मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय

पहली नज़र में यह बात बेहद अजीब और कृत्रिम लग सकती है कि उस महान लेखक का नाम उस क्रान्ति के साथ जोड़ा जाए [1], जिसे वो समझ नहीं पाए थे और जिससे उन्होंने दूरी बनाकर रखी थी। आख़िर उसे तो दर्पण नहीं ही कहा जा सकता है, जो घटना को स्पष्ट और सही ढंग से प्रतिबिम्बित नहीं करता है। हमारी क्रान्ति — एक बेहद जटिल परिघटना है। सीधे-सीधे इस क्रान्ति में भाग लेने वाले और उन्हें सहयोग देने वाले लोगों के बीच बहुत से ऐसे सामाजिक तत्त्व भी हैं, जो यह नहीं समझ पा रहे थे कि क्या हो रहा है और जिन्होंने उन वास्तविक ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियों से मुँह मोड़ लिया था जो क्रान्ति के दौरान घट रही घटनाओं ने उनके लिए निर्धारित की थीं। इसलिए जब हमारे सामने सचमुच ऐसे महान रचनाकार उपस्थित हैं तो उन्होंने अपनी रचनाओं में क्रान्ति के कुछ पक्षों को तो हर हालत में प्रतिबिम्बित किया ही होगा।

तलस्तोय की अस्सीवीं वर्षगाँठ के अवसर पर लेखों, पत्रों और टीका-टिप्पणियों से भरपूर कानूनी मान्यता प्राप्त रूसी प्रेस, रूसी क्रान्ति की प्रकृति और उसके प्रेरणा शक्तियों के नज़रिए से उनके कामों का विश्लेषण करने में कम से कम दिलचस्पी रखता है। यह सारा प्रेस पाखण्ड से, दो तरह के पाखण्ड से भरा हुआ है : सरकारी पाखण्ड और उदार पाखण्ड। पहले पाखण्डी गिरोह में इस तरह के भ्रष्ट लिक्खाड़ आते हैं, जो कल तक ल्येफ़ तलस्तोय पर लगातार हमले कर रहे थे और उन्हें परेशान कर रहे थे, पर जो आज उन्हें देशभक्त सिद्ध करने में लगे हुए हैं और यूरोप के सामने अपनी शालीनता दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। सब जानते हैं कि इन लिक्खाड़ लेखकों को धन देकर ख़रीदा गया है और ये बिके हुए लेखक वही लिखते हैं, जो उनसे लिखवाया जाता है। परन्तु अब वे किसी को भी धोखे में नहीं रख सकते हैं। लेकिन इनसे भी ज़्यादा ख़तरनाक वो उदारवादी ढोंगी लेखक हैं, जो अपनी पैनी लेखनी से ऐसे लेख लिखते हैं, जो बड़े नुक़सानदेह साबित होते हैं। कैडेट पार्टी के अख़बार ’रेचि’ (भाषण) में प्रकाशित ’बलालायकिनों[2] की बातें सुनकर ऐसा लगता है, मानों वे तलस्तोय के प्रति गहरी सहानुभूति और उदारतावादी नज़रिया रखते हैं। परन्तु वास्तव में ’ईश्वर के इस महान खोजकर्ता’[3] के बारे में उनकी गर्वीले जुमले एक बड़े झूठ के अलावा और कुछ नहीं होते, क्योंकि रूसी उदारवादी तत्त्व न तो तलस्तोय के ईश्वर में विश्वास रखते हैं और न ही मौजूदा व्यवस्था के प्रति तलस्तोय द्वारा की जानेवाली आलोचना के साथ उनकी कोई सहानुभूति है। वे तो, बस,अपनी राजनैतिक पूंजी बढ़ाने के लिए और राष्ट्रीय विपक्षी नेता की भूमिका में आने के लिए तलस्तोय जैसे लोकप्रिय नाम का इस्तेमाल करते हैं। अपने जोशीले और ज़ोरदार जुमलों के माध्यम से ये रूसी उदारवादी तत्त्व इस सवाल के सीधे और साफ़ जवाब को दबाने की कोशिश करते हैं कि — ’तलस्तोयवाद’ की असंगतियाँ क्या हैं और वे हमारी क्रान्ति की किन कमियों और कमज़ोरियों को अभिव्यक्त करती हैं।

तलस्तोयवादी सम्प्रदाय की गतिविधियों, विचारो और शिक्षाओं में दिखाई देने वाले अन्तर्विरोध वास्तव में असाधारण हैं। एक तरफ़ तो वे एक ऐसे शानदार लेखक हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में न केवल रूसी जीवन के अद्वितीय चित्र पेश किए हैं, बल्कि प्रथम श्रेणी का विश्व साहित्य भी लिखा है। वहीं दूसरी ओर, वे एक ऐसे ज़मींदार भी हैं जो ईसा मसीह में मूर्खतापूर्ण ढंग से गहरी भक्ति रखते है। एक ओर तो वे सार्वजनिक स्तर पर, पूरे समाज के स्तर पर फैले बड़े झूठ और पाखण्ड का पर्दाफ़ाश करते हैं और उस झूठ और ढोंग का उल्लेखनीय रूप से मजबूत, सीधा और ईमानदारीभरा सच्चा विरोध करते है, वहीं दूसरी ओर, उनका “तलस्तोयवाद” है, जिसे एक घिसे-पिटे, पागलपन भरे और कीचड़ में लिथड़े तथाकथित रूसी बुद्धिजीवी का थोथा आदर्शवाद कहा जा सकता है, जो सार्वजनिक रूप से दूसरे लोगों के सामने खुद अपनी छाती पीटते हुए बार-बार यह दोहराता है कि “मैं नीच हूँ, मैं ओछा हूँ, लेकिन मैं नैतिक आत्मशुद्धि में लगा हुआ हूँ; अब मैं गोश्त नहीं खाता, अब तो मैं चावल की बनी टिकिया ही खाता हूँ।” एक तरफ़ तो तलस्तोय अपनी रचनाओं में पूंजीवादी शोषण की निर्मम और घोर आलोचना करते हैं तथा सरकार द्वारा की जाने वाली हिंसा, अदालतों द्वारा दिखाए जाने वाले मज़ाकिया नाटकों और सरकारी व्यवस्था का भण्डाफोड़ करते हैं, वे समाज में धन की लगातार बढ़ती हुई महत्ता की सफलताओं और बड़ी तेज़ी से बढ़ती जा रही ग़रीबी के बीच आपसी विरोधाभास को रेखांकित करते हैं, वे दिखाते हैं कि किस तरह श्रमजीवी मज़दूर जनता पर सत्ता का जुल्म और ज़्यादतियाँ बढ़ती जा रही हैं — वहीं दूसरी ओर वे इन बुराइयों का प्रतिरोध करने के लिए हिंसा न करने का थोथा आदर्शवाद भी बघारते हैं। एक तरफ़ तलस्तोय पूरी तरह से संतुलित यथार्थवाद को उद्घाटित करने और हर आदमी के मुँह पर जड़े मुखौटों को उतारने और सरकार व सत्ता द्वारा अपनाई गई नीतियों का परदाफ़ाश करने का आह्वान करते हैं — वहीं दूसरी ओर वे दुनिया में उपस्थित सबसे घृणित बुराइयों में से सबसे बड़ी बुराई धार्मिक पुरोहितवाद को बनाए रखने की वकालत करते हैं। ऐसा करते हुए वे, बस, इतना चाहते हैं कि सरकारी पुरोहितों की जगह उन पुरोहितों को नियुक्त किया जाए, जो नैतिक रूप से शुद्ध हृदय और मन रखते हों। इस तरह वे सबसे घृणित बुराई को यानी पुरोहितवाद को बनाए रखना चाहते हैं। वास्तव में सच्चाई यह है :

तुम अत्यन्त दरिद्र हो, तुम ही समृद्ध हो

तुम ही सामर्थ्यवान हो, और पूरी तरह से असमर्थ हो

— हे माँ रूस ! [4]

इस तरह यह बात स्पष्ट है कि इतने बड़े अन्तर्विरोधों के साथ तलस्तोय न तो मज़दूरों के श्रमिक आन्दोलन को और समाजवाद की स्थापना के लिए किए जा रहे संघर्ष में उसकी भूमिका को ही ठीक से समझ पाए और न ही रूसी क्रान्ति की कोई समझ उनके भीतर है। तलस्तोय के विचारों और उनकी शिक्षाओं में दिखाई देनेवाला यह विरोधाभास आकस्मिक नहीं है, बल्कि यह रूसी जीवन की उन असंगतियों और कुरूपताओं को दर्शाता है, जिन परिस्थितियों से उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में रूसी जन-जीवन गुज़र रहा था। तब रूस में हाल ही में ’भूदास प्रथा’ का अन्त हुआ था और पितृसत्तात्मक से बुरी तरह ग्रस्त रूसी देहात और रूसी समाज पर पूंजीवाद का जुआ लाद दिया गया था। पूंजीवादी लूटेरों ने रूस पर अधिकार कर लिया था और रूस पूंजी और वित्त की बाढ़ में बह गया था। रूस में सदियों से चली आ रही खेती और कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था और किसानी जीवन के आधार बड़ी तेज़ी से नष्ट होने लगे थे। इसलिए तलस्तोय के दृष्टिकोण और विचारों में दिखाई देने वाले अन्तर्विरोधों का मूल्यांकन आधुनिक समाजवाद और आधुनिक श्रम आन्दोलन के नज़रिये से नहीं किया जाना चाहिए ( निश्चय ही, इस तरह के मूल्यांकन की ज़रूरत है, लेकिन सिर्फ़ इसी तरह का मूल्यांकन अपर्याप्त होगा), बल्कि रूसी समाज और रूसी गाँवों में फैली पितृसत्तात्मकता, भूमिहीनता और जनता की बरबादी तथा रूस में लगातार बढ़ते जा रहे आसन्न पूंजीवाद के नज़रिये से करना चाहिए।

मानवजाति के उद्धार के लिए नए नुस्खों की खोज करने वाले किसी पैगम्बर के रूप में तलस्तोय हास्यास्पद लगते हैं — इसीलिए रूस में और विदेशों में तलस्तोय के ऐसे समर्थक बहुत कम मिलते हैं, जो उनकी शिक्षाओं के सबसे कमज़ोर पक्ष को एक हठधर्मिता में बदल देना चाहते हैं। रूस में हुई बुर्जुआ क्रान्ति की शुरूआत के समय करोड़ों रूसी किसानों की सामने आई मनोदशा और उनके मन के भावों व विचारों को अभिव्यक्त करने वाले लेखक के रूप में तलस्तोय सचमुच महान हैं। कृषक बुर्जुआ क्रान्ति के रूप में हमारी क्रान्ति की विशेषताओं को पहचानने और फिर उन्हें समग्रता में ठीक-ठीक प्रस्तुत करने की दृष्टि से हम उन्हें मौलिक कह सकते हैं। इस दृष्टिकोण से तलस्तोय के विचारों में दिखाई देने वाले अंतर्विरोध उन विरोधाभासी परिस्थितियों का वास्तविक दर्पण बन जाते हैं जिनमें किसानों की ऐतिहासिक बुर्जुआ क्रांति को हमारी क्रांति में भी महत्त्व दिया गया था। एक ओर तो सदियों की दासता और भूदास प्रथा के उन्मूलन के बाद के दशकों में हुए पूर्व कृषक भूदासों के जबरन विनाश ने उनके दिलों में हताशा, क्रोध और घृणा को मजबूत बना दिया था और वे जागीरदारों और उनका समर्थन करने वाली सरकार की देश में चल रही सत्ता को पूरी तरह से ख़त्म करने पर उतारू थे। वे भूतपूर्व कृषिदास यह चाहते थे कि ज़मीन पर अधिकार रखने से जुड़े सभी पुराने रूपों और प्रक्रियाओं को नष्ट कर दिया जाए, ज़मीन को जागीरदारों के कब्ज़े से मुक्त कराया जाए तथा देश में जारी पुलिसिया राज्य व्यवस्था की जगह देश में स्वतंत्र और समानाधिकार प्राप्त छोटे किसानों की एक नई सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया जाए। हमारी क्रान्ति में किसानों के लिए उठाए गए हर क़दम में किसानों की यह इच्छा एक ऐतिहासिक प्रक्रिया की तरह लगातार दिखाई देने वाली एक लाल डोरी का रूप ले लेती है। और इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब तलस्तोय के नज़रिये का हम विचारधारात्मकता के स्तर पर मूल्यांकन करते हैं तो तलस्तोय के लेखन में अमूर्त “ईसाई अराजकतावाद” की तुलना में दिखाई देने वाली विचारधारात्मक गहराई किसानों की इसी आकांक्षा के अनुरूप दिखाई देती है।

दूसरी ओर, किसानों में इस बात की कोई समझ नही थी कि सामाजिक जीवन के ये नए रूप तथा इन रूपों में उनका समुदाय कैसा होगा। वे यह भी नहीं समझते थे कि पुरानी व्यवस्था से आज़ादी पाने के लिए उन्हें किसके ख़िलाफ़, किस तरह की लड़ाई लड़नी होगी। इस संघर्ष में कौन लोग उनका नेतृत्व कर सकते हैं, बुर्जुआ किसान क्रांति के प्रति तथा बुर्जुआ वर्ग और बुर्जुआ बुद्धिजीवियों के प्रति उनका रवैया कैसा होना चाहिए तथा ज़मीन पर से ज़मींदारों का स्वामित्व खत्म करने के लिए क्यों ज़ार की सरकार को पूरी तरह से उखाड़ फेंकना ज़रूरी है।
कृषक दासों के रूप में किसानों ने अपने बीते हुए जीवन में सिर्फ़ ज़मीन के मालिकों से और सरकारी अधिकारियों से नफ़रत करनी सीखी थी। लेकिन उन्होंने यह नहीं सीखा था कि जो सवाल उनके मानस को मथते हैं, उनके जवाब वे कहाँ तलाशें।

हमारी क्रांति के दौरान किसानों के एक बहुत छोटे से हिस्से ने वास्तव में इस उद्देश्य को पाने के लिए कुछ हद तक संगठित होकर लड़ाई लड़ी। किसानों का एक और बहुत छोटा सा हिस्सा कन्धे से कन्धा मिलाकर अपने हाथों में हथियार उठाकर ज़मींदारी प्रथा के रक्षकों, ज़ार केअधिकारियों और अपने दुश्मनों को खत्म करने के लिए उठ खड़ा हुआ। लेकिन ज़्यादातर किसानों ने ल्येफ़ निकअलायविच तलस्तोय की तरह रोने-धोने, प्रार्थनाएँ करने, बहसें करने और अर्ज़ियाँ लिखने और सिफ़ारिशें करवाने के अलावा और कुछ नहीं किया।

और, जैसा कि हमेशा होता है, राजनीति से तलस्तोय के परहेज और इनकार, राजनीति में उनकी अरुचि और समझ की कमी का परिणाम यह हुआ कि किसानों के एक बेहद छोटे से वर्ग ने ही सचेत और क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग का अनुसरण किया, जबकि बहुसंख्यक किसान उन बुर्जुआ बुद्धिजीवियों और विचारधारा-विहीन लोगों के शिकार बन गए, जिन्हें हम स्तलीपिनों[5], त्रुदाविक[6] और कैडेटों[7] के नाम से जानते हैं। ये लोग तब तक किसानों को सुलह कराने, समझौते कराने और सौदेबाज़ी करने का आश्वासन देते रहे और उनसे तरह-तरह के वायदे करते रहे, जब तक कि सैनिकों ने उनके पिछवाड़ों पर लात मारकर उन्हें बाहर नहीं निकाल दिया। तलस्तोय का मंतव्य और चिन्तन किसानों की कमज़ोरी का दर्पण हैं। तलस्तोय के विचार हमारे किसान विद्रोह की कमजोरी और कमियों का दर्पण हैं, वे हमारे पितृसत्तात्मक गाँव की रीढ़हीनता और “लगनशील व कंजूस किसानों”[8] की कायरता का प्रतिबिंब हैं।

1905-1906 के सैनिकों के विद्रोह को ही लीजिए। हमारी क्रांति के ये लड़ाके सामाजिक स्तर पर किसानों और सर्वहारा के बीच से ही थे। सर्वहारा वर्ग चूँकि तब बड़ी संख्या में नहीं था, इसलिए, फ़ौज के भीतर चल रहा आलोड़न सर्वहारा की उस दलीय चेतना के रूप में पूरे रूस के स्तर पर एकजुटता के रूप में कभी सामने नहीं आया, न ही उसमें वह सजगता दिखाई दी, जो बाद में सामाजिक-लोकतांत्रिक लहर के रूप में सामने आई। दूसरी ओर, यह राय भी पूरी तरह से गलत है कि सैनिकों के उस विद्रोह की विफलता का कारण यह था कि उनके उस विद्रोह का नेतृत्व उनके किसी अफ़सर ने नहीं किया था। इसके विपरीत, नरोदनया वोल्या [9] के समय से ही क्रांति का बड़ा विकास इस तथ्य में ठीक-ठीक दिखाई देता है कि उन “चौपाया जानवरों” ने अपने अफ़सरों के खिलाफ बन्दूक उठा ली थी, जिनकी आज़ादी की आशंका से ही ज़मींदारों और अफ़सरों का उदार वर्ग बेहद भयभीत हो उठा था। ये विद्रोही सैनिक किसानों के साथ गहरी सहानुभूति रखते थे; उनकी आँखें सिर्फ़ ज़मीन का उल्लेख करने पर ही चमक उठती थीं। सेना में सत्ता कई बार इन सैनिकों के हाथों में आई, लेकिन इस ताकत का दृढ़ता से लगभग कोई इस्तेमाल नहीं किया गया। कुछ दिनों के बाद ही, कभी-कभी कुछ घंटों के बाद ही सैनिक अपने किसी ऐसे अफ़सर को मारकर, जिससे वे नफ़रत करते थे, लेफ़ तलस्तोय के विचारों की तरह सरकार के साथ सुलह की बातचीत करने लगते थे और बाद में ख़ुद कोर्ट मार्शल और सरकारी सज़ा के शिकार हो जाते थे और उन्हें गोली मार दी जाती थी!

तलस्तोय ने अपनी रचनाओं में अतीत से छुटकारा पाने की जनता की इच्छा, जनता के मन में लगातार बढ़ती हुई घृणा और सर्वश्रेष्ठ जीवन पाने की उसकी परिपक्व इच्छा-आकांक्षा को व्यक्त किया है। इसी तरह उन्होंने जनता की अपरिपक्व स्वप्नदर्शीता, राजनैतिक अलभ्यता और क्रांतिकारी नरमी को भी अपनी रचनाओं में प्रतिबिंबित किया है। ऐतिहासिक और आर्थिक परिस्थितियाँ भी जनता के क्रांतिकारी संघर्ष की आवश्यकता और संघर्ष के लिए उसकी तैयारी को अभिव्यक्त करती हैं। लेकिन तलस्तोय में बुराई का प्रतिरोध करने की प्रवृत्ति नहीं थी, जो पहले क्रांतिकारी अभियान की हार का सबसे गंभीर कारण था।

कहा जाता है कि पराजित सेना ही सबसे अच्छे पाठ सीख चुकी होती है। बेशक, क्रांतिकारी वर्गों की सेनाओं से तुलना बहुत सीमित अर्थों में ही उचित मानी जा सकती है। पूँजीवाद का विकास हर पल उन स्थितियों को बदलता और बढ़ाता रहता है, जो सामंती ज़मींदारों और उनकी सरकार के प्रति नफ़रत की वजह से लामबंद हुए किसानों को क्रांतिकारी लोकतांत्रिक संघर्ष की ओर धकेलती हैं। ख़ुद कृषक वर्ग में ही, पारस्परिक विनिमय के विकास, बाज़ार के वर्चस्व और धन की शक्ति ने पितृसत्तात्मक पुरातनता और पितृसत्तात्मक तलस्तोय की विचारधारा को तेजी से बाहर कर दिया है। लेकिन क्रांति के आरम्भिक वर्षों में और जन क्रांतिकारी संघर्ष में हुई उन पराजयों के भीतर भी, जिन्होंने जनता के शुरुआती ढीलेपन और उनींदेपन को झंझोड़ दिया, एक तरह की सफ़लता छुपी हुई थी। जनता को विभाजित करने वाली रेखाएँ साफ़-साफ़ दिखाई देने लगीं। समाज के भीतर वर्गों और पार्टियों की सीमाएँ सुनिश्चित हो गईं हैं। स्तलीपिन[5] द्वारा पढ़ाए गए पाठों के हथौड़े के नीचे से निकलकर, क्रांतिकारी सोशल-डेमोक्रेट्स के अडिग व निरन्तर प्रचार आन्दोलन के साथ, न केवल समाजवादी सर्वहारा वर्ग, बल्कि लोकतांत्रिक किसान जनता के भीतर से भी अनिवार्य रूप से अधिक से अधिक ऐसे लगनशील सेनानी निकलकर सामने आएँगे, जिनकी तलस्तोयवाद के हमारे ऐतिहासिक पाप के गड्ढे में गिरने की सम्भावना कम से कम होगी!

समाचार पत्र ’प्रलितारी’ (सर्वहारा) संख्या 35,
11 (24) सितंबर 1908 के अंक में प्रकाशित

मूल पांडुलिपि से पुनर्मुद्रित, सत्यापित और अनिल जनविजय द्वारा अनूदित

पाद-टिप्पणियाँ

1 “ल्येफ़ तलस्तोय, रूसी क्रांति के दर्पण के रूप में” – लेनिन, खंड 15, पृष्ठ संख्या 17 से 186। यह लेख पहली बार ग़ैरकानूनी बोल्शेविक अखबार “प्रलितारी” यानी सर्वहारा में अनाम रूप से यानी लेखक के नाम के बिना ही प्रकाशित हुआ था। यह लेख 9 सितंबर (28 अगस्त) 1908 को मनाई जा रही तलस्तोय की अस्सीवीं जयंती के अवसर पर लिखा गया था। बाद में इस लेख पर कानूनी रूसी प्रेस में ख़ूब चर्चा और वाद-विवाद हुआ। लेनिन ने “लिक्खाड़ों” के घोर पाखंड की बात कर करते हुए मिख़अईल ओसिपअविच मेनशिकफ़ जैसे प्रतिक्रियावादी प्रचारकों की तरफ़ इशारा किया था, जिन्होंने तलस्तोय की जयंती के कुछ दिनों बाद फिर से उनके सिर पर बदनामी का टोकरा उलटते हुए उलटे-सीधे लेख लिखे थे। (देखें बरीस मेइलख़ की किताब ” लेनिन और रूसी साहित्य की समस्याएँ”। मास्को, 1951, पृष्ठ 328)।

2 ’कैडेट’ नामक पार्टी का दैनिक समाचार पत्र था —’रेचि’ , जो सांक्त पितिरबूर्ग यानी सेंट पीटर्सबर्ग में छपता था। यह अख़बार फरवरी 1906 में शुरू किया गया था। “रूसी क्रांति की प्रकृति के बारे में” नामक अपने लेख में लेनिन ने रेचि को “प्रति-क्रांतिकारी उदारवादियों” का आधिकारिक बुलेटिन कहा है। (देखें खंड 15, पृष्ठ 8)। 26 अक्टूबर (8 नवम्बर) 1917 को इस अख़बार का प्रकाशन बंद हो गया था।
बलालायकिन एक उदारमना गप्पी और ढोंगी व्यक्ति की छवि है, जिसे रूसी व्यंग्य लेखक मिख़अईल सल्तिकोफ़-शिद्रीन ने अपने निबन्ध संग्रह “परिशुद्धता और सटीकता के बीच में” (1874-1878 )में रचा था। तत्कालीन “आधुनिक आदर्शवादी” व्यक्ति की छवि को उकेरने में पूरी तरह से सफल रहे थे।

3 व्लदीमिर लेनिन ने यहाँ रूसी ईसाई धर्म का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार अन्तोन कर्तअशोफ़ की अभिव्यक्ति “ईश्वर के महान खोजकर्ता” को उद्धृत किया है। लेनिन ने यह टिप्पणी अपने लेख “तलस्तोय — एक ब्रह्मज्ञानी” से ली है, जो “रेचि” अख़बार (205 वें अंक) में प्रकाशित हुई थी।

4 रूसी कवि निकअलाई निक्रासफ़ की कविता “रूस में कौन अच्छे ढंग से रहता है” (“सारी दुनिया के लिए एक दावत”, भाग IV “अच्छा समय — अच्छे गीत” में से ’रूस’ नामक गीत) की 4 पंक्तियाँ।

5 प्योतर स्तलीपिन (1862-1911) — रूस का एक बड़ा जागीरदार था, जो 1906 में पहले रूस का गृहमन्त्री बना और फिर प्रधानमन्त्री बन गया। स्तलीपिन को एक टेरी (मखमली) प्रतिक्रियावादी माना जाता है, जिसे रूसी इतिहासकारों ने ’जल्लाद’ की उपाधि दी है, क्योंकि उसने रूसी जनता पर मुक़दमे चलाने के लिए “सैन्य अदालतों” की स्थापना की थी। स्तलीपिन के आतंक के खिलाफ़ ल्येफ़ तलस्तोय ने एक ज्वलंत लेख लिखकर उसे परचे के रूप में छपवाकर बाँटा था। उस लेख का शीर्षक था — “मैं चुप नहीं रह सकता”।

6 त्रुदाविक — इस पेटी-बुर्जुआ डेमोक्रेटिक दल में, जिसका गठन अप्रैल १९०६ में किया गया था, रूस की तात्कालिक संसद दूमा के लिए चुने गए किसान प्रतिनिधियों का एक समूह शामिल था।

7 कैडेट — रूस की एक कानूनी लोकतांत्रिक पार्टी थी, जिसका गठन अक्टूबर 1905 में किया गया था। यह पार्टी तत्कालीन रूसी उदार ज़ारवादी पूंजीपति वर्ग की प्रतिनिधि थी। अक्टूबर समाजवादी क्रांति के बाद, कैडेट पार्टी सोवियत शासन के खिलाफ प्रति-क्रांतिकारी साज़िशों की एक प्रमुख आयोजक पार्टी बन गई थी।

8 रूसी व्यंग्य लेखक मिख़अईल सल्तिकोफ़-शिद्रीन ने अपने व्यंग्य लेखों के संग्रह “प्रकृति और कृषकों की चालाकियों की गोद में” में “लगनशील और कंजूस किसान” के नाम से सामन्तों की एक विशिष्ट छवि की रचना की थी।

9 “नरोदनाया वोल्या” एक लोकलुभावन रूसी संगठन था, जो 1879 में वरोनिझ शहर में हुई कांग्रेस में “भूमि और स्वतंत्रता” नामक समूह में हुए विभाजन के बाद सामने आया था। “भूमि और स्वतंत्रता” समूह से अलग हुए कुछ अन्य लोगों के समूह ने ” काला पुनर्वितरण” के नाम से अपने संगठन का गठन कर लिया था। नरोदनाया वोल्या ने ज़ार और उसकी सरकार के प्रमुख अधिकारियों के खिलाफ निजी आतंक फैलाने की शातिर रणनीति अपना ली थी।

 


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