पीयूष बबेले पत्रकारिता की दुनिया का एक बड़ा नाम हैं।आप देश के शीर्षस्थ मीडिया संस्थानों में पत्रकारिता करते रहे हैं जिनमें इंडिया टुडे, दि इकनाॅमिक टाइम्स आदि प्रमुख हैं.
यहां हम पीयूष बबेले की चर्चित पुस्तक ‘नेहरू मिथक और सत्य’ का एक अंश प्रस्तुत कर रहे हैं. इस पुस्तक के 10 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और 12,000 से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं. पुस्तक हिंदी के अलावा मराठी भाषा में भी प्रकाशित हुई है और शीघ्र ही अंग्रेजी और गुजराती संस्करण भी आने वाले हैं.
इस पुस्तक के बारे में पत्रकार रवीश कुमार का कहना है कि एक लेखक के रूप में पीयूष ख़ुद भी झूठ पर आधारित समझ से बाहर आते दिखते हैं. यह किताब इस बात का प्रमाण है कि नेहरू के क़रीब जाने पर उनका असर कैसा हो सकता है. इसीलिए नेहरू को गालियां देने वाले नेहरू से भय खाते हैं.
बहरहाल, नेहरू को समझने की यह ज़रूरी किताब है।सुधी पाठकों से अनुरोध है कि इस अंश पर अपनी राय ज़रूर देंगे.
– हरि भटनागर
आलेख :
बांध बन रहे थे. मुल्क के भविष्य का ढांचा बन रहा था. इनसे देश के खाने-पीने और रोजगार का दूरगामी इंतजाम होना था. लेकिन इतना करना कहां काफी था. सुबह पांच बजे से रात के एक बजे तक काम करते वाले नेहरू के इरादों का क्षितिज व्यापक था. वे दूर तक देखते थे और सुबह-सुबह शीर्षासन भी करते थे. राज कपूर ने अपनी फिल्म ‘श्री 420’ में नेहरू जी भी शीर्षासन करते हैं, यह दुनिया उलटी है, उलटा होकर देखने पर यह सीधी नजर आती है.
इसीलिए नेहरू उल्टा-सीधा, आगा-पीछा सब देख रहे थे. उन्हें देश के खेतों तक पानी पहुंचाना था, करोड़ों लोगों को रोजगार देना था, लोगों को स्वास्थ्य और बच्चों को तालीम देनी थी. विज्ञान की नई से नई बात से मुल्क को रूबरू कराना था और दुनिया को एटम बम की ताकत से बचाना था. मुल्क की हिफाजत के लिए फौजी इंतजाम करने थे. कला-संस्कृति को बुलंदियों पर ले जाना था. विदेशी मेहमानों के लिए होटल बनाने थे. खेल की दुनिया में मुल्क का वजूद हो इसके लिए स्टेडियम बनाने थे. चंडीगढ़ जैसे नए शहर बसाने थे. कौन सा काम था, जो उन्हें नहीं करना था और हर काम जनता को बताकर करना था. क्योंकि वह मुल्क का ऐसा एकछत्र नेता था और जिसने भय की जगह प्रेम को अपना राजदंड बनाया था.
दिल्ली देश की राजधानी तो बन गई थी, लेकिन विदेशी मेहमानों को ठहराने लायक कोई ढंग का होटल नहीं था. 5 जुलाई 1948 को नेहरू ने एन वी गाडगिल को पत्र लिखा:
‘‘प्रिय गाडगिल, 24 जून को तुम्हारा पत्र मिला. जिसमें नई दिल्ली में पहले दर्जे का होटल बनाने का जिक्र था. मैं समझता हूं कि हमें पहले दर्जे का एक होटल बनाने के बारे में वाकई ध्यान लगाना चाहिए, न कि दो होटलों के बारे में. होटल हर हाल में अत्याधुनिक होना चाहिए. इसलिए इस बात का खास ध्यान रखा जाए कि होटल बनाने का काम किसे सौंपा जाता है. दिल्ली का इंपीरियल होटल बुरे होटलों का एक अच्छा नमूना है.’’ नेहरू इस पत्र में गाडगिल कि उस दलील को खारिज कर देते हैं कि होटल कनॉट प्लेस में बनना चाहिए. इसके अलावा होटल में शराब की परमिशन के बारे में भी वह कहते हैं कि विदेशी सैलानियों के मामले में कुछ न कुछ छूट तो देनी ही होगी. नेहरू लगे हाथ होटल विज्ञान पर एक छोटा सा निबंध सा इस पत्र में लिख देते हैं.
एक तरफ नेहरू फर्स्ट क्लास होटल की जरूरत बता रहे हैं, तो दूसरी तरफ यह याद दिला रहे हैं कि देश में पहले से ही कंस्ट्रक्शन मटेरियल की कमी है. ऐसे में दिल्ली में विलासिता के निर्माण, जैसे: सिनेमा, बड़े बंगले और बड़ी दुकानों के बनाने पर रोक लगनी चाहिए. 8 जुलाई 1948 को गाडगिल को लिखे पत्र में वह साफ निर्देश देते हैं कि कम से कम दो-तीन साल के लिए किसी भी कीमत पर दिल्ली में लग्जरी कंस्ट्रक्शन रोक दिए जाएं. वह समझाइश देते हैं कि ‘‘एक खास रकम से ज्यादा की लागत वाली इमारतों को लग्जरी इमारत माना जाए और उनके निर्माण की इजाजत न दी जाए. देश पहले से ही बिल्डिंग मटेरियल और सीमेंट की तंगी से जूझ रहा है. इन पाबंदियों से जनउपयोग के निर्माण कार्यों के लिए ज्यादा मैटेरियल उपलब्ध हो जाएगा. ऐसा करने से जनता पर अच्छा साइक्लोजिकल असर पड़ेगा.’’
इसी समय नेहरू विज्ञान और बिजली दोनों के दूरगामी इंतजाम करने में लगे थे. 25 जुलाई 1948 को नेहरू ने कराईकुडी में इलेक्ट्रो केमिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट की आधारशिला रखी. यहां दिए भाषण में नेहरू ने कहा ‘‘हमें देखना होगा कि लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए हम विज्ञान का कैसे प्रयोग कर सकते हैं. विज्ञान क्या है. विज्ञान बहुत सारी शक्तियों को इस तरह उपयोग करने का तरीका है, जो आदमी की जिंदगी को बेहतर बना दे. विज्ञान ने इंसान को बेहतर बनाने के लिए बहुत से काम किए हैं, लेकिन इसके साथ ही आदमी की तबाही और दुख के बहुत से काम भी विज्ञान ने ही किए हैं. हमें विज्ञान की अच्छाइयां लेनी हैं.
यहां जो इमारत बनेगी, उसमें वे सब काम किए जाएंगे जो मानवता की भलाई में काम आएंगे. लोग विशुद्ध साइंस और एप्लाइड साइंस की बात करते हैं, मेरे लिए वे दोनों एक ही चीज हैं. मेरी समझ में विज्ञान या दूसरी किसी गतिविधि का तब तक कोई मतलब नहीं है, जब तक कि वह व्यापक मानवता के हित में उपयोग नहीं होती.
मैं समझता हूं कि इस संस्थान के इर्द-गिर्द और भी संस्थान उग आएंगे. मुझे बताया गया है कि जल्द ही इमारत के निर्माण का काम शुरू हो जाएगा और जितनी तेजी से हो सकेगा, काम किया जाएगा. इस तरह से यह सेंटर देश के सबसे ज्यादा उत्पादक इलाके में बदल जाएगा. जहां तक लोगों के फायदे का सवाल है तो बिजली एक महान शक्ति है. आप इसके बारे में यहां रिसर्च करेंगे. आपके काम की उपयोगिता अपने आप ही फैल जाएगी.
इसलिए न सिर्फ यह संस्थान, बल्कि यहां से निकलने वाली सभी चीजें गांव और कस्बों में रहने वाले लोगों की भलाई और उद्योगों की स्थापना के काम आएंगी और लोगों को रोजगार दिलाएंगी.
हमारा लक्ष्य क्या है. हमारा लक्ष्य है, गरीबी का खात्मा करना. मनुष्य की शक्ति और प्रतिभा की हर तरह की बर्बादी को खत्म करना, ताकि हर आदमी काम कर सके और उत्पादन कर सके और उसके पास जीवन की सुविधाएं हों. और वह अपनी पूरी क्षमता के हिसाब से जिंदगी में तरक्की करे. ताकि हर आदमी, चाहे वह किसी जाति का हो, किसी समुदाय का हो, किसी धर्म का हो, उसके पास अपनी तरक्की करने के समान अवसर और गुंजाइश हों.’’
इसके बाद नेहरू दिल्ली के शरणार्थियों के लिए रेडीमेड मकान उपलब्ध कराने की बात कर रहे हैं. 2 अगस्त 1948 को नेहरू स्वास्थ्य मंत्रियों के दूसरे सम्मेलन में नई दिल्ली में जो बात कह रहे हैं, वह आज 70 साल बाद भी ऐसी लगती है, जैसे अतीत की नहीं, भविष्य की कोई तजवीज पेश की जा रही हो.
नेहरू ने कहा, ‘‘भारत सरकार ने फैसला किया है कि स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन अलग से हाउसिंग डिपार्टमेंट की स्थापना की जाए. यह विभाग मकानों की कठिन समस्या का हल खोजेगा. शरणार्थियों की लगातार आमद से यह समस्या काफी जटिल हो गई है. सरकार बने-बनाए मकानों के निर्माण के लिए जल्दी ही एक फैक्ट्री शुरू करने वाली है. अभी के कठिन हालात से निपटने के लिए यह एक तरीका है. बने-बनाए मकान स्टील और काफी हद तक सीमेंट की जरूरत को खत्म कर देंगे, क्योंकि इन चीजों की सप्लाई कम है. दो कमरे, किचिन, बाथरूम, छोटा सा बरंडा और आगे अहाते वाले मकान की कीमत ढाई हजार रुपए होगी. यह मकान ठंडे और टिकाऊ होंगे. मैं राज्य और प्रांतों को सलाह देता हूं कि वह भी अपने यहां इसी तरह के मकान विभाग शुरू करें.’’ यह फैक्ट्री 1950 में स्थापित हो सकी.
इसी भाषण में नेहरू कहते हैं, ‘‘अब मैं पोषण की समस्या पर बात करूंगा. हमारे देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को उचित पोषण नहीं मिल पाता है और बिना इसके खराब स्वास्थ्य और बीमारियों से निपटना नामुमकिन है. स्कूलों में भोजन के इंतजाम को बेहतर किया जाना चाहिए. बच्चों का स्वास्थ्य हमारी पहली प्राथमिकता है, क्योंकि वह भविष्य के नागरिक हैं.
मैं देश में सांख्यिकी खासकर स्वास्थ्य सांख्यिकी की गैरमौजूदगी से बहुत दुखी होता हूं. स्टेटिस्टिक्स जुटाना बेहद टेक्निकल काम है और केवल विशेषज्ञ ट्रेनिंग के बाद ही इस काम को संतोषजनक ढंग से किया जा सकता है. कोलकाता के पास बना स्टेटिस्टिकल इंस्टिट्यूट प्रोफ़ेसर महालनोबिस के नेतृत्व में अच्छा काम कर रहा है. इससे यह साबित होता है कि हमारे पास शानदार मानव संसाधन है, बशर्ते हम उसे संगठित कर सकें.’’
महलानोबिस ने इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट की स्थापना 17 दिसंबर 1931 को की थी. 28 अप्रैल 1932 को इसका औपचारिक रजिस्ट्रेशन नॉन प्रॉफिट मेकिंग साइंटिफिक सोसाइटी के तौर पर हुआ. भविष्य में महलानोबिस भारत में स्टेटिस्टिक्स के शिखर पुरुष होने वाले थे.
नेहरू के दिमाग में बेहतर आंकड़े और सांख्यिकी की बात लंबे समय से चल रही थी. उनका स्पष्ट विचार था कि जब तक आंकड़े सामने नहीं होंगे, तब तक समस्या का आकलन करना और उसके हिसाब से प्लान बनाना बेहद कठिन है. सबसे बढ़कर यह कि किसी योजना के नाकाम या कामयाब होने का पता कैसे चलेगा.
20 अगस्त 1948 मंत्रालयों को नेहरू ने मंत्रालयों को नोट भेजा:
‘‘बहुत सारे मंत्रालयों में सांख्यिकी विभाग हैं और इनमें से कुछ ने अच्छा काम किया है, हालांकि यह भी सही है कि हमारे स्टैटिस्टिकल ऑर्गनाइजेशन अन्य किसी भी स्तर पर बहुत पिछड़े हुए हैं. हमारे पास शायद ही कभी इतना पर्याप्त डाटा होता है कि हम किसी स्थिति का आकलन कर सकें. हम नीतियों की बात करते हैं, लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि हम उन नीतियों से जुड़े फैक्ट और डाटा भी हासिल कर सकें, जिनके आधार पर नीतियां बनाई जानी हैं. जब तक किसी कदम को पूरी तरह से जांचा-परखा न जा सके, तब तक हम अपनी कामयाबी या नाकामयाबी को कैसे नापेंगे.’’
इसके बाद नेहरू बताते हैं कि किस तरह खूब पैसा खर्च करने के बावजूद ‘अधिक अन्न उपजाओ’ अभियान की कामयाबी का कोई आकलन नहीं किया जा सका, क्योंकि सरकार के पास कोई डाटा ही नहीं था.
नेहरू यहां राष्ट्रीय स्तर पर सांख्यिकी संस्थान की जरूरत पर बल देते हैं. उसके बाद केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय कोलकाता के इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट को सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ़ स्टेटिस्टिक्स में बदलने की कार्यवाही शुरू करता है. 1949 में पी सी महालनोबिस कैबिनेट के मानद सांख्यिकी सलाहकार नियुक्त किए जाते हैं और केंद्रीय सचिवालय में सेंट्रल स्टैटिस्टिकल यूनिट की स्थापना होती है. जो बाद में 1951 में सेंट्रल स्टैटिस्टिकल ऑर्गनाइजेशन के रूप में विकसित होती है.
नेहरू सिर्फ इस बात पर ध्यान नहीं दे रहे थे कि मुल्क साइंस के मामले में तरक्की करे. वह इस बात का ख्याल भी रख रहे थे कि बड़े वैज्ञानिकों को पूरा सम्मान मिले. शांति स्वरूप भटनागर और सी वी रमन जैसे महान वैज्ञानिकों की गरिमा के हिसाब से नेहरू ने पदों का निर्माण किया. उनके कार्यकाल को आगे बढ़ाने के बारे में नेहरू जिस अदब के साथ सरकारी नोटशील लिखा करते थे, उतना सम्मान शायद बादशाह अकबर ने अपने नवरत्नों को ही दिया होगा.
11 जनवरी 1949 को नेहरू ने अपने प्रिंसिपल प्राइवेट सेक्रेटरी को नोट लिखा:
‘‘डॉ. सी वी रमन के लिए 1948 में नेशनल प्रोफेसरशिप ऑफ फिजिक्स बनाई गई थी. इसे साफ तौर पर सिर्फ उन्हीं के लिए रचा गया था, क्योंकि डॉ. रमन विज्ञान की दुनिया की एक बड़ी हस्ती हैं. विज्ञान के क्षेत्र में सरकार उनकी सेवाओं का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने के लिए उत्साहित थी और चाहती थी कि वह अपनी मर्जी के मुताबिक रिसर्च का काम कर सकें. उनकी जैसी विशिष्ट प्रतिष्ठा वाले वैज्ञानिक को उनके काम के अनुपात में ऐसा सम्मान मिलना ही चाहिए. यह पद दो साल के लिए ढाई हजार रुपए प्रतिमाह के वेतन पर बनाया गया था और इसे इंडियन एकेडमी ऑफ साइंस के साथ जोड़ा गया था.’’
महान वैज्ञानिकों के लिए पद सृजन की स्वस्थ परंपरा की स्थापना करते हुए नेहरू कहते हैं, ‘‘टेक्निकल दिक्कतों को देखते हुए इस तरह की नियुक्तियां परमानेंट आधार पर नहीं की जातीं. लेकिन इनके लिए तय किया गया समय, खास महत्व नहीं रखता. सबसे अच्छा तो यही होता कि इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं की जाती, बल्कि यह कहा जाता कि कोई भी पक्ष 6 महीने का नोटिस देकर काम से अलग हो सकता है. मैं वित्त मंत्रालय की एप्रोच पसंद नहीं करूंगा, क्योंकि इस समय बहुत सारी दिक्कतें हैं. लेकिन प्रोफेसर रमन को सूचित कर दिया जाए कि सरकार अनंत समय तक उनकी सेवाएं लेना चाहती है. उनकी नियुक्ति निजी तौर पर की जा सकती है और उसे इंडियन एकेडमी ऑफ साइंस से अटैच करने की जरूरत नहीं है.’’
इसी पत्र में नेहरू ने प्रोफेसर रमन द्वारा रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट के लिए एक लाख रुपये सालाना ग्रांट देने की मांग का जिक्र किया. नेहरू ने कहा कि इस मांग को वित्त मंत्रालय भेजना संभव नहीं है क्योंकि वित्त मंत्रालय पहले ही हर तरह की ग्रांट रोक चुका है. इनमें से कई ग्रांट बहुत महत्वपूर्ण योजनाओं की थीं लेकिन देश की वित्तीय स्थिति ठीक न होने के कारण मंत्रालय के पास कोई चारा नहीं था.
लेकिन इससे, हमारे लिए रमन रिसर्च इंस्टिट्यूट का महत्व कम नहीं हो जाएगा. डिपार्टमेंट ऑफ साइंटिफिक रिसर्च रमन रिसर्च इंस्टिट्यूट को लेकर उत्साहित है और उससे जितना संभव बन पड़ेगा, वह उतना फंड इस संस्थान को देगा.’’ सी वी रमन ने 1948 में बेंगलुरु में रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना की थी.
विज्ञान को लेकर नेहरू और सी वी रमन की जुगलबंदी बहुत पुरानी थी. जब 1938 में सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष थे, तब भी नेहरू और रमन ने योजना बनाई थी कि जर्मनी में हिटलर के अत्याचार के कारण वहां से पलायन कर रहे यहूदी वैज्ञानिकों को किसी तरह भारत लाया जा सके. उस जमाने में जर्मनी के यहूदी समुदाय में सबसे बड़े वैज्ञानिक हुआ करते थे और अल्बर्ट आइंस्टाइन भी उनमें से एक थे. लेकिन सुभाष चंद्र बोस को यह योजना पसंद नहीं आई और इस पर काम नहीं हो सका.
लेकिन अब देश भी आजाद था और नेहरू भी आजाद थे, इसलिए योजनाओं पर ताबड़तोड़ काम चल रहा था. लेकिन इन कामों में नेहरू का वह नियम बराबर कायम था, पहली चीज सबसे पहले, दूसरी प्राथमिकताएं दूसरे नंबर. उन्हें पहले देश का पेट भरना था, और बाकी चीजें दूसरी प्राथमिकता के साथ करनी थीं.
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इसीलिए नेहरू बहुत सी जरूरी मांगों को भविष्य के लिए छोड़ते भी जा रहे थे. कला और संस्कृति से जुड़ा एक बढ़िया किस्सा देखिए. दिल्ली के श्रीराम सेंटर का नाम तो काफी मशहूर है. कला और संस्कृति की दुनिया में इसकी अपनी धाक है. इस सेंटर का नाम लाला श्रीराम के नाम पर रखा गया है. लाला श्रीराम देश के बड़े उद्योगपित और मशहूर डीसीएम समूह के मालिक थे.
तो इन्हीं लाला श्रीराम ने 10 जनवरी 1949 को नेहरू जी को पत्र लिखा कि भारत से रजवाड़ों के खत्म होने के बाद से भारतीय कलाकार और लेखक तबाह होने की कगार पर पहुंच गए हैं. उन्होंने सुझाव दिया कि इन कलाओं को सरकारी संरक्षण दिया जाए. इसके अलावा एक वैधानिक बोर्ड बनाया जाए, जिसमें विशेषज्ञ, सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोग और कुछ प्रशासक शामिल हों. उन्होंने इस काम के लिए 50 लाख रुपये की मांग की.
नेहरु जी ने 17 जनवरी 1949 को जवाब लिखा, ‘‘मैं इस बात में आप से पूरी तरह सहमत हूं कि भारतीय संस्कृति और कलाओं के संरक्षण और विकास को प्रोत्साहन देने के लिए हमें कुछ करना चाहिए. मैं समझता हूं कि ऐसा करना राज्य की जिम्मेदारी होनी चाहिए, बल्कि इन मामलों से निपटने के लिए एक विशेष विभाग होना चाहिए. फ्रांस में इस काम के लिए मिनिस्ट्री ऑफ फाइन आर्ट्स है. लेकिन फिलहाल हम इस स्थिति में नहीं हैं कि बड़ी रकम की दरकार वाली ऐसी किसी योजना को चला सकें या उसमें शामिल हो सकें. मैं समझता हूं कि इस बारे में भविष्य में कुछ किया जाएगा. आपको नए साल की बहुत-बहुत मुबारकबाद.’’
नेहरू पैसा किफायत से खर्च कर रहे थे. कला-संस्कृति को अपनी बारी के लिए कुछ देर इंतजार करना था. 31 मई 1952 को संगीत नाटक अकादमी की स्थापना की गई. 5 अगस्त 1954 को दिल्ली में ललित कला अकादमी की स्थापना हुई. इससे ठीक पहले 12 मार्च 1954 को साहित्य अकादमी का उद्घाटन हुआ. ये अकादमियां नेहरू और तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद की जुगलबंदी का परिणाम थीं.
साहित्य अकादमी शुरू होने के अगले ही दिन नेहरू ने जो किया वह ऐतिहासिक है. नेहरू ने साहित्य अकादमी के नव नियुक्त सचिव कृष्ण कृपलानी को महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बारे में पत्र लिखा. नेहरू और निराला दोनों इलाहाबादी थे. नेहरू ने लिखा कि वैसे तो निराला बहुत बड़े कवि हैं और जब कभी रौ में आते हैं तो अब भी बहुत अच्छी कविता लिखते हैं. लेकिन वे फक्कड़ स्वभाव के हैं. उनके पास पैसा रुकता नहीं. उनकी किताबें वैसे तो खूब बिकती हैं और पाठ्यक्रम में भी शामिल हैं, लेकिन उन्होंने जिस तरह से रॉयलटी बेच दी है, उसमें सिर्फ प्रकाशकों को फायदा होता है. निराला के हिस्से महीन में मुश्किल से 20-25 रुपये आते हैं.
नेहरू ने कृपलानी को सुझाव दिया कि अकादमी निराला को हर महीने 100 रुपये की मदद भेजा करे. साथ ही नेहरू ने ताकीद की कि यह पैसा सीधे निराला को न भेजा जाए, क्योंकि वह कलंदर तो न जाने किसे पैसा दे बैठेंगे. इसलिए बेहतर होगा कि पैसा हर महीने कवियत्री महादेवी वर्मा को भेजा जाए. सचिव ने कहा कि प्रस्ताव तो बहुत अच्छा है, लेकिन शिक्षा मंत्री की मंजूरी जरूरी है. 16 मार्च को शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद की मंजूरी भी आ गई.
तीन दिन के भीतर प्रधानमंत्री और शिक्षा मंत्री ने एक कवि को दी जाने वाली विनम्र सहायता शुरू करा ली. कोई लाल फीता बीच में नहीं आया. यह गांधी के जवाहर का लोकतंत्र था जिसमें संवेदना थी, सम्मान था, तेजी थी और सबसे बढ़कर इंसानियत थी.
ऐसा नहीं कि नेहरू को सिर्फ निराला से ही प्यार था. उर्दू के महान शायर फिराक गोरखपुरी के लिए नेहरू बड़े भाई की तरह थे. नेहरू उन्हें रघुपति कहकर ही पुकारते थे. हिंदी के मशहूर कवि हरिवंश राय बच्चन से उनका निजी रिश्ता था. ऑल इंडिया रेडियो में उन्हें सम्मानित पद पर नियुक्त करने का पत्र नेहरू ने अपने हाथ से लिखा था. यही नहीं, अपनी मृत्यु से पहले महात्मा गांधी ने जो आखिरी खत पंडित नेहरू को लिखा था, उसकी भाषा जब नेहरू नहीं पकड़ पा रहे थे, तो इसका अंग्रेजी अनुवाद करने का आग्रह उन्होंने बच्चन जी से किया था. इसी पत्र में बापू ने नेहरू को हिंद का जवाहर कहा था. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध किताब संस्कृति के चार अध्याय की भूमिका खुद नेहरू ने लिखी. और हिंदी कविता को उसके पांव पर खड़ा करने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त नेहरू जी के करीबी थे. दोनों राष्ट्रकवियों को नेहरू ने राज्यसभा में सम्मानित जगह दी.
कवि और लेखकों की परेशानियों को वह खूब समझते थे, क्योंकि खुद भी लेखक थे. 25 जनवरी 1949 को लेखक नेहरू ने देश के वित्त मंत्री जॉन मथाई को पत्र लिखा:
‘‘मैं प्रधानमंत्री के तौर पर नहीं, बल्कि एक लेखक की हैसियत से आपको यह खत लिख रहा हूं. इस पत्र के साथ मैं ‘लंदन टाइम्स’ की एक कतरन भी भेज रहा हूं, जिसमें जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का एक पत्र छपा है.’’ 18 जनवरी 1949 के ‘लंदन टाइम्स’ में बर्नार्ड शॉ ने संपादक के नाम पत्र में लिखा था: उनके जैसे पेशेवर लेखकों, नाटककारों और कंपोजर्स को एक किस्म के जुए के धंधे में अपना जीवन काटना पड़ता है. एक मशहूर लेखक होने के बावजूद उनके कुछ नाटकों से तो उन पर पैसे की बरसात हो गई, लेकिन बाकी नाटकों से उन्हें कुछ नहीं मिलता. बेहतर यह होगा कि लेखकों पर जो टैक्स लगाए जाएं, वह उनकी सालाना आमदनी के बजाय, तीन साल की औसत आमदनी पर आधारित हों. बर्नार्ड शॉ की इस बात को नेहरू भारतीय संदर्भ में देखना चाह रहे थे.
नेहरू पत्र में आगे लिखते हैं, ‘‘भारत में लेखकों की हालत इंग्लैंड से कहीं गई-बीती है. मुझे लगता है कि उन्हें सहानुभूति और बढ़ावे की दरकार है. यह काम ठीक-ठीक कैसे किया जाए, यह आपके मंत्रालय को सोचना है. जिस तरह के एवरेज की बात इंग्लैंड में हो रही है, हो सकता है वह कुछ काम की हो. अपने निजी तजुर्बे से मैं आपको बता सकता हूं कि एक साल मुझे अपनी रॉयल्टी से 50 हजार रुपये तक मिल गए थे और उसके बाद कई साल तक मुझे रॉयल्टी से तकरीबन कुछ भी नहीं मिला. जो 50 हजार रुपये मिले थे, वह तकरीबन पूरे के पूरे टैक्स में चले गए, खासकर तब जब सरकार के सदस्य के रूप में मुझे अतिरिक्त आमदनी होती है. हालांकि मेरे मामले का कोई मतलब नहीं है, फिलहाल में भारत के औसत लेखकों की समस्या आपके सामने रख रहा हूं.’’
विज्ञान, कला और साहित्य के लिए फिक्रमंद नेहरू खेलों के लिए और ज्यादा चिंतित थे. उन्हें 1951 में देश में पहले एशियाड खेलों का आयोजन कराना था. खेल के बहाने उन्हें दुनिया में एक नए राजनैतिक ध्रुव की नींव रखनी थी. 11 फरवरी 1949 को क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के मानद सचिव ए एस डीमेलो के पत्र के जवाब में नेहरू ने एक नोट लिखा.
‘‘मैंने मिस्टर डिमेलो द्वारा बनाया गया वह नोट पढ़ा, जिसमें उन्होंने नई दिल्ली में ‘नेहरू स्टेडियम इन पार्क’ और मुंबई में ‘वल्लभ भाई पटेल ओलंपिक स्टेडियम’ बनाने का सुझाव दिया है.
मैं भारत में खेल-कूद और एथलेटिक्स को पूरा प्रोत्साहन देने के पक्ष में हूं. और यह बहुत अफसोस की बात है कि देश में कहीं भी कोई ढंग का स्टेडियम नहीं है. बल्कि पटियाला या एक-दो जगहों को छोड़ दें तो देश में कहीं भी कायदे का रनिंग ट्रैक तक नहीं है. इसलिए मुझे लगता है कि सरकार को हर तरह से स्टेडियम निर्माण के काम को बढ़ावा देना चाहिए.
मैं किसी भी स्टेडियम का नाम अपने या किसी दूसरे व्यक्ति के नाम पर रखने के सख्त खिलाफ हूं. यह एक बुरी आदत है और इसे बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए. स्टेडियम का नाम ‘नेशनल स्टेडियम’ या इसी तरह का कोई दूसरा नाम हो सकता है.’’
इस मामले में भी नेहरू ने स्टेडियम के लिए सुझाए गए भारी-भरकम बजट से हाथ जोड़ लिए. यह काम भी समय के साथ पूरा हुआ. हालांकि नेहरू की वह इच्छा पूरी नहीं हो सकी, जिसमें उन्होंने इंसानों के नाम पर स्टेडियम का नाम रखने का विरोध किया था. आज दिल्ली में उनके और उनकी बेटी इंदिरा के नाम पर बड़े-बड़े स्टेडियम हैं. खिलाड़ियों को दिए जाने वाले एक प्रतिष्ठित पुरस्कार का नाम उनके नाती राजीव गांधी के नाम पर राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार रखा गया है.
नेहरू होते तो यह सब न करते. क्योंकि ऐसा करने से उनका या दूसरे नेताओं का कद कोई बढ़ नहीं गया, उल्टे उन पर वंशवाद का आरोप चिपका दिया गया. उनके राजनैतिक विरोधी बार-बार तंज करते हैं कि क्या एक ही परिवार ने देश के लिए सब कुछ किया और यह बात लोगों को समझ भी आती है. अगर उनके सियासी वारिसों ने वही शुचिता और गरिमा दिखाई होती, जैसी नेहरू दिखा रहे थे, तो आगे चलकर कांग्रेस पार्टी को साख के संकट से न जूझना पड़ता.
लेकिन सबको अपने किए का हिसाब देना है. नेहरू अपना काम किए जा रहे थे.
पीयूष बबेले
पीयूष बबेले वरिष्ठ पत्रकार हैं। वह प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया- भाषा, दि इकनॉमिक टाइम्स, इंडिया टुडे और दैनिक भास्कर आदि में दिल्ली में विभिन्न पदों पर कार्यरत रहे हैं।.
उनकी पुस्तक नेहरू मिथक और सत्य चर्चित पुस्तक है, जिसकी 12000 से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। इस पुस्तक के लिए उन्हें राजस्थान सरकार की जवाहरलाल नेहरू बाल साहित्य अकादमी से राष्ट्रीय शिखर सम्मान से नवाजा गया। उनकी दूसरी पुस्तक गांधी : सियासत और सांप्रदायिकता के लिए उन्हें आदित्य बिरला समूह की ओर से महात्मा अवार्ड फॉर फियरलेस राइटिंग से सम्मानित किया गया।
नेहरू मिथक और सत्य मराठी में भी प्रकाशित हुई है और शीघ्र ही अंग्रेजी तथा गुजराती भाषा में प्रकाशित होने वाली है। गांधी सियासत और सांप्रदायिकता गुजराती भाषा में भी प्रकाशित हो चुकी है।
Email: Piyush.babele@gmail.com
पीयूष बबेले, बी 69 आकृति गार्डन, नेहरू नगर, भोपाल, मध्य प्रदेश
फ़ोन 9871187260
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अच्छा आलेख,आज के दौर में जब हर खराबी के लिए नेहरू जिम्मेदार ठहराए जा रहे हैं। तब भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रति इस आलेख ने न्याय किया है। शुभकामनाएं एवं बधाइयां