फाह्यान सिर्फ़ यात्री भर था या ज्ञान की खोज में और उसे बचाने को निकला एक दु:साहसिक नाविक का प्रतीक जिसने अपने उद्देश्य के लिए अपनी जान तक की परवाह न की? समकालीन कहानी के चचिॅत कथाकार तरुण भटनागर ने प्रस्तुत कहानी का जो केंद्रीय भाव रचा वह इतिहास के पन्नों में खोए ऐसे कई सारे चरित्र – रूपकों को याद करता है जिन्होंने इंसान को चेतनासम्पन्न बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण काम किया। क्या किसी भी देश की ज्ञान -परम्परा को बचाना और उसे सब दूर पहुंचाना पशुता से खीचकर चेतनासम्पन्न करना राजनीति के आगे चलने वाली मशाल नहीं है? तरुण ऐतिहासिक बिम्बों से आज के लेखक के दायित्व की तरफ़ इशारा कर रहे हैं। प्रस्तुत कहानी बहुत सारे यक्ष प्रश्नों को समेटे है जिन पर विचार लाज़मी है।
– हरि भटनागर

कहानी :

(1)

विमलमित्र को तनिक भी भान न था कि वे एक ऐसी अविश्वसनीय घटना को देखने वाले थे, जिसके एकमात्र साक्षी वे और सुमति होते। उस घटना को लगभग दो हजार साल हुए। वह किताबों में है। तमाम देशों की तमाम किताबों में।
विमलमित्र काषाय वस्त्र पहनते। सूत का बना काषाय चीवर। चीवर के अधोवस्त्र याने अन्तरवासक को कमर पर इस तरह लपेटते जैसे लुँगी बाँधी जाती है। उस पर चार हाथ लंबा और चार हाथ चौड़ा इकहरी चादर के समान उत्तरासंग पहनते। इत्‍मिनान से। करीने से। कंधे पर दुहरी सिली चादर की सम्घाटि को तह कर डालते। सम्घाटि को बिछाते।ओढ़ते। यह कतई सुविधाजनक नहीं। उन्‍हें सुविधा की बात बचकानी लगती है। तेज़ ठण्ड में भी, जब इतने कम वस्त्रों से काम चलाना होता है। उस रोज चलने से पहले उन्‍होंने आँखें बंद कीं। उन्‍हें तथागत के पदचिन्ह दिखाई दिये। उनकी पलकें भीग गईं। लंबे डग भरते वे चल पड़े। जितनी चाल में तेज़ी उतना ही मन में धैर्य। वे धर्मभाणकभिक्खु हैं। जब कहीं रुकते हैं तो लोग उनके पास घिर आते हैं और वे उन्हें तथागत का संदेश सुनाते हैं – ‘…भन्ते इसका नाम विप्लव है। यह एक दास है। ध्वजहृत दास। एक युद्धबंदी। पिछले महीने राजाज्ञा हुई थी कि इसे दासता से मुक्ति मिले। इस तरह अठारह साल बाद यह दासता से मुक्त हुआ और अपने गाँव लौट पाया..’ – सुमति बताते हैं और विमलमित्र सामने बैठे विप्लव की आँखों के आर-पार देखते हैं। उन्होंने ध्वजहृतों की एक कतार देखी थी। हाथों में रस्सियाँ और झुके चेहरे। उनमें औरतें और कम उम्र के बच्चे भी थे। कतार में सबसे आगे राजा का वधिक था, हाथों में खड्ग लिये और कुछ सैनिक, कतार के आगे-पीछे। वे उन्हें वधशाला की ओर ले जा रहे थे, उन्हें मृत्युदण्ड देने। उनका अपराध था कि उनका राजा युद्ध हार चुका था। वे हारे हुए देश के लोग थे। उनकी बस्तियाँ, उनके घर लावारिस थे। वे सर झुकाये वधिक के पीछे-पीछे वधशाला की ओर कतार से चल रहे थे। विमलमित्र ने विप्लव के सिर पर अपना हाथ रखा। उनकी उंगलियाँ काँप उठीं।
वे जंगल से गुजर रहे थे। उन्हें जंगल में कुछ लोग मिले। शिकार कर अपना पेट भरने वाले मेद और चुँचु, सुअर पालने वाले संकरिये और चमड़े का काम करने वाले घिग्वण। वे उनके लिए फूल, जल और खाने के लिए अनाज लाये थे। सुमति ने उन्हें बताया कि वे दोनों पिछले तीन दिनों से लगातार चल रहे हैं। यह सुन उन लोगों ने उन दोनों के विश्राम के लिए जंगल में ही एक आश्रय बना दिया। फूस का आश्रय जो एक नदी के किनारे था। शाम को विमलमित्र ने नदी में घुटना-घुटना पानी में उतरकर अपने चीवर के किनारे को पानी में भिगो लिया था और भीगे किनारे से अपना मस्तक पोंछ रहे थे। उसी समय उन्होंने वह दृश्य देखा। दूर दिखते जंगल में आग लगी हुई थी। उन्होंने सुमति को पुकारा। आसमान पर धुँये के बादलों का झुण्ड था और वातावरण में लकड़ी के जलने की बू। नदी के पानी में खडे़ दोनों भिक्खुओं ने जलते पेडों के लिए प्रार्थना की। विमलमित्र ने प्रार्थना के बाद जब अपनी आँखें खोलीं तो उन्हें नदी के पानी में तीर की तरह प्रवेश करता एक तोता दिखा। नन्हे तोते के हरे-नीले पंख आग से झुलस गये थे। झुलसे पंखों के किनारे जलकर काले हो गये थे। उसका पज्जा जला हुआ था। जल चुके पज्जे की खाल उधड़ गई थी। विमलमित्र को लगा कि आग के ताप से परेशान होकर यह नन्हा तोता पानी में डुबकी लगा रहा है। पर जब उन्होंने देखा कि डुबकी के बाद पानी से बाहर निकलकर वह उड़ता हुआ जंगल के ऊपर ठीक उस जगह पहुँच गया जहाँ लपटें और धुँआ सबसे ज्यादा है तो उन्हें अचरज हुआ। जब उन्होंने उसे जलते वन पर अपने गीले पंखों को झटकार कर पानी गिराते हुए देखा तो वे उसे एकटक देखते रह गये। भला ऐसा भी हो सकता है। वे आश्चर्य में पड़ गये।
रात भर विमलमित्र को नींद न आई। तड़के जब झपकी लगी तो उन्हें एक सपना दिखा। सपने में उन्हें साँची के दृश्य दिखे। वे साँची होते हुए ही आ रहे थे। वे साँची में छह महीनों तक रुके थे। उन्हें अपने नगर मथुरा पहुँचना था। रास्ते में ये जंगल थे। जंगल में फूस वाला आश्रय था। आश्रय की जमीन पर वे सो रहे थे। नींद में सपना था। सपने में साँची के स्तूप की दीवारें थीं, स्तंभ थे। उन पर लिखे नामों को वे पढ़ रहे थे – ऋषिका नाम के भिक्खु की यह भेंट है, वह ऋषिका जो वत्सिपुत्र का पुत्र है – पत्थरों पर लिखा है। सपने में एक स्तंभ उभरता है। उस पर बने तीन शेरों वाली चौखट के ऊपर लिखा है – यह स्तंभ बालमित्र की भेंट है जो कि आर्य-सुद्र का शिष्य है। सपने से बाहर जंगलों में भोर का प्रकाश बिखर रहा है। सपने में वे अमात्यों और उनके सहयोगी अधिकारियों, विषयपतियों, धातुकार्मिकों, गंधिकों, तक्षकों और काष्ठशिल्पियों, फूल बेचने वाले पुक्कसों, वस्त्र बनाने वालों, रथियों, मनकों और आभूषणों के विक्रेताओं, निषादों, राजाओं के सेवकों, श्रमणों, गृहस्थों, कौष्ठेयक और समाहर्ता जैसे पदाधिकारियों, भवन निर्माताओं, कुमारामात्यों और भी तमाम लोगों के नाम पढ़ते, उनके पिताओं और उनके साथ आये शिल्पकारों के नाम पढ़ते। वे सपने में भटकते रहे। साँची का प्रदक्षिणा पथ इतना विशाल दिखता मानो कहीं खत्म ही न हो। ‘….यह ठीक है कि संसार बहुत बड़ा है और जब आप पैदल इसे नापते हैं तो इसकी लंबाई और बढ़ जाती है’ – पीछे से कोई कहता है, कोई राहगीर है शायद जिसका चेहरा नहीं दिखता -‘…संसार कितना भी बडा हो भन्‍ते, कितना भी विशाल, इसे जानने पहचानने की इच्छा इसे आकार में लघु करती रहेगी…’ – सपने में वे पलटकर उस राहगीर को देखते हैं। उसके चेहरे पर अंधकार हैा
शिलालेख पर लिखी इस लाइन पर कि यह स्तंभ उस बालमित्र की भेंट है जो आर्य-सुद्र का शिष्य है, उनके सामने काले चेहरे वाले बालमित्र का चेहरा घूम जाता है। दरअसल वे इसी नाम के एक व्यक्ति को जानते थे पर उसके गुरु का नाम इतना अजीब न था – आर्य -सुद्र। वह राहगीर मुस्कुराते हुए कहता है कि कितनी प्रसन्नता की बात है कि यह वह बालमित्र ही है जिसे वे जानते हैं। करीने से सिर पर जूड़ा बाँधे, नंगे धूल भरे पैरों वाला बालमित्र जो अपने कंधे पर लटकते उत्तरीय की गांठ में कच्चा अनाज और पण बांध कर रखता है। कभी उसकी उत्तरीय की यह गांठ खनकती कौड़ियों से भरी रहती है। ‘…यह बालमित्र भी उस बालमित्र की तरह से ही तेज-तेज कदमों से चलता होगा, भले रहता हो हजारों कोस दूर, बोलता हो न जाने कौन सी भाषा, तब भी उसी तरह से बात-बात पर मुस्कुराता होगा। उसके साँवले चेहरे पर चमकती आतुरता से भरी आँखें उसी बालमित्र के जैसी होंगी, जो मथुरा की वीथिकाओं में दिख जाया करता है…है न भन्ते…’ – सपने में उस राहगीर की आवाज सुनाई देती है – ‘….यह वही बालमित्र है….वही है…’ – पीछे से आवाज़ आती है। बाहर नदी के ऊपर जलते जंगल का धुँआ पसर रहा है। एक पेड़ पर चढ़ती लपटों ने पंछियों के घोंसलों को जला दिया है। घोंसले लावारिस हैं। आग से बचने तमाम पंछी घोंसले छोडकर भाग चुके हैं। सिर्फ नन्हें तोते को पता है कि आग में जग रहे हैं घोंसले। जलते घोंसलों में चिचिया रहे हैं नन्हें पंछी।
सपने में पत्थरों पर लिखे ऋषिका के नाम पर विमलमित्र को सुवाहु का चेहरा दिखता है। सुवाहु भिक्खु हैं जो मथुरा में रहते हैं। चलते समय उन्होंने उन्हें अलविदा कहा था और लौट कर मथुरा आने की बात की थी। ‘…ऋषिका सुवाहु जैसे ही दिखते होंगे, अपने दोनों कंधों से सामने पेट तक लटकती फैली लंबी सम्घाटि पहनने वाले, गोरे ललाट वाले। सुवाहु की तरह से ही और निश्चय ही जिस तरह से वे मथुरा के उस बौद्ध विहार के मुख्य भिक्खु के सामने जमीन पर बैठते हैं, सीधी पीठ के साथ आलती-पालती में, अपने पेट के नीचे अपनी हथेलियाँ एक दूसरे पर रखे हुए…..यह ऋषिका भी जिनका नाम खरोष्ठि में यहाँ लिखा है और जो किसी स्त्री का नाम प्रतीत होता है, अपने विहार के मुख्य भिक्खु के सामने जरुर वैसे ही बैठते होंगे…’ – उन्होंने कहा और पलटकर उस राहगीर को देखा पर अब वह नहीं दिखता – ‘… भले ऋषिका ताम्रपर्णी के हैं और सुवाहु मथुरा के, तब भी…’ – वे अपने आप से कहते हैं। सुवाहु को याद कर उनका मन बेचैन हो उठता है। वे उनके मित्र हैं। परम मित्र। उन्हें लगता है कि अगर वे साँची की इस पट्टिका पर लिखे ऋषिका के नाम को छू लें तो वे यह भ्रम पाल सकते हैं मानो उन्होंने सुवाहु के कंधे पर हाथ रख दिया। वे चौंककर जाग जाते हैं। चारों ओर धुँआ है। जंगल की आग आसमान तक उठ रही है – ‘हमें शीघ्र ही यह जगह छोड देनी चाहिए भन्ते…’ – सुमति कहते हैं। वे पल भर को नदी की ओर देखते हैं। उन्हें अधजले पंखों वाला तोता दिखता है, बेचैन और पानी के भीतर-बाहर होता हुआ। आसमान में उड़ता हुआ। आग के ऊपर गोल-गोल चक्कर काटता हुआ। हर कोई जलते जंगल को छोडकर जा चुका है। सारे जानवर, सारे पंछी, यहाँ तक कि सारे कीडे़-मकौड़े भी। जंगल को छोड़कर अपने रास्ते जाते हुए विमलमित्र पलटकर देखते हैं। आसमान में अकेले तोते को उड़ता देखते हैं। वे अपने भिक्षापात्र में नदी का पानी लाते हैं और धधकते पेड़ों की जड़ों में डालते हैं।
विमलमित्र को पता न था कि जिस समय वे साँची से मथुरा के लिए चले थे उसी समय ऋषिका भी ताम्रपर्णी से मथुरा के लिए चले थे। भले वह सपना था। भले विमलमित्र को जो ऋषिका याद थे वह एक सपना था। सपने का एक धुँधला सा टुकडा उनके मन में फंसा रह गया था। इस तरह ऋषिका की छवि उनके मन में थी। उनके मित्र सुवाहु की तरह से ही दिखने वाले ऋषिका। उनके हमशक्‍ल। उनके ही जैसे उठते-बैठते और उनकी ही तरह से बडे नेत्रों से टुकुर-टुकुर देखने वाले। एक बार खरोष्ठि में उन्होंने नदी की रेत पर लिखा था – ऋषिका – और सुमति ने उसे पढ़ा – सुवाहु – वे अचरज से सुमति को देखते रह गये थे – ऋषिका बहुत दूर के हैं, ताम्रपर्णी के और सुवाहु मथुरा के दोनों भला एक कैसे हो सकते हैं – उन्होंने पूछा – मुझे लगा आपने उनका ही नाम लिखा होगा – सुमति ने कहा और तब विमलमित्र को पता चला कि सुमति खरोष्ठि में लिखे को पढ़ नहीं पाते थे।
कुछ महीनों पहले ताम्रपर्णी के राजा ऋषिका के पास गये थे। उन्‍होंने ऋषिका से अनुरोध किया था कि वे मथुरा जायें, उनकी जरुरत है वहाँ। उनकी यात्रा का सारा व्यय ताम्रपर्णी के राजकोष से किया जायेगा। उन दिनों ताम्रपर्णी को इसी नाम से जाना जाता था। उसे कोई श्रीलंका नहीं कहता था।
‘…क्या देखा था भन्ते….कृपया बतायें…’ – मथुरा लौट आये विमलमित्र के सामने बैठे तमाम श्रमण और भिक्खु उनसे पूछते हैं। वे अपनी आँखें बंद कर वह सब याद करते हैं।
(2)

बंद आँखों में उन्हें सपने वाले ऋषिका दिखाई देते हैं और नन्हे तोते के जले पंख दिखते हैं। वे जंगल में लगी आग और नन्हें तोते की कथा सुनाते हैं – ‘….जंगल की आग दैत्य है। ज्वालायें उस दैत्य की जीभ। दैत्य के मुँह से धुँये के गुबार उठते हैं। सारा आसमान गुबार से भर उठा। वह नन्हा तोता वह फरिश्ता इस आग पर अपने भीगे पंख झटकारता था। चोंच से पानी उंडेलता था। रात-दिन। बिना रुके। तभी एक विशाल डैनों वाला एक पंछी वहाँ आया। मजबूत-चौडे डैनों वाला वह पंछी बहुत सुँदर था। उसके गले में स्वर्णहार था और उसके पंखों से सुगंधित तेल की भीनी-भीनी खुशबू आती थी। उसके नाखून करीने से कटे थे। उसकी चोंच चमकीली थी। उसके पज्जो में चाँदी के कडे थे। वह अच्छा गोश्त खाता था। पंछियों के घोसलों से ताजे अण्डे चुराकर खाना उसका शौक था। वह बहुत कम बातें करता था। वह सलाह देता, क्रोध करता और मुँह बनाकर अपनी पीठ दिखाता उड जाता। वह नन्हें तोते के इर्द-गिर्द मंडराता रहा। नन्हा तोता थका हुआ था और अकेला था। इतना अकेला कि उसे अब किसी की परवाह न थी।’
उस विशाल डैनों वाले पंछी ने उस नन्हे तोते से कहा – ‘……वापस चले जाओ ओ छोटे पंछी, इस तरह से जलते जंगल पर अपने पंख फडफडा कर पानी की बूँदें टपकाने से यह प्रचण्ड दावानल न बुझेगा…’ – फिर उस तोते के जले पंखों को देखकर थोडी ऊँची आवाज में उसने कहा था – ‘…तुम्हारा काम अर्थहीन है। पानी की चंद बूँदें जंगल के इस प्रलयंकारी दावानल को नहीं बुझा सकतीं। इस काम को बंद करो और अपने प्राणों की रक्षा करो…’ – उसकी बात सुनकर उस नन्हे तोते ने कहा था – ‘…मुझे ऐसे विशाल डैनों वाले शानदार पंछी की जरुरत नहीं जो इस तरह की सलाह देता हो कि इस काम को बंद कर दो…’ – धुँये से खाँसता हुआ वह कह रहा था – ‘…मुझे किसी ऐसे की तलाश है जो जंगल में लगी इस आग को बुझाने के काम में मेरी मदद कर सके। बस सिर्फ वह जो मदद करे और कोई नहीं…’ – विशाल डैनों वाला पंछी क्रोधित होकर उड चला और जाते-जाते कहने लगा – ‘…इन विशाल ज्वालाओं वाले दैत्य से लड़कर क्या तुम यह सिद्ध करना चाहते हो कि तुम देवता हो….कि इस लघुतर प्रयास से भी लोग तुम्हें इस प्रलयंकारी दैत्य से लडने वाले देवता के रुप में मानें….’- विमलमित्र के ऐसा कहने पर तमाम श्रमण और भिक्खु एक दूसरे को देखने लगे। यह क्या बता रहे हैं विमलमित्र ? क्या अर्थ है इस बात का कि उस नन्हें तोते के कार्यों को देवतुल्य बताया जाये ? कुछ भिक्खु उठकर चले गये। कुछ श्रमणों के चेहरों पर नाराज़गी दिखी। इसका एक कारण था। उस कारण को विमलमित्र समझ पा रहे थे।
उन दिनों का मथुरा आज के मथुरा से बहुत अलग था। पहली सदी ईस्वी बीत रही थी और दूसरी सदी ईस्वी की शुरुआत होनी थी। मथुरा का राजा एक यवन था, लोग उसे यवनराज कहते। उसके बारे में मथुरा के लोग तरह-तरह की बातें किया करते। खासकर उसकी तुकनमिजाजी और मनमौजीपन की। वह ज्यादातर समय अय्याशियों और आरामतलबी में गुजारता। मथुरा बड़ी चहल-पहल वाला नगर था। तमाम प्रकार के तमाम लोगों के पास तरह-तरह की बातें होतीं और दूर के देशों और प्रांत-प्रांतरों की कथायें होतीं। यवनराज के बारे में जो भी बात पता चलती, वह बात भी कथा के रुप में कही सुनी जाती। क्या बाहरी और क्या मथुरा के रहने वाले…सभी यवनराज की कथायें सुनते और इसका रस लेते। कहते हैं जब इन सब बातों की जानकारी यवनराज को हुई तो वह बहुत क्रोधित हुआ। राजा के नाम पर झूठी और विनोद से भरी कथाओं को सुनकर उसका क्रोध सातवें आसमान पर पहुँच गया। उसने अपने एक अमात्य को जो उसका योग्यतम अमात्य था उससे इस समस्या का कोई हल सुझाने को कहा। अमात्य ने समस्या को हल करने के लिए यवनराज से थोड़ा समय माँगा। अमात्य कुछ दिनों तक मथुरा की वीथियों में अपने लोगों के साथ भटकता रहा, लोगों से मंत्रणा करता रहा। वह इस समस्‍या को समझना चाहता था जिससे इसका निदान किया जा सके।
शिल्पियों, भोजनषालाओं और विपणिः के नाम से जाने जाने वाले मथुरा के बाजार की तमाम दुकानों में गप्पें हाँकते लोगों के बीच वह अमात्य घूमता। कोई उसे पहचान न ले इसके लिए उसने एक श्रेष्ठी की वेशभूषा पहन ली थी। सिर पर एक सफेद रंग की उष्णीष और गले में मोतियों की माला के साथ ही वह अपने मुँह पर एक कपडा लपेटे रहता। सबसे पहले वह उन लोगों से मिला जो यवनों को श्रेष्ठियों के क्रय विक्रय की कहानियाँ, गणिकाओं और उनके ग्राहकों की चटपटी कहानियाँ और सार्थवाहों और शिल्पियों की कुछ ऐसी कहानियाँ बताते थे जिसमें यवनराज पर फब्तियाँ कसी जाती थीं। कपडे से अपना चेहरा ढंके वह अमात्य अचरज से उन यवन सैनिकों को देखता जो यवनराज पर कसी जा रही फब्तियों वाली कहानियाँ चटकारे लेकर सुन रहे होते। इसी तरह कहानियाँ कहने के एक अड्डे में अमात्यों और पुरोहितों और राजप्रासाद की रानियों की कुछ ऐसी कहानियाँ सुनाई जातीं जिसमें यवनराज की मूर्खतायें और रानियों से उसके अंतरंग संबंधों पर चुटकुले हुआ करते। जंगली जानवरों की एक कथा में यवनराज के शिकार करने का मजाक उडाया गया था तो एक कहानी जिसमें एक तक्षक, एक सैनिक, कुछ द्वारपाल और रथि, एक निषाद और दो गुप्तचर थे, उसमें यवनराज को ठगने और उससे झूठ कहकर अपना काम निकालने की एक कथा थी, जिसे कहानी सुनाने वाला बडे चटकारे लेकर सुनाता था। चोर, मदिरा पान करने वाले, नट, चार नर्तक, एक वेण, किंषुकों के समूह और कुछ क्षत्रपों का एक किस्सा एक ब्राह्मण सुनाता था जिसमें यवनराज पर एक भद्दे किसम का गीत था जो बीच-बीच में नट गाता था और वेण उस पर ढ़ोल बजाता था। एक कथा गुरुकुल के एक स्नातक की थी जिसमें एक श्रमिक अपने साथ लाये चाण्डाल की पत्नी और राजा के वधिक याने श्वपाक के भाई से यवनराज के बारे में तमाम बुराईयाँ करता था और कहता था कि मथुरा की प्रजा की भलाई के लिए ऐसे यवनराज से मुक्ति मिले और ईश्वर इस काम में मदद करें। अमात्य अचरज में था। हर कथा में यवनराज का किसी न किसी तरह से उल्‍लेख था और उसका अपमान किया गया था। हर जगह यह सब देख अमात्‍य निराश हो गया।
‘…आप नये आये हैं यहाँ …’ – ताम्रपर्णी से आये ऋषिका को देखकर मुँह ढंके अमात्य ने कहा। ऋषिका को मथुरा की भाषा नहीं आती। उसके साथ उसका एक दुभाषिया चलता है जो ताम्रपर्णी के राजा ने ही उसे दिलवाया है – ‘…मैं यहाँ एक विशेष उद्देश्य से आया हूँ आर्य…’ – उसके चेहरे को संशय से देखते हुए अमात्य ने पूछा – ‘….ऐसा क्या काम है महोदय कि आपको ताम्रपर्णी से हजारों कोस दूर इस नगर आना पड़ा….’ – ऋषिका ने थोडा विस्तार से बताया – ‘ आर्य दरअसल हुआ यूँ था कि मथुरा का एक काष्ठ शिल्पी जिसका नाम मृणाल था और जिसके काष्ठशिल्प की दुकान से लगा एक मदिरालय था अवन्तिका को जाने वाले मार्ग पर कहते हैं पुराने समय में वह कथाओं का सबसे बडा अड्डा था। मृणाल ने इस मदिरालय की शुरुआत की थी, ताकि कथायें सुनने वाले लोग यहाँ आयें, रसरंजन करें और कथायें सुनने का आनंद लें। कथाओं में इस रुचि से पता चला कि मथुरा तमाम कथाओं की भूमि है। मैं इन्हीं कथाओं को लेने यहाँ आया हूँ। मेरा सारा व्यय ताम्रपर्णी के राजा उठा रहे हैं।’ यह सब सुन अमात्य बुरी तरह से हतोत्‍साहित हो गया।
‘ यवनराज की जय हो। महाराज से निवेदन यह है कि आप युद्ध कर सकते हैं, बडे ऊँचे आलीशान राजप्रासाद खड़े कर सकते हैं, ऊँची विशाल मूर्तियाँ बनवा सकते हैं, तमाम संपत्ति दान में दे सकते हैं और एक राजा की तरह से जो सोच लें वह सब कर ही सकते हैं, पर लगता है कथा कहने वालों और किस्से बनाने वालों को नहीं रोक सकते।’ – अमात्य ने यवनराज के सामने अपना सिर झुकाते हुए कहा – ‘ संसार की जो सबसे प्रसिद्ध कथा है नगर-गणिका वासवदत्ता और भिक्खु उपगुप्त की वह मथुरा की ही कथा है महाराज, मथुरा में ही कही गई अशोकावदन जैसी लंबी कथा वरना कहाँ किसी को पता चल पाता सम्राट अशोक और कलिंग के युद्ध की कथा का। तमाम थेर गाथाओं, थेरी गाथाओं और जातक कथाओं का यह नगर है महाराज। यहाँ कथा कहने से किसी को रोका नहीं जा सकता।’ – अमात्य के पास इस बात को कहने के अलावा कोई बात न बची थी।
यह सोच कि जंगल की आग और नन्हे तोते वाली कथा को वे मथुरा में कह रहे हैं, विमलमित्र का मन प्रसन्न हो उठता। पर वे उन कथाओं के बारे में भी जानते थे जिनमें पशु-पंछी थे। वे कथायें जिनमें पशु-पंछी बात करते थे। वे जातक कथाओं पर चल रहे तर्क-वितर्क को सुना करते। इन कथाओं को उन भिक्खुओं के नाम पर याद किया जा रहा था जिन भिक्खुओं ने ये कथायें कहीं। भले कुछ जातक कथायें बताई जा चुकी थीं और कुछ बताई जा रही थीं, पर हर किसी को पता था कि ये बड़ी कथायें हुईं, उनका बड़ा महत्व हुआ। ये कथायें तथागत की कथायें मानी गईं। जो लोग इस तरह की कोई नई कथा सुनाते, विशेष रुप से पशु-पंछियों वाली, तो उस पर तमाम बातें होतीं, कुछ लोग ऐसे लोगों को महत्वाकांक्षी मानते। मानते कि प्रसिद्धि पाने और एक नई कथा को जातक कथाओं में जोड़ लेने के मोह की वजह से वे यह सब करते हैं। इस तरह विमलमित्र झिझकते। उनकी कथा में जंगल की आग को दैत्य बताया जाता और नन्हें तोते को देवता तुल्य – ‘…वन को बचाने के लिए प्रयत्नशील नन्हे तोते की इस कथा का तात्पर्य कुछ और नहीं बस अपनी यात्रा के समय दिखे साक्षात को आप सबके सामने लाना है…’- विमलमित्र कहते और देखते कि तमाम भिक्खुओं के चेहरों पर उस कथा के प्रति अरुचि का भाव है।
जिस तरह से ताम्रपर्णी से चले थे ऋषिका उसी तरह से चीन के चान ग्यान नाम की जगह से सैंकडों बरसों बाद चला था फाह्यान। ऋषिका ताम्रपर्णी से चलकर मथुरा पहुँचे थे और फाह्यान को भारत को पार करते हुए ताम्रपर्णी पहुँचना था। भले दोनों यात्राओं के बीच सैंकडों बरसों की दूरी थी, पर दोनों के काम एक दूसरे के काम थे। ऋषिका के काम को फाह्यान को पूरा करना था और फिर से सैंकडों बरस पहले का विमलमित्र का काम फाह्यान के काम के बाद पूरा होना था। समय को सैंकडों बरस आगे और फिर सैंकडों बरस पीछे लौटना था।

(3)
जंगल की आग और नन्हे तोते वाली कथा को लेकर जिस तरह का तिरस्कार और ठण्डापन श्रमणों और भिक्खुओं में था, उससे निबटने का एक ही तरीका विमलमित्र को दिखता। वे इस कथा को आम लोगों के बीच ले जाना चाहते। ऐसे समय में जब इस कथा को लेकर एक तरह का तिरस्कार प्रबुद्ध वर्ग में था, यही उन्हें सबसे सही तरीका लगता था। इस तरह अपने शेष जीवन वे तमाम जगहों पर तीर्थाटन करते रहे। वे धर्मभाणकभिक्खु थे, इसलिए तमाम जगहों को जा ही सकते थे और लोगों के बीच उस कथा का पाठ कर सकते थे – ‘…. आग सब कुछ जला देती है…वह घोसलों को राख़ कर देती है, निरीह जानवरों को जला देती है, वह पेडों, पंछियों और कीडे-मकौडों सबको जलाती है…..याद रखें दावानल लगता नहीं है, लगाया जाता है…..कोई भी आग अपने-आप नहीं लगती….आग भेदभाव नहीं करती, वह दैत्य है…बस्तियों में लगी आग सबके घर जलाती है वह चाण्डाल के कुड्य को भी जलाती है और श्वपाकों के कच्चे घरों को भी, वह कैवर्त की नाव को भी जलाती है और काष्ठशिल्पी की दुकान भी, वह पुक्कसों के बगीचों में भी लगती है और कुम्हार के चाक पर भी, वह कृषक के खेत में भी लगती है और मेद और वेणों की बस्तियों में भी….संसार में कोई भी ऐसी जगह नहीं जिस पर आग के इस दैत्य की कुदृष्टि नहीं….नन्हा तोता जानता था यह सब….’ – कथा बताते थे विमलमित्र। एक रोज विमलमित्र तीर्थाटन पर गये और फिर कभी मथुरा न आये। सुवाहु उनके साथ थे। उन्होंने सुवाहु को उस सपने के बारे में बताया – ‘ ऋषिका आयेंगे भन्ते….वे जरुर आयेंगे….स्वप्न में वे एकदम आपके जैसे दिखे थे….आपकी जैसी आँखें, आपका ही रंग, आपके जैसा ही धैर्य और स्नेह, आपके हमशक्ल…एकदम आप ही….’ – मरणासन्न विमलमित्र के हाथों को अपने हाथों में थामे सुवाहु का गला भर आया था। उन्होंने ही उनकी खुली रह गई आँखों पर आहिस्ते से उनकी पलकों को ढंका था। फिर उनके ठण्डे पड गये माथे को सहलाया था। उनकी चिता के पास वे पूरी शाम और पूरी रात खड़े रहे थे – ‘….पता नहीं कितने भिक्खु और भिक्खुनियाँ हुई होंगी जिनकी यह अभिलाषा थी कि उनकी कही थेरगाथा, अवदान गाथा, जातक और थेरिगाथा को याद रखा जाये ? कथा के बाद कोई कहे कि यह कथा उस भिक्खु ने बताई थी…..।’
मथुरा में भटकते ऋषिका को लगता मानो किसी ने उन्हें पुकारा हो और वे पलटकर देखते, अकस्मात, मथुरा की अनजान वीथिकाओं को। वीथिका में दूसरी ओर उन्हें सुवाहु खडे दिखते। विमलमित्र के देहावसान से पूरे दो साल बाद मथुरा की वीथिका में ऋषिका और सुवाहु एक दूसरे के सामने खड़े हैं। वे विमलमित्र का स्वप्न हैं। जंगल की आग के समय देखा गया स्वप्न। सुबह का स्वप्न। स्वप्न जो सच को गढ़ते हैं। जिनके रास्ते भविष्य संवारता है खुद को। दोनों चकित हैं। दोनों के नाक-नक्श इतने एकसमान हैं, मानो वे एक दूसरे से एकसम हों, अभिन्न हों। भले ऋषिका ताम्रपर्णी से आते हों और सुवाहु मथुरा से। भले दोनों के देशों के बीच सैंकड़ों योजन की दूरी हो, भले बोलते हों अलग-अलग भाषा, इतनी अलग कि एक दूसरे की बात समझ में न आये, पर जब वे एक-दूसरे को देखते हैं तो मानो किसी और का नहीं अपना ही चेहरा देखते हों। धरती के किसी अनजान क्षेत्रों में रहता है हर किसी का कोई हमशक्ल, वह स्वप्न के रास्ते दस्तक दे सकता है, वह खड़ा होता है सच की वीथिका के छोर पर, हतप्रभ, किंकर्तव्यविमूढ़ -‘…. ताम्रपर्णी के राजा ने मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी कि मैं मथुरा की समस्त बौद्ध कथाओं को लिख लाऊँ…’ – जिम्मेदारी के अहसास से भरे ऋषिका के कहे का अर्थ एक दुभाषिया सुवाहु को बताता है। सुवाहु के नेत्रों में देखना ऋषिका को अपने भीतर देखना लगता है, वे अपने हमशक्‍ल की आँखों से बचते हैं – ‘….वह कोई साधारण तोता न था भन्ते, उसकी चेतना तथागत की चेतना थी, उसकी करुणा तथागत की करुणा थी, वृक्षों और पशु-पंक्षियों के लिए उसका अथाह प्रेम तथागत के वचनों का साक्षात रुप था….तभी जंगल की आग को बुझाने के लिए उसने अपने प्राण लगा दिये थे….’ – सुवाहु कहते और ऋषिका उस कथा को लिखते जाते। बरसों बाद ऋषिका वापस ताम्रपर्णी चले गये।

जब कोई नहीं था न विमलमित्र, न ऋषिका और न सुवाहु। जब युद्ध हुआ और मथुरा में आग के दैत्य ने अपने पैर पसारे। जब मथुरा में यवनराज का समय समाप्त हुआ और जला दिये गये कथाओं के अड्डे। जब जल गया राजप्रासाद और विपणिः नाम का वह बाजार भी। जब लगता था कि अब कुछ भी नहीं बचा है तब भी मथुरा में दरिद्रवीथि नाम से जानी जाने वाली एक बस्ती थी जहाँ भले दुःखों का बसेरा था, पर लोग कथायें सुनाया करते थे। ढ़लती रात में थके हारे लोग तारों के नीचे कथायें सुना करते। कोई स्‍त्री शाम का काम जल्‍दी पूरा करती, कथा सुनने के लालच में। दरिद्रवीथि में रहता था निपुणक। कहते हैं वह जंगल की आग और नन्हें तोते वाली कथा को कुछ इस तरह से कहता, कि दरिद्रवीथि के लोग उसे सुनने उसके पास खिंचे चले आते। दरिद्रवीथि के लोग अपनी इस बस्ती से बाहर बहुत कम निकल पाते थे। वे तभी बाहर जा सकते थे जब कोई श्रेष्ठी या मथुरा का कोई दूसरा नागरिक यह कह दे कि वे उनके साथ हैं। वे अपनी मर्जी से मथुरा शहर में नहीं जा सकते थे। अगर इनमें से कोई मथुरा की वीथिकाओं में दिख जाये तो उसकी शिकायत स्थानीय प्रशास्ता या राजा के सैनिकों से की जा सकती थी। शिकायत पर दरिद्रवीथि के ऐसे व्यक्ति को सजा भी मिल सकती थी। पर कुछ लोगों जैसे नट, मुक्केबाज जिन्हें मौष्टिक कहा जाता था, मल्ल तथा नर्तकों को कुछ छूट जैसी थी और कई बार नये राजा के सैनिक उन्हें अपने साथ ले जाया करते और कभी वे खुद भी बाहर आ जाया करते।
मथुरा की सफाई करने वाले लोग इसी बस्ती से आते थे। वे अपनी कमर में झाडू बाँधते और हाथों में मिट्टी का पात्र लिये होते। दरिद्रवीथि के लोग बहुत कम और साधारण वस्त्र पहनते और उन्हें धातु के बर्तनों में भोजन करने की अनुमति नहीं थी। निपुणक यहीं रहता था और अक्सर विमलमित्र की बातें सुनने उनके संभाषण में जाता था। इस तरह यह कथा उसके मन में थी और वह इसे सुनाता। बार-बार सुनाता। पर वे दरिद्रवीथि के लोग थे, उनकी स्मृतियों का, उनकी बातों का कहीं कोई मोल न था। किसी को इस बात से मतलब नहीं था कि वे लोग क्या कहते हैं, क्या सुनाते हैं। भले ताम्रपर्णी के ऋषिका उस कथा को अपनी भाषा में लिखकर ले गये थे। भले वह मथुरा की कथा थी। भले मथुरा कथाओं का शहर था। भले कोई नहीं जानता था, न जानना चाहता था, पर वह कथा दरिद्रवीथि की सर्वप्रिय कथा थी। वह दुःख में पली-बढ़ी। वह आभावों में जीवित रही। वह कही जाती रही। दुनिया से अलग उस कथा की अपनी एक दुनिया थी। वह कथा भुला दी गई। वह कथा अपनी जन्‍मभूमि में भुला दी गई। वह विमलमित्र के देश में मिट गई। अनजान देश के तमाम दुर्गम रास्तों से गुजरते जाते थे ऋषिका। उनके कंधे पर लटकता था एक थैला। उस थैले में गुड़मुड़ी पड़ी थी वह कथा। वे चलते-चले गये थे तमाम असंभव रास्तों पर। उनके पैरों में छाले पड़ गये और वे बीमार हो गये, पर उन्होंने चलना नहीं छोड़ा। उन्होंने पहाड पार किये, पार किये समुद्र। वे जब ताम्रपर्णी पहुँचे तब तक सात साल बीत चुके थे। उनकी माँ की मृत्यु हुए दो साल हो चुके थे।
फाह्यान दस बरस का था जब उसके पिता की मृत्यु हुई थी। उसे एक बौद्ध विहार भेज दिया गया। वह भटकता रहता। उसे विहार में टिके रहना न सुहाता। इस तरह एक दिन वह चान ग्यान नाम की जगह गया। यहाँ के एक बौद्ध विहार में उसने एक किताब देखी। किताब की ज़िल्द फटी थी। पन्ने तार-तार थे। इतने तार-तार कि वे अब पठनीय नहीं रह गये थे। वह दुःखी हो गया। उसने इस किताब को फिर से ढूँढ़ निकालने का मन बना लिया। पर इसके लिए उसे एक लंबी यात्रा करनी थी। भारत के जिस क्षेत्र में यह किताब मिल सकती थी उसके लिए हजारों योजन चलना पड़ता। वह चल पड़ा – ‘ हजारों योजन की यात्रा वह भी किताबों के लिए…?’ – चलते समय एक आदमी ने कहा था। उसके पास ही जमीन पर उकडू बैठकर घास काट रहे एक दूसरे आदमी ने कहा – ‘ लोग तीर्थाटन पर जाते हैं और व्यापार करने वाले व्यापार के सिलसिले में लंबी यात्रायें करते हैं। कोई राजा अपनी सेना के साथ जाता है दूर देशों तक युद्ध करने और वहाँ की संपत्ति लूटने। हर यात्रा के उद्देश्य हैं। पर कभी सुना नहीं कि कोई किताबों के लिए यात्रा करता हो….अजीब है यह…’ – घास काटने वाले आदमी के सवाल पर फाह्यान मुस्कुरा दिया। लोग उसके नाम का सही उच्चारण न कर पाते थे और उसे फाह्यान कहा करते।
जब वह ताम्रपर्णी में अनुराधापुर पहुँचा तब तक जंगल की आग और नन्हे तोते की कथा को चार सौ साल से भी ज्यादा का समय बीत चुका था। तीन सौ पचहत्तर साल पहले ऋषिका अनुराधापुर आये थे, इस कथा को लेकर – ‘ आप पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिसने कथाओं के लिए इतनी लंबी यात्रा की…’ – किसी ने कहा था उनसे – ‘ आप पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो किताबों के लिए यात्रा पर निकले हैं वह भी सालों लंबी और हजारों योजन लंबी यात्रा पर….’ – उस आदमी की बात लपकी थी फाह्यान पर चलते समय।
अनुराधापुर के विशाल विहार में हर ओर चीवर पहने अपने कामों में मगन भिक्खु और श्रमण दिखाई देते। ऐसा दृश्य फाह्यान ने इससे पहले कभी न देखा था। प्रार्थना के समय वहाँ एकत्रित सैंकड़ों भिक्खुओं और श्रमणों को देखकर वह अचरज में पड़ जाता। सैंकड़ों की तादाद में उन सबके होने के बावज़ूद कहीं कोई आवाज़ सुनाई न देती थी। हर कोई चुपचाप अपने काम में लगा रहता। परिसर एकदम शांत रहता। वे एक साथ प्रार्थना करते। एक से शब्द, एक सी आवाज़ में। एक साथ चुप होते, एक साथ लय में प्रार्थना गाते। प्रार्थना की आवाज़ और शब्दों की लय के बीच परिसर की शांति होती। इस तरह परिसर की शांति और प्रार्थना की स्वर लहरियाँ एक दूसरे की हमजोली थीं। पाण्डुलिपियों के संरक्षक श्रमण ने कुछ महीनों बाद ही एक संस्कारपूर्ण आयोजन कर लिया जिसमें परंपरागत रुप से बेशकीमती पाण्डुलिपियों की नकल करने के लिए सांकेतिक रुप से इन्हें फाह्यान को सौंपा गया। डेढ़ साल तक फाह्यान लिखता रहा। पाण्डुलिपियों की प्रतियाँ बनाने का काम करता रहा।
फाह्यान किसी यंत्र की तरह से काम करता। वह लगातार काम करता। कभी-कभी सारी रात भी। अनुराधापुर में उसके लिए पाण्डुलिपियाँ पढ़ने वाले तीन श्रमणों को काम पर लगाया गया। वे पारी बदल-बदल कर पाण्डुलिपि पढ़ने का काम करते। फाह्यान उनके हर शब्द को सुनता और प्रत्येक शब्द को लिखता जाता। एक साल बीतते-बीतते पाण्डुलिपियों का ढ़ेर जमा हो गया – ‘ …आग, आग थी। भस्म कर देना उसकी प्रकृति। वह राख़ होने तक सुलगती। वह सीलन की आखरी नमी तक धुआँ होती। वह जलाती बीजों से भरी फलियों को। सुलगती फूलों की पंखुडियों पर। घोसलों पर लपटती वह। जंगल की आग दुष्ट थी। विघ्नसंतोषी। कुंठित। कायनात की दुश्मन। हवा की हमजोली होकर वह हत्यारी हो जाती। आसमान में उड़ते नन्हे तोते को देखकर खिलखिलाती वह। गीले पंखों से झटक कर गिरने वाली नन्ही बूँदों का उस पर कोई असर न पड़ना था, जानती थी वह। कभी वह लपलपाती लपट बनकर नन्हे तोते पर झपटती तो कभी धुँये का कसैला गुबार बनकर उसकी आँखों और पंख में भर जाती। आग हत्यारन थी और नन्हा तोता एकदम अकेला…।’ – फाह्यान लिखता जा रहा था। श्रमण ने बताया कि ऋषिका की पूरी जवानी बीत गई थी इस कथा को लाने में। वे प्रसन्न थे। भले वे अकेले थे पर मृत्यु के समय उनके चेहरे पर संतोष का भाव था। वे मथुरा की कथा को ताम्रपर्णी ला पाये इस बात का बडा गुमान था उन्हें। वे थैले में भरकर लाये थे कथा को। वे बारिश से बचाने उसे अपने कपड़े के भीतर कर लेते। नदी पार करते समय उसे अपने हाथों में उठाये रहते कंधों के ऊपर। उन्‍होंने उसके हर शब्‍द को बचाया।
देर रात थी और फाह्यान दीपक लेकर विहार के बारामदे में आ गया था। चीन के उस क्षेत्र में उस रात भी इसी तरह से पानी की फुहारें गिर रही थीं, जैसी यहाँ अनुराधापुर में गिर रही हैं। वह बरसों बाद घर पहुँचा था और घर के दरवाजे के पार माँ की देह रखी थी कपडे से ढ़ंकी एकदम शांत। माँ उसे घर बुलाती थी पर वह घर न जा पाता था। एक श्रमण के रुप में घर जाना संभव था पर एक भिक्खु के रुप में नहीं। दीपक के प्रकाश में रात के आसमान से गिरती फुहारों को वह देखता है, जो चुपचाप गिरती हैं। आसमान से पानी की फुहारों के गिरने की कहीं कोई आवाज़ नहीं, कितनी बेआवाज़ गिरती हैं फुहारें। उसके विहार जाने की बात पर माँ को रजामंद होना पड़ा था। घर पर किसी अज्ञात बीमारी का साया था और पिता की इस बात पर कि विहार में फाह्यान बच जायेगा अपने आँसू पोंछती उसकी माँ ने हाँ में अपनी गर्दन हिलाई थी। उस रोज उसने यह जानकर भी कि वह भिक्खु है, उसने माँ की मृत देह को छुआ था, उसके सिर पर हाथ फेरा था और फिर अपने चोगे की बाँह से अपने चेहरे को ढंक लिया था। उसकी हिचकियाँ सुनाई देती थीं।

(4)

जाने के पहले ताम्रपर्णी का राजा उससे मिलने आया था। फाह्यान ने सोच रखा था कि वह इस राजा के लिए कुछ न कुछ करेगा। कुछ ऐसा जो उसे ऐसे राजा के लिए करना चाहिए। कहते हैं चीन लौटने के बाद उसने जब इस सारी यात्रा का वृतांत लिखा तो उसमें गिनती के कुछ राजाओं के नामों का उल्लेख किया। पहला खोतान का वह राजा जो अपना मुकुट उतारकर तथागत के प्रतीक के सामने आया था, उन्हें प्रणाम करने और दूसरा ताम्रपर्णी का यह राजा जो सफेद कपडों में आया था नंगे पैर एक श्रमण के अंत्तिम संस्कार में और फाह्यान ने ध्यान से उसे देखा था। हाथ में अंत्तिम संस्कार का पात्र उठाये हुए ज़मीन पर नंगे पैर उसे चलते हुए। सूत के सफेद कपडों में चुपचाप। उसने सिर्फ इन्हीं राजाओं के बारे में लिखा। भले वह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय आया था, पर उसकी लिखी किताब में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का नाम कहीं नहीं लिखा।
इस तरह एक दिन तीन टट्टुओं पर पाण्डुलिपियाँ लादे वह अनुराधापुर के विहार से चलकर समुद्र के किनारे पहुँचा। जब वह ताम्रलिप्ति से ताम्रपर्णी की यात्रा पर था, तब जहाज का नाविक एक गीत गाता था। गीत लहरों वाला गीत था। उसमें मछलियों की एकसार गति थी। उसमें खारी हवाओं की पुकार थी। गाते-गाते रुक कर उसने कहा था – ‘भन्ते इस विशाल समुद्र को लोग पूर्वपयोधि हैं ’- इसके बाद वह फिर से गीत गाने लगा था। फाह्यान ने प्रार्थना की और जहाज पर चढ़ गया। दशकों बाद वह अपने देश वापस जा रहा था। जहाज के ऊपर खड़ा फाह्यान जहाज पर चढ़ाये जाते अपने सामान को देख रहा था। इन पाण्डुलिपियों में वह कथा थी सैंकडों बरस पुरानी कथा, जिसके बारे में उसे पता न था कि वह सुनी जाती थी दरिद्रवीथि के उन लोगों के बीच जो अपने ही शहर से बहिष्कृत थे और जिसे सुनाते थे सुवाहु अपने हमशक्ल ऋषिका को, फाह्यान को कुछ भी पता न था – ‘…इन पाण्डुलिपियों को मैं अपने पास ही रखुंगा’ – उसने कहा था और इस तरह उन्हें नीचे के भण्डार में ले जाने के बजाय उसके पास ही एक कोने में रख दिया गया था।
जहाज पर मसालों की तीखी गंध फैली थी और तेज बहती हवा में नमक वाली नमी थी। मसालों की खेप की लकड़ी की कोठी जहाज पर चढ़ाते समय टूट गई थी और उसमें भरी काली मिर्च जहाज के फर्श पर बगर गई थी। फाह्यान को ताम्रलिप्ति वाला वह नाविक फिर से याद आया – ‘…काली मिर्च यवनों को बहुत पसंद है भन्ते इसलिए लोग इसे यवनप्रिय कहते हैं याने यवनों की दुलारी, यवनों को प्रिय…’ – वह दाँतों से मुस्कुराया था -‘…स्वाद प्रेम की दुनिया में बसता है भन्‍ते, सात समंदर पार के यवनों के इस प्रेम को वे लोग चीन्हते थे जिन्‍होंने काली मिर्च को यह नाम दिया यवनप्रिय…’ – फाह्यान कहने लगा – ‘ आपके यहाँ हर चीज की एक कथा है। आपका देश कथाओं का देश है।’ – अपनी गठरी में तमाम थेर और थेरी गाथायें और जातक कथायें लादे फाह्यान कहना चाहता था कि वह सैंकडों कथायें ले जा रहा है अपने साथ, उनके देश की कथायें, पर ऐसा कहते सकुचाता था वह – ‘ क्या सोच रहे हैं आप…’ – लंगर उठाते नाविकों को देखते ताम्रपर्णी के जहाज के प्रधान नाविक महासुमन की बात लपकी थी फाह्यान पर उसकी तंद्रा भंग करती।
महासुमन एक उत्साही युवा था। हवा की दिशा में जहाज पूर्व की ओर हिचकोले खाता बढ़ता जा रहा था। जमीन दूर से और दूर होती जा रही थी। फाह्यान जहाज पर खड़ा रहा। उसे जहाज का हिचकोले खाना और पालों का फ़रफ़राना अच्छा लग रहा था। समुद्र पर चमकते शाम के सिंदूरी रंग को वह रात तक निहारता रहा। जहाज की भीत में दीवार के किनारे-किनारे चप्पू लगे थे और हर चप्पू के पास बैठने का एक चबूतरा बना था। हवा जब सही नहीं होती थी तो पाल उतार दी जाती और मल्लाह इन चप्पुओं पर बैठ जाते। एक आदमी हुँकारा भरता बड़ा सा नगाड़ा बजाता। नगाड़े की थाप पर सारे मल्लाह एक साथ चप्पू चलाते। नगाड़े की थाप में लय होती। इस लय पर सारे चप्पू एक साथ समुद्र के अंदर जाते। उसी लय पर निकलकर उठते, एक साथ, कतारबद्ध,एक ही तरह से गोल चक्कर लगाते और फिर से एक साथ समुद्र के पानी में उतर जाते। महासुमन फाह्यान को बताता कि अगर लय टूट जाये और चप्पू ठीक एक साथ न चलें तो नगाड़ा बजाने वाला नगाड़ा बजाना बंद कर देता है। रुक कर वह फिर से नगाड़ा बजाना शुरु करता है और फिर से चप्पू एकसाथ चल पड़ते हैं। फाह्यान को याद आया कि उस कथा को लिखते समय उन्होंने श्रमण से कहा था – ‘.. वे लगातार कहें। वे लगातार लिखेंगे। दोनों इस बात को सुनिश्चित करेंगे कि यह लय कहीं टूटे नहीं….।’
‘… हो सकता है किसी को पता हो कि कौन था इस कथा का रचनाकार…’ – फाह्यान ने पूछा था – ‘…यह किसी को भी पता नहीं भन्ते….। पर वे जो भी थे वे हर बार पूरे मन से कथा सुनाते थे। कथा कहना उनकी ज़िंदगी थी। कथाओं में उनके प्राण थे। इस बात से कोई अंतर न पडता था कि बहुत कम लोग उस कथा को सुनने आते थे। जैसे औरतें सुनाती हैं त्यौहारों में कोई कथा, किसी पेड के नीचे, किसी चौकी के पास। एक ही कथा, हर बार। वे प्रतीक्षा करती हैं त्यौहार का। बनती-संवरती हैं। फिर कथा कहती हैं। कभी अकेले ही कहती हैं। स्वयं से, स्वयं ही कथा कहती हैं। ऋषिका न होते तो आप और हम भी यह कथा न जान पाते। वे अगर न चलते हजारों योजन पैदल, भूखे-प्यासे, संसार के सबसे दुर्गम रास्तों पर, समय और जिंदगी से जूझते, न करते अगर यह सब, तब यह कथा आपको और हमको भी पता न होती।’ – अनुराधापुर के उस श्रमण ने कहा था।
जहाज में यह एक गहन रात थी जब शाम से ही तेज बहती हवायें प्रचण्ड वेग से बह रही थीं। फाह्यान सारी रात जागता रहा। ऊपर से आती पालों के फ़रफ़राने की आवाज़ों और शोरगुल से उसकी नींद उचट जाती। जहाज से जब ऊँची लहरें टकरातीं तो वह डगमगाता हुआ एक तरफ को हो जाता और जब वापस सीधा होता तब तक एक दूसरी लहर टकराती और वह फिर से डोल उठता। जहाज लगातार डोल रहा था। इतनी जोर से कि भीत के नीचे भण्डार में रखे सामानों के टकराने और लुढ़कने की आवाज़ें आतीं। ऊपर महासुमन नाविकों को चिल्ला-चिल्ला कर आदेश निर्देश दे रहा था। साँय-साँय करती हवा के थपेड़े जहाज के पालों से लगातार टकरा रहे थे। पालें अपने स्तंभों से अलग होकर हवा में ऐसे फ़हरा रही थीं जैसे तेज हवा में बिलंग पर टंगे कपड़े फ़रफ़राते हैं। जहाज पर ठुंकी उनकी रस्सियाँ उखड़कर हवा में साँप के मानिंद डोल रही थीं। पाल का कपड़ा पानी में भीग कर लकड़ी के खंभे पर चिपक गया था। एक मल्लाह उस खंभे पर चढ़कर उसे अलग कर रहा था। एक पाल बीच से फट कर दो अलग-अलग टुकडों में फ़हरा रही थी। पतवार चलाने वाले मल्लाह अपने काम में लगे थे। नगाड़े की आवाज़ पर वे पूरे दम से पतवारें चला रहे थे। पर जहाज पर मानो किसी का बस न था। वह बुरी तरह से उछलता कूदता चला जा रहा था।
तभी अचानक हिचकोले खाते जहाज के पेंदे से एक विशाल चट्टान टकराई। चट्टान पर रगड खाता जहाज जोर का झटका खाकर उस चट्टान पर से फिसलकर दूसरी ओर को उफ़नाती लहरों पर डोलने लगा। अचानक के झटके से पतवारें मुड़ कर टूट गईं। कुछ पतवारें जहाज के भीतर तक घुस आईं। मल्लाहों की चीख़ों से जहाज की भीत गूँजने लगी। वह मल्लाह जो पानी में भीग कर खंभे पर उलझ गई पाल की रस्सियों को खोलने के लिए खंभे पर चढ़ा था इस तेज झटके से गिर पड़ा और फर्श से टकराया। चट्टान से हुई इस भयानक टक्कर से जहाज के पेंदे का एक भाग टूट गया और तिनका-तिनका होकर उफ़नाती लहरों पर बिखर गया। पेंदे में गड्ढा हो गया। पानी की गरजती धार जहाज के पेंदे से भीतर तक चली आई और नीचे के भण्डार में फैल गई। डोलते जहाज के साथ बार-बार एक गरजती धार आती और पेंदे के उस छेद से जहाज के भीतर पानी भरता जाता। चीख़ता-चिल्लाता महासुमन जहाज में नीचे की तरफ भागा और उसके पीछे-पीछे तमाम मल्लाह भी उसी तरफ भागे। जहाज के भीतर पानी बहुत तेजी से भर रहा था। फाह्यान ने देखा कि तमाम मल्लाह भण्डार के सामान को समुद्र में फेंकते जा रहे थे। एक के बाद एक वे दौड़ते से नीचे को जाते और भण्डार से सामान का कोई बण्डल लादकर लाते और समुद्र में फेंक देते। मसालों के विशाल बोरे, थैलों में भरी तमाम सामग्री, रस्सियों से बाँधे गये धातु के बर्तनों के गुच्छे, गठ्ठों की शक्‍ल में बंधे तलवार, भाले आदि, वस्त्रों की गठरियाँ और और भी तमाम सामान जो कुछ भी व्यापारियों ने जहाज पर लादा था हर सामान वे समुद्र में फेंक रहे थे।
‘ …जहाज को खाली करना होगा ताकि इसमें पानी न घुसे…हर सामान समुद्र में फेंक दो…’ – महासुमन चिल्लाता हुआ कह रहा था। सामान फेंकता एक मल्लाह नीचे की तरफ भागते समय फाह्यान के पास पल भर को रुका और उसके पास रखी पाण्डुलिपियों के बण्डलों को उसने देखा। फाह्यान ने अपने चोगे को उन पाण्डुलिपियों पर फैला लिया था जिससे वे छिप जायें। पर इससे वे छिप न सकती थीं। बेचैन फाह्यान ने उस मल्लाह को अपनी सुराही और मुँह-हाथ धोने का प्याला पकड़ा दिया और उससे कहा – ‘फेंक दो…फेंक दो।’ महासुमन ने देखा कि ‘फेंक दो….फेंक दो’ कहते हुए भी वह पाण्डुलिपियों को छिपाये जा रहा था।
‘अगर हमने जहाज को न बचाया तो सबकी जल समाधि तय है…’ – महासुमन ने फाह्यान से कहा।
‘ मैंने तो कहा है कि मेरे सामानों में से यह दिया, यह भिक्षापात्र, यह बैठने का पीढ़ा….यह सब फेंक दो…’ – फाह्यान ने कहा।
‘ ये पाण्डुलिपियों के बण्डल बहुत भारी हैं….जहाज में पानी भरने से रोकने के लिए हमें इन्हें समुद्र में फेंकना पड़ेगा…’ – महासुमन ने फाह्यान के नेत्रों में देखते हुए कहा। फाह्यान हतप्रभ सा महासुमन को देखता रह गया।
‘ आप इस बात को मेरा हठ न समझें…पर मैं इन पाण्डुलिपियों के बण्डल को समुद्र में नहीं फेंक सकता। बल्कि मैं यह कहना चाहता हूँ कि इन पाण्डुलिपियों के बण्डलों का भार उतना ही है जितना कि मेरा अपना भार….आपको यह लग सकता है कि दशकों बाद मैं अपने देश लौट रहा हूँ…पर यक़ीन करें कि इन सब बातों का अब कोई अर्थ नहीं है…’ – फाह्यान ने तपाक से कहा। महासुमन ने अचरज से फाह्यान के चेहरे को देखा।
‘ अगर भार कम करने से लोगों को बचाया जा सकता है तो बेहतर हो कि इन पाण्डुलिपियों की बजाय मैं स्वयं जल समाधि ले लूँ…. मैं अपने प्राणों की आहुति देकर भी इन पाण्‍डुलिपियों को बचाना चाहुँगा…और यह कोई हठ नहीं, कोई धमकी नहीं, कहीं कुछ भी नहीं…बस एक बात है, एक वचन जो मैं आपसे चाहुँगा महासुमन…।’ – महासुमन भौंचक सा फाह्यान को देखता रह गया।
‘ मैं चाहुँगा कि आप इन पाण्डुलिपियों को उस विहार तक पहुँचा दें जहाँ के लिए मैंने इन्हें एकत्रित किया है…..और विश्वास करें जल समाधि लेते हुए मुझे आपसे या किसी से भी कोई शिकायत न होगी….।’- महासुमन की ओर देखते हुए फाह्यान ने कहा था।
‘ अपने प्राण देकर भी इन पाण्डुलिपियों को बचाना मेरे लिए सबसे जरुरी है महासुमन….।’
महासुमन चुपचाप ऊपर चला आया। समुद्र की प्रचण्ड लहरों की गर्जना को सुनता वह एक किनारे पर खड़ा रहा, अकेला। उसके नेत्र भीगे थे। आसमान में गर्जना के साथ बिजली चमकती थी। रात बीतती थी, तूफान कम होने लगा था। आसमान में बादल थे पर हवायें थम रही थीं। थोड़ा और समय बीतने के बाद समुद्र शांत हो चला था। सुबह जब बादलों के बीच से सूरज चमकने लगा तब तक समुद्र पूरी तरह शांत हो गया था। फाह्यान ने सामने की टूटी खिड़की और कतार से बने मल्लाहों के बैठने के टूटे चबूतरों को देखा। जहाज के पेंदे में रात भर के परिश्रम से पानी का भरना बहुत कम हो गया था। सारा भण्डार खाली था। तमाम सामान फेंक दिये जाने के बाद जहाज अब थोड़ा हल्का हो गया था, पर अब भी थोड़ा-थोड़ा पानी भरता था जिसे कुछ मल्लाह तसले से उलीच कर मिट्टी के पात्रों में इकठ्ठा कर रहे थे। थक कर निढ़ाल हुए तमाम मल्लाह पेंदे में और ऊपर जगह-जगह लेटे थे। जहाज न जाने कहाँ चला जा रहा था। फाह्यान उन पाण्डुलिपियों के पास बैठा था, अविचल।
जहाज के वातावरण में अजीब सी बेचैनी थी। एक मल्लाह के नेत्रों में फाह्यान के लिए घृणा थी – ‘आप तो भिक्खु हो…भिक्खु होकर भी अपने सामान से, इन वस्तुओं से इतना मोह कि सामने खडी मृत्यु भी दिखाई न दे…’ – उसकी तेज़ आवाज़ सुनकर महासुमन उसके पास चला आया और उसे समझा-बुझाकर ले गया । फाह्यान ने प्रश्नाकुलता और बैर से भरे उस मल्लाह के चेहरे को देखा जो जाते-जाते भी मुड़-मुड़कर उसकी ओर देख रहा था। फाह्यान अब और कुछ नहीं कहना चाहता। उसने कह ही दिया था कि वह स्वयं ही जल समाधि लेने को तैय्यार है, इससे बड़ी कोई बात थी नहीं उसके पास कहने को। वह इन्हीं सब उधेड़बुन में था कि ऊपर से मल्लाहों की खुशी से चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दी। तमाम लोग ऊपर की ओर दौड़े। दूर कहीं ज़मीन दिखाई दे रही थी। टूटा-फूटा ध्वस्त हुआ जहाज धीरे-धीरे उसी तरफ बढ़ रहा था।
सैंकड़ों बरसों बाद, अनजान देश की धरती पर टट्टुओं पर पाण्डुलिपियों को लादता है फाह्यान। उसे पता है तीसरे टट्टू पर लदी दाहिनी पोटली में जो चौथा बण्डल है वह जंगल में लगी आग और उस नन्हे तोते की कथा वाला बण्डल है। उसने करीने से उस कथा को साफ-सुथरे कपड़े में लपेटा है। अक्सर जब उसे अपना देश और दिवंगत माँ की याद आती, वह चुपचाप इस कथा को निकालता और अकेले में पढ़ता। पूर्वपयोधि नाम के इस समुद्र के इस द्वीप पर जिसके बारे में ताम्रलिप्ती का वह नाविक कहता था कि जौ याने यव के खेतों से आच्छादित होने के कारण यह द्वीप यवद्वीप कहलाया, उसी द्वीप पर आ लगा है तूफान में टूटा जहाज।
जातक कथाओं की किताब में एक कथा शामिल न थी। किसी को पता न चलना था कि किताब के कुछ पन्‍ने खाली थे, भले हर पन्‍ना भरा हुआ था शब्‍दों से।
दूर समुद्र में धीरे-धीरे डूब रहा था, पिछली रात के प्रचण्ड तूफान में टूट कर ध्वस्त हुआ जहाज।
उस वीरान द्वीप पर न जाने कहाँ की यात्रा पर तो निकल पड़ी थी वह कथा , अबकी बार फाह्यान की हस्तलिपि में, अनजान देश की अनजान भाषा में लिखी हुई, टट्टू की पीठ पर लदी हुई…।


तरूण भटनागर

सुपरिचित कहानीकार एवं उपन्यासकार। चार कहानी संग्रह और तीन उपन्‍यास। इतिहास, आदिवासी विमर्श और वैश्विक कथ्‍यों पर लिखित रचनायें विशेष रूप से उल्लेखित। पहले उपन्यास ‘लौटती नहीं जो हँसी’ को स्‍पंदन कृति सम्मान और पहले कहानी संग्रह ‘गुलमेंहदी की झाड़ि‍याँ’ को वागेश्वरी सम्मान। उपन्यास ‘राजा,जंगल और काला चाँद’ और कहानी संग्रह ‘ प्रलय में नाव’ अंग्रेजी में अनुदित। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित दूसरा कहानी संग्रह ‘भूगोल के दरवाजे पर’ तथा नवीनतम उपन्यास ‘बेदावा’ विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुदित। कहानी और उपन्यास के अलावा इतिहास विषयक आलेख आदि लेखन का कार्य। सांस्कृतिक संस्थानों यथा भारत भवन में नवाचार और नवीन श्रृंखलाओं के लिए विशेष कार्य। वनमाली कथा सम्मान, मध्य भारत हिंदी सम्मान,शैलेष मटियानी सम्मान आदि से सम्मानित। इंदौर में रहते हैं।

 


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