‘ मध्य लय में रक्त सूर्य ‘ लीलाधर मण्डलोई की लम्बी कविता है। राम की शक्ति पूजा , नगई महरा , अंधेरे में, पटकथा , लुकमान अली, मां जानती है की काव्य – परम्परा और कहें तो ‘महाजनी सभ्यता ‘ की कोख से जन्मी यह कविता अपनी बोली – बानी, स्थानीयता के साथ भाईचारे और अंतत: मनुष्यता के खंडित होने और उसे बचाने की चिंता की कविता है। लीलाधर मण्डलोई ने अपने मण्डलोईयन अंदाज़ में भारतीय जातीय आग को जो मार खा रोई नहीं की तर्ज़ पर जगाए रखने – टूटकर भी उठ खड़े होने का जो जज़्बा प्रस्तुत किया है, लेखकीय सरोकार को रेखांकित करता है। बहरहाल, कविता पढ़ें और दो शब्द ज़रूर लिखें। – हरि भटनागर

कविता :

मध्य लय में रक्त सूर्य
**
कितने साल हुए हम खुलकर हंसे नहीं
न लिपटकर दुख बांट सके आपस में
कुछ छिनता ही रहा ज़ालिम ज़माने में खुले आम
जो थोड़े हंसोड़,थोड़े बतोड़,थोड़े पागल हैं
ऐसे ही दीवाने ढाई आखर में भरोसा करते हैं
ठप्प होती गप्पगोईयों
गुफ़्तगू के उजड़ते ठीहों
ख़त्म होते जा रहे मेलजोल और
कम होती जा रही दोस्तियों के इस दौर में
वे एकजुट होकर हंसना चाहते हैं
बचाना चाहते हैं ज़र्द अवसाद से नौजवानों को
घने अन्धकार में वे मातृभाषा की दरियादिली में
लतीफ़ागोई से प्रतिरोध को रौशन करना चाहते हैं

हिंदी-उर्दू का वो चमकता दोआब मध्दिम होने की सम्त है
साथ में बोलियों की वह रसभरी खनक
भरोसा एक दुर्लभ शब्द हो गया और
यह सचमुच ख़तरनाक है
इल्मो-फ़न की दुनिया के उजाड़ में
किराये की भाषा की कोख में मूल ग़ायब हो रहा है
इसके पहले बच्चे भूल जाएं अपनी मांओं के नाम
लोरियां,क़िस्से -कहानियां ,भजन और प्रार्थनाएं
दादी,नानी,बुआ,काकी से लेकर बुजुर्गों की सीख
आवाज़ दो ! कि बहुत ज़रूरी है विरसे का पूरबीअंग
ताकि पश्चिम की आंधी में डूब न जाए हमारे बोल ,आलाप और तान

ये दौरे-महाजनी हसीन बावली है
जब तक ग़ुलाम न बना लेगी
मानेगी नहीं
ये चमकती घूम रही है काली धुस्स जंगल ,समुद्र से गांव जवार तक
इसे तो सब चाहिए रक्त,मांस-मज्जा , हड्डियों से जीवाश्म व पत्तियों से जड़ों तक सब
अब हमारी मेधा उनका केंद्रीय आखेट विषय है

याद करो!
पहले दो के बीच
साझा मन की अमीर भाषा हुआ करती थी
वे आपस में न बोलकर भी समझ लेते थे
और अब बोलने में इतना हड़बोंग,इतनी गति
कि सुनाई से बाहर इक दूजे के भाव सुर
जबकि कितना ज़रूरी है देखना ,सुनना और समझना यह नीली ख़ामोशी
बिन संवाद के भ्रमजाल के फैलते ये क़ातिल साये हमारे ख़िलाफ़ हैं

‘मैं ‘और ‘मैं ‘चलता है
आज की पीढ़ियों बीच
वे जान नहीं पाते ,उनका ‘मैं’ , उनका न था
वह बदलकर कब का सोशल मीडिया हो चुका था
देखो उनका मकड़जाल कि पता न चल सका
कि मूल कब अनुवाद होता गया
एक की आत्ममुग्धता दूसरे के सामने
सीना तानकर डटी रही
हम सरीखे कुछ सनकी इस मंच को
दुनिया में बदलाव का माध्यम बनाने का सोचते हैं
यह नामुमकिन नहीं
ऐसा दूसरे देशों में सड़कों पर हो चुका है
बस इतना ही सोचना है
कि कृत्रिमता को लांघने का जज़्बा बचा हुआ हो

हम साधारण नहीं बेहद ख़ास हैं अपनी जड़ों में
बस पहचान नहीं पा रहे
कि उजाला भीतर के अंधकार से बाहर है
दोस्त-अहबाब-कलाकार स्वर बुलंद कर रहे हैं
बहुत ज़रूरी है इस वक़्त भटके हुओं का कायांतरण
बस चूल्हों की आग में दिखाना है अपनों के चेहरों की ताब

मुमकिन है बहुत से उदाहरण होंगे
धड़कता दिल सबके पास है
लेकिन किसी -किसी दिल से बरसता है प्यार और
उस्ताद अकबर अली के कोमल गांधार सा फैल जाता है चतुर्दिक
स्वर रंग ओर-छोर हैं दृश्य में
जिसमें वो एक चोखा हरा हमारे लिए
रेगिस्तान में उगकर असंभव की परिभाषा बदल देना चाहता है

न वह दूसरा हो सकता है
न बदल सकता है
वह बस सबके लिए बिन चाहते भी
धड़कता रहता था
यह किस की बदनज़र पड़ी
कि बीच-बाज़ार अब इंसानियत के ख़िलाफ़ ख़ंज़र थामे खड़ा हुआ है

जो सबसे कठिन वक़्तों में साथ रहा हो
और बिना किसी वजह ,उसे खोने के पहले
बस याद कर लो उसकी आंखों की नमी
इतने अनुपस्थितों का मातम मनाते
आंखें सूज चली हैं
और ताज़े ज़ख्मों से दर्द के ज्वार उठ रहे हैं
तब भी बमों का फूटना बंद नहीं होता
सरहदों पर लोग बदहवासी में चीख़ रहे हैं
फ्लेमिंगो की तरह नमक में डूबे हैं मानो पांव
और दौड़ना -उड़ना नामुमकिन
हमें होना चाहिए हर ऐसी जगह जहां लोगों को अधबीच थामना है

समझो यह रहस्य
पहाड़ हर भूकंप में कांप सकता है
ढह नहीं सकता
वह बोलता नहीं बता देता है दिल की बात
और भविष्य का एक्सरे
हमारे लिए यह उसकी ज़बान है प्यारे !

हम अपनी धरती के लिए जनमे हैं
दुनिया कभी न जाने ,जो हमारे एका के राज़ हैं
कृत्रिम बुद्धि के साथ वे सभी ‘5 G’ एकजुट हैं
वे स्केन कर लेना चाहते हैं हमारी सूक्ष्मतम धड़कन
हमारे विचारों की भ्रूण हत्या तक उनका तंत्र सक्रिय है
अभी भी पकड़ से बाहर है बहोत कुछ
चेहरे को देखने भर से मां जान लेती है हमारा दुख
यह प्यार की बेजोड़ ताकत है
और किसी भी आभासीय पकड़ से बाहर

यह कारगर सत्य और करिश्मा जानते हुए
हम मां न बन सके और एक-दूसरे के सुख-दुख
फूटी आंखों नहीं देख पाने को अभिशप्त होते गये
दुनिया में युध्द प्रेम को रौंदता काबिज है मुल्क़-दर-मुल्क़
रूस, यूक्रेन, इजरायल, फिलीस्तीन,सीरिया,ईरान उदाहरण मात्र हैं
कब वह यहां दबिश दे दे ,पता नहीं
जब तक युद्ध के हथियारों को बेचना बाक़ी रहेगा
वे पैदा करते रहेंगे कारण
मौतों पर फल -फूल कर वे कभी अघाएंगे नहीं
यह उनके ख़िलाफ़ दिलों में परमाणु पुष्प खिलाने का समय है

एक लंबी यात्रा पर निकलना हो
तो हंसने -खिलखिलाने ,गीत गाने
और मंज़िल तक पहुंचने के लिए हथियार पजाओ
जो कर दिए गये हैं अकेले या दिग्भ्रमित
उन्हें भर लो बांहों में
अकेले करते जाने के इस दौर में सुनाई पड़ते हैं जो मर्सिए रोज़
एक सघन लय संगीत उनमें भी है
जो दुःखों के बीच सूरज सा उगता कुछ ज़रुरी याद दिला रहा है

मां जब चूमती थी
समझ आता था प्यार का अशेष बल
चूमने की उस ताकत में जो भाषा थी
उसे छीन नहीं सकती कोई प्रोद्यौगिकी
उसने नीच हुशियारी से मजहब को इतना क़ातिल बना दिया
होठों से टपकता रहता है ज़हर इतना
कि शर्मसार हो उठें ज़हरीले सांप
फिर भी कहीं न कहीं इतना एका तो आबाद है
कि उनका हमें ख़त्म करने का इरादा,अभी भी सपना बना हुआ है

हमारे पास इतने भाव हैं और अभिव्यक्तियां
कि भर जाता था सकल व्योम इश्क़ में
और यह पता नहीं चल पाता था किसी सुपर कंप्यूटर को
और अब विवेक से हमें रचना है कालजयी भाव आख्यान
कि प्रेम बिखरने से बचकर काम पर निकल पड़े

इसके पहले कि वे आत्माओं की जासूसी में कामयाब हों
दिमाग़ में जो है दहक रहा है ,उसे भूल जाओ ख़ुदा के वास्ते
दिल अब भी हस्बमामूल हैं गोया आदिम चट्टानें
जो धार -धार कट कर भी अडिग हैं
उनके सीने में सभ्यता की एक नदी बिन रुके बही जा रही है

जिंदगी से बड़ा कोई अवसर नहीं होता
हाथ उठाए जो मांग रहे हैं साथ और साहस
उन्हें खोकर समझना बुध्दिमानी नहीं है
मन का जल पहाड़ी चश्मे सा गर्म है
जो ज़िद्दी सख़्त हड्डियों को नर्म-मुलायम बना देता है
सो आओ घास की तरह उग आएं हर जगह
और शबनम की तरह चमक उठें दुखों पर

जो रहा होगा लोरी के लय संगीत में
अनुभव किया होगा उसने त्वचा का रोमांच
अनुवाद कर लो उस भाव अर्थ का
इतनी तोड़-फोड़ भीतर जारी है
सब छिन्न -भिन्न होने की कगार पर लगे
तब भी परास्त अनुभव न करें
पहले इससे कठिन मक़ाम आए हैं
और पराजय के मुहाने पर जीत के इतिहास हैं

हम बुनकर हैं
सदियों से अपनी कमियों को बार -बार उधेड़ते
अच्छाईयों को बुनने की जुगत में बने रहते आए हैं
अभी देर कहां हुई ?
दर्शन में रास्ता है और अंगुलियों में हुनर
अभी थामी जा सकती है धुरी से उतरती दुनिया

कोई नहीं होता जब आस-पास , हारी-बीमारी, महामारी में
नहीं होती कोई उम्मीद की किरन तक
मुंडेर पर बिना चूक होती है चिड़िया वही आबो-ताब लिए
बच्चे हंसते -दौड़ते चौंका देते हैं गुज़रते टैंकों को
आवाज़ देते हैं डाकिये ,अख़बार और दूध पहुंचाते युवा
और आदतन चौकीदार जिन्हें पूरा विश्वास है
कि नींद से झकझोर कर उठाने से जाग जाएगा वतन
जिससे तानाशाह डरता है

मधुर होती तानों में आठ प्रहर के राग चमत्कार हैं
मुर्कियों के उजाले में हिमालय चढ़ना आसान होता जाता है
सफ़र हमेशा सुंदर नहीं होता ,न सुकूनबख़्श
टेढ़ा-मेढ़ा है ,घायल करता है
इसका दर्द अनोखा है
मन एक सुंदर तस्वीर बनाता है और उसे विरासत में छोड़ जाता है
एक आस बूंद सही ,समंदर उसमें सुनहरी लहर सा हंसता पुकारता है

वे जनता को दास बना रहे हैं तरह-तरह से
वे सारे क़िले फ़तह नहीं कर सके और डरे हुए हैं
उनकी रायशुमारी झूठ की दुकानें हैं
हमें बदल देना है उनकी जीत का हर ख़ाक़ा
तर्जुमे के लिए हम उनकी पसंद के कथानक नहीं है
हमें लिखना है इसी तरह कि हम पहचाने न जाएं आसानी से

यह मंज़र कितना तसल्लीबख़्श है कि अभी आत्माएं जागी हुई हैं
कुछ लोग अपनी आज़ादी के लिए खेत में हल-बखर लिए पहुंच गये हैं
कोई जान नहीं सकता है कि हमारे इंकार की हिम्मत किस पाये की है

हम अपनी चाल चलते हैं
अपनी भाषा में बोलते हैं
अपने मुहावरे गढ़ते हैं
अपने को एक बड़े मिशन को सौंप देते हैं
हमारा संघर्ष फ़िलवक़्त फ़ायदेमंद न हो
हम फिर भी अपने प्रेम की ज़िद में अड़े हैं
फसल होगी ज़रूर भले ही मौसम कितना अड़ियल क्यों न हो!

उन्हें कहने दो ,जो कहते हैं
उन्हें शिकायतें हैं,रहने दो
वे ग़लत बातें करते हैं,करने दो
वे घमंडी कहते हैं,कहने दो
उन्हें बुरा सोचने दो
हम सोचें ,अपने और सिर्फ़ अपने बारे में
इसी में छिपा है उनकी पराजय का रास्ता
इसी रास्ते करोड़ों लोग जीतकर अपने घर लौटते हैं

जीवन कठिन है और सरल भी
सरलता भी आसान नहीं
मुसीबत संभलने के लिए समय नहीं देती
आने वाली चुनौती के पहले हम
अपनी तैयारियों को ज़रूर समय दे सकते हैं
आंखों में किसी महास्वप्न की कलियां सूरज के रूबरु हैं

जब अचानक सबसे बड़ा वार हो
मुस्कुराईये
सफलता ,असफलता के रास्तों से आती है
और पास लगते हुए भी दूर होती है
आख़िरी बाल पर
एक रन बनाना भी जब नामुमकिन लगता हो
जीत इतनी क़रीब हो तो सिर्फ़ और सिर्फ़
बड़े छक्के से कम न सोचना चाहिए

हम दरिन्दों से लड़ाई में हैं
उन्होंने हमारे ख़्वाब को क़ब्ज़े में लेने की ठान रखी है
हमारे नाम उनके काले रजिस्टर में दर्ज़ हैं
उनसे अभी हमारी छापामार जंग है
हम घरों में रहने के लिए पैदा नहीं हुए
आधी दुनिया को रसोई से बाहर मैदान में होना है बिना चूक
इसलिए नहीं हुआ यह जनम
अपने वजूद को पहचानो
समझ को लेने दो अपना विस्तार
आंखों में उतरने दो चांद-सितारे
पृथ्वी को एक बच्चे की तरह भूलकर प्यार करो
और ख़ुद एक बच्चा हो जाओ
और धरती के कैनवास पर आसमान रच दो

आदिम सुध के साथ कबीर की तरह
नयी राहों में चलकर देखो
जहां सभी संगी-साथी पांवों के फफोलों के साथ
मरहम-पट्टी किये बिना ,चले आ रहे हैं
इंसाफ़ के लिए मर-मिटने वालों में
जोड़ दो अपनी दुनिया का अपरास्त हौसला
फिर कहां कोई तानाशाही रह पाएगी

वतन एक अज़ीम शाहकार है
कोई भी वज़ीरे आज़म शायर नहीं होता
नहीं होता उसमें हम सा क़ुर्बान होने वाला जिगरा
उसका दिल नहीं होता
दिल में सनम नहीं होता
उसमें जो होता है
जगजाहिर है ,भूल से वतन नहीं होता

यह आलीशान बंजर है,देश नहीं
आभासीय वहम है बस
हमारी जगह वही मामूली धरती है
जहां हम अपनी तरह खिल सकें
और गा सकें आज़ादी के तराने
हमारे लिए रात भी दिन हैं
हम कुछ कर गुज़रने की बैचेनियों के तलबगार हैं

पहचानो !
वह पूरे शरीर सहित धोखा है
नाखूनों से सुअर बालों तक हैवान है
तब भी बच्चों का हौसला देखो, वे नींदों में हंसते रहते हैं
माना कि समंदर लहरों पर बदमस्त सवार इठला रहा है
कमाल यह कम तो नहीं कि हम भले ही मछलियां हैं
लहरों पर जागने -खेलने और सोने की ताकत से लैस हैं

अतीत से घेर दिया गया है जबकि बेतरह हमें
कल ही कल है इतना अधिक है
और ईश्वर इतने अधिक
और हम उनके षड़यंत्रों के शिकार
हमारा इतना कीमती समय खो गया
जो हो सकता था हमारा और सिर्फ़ हमारा

ये पल भी छूटते जा रहे हैं बालू की मानिंद
बर्बादियां अंधड़ जैसी बढ़ी आ रही हैं
हमारी मूल्यवान सपने,गीत,संकल्प ,विचार और संघर्ष
हो न जाएं गुज़रे ज़माने की चीज़ें
इन्हें भविष्य बनाने का यही एक क्षण है
नासमझी का यह अंधेरा कहीं लील न ले ख़ूबसूरत विरासत

फ़कीर याद दिला रहा है
जो सचमुच करना है कल के लिए आज करो
ठिठको मत
एक पेड़ हो तो कुछ ज़िंदा निकलना चाहिए
आक्सीजन या कार्बन डाई आक्साइड
दोनों अहम हैं
मौसम जवां हो या मस्त या इससे जुदा
वह बाहर होगा अपना काम करता
निकलकर उसमें खो जाओ
नज़रें न चुराओ अयाचित समय से
वहीं से आगे है हमारा संसार
उसको पाने के लिए याद करो पांवों का बल

भीतर तो सब अचेतन के ब्लेक होल में समा जाता है
इन्द्रियां बाहर से गृहण करती हैं
संवेदना अपने आप प्रगट नहीं होती
वह दुख -सुख का अनुभव होते ही बहने लगती है
पहाड़ों की कल्पना करो कितने कठोर हैं
उनमें भी जन्म लेते हैं जीव-जगत और जंगल
और दरारों से निकलती हैं जो पतली जलधाराएं
जो बन जाती हैं विराट नदियां और उनसे समुद्र
हम तो आख़ीरकार मनुष्य हैं सृष्टि की अनुपम रचनाएं

पेड़ की शाखाएं धूप की ओर बढ़ती हैं
नदी को समुद्र का कोई इल्म नहीं
अनेक पहाड़ों को काटती -लांघती पहुंचती है वहीं
तुम भला कैसे आगे बढ़ने से अपने को रोक सकते हो?

यह दुनिया मनुष्य संघर्ष से हरी-भरी है
मनुष्य सृष्टि के साथ हैं और एक-दूसरे के बिना अपूर्ण
अकेले जीने का क़ौल एक अधूरा ख़याल है
और प्रकृति के ख़िलाफ़
जो तुम्हारे साथ बिन थके आरंभ से हैं, हो लो उनके साथ

भीतर अदृश्य है सब
बाहर सब दृश्यमान
पहले ख़ुद को भासमान करो
मुमकिन है तब अपना अदृश्य अंधकार थोड़ा देख सको
बाहर के नियमों को हृदयंगम करके ही
बनेंगे नये नियम
जिनमें होगा मनचाहे जनतंत्र को तामीर करने का नक़्शा

रंग शब्दों के लिए नाकाफ़ी हैं बहोत
चलो आज छोड़कर मन की जेल
इस कायनात में आवारा हो जाओ
खोलो इस विस्मय लोक में अपनी गहन आंखें
और दर्ज़ करो सूक्ष्म से सूक्ष्म विवरण चेतना में

एक जोड़ी आंखों को बना लो कैमरा
आंखों के विज्ञान पर ही बना है कैमरा
और कानों के विज्ञान पर माईक्रोफ़ोन
पहले इन्हीं से बनती थी फ़िल्म अवचेतन में
और चलती रहती थी हर दिल-दिमाग में

कुछ नहीं छूटता था इनसे,न दूर का न पास का
चलो तो सही एक बार
बहुत ज़रूरी है सांसों की सरगम कुरुक्षेत्र में
किसी एक विचार से मंज़िल पर न पहुंचेंगे
कितने गुमनाम और धोखादेह हैं उनके दिमाग़
उन सबको पार करते हुए पैदा करनी होगी मौलिक उपज
जिसे दुश्मन भेद न सके
ध्वनियों ,भावों में ऐसा जादू जो कृत्रिम मेधा की पकड़ से बाहर रहे

उसे पाना और बचाना ही वक़्त का सबसे अहम मिशन है
बचाना है अगर आग-धुंए-अंधेरे में घिरी इस दुनिया को
लपकते शोलों के भीतर मेघ स्वर का हौसला साधना होगा
दुनिया में अंधेरों में डूबे कितने दरवाज़े हैं
उनमें लटके ताले इंतज़ार में हैं
पुरखों ने बना रख छोड़ी हैं चाबियां
और बता रखा है भारी तालों को खोलने का मंत्र
बस हमें रखना है उदास कांधों पर भरोसेमंद हाथ
फिर कहां कोई पुराना ताला खुलने से बच रहेगा और नया खोलने से
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लीलाधर मंडलोई

जन्म : छिंदवाड़ा जिले के एक छोटे-से गाँव गुढ़ी में जन्माष्टमी के दिन। जन्म वर्ष : 1953।

कृतियाँ : काव्य-संग्रह : घर-घर घूमा, रात-बिरात, मगर एक आवाज़, काल-बाँका तिरछा, क्षमायाचना तथा देखा-अदेखा व कवि ने कहा (चयन)।

गद्य : कविता का तिर्यक (आलोचना), दिल का क़िस्‍सा तथा अर्थ जल (निबन्ध), काला पानी (वृत्तान्त), दाना पानी (डायरी), पहाड़ और परी का सपना (अंदमान-निकोबार की लोककथाएँ)। पेड़ भी चलते हैं और चाँद का धब्बा (बाल कहानियाँ), इनसाइड लाइव (मीडिया)।

अनुवाद : शकेब जलाली की ग़ज़लों का लिप्यंतरण मंज़ूर एहतेशाम के साथ। अनातोली पारपरा की रूसी कविताओं के अनुवाद अनिल जनविजय के साथ।

सम्पादन/प्रस्तुति : कविता के सौ बरस (आलोचना), स्त्री मुक्ति का स्वप्न (विमर्श : अरविंद जैन के साथ), कवि एकादश (अनिल जनविजय के साथ) और सुदीप बॅनर्जी की प्रतिनिधि कविताएँ (विष्णु नागर के साथ) तथा उनके अंतिम संग्रह ‘उसे लौट आना चाहिए’ का संयोजन विष्णु नागर के साथ।

सम्मान : पुश्किन, रज़ा, शमशेर, नागार्जुन, दुष्यन्त, रामविलास शर्मा तथा कृति सम्मान।

अन्य : फ़िल्म निर्माण, निर्देशन, पटकथा लेखन, मीडिया कर्म (टेलीविज़न व रेडियो)।

सम्पर्क : B 253, sarita vihar, new delhi 76

दूरभाष : 26258277 (निवास)।पता:
ए-2492, नेताजी नगर, नई दिल्ली 110023
Email: leeladharmandloi@gmail.com
Phone: 9315305643


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