कहा जाता है, इंसान के लिए पृथ्वी में जगह की कमी नहीं है लेकिन मनुष्य की ईर्ष्या या लालच ने मनुष्य के लिए कहीं जगह नहीं छोड़ी। समकालीन कविता की युवा हस्ताक्षर पल्लवी त्रिवेदी की कविताओं को उपरोक्त पंक्तियों के आलोक में देखें तो कहा जा सकता है कि ये कविताएं गहरी जीवन-दृष्टि को दर्शाती हैं। पेड़ या मृत्यु के माध्यम से जीवन के तल में छिपे विद्रूप को वे बहुत ही सहजता से रेखांकित कर देती हैं। पल्लवी आंसू की गरिमा को पहचानती हैं और वे रुदन के ख़िलाफ़ हैं जिसमें दैन्यता हो। वे उन योग्य शिकारियों को पहचानती हैं जिन्होंने संस्कृति के भोथरे हथियार से स्त्रियों की आज़ादी का क़त्ल कर डाला। यहां विविध शेड्स की कविताएं हैं जो जीवन की त्रासदी को ऐतिहासिक क्रम में देखती हैं । इन कविताओं के आधार पर कहा जा सकता है जो यह पंक्तियां कह रही हैं :
When me they fly
I am their wings.
– हरि भटनागर

 

कविताएं :

एक पेड़ हज़ारों स्पर्शों और आवाज़ों की स्मृतियों का गोदाम है

पेड़ भाषा नहीं समझते
नीयत से पैदा हुई ऊर्जा को समझते हैं

एक बद्दुआ से झर जाती हैं हरी पत्तियां
मुरझाने लगती हैं फलों से लदी डालियां

वहीं एक चिड़िया पेड़ के मुस्कुराने की वजह बनती है
एक शरारती गिलहरी पेड़ की उम्र बढ़ा देती है
एक नन्हा बंदर पेड़ के मन को गुदगुदाता है
एक नदी पेड़ की सारी थकान हर लेती है
एक झींगुर पेड़ को लोरी सुनाकर सुलाता है

पेड़ नहीं डरता उस कुल्हाड़ी से
जो चूल्हा जलाने के लिए उससे कुछ शाख़ें लेने आई है ,
एक पेड़ से अधिक सहृदय और उदार कोई नहीं !

पेड़ डरता है उस कुल्हाड़ी से जो उसे खत्म करने आती है

किसी पेड़ ने एक बार मुझसे कहा था कि
‘ एक आलिंगन कुल्हाड़ी से लगे सौ घावों पर मरहम बनता है’

सो पेड़ की स्मृतियों में तुम अपना एक आलिंगन दर्ज करना
उसकी यादों में तुम अपना चूमना ऐसे लिखना
कि पेड़ फर्क न कर सके कि
उसे हवा ने चूमा ,सूरज की किरणों ने चूमा या तुमने !

जिस दिन से मैंने हृदय में पेड़ों को स्थान दिया
उसी दिन से मैं हर पेड़ की स्मृति में प्रेम बनकर रह रही हूँ।

2- मृत्यु की तैयारी
———————–

मृत्यु की तैयारी देह का जन्मजात गुण है
आत्मा को तो सीखना पड़ता है यह हुनर

शरीर होता जाता परिपक्व उम्र बढ़ने के साथ
मन बहुधा नहीं होता ।
मृत्यु की सारी तैयारी बस इसी के बाबत है।

घर को ख़ाली करते जाना होता है सामान से कि
मरते वक्त तक रूठे हुए दोस्तों के लौटने जितनी जगह रिक्त हो सके
और दिल को करते जाना ख़ाली घृणा,लालच,द्वेष और स्वार्थ से
जिससे उसमें समा सकें अनाथ भटक रहे दुःख सारी सृष्टि के

मोह की मज़बूत गिरहों को आहिस्ता से खोलते जाना है
और प्रेम के कच्चे धागों को बनाते जाना है अटूट

मृत्यु की तैयारी महज जमा किये गए धन का विवेकपूर्ण बंटवारा करना नहीं है
यह अर्जित की गई समझ को भी बांट देना है उदारता से

मृत्यु से एक भी पल की मोहलत मांगना अधूरी ज़िन्दगी जीना है
चाहे कविता की आख़िरी पँक्ति लिखने के ठीक पहले ही वह क्यूँ न आ खड़ी हो।

सर्वश्रेष्ठ मृत्यु वही
जो संतोष की आख़िरी सांस के साथ आये।
सर्वश्रेष्ठ जीवन वही
जो मृत्यु के समक्ष खड़ा स्वयं से न लजाये।

3-

एक नर्तकी के घूमर नृत्य के एक चक्कर से बनते दिन और रात
और मुसलसल तीन सौ पेंसठ चक्करों से बदल जाता कैलेंडर
हर रात हज़ारों नन्हे सूर्य उगते जुगनुओं के पेट में

एक कतार में शक्कर के दाने ढोतीं चींटियां होतीं
एक रानी का हुक्म बजाते मजदूर ,
जिन्हें नहीं सौंपा कुदरत ने क्रांति का विचार

श्याम विवर प्रेम का ऐसा कुंआ बन जाता
जिसके नज़दीक जो आता ,
बच न पाता उसके आकर्षण से और
उसी का हो जाता जीवन भर के लिए
या यूं कह लें कि
सदियों से अकेले भटकते महा-तारे
उस कुएं में डूबकर ख़ुद कृष्ण बन जाते

क्लोरोफिल किसी रंगरेज का सबसे प्रिय रंग
जिससे रंगता वह सूर्यप्रिया की ओढ़नी
मल्हार गुनगुनाते हुए

एक बड़े अखरोट के भीतर रसायनों की उछलकूद से पैदा होतीं
विश्व की सबसे उदास कविताएं और संगीत

सारी सृष्टि बन जाती वंडरलैंड
और सारे मनुष्य हो जाते
कदम-कदम पर विस्मय से भरी नन्ही एलिस

जब जेहन देखता विज्ञान की दृष्टि से
और हृदय के पास होती कला की नज़र ।

4-

रागों की शास्त्रीय मिठास नहीं होती हर कान के लिए
रागों के सम्मान के ख़िलाफ़ है कि
उन्हें गाया जाए किसी अ-रसिक के समक्ष

और ठीक इसी तरह बरता जाए आँसुओं को भी।
किसी निष्ठुर के सामने रुदन करना
अश्रुओं की गरिमा के विरुद्ध है

सु-पात्र न मिले, तो बेहतर है कि
रागों और आंसुओं को खिलने दिया जाए
एकांत की रेशमी ओट में।

5-
सबसे कुशल दर्ज़ी वे बने
जिन्होंने दस ग़ज़ लम्बी ज़बान सिल डाली स्त्रियों की

सबसे कमाल के घुड़सवार वे हुए
जिन्होंने डाल दी लगाम स्त्रियों की आवारा दौड़ पर

क्या ही खूबी से कतर डालीं औरतों की आदिम ख्वाहिशों की घुंघराली लटें
कि एक मासूम इच्छा उगने भर से वे अपराध बोध से भर उठीं
उनसे कुशल नाई कौन होगा भला ?

वे सबसे योग्य शिकारी निकले
संस्कृति के एक भोथरे हथियार से कत्ल कर डाली स्त्रियों की आज़ादी

फिर एक रोज़
सिलाई के टांके उधड़े और एक स्त्री ने बोलना शुरू किया
एक स्त्री ने घुड़सवार को पटक हरे घास के मैदानों में दौड़ लगा डाली
एक स्त्री बगावत कर रेपेन्ज़ल बन गयी
और एक स्त्री जान गई कि इस हथियार से साग भी नहीं कट सकता

ये चार स्त्रियां मिलीं तो पहले गले मिलकर रोयीं
फिर खूब हँसी….हँसती गईं।

इन चार स्त्रियों की हँसी उजास की तरह फैल रही है
अब यह बन गयी है करोड़ों स्त्रियों की हँसी…..

एक कौम बेरोजगार होती जा रही है …

6-
मामूली चीज़ों को कौन याद रखता है ?

बावजूद इसके कि दुनिया में सबसे लंबी फेहरिस्त उन्हीं की है
रोजमर्रा के सारे कारोबार उन्हीं के भरोसे चल रहे हैं

सबसे ज़रूरी होते हुए भी वे मामूली हैं
क्योंकि उपलब्धता से तय होती है कीमत
चाहे वस्तु हो या मनुष्य ….
जिसे याद करते ही पहलू में पाया जाए
वह मामूली का दर्जा पा जाता है।

किसके पास फ़ुर्सत है जो घड़ी भर को सोचे कि
कैसे वे साधारण- सी चीजें अपने मामूलीपन में विराट हो उठती हैं

क्या किसी ने उपकार माना होगा
रसोईघर में हर वक्त मौजूद प्याज़ का या
भरे पूरे घर में स्त्री पुरुषों को जी भर कर रोने की सहूलियत देने वाले अदना से शॉवर का ?
अकेलेपन से घबराए आदमी के जीवन में
क्या तकिया सिर्फ सर को सहारा देने भर की वस्तु है ?

उद्देश्य जब महान हो जाये तो
मामूली मामूली नहीं रह जाता

चाहे वस्तु हो या मनुष्य ।

7-
एक रोज़ सुख-दुख की पड़ताल करते हुए जाना कि
जीवन के हज़ार सुखों में अनुपस्थित था महज प्रेमी के साथ का सुख
वह अनुपस्थित सुख ही मेरा एकमात्र दुःख था

दुख का घनत्व सुख से कई गुना ज्यादा होता है
सुख अपने बड़े आकार से अपनी बहुलता का भ्रम रचता रहा
जबकि कण भर के दुख का वजन मन भर का था

न दुःख में प्रेमी का साथ मिला, न सुख में
हां..साथ की उत्कंठा कन्धे पर बेताल की तरह बैठी रही

कभी-कभी उम्मीद नाम की छोटी तितली भी आकर हथेली पर बैठ जाती
पर उसके सहारे सुख को थोड़ा जीने की कोशिश की जाती,
इससे पहले वह उड़ जाती

काश बेताल तितली होता और तितली बेताल
तब शायद दुःख को जीता जा सकता था

फिर एक दिन बेताल भी उतर गया , तितली भी उड़ गई
तब मैंने हृदय को टटोला कि
दुख की खाली हुई जगह पर जल्दी से किसी सुख को रख दिया जाए

पर दुख वहीं था….
उतना ही ठोस और सघन ।

अब यह बेताल और तितली की अनुपस्थिति का दुःख था …

8-

एक और जाड़ा
एक बार फिर जाड़े की सिहराती बारिश
फिर वही कोहरे की सलेटी गन्ध से भरी सुबहें

ऐसे कई जाड़े आएंगे
मैं हर बार अकेले कोहरे भरी सड़क पर चलूंगी

हर बार एक वर्जित इच्छा की स्मृति ज़िंदा हो उठेगी और
करेगी मेरे हृदय का आखेट
मैं लहूलुहान फिर भी चलती जाऊंगी … धुंध को गहरी-गहरी साँसों से पीते हुए
( और विकल्प क्या है मेरे पास )

क्या अपना सुग्गा ठुड्डी पर चोंच मारे
तो उसे कंधे पर नहीं बिठाएंगे ?

9-

जब दुखता है कंधा तो लगता है मानो
बृहस्पति को सूरज के चक्कर काटते हुए चक्कर आ गया हो और
निढाल हो गिर पड़ा हो इसी कांधे पर

जब दुखता है कंधा तो इतना भारी हो जाता है
मानो पुत्र की चिता जलाकर लौटते पिता की छाती हो
या कारावास भोगते किसी बेगुनाह की बद्दुआओं से भारी हुई हवा।

अनवरत दुखता कंधा ऐसा व्याकुल हो रहता
जैसे याद के वजनी पत्थर के नीचे
सांप की पूँछ-सा बिलबिलाता दिल।

और तेज़ जब होती है कंधे की कसक
तो अपने जैसों को अनायास स्मरण कर उठता है मन
‘और कौन है जो चल रहा दुखते कंधे को ढोते हुए ‘

पहले सर्वाइकल और फ्रोजन शोल्डर के मरीज रहे इक्का दुक्का दोस्त याद आते हैं
फिर याद आता है एक परिचित
दुर्घटना में टूटी हड्डी तो जुड़ गई लेकिन कंधे की पीर बनी रही ताउम्र

याद का वर्तुल फैलता है
एक सहेली के एक कंधे पर बरसों से टिका था ऑफिस और दूजे पर घर
रात भर हर करवट पर दर्द से टसकते रहते बारी बारी
एक बार मुँह से निकल गया था ‘ कभी तो आदमियों को भी खाना बनाना चाहिए ना ‘
फिर फ़िक़्क़ से ऐसे हँसी थी जैसे बड़ा भारी मज़ाक किया हो

एक रिक्शावाला झटकता था अपना बायां कंधा जल्दी जल्दी ,
पूछने पर कहता था-
‘बस चढ़ाई पर सवारी ज़रा-सा उतर जाए तो बुढापे का यह कंधा खींच लेगा रिक्शा ‘

वजनी बस्तों से झुके बच्चों के कंधों को दबाने की इच्छा हो आयी
अपने कंधे की मसल्स को धीरे धीरे दबाते हुए

याद का वर्तुल बड़ा हो रहा
फैलकर शहर के बराबर हुआ
दिनरात पहियों के बोझ उठाते सड़कों के कंधों पर कौन लगाता होगा वॉलिनी

वर्तुल वामन के आकार की भांति फैल रहा

नदियों के कंधे भी घड़ियालों के नहीं बल्कि प्लास्टिक के बोझ से पिराते होंगे
पर्वतों की रीढ़ विशाल देवदारों से नहीं बल्कि कंक्रीट से टूट जाती है

थोड़ी सिंकाई से कंधा बस थोड़ा बेहतर लगा ही था
कि यह वर्तुल फैलकर पृथ्वी के नाप का हो गया

ओह एटलस… तुम्हारे कंधे के क्या हाल हैं दोस्त ?

फिर दुखता रहा कंधा देर तक
मैंने भी अब के दुखने दिया ।

10-

अनामंत्रित
————–

वो रोज़ तयशुदा वक़्त पर आता था
कभी अख़बार पढ़ने के बहाने
कभी घर के पके अमरूद देने के बहाने
तो कभी पेंचकस या गुलाब-कटर मांगने के बहाने

और फिर बैठा रहता घण्टों।

घर भर के लिए वो अनामंत्रित था
लेकिन अपने घर में अनचाहा सदस्य होने से बेहतर है
दूसरों के घर अनचाहा मेहमान होना
सो चला आता था रोज़ इस घर में ..

बरामदे में बेंत की कुर्सी पर सिकुड़ा बैठा अखबार फैलाकर पढ़ता रहता
सबसे आंखें चुराते हुए,
कभी कभार कोई वज़नी सामान उठाने में गृह स्वामिनी की मदद कर देता
कभी छोटे बालक को गणित का सवाल हल करवा देता।
कानों में पड़ने वाले एक-आध कटाक्ष को वह अनसुना कर देता।

कभी चाय नहीं पीता, कभी शिकंजी नहीं पीता,
नाश्ते के लिए कहता रहा सदा कि पेट भरा हुआ है ,नहीं खा सकेगा
पानी कभी-कभी पी लिया करता गर्मियों में
पंखा चलाने को भी कभी नहीं कहा उसने

वह कृतज्ञता से भर उठता चाय-पानी पूछने भर से
वह एक भी बार चाय पीकर इस पूछे जाने के सिलसिले को खत्म नहीं करना चाहता था
इससे दोनों का सम्मान बना हुआ था।

उसके चेहरे पर जाने क्या लिखा था विवशता की भाषा में
जो पढ़ सकी थी इस घर की स्वामिनी
कि कभी नहीं पूछा कि
‘ रोज़ क्यों आ जाते हो ?’

दोस्त कभी रहे होंगे उसके ,जो अचानक से अदृश्य हो गए थे
मोहल्ले की पान की दुकान पर उसका ख़ाता कब का बन्द हो गया था
सुबह शाम घिसे तले के जूते पहन घण्टों वॉक किया करता
पार्क में कदम्ब के नीचे बेंच पर अक्सर किसी किताब में नज़रें गड़ाए दिखाई पड़ता

वह उतना न्यूनतम आदर भी नहीं चाहता था
जितना अधिकार जन्म लेते ही मिल गया था उसे एक मनुष्य होने के नाते
बस घोर निरादर की जलालत से खुद को बचाने की कोशिश में था,
सैंतीस बरस का वह बेरोजगार युवक इन दिनों।


पल्लवी त्रिवेदी

8 सितम्बर, 1974 को ग्वालियर, मध्यप्रदेश में जन्म। प्रारम्भिक शिक्षा मुरैना व शिवपुरी में । उच्च शिक्षा मंडला और शाजापुर में । वर्ष 2000 में वे मध्यप्रदेश में उप पुलिस अधीक्षक के रूप में नियुक्त हुईं।

प्रकाशित कृतियाँ –
1- अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा (व्यंग्य-संग्रह)
2- तुम जहाँ भी हो (कविता-संग्रह)
3 – ख़ुशदेश का सफ़र( यात्रा वृत्तांत)
4- ज़िक्रे यार चले- लवनोट्स ( प्रेम कथा संग्रह)
5- पत्तियों पर काँपता कोमल गांधार ( कविता संग्रह )

रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित। लेखन के अतिरिक्त वे प्रकृति प्रेमी हैं व यात्राओं, संगीत व फ़ोटोग्राफ़ी का शौक रखती हैं। बर्ड फ़ोटोग्राफ़ी में विशेष रुचि । अब तक वे देश भर से 200 से अधिक प्रजातियों के पक्षियों की तस्वीरें ले चुकी हैं।

सम्मान-
वागीश्वरी सम्मान एवं पुलिस विभाग में सराहनीय सेवा के लिए ‘राष्ट्रपति पुलिस पदक’ से सम्मानित।

सम्प्रति : मध्यप्रदेश में राज्य पुलिस सेवा की अधिकारी। वर्तमान में आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ ,भोपाल में ए.आई.जी. के रूप में पदस्थ।
Mobile no. 9425077766

 

 


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