हिन्दी सिनेमा में घोर रूमानियत और विशुद्ध मनोरंजन की फ़िल्मों के बावजूद विचार के स्तर पर कुछ कला फ़िल्में ऐसी भी आई हैं जो फ़िल्म – प्रेमियों के दिलो – दिमाग़ से आज तक नहीं बिसरीं। मुग़ले आज़म और गमन ऐसी ही फ़िल्में हैं जिन्हें क्लासिक का दर्ज़ा प्राप्त है।
हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार कैलाश बनवासी ने इन्हीं फ़िल्मों पर डायरी के फुटकर नोट्स लिखे हैं जिन्हें इन फ़िल्मों का पुनर्पाठ कहा जा सकता है।
कैलाश बनवासी की सिनेमा पर विचारों की एक पुस्तक ‘सिनेमा भीतर सिनेमा ‘ पिछले दिनों चर्चा में रही। यह पुनर्पाठ सुधी पाठकों को पसंद आएगा, ऐसा भरोसा है। – हरि भटनागर

 

डायरी : 

5.4 .21. शाम
दोपहर बाद यों ही किसी फ़िल्म में टाइम पास करने के खयाल से रिमोट के बटन घुमा रहा था, कि ‘टाटा क्लासिक्स’ पर देखा—‘मुग़ले-आज़म’.फिर तो आँखें जहाँ थीं,वहीं की वहीं ठहर गईं. ….जाने कितनी बार देखा होऊंगा लेकिन इस फ़िल्म में हर बार कुछ न कुछ नया पाने के लिए रह जाता है. ‘क्लासिक’ इसी को कहते हैं. और ‘मुग़ले-आज़म’ तो जैसे ‘क्लासिक ऑफ़ क्लासिक्स’ है ! ऐसी फ़िल्म को देखना हर बार आपको कुछ नया अनुभव दे जाता है. मैंने आज जब देखना शुरू किया तो बड़े गुलाम अली खां साहब का गाया ‘प्रेम जोगन बन जाऊंगी…’ समाप्त हो चुका था. इस फ़िल्म के अधिकाँश सिक्वेंस,सीन मुझे पता हैं, इसके बावजूद मैं इससे जुडा रहा, तो इसके पीछे आज सिर्फ एक ही शख्स मेरे जेहन में था—के. आसिफ़. हम दर्शक उस जद्दोजहद का एक अंश भी नहीं महसूस कर सकते जो के. आसिफ़ ने इसका सपना देखने,फिर इसे मूर्त करने में अपना सब कुछ होम दिया.
इस फ़िल्म में इश्क की जो खुशबू है,वह कैसी-कैसी,कितनी-कितनी रातों,सालों तक के. आसिफ़ के ज़ेहन में बसी रही होंगी—यह किसी के भी कल्पना से बाहर है, क्योंकि इस इश्क को यहाँ जिस तरह जिया गया है,वह दर्शकों की रग-रग में उतर जाता है. उस सिरफिरे आसिफ़ ने इस तीन-सवा तीन घंटे की फ़िल्म से प्रेम का ऐसा अद्भुत शाहकार रचा है,जिसके लिए ताजमहल की सी उपमा दी जा सकती है—अद्भुत! न भूतो न भविष्यति !
बेशक यह फ़िल्म एक पॉपुलर ड्रामा है, मिथ है,लेकिन उस मिथ को,उसके कंटेंट को इतना शक्तिशाली बना सकना सिर्फ कहानी के बस की बात नहीं होती.जब तक उस कहानी में वैसे रूहानी आदर्श, ख़यालात और जज़्बात न शामिल हों, यह ऐसी सर्वकालिक महान रचना नहीं हो सकती. मैं आज किंचित दूरी बनाकर एक तटस्थ, निरपेक्ष दर्शक की हैसियत से देखने की कोशिश कर रहा था जिसमें इन प्रसिद्ध कलाकारों की मनुष्य से बड़ी छवि—larger than life को एक किनारे रखकर इसे देखने का आनन्द लिया जाय. यह सच है कि अक्सर एक अभिनेता अपनी ही बनाई इमेज में कैद होकर रह जाता है,उससे छोड़ पाना बेहद कठिन होता है. इसके मुख्य किरदार -–सलीम,अकबर और अनारकली– के गिर्द जो कथानक बुना गया है,उसे दिलीप कुमार,पृथ्वीराज कपूर और मधुबाला किस तरह जीते हैं…या उन्हें के. आसिफ़ ने किस तरह गढ़ा है—उस कोण से देखने की कोशिश थी मेरी. मैं अनुमान ही लगा सकता हूँ,फ़िल्म के एक-एक शॉट को लेकर,फ्रेम को लेकर शूटिंग के समय जो जद्दोजहद कलाकारों और निर्देशक के बीच होती रही होगी…चाहे इसकी पटकथा हो …संवाद हो या गीत,संगीत…इस फ़िल्म का हर पहलू ऐसी भव्यता लिए हुए है कि प्रेम की ऐसी भव्यता फिर रुपहले परदे पर इसकी तरह दूसरी कोई न हो सकी. मुझे इसके टक्कर की बस एक ही फ़िल्म लगती है, जो इस फ़िल्म के बिलकुल उलट है—कथा,भव्यता,सिनेमेटोग्राफी इत्यादि में…वह है शैलेन्द्र की ‘तीसरी कसम’. बहुतों को यह तुलना अस्वाभाविक लग सकती है,लेकिन फ़िल्म जिस प्रेम की, दीवानगी की बात करती है,दोनों ही अनुपम हैं. और युनिक. जिनकी नकल संभव नहीं. महान कृतियों की अनुकृति नहीं हो सकतीं.
फ़िल्म सन साठ में रिलीज़ हो सकी थी—नौ साल से भी अधिक लम्बे समय से इसकी शूटिंग शुरू हो चुकने के बावजूद. अवधि का अधिक लगना किसी कृति की श्रेष्ठ्ता सिद्ध नहीं करता. आज मेरा ध्यान ख़ास तौर पर पृथ्वी राज कपूर की नाटकीयता और दिलीप कुमार की संजीदगी से भी अधिक खींच रही थी मधुबाला की अभिव्यक्ति.
मधुबाला को आप दूसरे किसी भी फार्मूला फ़िल्म में देख लीजिए—जो बड़ी तादाद में हैं—वहीं एक अकेले ‘मुग़ले-आज़म’ को यह बहुत साफ़ नज़र आता है, यह ‘अनारकली’ मधुबाला के भीतर जितना भी उतरा हो,संभवतः इसका सबसे बड़ा श्रेय के.आसिफ़ को जाता है. यहाँ मधुबाला अपनी सिनेमाई मधुबालाई लटकों-झटकों को छोड़कर है. वह शन्नो—जिसे अकबर ने ‘अनारकली’ का खिताब दिया,एक कनीज़, मजबूर स्त्री,जो गहरी शिद्दत और पोर-पोर में भरे प्रेम से कहती है—‘साहिबे आलम,मेरी आँखों से मेरे ख्वाब न छीनिये’.
देखते हुए लगा, अपने ज़माने की यह स्त्री-केन्द्रित थीम है. केंद्र में कनीज अनारकली ही है. उस दौर के प्रेम, ख़यालात को लेकर जो तस्सवुर के. आसिफ़ की रग-रग में समाये थे,उन्हें यहाँ जिस हुनरमंदी से तराशकर पेश किया गया है,वही इसे इतिहास रच देने वाली कलाकृति बनाती है. फ़िल्म में मधुबाला के अभिनय की एक-एक हरकत पर मैं गौर कर रहा था.और इन इसे फिल्माते कैमरे के एंगल कहाँ है,इसकी कल्पना…
यह अनारकली तो न सलीम की है,न अकबर की, यह तो पूरमपूर आसिफ़ साहब की है. उनकी आँखों का झुकना, पलकें उठाना,होठों की थरथराहट, प्रेम के बुखार में पड़ी स्त्री की देह से छूटनेवाली मीठी सिहरन…और इन सबसे बढ़कर, अपने पूरे वजूद से प्रेम का ऐसा अप्रतिम समर्पण…अपनी रग-रग से साहिबे-आलम के के प्रेम में डूबी होना…और प्रेम की ऐसी बयानगी…अभिव्यक्ति…जिसमें स्त्रीपन के साथ…जो सुंदर और नाज़ुक है मगर कमज़ोर नहीं..,जो रियाया है, लेकिन महाबली के अन्याय का जवाब देने का हौसला रखती है. दिलीप कुमार के हिस्से सलीम की हैसियत से ऐसे सूक्ष्म भावाभिव्यक्ति नहीं आए हैं.वह जितना प्रेम करता है, वह एक बेटे की ही नहीं, एक सामान्य नागरिक की हैसियत से राजा से अपनी निजी स्वतंत्रता और अधिकारों की मांग करता है, एक अलग आयाम के साथ परदे पर आया है,जहाँ वह अनारकली की रक्षा करने बगावत पर उद्धत है…प्रेम के बाद आन पड़ी जिम्मेदारी है. इस जिम्मेदारी को प्रेम ने ही जन्म दिया है.
सिने-इतिहास में स्वर्णअक्षरों में दर्ज हो चुके इस गाने की प्रस्तुति देखिये,–‘प्यार किया तो डरना क्या’. जिस सिचुएशन में इसे फिल्माया गया है, मैं इसके बाहरी ताम-झाम शीशमहल, और ‘चारों तरफ है इनका नज़ारा’ की बात नहीं कर रहा, मैं इस गाने के गीतकार शकील बदायूनी, संगीतकार नौशाद साहब को याद कर रहा था, रेडियो में कभी सुना था, कि इस गीत को पाने के लिए दोनों कलाकरों को को रात भर जागना पड़ा था. इसी के साथ जिस शख्स को शिद्दत से याद कर रहा था, वह थे इस फ़िल्म के नृत्य निर्देशक…(लच्छू महाराज – यह बाद में टाइटल देख जोड़ रहा हूँ)
हमारे बहुधा डाइरेक्टर ऐसे दृश्यों में ,अपने जोश और क्रांतिकारी तेवर दिखाने वे कुछ जबरदस्त मेलोड्रामेटिक करने लग जाते हैं,नृत्य की स्वाभाविकता छीन लेते हैं. मैं न्रत्य या उनकी शैली आदि के बारे में कोई जानकार नहीं, इसके बावजूद कहना चाहूंगा इस पूरे गाने में भंगिमाओं का एक विलक्षण काम्बिनेशन’ है…कि जितना भीतर से उमगता प्रेम है उतना ही इसके शत्रुओं के प्रति विद्रोह. लेकिन इस विद्रोह में कहीं भी नफरत,द्वेष नहीं है, बल्कि जो इश्क को नहीं समझते उनकी नादानी के प्रति तंज कसा गया है…साथ ही महाबली जैसे सत्ताधीशों की सत्ता और वैभव के प्रति विद्रोह…
‘आज कहेंगे दिल का फ़साना,जान भी ले ले चाहे ज़माना
मौत वही जो दुनिया देखे,घुट-घुटकर यूं मरना क्या..’.
या सत्ता की ताक़त का मखौल देखिये…
‘ पर्दा नहीं जब कोई खुदा से ,बन्दों से पर्दा करना क्या…’
गाने के दौरान अनारकली सलीम का खंजर निकालकर बड़े अदब के साथ अकबर के क़दमों में रख देती है.यह प्रेम की वही बलिदानी ऊंचाई है जिसमें वह ख़ुद को मिटाकर भी प्रेम को सलामत रखना चाहती है.
मधुबाला के हिस्से में जो बेहतरीन दृश्य आए हैं., उनमें जेल की काल-कोठरी में जंजीरों से जकड़े ,कैदी अनारकली पर फिल्माए गीत तो हैं ही…’मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोएँ’ या ‘ खुदा से अरदास ‘बेक़स पे करम कीजिए, सरकार-ए –मदीना’.
कहीं पढ़ा था, कैद के दृश्य में सत्यता और प्रभावशीलता के लिए मधुबाला ने अपनी बीमारी और गिरती सेहत के बावजूद लोहे की उन मोटी और बहुत भारी जंजीरों को पहना था, जिससे उनके हाथ छिल गए थे,जिस पर उनका कहना था—ऐसी फ़िल्में रोज-रोज थोड़ी बनती हैं.
यह भारत के वंशवादी मुग़ल साम्राज्य की मिथ-कथा है.जिसके चलते के.आसिफ़ ने अकबर के द्वारा अपने दरबार में हिंदू तीज-त्यौहार मनाते दिखाए हैं,उनके ‘दीन-ए-इलाही’ फलसफे का आधार लेकर. वहीं वह एक क्रूर सम्राट भी है जो अपने साम्राज्य विस्तार और उसकी रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकता है..जैसे जब अकबर सलीम को अनारकली से दूर रखने के प्रयास में उसे युद्ध में भेजने की योजना बनाता है तो इसका विरोध मान सिंह करता है—‘जंग जीतने के लिए किसी जांबाज़ बहादुर की ज़रुरत होती है ,किसी मायूस आशिक की नहीं’.
इस पर अकबर का यह प्रेमविरोधी कथन आता है—‘तो भी वह इस आशिक की मौत से बेहतर होगी’.
फ़िल्म में प्रेम के साथ युद्ध के फिल्मांकन भी बेहद काबिल-ए-तारीफ़ है.जबकि यह साथ के दशक में सीमित साधन-संसाधनों का समय था.मुगलिया युद्ध-दृश्यों को बेहद गतिशीलता से शूट किया गया है.युद्ध के दृश्य फ़िल्म में हालाँकि कुछ ही मिनटों के हैं,लेकिन इसके शॉट जिस तेजी से एक के बाद दूसरे दृश्य को ‘ओवरलैप’ करके युद्ध की भीषणता को दिखाते हैं, वह कमाल इसलिए भी है कि जो आज के ‘टीवी.सिरियली’ युद्ध-दृश्यों से सैकड़ों गुना बेहतर फिल्मांकन है, जहाँ तीर के छूटने के बाद उसके अनगिन रूप धरने या शत्रु के तीर के हवा में ही विस्फोट से ध्वंस कर देने जैसे बचकाने और हास्यास्पद प्रयोग किए जाते हैं, वह भी भद्दे साउंड इफ्फेक्ट के साथ. ‘मुग़ले-आज़म’ के एक्शन डायरेक्टर का कमाल है,जो इसकी भव्यता के साथ इसकी विश्वसनीयता को बनाए रखते हैं.
फ़िल्म को जहाँ अंत किया गया है, वह गढ़े गए किरदारों को ऊँचा बनाने के चक्कर में फार्मूलेपन का शिकार हो गया है.,कि अनारकली की माँ अपनी बेटी की जान बक्श देने की गुहार लगाती है तो रामायण से कैकेयी और राजा दशरथ प्रसंगनुमा वचनबद्धता को कहानी में ले आया जाता है, जब अकबर ने उस स्त्री को कभी वचन दिया था.—जब कभी तुम्हें कुछ मांगने की इच्छा हो,मांग लेना,अकबर उसे अता करेंगे.
आज उस मिथ कथा का यह पहलू – न्याय-अन्याय की तुला दिखाकर एक दिखावटी अकबरी न्याय– नितांत फ़िल्मी और बचकाना फार्मूला है,जो अन्यायी के अन्याय को ढंकने का एक उपक्रम है. बहरहाल,यह तो फ़िल्म है, कहानी है, निर्देशक जो दिखाना चाहे,उसका अधिकार है. लेकिन निर्देशक द्वारा फ़िल्म के सबसे अंत में अनारकली को लोगों के सामने जिंदा चुने जाने के बावजूद उसे सुरंग द्वारा जीवित बचा लेने का अकबरी-न्याय बिलकुल व्यर्थ सिद्ध होता है जब दर्शक अनारकली का लगभग एक जिंदा लाश में बदल जाना देखता है, एक स्त्री के अस्तित्व को ज्यों पूरी तरह ख़त्म कर देना…यह दृश्य तो उस तथाकथित न्याय पर एक तमाचा जडता नजर आता है.
निर्देशक का चाहे कुछ और उद्देश्य रहा हो, एक दर्शक का अपना पाठ यह है कि निर्देशक ने अनजाने ही इस अनारकली के जिंदा लाश में बदल जाने के दृश्य मात्र से सत्ता का स्त्री के प्रति अन्याय और बर्बरता का मूक प्रतिकार रच दिया है. मन में अकबर के लिए जयकारा नहीं,बल्कि एक गहरा क्रोध और नाराजगी जागती है.
सन साठ के ज़माने की फ़िल्म होने के कारण बहुत से हिंदू-मुस्लिम एकता के टोटकों का सहारा लेकर इसे लोकप्रिय बनाने का सरलीकृत प्रयास भी किया गया है.राजपूत सैनिक दुर्जन सिंह का अपनी जान पर खेलकर अपने वचन को निभाना राजपूती शौर्य और गौरव से भरा है,लेकिन उसकी मृत्यु पर काली माई की मूर्ति के गले से हार का आशीर्वाद स्वरूप दुर्जन के गले में गिरना,हमारे धार्मिक भावनाओं को भुनाने का मामला है और एक सरलीकृत फार्मूला.
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9.4.2023 शाम 8.00 के बाद

आज दोपहर मोबाइलपर यू-ट्यूब पर मुजफ्फर अली की चर्चित फ़िल्म देखी –‘गमन’.सन 78 में बनी. आज के लिए विषय नया नहीं है. संभव है तब कुछ नया रहा होगा. लेकिन नहीं, 1952 में बिमल रॉय ‘दो बीघा ज़मीन’ जैसी क्लासिक बना चुके थे.मुजफ्फर अली के लिए निश्चय ही ‘दो बीघा ज़मीन’ की चुनौती सामने रही होगी,जिसकी काट वे कहानी को अपने जाने- पहचाने लोकेल –अवध और मुंबई में शिफ्ट करके निकालते हैं.
गाँवों में ज़मींदार या प्रभावशाली वर्ग द्वारा किसानों के शोषण के किस्से जैसे सैकड़ों बरस से मौजूद हैं. भोले-भाले लोगों का हक मारकर उनका शोषण और उन्हें अपना चाकर बनाए रखने का षड्यंत्र ज़माने से गाँवों में चला आ रहा है.प्रेमचंद के साहित्य का अधिकांश इस शोषण के तौर-तरीके की भयानक कहानियाँ कहती हैं.
इसे नया कैसे किया जा सकता है? विषय तो वही है, कहानी तो वही है.इसे नया अर्थ,नयी भंगिमा अगर दी जा सकती है तो बदलते समय से इसे जोड़कर,अपनी संवेदनशीलता से और इसकी व्यापकता से.
मुजफ्फर अली इस मामले में अत्यंत संवेदनशील हैं. फ़िल्म की शुरुआत में अवध का जो गाँव है,वह गाँव ही दर्शक को बहुत आत्मीयता से जोड़ता है. यह गुलाम हुसैन (फारूख शेख) का गाँव-घर है.अगर इस गाँव-घर को लोकगीत की रागात्मकता के बगैर चित्रित किया गया होता तो इसकी खूबसूरती और कमसूरती का दर्शक मन पर वह असर नहीं ही होता.इस फ़िल्म को एक और खासियत के लिए याद रखा जा सकता है.कैमरे की आँख और कैमरे की भाषा. इसमें संवाद बहुत ज़रूरी होने पर ही है—चाहे पति –पत्नी (स्मिता पाटिल ) के बीच हो या अम्मा से. इस फ़िल्म में कैमरा जैसे एक टूल ही नहीं है,एक पात्र है. जाहिर है,यह पात्र –कैमरा—निर्देशक ही है. फ़िल्म दो धुर विरोधी भूगोल की ज़मीनी सचाइयों को बिना किसी बयानबाजी के दर्ज करती है.
गाँव का एक कम पढ़ा-लिखा युवक गाँव की ठहरी,सामंत शोषण से पिसती जिंदगी से बाहर निकलने का रास्ता अपने ‘गमन’ का चुनता है. गमन एक बेहतर जिंदगी की तलाश का आम आदमी की बहुत बड़ी ज़रुरत बन गयी है. लेकिन बेहतर की तलाश में जहाँ ये पलायन कर रहे हैं वहां का जीवन इतने कष्टों,आर्थिक अभावों से भरा है कि वहां पहुँचे लोगों के भीतर बरसों से बस एक ही सपना मिल रहा है—जीवन को आराम मिले,चैन मिले. गुलाम बम्बई जाता है. बम्बई को लेकर वह किसी रोमान और स्वप्न में नहीं है.क्योंकि घर में जब वह बताता है कि लल्लू कल जा रहा है,तो पत्नी पूछती है,–कहाँ,बम्बई ?तो उसका जवाब होता है –नहीं,कर्बला ! बम्बई में गाँव का एक बंदा ( जलाल आगा) टैक्सी ड्राइवर है.उसकी झुग्गी में रहकर काम ढूंढना,फिर उसका भी आगे चलकर एक टैक्सी ड्राइवर बन जाना. गाँव में अम्मा और बीवी खैरून अपने दिन जैसे-तैसे,बिना किसी आशा-उत्साह के काट रहे हैं. और गुलाम के लौटने की प्रतीक्षा में हैं.वहीं गुलाम हुसैन का सपना है कि बम्बई रहकर मेहनत से चार पैसे जोड़ सके,कुछ कमाकर घर लौट सके…
कहानी यही है.लेकिन इस कहानी को निर्देशक ने जो भावनात्मक,संवेगात्मक तीव्रता दी है,वह इसे बहुत प्रभावशाली बनाता है.यथार्थवादी सिनेमा के दौर में बनी बहुत सारी फिल्मों में महानगरों की झुग्गी बस्तियों और उनके जीवन का ‘नरक’ काफी गहराई से दिखाया गया है.’गमन’ झोपड़पट्टी के ‘नरक’ को दिखाती है, जहाँ जिन्दगी के किसी तरह चल पाने की खींच-तान,तनाव, पैसे न होने की समस्या,और भीषण गरीबी—सब इसमें है.लेकिन उससे भी आगे बढ़कर,निर्देशक ने जिसे केंद्र में रखना चाहा है,वह है पलायन के बाद विवशता में आत्मीय संबंधों का धीरे-धीरे निस्तेज,निरर्थक होते चले जाना, और और मजबूरी में आदमी का जिंदगी की गाड़ी को बस किसी तरह ढो सकने वाले एक पुर्जे में बदलकर रह जाना –मुजफ्फर अली इस अलगाव और टूटन को केंद्र में रखते हैं.
बीवी खैरून का लिखा वह ख़त एक साधारण घर की पीड़ा की बात कहते हुए भी उस बहुत कम शब्दों की चिट्ठी से इतना कुछ कह जाता है जो कहीं निर्णायक सिद्ध होने जा रहा है.वह उसे बम्बई छोड़कर वापस आ जाने को कह रही है,अम्मा की बिमारी के हवाले से,लेकिन जो खालीपन, बेगानापन,उदासी जमती जा रही है,जिसे दूर कर पाना अब नायक के बस में नहीं है,इस विडंबना को गहरी मार्मिकता से यह फ़िल्म उठाती है. फ़िल्म देख लेने के बाद आप एक अवसाद में रहते हो,यही इसका हासिल है.जैसे रघुवीर सहाय ने अपनी एक कविता में लिखा है—‘सन्नाटा छा जाए जब मैं कविता पढ़कर उठूँ.’ जीवन में दुख के हजारों रूप हैं,जिनमें से एक यह ‘गमन’ है,जो परस्पर आत्मीयता को,पारिवारिकता को और इस तरह मनुष्यता को तोड़ रहा है.
स्मिता पाटिल के बहुत कम दृश्य हैं.जो हैं,वे भी कोई बुलंद किरदार की तरह नहीं हैं. वह एक कभी इज्जतदार रहे गरीब घर की शालीन बहू है, संजीदा,जिसे अपने बहूपन का निर्वाह करना है. फ़िल्म में वह इस टूटी-फूटी गृहस्थी में खटती-खपती एक साधारण बहू हैजिसके सिर घर की जिम्मेदारियों का पहाड़ है, और एक कायदे में रहना जिसके संस्कार हैं.भारतीय समाज ऐसा ही है.जिसमें स्त्रियों को घर की धुरी मानकर खटते रहना जिनकी नियति तय कर दी गयी है. इसमें वह कोई हस्तक्षेप नहीं कर पाती,प्रायः.
मुजफ्फर अली फ़िल्म में कोई सस्ती आंसू बहाऊ वियोग दृश्य नहीं रचते.उस पीड़ा का अहसास करा पाना ज्यादा बड़ा और गंभीर काम है. जहाँ जीवन पटरी पर नहीं है,फिर भी तिनके सरीखी कोई उम्मीद बाकी है. परदे पर जब-जब स्मिता का भाव-प्रवण चेहरा,उसकी सूनी-सूनी खाली आँखें,जिनमें उम्मीद के बहुत कम कतरे हैं, दर्शक के दिल-दिमाग में ठहर जाते हैं. छाया गांगुली का गाया यादगार गीत ‘रात भर आपकी याद आती रही’ इस पृष्ठभूमि को,पीड़ा को और गहरा कर जाती है.
मुजफ्फर अली के निर्देशन का कमाल यह है कि फ़िल्म के संवादहीन दृश्य दर्शकों से चुपचाप संवाद करते हैं,और मन में उतरते जाते हैं.
बम्बई की आपाधापी का जीवन,तंगहाली,गरीबी,अपराध– ये सब गाँव से गमन कर पहुँचे गुलाम का हासिल है. यहाँ की तल्ख़ सच्चाइयों कठिनतर जीवन को मुजफ्फर अली गुलाम हुसैन और लल्लू तिवारी के जरिये दिखाते हैं. लेकिन मुख्य कथा यही है—गमन से उपजी हुई दोनों तरफ की पीड़ा और संबंधों के बीच निरंतर पसरता मरूस्थल. इसे किसी तरह कम करने की कोशिश बरसों से जारी है. मुंबई में बसे गाँव के पुराने लोग अब जैसे गाँव को भूल चुके है. यहाँ की भाग-दौड़ भरी जिंदगी, आर्थिक बदहाली इसका अवकाश नहीं देती. कमोबेश देश के हर ग्रामीण समाज की यही कहानी है. निर्देशक इसके जरिये उस आर्थिक विषमता की विडम्बना को सामने लाते है जो विकास की प्रक्रिया में पीछे छोड़ दिए गए हैं. विषम विकास और संसाधनों के असमान बंटवारे ने यह स्थित पैदा की है. इसी विषय पर साईं परांजपे की एक यथार्थवादी फ़िल्म याद आ रही है–‘दिशा’,जो इसी पलायन की समस्या पर केन्द्रित है .
फ़िल्म की प्रभावशीलता में इसके गीत-संगीत का बहुत बड़ा हाथ है. शायर मखदूम और शहरयार के गीतों को संगीतकार जयदेव ने कालजयी ऊंचाई दी है. इसके सभी गीत, चाहे शुरुआत में ही गाँव का जीवन दिखाते हुए बैकग्राउंड में हीरा देवी मिश्रा की गई ठुमरी –आजा सांवरिया तोहे गरवा लगा लूँ,’ हो या सुरेश वाडेकर का गाया ‘सीने में जलन,आँखों में इक तूफ़ान सा क्यूं है’ जिससे उनकी गायक के रूप में पहचान बनी. या फिर छाया गांगुली का गाया, ‘रात भर आपकी याद आती रही…’ जिसे गायिका का उस बरस का नेशनल अवार्ड मिला था.
मुजफ्फर अली फ़िल्म में कम से कम संवादों में अभिनेता की भाव-भंगिमा,आँखों से वह सब अधिक गहराई से प्रकट करवा लेते हैं जिसे बाज दफा संवाद नष्ट कर देते हैं. बम्बई महानगर में भीतर की इस ख़ामोशी,दर्द को दर्शकों के भीतर उतार सकने का कौशल वे ‘गमन’ में कर सके हैं.
फ़िल्म आर्थिक असमानता और शोषण का कोई हल पेश नहीं करती. यह विस्थापितों, वंचितों की कठिनतर जिंदगी की पीड़ा और लगातार सूखते उनके आत्मीय संबंधों को दर्शाती है. इसका सन्देश बहुत साफ़ है—इस विकराल होते असमानता और शोषण से मुक्ति की राह तलाशी जाए.

 



कैलाश बनवासी

जन्म-10 मार्च 1965,दुर्ग
शिक्षा- बी0एस-सी0(गणित),एम0ए0(अँग्रेजी साहित्य),बी.एड.
कृतियाँ-
1984 के आसपास लिखना शुरू किया। आरंभ में बच्चों और किशोरों के लिए लेखन.
अस्सी से भी अधिक कहानियाँ देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। अब तक चार कहानी संग्रह प्रकाशित-‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’(1993),‘बाजार में रामधन’(2004) तथा ‘पीले कागज की उजली इबारत’(2008) ,प्रकोप तथा अन्य कहानियाँ (2015),’जादू टूटता है’(2019 ), ‘ कविता पेंटिंग पेड़ कुछ नहीं’ (2020)
उपन्यास -‘लौटना नहीं है’(2014) ‘रंग तेरा मेरे आगे’(2022) प्रकाशित.
समकालीन सिनेमा पर विचार—‘सिनेमा भीतर सिनेमा’(2022) प्रकाशनाधीन.
कुछ कहानियाँ विभिन्न संग्रहों में चयनित।कहानियाँ गुजराती,पंजाबी,मराठी,बांग्ला तथा अँग्रेजी में अनुदित। तथा कहानी-संग्रह ‘बाजार में रामधन’ मराठी में अनुदित.कहानी ‘बाज़ार में रामधन’ केरल,वर्धा,गोवा,और शोलापुर विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल.
समग्र कहानियों पर जे.एन.यू. नई दिल्ली सहित पी.एच.डी.हेतु देश के कई विश्विद्यालयों में शोध-प्रबंध.
पुरस्कार- कहानी ‘कुकरा-कथा’ को पत्रिका ‘कहानियाँ मासिक चयन’(संपादक-सत्येन कुमार) द्वारा 1987 का सर्वश्रेष्ठ युवा लेखन पुरस्कार.
कहानी संग्रह ‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’ को जनवादी लेखक संघ इंदौर द्वारा प्रथम श्याम व्यास पुरस्कार.
दैनिक भास्कर द्वारा आयोजित कथा प्रतियोगिता ‘रचना पर्व’(2002) में कहानी ‘एक गाँव फूलझर’ को तृतीय पुरस्कार.
संग्रह‘पीले कागज की उजली इबारत’ के लिए 2010 में प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान।
वर्ष 2014 में वनमाली कथा सम्मान, गायत्री कथा सम्मान 2016

संप्रति- अध्यापन।


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