राजेश जोशी, अरुण कमल, मनमोहन, असद ज़ैदी , नवीन सागर की काव्य पीढ़ी में मंगलेश डबराल कविता का एक अत्यंत रौशन नाम है। जिन्होंने भी मंगलेश के पहले काव्य संग्रह – पहाड़ पर लालटेन – को पढ़ा – पूर्ववतीॅ कविताओं से बदलाव की नयी इबारत महसूस की। कहना न होगा मंगलेश जीवन के अंतिम क्षणों तक इस नयी इबारत में अपने परिवेश, पहाड़ की अनुगूंज को स्वर देते रहे। बहरहाल, मंगलेश डबराल की यहां अप्रकाशित कविताएं प्रस्तुत हैं। प्रस्तुतकर्ता कवि प्रमोद कौंसवाल हैं जो मंगलेश के भानेज हैं -हरि भटनागर

 

भूमिका

मंगलेश डबराल की ये कविताएँ मरणोपरांत आ रही हैं जिनमें से कई कविताएँ अब तक आपने पढ़ भी ली होंगी। कविताओं की इसी फ़ाइल से राजकमल प्रकाशन से संग्रह आया था जो मुझे पूरी जानकारी दिये बिना प्रकाशित किया गया। उसमें इसीलिये कोई भूमिका नहीं लिख पाया था। हालाँकि ये सही है कि एक दिन मैंने ख़ुद अशोक (महेश्वरी) जी से वादा किया था कि संपूर्ण कविताओं में शामिल करने के लिये राजकमल प्रकाशन को ये कविताएँ ज़रूर दूंगा। लेकिन इससे पहले इसमें से कई कविताएँ दिल्ली की एक पत्रिका में प्रकाशित करने का कार्यक्रम था जो वैसे ही टल गया जैसे पत्रिका का प्रकाशन टल गया। बहरहाल, जिस वक़्त मंगलेश डबराल जीवन के लिये अस्पतालों में कोविड और मौत से संघर्ष कर रहे थे, मैं उनके इस संघर्ष में अस्पतालों के अहाते से ही सहभागी, सह-दुर्भाग्यशाली था। याद रहे, ये वो दिन थे जब दिल्ली में मेरे कई दोस्त जो किसी के बेटे भी थे, कोविड से पिता की मौत के बाद अंत्येष्टि में शामिल होने अपने शहर नहीं जा सके या जो इस शहर में अपने पिता को खो चुके थे, वे घाट पर तक नहीं जा सके। मौत के बाद तेरहवीं तक मैं ग़ाज़ियाबाद में ही रहा और इस दौरान मुझे मंगलेश डबराल की आठ कविताएँ उनके डेस्कटॉप में लिखी मिलीं जो काफलपानी श्रृंखला का हिस्सा थीं। ये रोकर ख़ुद को हल्क़ा करने का समय था जब मैं बराबर फोन पर असद ज़ैदी, अशोक वाजपेयी और अरुंधति राय से लेकर प्रवीण अरोड़ा और सुंदर ठाकुर तक जैसे मंगलेश डबराल के हितैषियों से संपर्क में रहकर कुछ हद तक दु:ख के इस ‘भारी पत्थर’ को उठा पा रहा था। बाक़ी कविताएँ मैंने ग़ाज़ियाबाद से लौटने के बाद आलोचना, युगवाणी और लखनऊ-भोपाल से निकलने वाली पत्रिकाओं के अंकों से निकालीं जो ज़्यादातर ‘पहाड़ पर लालेटन’ और ‘घर का रास्ता’ के दौरान मंगलेश डबराल ने किसी भी संग्रह में शामिल नहीं की थीं। ज़ाहिर है, ये कविताएँ कवि के नज़रिये से कच्ची रही होंगी या कुछ कमज़ोर या इनमें कुछ ऐसी ही दूसरी कमियाँ रही होंगी। लेकिन कवि की मृत्यु के बाद इनके अच्छे-बुरे होने का ज़्यादा औचित्य नहीं रह जाता। इसलिये सब कविताएँ रखीं- कई सारी तो टूटे-बिख़रे पन्नों से ही मैंने टाइप की हैं। कई के लिये दिल्ली की दो एक लाइब्रेरी से भी मदद ली। इसके अलावा मेरे पास कवि की हस्तलिखित एक कविता-डायरी है जिनसे चुनकर ये कविताएँ यहाँ प्रस्तुत की गयी हैं। ये कविताएँ इस मायने में बहुत अलग हैं कि इनके सभी सिरे कवि के गाँव काफलपानी से जुड़े हैं। एक तरफ़, वे कविताएँ जो उन्होंने अपने कवि होने के शुरुआती सफ़र में लिखीं और किसी संग्रह में शामिल नहीं की- जिनमें काफलपानी के धार्मिक अंधविश्वासों में जी रहे अपने परिवार को लेकर ग़ुस्सा और विसंगतियाँ हैं। पिता के प्रति सख़्त नाराज़गी और चाची का भूत है। और दूसरी ओर वो अपने आख़िरी दिनों में वे फिर से काफलपानी जाते हैं और इस पर कविता सीरीज़ लिखने लगते हैं। हाँ, इस दौरान कुछ छूटी-भूली कविताएँ भी हैं जिनसे मंगलेश डबराल की असली पहचान की जाती है- प्रेम की कविता और निरंकुश सिस्टम और उसके रखवालों पर प्रहार की कविता…। इनको समझने के लिये मंगलेश डबराल के जीवन-सफ़र के शुरुआती दिनों को समझने की ज़रूरत है। वह युवावस्था में सन् 70 से कुछ साल पहले बिजनौर में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की समाचार पत्रिका से जुड़े जहाँ उस समय मेरे पिताजी और उनके जीजाजी कामरेड बच्चीराम कौंसवाल शिक्षक और यूपी के शिक्षक नेता थे। यहाँ से कवि ने अपनी दूरगामी सोच दिखायी और तब की कई संपादकीय टिप्पणियों के अलावा कविता में भी ये सोच दिखायी दी। यही वह मूल है, जहाँ से मंगलेश डबराल के व्यक्तित्व और लेखन को संपूर्ण विस्तार मिलता है। इन कविताओँ में भी उस विस्तार को समेटे कई कविताएँ हैं। बाक़ी आप जानते हैं मंगलेश डबराल कौन हैं।

प्रस्तुति : प्रमोद कौंसवाल

 

घास और पत्थर

घास और पत्थर यहाँ एक साथ आये
कभी घास ने पत्थर को अपने भीतर छिपाया
और कभी पत्थर ने घास को ढँक लिया
घास चाँद और तारों को छूने की कोशिश करती रही
पत्थर ने अपना आकार बढ़ाया और पहाड़ बन गया
ताकि लोग उसके भीतर रह सकें
इस तरह एक सभ्यता शुरू हुई
सन्नाटे में जब पानी चमकता तो संसार पारदर्शी हो उठता
जिसकी दूसरी तरफ़ भी देखना मुमकिन था

घास और पत्थर का प्रेम जहाँ कहीं टूटना शुरू हुआ
वहाँ पानी सूखने लगा
आप जगह-जगह जो सूखे हुए धारे और न्योले1 देखते हैं
वे इसी टूटे हुए प्रेम के निशान हैं।

(अंतिम परिवर्तन- संपादन, 2020)

1पहाड़ में पानी के स्रोत

 

पानी और घास

घास रात में बढ़ती है जब आसपास निर्जन होता है
रात में देखना संभव होता तो उसे बढ़ते हुए देखा जा सकता है
दिन में कोई उसे बढ़ते हुए नहीं देख सकता
सुबह लोग उठते हैं और देखते हैं
वह कुछ और लंबी हो गयी है
कल जहाँ बंजर था वहाँ भी कुछ उग आयी है
रात का उन्मुक्त पानी घास के बीच बहता रहता है
उसकी आवाज़ में रात थरथराती रहती है
और हवा में एक धीमी आदिवासी गंध तैरती है

घास के लिये पानी जितना तरल हो अच्छा है
पानी को घास की हरी मांसलता बहुत प्रिय है
रात उनका स्थायी पता है
पानी और घास एक शाश्वत प्रेम कथा के पात्र हैं।

(अंतिम परिवर्तन- संपादन, 2020)

पुराना पत्थर

जन्म के समय की आग अब भी उसके भीतर रखी हुई है
बारिश की आख़िरी बूँद सूखने से पहले
उसके भीतर जज़्ब हो जाती है
पेड़ की आख़िरी पत्ती गिरने से पहले उसके भीतर चली जाती है

सृष्टि की सबसे पुरानी जड़ों से बना उसका दिमाग़
अक्सर एक पथरीले चिंतन में डूबा रहता है

वह उसका घर है जहाँ बच्चों के खेलने की जगह है
वह जहाँ बूढ़े लोग उम्र के कठिन दौर में धूप सेंकते हैं
जहाँ एक थका हुआ आदमी उसे तकिया बनाकर कुछ देर लेट जाता है
घर लौटती हुई औरतें अपने बोझे उतार कर कुछ देर सुस्ताती हैं
अपनी संततियों को वह
नये बन रहे घरों की नींव में रहने के लिये भेजता रहता है

उस पर जो बहुत सी लकीरें बनी हैं
वे सभ्यताओं की ओर जाने वाले पुराने रास्ते हैं
जो अब सिकुड़ कर संकरे और अजनबी हो गये हैं
उसके भीतर अब भी एक छोटा सा मुलायम पत्थर है
जो दिल के आकार का है और जब-तब धड़कता रहता है.

(अंतिम परिवर्तन- संपादन, 2020)

भूत

यह एक ऐसा भूत है जो देवता बनते-बनते रह गया
जब भी भूत देवता बनने को होते हैं यह पिछड़ जाता है
हमेशा का फिसड्डी
जिसे कभी देवता बनने के लायक नहीं माना गया
जब यह मनुष्य था तब भी इसका यही हाल था
बचपन में कक्षा में इसे सबसे पीछे बिठाया जाता
कई बार फेल भी हुआ

गाँव के पेड़ों से चुराकर स्कूल में सेब और नाशपाती लाता
अध्यापकों की आँख बचाकर उन्हें बेचता
और शाम को उस पैसे से घर के लिये राशन ले जाता
इसे बीड़ी-सिगरेट की लत लग भी गयी
फिर एक दिन पिता ने इसका स्कूल छुडवा दिया
इसकी मृत्यु होने की खबर तभी लगी जब यह भूत बन गया

अब यह यहाँ रहता है

एक चबूतरे पर पीपल और सुरू1 के पेड़ों के नीचे
वहाँ जहाँ से गाँव दिखने की शुरुआत होती है
इस भूत की बुरी आदतों को सभी जानते हैं
अक्सर जब आने-जाने वाले लोग थक कर यहाँ बैठते हैं
तो इसके लिये बीड़ी-सिगरेट
और अगर उनके पास हो तो शराब की कुछ बूँदें भी छोड़ देते हैं
अगर नहीं छोड़ें तो यह तुरंत नुक़सान कर सकता है
इसकी अनदेखी करने पर किसको क्या भुगतना पड़ा
इसके कई किस्से यहाँ प्रचलित हैं
हालांकि इसकी नुक़सान पहुँचाने की जितनी भी ताक़त है
वह इधर के देवताओं के मुक़ाबले बहुत कम है.

(अंतिम परिवर्तन- संपादन, 2020)

1. पहाडी कैक्टस

ईश्वर

ईश्वर हमेशा हमसे ऊपर रहता है
हम आसमान की ओर इशारा करते हुए कहते हैं
सब कुछ उसकी कृपा से चल रहा है
या वह सब कुछ देख रहा है
लेकिन हम जानते हैं वह हमसे नाराज़ रहता है
हम उसे ख़ुश रखने की कशिश करते हैं
तब भी उसके क्रुद्ध रूप दिखते रहते हैं बादलों के बीच
तीख़ी हवा में जंगल जाने वाले रास्तों पर या रात में तारों के बीच
वह चाहता है हम बार-बार उसे धूप-दीप-नैवेद्य दें
साल में दो-चार बार बकरों की बलि दें

हम अभ्यर्थना करते हैं ईश्वर
हमें धन-धान्य दो योग्य संतति दो
बलिष्ठ बैल दो जो खेतों में देर तक हल चला सकें
हमारे घरों को मज़बूती दो जिन्हें बार-बार छवाना न पड़े
मौसमों का सुखद चक्र दो
तेज़ घाम के बाद वर्षा बर्फ़ के बाद खिली हुई धूप दो
रात में आसमान में तारों की चमकती हुई छत दो
लेकिन ईश्वर हमें देता है अक्सर अवर्षण अक्सर दुर्भिक्ष
अक्सर आंधी-तूफ़ान अकाल-मृत्यु
रात के तारे जो बुझते और टूटकर आते हैं पृथ्वी पर
हम कहते रहते हैं ईश्वर
इन काले पहाड़ों को स्याही की तरह समुद्र के पात्र में घोलें
और समूची पृथ्वी के काग़ज़ पर
वाणी की देवी रात-दिन लिखने बैठे
तब भी कठिन है तुम्हारे गुणों का बखान

लेकिन ईश्वर कभी ख़ुश नहीं होता
वह अक्सर हमें शाप देने की मुद्रा में खड़ा रहता है
कई बार हम मनुष्यों की वजह से
उसे अपना सिंहासन डोलता हुआ महसूस हुआ है
वह मौक़ा खोजता रहता है कि कब कैसे अमंगल कर सके
कैसे हमारी फ़सलें बर्बाद हों

कब हम अपने घर छोड़कर जाने को विवश हो जाएँ
हम बार-बार उसे पूजते हैं
कभी-कभी लगता है वह अचानक ख़ुश हो उठा है
और मुस्करा रहा है
और वरदान दे रहा है
लेकिन यह कुछ ही देर के लिये होता है
महज़ एक ख़याल कि हमारे अलावा कोई और भी है
जो हमारा भला चाहता है.

(अंतिम परिवर्तन- संपादन, 2018-2020)

पानी का पत्थर

पानी इस पत्थर को मुलायम बना चुका है
इस हद तक कि इसे भी पानी कह सकते हैं
ग़ौर से देखिए तो यह बहता हुआ दिखायी देगा.
घर का पत्थर
यह पत्थर मनुष्यों के घर बनाता है
इसे आप बेघर मत समझिए जो यों ही लावारिस पड़ा रहता हो
बर्फ़ बारिश और धूप की मारें झेलता हुआ
इसका भी एक घर है
ठीक वहाँ जहाँ यह मनुष्यों के लिये घर बनाता है।

(अंतिम परिवर्तन- संपादन, 2020)

पत्थर का पहाड़

यह बड़ा पत्थर पहले एक छोटा सा पत्थर था
बड़े से छोटा पत्थर बनने और टुकड़ों में बांटने के उलट
यह एक दूसरे रास्ते पर चला
इसके भीतर कुछ लोग आकर बसे तो इसका आकार बढ़ा
दूर-दराज़ से आये कुछ और लोग उनके नाते-रिश्तेदार
वे इसके भीतर चहलक़दमी करते रहे
यह उन सबके लिये अपने को खोलता रहा

अब यह पूरा पहाड़ ही इस पत्थर के नाम से जाना जाता है
जब कभी कोई मनुष्य घर से बहार जाता है
तो लोग उसे एकटक जाते हुए तब तक देखते रहते हैं
जब तक वह इस पत्थर के आख़िरी सिरे के मोड़ पर
ओझल नहीं हो जाता।

(अंतिम परिवर्तन- संपादन, 2020)

चाची का भूत- एक

चाची का भूत अजब है
वह मौक़ा मिलते ही उस पर लग जाता है
उसे बार-बार उतारा जाता है पूजा की जाती है
चाची को नचाया जाता है डमरू-थाली धूप-दीप के साथ
उसकी माँगें मान ली जाती हैं और उससे वचन लिया जाता है
कि चले जाओ और फिर मत आना महाराज
लेकिन भूत है कि पहाड़ की ओट में छिप जाता है
और जैसे ही किसी पर कोई अन्याय होता है
या कोई किसी ग़रीब की ज़मीन दबा देता है

तो फिर से चाची की दुर्बल देह को जकड़ लेता है
खेतों से घर लौटते हुए चाची की आँखें चढी हुई दिखती है
उसे बुख़ार आ जाता है और वह खडी उठने से इनकार करती है
सब समझ जाते हैं कि चाची पर फिर भूत सवार है
कोई ओझा डमरू-थाली-धूप-चावल के साथ भूत को नचाता
बैठी हुई चाची का बदन देर तक ऐंठता रहता जिसे भूत का नाचना कहा जाता
भूत भी कहता मैं दैत्य हूँ नाम है कुचील
मैला-कुचैला मैं साफ़ कर जाऊँगा तुम्हें और तुम्हारे ढोर-डंगर
अगर चाहते हो अपना भला
तो वापस करो ग़रीबों के वे खेत जो तुमने रखे हैं दबाकर
बंद करो अन्याय
भूत के वश में चाची मुँह से फेन उगलती हुई
खुलकर कहती वह सब जो कह नहीं सकती थी बग़ैर भूत के

बहुत मान-मनौवल के बाद उतरता चाची का भूत
इस तरह कुछ दिन चाची पड़ी रहती दर्द और ऐंठन दूर करती हुई
लेकिन कुछ ही दिन बाद फिर से हो जाती कोई ज़्यादती
छीन ली जाती नदी पार की ज़मीन
चाची को फिर भेज दिया जाता वहाँ करने काम
और वहाँ चिपट जाता चाची से वह पालतू भूत
पहले से ज्यादा विकराल उतरने से करता इनकार

आखिर एक दिन चाची गयी नदी पार उस गाँव में
इकट्ठा किये उसने तमाम लोग और नाचने लगी एक बीहड़ नाच
बिना डमरू-थाली के बिना धूप-दिये के बिना ओझा के
वह देर तक नाचती रही
चीख़कर उसने कहा लो आज उतारती हूँ हमेशा के लिये तुम्हारा यह भूत
सौंपती हूँ तुम्हें तुम्हारी यह ज़मीन
मैं अब पैर नहीं रखूंगी कभी यहाँ
नहीं मानूंगी अपने घर के लोगों का हुक्म
वह चाची का क्रोध था जिसे भूत के नाम से जाना जाता था.

( अधूरी, अंतिम परिवर्तन- संपादन, 2020)

कायर स्त्रियों से मुझे चिढ़ है

एक कापुरुष का साथ लिये
वो घिसटतीं रहीं चकरघिन्नी जैसी
दर्द से छाती पीटतीं
दूसरों को सलाह देती रहीं असल सुख तो दर्द में ही है
ऐसी कायर स्त्रियों से मुझे चिढ़ है
अंदर कंकाल बन दहकती हैं
फिर फिर वही कायराना हँसी
हूक में जीतीं ये
न जाने किस संस्कार के खोल में पड़ी रहती हैं
ये कापुरुष को न नहीं कहतीं उनके अहम को दिनों दिन सहलाती हैं
इन कायर स्त्रियों से मुझे चिढ़ है
मुझे किसी के वरदान की ज़रूरत नहीं
हर युग में पुरुष करता रहा मन की बात
एक स्त्री के मन की बात इतनी अखरती क्यों है
मुझे नहीं चाहिए वो पेज
जिस पर कला को भरसक लपेटकर सब सुंदर दिखाया जाता है
किसी के लिये श्मशान भूमि फायदे के लिये हो सकती है
मेरे लिये नहीं
मुझे वहाँ असंख्य माँएँ लिटी हुई नज़र आती हैं
जिनकी जीभ कट गई है योनि फटी है
फिर भी वो स्त्री मुझे रीढ़ वाली नज़र आती हैं
पर मुझे उस कायर स्त्री से चिढ़ है
जो कहती है मुझे प्यार के बदले प्यार चाहिए ही नहीं
मुझे कायर स्त्रियों से चिढ़ है
हाँ क्रूर समय में रसभरी कविता मैं नहीं लिख सकती
तुम देखो रस, छंद, अलंकारों में स्त्री का चेहरा
मुझे उसका चेहरा बताता है वो हार मान चुकी है
कायर है वो और उस स्त्री से मुझे उतनी ही चिढ़ है जितनी कि कापुरुष से
और हाँ यदि किसी को यहाँ फाँसी हो तो उस ‘किस्मत’ को हो
जो स्त्री और पुरुष की किस्मत अलग अलग गढ़ती है।

( अधूरी, अंतिम परिवर्तन- संपादन, 2020)

प्रेमियो

वो प्रेमियो तुम्हारी प्रेमिका हर रोज़
तुम्हारे रंग की साड़ी में बँधी रसोईं में खड़ी क्यों दिखती है
क्यों तुम्हारा प्यार पकवान बनाती उसकी उँगलियों पर आ ठिठकता है!
तुम क्यों देह के उस पोर से प्रेम करते हो जिसमें तुम्हें प्रेमानंद मिले
कहो तुम प्रेमिका की फैंटेसी लिखते लिखते थककर सो गए रूप में क्यों नहीं बना पाते?
तुम्हें रसोईं में सिर झुकाई और मेज़ पर सिर टिकाई लड़की में फर्क क्यों नहीं सूझता!
तुम्हारे फैंटेसी में प्रेमिका रोज़ आरती गाती नज़र आती है
क्यों तुम्हारा आदर्श प्रेमिका के कंधे पर सवार होकर आता है
तुम हर बार अव्वल आ जाते हो
तुम्हारे बेडरूम में प्रेमिका का इनकार तुम्हें अपना अपमान लगता है
सुनो प्रेमियो स्त्री का प्रेम मन जीतने से शुरू होता है
देह में थोपी सभ्यता वो नहीं चाहती
वो थोड़ा सकुचाकर शुरू करती है प्रेम
विश्वास पक्का चाहती है और मग्न हो जाती है प्रेम में
जिसे तुम निर्लज्जता कहते हो
कहो तुम्हारे जीवन से दूर तुम्हारे फैंटेसी तक में नहीं अँट पाती प्रेमिका
और तुम प्रेमी बने फिरते हो!
वो प्रेमियो तुम्हें अब अपने प्रेमपद से त्यागपत्र दे देना चाहिए।

( अधूरी, अंतिम परिवर्तन- संपादन, 2020)

असंभव समुद्र

वहाँ एक नाव थी
मुझे ले जाने के लिये तैयार
एक दृश्य था
मेरी तरफ़ आता हुआ

हर जगह से
एक लपट निकल रही थी
वहाँ पलकें झुकाकर
मैंने सोचा
चुंबनों और मृत्यु के बारे में

चीज़ें किसी चीज़ का संकेत नहीं हैं
वे सिर्फ़ सिहरनें हैं
हमारी देहों की
वे सिर्फ़ दूरियाँ हैं
विदा में काँपते हाथों की

वहाँ मैंने चेहरे देखे
अतल में जाते हुए
उठते हुए बादलों की तरह
उस कठोर तट पर झुके हुए

ख़ूशबू और नमक
और अंधकार में जीवित विस्तार
तुम लौट आते से
हर बार एक ज्वार के साथ.

(1976-80)

शीर्षकहीन- एक

कोई और पेड़ है
जिसकी हवा है अँधेरा है
कोई और पेड़ है
जिसकी टहनियाँ स्पर्श करती हैं
कोई और पेड़ है
जो अपनी परछाईं पर
कोई और पेड़ है
रातभर सिहरता है

हवा और अँधेरे का पेड़
स्पर्श सिहरन और परछाईं का पेड़।

(1976)

शीर्षकहीन- दो

पेड़ में हैं रात की जड़ें
पेड़ में हैं रात के पत्ते
देह में है रात की देह
देह में है रात की साँस।

शीर्षकहीन- तीन

हम पेड़ों के भीतर गये
हम पत्थरों के भीतर गये
हम इस पानी के भीतर गये

हम आग के भीतर गये
हम रोशनी के भीतर गये
हम सन्नाटे की देह के भीतर गये
अब हम लौटते हैं
सिर्फ़ एक कहानी में।

शीर्षकहीन- चार

घर धूल का घर है
धूल की नींव पर टिका हुआ
धूल की चार दीवारें और छतें
जिनके बीच पत्थर धूल के कणों से बने हैं

हम रोज़ झाड़ते हैं फ़र्श, बिस्तर कुर्सियाँ
कपड़े आँगन चिठ्ठियां बर्तन
धूल उड़ती है
बाहर पेड़ों के पत्तों पर बैठ जाती है
या जंगल की तरफ़ चली जाती है

जितनी धूल उड़ती है
उतनी ही आकर फिर बैठती है आसपास
इस तरह बना है यह घर।

शीर्षकहीन- पाँच

चतुर्दिक व्याप्त भ्रष्टाचार में
मुखौटों और भोंपुओं की जयकार
जिनके भीतर है भीषण जीभों और दाँतों की भरमार

जिनके लिये एक प्राचीन सभ्यता का मतलब है
भाले त्रिशूल और तलवार
जो मचाते उपद्रव लगाते आग अफ़वाहें जिनका हथियार
उसकी जय जो कहता कुछ करता कुछ और
जो ढहाता कुचलता दौड़ाता विजय रथ हर ओर
जय उसकी जो उगलता ही जाता आग
और उसकी भी जो झूठ को बतलाता सच
वह जो कहता चुपके से उजाड़ो यह घर
औऱ वह जो उजाड़ता डंके की चोट पर निडर
जय उसकी जो हरदम करता किसी शत्रु की खोज
और एक शत्रु को दिखलाता हर रोज़
जय हो छल की कायर झूठ कुटिल हँसी की जय
जय विध्वंस जय धौंस जय घृणित स्वर
जय विष, जय विद्देष, जय विस्फोट जय धूल
जय उसकी जो रोटी के एवज़ में देता बम
जय उसकी जिसने मानवता को दिया निष्कासन
जय भाषा जिसमें नहीं रहा कुछ अर्थ
जय उसकी जिसने जय है जय है किया।

(संभावित रचनाकाल: 1990-1995)

शीर्षकहीन- छह

अब ज़्यादातर ऐसी जगहों में मुलाक़ात होती है
जहाँ कोई जा रहा होता है ज़्यादातर असमय
मृतक के चारों ओर आग जलाई जा रही होती है
या एक गड्ढा खोदा जा रहा होता है

लोग हुए आते हैं हड़बडाते हुए और कहते हैं
थोड़ा देर हो गयी है
उम्मीद नहीं थी कि समय पर पहुँच पायेंगे
रास्ते में बहुत भीड़ है
लोग लगातार कुछ ख़रीदने कुछ खाने में जुटे हैं
पता नहीं था दुनिया इतनी अजनबी हो जाएगी

कुछ तब आते हैं जब आग बुझ गयी होती है
गड्ढा भर दिया गया होता है
कभी-कभी मृतक के पास पहुँचने में कई दिन लग जाते हैं
कभी महीने या साल
आख़िरी सलाम भी मन में ही कहना पड़ता है

यह समय ही ऐसा है
सारी ख़बरें बाज़ार से होकर गुज़रती हैं
और बाज़ार हमेशा हादसों को छिपाने की कोशिश करता है
वह चीज़ों को ढाँप देता है चमकीली पन्नियों से
दूकानों में सजे हुए दुखों से

कौन कहाँ किस हाल में रह रहा है
कौन कहाँ चला गया है कुछ पता नहीं चलता
हम याद करते हैं ग़रीबी और निर्भयता के दिनों को
और करीने से एक जगह रख देते हैं
जिसे हमने आत्मा का संग्रहालय बनाने की कोशिश की है

(अंतिम परिवर्तन- संपादन, 2020)

बुख़ार

बुख़ार की दुनिया भी बहुत अजीब है। वह यथार्थ से शुरू होती है और सीधे स्वप्न में चली जाती है। वह आपको इस तरह झपोडती है जैसे एक तीख़ी-तेज़ हवा आहिस्ते से पतझड़ में पेड़ के पत्तों को गिरा रही हो: वह पत्ते गिराती है और उनके गिरने का पता नहीं चलता. जब भी बुख़ार आता है, मैं अपने बचपन में चला जाता हूँ। हर बदलते मौसम के साथ बुख़ार भी बदलता था: बारिश है तो बुख़ार आ जाता था, धूप अपने साथ देह के बढ़े हुए तापमान को ले आती और जब बर्फ़ गिरती तो माँ के मुँह से यह ज़रूर निकलता, ‘अरे भाई, बर्फ़ गिरने लगी है , अब इसे ज़रूर बुख़ार आयेगा.’ एक बार सर्दियों में मेरा बुख़ार इतना तेज़ हो गया कि पड़ोस की एक चाची ने कहा, ‘अरे च्छोरा, तेरा बदन तो इतना गर्म है कि मैं उस पर रोटी सेंक लूं!’ चाची को सुनकर लोग हँस देते और मेरा बुख़ार भी हल्का होने लगता। उधर, मेरे पिता मुझे अपनी बनायी बुखार की कारगर दवा ज्वरांकुश देते जिसका कड़वापन लगभग असह्य था। वह गिलोय की गोली थी लेकिन पता नहीं क्या-क्या पुट देकर इस तरह बनायी जाती थी कि और भी ज़हर बन जाती और बुख़ार उसके आगे टिक नहीं पाता था। एक बार गाँव में बुख़ार लगभग महामारी की तरह फैलने लगा तो पिता ने मरीजों को ज्वरांकुश देकर ही उसे पराजित किया। अपनी ज्वरांकुश और हाजमा चूर्ण पर उन्हें बहुत नाज़ था जिसकी परंपरा मेरे दादाजी या उनसे भी पहले से चली आती थी। पिता कहते थे कि जडी-बूटियों को घोटते वक़्त असल चीज़ यह है कि उन्हें कौन सा पुट- दूध, शहद, घी, अदरक, पारा, चांदी, सोने का- दिया जाता है. उसके अनुसार उसकी तासीर और इस्तेमाल बदल जाते हैं। बहरहाल, जब मेरा बुख़ार उतरने लगता तो मुझे उसकी आहट सुनायी देती। वह सरसरा कर उतर रहा है, बहुत आहिस्ते, जैसे साँप अपनी केंचुल उतारता है। केंचुल उतरने के बाद लगता शरीर बहुत हल्का हो गया है और आने वाले बुख़ारों को झेलने में समर्थ है। बुख़ार के बाद त्वचा में एक अजीब पतलापन आ जाता था और हाथ की शिराओं का नीला रंग उभर आता जिसे देर तक देखना अच्छा लगता.

(2020)

घर के बारे में 

पिछले साल हमारी एक-एक चीज़
इस नदी में गिर गयी थी
(उनका कहा हुआ सच निकला

कि एक दिन सब ख़त्म हो जायेगा)

देखी हुई चीज़ों को देखते पिछले साल
हम उठकर गये थे अधखाया भोजन छोड़कर

फिर भी हम यहाँ आते हैं
जैसे हाथ में एक मरी हुई चिड़िया दबाये
हम आते हैं इस गुफा में सहमते हुए प्रार्थना करते हुए
मन के कितने ही रथ अपनी ओर मोड़ते हुए
रास्ते में ही शाम हो जाने की कामना करते हुए
मिट्टी हो चुकी हड्डियों के ढेर में
अब भी बार-बार एक गुर्राहट सुनते हुए

कौन-सी याद हमारे सबसे क़रीब है
फ़र्श पर जहाँ से दीवारें शुरू होती है
एक शऱीर जैसी आहट है अब भी
एक शरीर जैसा अकेलापन है
एक शऱीर जैसा अंधकार है
भूख है काली छतों से भाप की तरह उठती हुई
चट्टानें सब जगह एक-सी हैं
उन पर चलते हुए बहता है एक-सा रक्त
पैरों में एक-सी पीड़ा एक-सी चीख़
बूढ़े जंगलों पर टिकी हुई एक-सी धुंध
बर्फ़ की तरह ख़ामोश एक-से वर्ष
घाटी से बाहर आते हुए

हमारी पीड़ाओँ के समूह मात्र हैं-
हम अपनी ही छायाएँ है सूर्यास्त की
पेशाब औऱ जूठन से भरी हुई जगहों में
जब रात गिर रही होती है
हमारे नाराज़ बाप पहाड़ों से उतरते हैं
हाथों में मशाल लिये हुए
अपने झुलसे कंधों पर उन्होंने हमारे लिये
मकान उठाये हैं जहाँ हम कभी नहीं गये

देखो, उनके आँगन हिल रहे हैं
उनके चारों ओर हवा सोखते हुए पेड़
हमें देखने के

 


प्रमोद कौंसवाल
कवि, पत्रकार और अनुवादक। जन्म: 20 दिसंबर 1966। बीए तक की शिक्षा गढ़वाल विश्वविद्यालय और फिर दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से एमए किया। 1986 में मेरठ के अमर उजाला की स्थापना से पत्रकारिता शुरू करने वाले प्रमोद ने यहां तीन साल तक मुख्य डेस्क में काम करने के बाद जनसत्ता के मुंबई संस्करण में 1989 में और फिर इसी अख़बार के चंडीगढ़ संस्करण में 1994 तक मैगज़ीन एडिटर के तौर पर काम किया। 1994 से टीवीआई दिल्ली से इलेक्ट्रानिक मीडिया से पत्रकारिता की शुरुआत। यहाँ एसोसिएट एडिटर के पद पर रहते हुए सीनियर बुलेटिन राइटर के तौर पर काम किया और 1999 में पंजाबी वर्ल्ड-न्यूज में प्रोड्यूसर न्यूज़ के तौर पर जुड़े रहे। पिछले 22 साल से ज़्यादा समय से दिल्ली में सहारा इंडिया टीवी में कार्यरत। अपनी ही तरह का आदमी (1991) पहला कविता संग्रह प्रकाशित जिस पर 1992 में भारत भवन के एक समारोह में शरद बिल्लौरे अवार्ड मिला। रूपिन-सूपिन नाम से दूसरा कविता संग्रह (2001) आया। रात की चीख़ ( दुनिया के 14 जानेमाने लेखकों की कहानियों का अनुवाद), क्या संबंध था सड़क का आदमी से (देश के प्रमुख युवा कवियों की रचनाओँ का संपादन), इतिहास संदर्भ कोश (1996), सुरों की सोहबत में (1993- भारत के संगीत-नृत्य पर चुनिंदा आलेख)। देश विदेश की भाषाओं में अनुवाद के अलावा विष्णु खरे और बारबरा लोत्ज़े संपादित दुनिया के प्रमुख लेखकों पर केंद्रित जीवंत साहित्य में रचनाओं का हिंदी के साथ अंग्रेज़ी और जर्मन में अनुवाद प्रकाशित। एक कविता और एक कहानी संग्रह प्रेस में। भारतीय रंगमंच, कला, साहित्य और संगीत पर ख़ास महारत। फ़िलहाल दिल्ली में रहते हैं।
मोबाइल नंबर- 9811815086
ईमेल- pkonswal@gmail.com

 


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