ए. असफल हिंदी कहानी के नौवे दशक के महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। असफल ने सामाजिक संबंधों के साथ स्त्री-अपराजेयता की कई कहानियां और उपन्यास लिखे जो भारी प्रशंसित रहे। प्रस्तुत कहानी पुराने और नए संस्कारों के बीच टकराव की कहानी है, जहाँ एक ओर विद्वता और तर्क का गर्व है, तो दूसरी ओर भक्ति और आस्था का जोश, जो धीरे-धीरे परिवार को बदल रहा था, जैसे कोई महामारी फैल रही हो।
– हरि भटनागर
कहानी:
तनाव से दाहिने कान के बगल वाली नस फटी जा रही थी। सिर दीवाल से दे मारने को आमादा वे नीचे के पोर्शन में पागलों से घूम रहे थे। छत पर पाँवों की धमक से दिल में जोर के धक्के लग रहे थे। तालियों की फटकार से कानों के पर्दे झनझना रहे थे। पर यातना का फिलहाल कोई अंत नहीं था। क्योंकि अभी-अभी तो बहूरानी ने पहले गीत के बोल उठाए थेः
मुझे लगी श्याम संग प्रीति,
गुजरिया क्या जाने…
अभी हाल ही लहराकर ऐड़ी की पहली धमक दी थी। अभी हाल ही तो झूम कर पहली ताली फटकारी थी।… अभी तो “मोहन आना न रतियाँ हमार गलियाँ” गाएगी। और फिर नीचे उतर गलियों में दोड़ जाएगी यह गाते हुएः
गलियों में शोर मचाया,
श्याम चूड़ी बेचने आयाऽ…
क्या से क्या हो गया! उनका गला सूख रहा था। कितनी आज्ञाकारिणी बहू, कितनी इन्नोसेंट। वे कहते तो पति के साथ जाकर सोती, नहीं तो नहीं!
पर यह परिवर्तन एक दिन में नहीं हो गया। होने को वे ताड़ तो रहे थे, पर जितना रोक रहे थे, बदलाव उतनी ही द्रुत गति से हो रहा था। मानों महामारी फैल रही थी।…. वे प्रारंभिक दिन, वह सुख, आह! उसे याद कर करके दिल में हूक उठती रहती है!
साढ़ू ने कहा था, “डाक्टर, नरोत्तम की शादी करोगे?”
यही नाम रखा था उन्होंने बेटे का! नरों में उत्तम!! पत्नी शुरू से ही प्रिय नहीं रहीं। एक तो छविहीन और साँवली थीं, प्रोफेसर गोरेनारे! दूसरे निहायत सीधीं, मानों गऊ! उन्हें अनुरूप नहीं लगतीं। इसलिए बेटे पर प्रियता दुगनी हो गई थी। हालांकि रंग में वह पत्नी पर ही गया था, पर चेहरे पर प्रोफेसर की छवि झलकती। पत्नी को गाँव में छोड़ उसे वे शहर ले आए थे। सीने से लगाकर यहीं पढ़ाया-लिखाया। अपनी तरह पीएच.डी. कराकर प्रोफेसर बनवाना चाहते थे। पर बीए में ही साढ़ू ने घेर लिया, “डाक्टर, ब्याह करोगे बेटे का!”
“कर लेंगे।” वे हँसकर फँस गए।
“माँग लो, क्या माँगते हो?”
“धेला नहीं!”
“तो?”
“सिर्फ लड़की…बस लड़की जँच जाय।” कहकर आँखें मूँद लीं उन्होंने।
“तो चलो, देख लो…” साढ़ू की आँखें चमकीं।
“न, ऐसे नहीं। ऐसे तो तुम हीरोइन की तरह फिल्म के सैट पर लाकर खड़ा कर दोगे, उसे! लड़की का नाम-जन्मांक, जिससे कुंडली मिलवा लें और पता-ठिकाना दे जाओ। सीबीआई की तरह छापा मारेंगे हम तो…” वे फिर हँसे।
“ठीक है!” साढ़ू कुटिलता से मुस्कराए कि तुम सा शक्की नहीं देखा…शहर की हवा खाई से नहीं, गाँव की अबोध छोरी से ब्याहना चाहते हो नरोत्तम को। सती अनुसूया सी उत्तम वधू चाहते हो, जिसके स्वप्न में भी अपने पुरुष के सिवा जगत में दूसरा पुरुष न हो!’ वे पता-ठिकाना देकर चले गए। तब प्रोफेसर छह-सात महीने बाद कुंडली मिलवा कर एक दिन उमंग में भरे साढ़ू के दिए पते-ठिकाने पर जा पहुँचे। बताया नहीं कौन हैं-कहाँ से आए! बाहर पड़ी चारपाई पर बैठ गए चुपचाप। पुरुष हारखेत गए होंगे। महिलाएँ भीतर। 17-18 साल की गोरी-भूरी लड़की भाई के पुराने पेंट-शर्ट पहने, बाल पीछे की ओर लाल रिबिन में बाँधे, कुएँ से पानी भर-भर कर ला रही थी। गौर से देखते हुए उन्होंने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है, बेटी?”
“मीरा!”
“मीरा या मीरा देवी?”
“नहीं मीरा…’ वह गगरियों के बोझ से बड़ीबड़ी आँखें निकाले घिसटती-सी भीतर चली गई। और वे बैठे रह गए मुस्कराते हुए। बहू उन्हें पसंद आ गई थी जो ताजा हवा की तरह प्रदूषण मुक्त थी, सर्वथा। अबोध। निष्कपट। निश्छल। निराग्रह। निर्द्वंद्व। अनगढ़।
इसे गढ़ लेंगे वे। जिस साँचे में चाहेंगे, ढाल लेंगे। मुतमईन थे।
थोड़ी देर में वह लोटे में पानी और कटोरी में बताशे भर कर दे गई।
उन्होंने दर्शन पढ़ा था। पढ़ा रहे थे। जो देखने में अत्यन्त सरल, जैसे- सूर्य का उगना, प्रखर होना, अस्त होना…नदी का पहाड़ से बूँद-बूँद रिसना, विकराल होते जाना, समुद्र में जा गिरनाय वही- कहत कठिन, समुझत कठिन, साधत कठिन विवेक! उस दिन कयास नहीं लगा पाए वे! चूक गए…। माँ ने सलवार-कुरता पहना दिया, पिता ने गोद में लाकर बिठा दी। और वे न्यौछावर हो गए। पत्नी की जंजीर कुरते की जेब में डाल लाए थे, बहू के गले में पहना दी। झोले से साड़ी निकाल गोद में रख दी। रस्म हो गई। किसी को यकीन नहीं आ रहा था। साढ़ू ने सुना तो कहा, “अब तो हम फाँस लेंगे, बेफिकर रहो! कितना भी बिदकें, हाथ से निकलने न देंगे।”
नरोत्तम स्कूल से लौट आया था। पिता को पागलों की तरह इधर से उधर टहलते देखा तो हाथ पकड़ कर बोला, “कूलर में देह चिपचिपा रही होगी। कल एक एसी लगवा देंगे!”
“ना!” वे उखड़ गए।
“काहे! घी देत नर्रात काहे हो?” उसने आँखें निकालीं।
“इसलिए कि वो जितनी ठंडक देगा, उससे ज्यादा गर्मी उगलेगा।” वे दूध के जले थे।
“तुम्हारे घर में उगलेगा,” वह खीजा, “गली में उगलेगा, उगलता रहेगा, तुमसे मतलब!”
“गली में चलोे-फिरोगे नहीं? गली से हवा कभी तो भीतर आएगी! घरती को और कितना तपाओगेेऽ” वे चीखे, “सारा ग्लेशियर पिघल जाएगा, बूँद-बूँद पानी को तरस जाओगे, पीढ़ियों को कुछ छोड़ोगे कि खुद ही चाट लोगे?”
“मरो-फिर…।” पीठ फेर वह ऊपर चढ़ गया, जहाँ मीरा ‘आस्था’ पर गाय-गोपाल के भजन सुन रही थी। नीचे प्रोफेसर अपने कमरे में आ बैठे। लगा, गाय भीतर घुस आई है। बेचौनी में वे फिर उठकर बाहर गए। नरोत्तम को आवाज देते तो वह आँखें निकाल खीजता, ‘गाय तुम्हारे दिमाग में घुस गई है!’ फाटक के बाहर चारे की बाल्टी रखी थी। बहू रस्सी में लटका कर नीचे उतार देती है। गायों को चारा खिलाती रहती है, दिन भर। ऐन द्वार पर दिन भर गोबर-मूत्र बिखरता रहता है। चारे का बोरा रोज नरोत्तम लेकर आता है, ऊपर चढ़ा देता है। नरोत्तम को कोई मतलब नहीं पाप-पुण्य कमाने से। मीरा को है। वह उसी के सुकून के लिए लाता है- घास, भूसा, दाना, कुटी वगैरह। और वह बाल्टी में भर-भर कर उतारती रहती है, गायों के लिए नीचे।
प्रोफेसर क्रोध में नरोत्तम को पिस्सू कह देते हैं, तब वह भड़क जाता है। कहता है, किसी दिन आत्महत्या कर लेगा। क्योंकि पिस्सू नहीं तो वह कम से कम वह दाना जरूर है जो दूसरों की भूख मिटाने दो पाटों के बीच न जाने कब से पिस रहा है।…
बीए फाइनल में था वह। लड़की दिखाई नहीं और बाँध दी गरे से। मौसा ने पिताजी से कहा, “कार, बाजे, लाइट, आतिशबाजी वगैरह कर लेना।” उन्होंने पूछा, “कितने के होंगे?” मौसा ने पूछ कर बताया, “एक हजार में कार, दो हजार में बाजे, पान्सौ में आतिशबाजी और लाइट।” पिताजी ने कहा, “साढ़ू भाई, हमने लिहाज में कुछ माँगा नहीं। लगुन-फलदान में हमारे अनुरूप न रखवाया तुमने, तो गड्डी लौटाकर सिर्फ एक टका रख लिया था। टीका, बेला का क्या भरोसा, वह तो समधी के द्वार पर होगा! दरवाजे पर कुत्ता भी शेर हो जाता है…। हमें काहे मुड़वाते हो, भाई? दिन की लगन है, बारात दिन में ही चढ़वा लेना।” इस पर वे बोले, “हमें क्या करना, जिसमें तुम्हारी शोभा बने! पर एक घोड़ी और ढाई सौ के किड़किड़िया बाजे तो कर ही लेना।… घुड़चढ़ी की रसम तो निभ जाएगी।”
पिताजी ने हामी भर दी। फिर बाद में सोच समझ कर मौसा से कह दिया कि “अकेला लड़का है। हम कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते। घोड़ी बिदक जाय तो पता नहीं क्या हो! इससे तो अच्छा है, तुम कार ही कर लेना। हम पेमेण्ट कर देंगे।” और उन्होंने सोच लिया कि दरवाजे के लिए कार हो जाएगी तो बरात के लिए बस क्यों की जाय? सो, गाँव के ही एक बौहारी का ट्रेक्टर डीजल पर ले लिया और शाम को ही चल पड़े। सुबह तक पहुँच गए खरामा-खरामा। देवाले में जनवासा मिल गया। लोग खेतों में दिशा-मैदान के लिए बिखर गए। फिर नहर-बम्बे में नहाए। तेल-फुलेल किया। नाश्ता पाया। और लम्बी तान कर सो गए। अपराह्न तीन बजे बरौना धरवाया गया तब घुड़चढ़ी के लिए घोड़ी की दरकार हुई! पर मौसा मुकर गए कि ‘तुमने मना कर दिया था!’
पिताजी लालपीले, “हमने कहाँ मना किया? फिजूल बात करते हो,” उनका थूक उचटने लगा, “तुम्हें भरोसा नहीं था कि हम पेमेण्ट करेंगे.ऽ..ऽ..”
“हाँऽ…नहीं थाऽ!” वे भी आग-बगूला और लड़की वाले उन्हीं के हाथ की कठपुतली। लगा, बारात लौटती है, अब तो! सिर पर मौर धरे नरोत्तम जनवासे में बैठा था। उसका दिल बैठा जा रहा था। साँवला चेहरा स्याह पड़ गया। फजीहत तो ले-देकर उसी की हुई ना! घोड़ी, कार कुछ बाँधी होती तो मिलती। साहलग जोरदार था। ढूंढ़े पालकी भी नहीं मिली। ले-देकर एक किड़किड़या बाजे थे, गाँठ में। फिर कोई दौड़ा गया पास के कस्बे में, सो एक रिक्शा पकड़ लाया। शर्म से गर्दन झुकाए नरोत्तम उसी पर बैठ गया। प्रोफेसर पर प्रोफेसरी ही नहीं, 40 बीघा पुख्ता काश्त भी थी। लोग थू-थू कर रहे थे कि ‘सिंह की मूँछ, भुजंग का सिर, पतिव्रता की देह और सूम का धन जीवित रहते कौन ले पाया!’ जैसे, इतना लोभी मनुष्य जिंदगी में किसी ने देखा नहीं था।
चढ़ाए के लिए साड़ी-कपड़ा तो मुश्किल से खरीदा था, जेवर कौन गढ़वाता! जेवर बहनों से माँग लिया था उन्होंने। साढ़ू ने वायदा भरा था कि ‘चढ़ा भर देना, दरवाजे की शोभा रह जाएगी। बहू तुम्हारे दरवाजे पहुँचे तो उतार के जहाँ का तहाँ कर देना, हमें क्या! बहू तुम्हारी, सोने से लादना चाहे नंगी फिराना…।’
फिर उन किड़किड़िया बाजों के संग जिस रिक्शे पर नरोत्तम की घुड़चढ़ी हुई उसी पर अगली सुबह जनवासे तक मीरा की विदा। उसके बाद बेचारी ट्रेक्टर में चढ़ धचके खाती पस्तहाल किसी तरह ससुराल तक आई। नहीं जानी उसने डोली, कार कुछ भी। और वैैसे वह गऊ थी, पर इस बात का नरोत्तम की तरह उसे भी थोड़ा-थोड़ा मलाल था, जो आज भी है। हालांकि इतने सालों में पकते-पकते वह खूब खरी पक गई है और कुछ की कुछ हो गई है। नहीं तो उनसे पार न पाती! बेचारी सास अब तक गाँव में पड़ी है और वह शुरू से न सिर्फ शहर में है, बल्कि श्वसुर सेवानिवृत हुए तो जिद करके उसने, सेपरेट रहने के लिए दूसरी मंजिल बनवा ली। जिद करके ही इस ऊपर की मंजिल में टाइल्स भी लगवा लिए। आधुनिक किचेन और इंग्लिश टॉयलेट! कलर टीवी, फ्रिज, वाशिंगमशीन, कूलर सब कुछ। पर वह खासी भक्तिन भी हो गई है। गौ-सेवा और कथा-प्रवचन की दीवानी।
रोज की भाँति वह सुबह चार बजे ही जाग कर नैमेत्तिक कर्म से फारिग हो, खड़ताल उठाकर निकल पड़ी। चट्टियों की चट्चट् और खड़ताल की खड़-खड़ तथा उसके कंठ से निसृत गीत के बोल, “जागिए बृजराज कुँअर, भोर भओ अँगनाऽ…’ से प्रोफेसर की नींद उचट गई। गेट खटाक् से खोलकर वह निकल गई और वे पागलों से नीचे के पोर्शन में टहलने लगे। दाहिने कान के बगल की नस तड़-तड़ तड़कने लगी। पर मीरा को परवाह नहीं। सड़क पर बैठी गायों के पाँव दबा-दबाकर छूती वह पार्क में स्थित काली माता पर पहुँच गई। प्रभातफेरी का दल वहाँ रोज इकट्ठा हो जाता। फिर टोल बना गलियों में निकल पड़ता। दल में मीरा के अलावा सब पुरुष थे। शुरू में वे चार ही थे, किंतु मीरा जुड़ी तब से 10-12 हो गए। वह आगे-आगे खड़ताल बजाती गाती हुई चलती, वे पीछे-पीछे दोहराते हुए। कॉलोनी सुनती। हँसती। उत्सुकता वश औरते खिड़की-दरवाजों पर जमा हो देखतीं…तमाशा। फिलहाल दल, प्रोफेसर की खिड़की से ही गुजर रहा था। मीरा मगन। सिर पर पल्लू नहीं। चलते-चलते, झूमती-गाती हुईः
“संग की सहेली चालीं,
हमहूँ जायँ जमुना…
जागिए बृजराज कुँअर,
भोर भओ अँगना…
गैल के बटोही चाले,
पंछी चाले चुँगना…”
उन्होंने दोनों कानों में दोनों हाथों की तर्जनी ठूँस लीं और जोर से दहाड़े, “अरेऽ नरोऽत्तमऽऽऽ!”
घर मानों हिल गया। प्रोफेसर की दहाड़ खिड़की-दरवाजे खड़का गई। गनीमत कि नरोत्तम अकेला था। बच्चे नहीं थे, फिलहाल। बेटा कोटा में कोचिंग ले रहा था, बेटी जेयू में बी.एससी. हेतु दाखिल हो गई थी। वह दौड़कर नीचे आया। उसने समझा पिताजी को हर्टअटैक पड़ गया। सचमुच, वे दीवार पकड़े पत्ते की तरह काँप रहे थे, खड़े-खड़े! पीछे से वह कंधे थाम कि वे अब मरने ही वाले हैं, बोला, “क्या हुआ?”
“हुआऽ…” वे धीमे से चीखे, उस हथिनी को रोक, नहीं तो हम जहर खा लेंगेऽ!”
सुनकर नरोत्तम ने उन्हें उसी पल छोड़ दिया और हिकारत से देखता हुआ बोला, “खाइ लेउ! खाइ लेउ तो पूरे घर कों चौन मिल जाइ…।”
पलट कर वह, जिस तेजी से आया था, उसी से ऊपर चढ़ गया। और वार खाली पड़ जाने से वे धक्का खाकर वहीं बैठ गए। बैठे रहे फर्श पर हथेलियाँ टिकाए, सन्निपातिक से तमाम देर। फिर उठकर लिथड़ते-से अपने पलंग पर आ ढहे।
बारात लौट आने के दूसरे दिन उन्होंने अपने लँगोटिया यार जो उनके प्रोफेसर बनने के दौरान ही भजन गायक बन गया था, से कहा था, “हमारी बहू का नाच देखोगे, तुम! बहुत सुंदर नाचती है।…”
“तुम कहते हो तो देख लेंगे…।” उसे ज्यादा उत्सुकता न हुई थी। उसकी मंडली इलाके में चमक उठी थी, उन दिनों। उसके और उसके बेटे के गायन पर लोग झूम उठते थे। औरतें सारी हया छोड़ हाथ लहरा, कमर मटका कर नाच उठती थीं। प्रोफेसर के मन में उसी को अपनी बहू का कमाल दिखाने का अरमाँ मचल रहा था। गोकि पत्नी ने बताया था कि वह बहुत उम्दा नाचती है, गाँव ऊपर! तो वे अपने लँगोटिया यार को आखिर पकड़ ही लाए जो खुद गले में पेटी टाँगे, साथ में अपने गायक और ढुलकिया लड़के को लिए वहाँ लगभग बेमन चला आया था…।
उस रात प्रोफेसर के गाँव-घर के बड़े आँगन में बिछी जाजम पर एक तरफ औरते बैठीं, दूसरी तरफ परिवार के पुरुष और उनका गायक यार तथा उसका बेटा। औरतों के गोल में ढोलक के पास घूँघट काढ़े बैठी उनकी नईनवेली पुत्रवधू मीरा पर सबकी नजरें टिकी थीं। झक सफेद गैसबत्ती में वह समूह आकाशगंगा-सा झिलमिला रहा था। अवसर उचित जान प्रोफेसर ने बुलंद आवाज में कहा, “हाँ-बेटी! आज ऐसा बढ़िया नाच दिखाना कि हमारा सीना चौड़ा हो जाय….यहाँ हमारे बचपन के मित्र, इलाके के नामी गवैया मानव जी, जिनके बोलों पर औरतें नाचते हुए छतरी हो जाती हैं, खुद तुम्हारा नाच देखने आए हैं! संकोच नहीं करो, बेटी! ये तो कला है…तुम्हारी माताजी ने हमें बताया कि कल तुम बहुत अच्छा नाचीं। गाँव ऊपर।…”
मीरा ने पहले-पहल श्वसुर कोय काँधे पर खादी का झोला और पाँव में चमड़े की चप्पल लटकाए, सूती कुर्ते-पायजामें में सिड़ी से अजनबी की तरह अपने द्वार की खाट पर देखा था। और तब वह भी भाई का पुराना पेंट-शर्ट पहने, सिर पर मटकी धरे कुएँ की जगत से चली आ रही थी, बेशऊर-सी। …उनके उकसावे पर वही संस्कार मूर्तरूप ले उठा। इधर औरतों ने गीत के बोल उठा लिए, ढोलक ठनकने लगी। और वह भरी सभा में बाल पीछे की ओर बाँध, कमर में फेंटा कस हाथ लहरा, कमर लचका, झूमकर नाच उठी…। इतनी अलमस्त कि बँधे बाल खुल गए। काली लटें गोरे चेहरे पर नागों-सी लहरा उठीं।
प्रोफेसर उसका दैवी स्वरूप देख वाह-वाह कर उठे।
उस अनोखे रोमाँच में भजन गायक यार की कलाई खूब कसकर पकड़ रखी थी, उन्होंने, “मानव, क्या गाओगे तुम इसके आगे- छोटी-छोटी गैयाँ, छोटे-छोटे ग्वाल,…छोटो-सो मेरो मदन गुपाल?’ अरे! दहेज नहीं माँगा हमने…फूटी कौड़ी नहीं ली। है कोई इलाके में ऐसा बढ़िया नाच करने वाली बहुरिया, बोलो!?”
और उसने गर्दन झुका रखी थी। प्रोफेसर का सीना गर्व से फूलकर कुप्पा हुआ जा रहा था। दरअसल, वे उसकी ख्याति से जलते थे। नीचा दिखाना चाहते थे। क्योंकि उनके और उनके नरोत्तम के पास न तो गला था, ना ही वाद्ययंत्रों के बजाने की कला। भाग्य से अगर वे प्रोफेसर न हुए होते तो कौन पूछता! ऐसा कौनसा हुनर था जो जय-जयकार हो पाती!
वे मन ही मन घोक रहे थे कि यार की हिम्मत मीरा के नाच के आगे पस्त पड़ गई है! वह गले में हारमोनियम लटका के जरूर लाया, पर उँगलियाँ, उसके पातों पर नाची नहीं! न उसके बेटे ने ढोलक पर थाप मारी। रात दो बजे तक प्रोफेसर समेत वे सब त्यौरी फाड़े मीरा का अचरज भरा नाच देखते रहे। पर वह सुख प्रोफेसर को फिर कभी नसीब नहीं हुआ। क्योंकि- उसके बाद उन्होंने उसकी नजर उतारते तय कर लिया था कि अब उसे कभी नचाएँगे नहीं। नहीं तो यह कला चली जाएगी! जाने क्यों, एक अदृश्य भय उनके भीतर घर कर रहा था कि वह उनसे छिन न जाय!
उसी साल नरोत्तम की अपने गाँव की पाठशाला में अतिथि अध्यापक के रूप में नियुक्ति हो गई, पर वह बहू को अपने साथ शहर ले आए। जहाँ अंदर के दो कमरों में वह रहती, बाहर के एक कमरे में वे। किचेन, टॉयलेट, आँगन, गैलरी कॉमन थी। बात पता चली तो छह-आठ महीने बाद साढ़ू ने कहा, “डाक्टर, ये तो गलत है। माना तुम्हारे मन में कोई पाप नहीं है, बेटी है वो आपकी, पर हम किस किसकी जीभ पकड़ें?”
“तो क्या, गाँव में असुरक्षित छोड़ दें उसे?”
“असुरक्षित क्यों, वहाँ नरोत्तम है…”
“हुँह…नरोत्तम! बड़ा भारी वीर है, वो!”
“और भाभी!”
“क्या कहने,” उन्होंने मजाक उड़ाया, “उसे बड़ा सहूर है!”
बेचारे साढ़ू का मुँह सिल गया। उन्हें समझ आ गया कि किसी के फटे में ज्यादा टाँग अड़ाने का कोई मतलब नहीं। प्रोफेसर का ये पारिवारिक मामला है, भई! वे जैसे चाहें, निबटें…अपनी बला से। सुनने में आता कि नरोत्तम शहर आता-जाता रहता है। पुष्टि भी हुई, जब प्रोफेसर दादा बने! मीरा ने नरोत्तम की शक्लोसूरत के ही पुत्र को जन्म दिया था। वह क्षण सचमुच ब्रह्मानंद सदृश था प्रोफेसर के तईं। दष्टोन पर उन्होंने अपने लँगोटिया यार को मंडली सहित बुला भेजा। जिसके भजनों पर उनकी साली, उनके बेटे की साली, और उनकी पत्नी उनके गोरेनारे पोते को गोद में लेकर खूब ठुमक-ठुमक कर नाचीं। बहू भी नाच उठती, अगर उनकी आँख टेढ़ी न होती!
और वे सुख भरे दिन जाने कब हवा हो गए!?
नाती दुधमुँहा था, तब उसका ख्याल करके ही वे गृहकार्य में बहू का हाथ बँटाने लगे थे। जैसे- अलस्सुबह उठ खुद ही पानी भर देते। बाहर के हिस्से की सफाई कर देते। सब्जी काट देते। बहू नैमेत्तिक क्रिया और किचेन में लग जाती, तब नाती को संभाल लेते। काम वाली और आया इसलिए नहीं लगाते कि घर को गैर के प्रवेश से अछूता रखना चाहते थे। बेटा तो जब कभी आता, चोरी का खतरा बताकर बहू का प्रस्ताव वे सदा खारिज कर देते। बराबर उन्हें यही लगता कि उनके पास कोई नायाब चीज है, जिसे कोई गुमा न दे, गुमराह न कर दे!
इस बीच एक बेटी और हो गई, जिसका हुलिया खुद बहू से मिलता-जुलता था। बच्चों की जिम्मेदारी और देखभाल के लिए साढ़ू ने सुझाव दिया कि वे या तो नरोत्तम का तबादला शहर करवा लें, जो अपने गाँव की पाठशाला पर अब मुस्तकिल अध्यापक हो गया था। अथवा पत्नी को ले आएँ! पर उन्होंने साढ़ू का एक भी प्रस्ताव स्वीकार न किया। क्योंकि साढ़ू को वे अपना नहीं पत्नी के ग्रुप का आदमी मानते थे। तर्क फिर वही फेंक दिया कि खेतीबाड़ी, घरद्वार सब चौपट हो जाएगा! उन दोनों के गाँव से हटते ही लोग मकान की ईंटें खींच लेंगे, खेतों की मेंड़ें तोड़ लेंगे…। जबकि, बच्चे बड़े हो रहे थे और उन्हें पिता की देखरेख की सचमुच दरकार थी। दादा के आगे वे सहमे से बने रहते और खुल कर अपनी जरूरत न बता पाते। दादा से वह अपनत्व भी न मिलता जो पिता के आ जाने पर उससे लिपट कर मिलता…। लड़की तो बाप के आ जाने पर हमेशा उसकी छाती पर लदी रहती। प्रोफेसर इसी बात से चिढ़ते। उँगली दिखाकर नरोत्तम को हमेशा डाँटा करते कि ‘इतना सिर पर न चढ़ाओ। लड़की जात, कल को बाहर जाएगी। मर्यादा, आज्ञापालन और गृहकार्य के संस्कार दो, उसकी आदतें न बिगाड़ो। तुम कम आया करो। महीने में सिर्फ एक बार। शादी संतान के लिए की जाती है। संतान हो चुकी, अब ब्रह्मचर्य का पालन करो!’
चौकसी रखते और वे नरोत्तम को बहू के साथ न सोने देते।
तब उसे एक उपाय सूझा और उसने उन्हें बहला कर प्रेरित कर ऊपर की मंजिल बनवा ली। झाँसा देकर कि नीचे किरायेदार रख देंगे। ऊपर अपन लोग रहेंगे…।
पर शिफ्टिंग का समय आया तो नरोत्तम अड़ गया कि ‘आप ऊपर नहीं पुसाओगे। कितना सामान है! भारी-भारी तखत, संदूक और किताबों की अलमारियाँ। टाइल्स उखड़ जाएँगे, इन्हें चढ़ाने से।’
प्रोफेसर रिटायर्ड भी हो गए थे। उनकी चली नहीं।
इस बीच शहर में उनके लँगोटिया यार मानव का, बड़े जोरशोर से आगमन हुआ। जगह-जगह पोस्टर-पेम्फलेट चिपकाए गए। वॉल राइटिंग और अखबारों में विज्ञापन दिलवाए गए। और एक दिन का नहीं, सप्ताह भर का आयोजन रखा गया दशहरा मैदान में। आठवें दिन भण्डारा।
प्रोफेसर उसका मजमा और जलवा देख दाँतों तले उँगली दबाए रह गए।
“यार, तुम्हारा तो हुलिया ही बदल गया!”
उसे हार पहनाने वे मंच पर गए तो उसके कान में फुसफुसाए। जिसकी शक्लोसूरत अब वाकई बदल गई थी…। करीने से क्रीम की हुई, भूरी दाढ़ी रखने लगा था वह! पंडितों-सी सफेद बण्डी और धोती बाँधने लगा था। काँधे पर झक्क सफेद शॉल डाल रखी थी। पेटी खुद न बजाता, साजिंदे रख छोड़े थे…। खिचड़ी दाढ़ी वाला उसका बेटा भी, अब ढोलक न बजाता सिर्फ गाता था। और वह स्वयं, ‘छोटी-छोटी गैयाँ, छोटे-छोटे ग्वाल’ गाने के बजाय मंच से कथा-प्रवचन करता!
मंच पर पृष्ठभूमि में 12 बाई 12 का बड़ा बोर्ड लगाया गया था, जिस पर साक्षात् कामधेनु सजी थी। उसकी थूथनी, थन, ठठियारा और काले बालों के गुच्छे की सफेद पूँछ इतनी मनोहर कि निरखते रह जाओ! गले में दमकती माला, असली मोती-मूँगों से गुँथी नजर आती…खुर, दाँत, सींग इतने चमकीले कि सोने, चाँदी, हाथीदाँत में मढ़े हुए लगते। और सब पर भारी उसका प्रवचन जिसके द्वारा उसे वह आद्या और ब्रह्म निरूपित कर रहा था…। बता रहा था कि ‘संसार में गौमाता अतुलनीय हैं! भारत में कहीं भी चले जाइए और सारे तीर्थ स्थानों के देवस्थान देख आइए। आपको किसी मंदिर में केवल विष्णु मिलेंगे तो किसी में लक्ष्मी और नारायण। किसी में सीता, राम, लक्ष्मण मिल जाएँगे तो किसी मंदिर में शंकर, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, भैरव, हनुमान आदि। अधिक से अधिक किसी में दस-बीस देवी-देवता मिल जाएँगे, पर सारे भूमंडल में ढूँढ़ने पर भी ऐसा कोई देवस्थान या तीर्थ नहीं मिलेगा जिसमें हजारों देवता एक साथ हों। ऐसा दिव्य स्थान, ऐसा दिव्य मंदिर, दिव्य तीर्थ देखना हो तो बस, वह आपको गौमाता के अलावा कहीं न मिलेगा जिनके भीतर 33 करोड़ देवता वास कर रहे हैं! बंधुओ! गौमाता को छोड़ हिंदुओं के लिए न कोई देव स्थान है, न कोई जप-तप है, न ही कोई सुगम कल्याणकारी मार्ग है। न कोई योग-यज्ञ है और न कोई मोक्ष का साधन ही। ‘गावो विश्वस्य मातरः’
कहकर वह गाय की तरह रँभाया तो सभा में रोमाँच बरस उठा। स्त्रियाँ तो नाचने लगीं…।
रात भर उन्हें ठीक से नींद नहीं आई। सुबह तम्बू में मिलने गए तो दोस्त को जाते ही फटकारने लगे, “ये क्या नौटंकी फैला रखी है, तुमने! मनुष्य से पशुपूजा करा रहे हो? अंधविश्वास फैलाकर चढ़ौती! और कोई धंधा नहीं सूझा, मानव!”
जहाँ उसके चरण छूने कृपाकांक्षी भक्तों की कतार लगी थी। और किसी पहुँचे हुए संत की तरह वह तख्त पर विराजमान था, प्रोफेसर कुर्सी पर बैठे उसे ललकार रहे थे…। उपस्थित श्रद्धालु पहले हतप्रभ, फिर उत्तेजित होने लगे। पर वह शांत भाव से सुनता, मुस्कराता रहा। प्रोफेसर ने बोलना बंद किया तो विहँसते हुए मधुर स्वर में बोला-
“ब्रह्मावैवर्त पुराण में कहा गया है- गवामधिष्ठात्री देवी गवामाद्या गवां प्रसूः। गवां प्रधाना सुरभिर्गोलोके सा समुद्भवा।
गौओं की अधिष्ठात्री देवी, आदि जननी, सर्व प्रधाना सुरभि है। समुद्र मंथन के समय लक्ष्मी जी के साथ सुरभि भी प्रकट हुई थी। ऋग्वेद में लिखा है- गौ मे माता ऋषभः पिता मे, दिवं शर्म जगती मे प्रतिष्ठा।
गाय मेरी माता और ऋषभ पिता हैं। वे इहलोक और परलोक में सुख, मंगल तथा प्रतिष्ठा प्रदान करें। हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार भगवान का अवतार ही गौमाता, संतों तथा धर्म की रक्षा के लिए होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं- विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार। निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार।”
कृपाकांक्षी भावविभोर। मानव को श्रद्धापूरति नेत्रों से निहार रहे थे वेय प्रोफेसर को उचटती ह्येय दृष्टि से देखते हुए…। वे अपना-सा मुँह लेकर लौट आए। और फिर कभी उधर झाँकने नहीं गए।
पर बाद के दिनों में उन्होंने, बहू के कमरे में, उसकी अलमारी में, जब उसी गाय की चि़त्राकृति रखी देखी तो सनाका खा गए। वे उस मायावी से डरने लगे जिसने उनके घर में ही सेंध लगा ली!
बहू को विश्वास में लेने वे अक्सर लैक्चर देने लगे।
उस हाईस्कूल छाप को दर्शन समझाने लगे।
तो भी वह चोरीछुपे गौ-सेवा में लग गई! गोपाष्टमी को कॉलोनी के काली माता मंदिर पर एक आवारा गाय को स्नान कराकर उसने विधिवत पूजा कर घास व मिठाई खिलाई…।
प्रोफेसर ने सुना तो बौखला गए। क्रोध के मारे भोजन की थाली वापस कर उसे अंधविश्वास, भक्ति और कुसंग से दूर रहने की ताकीद करते दिन भर खोंखियाते रहे…। शाम को वह चोरीछुपे पूजा की थाली लेकर निकली तो चोरीछुपे वे भी उसके पीछे लग गए।
खेल के मैदान में जहाँ शाम को गाएँ आकर बैठतीं, वहीं पहुँच मीरा ने गौ माता को प्रणाम करके पूजा कर गौधूलि का तिलक मस्तक पर लगा लिया। फिर गा-गाकर आरती उतारने लगी-
‘जय-जय गौ माताऽ, मैया जयजय गौमाताऽ! कलि-मलि नाशक तुम हो, तुम ही वर दाता…। भूमि को भार तिहारे सींगन पे सोहै…सरल सुभाउ तिहारो सब को मन मोहै। तुम सनेह के कारन प्रभु गोपाल भए…गऊलोके सुख छाओ गौ-चारण बनि गए। गोपालन गौवर्धन जो करते जग में…रोग-शोक सब नासैं सुख पावैं मन में।…’
प्रोफेसर उसका करतब देख-देख पगला गए थे। ततारोष में उससे पहले घर लौट वे, घर हमेशा के लिए छोड़ देने की प्रतिज्ञा से भर निर्वस्त्र हो गए! और संयोग से तब तक वह भी आ गई तो वे एक अंतिम प्रयास और कर लेने उसका हाथ पकड़ चीखने लगे-
“हऽमारे प्राण चाहती होऽ…तो यह सब बंद कर दो, महाऽरानीऽ!”
पिताजी की इस प्रस्तुति से मीरा इतनी घबरा गई कि भागकर ऊपर चढ़ उसने अपने आपको कमरे के अंदर बंद लिया।
अब वे पागल, कि वह कहीं फाँसी न दे ले!
कोहराम कर पास-पड़ोस जोड़ लिया…। पड़ोसियों ने जब तक किवाड़ तोड़े, पूरी कॉलोनी जमा हो गई…। किसी ने इत्तिला दे दी सो पुलिस भी आ धमकी! बहू कमरे से निकाली गई, तब वह इस अप्रत्याशित कांड को लेकर थर-थर काँप रही थी…।
पुलिस उसे उसी हालत में थाने लिवा ले गई और लज्जित प्रोफेसर को भी, जो अब किसी को भी मुँह दिखाने, सफाई देने के काबिल नहीं रह गए थे। सब दूर यही अफवाह कि वे बहू के आगे नंगे हो गए और जोरजबरदस्ती करने लगे!
पुलिस ने पूछा मीरा से कि ‘घर जाना चाहोगी?’
-नहीं!’
-तो?’
-माइके भेज दो!’ उसने आँखों में आँसू भर कर कहा।
प्रोफेसर ने वहाँ सबके हाथ जोड़े, पर किसी ने नहीं सुनी उनकी। उनके खिलाफ एफआईआर काट पुलिस अभिरक्षा में बहू को बेटा-बेटी समेत उसके माइके भेज दिया गया। नरोत्तम ने सुना तो पाँव तले की धरती सरक गई। माता जी को लेकर वह शहर आ गया और पिताजी की जमानत करा उन्हें हजार खोटी सुना डालीं।
गुनाह तो नहीं किया था, फिर भी कबूल कर लिया उन्होंने। और हाथ जोड़ बेटे के आगे गिड़गिड़ाए कि ‘उसे ले आओ, नहीं हम प्राण दे देंगे।’ नरोत्तम को उन पर दया आई, पर वह गया नहीं। जितना बाप से, उतना ही बीवी से भी डरता था वह। दो दिनों तक घर में चूल्हा नहीं जला। तब आखिरश श्वसुर को फोन किया उसने कि ‘पिताजी के प्राण चाहो तो मीरा को तुरंत भेज दो…नहीं तो हम सब पर कलंक लग जाएगा।’
तब उन्हें खबर नहीं थी कि नरोत्तम से ये डेडलाइन वाला फोन कराकर वे अपनी कब्र पर पत्थर रख रहे हैं….! बेवकूफ समधी ने पगलिया बहू को पोते-पोती समेत शाम को ही बस में बिठा दिया। और बस जंगल में जाकर खराब हो गई। आसपास की सवारियाँ तो उतर कर इधर-उधर चली गईं। मीरा बच्चों को लेकर पैदल कहाँ जाती! उसी में बैठी रही, जिस पर ड्राइवर, कंडक्टर की नीयत खराब हो गई थी…।
दूसरे दिन बदहाल जब वह घर आई तो महीनों के लिए मौन साध गई। प्रोफेसर को देखकर तो हिकारत से मुँह फेर लेती, मानों उन्होंने उसके बाप मार डाले हों!
अगली साल नरोत्तम ने माँ को गाँव का चार्ज दे, शहर के स्कूल में तबादला करा लिया। पर मीरा दिनोंदिन हाथ से निकलती गई…। न देह छूने देती, न घर के किसी काम को हाथ लगाती। शहर में कहीं भी कथा-प्रवचन हो, अकेली निकल जाती। बाल खोल, कमर में फेंटा कस, झूम-झूम कर नाचती। प्रोफेसर सुनते और उनकी हालत बद् से बद्तर होती जाती।… रह-रहकर उन्हें पत्नी का ख्याल आता। लगता, उससे दूरी बनाए रखने के पाप का परिणाम भुगत रहे हैं चौथेपन में।… इसी अपराध बोध के चलते एक दिन गाँव जा पहुँचे वे और उस देवी स्वरूपा स्त्री का हाथ पकड़ रोने-गिड़गिड़ाने लगे। तब उस भली मानस ने उनके जीवनभर के अन्याय पर धूल डाल सच्चे मन से उनकी सेवा-सुश्रूषा की। पर गाँव में बिजली और डॉक्टर नहीं थे। सुविधा के आदी और बीमारियों का घर हो गए प्रोफेसर वहाँ दो-चार दिन से अधिक न टिक सके। वे उन्हें अधिकार पूर्वक आमंत्रित कर शहर लौट आए। और उनके कहे ही कुछ दिनों उपरांत नरोत्तम गाँव के घर में ताला डाल माँ को साथ रखने अपने संग शहर लिवा लाया। …तब जाना कि उनकी तो जड़ें कट गई हैं! बेटा सुबह-शाम पूछ भी लेता, बहू तो झाँकती तक नहीं! सरमभीरे भोजन की थाली जरूर पकड़ा जाती। जिसमें एक कटोरी में रोज पीला-हरा सा एक गिजगिजा पदार्थ भी होता…। एक दिन घिनाते हुए उँगली कटोरी की ओर करके पूछा उन्होंने-
“जे का है?”
“पंचगव्य,” उसने शास्त्रोक्त विधि से बताया, “गौ की समस्त पावन वस्तुओं का मिश्रण! दूध, दही, घी, मूत्र, गोमय इत्यादि।”
“गोमय क्या,” प्रोफेसर ने शंकित नजरों से घूरा, गोमल?”
“हओ!” उसने मानों धमकाया और पलट पड़ी।
वे पत्नी को देखते मुक्कों से अपनी छाती कूटने लगे, “हाय-हाय, जे बहुअर इतने दिनों से हमें गोबर खिला रही है!”
खाए बिना ही घृणा से मुँह में थूक भर आया। थाली उन्होंने एक ओर सरका दी। उस दिन से अपने और पति के लिए चार चँदियाँ खुद ही ठोक लेतीं। नरोत्तम पूछता तो कह देतीं, “मेहरी के हाथ का हमें रुचता नहीं है।” ऊपर की मंजिल पर जाने की अनुमति न थी, सो मोहल्ले-पड़ोस में बैठ आतीं। और खूब जीभ दबातीं मगर औरतों की पंचायत में कोई न कोई बात मुँह से निकल ही जाती।
जैसे- बूढ़े सासससुर, तुम्हाए तौ साच्छात् देईदेउता…घर में डरे कराहि रहे हैं…औरु तुम गैंयन के पीछें बाउरी भई फिरति हौ!’
बात उड़ते-उड़ते मीरा तक आ जाती और रोज कलेश मचता।
कभी-कभी तो महाभारत…। मुँह पर झीना लाल दुपट्टा डाल वह नीचे के पोर्शन में आ सींग भिड़ाने लगती-
‘मेरा दिल तुम लोगों जैसा काला नहीं हैऽ… निर्मल है मेरी आत्माऽ… गऊ की सब चीजें पवित्र होती हैंऽ… तुम क्या जानो- शिव की गौ निष्ठा, दिलीप का गौ प्रेम, वशिष्ठ की गौ सेवा! गौ के चार पाँव ही चारौ धाम हैं… अब भी समय है…तुम लोग चुगलीचाँटी छोड़ गऊ की सेवा में लग जाउ तो तरि जाउगे, तरि!’
मुँहबाद में वे भी कूद जाते तो हाँफनी छूट जाती…। एक दिन तो हद हो गई, जब उसने दोनों का मुँह नोंच लिया!
हारकर नरोत्तम ने माँ से कहा, ‘तुम गाँव चली जाउ, नईं तो कऊ दिन हम फाँसी दै लेंगे!’
आँखों में आँसू भरे जीवनभर की परित्यक्ता स्त्री उसी सूने घर में लौट आई, जहाँ व्याह कर लाई गई थी। थरथराते ओठों से यही बुदबुदाती हुई कि जहाँ डोली आई ती, हमाई लाश तो भईं ते उठेगी!’
प्रोफेसर की समझ में अब बस एक ही जैक रह गया था, नाती वाला। नरोत्तम तो फैल हो चुका। वे खुद और पत्नी भी। आदमी औलाद से झुकता है। शायद, यही छोटा स्क्रूड्रायवर उसके ढीले पेच कसने के काम आए! वे उसका सुबह-शाम लगातार इंतजार कर रहे थे। रोज फोन करते। रोज पता करते। आखिरश वह दिन आ ही गया, जब वह आईआईटी की प्रवेश परीक्षा दे, कोचिंग समाप्त कर घर आ गया। प्रोफेसर उसे गले लगाकर बच्चों की तरह बिलख-बिलख कर रोने लगे।
उसने बहुत पूछा कि- “बाबा, क्या बात है? आप बीमार हैं! मम्मी-पापा ने तंग किया….”
पर वे कुछ बोले नहीं, अवरुद्ध कंठ से इतना ही कहा कि- “तुम थके-हारे लौटे हो, सुबह बात करेंगे।…’
सुबह देखा तो वह, दरवाजे पर माँ के साथ गायों को चारा खिला रहा था!
सड़क पर गोबर-मूत्र के दलदल से बू का भभका उठ रहा था। भीतर ज्वार उठ खड़ा हुआ कि छलाँग मारकर फाटक लाँघ जायँ और उसके गोरे-मुलायम गाल पर कसकर एक तमाचा जड़ दें! पर क्रोध को अपने भीतर ही पीकर रह गए वे कि- मौका पाकर उसे तर्क से समझाएँगे। आखिर उसी स्क्रूड्रायवर से तो बहू के ढीले पेच कस पाएँगे!
दोपहर तक का समय बड़ी मुश्किल से काटा उन्होंने, जब नाती उनके लिए भोजन की थाली लेकर आया। …ऊपर डायनिंग हॉल में खूब बड़ी टेबिल लगवाई थी, सोचा था- बहू-बेटा और नाती-नातिन के संग इकट्ठे बैठकर भोजन किया करेंगे।
अरमानों की उस मेज पर आज तक थाली नसीब नहीं हुई…। बहू ने उनका ऊपर चढ़ना ही निषिद्ध कर दिया था।
हताशा से भरे प्रोफेसर ने थाली उसके हाथ से लेकर अपने पलंग के आगे पड़ी छोटी-सी मेज पर रख ली और उसे हाथ पकड़ बगल में बिठाते हुए बोले, “टेस्ट कैसा रहा, बेटा!”
“बाबा, आप अपनी चौक बुक से एक चौक काटने देंगे हमें!?”
“हाँ-हाँ! पर किसके लिए?” वे कौर हाथ में लिए मुँहबाए रह गए थे।
“टीवी पर एक एड आता है… गौ सेवा ट्रस्ट के लिए… मैं बिलीव करता हूँ, प्लीज!”
“तुम पागल हो गए हो,” कौर उन्होंने वापस थाली में रख दिया, “ऐसा एक ढोंगी तो हमारे गाँव में भी है! मैं उसे बचपन से जानता हूँ। लोगों को अंधविश्वास में फँसाकर वह धूर्त अपने लिए कमाई कर रहा है! तुम तो मैथ-साइंस के स्टूडेंट हो! इस सदी में, इस आधुनिक युग में उन सड़ीगली बातों का क्या महत्व है, जो मनुष्य की शिशु अवस्था में उसके गले पड़ गई थीं? तुम्हारी माँ की बात और…वो अँगूठाटेक, पर तुम तो…”
कहते-कहते वे हलाकान हो गए। तब नाती ने थाली से कौर उठाकर यह कहते उनके मुँह में दे दिया, “सॉरी, आप टेंशन न लो, मैं पापा से माँग लूँगा। पढ़े-लिखे से क्या, आस्था भी कोई चीज होती है, बाबा!”
प्रोफेसर देखते रह गए। वह जीना चढ़कर ऊपर चला गया था।
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ए. असफल (अशोक शर्मा)
जन्मतिथि – 26-12-1955
शैक्षणिक – जीवाजी वि.वि. ग्वालियर से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि।
कृतियाँ- बारह बरस का विजेता (बाल उपन्यास), मेरी प्रिय बालकहानियाँ (बालकथा संग्रह), जंग, वामा, मनुजी तेने बरन बनाए, मैं स्त्री हूँ मुझे मारो, इच्छा मृत्य, बागडोर (कहानी संग्रह), लीला, नमो अरिहंता, कटघरे, सुबह होगी, लिव इन रिलेशनशिप, किंबहुना, योनिमुद्रे नमोस्तुते, दो उपनतासिकाएँ (उपन्यास)।
पुरस्कार-सम्मान – “बारह बरस का विजेता” (बाल उपन्यास पर) चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट द्वारा प्रथम राष्ट्रीय बाल साहित्य पुरस्कार। “नमो अरिहंता” (उपन्यास) के लिए मध्यप्रदेश साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी सम्मान।
संप्रति : संपादक, किस्सा कोताह, हिंदी त्रैमासिकी।
Address –
ASHOK SHARMA ‘ASFAL’
20, jwala mata gali, Near by- Shaheed colony, Bhind (M.P.) PIN-477001
Mobile – 7000646075
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बहुत अच्छी कहानी
पर बहुत घटनाओं के कारण थोड़ा बोझिल भी