आज हम ऐसे संकट के दौर से गुज़र रहे हैं जहां हमारा हमसे सब कुछ छीन लिया जा रहा है – हमारी स्थानीयता ,हमारी बोली – बानी। कौन है जो हमें हमारी धरती से हकाल रहा है प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से ? – ऐसे बहुत सारे सवाल देवेंद्र चौबे की प्रस्तुत कविता कर रही है जो वैश्विक स्तर पर भी घटित होता दीख रहा है।
संदर्भ के रूप में यह कविता 1968 में मॉरीशस की आज़ादी से जुड़ी एक घटना पर है जब ब्रिटेन ने डियोगासिॅया द्वीप अमेरिका के सैनिक अड्डे के लिए दे दिया था और वहां रह रहे अफ़्रीकी मूल के लोगों को पोर्ट लूई के पास एक गाँव में जबरन बसा दिया था।
विश्वास है, पाठकों को यह कविता पसंद आएगी।
– हरि भटनागर
कविताएं :
*नहीं, यह वह गांव तो नहीं*
1.
हां, मैं हूं!
हूं, मैं बहुत गुस्से में!
हां, मैं हूं …!
गुस्से में हैं मेरा गांव, गाँव के लोग, समुद्री किनारा, पथरीली रेत,
हमारे घर,
ढलान से उतरते रास्ते
जहां दौड़ता था हमारा बचपन
हाँ, मैं गुस्से में हूं!
क्या, तुम्हें पता हैं?
गुस्से में है मेरे गाँव की बकरियां,
मेमने,
लाल ठोर वाली चिड़िया,
मोटे ठोर वाला बूढ़ा कबूतर…
और हां, वह काना कुता भी
जिनसे छीना है तुमने उसका गाँव
उसके पूर्वज, पूर्वजों की स्मृतियाँ
लंबी-लंबी लतायें
जिनकी रास्सियों पर झूलते हुए पहुंच जाते थे हम
गार्सिया की ढलती पहाड़ियों पर
2.
हां, मैं गुस्से में हूं, महाराज !
कभी न डूबनेवले सूरज के साम्राज्य में
मैं, बहुत गुस्से में हूं, ओ कंपनी वाले वाले सम्राट!
गुस्से में हूं तुम्हारी उस फौज से;
जिसके बड़े-बड़े डैनेवाले पंखों ने
पटक दिया था हमें रोशनुआ की धरती पर
कराह उठी थी हमारी माटी और सहम उठा था पोर्ट लूई का मैदान
ठहर गई थी समुद्र में उठती हुई लहरें
लंबे-लंबे तार के बाड़े, ऊंचे कांटेदार,
इतने ऊंचे बाड़े कि हमारा दौड़ाक मारन भी
सहम जाता था देखकर उसकी ऊंचाई
नहीं, यह हमारा वह गांव तो नहीं था !
3.
हमारी आंखें खोजती हैं उन्हें जो छूट गए थे अकेले और
अब वे कभी लौटकर नहीं आयेंगे
वह डूबता हुआ सागर भी अब कभी नहीं लौटेगा रोशनुआ की धरती पर और;
गार्सिया का वह किनारा भी;
जो हमें डूबा ले जाता था पथरीली गहराइयों में
और जहां कभी सूरज भी नहीं पहुंच पाता था
हमारी समुद्री धरती तकभ
हमें पता है अब वे कभी नहीं लौटेंगे हमारे गांव
तुमने जो उजाड़ी थी हमारी बस्ती, जंगल, पानी
और काटे थे ऊंची पहाड़ियों के मस्तक
वे ऐसे ग़ायब हुए कि चलते हुए वे बेधड़ समतल पहाड़
अब लगते हैं दैत्य-
बड़े-बड़े दैत्य,
हिम मानव की तरह डरावने दैत्य
तुम्हारे डैने से कटे कोकोस न्यूसिफ़ेरा¹ के नरम-नरम पत्ते
उन्हें इतना वक्त भी नहीं मिल कि
बहा सकें अपना लहू,
लाल-लाल गाढ़े टपकते लहू
गहरी घाटियों में एक-एक कर गिरते गए थे उनके
झुलसे हुए अंग के अनगिनत टुकड़े
तुम कैसे कहते हो कि उन्होंने हमें घर दिया?
हमारा टापू छिना
हमें सुरक्षा दी
हमारा शरीर लिया
हमें नई धरती दी
हमारा टापू छिना
4.
अब कैसे कहूं कि यहीं है हमारा गांव,
जंगल, समुद्र की लहरें, पथरीली रेत!
नहीं, नहीं! यह नहीं है, हमारा वह गांव
क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि यहां की धरती पर
कभी नहीं गिरे हैं हमारे पुरखों के पसीने,
आँखों के पानी
फिर कैसे हो सकता है यह हमारा गांव?
क्या इन्हें ही कहते हो तुम मेरा घर?
इन्हें, जिसकी गलियों में रोज घूमते हैं भेड़िये??
और जहां हमारी बच्चियों की आंखों में आया पानी
कभी सूखता नहीं है और न ही
देर शाम घर लौटे बच्चों के पैर
नहीं उठते हैं अगली सुबह जाने को स्कूल
और बूढ़ी आंखें निहारती हैं दूर जाते हुए सूरज को
शायद अगली सुबह ज़रा जल्दी हो
कि कोकोस न्यूसिफ़ेरा के खेतों की ओर जाते किसान
लौट आए अपने गांव
जहां हमारी तीन पीढ़ियों ने
बहा दिए थे अपने लाल पसीने
सूरज की उस तपती आग में
और सुबह मिट गए थे सारे सपने
ओस की बूंदों की तरह
यह कैसे हो सकता है हमारा गांव ?
नहीं, नहीं! यह हमारा वह गांव तो नहीं
जहां रोज गिरते थे नारियल के फल
5.
बंदरगाह पर झाड़ू लगाता हुआ बूढ़ा फिरंजी रोज कहता है,
चलना है एक दिन अपने गांव
रोज़ दिखाता है काम पर जाते बच्चों को उनके गांव का रास्ता
और हैरान रह जाता है शाम के धुंधलके में –
जब उनके थके पांव फिर से लौट आते हैं इस बाड़े की तरफ़
उसकी अनसुनी आवाज़ें पूछ नहीं पातीं उन थके हुए पांवों से
क्या गए नहीं अपने गांव?
यह हमारा इतिहास है
हाँ, यही है हमारा इतिहास जहाँ रोज बनाई जाती है हमारी एक नई दुनिया
और अगली सुबह हमें धकेल दिया जाता है
उस दलदल में
जहाँ जंगली सूअर और कीड़े खाती मुगिॅयां
हमें दिखाती हैं हमारे घर का रास्ता
नहीं, यह नहीं है हमारा गाँव!
*मॉरिशस के पोर्ट लुई के बंदरगाह पर 2010 ई में मिले एक कामगार की कहानी
1. नारियल के पेड़ ।
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देवेंद्र चौबे
हिंदी के चर्चित लेखकों में से एक देवेंद्र चौबे (जन्म 29 दिसंबर 1965 -) की गहरी दिलचस्पी साहित्य के इतिहास, स्वधीनता आंदोलन, समाजशास्त्र, हाशिये के समाज, दलित साहित्य, सृजनात्मक लेखन और समकालीन साहित्य की सैद्धांतिक प्रक्रियायों को समझने में है।
एक लेखक एवं शिक्षाविद के रूप में मॉरीशस, जापान, चीन, श्रीलंका, उज़्बेकिस्तान, नेपाल आदि देशों की यात्रा कर चुके देवेंद्र चौबे की चर्चित पुस्तकें हैं – _पर, ज़रूरी है कविता_ (काव्य), _कुछ समय बाद (_ कहानी -संग्रह), _आधुनिक भारत के इतिहास लेखन के कुछ साहित्यिक स्रोत, आलोचना का जनतंत्र, आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, समकालीन कहानी का समाजशास्त्र, अमृतलाल नागर : शहर की संस्कृति और इतिहास के सवाल, 1857: भारत का पहला मुक्ति संघर्ष, विश्व साहित्य : चुनिंदा रचनाएँ, पंचकोशी मेला, रसखान_ (कॉफ़ी टेबल बुक, सीसीआरटी,संस्कृति मंत्रालय) आदि।
सन 2000 में संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा लेखकों को दी जानेवाली राष्ट्रीय फेलोशिप प्राप्त देवेंद्र चौबे आजकल जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी के प्रोफ़ेसर है।
मेल : devendrachoubeyjnu@gmail.com
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देवेंद्र जी ये कविताएँ हमे क्षरण हो रहे बहुमूल्य दृश्यों और अनुभूतियों की स्मृति दिलाती हैं ।वास्तव में हमने सब कुछ नष्ट करने की ठानी है ।हम कुछ नया गढ़ने के लिये पुराना सब कुछ मिटा डालना चाहते है – चाहे वह इतिहास हो , स्मृतियाँ हों या स्वयं हम ही क्यों न हों । याद करिए जब जब पुरानी टिहरी को हमने टिहरी बाँध बनाने के लोए जलमग्न किया था । आज नई अयोध्या , नई काशी बनाने का प्रयास है । डर है हम २८०० वर्ष पुरानी काशी और पच्चीस हज़ार पुरानी अयोध्यों की स्मृतियों को जमीदोज़ न कर दें ।सुंदर कविताएँ ।