1
तेरा पड़ोस
(किसी भी बच्चे के लिए)
तेरे जन्म के वक्त
जितना ज़रूरी था मां के स्तनों में दूध उतरना
उतना ही ज़रूरी था पड़ोस
एक स्तन को छोड़
दूसरे को मुँह लगाने जितना पास
यह पड़ोस
मां का ही विस्तार है
घुटनों घुटनों सरक कर पड़ोस में जाना
धरती नापने की शुरुआत है
पड़ोस तुझे क्षितिज की तरह लगता
कितने सारे रहस्यों भरा और पुकारता
वहां तेरी हर इच्छा के लिए “हां” है,
जब जब घर तुझे रुलाता
तेरे आंसू पोंछने पड़ोस भागा चला आता
तेरे लंगोट पड़ोस की तार पर सूखते
और जब तू लौटती है घर
तेरे मुंह पर दूध या भात चिपका होता
वहां की कोई न कोई चीज
रोज़ तेरे घर चली आती
तू अपना घर पड़ोस को बताती
और पड़ोस पूछने पर अपना घर
बचपन के बाद यह बर्ताव
हम धीरे-धीरे भूल क्यों जाते हैं?
**
2
समय और बचपन
(चिंपुडा के लिए )
उसने मेरी कलाई पर
टिक टिक करती घड़ी देखी
तो मचल उठी वैसी ही घड़ी के लिए
उसका जी बहलाते
स्थिर समय की एक खिलौना घड़ी
बांध दी उसकी नन्ही कलाई पर
पर घड़ी का खिलौना
मंजूर नहीं था उसे
टिक टिक बोलती, समय बताती
घड़ी असली मचल रही थी उसके हठ में
यह सच है कि बच्चे समय का स्वप्न देखते हैं
लेकिन मैं उसे समय के हाथों में कैसे सौंप दूं
क्योंकि वह एक कुख्यात बच्चा चोर है
तभी उसकी ज़िद ने मेरी कलाई पकड़ ली
बच्ची की आंखों में जीवन की सबसे चमकदार चीज़ थी : कौतूहल
और मेरे पास क्या था ? – खुरदुरा, घिसा पिटा : अनुभव
जो मुझे डराता ज़्यादा था
ऐसा अनुभव किस काम का जो
बच्चों का कौतूहल ही नष्ट कर दे
हो सकता है बच्चों की संगत से
समय बदल जाए
मैंने टिक टिक करती असली घड़ी
बच्ची की कलाई पर बांध दी
और समय उस के हवाले कर दिया।
**
3
गौरा देवी : पेड़ों का एकालाप
(चिपको आंदोलन से प्रेरित)
सोचा नहीं था यह कभी
मनुष्य हमें प्रकृति की तरह नहीं
रास्तों की रुकावट की तरह देखेगा।
एक दिन अचानक
हमारी मौत का फ़रमान लिए
सरकार के कारिंदों का काफ़िला
घुस आया था हमारे विजन में
और थर्रा गई थी रेणी गांव की वादी
उठा था एक बवंडर-सा
और घिर गए थे हम बुरी तरह
यह विकास का तेज़ अंधड़ था
वास्तव में ‘विकास’ से बड़ा भ्रामक शब्द नहीं कोई
उसे आईना दिखाओ तो ‘विनाश’ का प्रतिबिंब बनता
पेड़ों से बड़ा जीवन मूल्य जिनके लिए –
सड़क है
वे कुल्हाड़ियां लहराते
जंगल को दहलाते आए
क्रूरता के अट्टहास में चमक उठी थी
कुल्हाड़ियों की तीखी धार, आरियों के पैने दाँत
वे चीथ डालने को व्यग्र थे
जीवन का संगीत
हम घिर चुके थे
हम मृत्यु से बस कुछ कदम दूर थे
अगर पूछी जाती हमारी अंतिम इच्छा :
शेष बचे पलों में अनंतकाल की छाया बरसा जाते
लेकिन समय का आखिरी पत्ता भी झरने को था
हम घिर चुके थे
हम भाग नहीं सकते थे
हमारी जड़ें, न सिर्फ़ मिट्टी में
बल्कि पहाड़ों के स्वप्न में धंसी थीं,
यहां की हर एक आवाज़ में धंसी थीं हमारी जड़ें
हम घिर चुके थे
कुल्हाड़ियां काल की जीभों सी लपलपाई थीं
तभी … हां तभी
बिजली की गति से
कुछ स्त्रियां दौड़ती आईं
और लिपट गई हमसे
हम अवाक
हम चकित
हम स्तब्ध, रोमांचित
वे चिपक गई थीं हमसे
हम पेड़ : धरती और आकाश के बीच पुल बनाने वाले
स्त्रियों की बाहों में
अबोध शिशु से ज़्यादा कुछ नहीं थे
हमारे रेशे रेशे की थरथराहट को
उनकी भुजाओं में बहता आवेशित रक्त
थपकियां देता रहा
उनके वक्षों की गर्मी से हमारा खुन जमने से बच गया
और हमने ठीक मौत के साये में
गहरी साँस ली
वे चिपक गई थीं हमसे
जैसे शब्द चिपक जाते हैं पन्नों से
और उन्हें चिरजीवी बना देते हैं।
हमने देखा कि राखी
केवल बांधती भर नही है स्त्री
वक्त आने पर राखी की तरह बंध भी जाती
और मृत्यु को टलना पड़ता
पूजा अनुष्ठानों पर मन्नतों का रंगीन कलावा
बांधने वाली स्त्रियां
स्वयं कलावे की तरह लिपट गई थीं हमसे
हमारा कर्म, हमारा स्वभाव है – उत्सर्ग
कोई हमारे लिए उत्सर्ग करे
यह आकांक्षा पेड़ नही पालते
हमने चिपकी हुई स्त्रियों को देखा
: स्त्री वृक्ष की तरह दिखी
हमसे भी विशाल वृक्ष
जीवन और कविता के बीच पुल बनाता
एक अनंत वृक्ष
हमने देखा
उन्हें धारदार कुल्हाड़ियों का तनिक भी डर नहीं था
उनके पास हथियार के नाम पर कंकर भी नहीं था
जिसके मन में हो संकल्प
उसे न कवच चाहिए, ना ही खड्ग
वे चिपकी हुई थीं हमसे
वे हर वार सहने को तैयार थीं
वे बस मरने को, सिर्फ मरने को तैयार थीं
और कैसी करुण दशा थी हमारी
जड़ों तक फैली हुई थी लाचारी
हम चाहते थे, झुककर उठा लें उनको
हमारी वजह से उनका रक्त क्यों बहे
जिनके रक्त को हमने अपने रक्त से सींचा था
वे चिपकी हुई थीं हमारे इर्द गिर्द
कभी कुल्हाड़ियों से विनती करती
कभी उन्हें सख्त चेतावनी देतीं —
“ये पेड़ नहीं, मायका है हमारा
हमारे जीवन की सीवन उधेड़कर देखो
पेड़ों के अलावा कुछ नहीं मिलेगा
यहां के हर एक बाशिंदे में उतर गई हैं पेड़ों की जड़ें
हम पेड़ों में बदल गए हैं
आओ, चलाओ अपनी कुल्हाड़ी
और काट डालो हमें
ये जितनी औरतें, बच्चे, आदमी
पेड़ों से चिपके खड़े हैं
ये सभी पेड़ हैं
आओ, चलाओ अपनी कुल्हाड़ी
और काट डालो इन्हें”
यह गुहार थी, गर्जना थी, चेतावनी थी
पेड़ों के लिए भी सत्याग्रह होगा …(?!)
हम खड़े थे भावविह्वल
रोम रोम अश्रु और कृतज्ञता से भीगा था
और…
हमे मारने के लिए उठा तमाम लोहा
उन स्त्रियों के अंगार से गल चुका था
**
चिपको :
इससे बड़ा कोई मंत्र नहीं
कोई धर्म ग्रंथ नहीं
यह ध्वनि हमारी स्मृतियों से
हमारे रेशे रेशे से चिपकी हुई है
कर्ण के कवच – कुंडल की तरह।
हमें नहीं चाहिए विराट पौधारोपण का दिखावा
हमेँ चाहिए कुछ लोग –
जो हमारे साथ खड़े रह सकें, हमेँ गोद ले सकें
जो वक़्त आने पर हुंकार उठें -चिपको
अब तो चिपक जाना होगा हवा से भी
अपनी नदियों से भी
समूची पृथ्वी से चिपक जाना होगा अब
कितना महान दिन होगा वह
जब हम सब मिलकर गोद ले लेंगे पृथ्वी को।
**
4
तानपूरे पर संगत करती स्त्री
पहले पहल उसी को देखा गया
सांझ में चमके इकलौते शुक्र तारे की तरह
उसी ने सबसे पहले
निशब्द – नीरव अंतरिक्ष में स्वर भरे
और अपने कंपनों से
सन्नाटे पर बुहार दी झाड़ू
और सींच दिया
ताकि बोया जा सके जीवन
वह अपनी गोद में
एक पेड़ उल्टा लिए बैठी है
इस तरह उसने एक आसमान बिछाया है
उस्ताद के लिए
वह हथकरघे पर
चार सूत का जादुई कालीन बुनती है
जिस पर बैठ राग उड़ान भरता है
हर राग तानपूरे के तहखाने में रहता
वह उंगलियों से उसे जगाती है
नहलाती, बाल संवारती
काजल आंजती, खिलाती है
अपनी रचना को मंच पर फलता -फूलता देख
वह नेपथ्य से हौले हौले मुस्कुराती है
उसे न कभी दुखी देखा
न कोई शिकायत करते
वह इतनी शांत और सहनशील
कि जैसे बिम्ब हो पृथ्वी का :
कितनी निर्लिप्तता है उसमें
कि दर्शकों के देखते – देखते
ओझल हो जाती है।
**
5
कॉफी हाउस में लड़की
समूचा कॉफ़ी हाऊस ग़र्क़ था
अपने-अपने इडली–वडों, प्यालियों, मोबाइलों, थोड़ी-बहुत बातों में
ऑर्डर देने, बिल पँहुचाने, टेबिल पोंछने में ग़र्क़ :
दुनिया का जहाज़ शांत समुद्र पर धीरे -धीरे बढ़ रहा था
कि
तभी एक नौजवान लडकी वहाँ होती है दाख़िल
उसकी उम्र ही उसकी सुंदरता है
एक अजीब-सी खुशी से सराबोर वह
मुस्कुराहट इतनी शफ़्फ़ाफ़ कि किसी और ही दुनिया की लगे
आत्मविश्वास इतना कि चकित हों वीर-प्रतापी
वह अकेली हुई थी दाख़िल उस कॉफी हाउस में
वहां मौजूद सभी गर्दनें उसकी ओर मुड़ गयी थीं
जैसे पानी की सतह पर ज़रा-सी हलचल से मुड़ती हैं बगुलों की गरदनें
सभी के हाथ जहाँ थे, रुक गये थे वहीं
उनकी बातें जिस शब्द पर रुकी थीं, वही ध्वनि टंगी थी वहाँ
सभी ने जड़वत समय में से उसे देखा
तभी सबकी निगाहें एक साथ उछलीं दरवाज़े की ओर
सबको था एक यकीन का इंतज़ार
आता होगा कोई लड़का पीछे-पीछे
प्यालियाँ, इडली-वडे, मोबाइल और तश्तरी में फरफराते बिल –
इस स्तब्धता को सूंघ रहे थे.
युवती ने एक निगाह डाली पूरे हॉल पर
और खिड़की किनारे की गोल टेबल चुनकर
बैठ गयी इत्मिनान से
खिड़की के बाहर एक पेड़ था – कँवली पत्तियों से जगमगाता
वह चिड़ियों के शोर में खो गई
एक अकेली लड़की इतनी निर्भय–निर्द्वंद्व कैसे हो सकती है?
वहाँ मौजूद सभी आँखें उसे घेरे हुए थीं
उनके हाथ जहां के तहाँ अब भी रुके हुए
बातों की ध्वनियाँ हवा में टँगी हुईं
सब कुछ स्तब्ध अभी भी
सबके भीतर एक ही उलझन थी
कोई तो मालिक होना ही चाहिए लड़की का ?
सबकी गर्दनें दरवाज़े की तरफ़ फिर घूमीं
सबको था भरोसा – ‘वह’ आता होगा,
गाड़ी पार्क करने में वक़्त लगता है कभी-कभी
या आ गया होगा किसी का फोन
सभी की नज़रें उसी तरफ़ अटकी रहीं
वेटर ने पानी के दो गिलास लड़की के सामने रखते हुए
उसे पढ़ने की कोशिश की – प्रेम की भाप से तर वह चेहरा
वहाँ मौजूद निगाहें फिर लड़की की तरफ़ झपटीं
– “क्या यह हमारे ही समाज की नागरिक है? ”
दूसरा गिलास पीते हुए उसने खुद को दोगुना महसूस किया
उसने जैसे ही पर्स से मोबाईल निकाला
वहाँ पसरी स्तब्धता टूटी या कहें कि हताशा टूटी
सभी का एक आदिम भरोसा फिर लौटा –
किसी को बुला रही होगी –
प्रेमी न सही दोस्त ही हो
या कोई भी पुरुष रिश्तेदार –
कोई पुरुष होना तो चाहिए ही
पर है क्यों नहीं
बहुत असुविधाजनक था यह
मगर देखा सबने कि वह सेल्फ़ी लेने लगी है
सेल्फ़ी में वह पेड़ है चिड़ियों से चहचहाता,
आईसक्रीम है, कविता की किताब है
और है उसका सुंदर एकांत
समय बहुत बीत चुका और सबके लिए असहनीय होता जा रहा अब
यह किसी के अनुभवों में नहीं था, ना ही था स्वप्न में
कि कोई लड़की इस तरह स्वतंत्र हो
मर्ज़ी से अपनी कहीं भी आती-जाती,
खाती पीती हो,
मर्ज़ी का करती हो काम
सबके भीतर जड़ें हिल गयी थीं बुरी तरह
भयानक बौखलाहट फैली थी वहाँ
कुढ़न और फुसफुसाहट भर गयी थी
“संस्कार…कायदे…मर्यादा…
लज्जा…इज़्ज़त…औरत…”
लोग उठे तैश में,
कुछ बिल अदा किए बिना, सिर धुनते निकल गए
लड़की की टेबिल पर खाली प्लेटें और मग्गों के बीच
कुछ पढी गयी किताबें थीं, कुछ लिखे हुए पन्ने, कुछ विचारा हुआ समय और कुछ याद की गई स्मृतियाँ और
थोड़े समय में कई सदियाँ जी लेने जैसा संतोष —
वह भरी हुई थी
वह उठी और बाहर निकली
जितने बचे रह गए थे वहाँ, सभी उठे
एक आखिरी मौके की तलाश में
अधखाई सूखी प्लेटों- चम्मचों, उदास मोबाइलों, टँगी ध्वनियों के साथ उठे
लड़की का पीछा करते हुए वे जुलूस की तरह लग रहे थे
वे भूल चुके थे कि उनके भी घर थे, काम थे।
वह जिधर जाती भीड़ उधर हो लेती
उसने देखा,
एक विशाल फूल की तरह खिल उठी है शाम
उसके भीतर कई तितलियां फरफराईं
सृष्टि के इतिहास में शायद ही कहीं अंकित हो
स्त्री को रस लेते हुए देखने का दृश्य
लड़की चली जा रही थी अपनी बनाई राह पर
भीड़ ठिठक गयी थी, उसके लिए वह दिशा एकदम नई थी।
**
6
प्रेम की अनिवार्यता
बहुत असंभव से आविष्कार किए प्रेम ने
और अंततः हमें मनुष्य बनाया
लेकिन अस्वीकार की गहरी पीड़ा
प्रेम के हर उपकार का
ध्वंस करने पर तुली
दिया जिसने
सब कुछ न्योछावर कर देने का भोलापन,
तर्क ना करने की सहजता
और रोने की मानवीय उपलब्धि
प्रेम ने हमारी ऊबड़ – खाबड़ जाहिल-सी भाषा को
कविता की कला सिखाई
और ज़िन्दगी के घोर कोलाहल में
एकांत की दुआ मांगना
संभव नहीं था प्रेम के बिना
सुंदरता का अर्थ समझना
प्रेम होना ही सबसे बड़ी सफलता है
कोई असफल कैसे हो सकता है प्रेम में.
**
7
प्रेम में भाषा
ये प्रेम के शुरुआती दिन हैं।
इन दिनों से ज़्यादा संवेदनशील
और दुविधापूर्ण कुछ भी नहीं
कैसी अजीब बात है कि
इन दिनों का सारा दारोमदार टिका है भाषा पर।
कितनी सतर्कता से चुनना पड़ते हैं शब्द
कि जैसे वे शतरंज के मोहरे हों
शब्दों के अर्थ से ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है आशय
इन्हीं दिनों समझने लगा हूँ
मैं शब्द चुनता हूँ एकदम अपनी भावना के नजदीक के
लेकिन बहुत नज़दीक के भी नहीं
क्योंकि यह कोई निशानेबाज़ी नहीं है
एक असमाप्त मैराथन है
प्रेम करते हुए पता चलता है
कि व्यंजना का कोई जादू भी होता है शब्द में
कोई असंगत शब्द अचानक पर्यायवाची लगने लगता है।
अगर भाषा की तमीज़ सीखना चाहो
तो प्रेम करके ज़रूर देखो।
**
8
उनका घर
आग बरसाती दोपहर में
तगारियां भर भर कर
माल चढ़ा रहे हैं जो ऊपर
घर मेरा बना रहे हैं ।
जिस छत को भरते हैं अपने हाड़ और पसीने से
वे इसकी छांव में सुस्ताने कभी नहीं आएंगे
इतनी तल्लीनता से एक एक ईंट की,
रेत मसाले की कर रहे तरी
वे इस घर में घूंट भर पानी के लिए नहीं आएंगे
दूर छांव में खड़े हो देखता हूं
वे सब पक्षियों की तरह दिन रात
जैसे अपना ही घोंसला बनाने में जुटे हुए
उनको शुक्रिया कहने का ख्याल भी मुझे नही आयेगा
एक दिन
सीमेंट चूने गारे से लथपथ
यूं चले जायेंगे वे, जैसे थे ही नहीं
मुझे तसल्ली होगी कि उन्हें
मेहनताना देकर विदा किया
लेकिन उनका बहुत सा उधार
इस घर में छूट जाएगा।
**
9
पेड़ का लौटना
जब किसी दिन अचानक
एक गंध तिरने लगती है दिशाओं में
उजागर होने लगता है कोई रंग
जान लो, ऋतु ने जगा दिया है पेड़ को
कैसा चमत्कार है यह
पेड़ जो था सबके सामने, सबके बीच
किसी की नज़र में नही पड़ा
जैसे अपनी ही जड़ों में उतर गया हो
अब हुआ है प्रकट तो
जोर शोर से उत्सव हो रहा है पेड़
संसार का सामान्य नियम है
जो व्यक्त होना बंद हो जाए
उसे मृत मान लिया जाये
लेकिन ऋतु एक निष्प्राण -से पेड़ को
जीवन से भर देती है दुबारा
हम भी तो पेड़ों की तरह हो जाते हैं अदृश्य
किसी ऋतु की प्रतीक्षा में, एक रचना की अभीप्सा में
**
10
धूल
धीरे-धीरे साथ छोड़ने लगते हैं लोग
तब उन बेसहारा और यतीम होती चीजों को
धूल अपनी पनाह में लेती है
धूल से ज्यादा करुण और कोई नहीं
संसार का सबसे संजीदा अनाथालय धूल चलाती है
काश हम कभी धूल बन पाते
यूं तो मिट्टी के छिलके से ज़्यादा हस्ती उसकी क्या
पर उसके छूने से चीजें इतिहास होने लगती हैं
समय के साथ गाढ़ी होते जाना –
धूल को प्रेम की तरह महान बनाता है
ओह, हम हमेशा उसे झाड़ देते रहे
बिना उसका शुक्रिया अदा किए।
**
11
गार्ड की पेटियाँ
कुछ चीजों का रहस्य हमेशा बना रहे
जीवन को इतनी छूट देनी चाहिए ।
एक दौड़ती-भागती, बदहवास दुनिया है –
रेल्वे प्लेटफॉर्म
रेल आने पर यहाँ सब कुछ बाढ़ से पूरमपूर ।
इतनी भागमभाग में
कौन स्थिर बैठ सकता है भला ?
प्लेटफॉर्म का सारा बहाव गुज़र जाने के बाद
नदी तल की चट्टानों की तरह
उभर आती हैं –
गार्ड की पेटियाँ
और विस्मय की एक दुनिया खुलती है ।
उनके चेहरे कितने बेफ़िक्र लगते हैं
कितने यक़ीन से भरी हैं उनकी मुस्कुराहट
जबकि हर किसी की आँखों में संदेह यहाँ
लोग अपना सामान काँख से नीचे उतारते डरते हैं ।
जब बैठने की हर जगह भर जाती
वे ख़ुद को कुर्सियों की तरह खोल देती हैं,
चटाइयों की तरह बिछा देती हैं ।
मैं सालों तक सोचता रहा कि
वे पड़ी हैं या रखी हैं ?
वे कब और कौनसी रेलों में चढ़ जाती हैं ?
उनमे क्या – क्या सामान भरा होता है ?
अगर कोई उन्हें चुराकर भागने लगे
तो क्या वे उसे ही आवाज़ देंगी
जिसका नाम लिखा है उन पर
क्या वे कभी घर भी जाती होंगी ?
मैंने एक दिन जिज्ञासावश उन्हें खोलना चाहा
फिर सोचा –
कुछ उत्तर जो हम पा सकते हैं
अगर प्रश्न ही बने रहें
तो हमारी कल्पनाएँ
हमें ज़िंदा रखने में ज़्यादा मददगार होंगी
मैंने विदा लेते हुए उन्हें थपथपाया
सुनसान पड़े प्लेटफॉर्म पर गार्ड की पेटियां
प्रतीक्षा का सबसे सुंदर उदाहरण लग रही थीं ।
**
12
आकाश देखता हुआ व्यक्ति
व्यक्ति आकाश को देख रहा है!
सुना आपने?
एक व्यक्ति आकाश को देख रहा है
यह देख पूरी धरती तरंग में बदल गयी
आकाश …आकाश…आकाश!
और आकाश प्रेम से इतना भर गया है
कि व्यक्ति के एकदम सामने आ गया है
व्यक्ति पूरी तरह आकाश में डूबा हुआ है
मैं दावे से कह सकता हूँ
वह जीवन में पहली बार देख रहा है आकाश
और मैं इस दुर्लभ दृश्य की सूचना
हर एक को देने के लिए दौड़ता हूँ
मैं कहता हूँ- तुम भी देख सकते हो आकाश
तुम्हें भी देखना ही चाहिए आकाश
किस जाल में फँसी हैं तुम्हारी गर्दनें?
———————————————————
हेमंत देवलेकर
11 जुलाई, 1972 को जन्म।
उज्जैन से रंगकर्म और कविता की शुरुआत। 2007 से प्रख्यात रंग निर्देशक अलखनंदन जी के निर्देशन में भोपाल में रंगकर्म। 2011 से युवा रंग निर्देशक सौरभ अनंत के निर्देशन में अभिनय, गीत लेखन , संगीत निर्देशन में सक्रिय।
दो कविता संग्रह *हमारी उम्र का कपास* और *गुल मकई* प्रकाशित। नाटकों का लेखन भी। लेखन व संगीत की कार्यशालाओं का संचालन।
वागीश्वरी सम्मान, शशिन सम्मान, युवा स्पंदन सम्मान।
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बहुत बढ़िया हेमंतजी
आदरणीया राजश्री जी, कविताओं को पढ़ने और सराहने के लिए धन्यवाद
सुंदर बिंबों, दृश्यों संवेदनाओं, रंगों और खुशबूओं की कविताएं! मानो हेमंत कोई तस्वीर रच रहे हैं और हम सब उन रंगों, दृश्यों, संवेदनाओं में उतरते चले जा रहे हैं. सलाम तुझे कवि!
अमीता जी, विनम्र आभार, आपने कविताओं को अपना समय और प्रेम दिया
अलग भाव बोध की और सहज वर्णन में गहरी कविताएँ!
हेमंत देवलेकर की कविताओं से गुज़रना मानवीय चेतना के उन लुप्तप्राय व्यवहार और संस्कार से गुज़रना है जिनकी बुनियाद पर परिवार,समाज, दुनिया ही नहीं समूची सृष्टि टिकी है।फिर भी अवहेलना करना हमारा स्वभाव बनता जा रहा है।
हमने इतनी तरक़्क़ी कर ली कि पड़ोसी धर्म निभाने की प्रथा ख़त्म हो गई। बच्चों से बचपना और मासूमियत छीन ली जैसे – जैसे हम प्रगति के पथ पर अग्रसर हैं वैसे – वैसे हमारी भावुकता समय की कब्र में दफ़न होती जा रही है।
‘ वो अनुभव कैसा जो कौतूहल को नष्ट कर दे’
पेड़ों का एकालाप ( गौरा देवी) चिपको आन्दोलन से प्रेरित इस कविता में बहुत सी पंक्तियां हैं जो मनुष्य के मनुष्यत्व की मुनादी करतीं हैं। प्रकृति का अस्तित्व भी मनुष्यता के संरक्षण में ही सुरक्षित है।
‘ विकास के भ्रामक शब्द के आइने में विनाश का प्रतिबिम्ब दिखता है’
जिस तरह स्त्रियों ने वृक्षों से चिपक कर उनका बचाव किया ये प्रमाण है-
‘स्त्री केवल राखी बांधती नहीं है वक्त आने पर बंध जाती है राखी की तरह’ इसमें छुपी होती है उसकी गुहार, गर्जना और चेतावनी।चिपको वृक्ष से ही नहीं अब हवा, नदियों और समूची पृथ्वी से चिपक जाना होगा हम सबको मिलकर पृथ्वी को गोद ले लेना होगा तभी आने वाले समय का कल्याण संभव होगा।
‘तानपुरे पर संगत करती स्त्री:’वह अपनी गोद में एक पेड़ उल्टा लिए बैठी है शांत और सहनशील जैसे पृथ्वी ‘ सुंदरतम बिम्ब की कल्पना।
कॉफी हाउस में लड़की ,महिलाओं के जीवन में आए बड़े बदलाव को इंगित करती है।
मज़दूरों के प्रति सहिष्णुता और संवेदनशीलता को व्यक्त करती है- ‘उनका घर’,
प्रेम की अनिवार्यता प्रेम में भाषा, पेड़ का लौटना, धूल, गार्ड की पेटियां, आकाश देखता हुआ व्यक्ति, उन संवेदनाओं को चिन्हित करती हैं जिन्हें हम नज़रअंदाज़ कर एक ख़ुशफ़हमी में जीने के आदी होते जा रहे हैं। न सोचना चाहते हैं न समझना इन्हीं खोये हुए मनोभावों में कंपन पैदा कर चैतन्य करती हैं ये कविताएं।
ख़ुदेजा ख़ान
बहुत शुक्रिया अग्रज कवि का
अग्रज कवि साथी, हार्दिक आभार। आपने कविताओं को पढ़ा और सराहा। शुभेच्छा आपको भी
आदरणीया ख़ुदेजा जी, शुक्रिया तहे दिल से। आपने इन कविताओं को समय दिया, प्रेम दिया और टिप्पणी की। हौसला अफ़ज़ाई के लिए विनम्र आभार।
कवि आशीष दशोत्तर जी की टिप्पणी यहाँ चस्पा कर रहा जो उन्होंने फेसबुक पर साझा की है :
“*समय से संवाद करती हेमंत की कविताएं*
कविता हमारे भीतर से बाहर आने के लिए बेचैन रहती है। यह किस रूप में आती है ये कहना मुश्किल है परंतु अचानक कुछ ऐसा होता है कि भीतर से कविता प्रस्फुटित होती हुई एक आकर ले लेती है । युवा कवि हेमंत देवलेकर के यहां भी कविता इसी स्वाभाविकता से आती है । कीट्स ने तो कहा भी है *’ कविता उसी स्वाभाविकता से आनी चाहिए जिस तरह पेड़ों पर पत्तियां आती हैं ।’*
हेमंत की कविताओं से गुज़रते हुए यह महसूस नहीं होता कि ये सायास कही हुई कविताएं हैं । जैसे हमारा आसपास हमारे बीच बग़ैर कहे उपस्थित हो जाता है उसी तरह ये कविताएं भी हमारे जीवन में शामिल हो जाती हैं । हेमंत की कविताओं के अक़्स भी बहुत पेचीदा नहीं होते । वे बहुत सामान्य सी बात को लेकर बहुत गंभीरता तक चले जाते हैं । बचपन को लेकर उनकी कविताएं इस मायने में बहुत महत्वपूर्ण हैं ,जिसमें वह कहते हैं-
*बचपन के बाद यह बर्ताव*
*हम धीरे-धीरे भूल क्यों जाते हैं?*
हमारे बीच से बचपन धीरे-धीरे ख़त्म होता जा रहा है और हम बहुत जल्द बड़े होने की चाह में अपना सब कुछ होते जा रहे हैं । शायद हेमंत की चिंता भी हमें इसी और इंगित करती है। बचपन ही नहीं हम अपनी प्रकृति से भी बहुत दूर होते जा रहे हैं । प्रकृति का दोहन , उसके प्रति हमारी निष्ठा हमें एक ऐसे दौर में ले जा रही है , जहां बहुत कुछ पीछे छूटता जा रहा है। हेमंत अपनी कविताओं के ज़रिए हमारी प्रकृति से भी हमें वाबस्ता करते हैं और चिपको आंदोलन जैसे मूवमेंट को केंद्र बनाकर यह संदेश देते हैं –
*अब तो चिपक जाना होगा हवा से भी*
*अपनी नदियों से भी*
*समूची पृथ्वी से चिपक जाना होगा अब*
*कितना महान दिन होगा वह*
*जब हम सब मिलकर गोद ले लेंगे पृथ्वी को।*
यह सही है कि इन सबसे एकाकार हुए बिना बहुत कुछ नहीं बचाया जा सकता। ब्रेख़्त ने अपनी कविता के बारे में एक शेर की नक्काशी को देखते हुए कहा था, ‘ *भले लोग खुश होते हैं तुम्हारा सौष्ठव देखकर । बुरे लोग डरते हैं तुम्हारे नाख़ून देखते हुए । ऐसा ही कुछ मैं सुनना चाहता हूं अपनी कविता के बारे में । ‘*
हेमंत की कविताएं भी भले लोगों को अपने सामीप्य से अवगत कराती हैं और बुरे लोगों को उस भयावता से जिसके लिए वे ख़ुद ज़िम्मेदार हैं ।
प्रेम जैसे बहुत सामान्य और बहुदा कहे गए विषय को भी जब हेमंत अपनी कविता में ढालते हैं तो उसके माध्यम से एक मासूम सा संदेश देते हैं-
*संभव नहीं प्रेम के बिना*
*सुंदरता का अर्थ समझना।*
या फिर
*अगर भाषा की तमीज़ सीखना चाहो*
*तो प्रेम करके ज़रूर देखो।*
परंतु मुश्किल यहां भी है । प्रेम करता हुआ मनुष्य आज के दौर में किसी को नहीं भाता । यहां तक की स्त्री का सबसे महत्वपूर्ण धन ही प्रेम है मगर एक स्त्री जब प्रेम करती है तो उसे भी बहुत शंका की नज़र से देखा जाता है । हेमंत की कविताओं में भी स्त्री का यह प्रेम है और उस प्रेम पर लगी हुई दुनिया की नज़रें भी हैं जो उसे तमाम प्रतिकूलताओं में घेरे रखती हैं।
*एक अकेली लड़की* *इतनी निर्भय–निर्द्वंद्व कैसे हो सकती है?*
*वहाँ मौजूद सभी आँखें उसे घेरे हुए थीं*
*उनके हाथ जहां के तहाँ अब भी रुके हुए*
*बातों की ध्वनियाँ हवा में टँगी हुईं*
*सब कुछ स्तब्ध अभी भी*
*सबके भीतर एक ही उलझन थी*
*कोई तो मालिक होना ही चाहिए लड़की का ?*
समय की नब्ज़ पढ़ते हुए हेमंत बहुत ज़िम्मेदारी से अपनी बात कहते हैं । कविता के ज़रिए सिर्फ़ कविता ही नहीं कहते बल्कि आईना भी दिखाते हैं और आज के दौर के मनुष्य को नसीहत भी देते हैं-
*तुम्हें भी देखना ही चाहिए आकाश*
*किस जाल में फँसी हैं तुम्हारी गर्दनें?*
बेशक इस दौर में कई गर्दनें फंसी हुई हैं । कई अच्छाइयां भयभीत हैं । अनेक भले लोग सहमे हुए हैं। मगर जब संवेदनशील कविता किसी मनुष्य का हाथ थामती है तो उसे आत्मबल मिलता है और एक ऐसा उजाला दिखाई देता है जहां से यह विश्वास होता है कि अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है । हेमंत देवलेकर की कविताएं भी इसी आश्वासन की कविताएं हैं।
– *आशीष दशोत्तर*
(रचना समय में हेमंत देवलेकर की कुछ कविताएं पढ़कर )”
हेमंत देवलेकर समकाल के उन कवियों में से हैं जो समय की नब्ज़ पर हाथ रखते हैं और फ़िक्र उनका बुनियादी विषय है। फ़िक्र में बच्चे जो कि मानव जाति का भविष्य हैं, पृथ्वी जिस पर समस्त मानव जाति का भविष्य टिका है और प्रकृति जिसके स्वस्थ रहने से मनुष्यता स्वस्थ है और फल-फूल रही है।
समय एक कुख्यात बच्चा चोर है। आज के दौर की यह पंक्ति बेहद ज़रूरी है। जब केवल घड़ी ही नहीं दुनिया जहान के ग़ैज़ट्स बच्चों के हाथ लग चुके हैं। हम अपने अनुभवों से ही तो बच्चो को सीख देते हैं। पर शायद हमारी समय से पूर्व की सीख बच्चों का बचपन तो नहीं छीन लेती।
हमें नहीं चाहिए विराट पौधारोपण का दिखावा
हमेँ चाहिए कुछ लोग –
जो हमारे साथ खड़े रह सकें, हमेँ गोद ले सकें
जो वक़्त आने पर हुंकार उठें -चिपको
आज की सबसे बड़ी मांग हेमंत देवलेकर उन पेड़ों के माध्यम से करवाते हैं जिनका कटना निरंतर जारी है। हमारे पहाड़ों की सबसे विकट परिस्थितियां ही ये कटाई है। आधुनिकता का क़र्ज़ अपनी जान से चुकाते वृक्ष की निर्मम गुहार से कविता ‘चिपको’
‘कॉफी हाउस में लड़की’ को पढ़ते हुए उन तमाम विसंगतियों और रूढ़ियों को एक नज़र देख लिया जो लड़की की स्वतंत्रता स्वीकार नहीं करतीं, फिर भी लड़की मुड़ती नहीं अपनी तयशुदा दिशा की बढ़ती जा रही है।
गार्ड की पेटियां, व्यक्ति का आकाश को देखना या फिर धूल हो जाने की संवेदना से सराबोर इच्छा, सभी कविताओं का स्थिर भाव प्रेम है। प्रेम के अनेक रूप और समर्पण इन कविताओं में महसूस किए जा सकते हैं।
हेमंत देवलेकर जी को पढ़ना एक रंगकर्मी की दृष्टि से भावों को और भी गहराई से जानना है।
आपकी कविताओं में प्रयुक्त अनूठे बिम्ब संयोजन और प्रतीक आपके लेखन को अलग पहचान देते हैं।
लेखन में आपकी सक्रियता यूं ही बनी रहे शुभकामनाएं।
रूपेंद्र तिवारी।।
आदरणीया रूपेन्द् जी, बहुत आभार आपकी इतनी विस्तृत टिप्पणी के लिए। रचनाकार होने के नाते ख़ुशी होती है कि बहुत बारीकी से कविताओं को पढ़ा जाता हो। आपके प्रोत्साहन से भरोसा मिला। शुक्रिया। आपके प्रति भी शुभ कामनाएं सृजनरत रहिये।