मालवा अंचल में आज भी स्त्रियां कड़ियां पहनती हैं। यह गहना भी हैं और मुसीबत के समय का आथिॅक सहारा। कभी – कभी यह गहना घोर मुसीबत का सबब बन जाता है जब कोई सिरफिरा लालच में यह गहना पाने के लिए स्त्री के कुल्हाड़ी से पांव काट डालता है।
यह कहानी पांव कट जाने के भय के बीच ज़िंदगी के सच को रोशनी देती है। प्रभु जोशी और प्रकाशकांत के बाद सत्यनारायण पटेल एक ऐसे बिरले कथाकार हैं जो अपने अंचल का ऐसा सजीव चित्रण करते हैं ,लगता है, हर्फ़ कांच से काट कर सजाए गए हैं। – हरि भटनागर
कहानी :
-नारा…… नारायण…सत्या… पास मत आ..दौणी फोड़ दूँगी… हट.. हट नासमिटे… बई बड़बड़ा रही थी और मुझे ईशारे से दूर हटने का कह रही थी। सुबह जब मैं ड्यूटी गया था, बई अच्छी-भली थी। उसे न सर्दी, न खाँसी, न गले में दर्द और न ही हाथ-पैर में टूटन थी। दुनिया में भूख के बाद, दूसरी बड़ी वैश्विक महामारी कोविड-19 या कोई भी तकलीफ़ का जरा भी लक्षण, अंदेशा नहीं था। फिर बई को क्या हुआ ? बई काला कम्बल ओढ़ कर क्यों सो गई !
मैंने बई के ऊपर से कम्बल जरा-सा हटाया तो देखा कि बई के कांधे पर धरा झुर्रियों का गुलदस्ता सामान्य नहीं था। झुर्रियों के फूल पर डर तांडव कर रहा था। झुर्रियों के गुलदस्ते से झरती भय की गँध हवा में घुल रही थी। मैंने बई का भाल,गाल और गला छूकर देखना चाहा कि बई को बुखार तो नहीं है ।
मेरा हाथ देख बई ग़ुस्से, घबराहट और डर से चीख़ने लगी । ग़ालियाँ देते हुए मुझे दूर हटने का कहने लगी। मैं ऊँची आवाज़ में बई को समझाने लगा कि मैं नारायण नहीं, मैं सत्या नहीं, मैं.. मैं.., तभी बई ने पलंग के पास रखे स्टूल पर धरा काँसे का लोटा उठा कर मेरे भाल तरफ़ फेंक दिया । भरपूर ताक़त से फेंका लोटा मेरी बाईं भौंह के ऊपर अच्छा लप्पके टकराया । लोटे के टकराते ही भाल से पैर तक शास्त्रीय झनझनाहट गूँज उठी । भाल के भीतर छुपा कदम का फल गुमड़ की तरह उभर आया । थोड़ा नरम, थोड़ा सख़्त ।
बई ऐसी नहीं थी कभी भी। गाँव में रहती या शहर में रहती । बाखल, गली, मोहल्ला की औरतों के बीच मज़े से बैठती-उठती और अपनी कड़ियों पर इतराती-इठलाती। लेकिन इधर दूसरे लॉकडाउन के बाद बई कुछ चिड़चिड़ी, कुछ डरी-डरी, शंकालु और कुछ अतिरिक्त सतर्क रहने लगी थी ।
हालाँकि देश भर के अख़बार और टी वी चैनल सावधान थे, बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि उन्हें सावधान कर रखा था कि देश में बढ़ती चोरी, लूट, हत्या और आत्महत्या की ख़बरों का नकारात्मक प्रसार-प्रचार नहीं करे । देश में आपातकाल घोषित नहीं था, अभिव्यक्ति की आज़ादी बहाल थी और राष्ट्रगीत से ज्यादा, अच्छे दिन का गीत बजता था।
देश में कुछ लोग थे, जो स्वयंभू राष्ट्र भक्त थे और नवीन राष्ट्र निर्माण में जी-जान से, बल्कि लाठी-डंडा, तलावार-बंदूक, गाड़ी-घोड़ा, बैंड-बाजा और गोदी मीडिया के साथ जुटे हुए थे। वही अपने बहुमूल्य समय में से थोड़ा वक़्त निकालते थे और गोदी-नागोदी मीडिया मालिकों, मीडियाकर्मियों से मुलाक़ात करते थे और उन्हें अपने भीतर पिछले सत्तार-पिच्चतर साल में विकसित-पनपी सृजनात्मक-आलोचनात्मक दृष्टि को दबाने, कुचलने, भूलने की सलाह सीख, समझाइश, हिदायत, और धमकी से तआरुफ़ करवाते हुए नयी समझ को विकसित करने और प्रोत्साहित करने में सहयोग करते थे।
मेरी बई पक्की देहातन… पूरी ज़िन्दगी, खेत-पानी, गोबर-गारा संग रही। उसी से रोटी-दाना चुगती रही, उसी से चाँदी-सोना चुनती रही । अख़बार पढ़ना नहीं जानती। कभी टी वी के सामने बैठ भी जाती, तो किसी को जानती-पहचानती नहीं । टी वी की भाषा भी ज्यादा सम्पट नहीं पड़ती थी। बई तक जो ख़बर आती थी, उनका मध्यम जो भी हो, सीधे अख़बार व टी वी तो लगभग नहीं थे । फिर भी बई के पास जमाने भर की ख़बर होती थी । कभी-कभी बई से बात करते हुए मुझे समझ में नहीं आता था कि बई को कैसे समझाऊँ ! अपने सिर के बल खड़ा हो जाऊँ कि बई के पैरों पर सिर धर रोऊँ !
बई, यानी कि माँ । किसे प्यारी नहीं होगी अपनी बई । मुझे भी थी, और है, तो कैसा ताज्जुब ! ताज्जुब यह भी नहीं कि मेरे दो भाई और एक बहन भी थी और बई उनसे भी रत्ती भर ज्यादा या राईं भर कम प्यार तो नहीं करती होगी ! बई का ख़्याल आते ही मेरे चेहरे पर एक स्नेहिल छाया उभर आती । मेरी जबान लरजती, कांपती और आँखों में स्मृति जल झिलमिल-झिलमिल करने लगता। मैं कुछ-कुछ बई की तरह दिखने लगता । यदि मैं कुछ कहता हूँ बई के मान में, हवा के कान में तो रखना ध्यान कि मैं बई के संघर्ष को भुना नहीं रहा हूँ, बस, सुना रहा हूँ ।
मेरे गाँव में ही नहीं, बल्कि पूरे मालवा में, बई को भला कौन कहता है- माँ ? माँ को बई या जी ही कहते हैं । गाँव सुनवानी महाँकाल का मेरा दोस्त नारायण अपनी माँ को जी कहता था। मेरा बचपन का दोस्त भँवर सिंह, जिसे हम दोस्त लोग बी एस पुकारते थे। जो अब देवास में रहता है और जिसने अपने घर पर पूरे नाम- ‘ भँवर सिंह , की पट्टी लगा रखी है। इन्दौर का दोस्त सत्या भी माँ को बई ही कहता हैं ।
मेरे दायजी बद्री पटेल ( पिता ) उनकी माँ यानी मेरी दादी रुकमा बाई को ‘ जी ’ कहते ! दायजी के देखे-देख हम भाई-बहन भी दादी को ‘ दादी या माय ’ की बजाय ‘ जी ’ कहते । हम अपनी नानी को ‘ माय ’ कहते और अपनी माँ को ‘ बई ’ कहते । बाई नहीं, बई। धीमें स्वर में ‘ बई ’ ।
मेरे स्वभाव और जीवन पर बई की बड़ी गहरी शीतल छाया रही । पता नहीं कि बई की छाया में पला-बड़ा न होता, दूर छिटक जाता तो कैसा होता ! टहनी से, लता से टूटा-छिटका पत्ता कैसा होता ! छिटके हुओं की भीड़ में भटक जाता ! भटके हुओं संग धूल-माटी में मिल जाता ! जैसे बड़ा भाई मुकुट धर पहले मुझसे, फिर छोटे सोहन धर से, फिर बई से छिटका, और अतंतः एक दिन जीवन से छिटक गया । यूँ ही हज़ारों-हज़ार माँ के लाल रोज़ ही छिटकते जाते और धूल-माटी में, हवा-पानी में या जाने कहाँ खोते रहते । मैं हूँ, क्योंकि बई की छाया तले हूँ ।
मैं अपने परिवार और ननिहाल में भले ही इकलौती औलाद नहीं हूँ, लेकिन घर, परिवार, कुनबे में इकलौता था और हूँ, जो कि ईश्वर को किसी भी रूप में नहीं पूजता, और न ही उसकी इबादत करता । जबकि घर-परिवार में नानी, बई, बहन, बड़, पीपल, नदी, पहाड़ और पत्थर की मूर्तियाँ तक पूजती रही और किसी पीर-ओलिया की मज़ार पर चादर चढ़ाने से भी गुरेज नहीं करती रही और इसी माजने के मेरे भाई, बंधु और कुनबा रहा ।
मैं मिट्टी,पत्थर, काष्ठ, तमाम धातु और आदि-आदि से बनी मूर्तियों को सिवाय निर्जिव मूर्ति के ईश्वर या कुछ और क्यों मानूँ ! जिन्हें कोई भी मनुष्य कुछ दिन या महिनों के अभ्यास से गढ़ सकता है । लेकिन हाँ, मैंने अपनी बई या किसी के विश्वास की कभी तौहिन नहीं की और न ही मखौल उड़ाया !
मैं बच्चा था तब भी और बच्चों का बाप बन गया था तब भी, ज़िन्दगी के किसी भी पड़ाव पर मुझसे किसी ने पूछा कि फिर तेरा ईष्ट कौन ? मैं यही कहता कि मेरी भारत माता, भाग्य विधाता, जन्मदाता, ईष्ट का भी ईष्ट और सब कुछ मेरी बई है ।
मुझे कभी समझ नहीं आया कि इस जवाब में ऐसा क्या था कि जिसे सुन, मेरे भाई-बहन, मामा-मामी, मौसा-मौसी, फूफा-फूफी हँसे बग़ैर नहीं रह सकते थे।
मेरी झोली में बई के इतने क़िस्से हैं कि यदि सुनाने बैठूँ तो मेरी ज़िन्दगी छोटी पड़ जाएगी। या कहूँ कि पलक झपकते गुज़र जाएगी। और यदि कुछ न कहूँ ! न सुनाऊँ ! आँखें मूँद लूँ ! होंठ सील लूँ ! बैठ जाऊँ अपने ही भीतर ! औढ़ लूँ अँधेरा ! ज़िन्दगी के अन्धे कुए में उतर कर ! मेरे हर पल यातना से भर जाएगा ! नींद, सुकून और चैन की गुमशुदगी दर्ज़ करवानी पड़ जाएगी । होनहार से भी होनहार पुलिस वाला कुछ भी दस्तयाब नहीं कर पाएगा।
इसलिए सुनो, कुछ सुनाता हूँ । क़िस्सा .., एकदम ताज़ा नहीं, मगर बासी भी नहीं । पिछली से पिछली पीढ़ी का भी नहीं, मगर कल परसों का भी नहीं । एक दिन बई ने कहा कि मुझे अपने पैरों में कड़ियाँ पहननी है। नहीं बेड़ियाँ मत सुनो, कड़ियाँ सुनो । कड़ियाँ जानते हो न ! कड़ियाँ यानी कि चाँदी का गहना ! गहना यानी कि बई की जान । बई की जान यानी कि बात ही ख़त्म हो गई ।
कड़ियाँ बई पहनती, या कोई भी औरत पहनती, पैरों में गुड़गी-टखने के ऊपर ही पहनती और वहीं पहनने का गहना होती हैं कड़ियाँ । बई कहती कि पाट की चाँदी की बनी हो, तो सोने पर सुहागा होती हैं कड़ियाँ ।
मैंने कड़ियाँ खूब देखी है, खोटी भी और पाट की चाँदी की भी । कड़ियों के दोनों सिरे चपटे होते, दोनों के बीच गेंहूँ भर या गेंहूँ की बाली के बाल भर की दूरी होती और उन पर मनचाही डिजाइन भी बनी होती । मैंने कड़ियों पर बना पक्षी देखा । पक्षी को दाना खिलाता राजा देखा । पक्षी को दाना बनते देखा । राजा को बाजा बजाते देखा । राजा का बाजा बजते भी देखा ।
कड़ियों का पेट गोल और मोटा होता ! जैसे कड़ियाँ नहीं, पैर में लिपटा चाँदी का सफ़ेद नागिन हो, जिसने चूहिया या लम्बी वाली मेंढ़क निगल ली हो और चूहिया या मेंढ़क को हजम करने के लिए पैर में नहीं, बल्कि किसी चिकने और सुडोल मूसल के गले या पेड़ के तने में लिपटी हो ! कड़ियाँ एक ऎसा गहना, जिसमें उम्र दराज औरतों की जान बसती, फिर वह हो सास, बहू या हो बहना ।
आजकल की औरतें भी गहने तो ख़ूब पहनती, लेकिन कड़ियाँ कम पहनती । मेरी साथी सीमा को ही देख लो ! लगभग पैंतालीस बरस की होगी, मगर कड़ियाँ पहनना पसंद नहीं करती ! सीमा की भाभियाँ, जो उससे भी छोटी है ! मेरी मामियाँ जो मुझसे बड़ी है ! मेरी जायमति मासी, जो मेरी बई से छोटी है, वह भी कड़ियाँ नहीं पहनती ! मतलब कि कड़ियाँ पहनने का शौक़ पहले भी हर किसी को नहीं था। लेकिन जिन्हें था, उन्हें पागलपन की हद तक भी था। जैसे कि जायमति मासी से छोटी श्यामू मासी को देख लो ! अच्छी जबरी कड़ियाँ पहनती थी, अच्छी ठसक के साथ पहनती थी। जैसे कि मासी के पैरों में बरोठा के सुनार द्वारा गढ़ी चाँदी की कड़ियाँ नहीं, बल्कि अनोखी लाल मासा जी और उनके परिवार की ऊँची व लम्बी नाक थी।
गाँव में औरतों के पैरों में देख चाँदी की कड़ियाँ, झटपट जुड़ती सगाई-ब्याह जैसे रिश्तों की कड़ियाँ। श्यामू मासी के ससुराल में मासी सहित कुल तीन औरत थीं, और थीं तीनों के पैरों में कड़ियाँ । सहज ही अँदाज़ लगाया जा सकता है कि मासा जी, उनके भाई और पिता की नाक कितनी लम्बी व ऊँची रही होगी ! मासाजी और उनके भाई-बन्धु की छोड़िए… धरती पर ऐसा कौन होगा, जिसे अपनी नाक छोटी, नीची और कटी पसंद होगी ! नाक का कटना क्या गज़ब ढा सकता है, सुर्पणखा की कटी नाक को याद कर समझा जा सकता है !
मैं पहले समझा था कि मासाजी को मासी पसंद थी, लेकिन बाद में समझ में आया था कि मासी नहीं, उन्हें अपनी नाक पसंद थी । तभी मन में यह सवाल भी उठा था कि रावण ने सुर्पणखा की नाक के लिए सीता का अपहरण किया था कि अपनी नाक के लिए ! साथ ही यह भी कि राम पूरे लाव-लस्कर सहित सीता के लिए लड़े थे कि अपनी नाक के लिए !
मैंने बई से सुना था कि नाना जी रामचन्द्र पटेल का हाथ अक्सर तंग रहता था। ज़िन्दगी उनकी धोती ढ़ीली करने का कोई मौक़ा नहीं चूकती । उनका हाथ ढ़िला-खुला करना सदा भूलती रहती । लेकिन नानाजी भी कम ख़ुदा नहीं थे, अक्सर परिस्थिति के सूत से बुनी रस्सी तुड़ाने और ज़िन्दगी को चिढ़ाने की जुगत भिड़ाते रहते ! कभी सुबह हाथ तंग होता, तो शाम तक ढ़िला हो जाता ।
नानाजी भैंस ख़रीदने-बेचने का व्यापार करते थे । सिरोही, नागौर कोटा और मंडार तक से ट्रक भर-भर भैंस लाते और देवास, उज्जैन, मक्सी, इन्दौर के पशु हाट में भैंस बेचते थे। मैंने बी एस के दादा जी और नारायण के पिता जी को भी नाना जी से भैंस ख़रीदते देखा था।
एक बरस रक्षाबंधन के आस-पास नानाजी पर धुन सवार कि तीनों लड़कियों को चिकत और उनके बच्चों ख़ुश कर दूँ । जाने क्यों नानाजी को ऐसी धुन सवार हुई थी, जबकि उन्हें व्यापार में नुकसान हो रहा था और देनदारी बढ़ती जा रही थी, फिर भी गाँव नागदा के रसूल से दस रुपये सैकड़ा ब्याज पर रुपये लिए और भैंस ख़रीदने चले गये। ट्रक भर भैंस लेकर लौट रहे थे । एक से बढ़कर एक भैंस ख़रीदी थी और उन्हें भरोसा था कि हर भैंस अच्छे मुनाफ़े पर बिकेगी ! नानाजी अपनी फतवी की जेब में मुनाफ़े की गर्मी महसूस करते हुए सोच रहे थे कि लड़कियों को साड़ियाँ और उनके बच्चों को कपड़े दिलाऊँगा ! लेकिन गाँव से पचास किलो मीटर पहले भैंस से भरा ट्रक पलट गया ।
कुछ भैंसे मर गई । कुछ लूली-लंगड़ी हो गई, तो बिकी नहीं । किसी का लवारा मर गया था तो, ख़रीदी क़ीमत से भी कम दाम पर बेचनी पड़ी । मुनाफ़ा की तो छोड़ो, दस रुपये सैकड़ा ब्याज पर ली पूँजी लौटाने के लाले पड़ गए ! रसूल हर दूसरे-तीसरे दिन वसूली का तगादा धरने साइकिल से आ धमकता ।
ट्रक पलटने से राखी का त्यौहार अपने आने तिथि नहीं पलट-बदल सकता था, वह नियत तिथि पर आया और जैसे-तैसे मन-मुना कर सरक लिया । जब ट्रक भी पलटने से नहीं रुका, त्यौहार ने भी तिथि इधर-उधर नहीं की तो नानाजी का ख़याल एक जगह स्थिर रहकर क्या भटा बघारता ! वह भी रुख़सत हो लिया और नानाजी ने सोचा कि क्यों न श्यामू को राज़ी की जाए !
फिर तो नानाजी आँखें की बंद होती या खुली होती । उनकी की आँखों में ईद के चाँद-सी चमकती, श्यामू मासी के पैरों में लिपटी पाट की चाँदी की कड़ियाँ। उन्हें भरोसा हो गया था कि कड़ियाँ ही वह कामधेनु है जिसकी पूँछ पकड़ कर कर्ज़ की नदी पार की जा सकती है ! नानाजी ने श्यामू मासी को राज़ी किया और कड़ियाँ देवास के सुनार के पास गिरवी रख दी थीं ।
नानाजी ने सोचा और श्यामू मासी को भरोसा भी बँधाया था कि महीना-डेढ़ महीना में कड़ियाँ सुनार से वापस ले लेंगे। लेकिन नानाजी अपनी जबान, भरोसे की लाज नहीं रख सके और श्यामू मासी की कड़ियाँ गिरवी से छुड़ा नहीं पाए ।
बई ही नहीं, बल्कि पूरा ननिहाल दुःखी हुआ था कि मासी की कड़ियाँ गूड़ की खोड़ी, मिश्री की डली या गारा की ढेली नहीं थी और सुनार की बही, पोखर, तालाब, नदी या पानी से भरी तगारी भी नहीं थी, यदि होती भी तो पाट की चाँदी से गढ़ी कड़ियाँ नहीं गलती-घुलती, फिर भी कड़ियाँ गल-घुल गई थीं।
मासा जी की खोपड़ी तपेली-भगोनी, भरतिया-दौणी या हाँडी-चूकरी नहीं थी फिर भी उसमें कढ़ी ने बहुत जोर की उबाल खाई थी और मासी जो कि दोनों कान से साफ़-साफ़ सुन-समझ लेती थी उसे चीख़-चीख़ कर खरी-खोटी सुनाई गई थी।
हम सभी जानते थे कि मासा जी जल्लाद या कसाई नहीं, बल्कि फूली और संजय के पिता थे और मासी गाय-भैंस या किसी भी नस्ल-प्रजाति की ढोर-डंगर नहीं, बल्कि मासा जी को पिता बनने का सुख देने वाली स्त्री थी फिर भी मासा जी ने किसी जल्लाद या कसाई की तरह मासी की ढोर-डंगर से भी बदतर कुटाई-पिटाई की थी। कौन नहीं जानता है कि चाँदी-सोना, ताम्बा-पीतल, काँसा या लोहा की बनी कड़ियाँ उतनी मज़बूत, भरोसेमंद और विश्वस्निय नहीं होती, दिल से दिल के रिश्तों की कड़ियाँ मज़बूत और ख़ूबसूरत भी होती है ।
बई, जायमति मासी, नाना-नानी और सभी रिश्तेदार जानते थे कि अनोखी लाल मासा जी टाटा, बिरला या अम्बानी के वंसज या उनके खानदान से नहीं थे, लेकिन इतना तो था कि एक जोड़ी चाँदी की कड़ियाँ गलने-घुलने से उन्हें सड़क पर भीख माँगने की नौबत नहीं आनी थी, बल्कि वे चाहते तो तुरंत दूसरी कड़ियों की दूसरी जोड़ी गढ़वा सकते थे, या वही जोड़ी सुनार से छुड़वा सकते थे। कड़ियाँ नहीं तो गढ़वा सकते तो पायल ही देते, जिसमें छम-छमाती घूँघरुओं की लड़ियाँ होती । कुछ नहीं तो कड़ियों की ख़ातिर नहीं तोड़ते मासी से जुड़े रिश्ते और मासी देह की कड़ियाँ !
लेकिन हुआ यह कि कड़ियाँ गलने-घुलने से रिश्तों की कड़ियाँ टूटने-बिखरने लगी । मतलब कि बई जो कि मासा जी की बड़ सास लगती थी, बड़ सास नहीं रही और एक पागल आदमी से अलग रह रही औरत रह गई । ऐसे ही नाना-नानी, जायमति मासी और गंगाराम मासा जी.. और सभी रिश्तों की कड़ियाँ बिखरती गई ।
अनोखी लाल मासा जी ने नानाजी के यहाँ आना-जाना बंद कर दिया ! मासी को नानाजी के यहाँ भेजना बंद कर दिया और मासी से कहा था कि अब तुझे पूरी उम्र कड़ियाँ ही नहीं, बल्कि कोई भी रकम नहीं बनवाई जाएगी ! मासा जी ने उपेक्षा की हरी झँडी क्या लहराई कि उनकी भाभी यानी मासी की जेठानी, ननद द्वारा उछाली जाने लगी ग़ालियाँ । फेंकी जाने लगी तानों-तिश्नों की नुकीली, धारदार लड़ियाँ । सुबह-शाम, दिन-रात, महिनों और जाने कितने बरसों होता रहा मासी का तन-मन छलनियाँ । ख़ैर…। बहरहाल बई की बात करता हूँ।
मैंने अपनी बई सोरम बाई पटेल को कई बार देखा था कि जब वह चार-छः बुजुर्ग औरतों के साथ बैठती, अपने पैर घाघरी से ढँक लेती ! मेरे सीने में हूक-सी उठती और मन कसमसाकर रह जाता । मैं सोचता कि जब भी संभव होगा बई के लिए बनावऊँगा कड़ियाँ, ताकि बई के पैर मूसल के मूसल नहीं लगे बग़ैर कड़ियाँ ।
ऐसा नहीं था कि पहले कभी नहीं पहनी बई ने कड़ियाँ, पहनी थी, और ख़ूब पहनी थी, बल्कि कभी हुआ करती थी बई के पैरों में मासी की कड़ियों से जबरी कड़ियाँ ! हाँ, वही पाट की ही चाँदी की गढ़ी कड़ियाँ ! दूध से भी उजली पाट की चाँदी, बई की पसंद की चाँदी । पाट की चाँदी नहीं होती कभी काली-पीली, रात में भी पूनम के चाँद-सी सफ़ेद दिखती कड़ियाँ । बई के पैरों में फबती भी ख़ूब कड़ियाँ !
मुझे अच्छे से याद है कि जब मैं आठवी कक्षा पास हुआ था। बई ने दाहिने हाथ में एक नारियल पकड़ हाथ को ऊपर हवा में उठाते हुए कहा था कि हे जगदम्बा माता, म्हारा छोरा के यूँ ही पग-पग पे पास करती री जे, और नारियल बाएँ पैर में पहनी कड़ी पर ही चढ़ा दिया था। जैसे कि मैं चिमनी की रोशनी में पढ़ कर नहीं, बल्कि जगदम्बा के आशिर्वाद से ही पास हुआ था। आज सोचू तो लगता है कि ओलम्पिक में खिलाड़ी अपनी मेहनत से नहीं, बल्कि किसी की कृपा से मैडल हासिल कर रहे हैं ! बई की पकड़ और वार इतना जबरा था कि नारियल फट्ट से फूट गया था, लेकिन कड़ी पर खरोंच भी नहीं लगी थी !
दूर तक और देर तक संग-साथ रही बई और उसकी कड़ियाँ । अनेक बार घर-परिवार की ख़ातिर, कभी साहूकार, कभी सुनार की तिज़ोरी में क़ैद रही कड़ियाँ । बई का चैन उड़ा रहता, जब तक साहूकार की तिज़ोरी में क़ैद रहती कड़ियाँ । अपने सुने पैरों पर जब भी जाती बई की नज़र, बई सोचती कि मेरी कड़ियाँ भी गल-घुल न जाए, जैसे कि गली-घुली श्यामू की कड़ियाँ ! श्यामू मासी और बई में यही फर्क़ था कि मासी नानाजी के भरोसे रही और बई कभी सिर्फ़ नानाजी के भरोसे नहीं रही। बई ख़ुद तो पाई-पाई जोड़ती ही, जब कभी नानाजी की जेब गरम रहती, तो उसे भी ढीली करवा लेती । क़र्ज साहूकार का हो कि सुनार का हो, बई ने अनेक बार पोंछी क़र्ज की, ब्याज की ईकाई और दहाई । जैसे भी होती, लेकिन बई साहूकार की तिज़ोरी से कड़ियाँ मुक्त करवा कर ही दम लेती। बई के साथ क़दम-क़दम पर खड़ी रहती मेरी नानी सम्पत बाई भी। खुली हवा व रोशनी में कुछ ज्यादा ही चमकती बई की कड़ियाँ । बई के पैरों में यूँ इतराती कि जैसे कभी किसी तिज़ोरी में बन्द ही नहीं हुई हो !
बई की वे कड़ियाँ जहाँ कहीं भी हो, अब नहीं भी हो.. सुनार ने गला-घुला कर कुछ और बना दिया हो ! लेकिन बई की स्मृति में तो कड़ियाँ वैसी की वैसी ही है….भले ही स्मृति की उन कड़ियों की पीठ सुने, या नहीं सुने कि बई उन्हें ख़ूब याद करती है । उन्होंने बई का ख़ूब-ख़ूब साथ दिया, बल्कि एक बार तो जान भी बचाई ! हुआ यूँ कि बई और दायजी ( पिता ) में किसी बात पर कहा-सुनी हो गई ! दायजी न सिर्फ़ अपने साढ़ुओं से उम्र और रिश्ते में बढ़े थे, दायजी ज़िद्दी व ग़ुस्सेल भी भयानक थे। दायजी की तुलना किसी भी मामले में उनके साढ़ू अनोखी लाल या गंगाराम से नहीं की जा सकती थी। गंगाराम मासाजी तो जायमति मासी के सामने चूँ भी नहीं करते थे। अनोखी लाल मासा जी ने श्यामू मासी की कुट्टमस लात-घुसों से ही की थी।
लेकिन दायजी ने बई के सिर पर लोहे का घन दे मारा था ! घन, लोहे का घन । जानते हो न लोहे का घन ! नागझीरी वाली ज़मीन में कुआँ खोदते वक़्त घन छैनी के माथे पर पड़ता, तो पक्के से पक्का पत्थर भी टूट-फूट जाता । फिर बई का सिर कुएँ के पत्थर से ज्यादा मज़बूत नहीं था, जब घन बई के सिर पर पड़ा, सिर फट्ट से फट गया था । खल-खल करती ख़ून की आव बह चली थी और खोपड़ी के भीतर से अनार के दाने झाँकने लगे थे। बई ने कहा था कि यह तब की बात है, जब तुने यानी मैंने स्कूल जाना भी शुरू नहीं किया था और अनसुइया उर्फ़ पवित्रा यानी बई की चौथी संतान और हम तीन भाईयों की इकलौती बहन तीन माह की ही थी और मेरे पैत्रक गाँव व ननिहाल में टीवी व फ़ोन के क़दम नहीं पड़े थे। पता नहीं फिर कैसे बा (नानाजी) तक ख़बर पहुँची और कैसे वे बई को लेकर अस्पताल पहुँचे ! बई को ठीक होने में कुछ महिने लग गए ! इलाज में पैसा बहुत लगा । बा कहीं के धन्ना सेठ तो थे नहीं ! जो ईलाज का ख़र्च हँसते-हँसते झेल जाते ! बा को रकम गिरवी रखनी पड़ी । रकम माने क्या ? माय ( नानी ) के गले की गलसणी और बई के पैर की कड़ियाँ ।
जब बई पूरी तरह तन्नाट हो गई । बई और माय लोग के खेत में निंदाई-गुड़ाई, फ़सल की बोवनी- कटाई और कुएँ खोद-खोद पैसा जुटाने लगी । फिर नानाजी की भी कुछ तो अतिरिक्त मेहनत थी और कुछ इत्तफ़ाक़ था कि उन्हें भैंस के धंधे में बरकत मिलने लगी थी। उन्होंने लगभग दो बंडल चक्कर बीड़ी रोज़ पीने की अपनी पुरानी लत को भी क्षिप्रा में विसर्जित कर दी थी । तेजकरण मामा अमोना गाँव के कांकड़ पर रस्सी बनाने वाले ठेकेदार के पास काम करने जाते थे, और संतोष मामा भी इधर-उधर हाथ-पैर मार कुछ न कुछ करने लगे थे। कहने का मतलब कि सभी ने मिल-जुल पाई-पाई जोड़ी । सभी के मन में था कि श्यामू मासी की कड़ियों तरह घुल न जाए, सोरम की भी कड़ियाँ । इस तरह छुड़वाई थी माय की गलसणी व बई की कड़ियाँ
सभी की मेहनत ने उनमें ऐसा जोश-उत्साह पैदा कर दिया था कि बा ने लोहार पिपल्या से नागदा, देवास जाने वाली बाट पर एक खेत का सौदा कर लिया था । खेत, जिसे हम ‘ नागदा की बाट वाला खेत ’ नाम से पुकारते । कुछ सब ने मिल-जुल जोड़े और कुछ माय की गलसणी और बई की कड़ियाँ गिरवी रख चुकाए । फिर वापस दोनों रकम गिरवी से छुड़वाई भी थी।
लोहार पिपल्या में बई को नानाजी की बड़ी बेटी नहीं, बल्कि बड़े बेटे के रूप में जानने लगे थे । बई के साथ मैं और बहन अनसुइया रहते थे, मुझसे बड़ा भाई मुकुट धार और मुझसे छोटा भाई सोहन धर पैत्रक गाँव मकोड़िया ( नारायण गढ़ ) में दायजी और जी के साथ ही रहते थे। जब बई के साथ मुझे व बहन को नानाजी ननिहाल लाए थे, पता नहीं कि दोनों भाई वहीं छूट गए थे, कि उन्हें दायजी या दादी ने नहीं लाने दिया था कि नहीं मालूम कि क्या हुआ था !
मकोड़ियाँ गाँव में ही नहीं, बल्कि सिलोटिया, डकाच्या, पलासिया,गौरवा, लोहर पिपल्या, कम्पेल और जहाँ-जहाँ भी दायजी के सगे-सम्बन्धी थे, सभी तरफ़ से रिश्तों की कड़ियाँ चटकने, टूटने-बिखरने की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। गाँव की राजनीति, रंजीश और षडयंत्र के भँवर में दायजी फँसते-डूबते जा रहे थे । उनकी सिर्फ़ परिस्थिति ही नहीं, बल्कि ज़िद, ग़ुस्सा और विवेक कुछ भी उनके काबू में नहीं था ।
उनकी गाँव में अक्सर किसी न किसी से लड़ाइयाँ होती । कभी वे किसी पर बरसाते और कभी उन पर लाठियाँ बरसती। दायजी कभी अपनी पूरी ज़िन्दगी में जितनी मर्तबा अपने ननिहाल सिलोटिया, ससुराल लोहार पिपल्या, पहली मासी के पास डकाच्या और दूसरी मासी के पास कम्पेल या बुआ के पास गाँव पलासिया या बहन के पास गाँव गौरवा नहीं आए-गए थे, उससे ज्यादा बार राजोदा, देवास की उपजेल में अन्दर-बाहर हो आए थे। वह वक़्त और था, लेकिन आज कोई इतना अन्दर-बाहर हो आए तो सांसद नहीं, तो विधायक या पार्षद की टिकट पक्की समझो ।
जब दायजी जेल चले जाते थे, सोहन व मुकुट भी लोहार पिपल्या आ जाते थे। जी क्षिप्रा नदी में कूदती और तैरकर मायके सिलोटिया चली जाती ।
क्षिप्रा पार सिलोटिया में जी के भाई पूँजराज बा रहते थे, जो कि बड़े किसान थे, दोनों आँख से जन्माँध थे और उनकी दो पत्नियाँ थीं। जी, पूँजराज बा की इकलौती बहन थी और उन्हें पूँजराज बा व उनकी पत्नियाँ ख़ूब लाड़ से रखती थीं। दायजी जैसे ही जेल से छूटते किसी न किसी तरह सोहन व मुकुट को वापस मकोड़िया ले जाते, उधर से जी भी क्षिप्रा में तैर कर वापस बेटे बद्री के पास आ जाती।
एक बार दायजी जेल से छूटे और उनके मग़ज़ में पता नहीं क्या जँची थी कि कांकड़-जंगल के रास्ते छुपते-छुपाते नानाजी के बादर वाला खेत तरफ़ आए ।
बई और नानीजी खेत में काम कर रही थी। बई के पास खेत में बहन अनसुइया खेल रही थी । मैं कांकड़ पर ही बबूल की छाँव में बंधी भैंस की पीठ को फिसल पट्टी बना बार-बार फिसल रहा था। तभी अचानक से बबूल की छाँव में मेरे सामने दायजी आ खड़े हुए…। और मुझे पुकारा- बेटा बंसी ।
मैं उन्हें पहचान नहीं सका था, बल्कि उनकी दाढ़ी व बाल देख मेरी चीख़ निकल गई थी । मेरी चीख़ इतनी कर्कश और जोर की थी कि खेत के दूसरे छोर पर काम करती बई और नानी खड़ी हो मेरी तरफ़ देखने लगी थी कि कहीं जंगल में से, ज्वार के खेत में से लकड़बग्घा, भेड़िया या कोई जंगली जानवर तो नहीं आ गया ! बई ने देखा था और उसे बबूल नीचे मेरे सामने लकड़बग्घा या भेड़िया नहीं दिखा था, और जो दिखा था, उसे पहचानते हुए बई ने नानी से कहा था कि जी…म्हारे तो थारो जवईं दिखी रियो है…।
-जवईं….। शायद नानी बुदबुदाई थी और फिर दोनों अपने-अपने हाथ में हशिया उठाए चिल्लाते हुए हमारी तरफ़ दौड़ पड़ी थी ।
तभी दायजी ने मुझे किसी सामान की तरह कंधे पर औंधा पटक लिया और ज्वार के खेत में गायब हो गये थे। कुछ दूर तक मेरे कान में बई और नानीजी का चीख़ना-चिल्लाना सुनाई दिया था और फिर बंद हो गया था। फिर दायजी ने मुझे अपनी कमीज़ की जेब से कोई फल निकाल कर दिया था, और मैं सुबकते हुए फल खाने लगा था।
फिर एक शनिवार को दायजी क्षिप्रा हाट गये थे। कह कर गये थे कि मेरे लिए और बड़े भाई के लिए नये जूते लाएँगे ।दादी और छोटा भाई सोहन घर पर ही थे। बड़ा भाई मुकुट धर मोटा खेत की मेड़ पर बैल चरा रहा था और मैं मोटा खेत की मेड़ पर खड़े बेर के पेड़ नीचे नंगे पैर खेल रहा था। खेल क्या रहा था, पेड़ के नीचे गिरे बेर चुन-चुन कर खा रहा था । बेर खाते हुई मुझे बई द्वारा कभी सुनाई केणी (कहानी)- ‘ मोत्या कुतरा ’ याद आ रही थी और मैं उस कहानी को दो लाइन बार-बार दोहराते हुए ख़ुद को सुना रहा था- बोरण बई वो..बोरण बई वो… थारी कूण हलावे डाल… थारी कूण हलावे डाल.. ।
‘ मोत्या कुतरा रे.. मोत्या कुतरा रे….म्हारा बीरा जी हलावे डाल.. म्हारा बीरा जी हलावे डाल ’ केणी में आगे की दो लाइन किसी ने गुनगुनाई तो मैं चौंक गया कि यह कौन गुनगुना रहा। इधर-उधर देखा और जब कोई नहीं दिखा… तो ग़ौर से बेर के पेड़ को ही देखने लगा कि बेर का पेड़ ही तो नहीं गुनगुना रहा।
मुझे से कुछ दूरी पर बड़ा भाई बैल चरा रहा था, सोचा कि शायद भाई ने गुनगुनाया होगा। तभी भाई मेरी तरफ़ देखते हुए हाथ हिलाया और कहा कि बंसी वहीं बेर नीचे खेलना…मैं आता हूँ…। भाई जहाँ था, वहाँ से कुछ और आगे बढ़ा और खाळ किनारे अपना पजामा खोल कर बैठ गया था । मैं समझ गया था कि भाई उधर छी…छी करने बैठा है ।
मैं एक लालचट बेर मुँह में रखते हुए बेर के पेड़ तरफ़ देखने लगा था कि शायद फिर से पेड़ गुनगुनाएगा ! पेड़ तो नहीं गुनगुनाया था, लेकिन मेरे सामने एक चमत्कार हुआ । जैसे कि टी वी धारावाहिकों में देवी-देवाता या ईश्वर प्रकट होकर भक्त को आशिर्वाद, वरदान या पापी को श्राप, दण्ड देकर गायब हो जाते हैं, कुछ-कुछ उसी तरह या फिर हिन्दी फ़िल्म के हीरो की तरह चमत्कारिक ढँग से दो युवक प्रकट हुए थे। मैं देख-समझ में नहीं पाया था कि वे किधर से आए, खाळ के रास्ते से, घास में छुप कर या आसमान से सीधे बेर के नीचे और मेरे सामने प्रकट हुए । उनमें से एक थे मेरे संतोष मामा और दूसरा उनका दोस्त राधेश्याम । राधेश्याम लोहारपिपल्या की नीम गली में नानीजी के घर सामने ही रहता था, राधेश्याम की बई को मेरी बई चन्दा बुआ कह कर पुकारती थी।
-बंसी… चल, बई ने बुलाया … तुझे स्कूल में बैठाएँगे। संतोष मामा ने मेरी तरफ़ बढ़ते और मुझे उठाने के लिए झुकते हुए कहा था।
-नी… नी चलूँगा. दायजी मेरे लिए नए जूते लेने गये हैं…। उन दिनों मैं हिन्दी में बात करना नहीं जानता था, मामाजी भी बात मालवी में ही हुई थी।
फिर संतोष मामा और उनके दोस्त ने एक दूसरे की तरफ़ देखा । आँखों ही आँखों में कुछ बात की और अचानक से दोनों ने मेरी एक-एक बाजू पकड़ी और मुझे उठा कर भागने लगे। पहले तो मुझे बड़े भाई द्वारा कभी सुनाई हुई कहानी याद आई थी, जिसमें एक तालाब का पानी सूख जाता है, तो उस तालाब के कछुए को दो सारस दूसरे तालाब के ले जाते हैं…. चूँकि कछुआ उड़ नहीं सकता था, और सारस कछुए को पीठ पर भी नहीं बैठाल सकते थे, इसलिए कछुआ एक टिटकलिए को बीच में मुँह से पकड़ लेता है और सारस टिटकलिए को अगल-बगल किनारे पर मुँह से पकड़ लेते हैं… और इस तरह कछुए को लेकर सारस उड़ने लगते हैं । मुझे लग रहा था कि संतोष मामा और राधेश्याम मामा दो सारस थे और मैं सूखे तालाब का कछुआ था।
तभी बबूल के जाल्या से मेरे पैर टकराए और पैर में काँटे चुभे तो मुझे भाई की याद आई और मैं जोर से चिल्लाया- दादा…दादा… ई म्हारे ली जाय रे… ।
मेरी आवाज़ सुन भाई मुकुट अपना पजामा सम्भालता उठा…। जल्दी और हड़बड़ाहट में भाई पजामा की नाड़ी बाँध नहीं सका तो, उसने पजामा निकाल फेंका । मामा के पीछे नंग-धडंग दौड़ने लगा.. रुको.. रुको… बंसी को मत ली जाओ..।
संतोष मामा और उनके दोस्त की दौड़ अच्छी थी, उनके पैर में जूते भी थे। भाई नंगे पैर था । उसने एक खेत पार होने तक तो पीछा किया, लेकिन फिर भाई के पैर में काँटा घुसा और भाई चीख़ता-रोता और मामा को ग़ालियाँ बकता नीचे बैठ गया था। अब भाई जहाँ कहीं भी हो…यदि सुन रहा हो तो सुने… मैं बेहिचक कहता हूँ कि भाई….आपने उस दिन बहुत शानदार ग़ालियाँ थी। उनमें से बहुत-सी ग़ालियाँ तो मैंने पहली बार सुनी थी और कुछ तो आज तक भी याद है मुझे ।
जब मुझे लेकर मामा गाँव सुमराखेड़ी उर्फ़ पार्वतीपुरा के पास सड़क पर पहुँचे । सड़क जो कि पूरब में छोटा टिगरिया, छापरी होते हुए बड़ा टिगरिया तरफ़ जा रही थी, पश्चिम में नगोरा, सुखलिया होती हुई क्षिप्रा पहुँचती थी, फिर क्षिप्रा से लोहार पिपल्या बई के पास जा सकते थे।
जब मुझे साथ लेकर संतोष मामा क्षिप्रा तरफ़ चलने को मुड़े तो उनके दोस्त ने कहा कि इधर नहीं… इधर चले, और रास्ते में बद्री जाजी मिल गये.. तो अपना कचूमर बना देंगे । उसने हाथ के ईशारा से उत्तर में जाती कच्ची गाड़ी गरवट की ओर ईशारा किया था कि इधर से चलते हैं…। फिर उसी गाड़ी गरवट चलते-दौड़ते सुनवानी महाँकाल पहुँचे, और वहाँ से एक दूसरी गाड़ी गरवट पकड़ी तो बंधावला कुआँ के पास होते हुए लोहार पिपल्या पहुँच गये थे।
जब लोहार पिपल्या के स्कूल में पहली कक्षा में मुझे पढ़ने के लिए बैठाया था और तब सुखलिया वाले मांगीलाल सर ने पूछा था कि छोरा का नाम क्या लिखूँ ? संतोष मामा ने एक क्षण सोचा और कहा- सत्यनारायण, लिख लो। मुझे बई, भाई, जी, दायजी, नाना-नानी, और मासियाँ आदि ‘ बंसी ’ ही पुकारते थे । दायजी ने मेरा नाम ‘ बंसी ’ ही रखा था। लेकिन संतोष मामा ने एक क्षण में मेरा नाम बदल ‘सत्यनारायण’ कर दिया था।
फिर माँगीलाल सर ने पूछा- पिता..?
मामा ने फिर एक क्षण विचार किया…. कहा- पिता.. तो बद्री लाल पटेल ही लिखो ।
संतोष मामा का शुक्रिया कि उन्होंने मेरे दायजी का नाम नहीं बदला ।
फिर एक दिन मेरे छोटे भाई सोहन धर और बड़े भाई मुकुट धर को भी दायजी से ले लिया था। हम सभी भाई-बहन बई के साथ ननिहाल में ही रह रहे थे।
दायजी का धीरे-धीरे खेती करना छूट गया और जब खाने-पीने के लाले पड़ने लगे, तो उनकी पालतू भैंस, गाय और बैल बेच कर अपना और अपने कुत्ता का पेट भरा और गाँजा पिया।। फिर जिस कोठे में मवेशी बाँधते थे, उस कोठे की लोहे की चद्दर, सागवान के पाठ, बल्लियाँ और दरवाज़ा बेच कर अपना और अपने कुत्ता का पेट भरा और गाँजा पिया।। फिर नाना जी द्वारा बई की शादी में दिए ताम्बे-पीतल के बर्तन बेच कर अपना और अपने कुत्ता का पेट भरा और गाँजा पिया।
उन्हीं दिनों जी (दादी) का जीव तोड़ाने लगा और वह सिलोटिया में अपने भाई पूँजराज बा के यहाँ बेचैन होने लगी, तो क्षिप्रा नदी को तैर कर अपने बेटे को इलाज़ के लिए समझाने आ गई थी। लेकिन दायजी की ज़हनी कड़ियाँ बुरी तरह उलझ-पुलझ गई थी या बिखर गई थी। दायजी के पास अपना और अपने कुत्ता का पेट भरने के लिए कुछ नहीं बचा था। ऊपर से गाँजा की तलब की कोख से जन्मा तनाव, खिंचाव, टूटन और छटपटाहट कुछ भी कर गुज़रने को उकसाने लगती थी । दायजी को अपने प्राण त्यागने या किसी के प्राण ले लेने को आतुर करने लगती थी।
एक बार दायजी ऐसी ही मनःस्थिति की गिरफ़्त में थे कि उनकी नज़र जी के पैरों पर पड़ी। जी के पैरों में पाट की चाँदी से बनी कड़ियाँ दायजी ने पहली बार नहीं देखी । तब का देखना और था, उस दिन का और ! कड़ियाँ देखते हुए भीतर तलब के तालाब में खलबली मचने लगी थी । भीतर तलब की लहरे भालों की तरह उछलने-गिरने लगी थी । तलब में भीगी ज़िद कोबरा की माफिक़ फूँफकरने और भीतर ही भीतर डंसने लगी थी।
कहने का मतलब कि जो दायजी मकोड़िया, कुमारिया, नागदा-पालनगर, टिगरिया, पलासिया, सिलोटिया या लोहार पिपल्या में किसी के आगे नहीं झुके, जो अपनी ज़िद, ग़ुस्से और विवेक की धुन चलते रहे थे। वही दायजी समझ लो कि तलब के आगे घुटने टिकाए.. नतमस्तक हो गए । तलब के हाथों का खिलौना हो गए और जी माँग ली उनके पैरों की कड़ियाँ !
-कड़ियाँ… हउ ली ले…कड़ियाँ थारा से ज्यादा थोड़ी है… जी ने कहा और आगे समझाती हुई बोली- तू कड़ियाँ बेच क्या करेगा ! अपने कुत्ते का पेट भरेगा… और गाँजा पियेगा ! तू म्हारी साथ सिलोटिया चल… पूँजराज मामा से पैसा ली के इलाज…..
-छिनाल… तू भी मुझे गेल्या ( पागल ) समझती है…। दायजी ने आग-बबूला हो गए थे । दायजी के मग़ज़ में तलब बिगड़ेल महारानी की तरह टहल रही थी।
जी भीत से पीठ टिकाए और पैर आँगन में लम्बे कर बैठी थी, वह दायजी के हाव-भाव देख रही थी । उसने सहम कर अपने पैर खींचे और अपने नौ कली के छींटदार घाघरे के भीतर छुपा लिए । दायजी आगे बढ़े और जी के पास अपने घुटनों पर बैठ गए । दायजी की नसों में तलब हड़की टेगड़ी ( पागल कुतिया) की तरह दौड़ रही थी। दायजी की आँखों और चेहरे गर्म लार की तरह चू रही थी। दायजी को जी नहीं, सिर्फ़ जी के पैरों की कड़ियाँ दिख रही थीं।
-रंडी…इ कड़ियाँ म्हारे दी दे… । और तू अन्धा पूँजा ( पूँजराज ) के साथ सो जाना.. वो और कड़ियाँ बनवा देगा…। दायजी ने जी का एक पैर पकड़ घाघरे से बाहर खींचते हुए कहा था।
-बेटा… पूँजा तेरा मामा है…जी ने गिड़गिड़ाती समझाने लगी थी।
-चुप्प..बदज्जात.. कहते हुए दायजी उठे और आँगन में ओखली के पास पड़ा हशिया उठा लिया। फिर जी के एक पैर को घाघरे बाहर खींचा। घुटने से थोड़ा नीचे पींडली के पास से पकड़ ऊपर उठाया और जी की आँखों में घूरते हुए पूछा- सीधा माज़ना से देगी कि पैर काटना पड़ेगा…।
जी भीतर ही भीतर सिहर उठी थी। घिग्घी बंध गई थी। बोल नहीं फूट रहे थे। तभी दायजी ने पूरी ताक़त से हशिया ऊपर उठाया और क्रोध के शिखर से गरजे- बोल छिनाल… काट दूँ पैर…!
बई बताया था कि डर के मारे जी का घाघरा गिला हो गया था। जी ने कल्पना भी नहीं की थी कि उनका छोरा, उनके साथ ऐसी हरक़त करेगा। जी ने कड़ियाँ निकलवा दी थी। जी की कड़ियाँ उनके भाई पूँजराज बा ने डकाच्या के बलमुकुन्द सुनार से गढ़वाई थी। जी की कड़ियाँ बेच कर दायजी ने कुछ दिन अपना और अपने कुत्ता का पेट भरा था और गाँजा पिया था।
बई के साथ दायजी ने जो किया था, वह तो किया ही था, लेकिन उन्होंने उनकी जी को भी नहीं बख्शी थी। जी के साथ जो किया था, सिर्फ़ बुरा नहीं, बल्कि अकल्पनीय था। फिर तो दायजी के गाँव वालों के मन में घृण का समुद्र हिलोर मारने लगा था । पूँजराज बा ने जी को सिलोटिया बुला लिया था और कभी वापस मकोड़िया नहीं जाने की समझाइश दी थी।
बई ने सुना कि दायजी ने उनकी जी के साथ मार-पीट कर कड़ियाँ ले ली और बेच दी। बई कलपी, छटपटाई, और बड़बडाई, लेकिन कुछ कर नहीं सकती थी। दायजी के दो मासा जी थे, एक डकाच्या में और दूसरे कम्पेल में थे। डकाच्या बाले चुप रहे थे, लेकिन कम्पेल वाले मासा जी फूटी कुण्डी वाले गंगाराम बा से चुप या शान्त नहीं रहा गाया था। गांगाराम बा कम्पेल के सरपंच थे, उन्होंने अपने साथ छकड़ा गाड़ी में कुछ लोग को बैठाया और मकोड़िया दायजी के पास आ गये थे। दायजी को रस्सी से बाँध कर हुसैन टेकरी जावरा ले गये थे।
हुसैन टेकरी जावरा के नवाब मोहम्मद इफ्तिखार अली ख़ान बहादुर द्वारा बनवाई गई थी। मालवा में मान्यता थी कि मानसिक व्याधि से ग्रस्त-त्रस्त, बाहरी बाधा, जिन्न-भूत और असाध्य बीमारी से हेरान-परेशान लोग के वहाँ क़दम पड़ते ही वे रोग मुक्त हो जाते । बाहरी बाधाएँ शरीर छोड़ कर रफूचक्कर हो जाती ।
बई को पता चला था कि दायजी को गंगाराम बा हुसैन टेकरी ले गए हैं, बई ने मन्नत मान ली थी कि दायजी ठीक हो जाएँगे तो, रसूल पुर वाले पीर बाबा के स्थान पर चादर व नारियल चढ़ाएगी। लेकिन बई की मन्नत पूरी नहीं हुई थी। हुसैन टेकरी पर तीन-चार दिन भूखे-प्यासे बाँधे रहने के बावजूद उनके मग़ज़ में उलझी कड़ियाँ ज्यों की त्यों रही थी।
फिर गंगाराम बा एम वाय अस्पताल इन्दौर में दायजी को ले गए । इलेक्ट्रिक शॉक लगवाए। फिर अपने साथ कम्पेल ले गए। कम्पेल में गाँव बाहर जैसे ही तालाब आया, दायजी ने छकड़े में से कूद तालाब तरफ़ दौड़ लगा दी । गंगाराम बा और उनके दो-तीन साथी दायजी को पकड़ने दौड़े । उन्हें शायद लगा हो कि तालाब में कूद कर जान नहीं दे दे ! क्योंकि उन्हें नहीं पता होगा कि दायजी बहुत अच्छा तैरना जानते थे। दायजी तालाब में तो नहीं कूदे, लेकिन दौड़ते हुए ईमली के पेड़ पर चढ़ गए ।
गंगाराम बा ने सोचा कि बद्री अच्छा फँसा… पेड़ से कहाँ जाएगा.. नीचे तो उतरना ही पड़ेगा और नीचे उतरेगा तो दबोच लेंगे । गंगाराम बा ने दो-तीन लोग को पेड़ के नीचे बैठा दिए और कहा कि जब बद्री नीचे उतरे बाँध लेना । एक दिन, दो दिन और तीसरा दिन भी बीत गया, दायजी पेड़ से नीचे उतरे ही नहीं । दायजी ईमली के पेड़ की ताज़ा पत्तियाँ और फूल खा कर पेट भर लेते । चौढ़ी डगाल पर नींद भी निकाल लेते। कुछ दिन तक ऐसा ही चला । कम्पेल में दायजी के नाम का हल्ला मच गया कि सरपंच बा का भतीजा बंदरों की तरह ईमली के पत्ते-फूल खा कर पेट भरता और पेड़ पर ही रहता। गाँव के बूढ़े,जवान, औरते और बच्चे उन्हें देखने आने लगे कि आख़िर बग़ैर हगे-मूते बद्री पेड़ पर कैसे रह रहा ! फिर कहीं से उस पेड़ पर बंदर-बंदरियों का झुँड आ गया । दायजी को तो जैसे संगी-साथी मिल गये थे, वे पेड़ पर और मज़े से रहने लगे थे। उन्हें देखने आने वालों को पहरेदार बताते कि बद्री तो बंदरों के साथ बंदर जैसा ही हो गया है । बंदरों से उन्हीं की भाषा में हुप्प..हुप्प कर बात करता है और उन्हीं की तरह एक डगाल से दूसरी डगाल पर उछल कूद करता है ।
एक सुबह कम्पेल में हल्ला मचा कि दायजी पेड़ पर से गायब हो गए ! गंगाराम बा पहरेदारों से पूछे, पहरेदार एक-दूसरे से पूछा और एक-दूसरे सिर खुजाए कि आख़िर बद्री गायब कैसे हुआ ! सोचे कि बंदरों के झुँड में बंदर बन चला गया कि पेड़ पर रहते-रहते पेड़ की डगाल, टहनी, पत्ती, फूल बन पेड़ का हिस्सा बन गया कि पेड़ से पक्षी, हवा बन उड़ गया कि पेड़ से उतर कर तालाब के पानी में पानी बन घुल-मिल गया कि तालाब में तैर कर उस पार चला गया कि आख़िर कब, कैसे, कहाँ और किधर गायब हो गया कि किसी को कुछ पता नहीं था और दायजी गायब हो गए थे। लोहार पिपल्या में बई डरी-सहमी थी और सिलोटिया में जी भयाक्रांत थी कि जाने कब आ धमकेगा और जाने क्या करेगा !
कम्पेल में अफ़वाह फेल गई कि सरपंच बा के मकोड़िया वाले भतीजे बद्री के डील में कोई ख़तरानाक जिन्न-पिशाच, जो रूप बदल लेता है कि जो अदृश्य हो जाता है कि जिसने हुसैन टेकरी पर किसी की दाद नहीं दी कि उसे कम्पेल में लाना ही नहीं था कि गाँव पर जाने कैसी मुसीबता आएगी ! कुछ हँसी मज़ाक़ भी करते और आसमान में बगुला,चील, चिड़िया, कागला या किसी पक्षी को उड़ता जाता देख… रास्ते पर किसी ढोर-डंगर या कुत्ता को जाता देख कहते कि इनमें से कोई बद्री तो नहीं है !
हँसी मज़ाक़ अपनी जगह थी, गंगाराम बा की जान सांसत में फँसी थी कि बद्री ने कुछ उलटा-सीधा कर लिया तो अपनी बड़ सास रूकमा बाई को कि भतीजा बहू सोरम बाई को क्या जवाब दूँगा ! गंगाराम बा ने कुछ दिन झाड़ उखाड़ हनुमान, हत्यारी खो और आस-पास के जंगल में ढूँढ़वाया, जब दायजी का कुछ अता-पता नहीं चला, तो थक-हार अपने रोजमर्रा के काम में लग गए।
फिर एक दिन मकोड़िया से लेकर सिलोटिया, लोहार पिपल्या और कम्पेल तक हल्ला मचा । गंगाराम बा, बई और दादी सभी की बात कान लगा कर सुनने लगी । हुआ यू कि मकोड़िया गाँव के चौकीदार को क्षिप्रा के किनारे एक साधु-महात्मा दिखे । साधु-महात्मा के सिर व दाढ़ी के बाल बड़े-बड़े, भगवा कपड़े और नंगे पाँव । बबूल की छाँव में पदमासन लगाए चिलम ध्यान में मगन बैठे । बबूल के तने से साइकिल टिकी । सामने लोहे का चिमटा गड़ा और चिमटा की बग़ल में कुत्ता बैठा । साधु-महात्मा का बेफिक्री से चमकता भाल । साधु-महात्मा होंठ के एक किनारे से चिलम का कश खिंचते, दूसरे धुआँ छोड़ते ।
चौकीदार को लगा था कि कहीं से कहीं को जा रहे साधु-महात्मा यहाँ सुस्ताने व चिलम फूँकने रुक गए होंगे ! चौकीदार के मन में साधु-महात्मा से आशिर्वाद लेने की लालसा पैदा हुई और वह आँख मूँद कर चिलम फूँकने में मगन साधु-महात्मा के पैर में झुकता बोला-पाँय लागू महाराज।
साधु-महात्मा ने चिलम ध्यान से आँख खोली और देखा कि गाँव का चौकीदार है…. उसे लात मार एक तरफ़ करते हुए बोले कि झुकना है, तो ख़ुद के पैरों में झुक.. अपना ईश्वर पहचान । चल भाग.. मुझे चिलम पीने दे ।
साधु-महात्मा की खुली आँखों व आवाज़ से चौकीदार पहचान गया कि यह साधु-महात्मा नहीं, बल्कि बद्री गेल्यो है ।
दायजी जो भी करते, उसकी ख़बर मकोड़िया से लगे गाँवों में आग की तरह फैलती। ख़बर की लपट, धुआँ लोहार पिपल्या, सिलोटिया और कम्पेल तक भी पहुँचे ही । दायजी की ख़बर सुन-सुन बई और जी जहाँ की तहाँ कलपने लगती थी ।
दायजी के हम उम्र बताते हैं कि दायजी के पास एक साइकिल भी थी, और वे कहीं आते-जाते तो साइकिल के पीछे-पीछे उनका कुत्ता भी चलता था। खेत में ज्वार-मक्का और गाँजा के बीज उड़ा देते थे, अपना उगाया अनाज ही खाते। अपना उगाया गाँजा ही पीते।
जब सब ठीक था, तब दायजी ने बई के साथ गृहस्थि की समृद्धि का सपना देखा था। नागझीरी की सूखी ज़मीन को सिंचित बनाने के लिए, कुआँ खोदने को भूमि विकास बैंक से कुछ हज़ार लोन लिया था । लोन की काफ़ी रकम चुका दी थी, लेकिन कुछ किस्त बाक़ी थी ! फिर ज़िन्दगी की कड़ियाँ उलझने के बाद लोन चुकना बंद हो गया था। बैंक कर्ज़ धीरे-धीरे अजगर की तरह बढ़ने लगा था ! चुपचाप ! कुछ बरस बढ़ता ही रहा था। खेती के नाम पर दायजी इतना ही करते थे कि ज़मीन में अनेक तरह के अनाज के बीज के साथ के साथ गाँजे के भी कुछ उड़ा देते थे। दायजी ने पका कर खाना छोड़ दिया था। अनाज भीगो कर रख देते, अनाज नरम पड़ जाता, या अंकुरित हो जाता, तब खा लेते और अपने खेत का गाँजा पीते ।
दायजी का खेती करने का तरीक़ा लोग को पसंद नहीं आता और लोग दायजी के खेत में मवेशी छोड़ देते, मवेशी को तरह-तरह के अनाज के पौधे एक साथ चरने-खाने में मज़ा आता और देखते ही देखते सुपड़ा-साफ़ कर देते थे।
एक दिन क्षिप्रा के शनिवारिया हाट में बई साग-भाजी बेच रही थी। बई तराजू में तुराई तोल रही थी और मैं बई के पीछे बिछी टाट की पल्ली पर बैठा-बैठा बई द्वारा दिलवाई जलेबी खा रहा था। नाना जी के खेत से क्षिप्रा हाट की दूरी तीन-साढ़े तीन किलोमिटर होगी…। खेत से हाट तक मैं बई के पीछे-पीछे सिर पर साग-भाजी का टोकरा उठा कर ले गया था। जलेबी उसी काम का मेहनताना या ईनाम थी।
तभी अचानक से बई के हाथ से तराजू छूट गया । मुझे लगा कि तराजू की साँकल में आँटी आ गई होगी या तराजू का पलड़ा नीचे बिछी टाट पल्ली में उलझ गया होगा। लेकिन फिर पता चला था कि बई अजगर की फूँफकार सुन काँप उठी थी और हाथ से तराजू छूट गया था।
अजगर उर्फ़ भूमि विकास बैंक हाट में घूम-घूम घोषणा कर रहा था कि फलाँ-फलाँ गाँव के फलाँ-फलाँ किसानों की ज़मीन फलाँ-फलाँ तारीख़ को नीलाम की जानी है। उन फलाँ-फलाँ में एक नाम- बद्रीलाल पिता हीरालाल जाति खाति निवासी गाँव मकोड़िया ( नारायण गढ़) भी था।
जब बई ने ज़मीन के कर्ज़ की जानकारी ली, तो पता चला कि कर्ज़ का अजगर इतना बड़ा और भूखा हो गया था कि उसका पेट खेती करके एक मुश्त नहीं भरा जा सकता था और किस्तों में कुछ पीढ़ी की ज़िन्दगी आसानी से चूक सकती थी, लेकिन किस्ते नहीं चुकने वाली थीं । भूमि विकास बैंक का सुझाव था कि या तो ख़ुद ज़मीन बेच कर कर्ज़ चूका दो या फिर बैंक ख़ुद ज़मीन नीलाम कर कर्ज़ वसूल कर लेगी।
बई को लगा था कि बैंक ज़मीन निगल जाएगी, तो फिर बच्चों का पेट कैसे पलेगा और बच्चों का आसरा ही छीन जायेगा तो फिर मेरी कड़ियाँ किस काम की । बई ने तय किया था कि ज़मीन बचाना होगी ! फिर गिरवी रखनी पड़े या बेचनी ही पड़े पैरों की कड़ियाँ ।
नानाजी की ऐसी स्थिति नहीं थी कि एक मुश्त बैंक का कर्ज़ भरते और हमारी नागझीरी वाली ज़मीन को नीलामी से बचा लेते। नानाजी के घर में खाने वाले हम कुल नौ लोग थे और उस हिसाब से कमाई नहीं थी। हालाँकि मुकुट धर बड़ा हो गया था और किसी ट्रक पर हेल्परी करता था। मोटे मामा तेजकरण व छोटे मामा संतोष भी कुछ न कुछ करते थे। फिर भी तकलीफ़ और तंगी थी। नानाजी को दोनों मामाओं की शादी भी करनी थी।
बई और जी को अपने-अपने मायका में रहते हुए… घर-गृहस्थि की कड़ियाँ छिन्न-भिन्न हुए दस-ग्यारह बरस हो गए थे। बई की चार संतान में से मैं ही था, जो स्कूल जा रहा था और दसवी या ग्यारहवी में पढ़ रहा था। उन्हीं दिनों नाना जी और नानी जी की ग़ैर मौजूदगी में ननिहाल में एक बैठक हुई थी। बैठक में बई, तेजकरण मामा, बई के काका देवीलाल बा का बीचोट लड़का रामबगस मामा और भाई मुकुट धर प्रमुख रूप से शामिल थे। मैं भी वहीं आँगन में था, सब कुछ सुन रहा था, लेकिन उनकी योजना का हिस्सा नहीं था। उनके हिसाब से उस काम के लिए छोटा था, जो करने की योजना बनाई जा रही थी।
बैठक का सार यह था कि किसी भी क़ीमत पर नागझीरी की ज़मीन अजगर को नहीं निगलने देना है । बई ने कहा था कि मेरे पैरों की कड़ियाँ और ज़रूरत पड़ी तो जी ( नानी ) की गलसणी बेच देंगे ।
-बई, ज़मीन बचा भी लेगी..तो क्या होगा.. जाजी चिलम में भर कर पी जाएँगे..। तेजकरण मामा ने कहा था ।
-कैसे बेच देंगे.. ज़मीन पर अब मैं खेती करूँगा.. मेरे भाई मुकुट धर ने कहा था।
-बई ने कहा कि जैसे भी हो.. अब वहीं रहना पड़ेगा । बई ने कहा था।
फिर बई, तेजकरण मामा, रामबगस मामा और भाई मुकुट धर अचानक से इतनी धीमी आवाज़ में बात करने लगे कि मैं सुन ही नहीं पा रहा था । फिर मुझे तेजकरण मामा ने कहा कि बंस्या… जा भैंसों को चारा डाल आ।
मुझे उन्होंने भैंसों को चारा डालने भेज दिया था और वे सभी आँगन में बैठे योजना बना रहे थे कि कैसे क्या करना है !
फिर एक दिन योजना के मुताबिक.. मोटे मामा तेजकरण ने अपनी पेंट और पेट के बीच, नाभी की दाईं तरफ़ एक कटार खोंस कर रख ली। रामबगस मामा और भाई मुकुट धर ने एक-एक लट्ठ ले लिया। ननिहाल से साइकिल पर रवाना होने लगे। तभी मैं और देवीलाल बा का छोटा लड़का मल्या मामा सामने पड़ गये ।
मैं और मल्या मामा हमउम्र थे। हम किसी कुएँ में तैर कर लौट रहे थे। हमें देख पहले तेजकरण मामा, रामबगस मामा और भाई मुकुट धर ने आपस में कुछ खुसुर-पुसुर की थी और फिर हमें भी साइकिल पर साथ बैठाल लिया था। तीन साइकिल पर कुल पाँच जन सवार हुए थे। क्षिप्रा, सुखलिया और नगोरा पार करने के बाद मैं समझ गया था कि हो, न हो, हम मकोड़िया ही जा रहे थे ।
-क्यों जा रहे थे ? मुझे और मल्या मामा को कुछ मालूम नहीं था।
मकोड़िया के खाल से पहले रास्ते में एक बड़ा-सा बरगद खड़ा मिला। बरगद की छाँव में तीनों साइकिल रुकी। तेजकरण मामा, रामबगस मामा और भाई मुकुट धर ने छाँव से एक तरफ़ जाकर पेशाब की और वापस छाँव में लौटे । फिर तेजकरण मामा ने देखा कि नदी की ओर खेत में कोई काम कर रहा है, उसे हाँक दी और हाथ के इशारे से पास बुलाया। वह आदमी अपने हुलिए से हाली-मज़दूर लग रहा था। तेजकरण मामा ने अपने पजामा की जेब से बीड़ी का बंडल निकाला और उसे बीड़ी दी। फिर बीड़ी सुलगाते हुए तेजकरण मामा ने उस आदमी से पहले उसी के बारे में और फिर मेरे दायजी के बारे में जानकारी ली।
वह आदमी मकोड़िया का ही था और मेरे दायजी को अच्छे से जानता था। भाई मुकुट धर को भी पहचान गया था। उसने बताया था कि जब वह खेत पर काम करने आ रहा था, तब बद्री दा.. यानी मेरे दायजी नदी में नहा कर अपने कुत्ता के साथ घर तरफ़ जा रहे थे।
मेरे मामा और भाई ने दायजी के बारे में कुछ अनुमान लगाया और फिर तेजकरण मामा ने धीरे से कहा- चलो… गेल्या कहीं जाए.. उससे पहले घर पर ही निपटा दे …।
जब हम सभी गाँव में पहुँच गये। गाँव के चौक में साइकिलें टीका दी। दोपहर थी और चौक सुनसान था। दायजी के घर तरफ़ बढ़ने लगे, तो मुझे और मल्या मामा को कहा कि तुम लोग यहीं से देखना…। हम रुके तो हमारे साथ रामबगस मामा भी रुक गये और मैंने देखा था कि उनके हाथ-पैर काँप रहे थे। लेकिन तेजकरण मामा और भाई मुकुट धर दायजी के घर तरफ़ तेज़ी से बढ़े थे। जब घर सामने सेरी में पहुँचे..तो दायजी का कुत्ता तेजकरण मामा और मुकुट धर पर भौंकने लगा था। दायजी आँगन में बैठ स्टील की थाली में भीगा अनाज खा रहे थे। उन्होंने अपने बेटे मुकुट धर और साले तेजकरण को देख कहा… अरे.. आओ… आओ.. अच्छी टेम पर आए…..। आप भी खाओ.. बहुत अच्छा स्वाद…
-हम खाना खाने नहीं…तुझे मज़ा चखाने आए … तेजकरण मामा ने कटार निकालते हुए ताव में कहा। फिर मामा और भाई तेज़ी से दायजी तरफ़ लपके। दायजी का कुत्ता भौंकते हुए मामा की गर्दन तरफ़ उछला। मामा ने कुत्ता की गर्दन पर कटार से वार किया और कुत्ता ज़मीन पर जा गिरा। कुत्ते की गर्दन से ख़ून की रेल भाई के पैर तरफ़ बहने लगी । दायजी उठे अपने बचाव में कुछ करते कि तब तक भाई और मामा भेड़ियों की तरह दायजी पर टूट पड़े ।
कुछ देर बाद गली में सन्नाटा था। आसमान साफ़ था। चमकीली धूप थी। घर सामने सेरी में.. दायजी चीत और अचैत पड़े थे। अचैत पड़े दायजी के सिर के बाल, दाढ़ी के बाल और भगवा कपड़े ख़ून से भीग गये थे।
दायजी से कुछ ही दूरी पर उनका कुत्ता पड़ा था और उसकी गर्दन से ख़ून बहना रुक गया था। कुत्ता से जरा आगे स्टील की वह थाली पड़ी थी, जिसमें दायजी भीगा अनाज खा रहे थे। तेजकरण मामा ने कुत्ता के गले में कटार घोंपने के बाद कटार से दायजी पर ही वार किया था।
मैंने बई से दायजी की पहलवानी और मार पीट के तमाम क़िस्से सुने थे, लेकिन उस दिन देखा कि दायजी अपनी तरफ़ से वार नहीं किया था, हलाँकि उनके पास लोहे का चिमटा, जो कि लगभग ढाई-तीन फीट लम्बा था। चिमटे में एक तरफ़ कड़ा लगा था और दूसरी तरफ़ से नुकीला था। दायजी चाहते तो चिमटा उठा कर मामा जी या भाई के पेट में फँसा सकते थे, उन्हें वहीं ढ़ेर कर सकते थे। लेकिन दायजी ने चिमटा नहीं उठाया, उन्होंने बचाव में थाली को ढाल बनाई थी। थाली में कटार से छेद हो गया था।
तेजकरण मामा और भाई मुकुट ने दायजी को मरा जान कर सेरी में ही पड़ा रहने दिया और साइकिलों तरफ़ लौट आए । मुझसे पूछा कि रामबगस मामा और मल्या मामा कहाँ है… मैंने इधर-उधर देखा… एक साइकिल कम थी । रामबगस मामा और मल्या मामा भी नहीं थे। तेजकरण मामा ने भाई मुकुट धर की तरफ़ मुस्कराते हुए कहा कि रामबगस तो फट्टु निकला…. मल्या को लेकर भाग गया ।
फिर तेजकरण मामा और भाई मुकुट धर भी साइकिल उठा कर लौट चले, मैं भाई के पीछे साइकिल पर बैठा था। जब हम वापस ननिहाल पहुँचे.. तो बई ने तेजकरण मामा से अधीर होकर पूछा- -जान से तो नहीं मार दिया… ।
-पता नहीं.. सेरी में पड़ा है… । जाकर देखो….हम तो मार कर भाग आये..। मामा ने कहा था और आगे कहा.. कभी गाँव वाले हमें घेर लेते तो… ।
-गाँव के लोग क्यों घेरेंगे.. गाँव वाले ख़ुद उससे त्रस्त है….कितनी बार तो उसे मार-पीट चुके …अच्छा चलो.. मुझे ले चलो वहाँ….। बई ने कहा था।
उस घटना की गूँज आस-पास के गाँव में गूँजी थी। पुलिस थाना तक भी गई होगी। लेकिन मामा तेजकरण व भाई मुकुट धर का कुछ नहीं हुआ था। शायद थाने वाले भी दायजी से तंग आ गए थे। शायद हर कोई चाहता था कि बद्री गेल्या मर ही जाए तो अच्छा..।
जब बई पहुँची, तो देखा कि दायजी बच गए । फिर बई, भाई मुकुट धर, सोहन धर और बहन अनसुइया उसी घर में रहने लगे, जिसमें दायजी रहते थे। बई ने सिलोटिया से जी को भी बुला लिया था। दायजी के बदन पर कटार से लगे घाव, लट्ठ से फूटे सिर को तो बई और जी ने देशी ईलाज से ठीक कर दिये थे। लेकिन एक पैर के घुटने की कटोरी फूट गई थी, जो फिर कभी ठीक नहीं हुई थी।
बई गृहस्थि की बिखरी एक-एक कड़ी जोड़ साँकल बनाने लगी। जी को दुःख तो हुआ कि उनके बेटे के साथ तेजकरण मामा व मुकुट धर ने मारपीट की थी। लेकिन जी को इस बात से सुकून भी था कि उनका बेटा जीवित था और उनके पति यानी मेरे दादा जी हीरालाल बा द्वारा उनकी जी की कड़ियाँ बेच डेढ़ सौ रुपये में ख़रीदी नागझीरी की छः बीघा ज़मीन बहू सोरम ने यानी बई ने अपनी कड़ियाँ बेच कर बचा ली थी।
मेरी दादी की आँखें कभी-कभी दादा की स्मृति के जल से भर आती थी और दादी बताती थी कि दादा जी को रुपया-पैसा, ज़मीन जोड़ने का शौक़ था। अगर दादा जी को साँप नहीं काटता और जवानी में ही नहीं चल बसते, तो इतनी ज़मीन-जायदाद भेली कर जाते कि गाँव के पटेल के पास भी नहीं होती । दादी बताती कि जब दादाजी गए, तब मेरी बुआ गौराँ कुछ माह की थी और मेरे दायजी बद्री कुछ बरस के थे। मैं सोचता कि दादी को उनके भाई पूँजराज बा सहारा नहीं देते, तो दादी पहाड़-सा रंडापा कैसे काटती और कैसे बच्चों को उछेरती ! ख़ैर..।
मेरी बई और सभी मेरे पैत्रक गाँव में रहने लगे थे, लेकिन मैं तब भी ननिहाल में ही रहता था। मैं उस गाँव, घर को स्वीकार नहीं कर पाया था। मैं वहाँ कभी-कभार ही मेहमान की तरह जाता था, तो घर सामने सेरी में ठिठक जाता था। जहाँ दायजी के ख़ून की रेल बही थीं, वहाँ मुझे उनके ख़ून की गंध आती थी। उनका कुत्ता लहुलूहान पड़ा नज़र आता था। लेकिन फिर दायजी को उनके टूटे पैर के साथ खटिया पर बैठे तमाखू-चिलम पीते देख राहत होती। मैं वहाँ कभी घंटे भर, कभी रात भर रुकता और वापस ननिहाल चला आता ।
मेरे मन में कभी उस घर-गाँव के प्रति लगाव पैदा नहीं हुआ था, जबकि घर के सदस्यों से लगाव था। हालाँकि अब दायजी और दादी तो नहीं रहे, लेकिन बई अब भी वहीं रहती है। जब कभी संभव होता, बई से मिलने भी जाता हूँ और बई को साथ भी ले आता हूँ । लेकिन यदि नौकरी के दौरना या यूँ ही बातचीत में कोई पूछता कि तुम किस गाँव के हो, तो मुँह से नहिहाल के गाँव का नाम ‘ लोहार पिपल्या ’ ही निकलता ।
मैं ननिहाल को ही अपना गाँव समझता रहा और समझता रहूँगा शायद, हालाँकि अब ननिहाल छूटे भी सत्ताइस-अट्ठाइस साल हो गए ! क्योंकि मैंने शा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, क्षिप्रा जिला देवास से कक्षा बारही पास की ही थी कि गाँव भड़ा पिपल्या वाले राधेश्याम पटेल जी की छोटी छोरी सीमा से मेरी शादी हो गई थी ! फिर मैं ज़िला पुलिस बल इन्दौर में सिपाही बन गया था। इन्दौर ही में रहने लगा था ! पिछले सत्ताइस-अट्ठाइस बरस में जीवन में बहुत कुछ बदला, नरे उतार-चढ़ाव आए, लेकिन पुलिस वाली नौकरी नहीं बदली । नौकरी में श्रेणी भी नहीं बदली । किसी और महक़मा में होता, तो शायद इतनी लम्बी सेवा के बाद तृतिय से द्वितिय श्रेणी में आ जाता। ख़ैर …।
मैं इन्दौर से जब कभी भी गाँव मकोड़िया जाता ! बई तमाम दुःख-तकलीफ़ साझा करती । कभी बरसात ज्यादा और कभी कम होने से फ़सल ख़राब होने का दुःखड़ा सुनाती ! कभी बड़े भाई मुकुट का अपने बीवी-बच्चों सहित अलग रहने की तकलीफ़ बताती ! कभी छोटे भाई सोहन के बच्चों की फ़ीस और कभी किसी के इलाज की बात कहती ! ऎसी तमाम बातों के बीच बई अपनी कड़ियाँ भी याद करना नहीं भूलती ! कलपते हुए कहती कि कड़ियाँ बेचकर ज़मीन बचाई थी कि छोरे बड़े होइंगे, तो फिर से कड़ियाँ बनवा देंगे ! मगर तीन छोरों ने तीन चूल्हे बना लिए ! ज़मीन और घर के टुकड़े बाँट लिए ! किसी ने मेरी कड़ियों के बारे में नहीं सोचा कि ज़मीन बाँटने से पहले बई के पैरों के लिए कड़ियाँ बनवा दें !
-क्या मैंने यही दिन देखने के लिए कड़ियाँ बेची थीं…? एक दिन बई ने आँखें पोंछते हुए पूछा था मुझसे ।
मैं कुछ समझा नहीं था, इसलिए पूछा कि क्या हुआ बई ?
बई ने कहा था कि शनिवार का हाट था उस दिन। मुकुट धर की मेटाडोर क्षिप्रा तक खाली जा रही थी। मैंने सोहन धर से कह कर साग-भाजी की पोटलियाँ मेटाडोर में पीछे रखवा ली और ख़ुद भी बैठ गई । मुझे और साग-भाजी की पोटलियाँ को क्षिप्रा तक मेटाडोर में ले जाता तो क्या बिगड़ जाता !
मैंने कहा कि कुछ नहीं बिगड़ता और पूछा कि उसने नहीं बैठाया क्या ?
-उसकी औरत के पेटीकोट से निकल कर आया… और मुँह उठाकर मुझसे बोला कि क्षिप्रा तक का किराया लगेगा । बई की तो जैसे आत्मा सुलग उठी और आगे बोली कि मुझसे किराया माँगा । क्षिप्रा क्या लंदन में थी, जो उसकी मेटाडोर का लाखों का तेल जल जाता। वहीं तो जा रहा था वह, वहाँ से धनिया लेकर अकोला जाना था उसे । बई रोती जा रही थी और बोलती जा रही थी कि मैंने कहा कि सौदा बेच कर आऊँगी तो किराया भी दे दूँगी। लेकिन साग-भाजी की पोटलियाँ नीचे पटक दी और मुझे हाथ पकड़ कर उतार दी।
-तू बता.. यह मेटाडोर कहाँ से लाया…। बई ने पूछा और ख़ुद ही बताने लगी कि तुझे तो याद भी नहीं… नदी किनारे ज़मीन का टुकड़ा था.. वह बेचकर मेटाडोर लाया…। ज़मीन में सबका हिस्सा था..तो मेटाडोर में क्यों नहीं ?
-तू बता… मैंने इस दिन के लिए… पाल-पोस कर बड़े किये… कड़ियाँ बेची… दाड़की करी… ये दिन देखने के लिए ! बई बिफरती जा रही थी।
-दुःखी मतो हो बई… मैं कड़ियाँ बनवा दूँगा ! पैसा आने दे ज़रा ! मेरा हाथ तंग है। मेरी तनख्मवाह कम है। मैंने कहा था और जब-जब बई दुःखी होती थी, मैं यूँ ढाँढ़स बँधाता था।
अब बई लगभग पिच्चासी-छियासी बरस की हो गई ! आँखों पर चश्मा लगाने लगी ! नकली बत्तीसी लगाती। ऊँचा सुनने लगी ! आये दिन किसी न किसी वजह से अस्पताल जाना पड़ता ! बड़ा भाई मुकुट धर नहीं रहा, देश में अच्छे दिन का जुमला उछलने से दो साल पहले ही फँदे पर झूल गया था ! उसके दो छोरे अजय व विजय हैं, जो देवास में कहीं रहते हैं ! बई, मुझसे और छोटे भाई सोहन से उनका कोई जुड़ाव नहीं बचा ! वे भी अपनी मस्ती में मस्त । अपनी मर्ज़ी के मालिक। एकदम अपने मम्मी-पापा पर गए । वे ख़ुश, सुखी और स्वस्थ रहे । यही कामना है कि उन्हें कभी न कोविड-19 छुए, न ही कभी ब्लैक-व्हाइट फंगस छुए और इनसे बड़ी बीमारी भूख कभी उनका शिकार न करे । ख़ैर.. आगे बढ़ते हैं ।
छोटा भाई सोहन मेरी थोड़ी-बहुत सुन लेता है, मगर उससे भी क्या कहूँ ! वह दो बच्चों का बाप, कर्ज़ से गले-गले भरा । स्कूल माफिया की फ़ीस… नहीं, फ़ीस नहीं, वसूली ही समय पर नहीं दे पाता। बिजली माफिया की वसूली नहीं दे पाता ! कभी, बई, उसकी पत्नी या बच्चे बीमारी की लपेट में आ जाए, तो अस्पताल माफिया चूस लेता ! सोहन का फ़ोन आए तो भीतर धुकधुकी होती कि जाने किस माफिया की वसूली चुकाने को रुपये माँगेगा ! मैं कहीं आफत-दुफत में होता और फ़ोन नहीं उठा पाता, तो वह बी. एस. उर्फ़ भँवर सिंह से मदद माँग लेता ।
मैं सोहन की मदद करने से आना-कानी नहीं करता, जो संभव हो, करता ही। लेकिन मैं भी बाल-बच्चेदार ! फ़्लैट की किस्त ! गाड़ी की किस्त ! स्कूल माफ़िया की रस्सी का फंदा मेरे गले में भी था, अस्पताल माफ़िया का इंजक्शन मेरी नस में धँसा था ! क्या-क्या गिनाऊँ, घर गृहस्थि के तमाम रगड़े-टंटे थे ! और नौकरी ऐसी कि पूछो ही मत, किसी अधिकारी से छुट्टी माँगो, तो उसे साँप सूँघ लेता । कभी एक अधिकारी छुट्टी स्वीकृत कर देता, तो दूसरा अधिकारी रवानगी नहीं देता।
मैं जब भी गाँव जाता, मग़ज़ में शहर भरा रहता। मैं बई से कहता कि तू गाँव में ख़ूब रह ली, अब मेरे साथ रहने चल । चल कि कभी अस्पताल का काम भी पड़ जाए, तो ज्यादा भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ेगी ! मैं उसे कहता कि यहाँ घर पर शौचालय भी नहीं, तुझे दिशा फ़ारिग़ होने नदी किनारे जाना पड़ता । मगर बई हाँ-हूँ करती। गाँव का मोह नहीं छूटता !
बई मेरे साथ रहने शायद इसलिए नहीं आती थी, कि मैं जहाँ रहता था, वह बिल्डिंग नाले किनारे थी, एक अनचाही गंध फ्लैट में, कपड़ों में, बल्कि ज़हन तक में महसूस होती रहती थी। वहाँ नाले किनारे हाउसिंग बोर्ड ने छः बिल्डिंग बनाई थी कि फ्लैट बेच मुनाफ़ कमाएगा ! लेकिन नाले की गंध किसी को फ्लैट ख़रीदने नहीं दे रही थी । फिर एक बरस बरसात ऐसी बरसी कि नाले किनारे से ग़रीब-गुरबों की झुग्गियाँ बहा ले गई । प्रशासन ने बेघर हुओं को खाली पड़े फ्लैट में रुकवा दिया । तीन-चार दिन में बरसात रुक गई । नाले की बाढ़ उतर गई । कई महीने-साल बीत गए, लोग फ्लैट में ही जमे रहे । हाउसिंग बोर्ड ने अनेक बार सूचना पत्र दिए । फ्लैट ख़रीदने या खाली करने का प्रस्ताव-सुझाव दिए ।
लेकिन जब लोग फ्लैट ख़रीदने या खाली करने के मूड में या स्थिति में नहीं थे, तब हाउसिंग बोर्ड पुलिस महक़मा के पास पहुँचा, पुलिस महक़मा ने कहा कि हम छः ही बिल्डिंग ख़रीद लेते हैं। सौदा तय हुआ और हाउसिंग बोर्ड को बयाना भी दे दिया। पुलिस ने बल पूर्वक फ्लैट खाली करवा लिए और अपने कर्मचारियों को रहने के लिए आवंटित कर दिए । अब पिछले तीस साल से सौदा साँप-छछून्दर की सी स्थिति में था।
बई की नहीं आने की वहज साँप-छछून्दर की स्थिति में फँसा सौदा नहीं, बल्कि यह थी कि मेरा फ्लैट तीसरी मंज़िल पर था। बिल्डिंग में लिफ्ट नहीं थी और बई की उम्र नहीं थी कि बग़ैर लिफ्ट तीन माले सहजता से चढ़-उतर सकती । बई का दमें का शरीर, जल्दी दम्मा जाता, इसलिए साथ आने में कचुआती थी। यदि कभी आ भी जाती, तो कम ही टिकती। बई को फ्लैट में बंद-बंद महसूस होता । गाँव, खेत, गाय के बछ़डे, छोटे भाई के बच्चे कुलदीप, पायल और क्षिप्रा नदी की याद सताने लगती।
लेकिन एक बार लम्बे समय के लिए फँस गई । हुआ यूँ कि बई की कमर की हड्डी में बाल बराबर फ्रेक्चर आ गया । क्षिप्रा में इलाज़ की सुविधा नहीं होने से मेरे साथ आने के सिवा कोई चारा न बचा । हम में से कोई भी बीमार पड़ता था, तो मैं भी बी एस की तरह नारायण को फ़ोन लगाता था। सर्दी-खाँसी, बुखार जैसी कोई तकलीफ़ होती, नारायण फ़ोन पर ही दवाई एस एस एस कर देता, मैं सत्या मेडिकल से दवा ले लेता और तकलीफ़ छू मंतर हो जाती ।
हालाँकि बी एस की तरह नारायण मेरा बचपन का दोस्त नहीं था, पर हाँ, पच्चीस-तीस साल पुराना दोस्त तो था ही। जब मैं पुलिस में सिपाही भर्ती हुआ था, वह भी सिपाही बना था। लेकिन वह पन्द्रह दिन में ही सिपाही की नौकरी छोड़ कर चला गया था। वह एम एस सी पास था और उसे पढ़ाई के हिसाब से सिपाही का पद छोटा लगता था। फिर घर में भी इकलौता था। पिता क्षिप्रा के प्राथमिक स्कूल में हेडमास्टर थे । खेती-बाड़ी अच्छी थी। पुलिस की नौकरी छोड़ नारायण ने डॉक्टरी का कोई कोर्स किया था और गाँव सुनवानी महाँकाल में डॉक्टरी करने लगा था। मकोड़िया से सुनवानी महाँकाल पास ही पड़ता था, तो बई भी नारायण के पास इलाज कराने चली जाती थी। मैंने बई की तकलीफ़ नारायण को बताई और पूछा कि इलाज कहाँ करवाऊँ !
– डॉक्टर बी सी शुक्ला । नारायण ने सुझाया था।
नारायण के सुझाव से ही डॉक्टर बी सी शुक्ला हमारा फैमिली डॉक्टर था। लेकिन वह हड्डी रोग विशेषज्ञ नहीं, सिर्फ़ एम बी बी एस ही था। लेकिन नारायण के सुझाव पर मैंने बई के फ्रेक्चर का इलाज़ भी शुक्ला से ही करवाया था। लगभग चार महीने और चालीस-पचास हज़ार का डुच्चा लगा था, लेकिन बई टनटनाट हो गई थी। बई ने डॉक्टर बी सी शुक्ला से जो कहा, सो कहा ही, लेकिन नारायण को भी आशिर्वाद दिए थे ।
बई की कमर ठीक हुई थी कि बई के पैर में भँवरे उग आए थे। कभी बई बिल्डिंग के सामने वाले पार्क में घूमने चली जाती ! कभी मोती बाबा मन्दिर के पार्क में चली जाती। कभी गंगेश्वर शिव मंदिर और कभी साँई मंदिर जाती। कभी सत्या मेडिकल से दमे की दवाई ले आती। बई तीन माले की सीढ़ियाँ चढ़ फ्लैट में आती, तो हँफनी शांत होने में कुछ देर लगती। कुछ देर बोल नहीं पाती, बावजूद इसके घूमने-फिरने तरफ़ से जक ( सब्र ) नहीं खाती। जब घूम-फिर कर लौटती, बई की झोली भर सूचना और क़िस्से लाती। कभी-कभी खयाल आता कि बई पढ़-लिख जाती, तो पत्रकार या क़िस्सागो होती ! थी तो अभी भी, लेकिन अभी उसकी ख़बरे और क़िस्से हम तक या ज्यादा-ज्यादा मुहल्ले तक ही सिमित थे।
एक शाम बई पार्क से लौटी और उदास स्वर में बोली कि पार्क में एक डोकरी आती है ! बिल्कुल सूखी पापड़ जैसी है ! बहोत दुःखी है बापड़ी ! उसे उसके छोरा-बहू ने घर से निकाल दी है ! घरों में झाड़ू-बर्तन कर अपना पेट पाल रही है ! सोचने में आता कि जब बापड़ी के हाथ-पैर नी चलेंगे तो क्या करेगी ! यदि जवानी में डेढ़-दो किलो चाँदी की कड़ियाँ बनवा कर पैरों में डाल लेती, तो आज छोरा-बहू उसे कड़ियों के लालच में ही, लेकिन अवेरते तो सही !
मैं हँसते हुए पूछता कि बई थारा मन में भी डर तो नहीं कि जब तू और बूढ़ी हो जायेगी, हाथ-पैर नहीं चलेंगे तो हम भी अवेरेंगे कि नहीं ! और मैं बई के चेहरे पर खिली झुर्रियों पर हिचकोले खाते भाव की लहर को पढ़ने की कोशिश करता, कभी कुछ समझ आती और कभी ज़रा भी पल्ले नहीं पड़ती।
-बीर.. आगे को टेम किने देख्यो ! बई ने थोड़ा रुक कर- थोड़ा सोच कर कहा और फिर आगे बोली- कड़ियाँ बनवा भी देगा, तो कहाँ म्हारा साथ जाएँगी ! थोड़े-बहोत दिन पहन लूँगी ! हरस पूरी हुई जाएगी ! बाकी म्हारा बाद कड़ियाँ तो तमारा ही काम आवेगी ! चाहेगी तो बुढ़ापे में सीमा पहन लेगी ! कड़ियाँ पहन गाँव भी जाऊँगी, तो थारो ही नाम होइगो ! औरतें कहेंगी कि ओ म्हारी माजी ! सोरम माय के तो उनका छोरा बंसी ने कड़ियाँ बणवई दी !
फिर एक दिन बई घूम-फिर कर आई तो मालवी में बोली, जिसका हिन्दी कुछ यों था- बंसी… मैं गंगेश्वर मंदिर गई थी… उधर सत्या की दवा की दूकान से आगे तो सुनारों की बहुत दूकाने हैं..ये कड़ियाँ भी बनाते होंगे । तू इत्ते साल से इधर रहता है.. कोई सुनार दोस्त नहीं बना ? दवा वाला सत्या तो दोस्त है तेरा… उससे पूछना कि कौन अच्छी कड़ियाँ बनाता है ?
-बई, मैं किसी को नहीं जानता। कभी काम ही नहीं पड़ा । बई से कहा था मैंने ।
मैं समझ गया था कि बई ऐसा क्यों कह रही थी ? सही भी कह रही थी कि मैं जिस क्षेत्र में रहता था, उधर ज्वेलर्स की सौ-सवा सौ दूकाने थीं। लेकिन दूकानदार सुनार नहीं थे। वे एक मंत्री के ऐसे चेले थे, जो लम्बे समय तक शराब माफिया, भूमाफिया, रेत माफिया और सूदखोर रह चुके थे। लेकिन हाँ, मेडिकल वाला सत्या ज़रूर किसी न किसी को जानता होगा ! कभी पूछूँगा…!
बई उम्र के जिस मुकाम पर थी, उस मुकाम पर कड़ियाँ पहनने की हरस ( इच्छा ), सिर्फ़ वैसा शौक़ नहीं था, जैसा कि जवान औरतों को गहनों का शौक़ होता है ! बल्कि शायद बई का सोचना था कि उसके पास क़ीमती गहना होगा, तो बुढ़ापे में सुरक्षा बनी रहेगी ! यह बात सही थी कि अभी बई अच्छे से रह रही ! मगर ज़िन्दगी का क्या भरोसा ! कल जाने किस मोड़ पर असहाय छोड़ दे ! बई के पैरों में डेढ़-दो किलो चाँदी की कड़ियाँ होगी, तो परिवार में से कोई भी देख-भाल कर देगा।
-वक़्त का क्या भरोसा..! कब किसकी मति मार दे ! पता चले कि कड़ियों की ख़ातिर मैं और सीमा मिलकर बई को मार दें ! या मेरा भाई सोहन और उसकी पत्नी रीना मार दें ! मैं बुदबुदाया था।
बुदबुदाहट की वजह थी कि ज़हन के तालाब में स्मृति के बुलबुले उठ-फूट रहे थे। रह-रह कर सोचने में आ रहा था कि कौन जाने कब किसके भीतर सोया नारायण जाग जाए ! लक्ष्मी को नातरे ले आए !
लक्ष्मी, एक आँगनवाड़ी कार्यकर्ता, एक स्त्री भर नहीं थी । लक्ष्मी अपने पिता के घर में पति द्वारा छोड़ी गई स्त्री भी थी। अपनी भाभियों की नज़र में ऐसी ननद जो अपने पति के साथ निबाह न कर सकी ! उसकी बई की उम्मीद थी कि लक्ष्मी बेटी का घर फिर से बसे । सुनवानी महाँकाल के लोग ने कहना था कि लक्ष्मी की वजह से ही नारायण की ज़िन्दगी का पहिया खड्ड में जा गिरा था। मुझे हज़म नहीं हुआ था कि लक्ष्मी या नारायण दोषी थे ! आख़िर ऐसा क्या किया था उन्होंने, आपस में प्रेम और फिर नातरा ही तो किया था।
हालाँकि जब मुझे बी एस ने बताया था कि नारायण को लक्ष्मी से प्रेम हो गया है और उस पर लक्ष्मी को नातरे लाने की धुन सवार है । मैं सम्भावित ख़तरे को भाँप कर बी एस को साथ लेकर एक दिन सुनवानी महाँकाल नारायण के पास गया था। मैंने और बी एस ने उससे बात की थी और कहा था कि तुम पचास साल की उम्र पार कर चुके हो, तुम्हारी एक बेटी है, जो मेरे पैत्रक गाँव मकोड़िया में ब्याही है। तुम्हारा एक बेटा भी है, जो शादीशुदा है और सेना में है । बई है, जिसकी देखभाल तुम्हारे ज़िम्मे है, ऐसे में नातरा करना कहाँ तक ठीक होगा ! लक्ष्मी को तुम्हारी बेटी, बेटा, बहन और बई स्वीकार करेगी या नहीं करेगी ! जाने क्या स्थिति बनेगी ! तुम ठीक से सोच-विचार कर लो, कहीं मुसीबत में नहीं पड़ जाओ !
नारायण ने कहा था कि तुम लोग जानते ही हो कि मेरी पत्नी नहीं रही, साल भर हो गया। मैं उसे भूल नहीं पा रहा हूँ। मैं बहुत अकेलापन महसूस कर रहा हूँ । बई की देख भाल भी मैं अकेला नहीं कर सकता हूँ । मैं शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ हूँ और मुझे एक साथी की ज़रूरत है।
मैं और बी एस ही नहीं, बल्कि आस-पास के गाँव वाले और नारायण के रिश्ते-नातेदार भी जानते थे कि वह अपनी ब्याहता पत्नी से ख़ूब प्रेम करता था। पत्नी को केंसर से मुक्ति के लिए इन्दौर, मुम्बई और पूना ही नहीं, डॉक्टर ने जहाँ का कहा, वहाँ लेकर गया था। नारायण ऐड़ी-चोंटी का कस व सेवा के बावजूद पत्नी को बचा नहीं सका था, घर में सिर्फ़ वह और बई ही रह गए । वह नहीं चाहता था कि अकेलापन, अवसाद और स्मृति उसका शिकार कर ले !
फिर पता नहीं कि कैसे ! कब ! कहाँ हुआ ! लेकिन हुआ यह कि मेरी बहन के ससुराल वाले गाँव चिड़ावद की आँगनवाड़ी कार्यकर्ता लक्ष्मी और नारायण के गण मिल गये। आपस में मुलाक़ात, सहमति और प्रेम की कुलबुलाहट हुई । और अंततः रस्म-रिवाज़ के मुताबिक़ लक्ष्मी को नातरे ले आया यानी अपनी दूसरी पत्नी बना ली थी।
कभी लक्ष्मी को कार में लेकर देवास, इन्दौर जाता। कभी बुलैट पर बैठाल कर चिड़ावद जाता। उम्र में नारायण से लक्ष्मी, दिलीप कुमार और सायरा बानो की जोड़ी थी । जोड़ी बहुत ख़ुश थी। लेकिन ख़ुशी नारायण की बहन, बेटी, और बेटा-बहू को हज़म नहीं हुई थी। उन्होंने सामूहिक विरोध शुरू किया। नारायण मज़बूती से लक्ष्मी के पक्ष में खड़ा होता रहा।
बेटा-बहू, बहन-बेटी के सामूहिक विरोध को झेलते हुए नारायण के मन में उपजा कि यदि कल से मुझे कुछ हो जाता है ! लक्ष्मी का क्या होगा ! उसने आँगनवाड़ी की नौकरी भी छोड़ दी है ! जो बेटा-बहू और बहन-बेटी आज उसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं, इस बात का क्या भरोसा कि मेरे नहीं रहने के बाद उसे स्वीकार कर लेंगे ! यह लोग लक्ष्मी को ख़ाली हाथ हँकाल देंगे ! नारायण की आँखों के सामने एक-एक के चेहरे घूमने लगे। विरोध स्वरूप कही नुकुली बातें ज़हन में चुभने-गूँजने लगी । नारायण ने मन ही मन निर्णय लिया और लक्ष्मी की आर्थिक सुरक्षा को ध्यान में रख कुछ खेत की रजिस्ट्री लक्ष्मी के नाम कर दी थी।
देखने में सब कुछ ठीक-ठाक ही नज़र आ रहा था । नारायण और लक्ष्मी ख़ुश थे। बई की देख भाल भी कर रहे थे। लेकिन फिर पता नहीं कि क्या हुआ ! कैसे हुआ !
मैंने अख़बार में पढ़ा कि डॉक्टर नारायण ने नतरेली पत्नी के साथ मिल अपनी बई का क़त्ल कर दिया। बई की लाश को पुलिस ने चार दिन बाद नारायण के ही एक कुएँ से बरामद की ।
नारायण व लक्ष्मी पर क़त्ल का आरोप था। कोर्ट में सुनवाई शुरू हो गई थी। अभी अपराध सिद्ध नहीं हुआ था, कोर्ट का फ़ैसला आना शेष था। लेकिन नारायण के बेटा-बहू और बहन- बेटी की नज़र में ही नहीं, बल्कि सुनवानी महाँकाल और आस-पास के गाँवों की नज़र में भी वह अपराधी सिद्ध हो चुका था। लोग यह तक कहते थे कि लक्ष्मी ने जाने कौन-सी जड़ी सूँघा दी थी कि नारायण को वही-वही नज़र आती थी।
मुझे, बी एस और डॉक्टर बी सी शुक्ला को यक़ीन नहीं था कि नारायण ने ऐसा किया होगा ! लेकिन हमारे यक़ीन होने, न होने से कहीं कोई फ़र्क़ नहीं पड़ना था, नहीं पड़ा था।
उस घटना से मैं, सीमा और बई हिल गए थे। हम पहले से ज्यादा अपनी बई की फिक़्र करने लगे थे । हम एक-दूसरे से बात करते थे कि कभी बई को किसी तरह का कष्ट नहीं होने देंगे। नारायण और लक्ष्मी की तरह कभी अपने माथे पर कलंक नहीं लगने देंगे । सोहन व उसकी पत्नी रीना से बग़ैर किसी काम के फ़ोन पर बात करते थे और बई के हालचाल पूछते थे। गाँव में अकेली बई ही नहीं, बल्कि बई की उम्र की हर औरत के भीतर धुकधुकी थी कि कहीं उनका बेटा-बहू लक्ष्मी-नारायण की तरह नहीं कर बैठे ! हम नहीं जानते थे कि बई को कैसे भरोसा दिलाएँ कि हम वैसा कुछ नहीं करेंगे ! सच यह भी था कि हम यह भी नहीं जानते थे कि हम ही कब तक अपने वादे पर टिकेंगे ! बई इतने सदमें में थी कि उसने कुछ महिनों तक कड़ियाँ बनवाने का कहना बंद कर दिया था।
हलाँकि मैं जानता था कि बई चाहती थी कि मैं कड़ियाँ बनवा दूँ ! और जल्दी ही बनवा दूँ, ताकि वह कुछ बरस पहन सके ! पहन कर इठला-इतरा सके कि लोग-बाग को दिखा सके कि उसका छोरा बंसी उसे कित्ता प्यार करता, कि उसे चाँदी की कड़ियाँ बनवा दी, कि आदी-आदी ।
फिर जब बई पुनः कड़ियाँ बनवाने का कहने लगी थी, तो उसके स्वर में पहले जैसी हक़, अधिकार वाली ज़िद या अकड़ नहीं होती, बल्कि उसके लहज़े में गुज़ारिश होती थी ।
जबकि बई का अधिकार था कि वह कान मरोड़ कर कह सकती थी कि कुछ भी करके आज-अभी कड़ियाँ बनवा ! बनवा नहीं तो गाँव की ज़मीन में से एक चाँस नहीं दूँगी । कभी-कभी तो उसकी गुज़ारिश इतने धीमें और लरजते स्वर में होती कि मैं समझ तो जाता कि बई कड़ियाँ बनवाने की कह रही, मगर सुन नहीं पाता ।
बई का संकोच करना, हिचकना और गुज़ारिश करना मुझे भीतर ही भीतर कचोटता कि मैं सत्ताइस-अट्ठाइस साल से पुलिस विभाग में नौकरी कर रहा हूँ ! मेरे साथ वालों ने बँगले बना लिए ! मोटी-मोटी गाड़ियाँ ख़रीद ली ! उनके बच्चे अच्छे-अच्छे स्कूल-कॉलेज में पढ़ रहे ! मेरे अनेक परिचित व संगी-साथी, जो अपने और अपनी प्रेमिकाओं के भी घर के खर्चे भी उठा रहे ! दुःख-सुख में दोस्तो के भी काम आ जाते ! मगर मैं… ! चार-पाँच सदस्यों के परिवार को पालने में पसीना-पसीना हो रहा हूँ। कभी लगता कि जैसे थक-हार कर अस्त हो रहा हूँ !
मैं बई को समझाता कि बई…, इन धातु के टुकड़ों में ऎसा क्या है, कि वैसे ही थोड़ा चलती-फिरती, तो थक जाती, कि कड़ियों का वजन उठाकर कैसे चलेगी, कि पैर दुःखेंगे, कि फिर आज-कल बेकारी-बेरोज़गारी इनसान से जो न करवाए कम, कि आये दिन अख़बार में छपता है कि बूढ़ी औरत घर बाहर खाट पर सो रही थी ! अज्ञात बदमाश पैर काट कर कड़ियाँ ले गए, कि खेत पर काम करती औरत के पैरों से कड़ियाँ निकाल ले गए और औरत को मार कर फेंक गए ! बई लोग के पास काम-धंधा नहीं रहा ! छीना-झपटी कुछ ज्यादा ही बढ़ रही, कि गहना पहन जान जोखिम में डालने का क्या मतलब, कि जीवन भर बहुत मेहनत की तूने कि अब खा-पी और आराम कर !
बई ने मेरी तरफ़ यूँ देखा कि जैसे दबे स्वर में पूछ रही हो कि मैं समझा रहा हूँ कि डरा रहा हूँ उसे ? कि कहीं मेरे डील ( शरीर ) में नारायण की आत्मा तो नहीं उतर आई ! फिर धीरे से कहती कि बीर तू बात तो सही कर रहा ! लेकिन जब कड़ियाँ याद आवे, तो खाने-पीने का मन भी नी होवे रे ! खोड़ली आँखें ज़रा बंद नी होवे । नींद राँड भी जाने कहाँ मुँह काला करने भाग जावे ! भूल से झपकी लग भी जावे, तो सपना में नाशमिटी कड़ियाँ ही नगेह ( नज़र ) आवे और बई आगे कहती कि कोई मार भी देगो.. तो अगो मार देगो… । वा नारायण ने उकी जी के मार दी….। नारायण को कौन-सी कमी थी। मार देगा तो…यो नाम तो होइगो कि सोरम माय के कड़ियों की ख़ातिर मार दी कि उनका छोरा बंसी ने अच्छी जबरी कड़ियाँ बनवई थी ! कड़ियाँ पहनने की हरस कर-कर के तो नी मरुँगी !
मैं बई का बर्ताव देख सोच में पड़ जाता कि कड़ियों की चाह में बई बावरी न हो जाए ! बई अपना मानसिक संतुलन न खो दे ! कड़ियों का सपना बई को दायजी की तरह गेली न बना दे ! हाँ, गेली यानी कि पागल, विक्षिप्त । दायजी के जीवन के बीस-पच्चीस बरस एक गेल्या मनुष्य के रूप में ही गुज़रे । दायजी के गेल्यापन की वजह से ही हमें ननिहाल में रहना पड़ा था। तभी मुझे ख़्याल आया कि दायजी किसी सपने का पीछा करते हुए तो गेल्ये नहीं हो गए थे ? कहीं ऐसा तो नहीं कि भीड़ से अलग ख़वाब देखना, सोचना, दिखना और जीना ही गेल्लेपन के प्रमुख लक्षण होते हैं ? क्या कुछ ऐसी ही थी दायजी के गेल्येपन की भी ख़ास वजह या कुछ और थी ? कुछ न कुछ तो रही होगी कि ख़ुशी-ख़ुशी तो गेल्ये नहीं हुए होंगे !
मैंने समय-समय पर जी, बई और दायजी के हम उम्रों के मुँह से सुना था कि दायजी का सपना अच्छा किसान होना था। खेती बहुत लगन और नये-नये प्रयोग के साथ करते थे । अपनी धुन में रहते थे । अपने मन की सुनते थे । उनसे लोग बतिया नहीं पाते थे, उन्हें कोई कुछ कहता या उनसे कुछ पूछता तो वह बदले में सिंगाजी महाराज या कबीर साहब का बंद सुना देते थे । मतलब कि उन्होंने गाँव की नाक में दम कर रखा था ।
मुझे उनके हम उम्रों से पता चला था कि मेरे जन्म से पहले दायजी ने आलू की बहुत अच्छी खेती की थी। दायजी क्षेत्र से पहले किसान थे, जो आलू का ट्रक भर कर बम्बई ( मुंबई ) बेचने गये थे। और यह भी कि एक बार दायजी ने इतने लम्बे और मोटे गन्ने पैदा किए कि जब गुड़ बनाने का मौक़ आया, तो उनके खेत का गन्ना चरखी में जा नहीं रहा था। चरखी में देने से पहले गन्ने की फाड़ करने के लिए मज़दूर लगाए थे। फिर पता नहीं क्या हुआ था कि दायजी का मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया था।
मैं जब बच्चा था और ननिहाल के बच्चों के साथ खेलता था। खेल-खेल में झगड़ पड़ते और यदि मैं किसी बच्चे को मारपीट देता । तब उस बच्चे के माँ-बाप मेरी बई से कहते कि गेल्या की औलाद को संभाल कर रखा कर । बई दुःखी होती और मुझे तबीयत से सूत देती ।
कभी-कभी बई के साथ यूँ भी होता कि मोहल्ले वाले, रिश्तेदार, या बई जिन खेतों में मज़दूरी करती, वहाँ खेत वाला या साथी मज़दूर तरस खाते हुए और सहानुभूति जताते हुए कहता कि देखो.. भगवान की अजब माया, सोरम को भगवान ने कैसे-कैसे सुन्दर नाक-नक्श की औलादें दी और खसम-धणी को गेल्या कर दिया।
मुझे कभी यह यक़ीन नहीं हुआ कि मेरे दायजी को किसी भगवान ने पागल किया था और जैसे-जैसे मेरी उम्र, समझ और दायजी के बारे में जानकारी बढ़ी, मुझे समझ में आया कि दायजी गाँव की सामंती राजनीति के शिकार हुए थे। मुझे वे पागल नहीं लगे थे, वे अपनी धुन, अपनी समझ के साथ मरते दम तक खड़े थे, लेकिन उनके साथ गाँव, घर, परिवार और रिश्तेदार में से कोई नहीं था। मैं भी नहीं, मेरी बई भी नहीं और कोई भी नहीं था। यही वजह थी शायद कि जब तेजकरण मामा और मुकुट धर ने दायजी को घर सामने सेरी में बुरी तरह पिटा, दायजी को उनके कुत्ते के सिवा कोई बचाने नहीं आया था।
मेरे मन में दायजी को जानने-समझने की ललक देर से जन्मी थी । मेरे मन में दायजी के प्रति सम्मान और प्रेम के अंकुर देर से प्रस्फुटित हुए थे। दायजी को जानने, समझने, प्रेम और सम्मान करने की लालसा से एक बार उन्हें इन्दौर ले आया था । लेकिन उन्हें इन्दौर में मेरे साथ रहना नहीं जँचा, सप्ताह भर में उनके भीतर गाजर घास की तरह उब पनपने लगी और वे किसी चरसी की तरह छटपटाते हुए मकोड़िया लौट गए थे। दायजी को ज़िन्दगी ने उम्र भर अपने तीनों बेटों के साथ रहने का सुख भले ही नहीं दिया था, लेकिन जब दायजी अंतिम यात्रा पर क्षिप्रा किनारे तरफ़ रवाना हुए, तो वक़्त ने उन्हें मुकुट, बंसी, सोहन के अलावा पूँजराजब बा के बड़े बेटे हरि का कन्धा भी बख़्शा था। दायजी खुद्दार इतने थे कि उन्हें नदी तरफ़ ले जाते हुए मेरे ख़्याल आ रहा था कि यदि अभी दायजी आँखें खोल दे… देखें कि उन्हें मैंने और हरि ने भी कन्धा दिया हुआ है…. तो संभव है कि वह मेरी और हरि की पीठ पर लात मारते हुए कहे—‘ हटो… तुम्हारे कन्धे पर मसाण में भी नहीं जाना । ’ यह ख़्याल ज़हन में ढ़ोल की तरह गूँज रहा था और मेरा दिल ढ़ोल के चमड़े की तरह काँप रहा था।
गाँव में जो कोई भी सिधारता, उसका क्षिप्रा किनारे ही दाह-संस्कार करते थे। हमरे घर से दादाजी हीरालाल बा, दादी रुकमा माय और दायजी बद्री लाल की मिट्टी क्षिप्रा के किनारे की माटी में मिली थी। फिर बरसों बाद भाई मुकुट धर को भी उसी जगह, उसी तरह माटी में मिलते देखा था। किसी दिन बई और मैं भी वहीं माटी में मिल जाऊँगा ।
मुझे जब भी दायजी की याद आती, कलेजा मुँह को चला आता । नींद चौपट हो जाती । किसी भी ब्राँड की शराब के चार-छः पैग उनकी स्मृति को विस्मृत करने में असफल होते । मैं भीतर ही भीतर भ्याँ-भ्याँ कर रोता और दायजी से माफ़ी माँगता कि मैं उन्हें समझ व संभाल नहीं पाया। मैं आज भी कितना बेबस, असक्त हूँ कि गाँव, ज़िला, प्रदेश और देश की ओछी राजनीति के शिकार लोग को दायजी की-सी विक्षिप्त अवस्था में इधर-उधर भटकते देखने के सिवा कुछ नहीं कर पा रहा । ख़ैर…. बई के पास चलता हूँ।
मैं जब भी किसी दुःख की कराड़ से फिसलता । पीड़ा के दलदली दरिया में धँसता । डुबुक-डुबुक कर स्मृति की नहर में डूबता । बई तरफ़ ही तेज़ी से भागता । वही एक ऐसा तिनका नज़र आती, जो डूबने से बचा सकती । बई सिर पर हाथ फेरती। पीठ थपथपाती। ढाँढ़स बँधाती। बई के स्नेह की ज्योति में दुःख का भारी से भारी पहाड़ कपूर के धुएँ-सा हवा में घुल जाता। बई मुझे जब-तब भले-बुरे झोंकों से बचा लेती थी। लेकिन मैं बई की कड़ियाँ पहनने की इच्छा का बाल भी बाँका नहीं कर पाता था।
बई के मन-मस्तिष्क पर जब भी पुरानी कड़ियों की स्मृति की बदरी छाती या नई कड़ियाँ गढ़वाने की इच्छा की लपट उठती । बई गुमसुम हो जाती । आँखें भीगने लगती। बई की भीगी आँखों में पुरानी कड़ियाँ खोने का दुःख, पछतावा नज़र नहीं आता, बल्कि मुझे लगता कि हम भाई-बहन कितने नुगरे हो गये। हम जिसकी वजह से हुए, उसकी ज़रा-सी इच्छा का मान नहीं रख पाए ।
मैं बई से कुछ भी हल्की-फुल्की बात करने लगता, और कुछ नहीं तो ज़िद करता कि मुझे कोई केणी,या दायजी का क़िस्सा सुना । कभी हँसी-मज़ाक करता कि बई.. तू भी क्या जब-तब कड़ी-कड़ी जपती रहती ! मेरी कोशिश होती कि बई को पुरानी कड़ियों को गँवाने की स्मृति व नई कड़ियाँ पाने की चाहत के दलदल से बचा सकूँ, कि कड़ियाँ नहीं गढ़वा सकने की अपनी बेबसी व भीतर फूटती रूलाई को रोक सकूँ ।
दरअसल मेरे मन में भी था, बल्कि दिली इच्छा थी कि फिर से कड़ियाँ पहनने की बई की हरस, हसरत पूरी करूँ ! एक बार बई के लिए दमा की दवाई लेने सत्या मेडिकल पर गया, तो सत्या से पूछा भी था कि किसी अच्छे सुनार को जानता हो तो बता ? बई के लिए कड़ियाँ बनवानी है ।
-ऎसा क्या.. देखता हूँ मैं.. सत्या ने कहा और फिर बोला- सुनार तो क्या, अपने इधर छोटा-मोटा सराफा बाज़ार ही खुल गया है.., पर जानते तो हो… सभी मंत्री के चेले हैं…। एक नम्बर के लुच्चे ।
-हाँ.. मैं तो कभी इनकी पेड़ी नहीं चढ़ा..। मैंने कहा और बोला कि मेरी शादी हुई थी, तो बई ने सीमा के लिए कुछ रकमें देवास के जमना लाल सुनार से बनवाई थी। बहन की शादी में भी जमना लाल से ही रकमें ली थीं। जमना लाल सुनार के पास ही श्यामू मासी की कड़ियाँ गिरवी रखी थी और घुली थी। जमना लाल को ही बई और जी की कड़ियाँ बेची भी थीं। सोचता हूँ कि बई की कड़ियाँ भी जमना लाल से बनवाना ही ठीक होगा । लेकिन अब जमना लाल होगा कि नहीं ! किसे पता ! कभी बी एस से पूछँगा, वह जानता होगा !
-हम्म….सत्या बोला और फिर जैसे कुछ बोलते हुए वह रुक गया । वह मुझे कुछ तनाव, किसी उलझन में उलझा हुआ लगा । जैसे कि वह मेरी सुनने के लिए नहीं, अपनी कहने के लिए रुका था। कि मैं चुप होऊँ तो वह बोले । उसकी मंशा भाँपते हुए मैंने ही आगे होकर पूछा कि -क्या हुआ सत्या ? कोई टेंशन है ?
-टेंशन नहीं यार…दिमाग़ की कड़ी-कड़ी छिन्न-भिन्न हो रही । मेरी बई है न… समझ नहीं रही.. सिरदर्द बनी हुई है । सत्या ने अपना माथा पकड़ते हुए कहा कि जैसे उस वक़्त माथा नहीं सम्भालता तो माथा फट कर उड़ जाता।
-क्यों क्या हुआ.. कड़ियाँ बनवाने के लिए कह रही क्या ? मैंने पूछा ।
-नहीं यार.. इस उम्र में कड़ियाँ पहन नया ख़सम थोड़ी करना है उसे…! वह.. मेरे घर पर कुंडली मार कर बैठी है । घर मेरे नाम कर दे, तो मैं उस पर लोन ले लूँ…! धँधा थोड़ा बढ़ा लूँ…! सत्या ने झुँझलाते हुए कहा था।
-घर तेरा है…! मैंने आश्चर्य से पूछा और धीरज के साथ कहा कि मुझे लगा था कि घर तेरी बई का होगा..!
000
मेरे मुँह से अस्पष्ट स्वर में इतना ही निकला था कि नारायण… नारायण …. नहीं.. सत्या या पता नहीं कि मैं क्या कुछ बुदबुदाया और अपने सिर पर पहनी पुलिस की टोपी उतार कर पलंग यूँ फेंकी कि जैसे वह मेरे सम्मान का नहीं, ग़ुलामी का प्रतीक थी ।
मैं तेज़ी से पीछे के कमरे में गया था, जहाँ बई थी। देखा कि बई कम्बल ओढ़ कर सोई हुई थी और अस्पष्ट-सा कुछ बुदबुदाते हुए ऐसे काँप रही थी कि जैसे मलेरिया हो गया था । टखने से नीचे बई के पैर कम्बल से बाहर झाँक रहे थे और कड़ियाँ चम-चम चमक रही थीं। मैं बई की पलंग के पास गया और कम्बल को पकड़ बई की कड़ियों के ऊपर तक खींच दिया था। बई को बुखार तो नहीं आ गया, यह देखने के लिए, मैंने बई के चेहरे से कम्बल हटाया और उसका भाल, गाल, गला छूने को हाथ बढ़ाया… तो बई की आँखें फैल गई । जैसे कि मैं उसका गला दबाने वाला था !
-नारा…… नारायण…सत्या… पास मत आ..दौणी फोड़ दूँगी… हट.. हट नासमिटे… बई बड़बड़ाने लगी और पास रखा काँसा का लोटा फेंक कर मेरे भाल पर मार दिया था और जब मेरी सितकार फूटी… मेरे मुँह से निकला- ओ.. बई….।
जैसे ही बई के कान में मेरी सितकार- ‘ओ बई ’ पड़ी थी । बई के कंधे पर धरे गुलदस्ते का कुछ रंग बदला और बई मुझे कुछ ग़ौर से देखने लगी थी। जैसे कि मेरे चेहरे को नहीं, बल्कि अंतस को पहचानने-भाँपने की कोशिश कर रही थी ।
-मैं… मैं.. मैं… नारायण नहीं… मैं सत्या नहीं… मैं बँसी हूँ… तेरा छोरा.. बँसी…। मैं बई के क़दमों पर माथा धर रोते-रोते यक़ीन दिलाने की कोशिश करने लगा था कि नहीं… मैं नारायण नहीं हूँ… सत्या नहीं हूँ । कि मैं कभी नारायण-या सत्या नहीं बन सकूँगा..। मैं बँसी हूँ… तेरा बँसी..। थारो बन्स्यो..।
-बन्स्या.. तू अई ग्यो..। बई ने अपनी आँखें मिचमिचाते और मलते हुए पूछा और फिर जोर से रोती हुई बोली कि बन्स्या कड़ियाँ चावे.. तो ली ले.. सुनार के बुलई ले… बेटा.., पग मत काट जे रे… म्हने थारे जनम द्यो है….। पाल्यो-पोस्यो है ।
बई की मनःस्थिति और मेरी रुलाई देख पूरा घर रो रहा था और घर की कड़ी-कड़ी जुड़ रही थी।
सत्यनारायण पटेल
जन्म 6 फ़रवरी 1972
प्रकाशित कृतियॉं
उपन्यास -गॉंव भीतर गॉंव (2015)
कहानी संग्रह –
1- भेम का भेरू मॉंगता कुल्हाड़ी ईमान (2008)
2- लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना (2011)
3- काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस (2014)
4-तीतर फॉंद (2018)
संपादन-त्रेमासिक पत्रिका ‘बया’ के कुछ अंकों का संपादन
पुस्तिका -लाल सलाम एक और दो का संपादन
ब्लॉग संपादन -बिजूका ब्लॉग
पुरस्कार -वागीश्वरी सम्मान 2008 भोपाल (म प्र ), प्रेमचन्द स्मृति कथा सम्मान 2011 (उ प्र )
पता -M-2/199अयोध्या नगरी (बाल पब्लिक स्कूल के पास) इन्दौर
संपर्क -bizooka2009@gmail.com
Discover more from रचना समय
Subscribe to get the latest posts sent to your email.