदासीनता को अभिव्यक्त किया गया था ।

चीफ़ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट की अदालत में सुनवाई के दौरान नज़रुल ने अपना पक्ष रखते हुए जो बयान दिया था, उसे ही हम ‘राजबन्दी का बयान’ के रूप में जानते हैं। नज़रुल ने 7 जनवरी, 1923 की दोपहर, कलकत्ते के प्रेसिडेंसी जेल में रहते हुए यह बयान लिखा था। तत्कालीन राजनीतिक परिवेश एवं देश के हालात के मद्देनज़र नज़रुल का यह बयान जहाँ एक ओर उनके अदम्य साहस को दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर उनकी जनोन्मुखी पक्षधरता को भी सुस्पष्ट करता है।

-उत्पल बैनर्जी

 

राजबन्दी का बयान

मेरे ऊपर अभियोग है कि मैं राजद्रोही हूँ! इसलिए आज मैं राजकारागार में बन्दी हूँ और राजमहल के दरवाज़े पर अभियुक्त की तरह खड़ा हूँ।
एक ओर राजा का मुकुट है, तो दूसरी ओर है धूमकेतु की शिखा। एक ‘राजा’ है, उसके हाथ में राजदण्ड है, दूसरा ‘सत्य’ है, उसके हाथ में न्यायदण्ड है। राजा के पक्ष में स्वयं राजा द्वारा नियुक्त वेतनभोगी राज-कर्मचारी हैं। मेरी ओर है — सब राजाओं का राजा, सब न्यायाधीशों का न्यायाधीश, आदि-अन्तकाल से सत्य-जागृत भगवान। मेरे न्यायाधीश को किसी ने नियुक्त नहीं किया है। इस महान्यायाधीश की दृष्टि में राजा-प्रजा, धनी-निर्धन, सुखी-दुखी सभी समान हैं। उसके सिंहासन में राजा के मुकुट और भिखारी के इकतारे को पास-पास जगह मिलती है। उसका क़ानून किसी विजेता मानव और किसी विजित जाति-विशेष के लिए नहीं तैयार किया गया है। उसने यह क़ानून विश्व-मानव के सत्य की उपलब्धि के लिए बनाया है। यह क़ानून सार्वजनीन सत्य का है, यह क़ानून सार्वभौमिक भगवान का है। राजा के पक्ष में है परमाणु-जैसी परिमाण वाली खण्ड-सृष्टि, जबकि मेरे पक्ष में है — आदि-अन्तहीन अखण्ड स्रष्टा । राजा के पीछे क्षुद्र है और मेरे पीछे रुद्र। जो लोग राजा की ओर हैं, उनका लक्ष्य स्वार्थ है, अर्थलाभ है, मेरी ओर जो हैं उनका लक्ष्य सत्य है, परम आनन्द है। राजा की वाणी बुलबुले की तरह है, मेरी वाणी सीमाहीन समुद्र है। मैं कवि हूँ, मैं अप्रकाशित सत्य के प्रकाशन के लिए, अमूर्त सृष्टि को मूर्तिमान करने के लिए भगवान की प्रेरणा से प्रेरित हूँ। कवि के कंठ में ईश्वर की पुकार है। मेरी वाणी सत्य को प्रकाशित करती ईश्वरीय वाणी है। यह वाणी राजा के विचार से राजद्रोही हो सकती है, लेकिन न्याय-विचार से वह वाणी न्यायद्रोही नहीं है, सत्यद्रोही नहीं है। यह वाणी राजद्वार पर दण्डित हो सकती है, लेकिन धर्म के आलोक में, न्याय के दरवाज़े पर वह निरपराध है, निष्कलुष, अम्लान, अशेष सत्यस्वरूप है ।
सत्य स्वयं-प्रकाशित होता है। उसे कोई रक्तिम-आँखें राजदण्ड के बल पर नहीं रोक सकती। मैं उसी चिरन्तन स्वयं-प्रकाश की वीणा हूँ; जिस वीणा से सत्य की वाणी ध्वनित हुई थी। मैं भगवान के हाथों की वीणा हूँ। वीणा तोड़ने से टूट सकती है, लेकिन भगवान को कौन तोड़ सकता है? यह धु्रव सत्य है कि ‘सत्य’ है, ईश्वर हैं — चिरकाल से हैं और हमेशा रहेंगे। आज जिसने सत्य की वाणी को अवरुद्ध किया है, सत्य की वाणी को मूक करना चाहा है, वह भी ‘उसी’ का क्षुद्र से भी क्षुद्र परमाणु-भर ही तो है। उसी के इशारे; उसी की इच्छा से आज वह है; कल शायद न रहे! नासमझ इनसान के अहंकार की कोई हद नहीं! जिसने इस सृष्टि को रचा, वह उसी को बन्दी बनाना चाहता है; सज़ा देना चाहता है। लेकिन इस अहंकार को एक दिन आँखों के आँसुओं में डूबना ही है!
खैर, मैं कह रहा था कि मैं तो सत्य को प्रकट करने का साज़-भर हूँ। इस साज़ को कोई निर्मम शक्ति अवरुद्ध करना चाहे, तो कर सकती है, लेकिन ‘जो’ उस साज़ को बजाते हैं, उन्हें कौन अवरुद्ध करेगा? उस विधाता का विनाश कौन कर सकता है? मैं मरणशील हूँ, लेकिन मेरा विधाता अमर है। मैं मर जाऊँगा, राजा भी मरेगा, क्योंकि मुझ-जैसे बहुत-से राजद्रोही मरे हैं, और इस तरह इल्ज़ाम लगाने वाले बहुत-से राजा भी मरे हैं, लेकिन किसी भी काल में, किसी भी वजह से सत्य का प्रकाश अवरुद्ध नहीं हुआ, उसकी वाणी मरी नहीं। वह आज भी अपने आप को उसी तरह प्रकाशित कर रहा है और हमेशा करता रहेगा। मेरी यह सत्ता-निरुद्ध वाणी दोबारा औरों के कंठों में फूट पड़ेगी। मेरे हाथ से वंशी छीन लेने-भर से वंशी के स्वरों की मृत्यु नहीं होगी, क्योंकि मैं कोई दूसरी वंशी लेकर या फिर तैयार कर के उसमें से फिर वही स्वर निकाल सकता हूँ। स्वर मेरी वंशी में नहीं हैं, सुर तो मेरे मन और मेरी सर्जना के कौशल में हैं! इसलिए दोष न तो वंशी का है और न ही सुरों का, दोष मेरा है, जो कि उसे बजाता है। इसी तरह जो वाणी मेरे कंठ से फूटी है, उसके लिए ज़िम्मेदार मैं नहीं हूँ। दोष न तो मेरी वीणा का है और न ही मेरा; दोष ‘उनका’ है जो मेरे कंठ में अपनी वीणा बजाते हैं। इसलिए राज-विद्रोही मैं नहीं। मुख्य राज-विद्रोही तो वही वीणा-वादक भगवान हैं। उसे सज़ा देने वाली कोई राजशक्ति या कोई दूसरा भगवान नहीं है। उसे क़ैद कर सके ऐसी कोई पुलिस या जेलख़ाने का निर्माण आज तक नहीं हुआ है ।
राजा द्वारा नियुक्त राज-अनुवादक ने राजभाषा में उस वाणी की केवल भाषा का अनुवाद किया है, उसके प्राणों का अनुवाद नहीं किया, उसके सत्य का अनुवाद वह नहीं कर सका। उसके अनुवाद से राजा के प्रति विद्रोह की ध्वनि निकल रही है, क्योंकि उसका उद्देश्य राजा को ख़ुश करना है, जबकि मेरे लिखे हुए से सत्य, तेज और प्राण फूट पड़े हैं। क्योंकि मेरा उद्देश्य भगवान की पूजा है। उत्पीड़ित आर्त्त विश्ववासियों के पक्ष में मैं सत्य का जल हूँ, ईश्वर की आँखों के आँसू हूँ। मैंने राजा के खिलाफ़ विद्रोह नहीं किया, अन्याय के विरुद्ध विद्रोह किया है। मैं जानता हूँ तथा मैंने देखा है आज इस अदालत में मुलज़िम के कठघरे में मैं अकेले नहीं खड़ा हूँ, मेरे पीछे स्वयं सत्य-सुन्दर भगवान भी खड़े हैं। युगों-युगों से वे इसी तरह चुपचाप अपने राजबन्दी सत्य-सैनिकों के पीछे आ खड़े होते रहे हैं। राजा द्वारा नियुक्त न्यायाधीश सत्य का पक्षधर नहीं हो सकता। ऐसे ही न्याय का नाटक करके जिस दिन ईसा को सूली पर चढ़ाया गया था, गाँधी को जेल में क़ैद किया गया था, उस दिन भी भगवान ऐसे ही चुपचाप उनके पीछे आ खड़े हुए थे। न्यायाधीश लेकिन उन्हें नहीं देख सका था, उसके और भगवान के बीच में तब सम्राट खड़े हुए थे। डर के कारण उसका विवेक, उसकी दृष्टि अंधी हो गई थी। अन्यथा वह अपने इस न्याय के आसन पर डर के मारे थर-थर काँप उठता, नीला पड़ जाता। अपनी न्याय की गद्दी के साथ जलकर राख हो जाता!
न्यायाधीश जानता है कि मैं जो भी कह रहा हूँ, जो भी लिख रहा हूँ, वह भगवान की नज़र में अपराध नहीं है, न्याय की कचहरी में झूठ नहीं है! लेकिन फिर भी हो सकता है वह सज़ा दे। क्योंकि वह सत्य के नहीं, राजा के साथ है। वह न्याय के नहीं, क़ानून के साथ है। वह स्वाधीन नहीं है, वह राजा का भृत्य है। फिर भी पूछ रहा हूँ, यह जो न्याय की गद्दी है, यह किसकी है? राजा की है या धर्म की? यह जो न्यायाधीश है, अपने न्याय के लिए राजा के प्रति इसकी जवाबदेही है या अपने अन्तर्मन के आसन पर प्रतिष्ठित विवेक के प्रति, सत्य के प्रति, भगवान के प्रति? इस न्यायाधीश को कौन पुरस्कृत करता है? राजा या कि भगवान? पैसा या कि आत्मसन्तुष्टि?
मैंने सुना है, मेरा न्यायाधीश एक कवि है। सुनकर आनंदित हुआ हूँ कि विद्रोही कवि के मामले की सुनवाई कवि-न्यायाधीश करेगा। लेकिन ढलती शाम की नाव इस चतुर न्यायाधीश को हाथ के इशारे से बुला रही है और रक्तिम-उषा का नवीन-शंख मेरी अनागत-विपुलता का स्वागत कर रहा है। ‘उसे’ मृत्यु पुकार रही है, जबकि मुझे जीवन आवाज़ दे रहा है। इसलिये हम दोनों के डूबते और उदित होते तारों का मिलन होगा या नहीं, कह नहीं सकता। (… नहीं, मैंने फिर एक बार व्यर्थ की बात कही!)
आज भारत पराधीन है। उसके बाशिन्दे ग़ुलाम हैं। यह खाँटी सत्य है। लेकिन ग़ुलाम को ग़ुलाम कहने पर, अन्याय को अन्याय कहने पर, इस राज में उसे राजद्रोह ठहराया जाएगा। ऐसा लेकिन न्याय के शासन में नहीं हो सकता। यह जो ज़बर्दस्ती सच को झूठ, अन्याय को न्याय और दिन को रात कहलवाना …..! सत्य क्या इसे सहन कर सकता है? ऐसी सत्ता क्या चिरस्थायी हो सकती है? इतने दिन हो सकी थी, क्योंकि शायद तब सत्य उदासीन था। लेकिन आज सत्य जाग उठा है, इस बात को सत्यदृष्टा जागृत आत्माओं ने विशेष रूप से अनुभव कर लिया है। इस अन्यायी सत्ता द्वारा प्रताड़ित बन्दी सत्य का पीड़ित क्रन्दन मेरे कण्ठ से फूट पड़ा था, क्या इसलिये मैं राजद्रोही हूँ? यह क्रन्दन क्या अकेले मेरा है? नहीं, यह मेरे कण्ठ में उस उत्पीड़ित निखिल नीरव क्रन्दन की सम्मिलित मुखर अभिव्यक्ति है, मैं जानता हूँ मेरे कण्ठ का यह प्रलय हुंकार अकेले मेरा नहीं है, वह तो समस्त आर्त्त, पीड़ित आत्माओं की तक़लीफ़ों की पुकार है। मुझे भय दिखाकर, मार कर इस क्रन्दन को रोका नहीं जा सकता। अकस्मात कभी मेरे कण्ठ की यह खोई हुई आवाज़ ही किसी और कण्ठ में गर्जन कर उठेगी!
भारत आज पराधीन न होकर इंग्लैंड यदि भारत का ग़ुलाम होता और निहत्थे, उत्पीड़ित इंग्लैंडवासी अपनी जन्मभूमि की स्वतंत्रता के लिए वर्तमान भारतवासियों की तरह अधीर हो उठते, और ठीक उसी समय मैं ऐसा ही एक न्यायाधीश होता और मेरी ही तरह राजद्रोह के अपराध में गिरफ़्तार यही न्यायाधीश मेरे सामने सुनवाई के लिए खड़ा होता, तो फिर उस समय यही न्यायाधीश मुलज़िम के कठघरे में खड़े होकर जो कहता, मैं वही और उसी तरह करता चल रहा हूँ।
मैं परम आत्मविश्वासी हूँ। और जिसे अन्याय समझा है, अत्याचार को अत्याचार कहा है, झूठ को झूठ कहा है, किसी की ख़ुशामद नहीं की, प्रशंसा और प्रसाद के लालच में किसी की बातों का अंध-समर्थन नहीं किया है। मैंने केवल राजा के अन्याय के विरोध में विद्रोह नहीं किया है, समाज, जाति और देश के विरुद्ध मेरे सत्य ने तलवार के तीव्र आक्रमण के समान विद्रोह की घोषणा की है। इस कारण से घर और बाहर का विद्रूप, अपमान, लांछन आघात मेरे ऊपर बेहिसाब बरसते रहे हैं। लेकिन किसी भी डर से अपने सत्य; अपने भगवान को, मैंने आत्म-उपलब्धि को बेचा नहीं, अपने साधनालब्ध विपुल आत्मप्रसाद को कभी बौना नहीं होने दिया, क्योंकि मैं भगवान का प्रिय जो हूँ, सत्य के हाथ की वीणा, मैं कवि जो हूँ, मेरी आत्मा सत्यदृष्टा ऋषि की आत्मा जो है। मैंने अजानी असीम पूर्णता के साथ जन्म लिया है। यह मेरा अहंकार नहीं, आत्म-उपलब्धि की, आत्मविश्वास की, चेतनालब्ध सहज सत्य की सरल स्वीकारोक्ति है। मैं अंधविश्वास की वजह से, किसी फ़ायदे के लालच में, राजा या अवाम के डर से झूठ को स्वीकार नहीं कर सकता। अत्याचार को स्वीकार नहीं कर सकता। अन्यथा मेरा देवता मुझे त्याग देगा। मेरे इस देह-मंदिर में जाग्रत देवता का आसन है तभी तो लोग इस मंदिर को पूजते हैं, श्रद्धा प्रकट करते हैं, लेकिन देवता के कूच करने पर इस शून्य में फिर बचेगा क्या? कौन इसे पूछेगा? इसीलिए मेरे कण्ठ में कालभैरव का प्रलय-तूर्य बज उठा था, मेरे हाथ में धूमकेतु की अग्नि-पताका लहरा उठी थी, उस सर्वनाशा ध्वजा के पीछे मंदिर के देवता ने नट-नारायण रूप धरकर ध्वंस-नर्तन किया था। यह ध्वंस-नृत्य सृष्टि की पूर्वसूचना है। और इसीलिए मैंने निर्मम, निर्भीक, उन्नत सिर लिए वह ध्वजा सम्हाली थी, उसका तूर्य बजाया था, अनागत अवश्यमभावी महारुद्र की तीव्र पुकार मैंने सुनी थी, उनकी रक्तिम-आँखों का हुक़्म मैंने इशारों से ही समझ लिया था। मैं तभी समझ गया था कि मैं सत्य की रक्षा के लिए, न्याय के उद्धार में संलग्न विश्व-प्रलय सेना का लाल सैनिक हूँ। बंगाल के स्याह श्मशान की मायानिद्रित भूमि पर उन्होंने मुझे अग्रदूत बनाकर भेजा था। मैं साधारण-सा सैनिक हूँ, मेरी जितनी क्षमता थी, उसके आधार पर मैंने उनके आदेश का पालन किया है। उन्हें पता था…
पहली चोट मेरे ही सीने पर होगी, इसलिए मैंने इस बार प्रलय घोषणा के आघात को सबसे पहले झेलते हुए सैनिक के रूप में अपने आपको गौरवान्वित अनुभव किया है। कारागार से मुक्त होकर मैं जब फिर चोट खाया सीना और अपमान से लहूलुहान अपना ललाट उनके अभय चरणों में लेकर झुक जाऊँगा, तब उनकी करुणासिक्त दृष्टि की संजीवनी मुझ थके हुए को फिर से जीवित और अनुप्राणित कर देगी। उस दिन नया आदेश लेकर, नई प्रेरणा से प्रेरित होकर मैं एक बार फिर उनकी तलवार की छाया में जा खड़ा होऊँगा। उस दिन उनका नया आदेश लेकर नई प्रेरणा से चैतन्य होकर मैं एक बार फिर उनकी तलवार की छाया में जा खड़ा होऊँगा। उस घटाटोप में जो अभी तक नहीं आई; उस रक्त-उषा की उम्मीद, उसका आनंद, मेरे कारावास को — मैं अमृत का पुत्र हूँ, हँसी और गीतों कलोच्छ्वास से स्वर्ग में परिणत कर देंगे। निरीह शिशु के प्राण के उच्छल आनंद की पारसमणि से, उपेक्षित लोहे को मणिकांचन में बदल देने की शक्ति ईश्वर ने मुझे बिना माँगे ही दे दी है। मुझे कोई डर नहीं, मुझे कोई दुःख नहीं; क्योंकि भगवान मेरे साथ हैं। मेरे अधूरे कर्त्तव्य औरों के द्वारा सम्पन्न होंगे। सत्य की प्रकाशपीड़ा अवरुद्ध नहीं होगी। मेरे हाथ का धूमकेतु इस बार भगवान के हाथ की अग्निमशाल बन कर अन्याय और अत्याचार को जला डालेगी। इस बार मेरे अग्नि-विमान के सारथी होंगे स्वयं रुद्र भगवान! अतः डरने की कोई बात नहीं !
कारागार में मेरी बन्दिनी-माँ की अँधेरी-शांत गोद ने इस अबोध पुत्र को आवाज़ दी है! पराधीना अनाथिनी जननी की गोद में इस हतभाग्य को जगह मिलेगी या नहीं, नहीं जानता, यदि मिलती है तो न्यायाधीश को अश्रु-सिक्त धन्यवाद दूँगा ।
मैं फिर कह रहा हूँ, मुझे कोई डर नहीं, मुझे कोई दुःख नहीं। मैं अमृतपुत्र हूँ। मैं जानता हूँ अत्याचारी के उत्पीड़न का क्षय होता ही है। मेरा सच मेरे भाग्यविधाता हैं; जिनके हाथों में समस्त शक्तियाँ नियंत्रित हैं।

 


 

 

उत्पल बैनर्जी

जन्म 25 सितंबर, 1967, भोपाल, मध्यप्रदेश।
कवि, अनुवादक।

कविता-संग्रह : ‘लोहा बहुत उदास है’ प्रकाशित।
बँगला से हिन्दी में अनूदित 15 पुस्तकें प्रकाशित। नॉर्थ कैरोलाइना स्थित अमेरिकन बायोग्राफ़िकल इंस्टीट्यूट के सलाहकार मण्डल के मानद सदस्य तथा रिसर्च फ़ैलो। बँगला कवि श्री शंख घोष के आलोचनात्मक गद्य की किताब `निःशब्द की तर्जनी’ के अनुवाद के लिए अमर उजाला फाउंडेशन का अखिल भारतीय `भाषा बंधु’ सम्मान, 2019.

इंदौर में निवास।

बँगला नम्बर 6, डेली कॉलेज,
इन्दौर-452 001, मध्यप्रदेश ।


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