-सूरज प्रकाश

 

फ्रैंक हैरीज़, चार्ली चैप्लिन के समकालीन लेखक और पत्रकार ने अपनी किताब चार्ली चैप्लिन को भेजते उस पर निम्नलिखित पंक्तियां लिखी थीं:
चार्ली चैप्लिन को
उन कुछ व्यक्तियों में से एक जिन्होंने बिना परिचय के भी मेरी सहायता की थी, एक ऐसे शख्स, हास्य में जिनकी दुर्लभ कलात्मकता की मैंने हमेशा सराहना की है, क्योंकि लोगों को हँसाने वाले व्यक्ति लोगों को रुलाने वाले व्यक्तियों से श्रेष्ठ होते हैं।

चार्ली चैप्लिन ने आजीवन हँसाने का काम किया। दुनिया भर के लिए। बिना किसी भेद भाव के। उन्होंने राजाओं को भी हँसाया और रंक को भी हँसाया। उन्होंने चालीस बरस तक अमेरिका में रहते हुए पूरे विश्व के लिए भरपूर हँसी बिखेरी। उन्होंने अपने बटलर को भी हँसाया, और सुदूर चीन के प्रधान मंत्री चाऊ एन लाइ भी इस बात के लिए विवश हुए कि विश्व शांति के, जीवन मरण के प्रश्न पर मसले पर हो रही विश्व नेताओं की बैठक से पहले से वे खास तौर पर मंगवा कर चार्ली चैप्लिन की फिल्म देखें और चार्ली के इंतज़ार में अपने घर की सीढ़ियों पर खड़े रहें।
चार्ली ने अधिकांश मूक फिल्में बनायी और जीवन भर बेज़ुबान ट्रैम्प के चरित्र को साकार करते रहे, लेकिन इस ट्रैम्प ने अपनी मूक वाणी से दुनिया भर के करोड़ों लोगों से बरसों बरस संवाद बनाये रखा और न केवल अपने मन की बात उन तक पहुंचायी, बल्कि लोगों की जीवन शैली भी बदली। चार्ली ने ब्लैक एंड व्हाइट फिल्में बनायीं लेकिन उन्होंने सबकी ज़िंदगी में इतने रंग भरे कि यकीन नहीं होता कि एक अकेला व्यक्ति ऐसे कर सकता है। लेकिन चार्ली ने ये काम किया और बखूबी किया।
दोनों विश्व युद्धों के दौरान जब चारों तरफ भीषण मार काट मची हुई थी और दूर दूर तक कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, न नेता, न राजा, न पीर, न फकीर, जो लाखों घायलों के जख्मों पर मरहम लगाता या, जिनके बेटे बेहतर जीवन के नाम पर, इन्सानियत के नाम पर युद्ध की आग में झोंक दिये गये थे, उनके परिवारों को दिलासा दे पाता, ऐसे वक्त में हमारे सामने एक छोटे से कद का आदमी आता है, जिसके चेहरे पर गज़ब की मासूमियत है, आँखों में हैरानी है, जिसके अपने सीने में जलन और आंखों में तूफान है, और वह सबके होंठों पर मुस्कान लाने का काम करता है। ‘इस आदमी के व्यक्तित्व के कई पहलु हैं। वह घुमक्कड़, मस्त मौला है, भला आदमी है, कवि है, स्वप्नजीवी है, अकेला जीव है, हमेशा रोमांस और रोमांच की उम्मीदें लगाये रहता है। वह तुम्हें इस बात की यकीन दिला देगा कि वह वैज्ञानिक है, संगीतज्ञ है, पोलो खिलाड़ी है, अलबत्ता, वह सड़क पर से सिगरेटें उठा कर पीने वाले और किसी बच्चे से उसकी टॉफी छीन लेने वाले से ज्यादा कुछ नहीं। और हाँ, यदि मौका आये तो वह किसी भली औरत को उसके पिछवाड़े लात भी जमा सकता है, लेकिन बेइंतहा गुस्से में ही।’
वह यह काम अपने अकेले के बलबूते पर करता है। वह सबको हँसाता है और रुलाता भी है। ‘हम हँसे, कई बार दिल खोल कर और हम रोये, असली आँसुओं के साथ – आपके आँसुओं के साथ, क्योंकि आप ही ने हमें आँसुओं का कीमती उपहार दिया है।’
चार्ली जीनियस थे, सही मायने में जीनियस। ‘जीनियस शब्द को तभी उसका सही अर्थ मिलता है जब इसे किसी ऐसे व्यक्ति के साथ जोड़ा जाता है जो न केवल उत्कृष्ट कॉमेडियन है बल्कि एक लेखक, संगीतकार, निर्माता है और सबसे बड़ी बात, उस व्यक्ति में ऊष्‍मा, उदारता और महानता है। आप में ये सारे गुण वास करते हैं और इससे बड़ी बात, कि आप में वह सादगी है जिससे आपका कद और ऊंचा होता है और एक गरमाहट भरी सहज अपील के दर्शन होते हैं जिसमें न तो कोई हिसाबी गणना होती है और न ही कोई प्रयास ही आप इसके लिए करते हैं और इनसे आप सीधे इन्सान के दिल में प्रवेश करते हैं। इन्सान, जो आप ही की तरह मुसीबतों का मारा है।’
लेकिन चार्ली को ये बाना धारण करने में, करोड़ों लोगों के चेहरे पर हँसी लाने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़े। भयंकर हताशाओं के, अकेलेपन के दौर उनके जीवन में आये, पारिवारिक और राजनैतिक मोर्चों पर एक के बाद एक मुसीबत उनके सामने आयीं लेकिन चार्ली कभी डिगे नहीं। उन्हें अपने आप पर विश्वास था, अपनी कला की ईमानदारी, अपनी अथिभव्यक्ति की सच्चाई पर विश्वास था और सबसे बड़ी बात उनकी नीयत साफ थी और वे अपने आप पर भरोसा करते थे।
उनका पूरा जीवन उतार-चढ़ावों से भरा रहा। बदकिस्मती एक के बाद एक अपनी पोटलियां खोल कर उनके इम्तिहान लेती रही। जब वे बारह बरस के ही थे तो उनके पिता की मृत्यु हो गयी थी। मात्र सैंतीस बरस की उम्र में। बहुत अधिक शराब पीने के कारण। हालांकि वे लिखते हैं कि मैं पिता को बहुत ही कम जानता था और मुझे इस बात की बिल्कुल भी याद नहीं थी कि वे कभी हमारे साथ रहे हों। उनके पिता और मां में नहीं बनती थी इसलिए चार्ली ने अपना बचपन मां की छत्र छाया में ही बिताया। चार्ली के माता पिता, दोनों ही मंच के कलाकार थे लेकिन ये उसकी (मां की) आवाज़ के खराब होते चले जाने के कारण ही था कि मुझे पांच बरस की उम्र में पहली बार स्टेज पर उतरना पड़ा। उस रात मैं अपनी ज़िंदगी में पहली बार स्टेज पर उतरा था और मां आखिरी बार। वे अपनी पहली मंच प्रस्तुति से ही सबके चहेते बन गये और फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। ‘अभी मैंने आधा ही गीत गाया था कि स्टेज पर सिक्कों की बरसात होने लगी। मैंने तत्काल घोषणा कर दी कि मैं पहले पैसे बटोरूंगा और उसके बाद ही गाना गाऊंगा। इस बात पर और अधिक ठहाके लगे। स्टेज मैनेजर एक रुमाल ले कर स्टेज पर आया और सिक्के बटोरने में मेरी मदद करने लगा। मुझे लगा कि वो सिक्के अपने पास रखना चाहता है। मैंने ये बात दर्शकों तक पहुंचा दी तो ठहाकों का जो दौरा पड़ा वो थमने का नाम ही न ले। खास तौर पर तब जब वह रुमाल लिये-लिये विंग्स में जाने लगा और मैं चिंतातुर उसके पीछे-पीछे लपका। जब तक उसने सिक्कों की वो पोटली मेरी मां को नहीं थमा दी, मैं स्टेज पर वापिस गाने के लिए नहीं आया। अब मैं बिल्कुल सहज था। मैं दर्शकों से बातें करता रहा, मैं नाचा और मैंने तरह-तरह की नकल करके दिखायी। मैंने मां के आयरिश मार्च थीम की भी नकल करके बतायी।’
चार्ली का बचपन बेहद गरीबी में गुज़रा। ‘वे लोग, जो रविवार की शाम घर पर डिनर के लिए नहीं बैठ पाते थे, उन्हें भिखमंगे वर्ग का माना जाता था और हम उसी वर्ग में आते थे।’ पिता के मरने और मां के पागल हो जाने और कोई स्थायी आधार न होने के कारण चार्ली को पूरा बचपन अभावों में गुज़ारना पड़ा और यतीम खानों में रहना पड़ा। ‘हमारा वक्त खराब चल रहा था और हम गिरजा घरों की खैरात पर पल रहे थे।’ मां पागल खाने में और भाई सिडनी अपनी नौकरी पर जहाज में, चार्ली को डर रहता कि कहीं उसे फिर से यतीम खाने न भेज दिया जाये, वह सारा सारा दिन मकान मालकिन की निगाहों से बचने के लिए सड़कों पर मारे मारे फिरते,’मैं लैम्बेथ वॉक पर और दूसरी सड़कों पर भूखा-प्यासा केक की दुकानों की खिड़कियां में झांकता चलता रहा और गाय और सूअर के मांस के गरमा-गरम स्वादिष्ट लजीज पकवानों को और शोरबे में डूबे गुलाबी लाल आलुओं को देख-देख कर मेरे मुंह में पानी आता रहा।’
चार्ली को चलना और बोलना सीखने से पहले पहले गाना और नाचना सिखाया गया था और यही वज़ह रही कि वे पांच बरस में मंच पर उतर गये थे और इससे भी बड़ी बात कि सात बरस की उम्र में वे नृत्य के लैसन दिया करते थे और इस तरह से होने वाली कमाई से घर चलाने में मां का हाथ बंटाते थे। बेशक हम समाज के जिस निम्नतर स्तर के जीवन में रहने को मज़बूर थे वहां ये सहज स्वाभाविक था कि हम अपनी भाषा-शैली के स्तर के प्रति लापरवाह होते चले जाते लेकिन मां हमेशा अपने परिवेश से बाहर ही खड़ी हमें समझाती और हमारे बात करने के ढंग, उच्चारण पर ध्यान देती रहती, हमारा व्याकरण सुधारती रहती और हमें यह महसूस कराती रहती कि हम खास हैं।
चार्ली की स्कूली पढ़ाई आधी अधूरी रही। देखा जाये तो वे औपचारिक रूप से दो बरस ही स्कूल जा पाये और बाकी पढ़ाई अनाथ आश्रमों के स्कूलों में या इंगलैंड के प्रदेशों में नाटक मंडली के साथ शो करते हुए एक एक हफ्ते के लिए अलग अलग शहरों के स्कूलों में करते रहे। चार्ली ने नियमित रूप से आठ बरस की उम्र में ही एट लंकाशयर लैड्स मंडली में बाल कलाकार के रूप में काम करना शुरू कर दिया था और बारह बरस की उम्र तक आते आते वे इंगलैंड के सर्वाधिक चर्चित बाल कलाकार बन चुके थे और जीवन की असली पाठशाला में अपनी पढ़ाई कर रहे थे, फिर भी स्कूली पढ़ाई ने उन्हें जो कुछ सिखाया, उसके बारे में वे लिखते हैं: काश, किसी ने कारोबारी दिमाग इस्तेमाल किया होता, प्रत्येक अध्ययन की उत्तेजनापूर्ण प्रस्तावना पढ़ी होती जिसने मेरा दिमाग झकझोरा होता, तथ्यों के बजाये मुझ में रुचि पैदा की होती, अंकों की कलाबाजी से मुझे आनंदित किया होता, नक्शों के प्रति रोमांच पैदा किया होता, इतिहास के बारे में मेरी दृष्टिकोण विकसित किया होता, मुझे कविता की लय और धुन को भीतर उतारने के मौके दिये होते तो मैं भी आज विद्वान बन सकता था।
मात्र आठ बरस की उम्र में उन्हें जिन संकटों का सामना करना पड़ा, उससे कोई भी दूसरा बच्चा बिल्कुल टूट ही जाता। चार्ली काम धंधे की तलाश में गलियों में मारे मारे फिरते: उस वक्त मैं आठ बरस का भी नहीं हुआ था लेकिन वे दिन मेरी ज़िन्दगी के सबसे लम्बे और उदासी भरे दिन थे।
ऐसे में भी चार्ली ने कभी हिम्मत नहीं हारी क्योंकि लक्ष्य उनके सामने था कि उन्हें जो भी करना है, थियेटर में ही करना है। उन्होंने बीसियों धंधे किये: मुझमें धंधा करने की जबरदस्त समझ थी। मैं हमेशा कारोबार करने की नयी-नयी योजनाएं बनाने में उलझा रहता। मैं खाली दुकानों की तरफ देखता, सोचता, इनमें पैसा पीटने का कौन सा धंधा किया जा सकता है। ये सोचना मछली बेचने, चिप्स बेचने से ले कर पंसारी की दुकान खोलने तक होता। हमेशा जो भी योजना बनती, उसमें खाना ज़रूर होता। मुझे बस पूंजी की ही ज़रूरत होती लेकिन पूंजी ही की समस्या थी कि कहां से आये। आखिर मैंने मां से कहा कि वह मेरा स्कूल छुड़वा दे और काम तलाशने दे।
मैंने बहुत धंधे किये। मैंने अखबार बेचे, प्रिंटर का काम किया, खिलौने बनाए, ग्लास ब्लोअर का काम किया, डॉक्टर के यहाँ काम किया लेकिन इन तरह-तरह के धंधों को करते हुए मैने सिडनी की तरह इस लक्ष्य से कभी भी निगाह नहीं हटायी कि मुझे अंतत: अभिनेता बनना है, इसलिए अलग-अलग कामों के बीच अपने जूते चमकाता, अपने कपड़ों पर ब्रश फेरता, साफ कॉलर लगाता और स्ट्रैंड के पास बेड फोर्ड स्ट्रीट में ब्लैक मोर थिएटर एजेन्सी में बीच-बीच में चक्कर काटता। मैं तब तक वहाँ चक्कर लगाता रहा जब तक मेरे कपड़ों की हालत ने मुझे वहाँ और जाने से बिलकुल ही रोक नहीं दिया।
चार्ली चैप्लिन ने बचपन में नाई की दुकान पर भी काम किया था लेकिन इस आत्म कथा में उन्होंने इसका कोई ज़िक्र नहीं किया है। इस काम का उन्हें ये फायदा हुआ कि वे अपनी महान फिल्म द ग्रेट थिडक्टेटर में यहूदी नाई का चरित्र बखूबी निभा सके।
जब उन्हें पहली बार नाटक में काम करने के लिए विधिवत काम मिला तो वे जैसे सातवें आसमान पर थे,’मैं खुशी के मारे पागल होता हुआ बस में घर पहुंचा और दिल की गहराइयों से यह महसूस करने लगा कि मेरे साथ क्या हो गया है। मैंने अचानक ही गरीबी की अपनी ज़िंदगी पीछे छोड़ दी थी और अपना बहुत पुराना सपना पूरा करने जा रहा था। ये सपना जिसके बारे में अक्सर मां ने बातें की थीं और उसे मैं पूरा करने जा रहा था। अब मैं अभिनेता होने जा रहा था। मैं अपनी भूमिका के पन्नों को सहलाता रहा। इस पर नया खाकी लिफाफा था। यह मेरी अब तक की ज़िंदगी का सबसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज था। बस की यात्रा के दौरान मैंने महसूस किया कि मैंने एक बहुत बड़ा किला फतह कर लिया है। अब मैं झोपड़ पट्टी में रहने वाला नामालूम सा छोकरा नहीं था। अब मैं थिएटर का एक खास आदमी होने जा रहा था। मेरा मन किया कि मैं रो पडूं।
और इस भूमिका के लिए उन्होंने खूब मेहनत की और अपने चरित्र के साथ पूरी तरह से न्याय किया। वे लगातार दर्शकों के चहेते बनते गये। एक मज़ेदार बात ये हुई कि वे अपनी ज़िंदगी का पहला करार करने जा रहे थे लेकिन उन्हें लग रहा था कि जितना मिल रहा है, वे उससे ज्यादा के हकदार हैं और वहां वे अपनी व्यावसायिक बनिया बुद्धि का एक नमूना दिखा ही आये थे,’हालांकि यह राशि मेरे लिए छप्पर फाड़ लॉटरी खुलने जैसी थी फिर भी मैंने यह बात अपने चेहरे पर नहीं झलकने दी। मैंने निम्रता से कहा,’शर्तों के बारे में मैं अपने भाई से सलाह लेना चाहूंगा।’
उन्नीस बरस की उम्र तक आते आते वे इंगलिश थियेटर में अपनी जगह बना चुके थे लेकिन अपने आपको अकेला महसूस करते। वे बरसों से अकेले ही रहते आये थे। प्यार ने उनकी ज़िदंगी में बहुत देर से दस्तक दी थी लेकिन वे अपनी अकड़ के चलते वहां भी अपने पत्ते फेंक आये थे। हालांकि अपने पहले प्यार को वे लम्बे अरसे तक भुला नहीं पाये। ‘सोलह बरस की उम्र में रोमांस के बारे में मेरे ख्यालों को प्रेरणा दी थी एक थियेटर के पोस्टर ने जिसमें खड़ी चट्टान पर खड़ी एक लड़की के बाल हवा में उड़े जा रहे थे। मैं कल्पना करता कि मैं उसके साथ गोल्फ खेल रहा हूं।
यही मेरे लिए रोमांस था। लेकिन कम उम्र का प्यार तो कुछ और ही होता है। एक नज़र मिलने पर, शुरुआत में कुछ शब्दों का आदान प्रदान (आम तौर पर गदहपचीसी के शब्द), कुछ ही मिनटों के भीतर पूरी जिंदगी का नज़रिया ही बदल जाता है। पूरी कायनात हमारे साथ सहानुभूति में खड़ी हो जाती है और अचानक हमारे सामने छुपी हुई खुशियों का खज़ाना खोल देती है।
मैं उन्नीस बरस का होने को आया था और कार्नो कम्पनी का सफल कामेडियन था। लेकिन कुछ था जिसकी अनुपस्थिति खटक रही थी। वसंत आ कर जा चुका था और गर्मियां अपने पूरे खालीपन के साथ मुझ पर हावी थीं। मेरी दिनचर्या बासीपन लिये हुए थी और मेरा परिवेश शुष्क। मैं अपने भविष्य में कुछ भी नहीं देख पाता था, वहां सिर्फ अनमनापन, सब कुछ उदासीनता लिये हुए और चारों तरफ आदमी ही आदमी। सिर्फ पेट भरने की खातिर काम धंधे से जुड़े रहना ही काफी नहीं लग रहा था। ज़िंदगी नौकर सरीखी हो रही थी और उसमें किसी किस्म की बांध लेने वाली बात नहीं थी।
मैं बुद्धूपने और अतिनाटकीयता का पुजारी था, स्वप्नजीवी भी और उदास भी। मैं ज़िंदगी से खफ़ा भी रहता था और उसे प्यार भी करता था। कला शब्द कभी भी मेरे भेजे में या मेरी शब्द सम्पदा में नहीं घुसा। थियेटर मेरे लिए रोज़ी-रोटी का साधन था, इससे ज्यादा कुछ नहीं।
मैं अकेला होता चला गया, अपने आप से असंतुष्ट। मैं रविवारों को अकेला भटकता घूमता रहता, पार्कों में बज रहे बैंडों को सुन का दिल बहलाता। न तो मैं अपनी खुद की कम्पनी झेल पाता था और न ही किसी और की ही। और तभी एक खास बात हो गयी – मुझे प्यार हो गया। मुझे अचानक दो बड़ी-बड़ी भूरी शरारत से चमकती अंाखों ने जैसे बांध लिया। ये आंखें एक दुबले हिरनी जैसे, सांचे में ढले चेहरे पर टंगी हुई थीं और बांध लेने वाला उसका भरा पूरा चेहरा, खूबसूरत दांत, ये सब देखने का असर बिजली जैसा था। लेकिन हैट्टी को जी जान से चाहने के बावजूद उन्होंने अपनी चौथी मुलाकात में ही उसके खराब मूड को देख कर फैसला कर लिया कि वह उनसे प्यार नहीं करती। और संबंध तोड़ बैठे।’ ‘मेरा ख्याल यही है कि हम विदा हो जायें और फिर कभी दोबारा एक दूजे से न मिलें।’ मैंने कहा और सोचता रहा कि उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी।
लेकिन अब क्या हो सकता था।’मैंने क्या कर डाला था? क्या मैंने बहुत जल्दीबाजी की? मुझे उसे चुनौती नहीं देनी चाहिये थी। मैं भी निरा गावदी हूं कि उससे दोबारा मिलने के सारे रास्ते ही बंद कर दिये? लेकिन किस्मत उन्हें दूसरे दरवाजे से दस्तक दे रही थी। संभावनाओं ने नये दरवाजे खुल रहे थे: अमेरिका में संभावनाओं का अंनत आकाश था। मुझे अमेरिका जाने के लिए इसी तरह के किसी मौके की जरूरत थी। इंगलैंड में मुझे लग रहा था कि मैं अपनी संभावनाओं के शिखर पर पहुँच चुका हूँ और इसके अलावा, वहाँ पर मेरे अवसर अब बंधे बंधाये रह गये थे। आधी-अधूरी पढ़ाई के चलते अगर मैं म्यूजिक हॉल के कामेडियन के रूप में फेल हो जाता तो मेरे पास मजदूरी के काम करने के भी बहुत ही सीमित आसार होते।
उनके जीवन का सबसे सुखद पहलु अगर अमेरिका जाना था और वहां चालीस बरस तक रह कर नाटक, फिल्मों और मनोरंजन के सर्वाधिक सफल व्यक्तित्व के रूप में पूरी दुनिया के लोगों के दिल पर राज करना था तो वहां से जाना भी उनके लिए सबसे दुखद घटना बन कर आयी। वे खुली अनंत आकाश की खुली हवा की तलाश में अमेरिका गये थे और आखिर खुली हवा की तताश में मज़बूर हो कर वहां से कूच करना पड़ा और उम्र के छठे दशक में स्विटज़रलैंड को अपना घर बनाना पड़ा।
चार्ली पूरी दुनिया के चहेते थे। वे शायद अकेले ऐसे शख्स रहे होंगे जिनके दोस्त हर देश में, हर फील्ड में और हर उम्र के थे। वे अमूमन हर देश के राज्याध्यक्ष, राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री से मित्रता के स्तर पर मिलते थे। वे उनकी फिल्में दिखाये जाने का आग्रह करते, उन्हें राजकीय सम्मान देते। उनके घर पर आते और उनके साथ खाना खाते। वे गांधी जी से भी मिले थे और नेहरू जी से भी। गांधी जी से वे बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने बर्नार्ड शॉ के घर पर कई बार खाना खाया था और आइंस्टीन कई बार चार्ली के घर आ चुके थे। जीवन के हर क्षेत्र के लोग उनके मित्र थे: मैं दोस्तों को वैसे ही पसंद करता हूं जैसे संगीत को पसंद करता हूं। शायद मुझे कभी भी बहुत ज्यादा दोस्तों की ज़रूरत नहीं रही – आदमी जब किसी ऊंची जगह पर पहुंच जाता है तो दोस्त चुनने में कोई विवेक काम नहीं करता। अलबत्ता वे मानते थे कि ज़रूरत के वक्त किसी दोस्त की मदद करना आसान होता है लेकिन आप हमेशा इतने खुशनसीब नहीं होते कि उसे अपना समय दे पायें।
चार्ली ने इकतरफा प्रेम बहुत किये। वैसे देखा जाये तो हैट्टी के साथ उनका पहला प्यार भी इकतरफा ही था और शायद यही वजह रही कि वे उनतीस बरस की उम्र तक अकेले ही रहे। मेरा अकेलापन कुंठित करने वाला था क्योंकि मैं दोस्ती करने की सारी ज़रूरतें पूरी करता था। मैं युवा था, अमीर था और बड़ी हस्ती था। इसके बावज़ूद मैं न्यू यार्क में अकेला और परेशान हाल घूम रहा था।
हालांकि चार्ली ने चार शादियां कीं लेकिन पहली तीन शादियों से उन्हें बहुत तकलीफ पहुंची। पहली शादी करने जाते समय तो वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि वे ये शादी कर ही क्यों रहे हैं। दूसरी शादी ने उन्हें इतनी तकलीफ पहुंचायी कि इस आत्म कथा में अपनी दूसरी पत्नी का नाम तक नहीं बताया है। अलबत्ता, ऊना ओ नील से उनकी चौथी शादी सर्वाधिक सफल रही। हालांकि दोनों की उम्र में 36 बरस का फर्क था और ऊना उनकी छत्तीस बरस तक, यानी आजीवन उनकी पत्नी रहीं। वे अपने जीवन के अंतिम 36 बरस उसी की वजह से अच्छी तरह से गुज़ार सके। पिछले बीस बरस से मैं जानता हूं कि खुशी क्या होती है। मैं किस्मत का धनी रहा कि मुझे इतनी शानदार बीवी मिली। काश, मैं इस बारे में और ज्यादा लिख पाता लेकिन इससे प्यार जुड़ा हुआ है और परफैक्ट प्यार सारी कुंठाओं से ज्यादा सुंदर होता है क्योंकि इसे जितना ज्यादा अभिव्यक्त किया जाये, उससे अधिक ही होता है। मैं ऊना के साथ रहता हूं और उसके चरित्र की गहराई और सौन्दर्य मेरे सामने हमेशा नये नये रूपों में आते रहते हैं।
हालांकि चार्ली ने अपनी आत्म कथा में पोला नेगरी से अपनी अभिन्न मित्रता का ही ज़िक्र किया है, तथ्य बताते हैं कि नेगरी से उनकी पन्द्रह दिन के भीतर ही दो बार सगाई हुई थी और टूटी थी। चार्ली ने अपनी आत्म कथा में अपनी सभी संतानों का भी उल्लेख नहीं किया है। इसकी वजह ये भी हो सकती है कि ये आत्म कथा 1960 में लिखी गयी थी जब वे 71 बरस के थे और ऊना ने कुल मिला कर उन्हें आठ संतानों का उपहार दिया था और उनकी आठवीं संतान तब हुई थी जब चार्ली 73 बरस के थे और ऊना 37 बरस की।
अलबत्ता, अपनी आत्म कथा में चार्ली ने अपने सैक्स संबंधों के बारे में काफी खुल कर चर्चा की है: हर दूसरे व्यक्ति की तरह मेरे जीवन में भी सैक्स के दौर आते-जाते रहे। लेकिन उनका मानना है: मेरे ख्याल से तो सैक्स से चरित्र को समझने में या उसे सामने लाने में शायद ही कोई मदद मिलती हो। और कि ठंड, भूख और गरीबी की शर्म से व्यक्ति के मनोविज्ञान पर कहीं अधिक असर पड़ सकता है। जो परिस्थितियां आपको सैक्स की तरफ ले जाती हैं, वे मुझे ज्यादा रोमांचक लगती हैं।
चार्ली अमेरिका गये तो थियेटर करने थे लेकिन उनके भाग्य में और बड़े पैमाने पर दुनिया का मनोरंजन करना लिखा था। अमेरिका में और भी कई संभावनाएंं थीं। मैं थिएटर की दुनिया से क्यूँ चिपका रहूँ? मैं कला को समर्पित तो था नहीं। कोई दूसरा धंधा कर लेता। मैंने अमेरिका में टिकने की ठान ली थी। शुरू शुरू में उन्हें अपने पैर जमाने में और अपने मन की करने में तकपीफ हुई लेकिन एक बार ट्रैम्प का बाना धारण करने लेने के बाद उन्होंने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। मेरा चरित्र थोड़ा अलग था और अमेरिकी जनता के लिए अनजाना भी। यहाँ तक कि मैं भी उससे कहाँ परिचित था। लेकिन वे कपड़े पहन लेने के बाद मैं यही महसूस करता था कि मैं एक वास्तविकता हूँ, एक जीवित व्यक्ति हूँ। दरअसल, जब मैं वे कपड़े पहन लेता और ट्रैम्प का बाना धारण कर लेता तो मुझे तरह तरह के मज़ाकिया ख्याल आने लगते जिनके बारे में मैं कभी सोच भी नहीं सकता था। चूँकि मेरे कपड़े मेरे चरित्र से मेल खा रहे थे, मैंने तभी और उसी वक्त ही तय कर लिया कि भले ही कुछ भी हो जाये, मैं अपनी इसी ढब को बनाये रखूँगा।
वे जल्दी ही अपनी मेहनत और हुनर के बल पर ऐसी स्थिति में आ गये कि मनमानी कीमत वसूल कर सकें। वे ऑल इन वन थे। लेखक, अभिनेता, निर्देशक, संपादक, निर्माता और बाद में तो वितरक भी। जल्द ही उनकी तूती बोलने लगी। लेकिन एक मज़ेदार बात थी उनके व्यक्तित्व में। किसी भी फिल्म के प्रदर्शन से पहले वे बेहद नर्वस हो जाते। उनकी रातों की नींद उड़ जाती। पहले शो में वे थियेटर के अंदर बाहर होते रहते, लेकिन आश्चर्य की बात, कि सब कुछ ठीक हो जाता और हर फिल्म पहले की फिल्मों की तुलना में और सफल होती।
हर फिल्म के साथ चार्ली की प्रसिद्धि का ग्राफ ऊपर उठता जा रहा था और साथ ही उनकी कीमत भी बढ़ती जा रही थी। वे मनमाने दाम वसूल करने की हैसियत रखते थे और कर भी रहे थे। न्यू यार्क में मेरे चरित्र, कैलेक्टर के खिलौने और मूर्तियां सभी डिपार्टमेंट स्टोरों और ड्रगस्टोरों में बिक रहे थे। जिगफेल्ड लड़कियां चार्ली चैप्लिन गीत गा रही थीं।
उन्होंने बहुत तेजी से बहुत कुछ हासिल कर लिया था। मैं सिर्फ सत्ताइस बरस का था और मेरे सामने अनंत सम्भावनाएं थीं, और थी मेरे सामने एक दोस्तानी दुनिया। थोड़े से ही अरसे में मैं करोड़पति हो जाऊंगा। मैं कभी इस सब की कल्पना भी नहीं कर सकता था।
चार्ली के बहुत से मित्र थे और उनकी कई मित्रताएं आजीवन रहीं। पुरुषों से भी और महिलाओं से भी। वे दूसरों से प्रभावित भी हुए और पूरी दुनिया को भी अपने तरीके से प्रभावित किया। हर्स्ट उनके बेहद करीबी मित्र थे और उन्हें अपना आदर्श मानते थे। मेरे एक-दो बहुत ही अच्छे दोस्त हैं जो मेरे क्षितिज को रौशन बनाये रहते हैं।
भारतीय सिनेमा के कितने ही कलाकारों ने चार्ली के ट्रैम्प की नकल करने की कोशिश की लेकिन वे उसे दो एक फिल्मों से आगे नहीं ले जा पाये।
हालांकि चार्ली ने स्कूली शिक्षा बहुत कम पायी थी लेकिन उन्होंने जीवन की किताब को शुरू से आखिर तक कई बार पढ़ा था। उन्हें मनोविज्ञान की गहरी समझ थी। उनका बचपन बहुत अभावों में गुज़रा था और उन्होंने तकलीफों को बहुत नज़दीक से जाना और पहचाना था। इसके अलावा वे सेल्फ मेड आदमी थे लेकिन उन्हें अपने आप पर बहुत भरोसा था। इस आत्म कथा में उन्होंने अमूमन सब कुछ पर लिखा है और बेहतरीन लिखा है। अभिनय, कला, संवाद अदायगी, कैमरा एंगल, निर्देशन, थियेटर, विज्ञान, परमाणु बम, मानव मनोविज्ञान, मछली मारना, साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद, युद्ध, अमीरी, गरीबी, राजनीति, साहित्य, संगीत, कला, धर्म, दोस्ती, भूत प्रेत कुछ भी तो ऐसा नहीं बचा है जिस पर उन्होंने अपनी विशेषज्ञ वाली राय न जाहिर की हो। कॉमेडी की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं, किसी भी कॉमेडी में सबसे महत्त्वपूर्ण होता है नज़रिया। लेकिन हर बार नज़रिया ढूंढना आसान भी नहीं होता। किसी कॉमेडी को सोचने और उसे निर्देशित करने से ज्यादा दिमाग की सतर्कता किसी और काम में ज़रूरी नहीं होती। अभिनय के बारे में वे कहते हैं: मैंने कभी भी अभिनय का अध्ययन नहीं किया है लेकिन लड़कपन में ये मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे महान अभिनेताओं के युग में रहने का मौका मिला और मैंने उनके ज्ञान और अनुभव के विस्तार को हासिल किया।
शायद चार्ली का नाम इस बात के लिए गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में लिखा जायेगा कि उन पर, उनकी अभिनय कला पर, उनकी फिल्मों पर, उनकी शैली पर और उनके ट्रैम्प पर दुनिया भर की भाषाओं में शायद एक हज़ार से भी ज्यादा किताबें लिखी गयी हैं। जो भी उनके जीवन में आया, या नहीं भी आया, उसने चार्ली पर लिखा।
अमेरिका जाने और खूब सफल हो जाने के बाद चार्ली पहली बार दस बरस बाद और दूसरी बार बीस बरस बाद लंदन आये थे और उन्हें वहां बचपन की स्मृतियों ने एक तरह से घेर लिया था। मेरे अतीत के दिनों से हैट्टी ही वह अकेली परिचित व्यक्ति थी जिससे दोबारा मिलना मुझे अच्छा लगता, खास तौर पर इन बेहतरीन परिस्थितियों में उससे मिलने का सुख मिलता।
उन्होंने जीवन में भरपूर दुख भी भोगे और सुख भी। ऐसा और कौन अभागा होगा जो सिर्फ इसलिए दोस्त के घर के आसपास मंडराता रहे ताकि उसे भी शाम के खाने के लिए बुलवा लिया जाये और ऐसे व्यक्ति से ज्यादा सुखी और कौन होगा जिसे कमोबेश हर देश के राज्याध्यक्षों के यहां से न्यौते मिलते हों, विश्व विख्यात वैज्ञानिक, लेखक और राजनयिक उनसे मिलने के लिए समय मांगते हों और उसके आस पास विलासिता की ऐसी दुनिया हो जिसकी हम और आप कल्पना भी न कर सकते हों। जीवन के ये दोनों पक्ष चार्ली स्पेंसर चैप्लिन ने देखे और भरपूर देखे।
उनके जीवन का सबसे दुखद पक्ष रहा, अमेरिका द्वारा उन पर ये शक किया जाना कि वे खुद कम्यूनिस्ट हैं और अगर नहीं भी हैं तो कम से कम उनसे सहानुभूति तो रखते ही हैं और उनकी पार्टी लाइन पर चलते हैं।
इस भ्रम भूत ने आजीवन उनका पीछा नहीं छोड़ा और अंतत: अमेरिका में चालीस बरस रह कर, उस देश के लिए इतना कुछ करने के बाद जब उन्हें बेआबरू हो कर अपना जमा जमाया संसार छोड़ कर एक नये घर कर तलाश में स्विट्ज़रलैंड जाना पड़ा तो वे बेहद व्यथित थे। उन पर ये आरोप भी लगाया गया कि वे अमेरिकी नागरिक क्यों नहीं बने। आप्रवास विभाग के अधिकारियों के सवालों को जवाब देते हुए वे कहते हैं, ‘क्या आप जानते हैं कि मैं इस सारी मुसीबत में कैसे फंसा? आपकी सरकार पर अहसान करके! रूस में आपके राजदूत मिस्टर जोसेफ डेविस को रूसी युद्ध राहत की ओर से सैन फ्रांसिस्को में भाषण देना था, लेकिन ऐन मौके पर उनका गला खराब हो गया और आपकी सरकार के एक उच्च अधिकारी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं उनके स्थान पर बोलने की मेहरबानी करूंगा और तब से मैं इसमें अपनी गर्दन फंसाये बैठा हूं।’
‘मैं कम्यूनिस्ट नहीं हूं फिर भी मैं उनके विरोध में खड़ा होने से इन्कार करता रहा। मैंने कभी भी अमेरिकी नागरिक बनने का प्रयास नहीं किया। हालांकि सैकड़ों अमेरिकी बाशिंदे इंगलैंड में अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं। वे कभी भी ब्रिटिश नागरिक बनने का प्रयास नहीं करते।
चार्ली चैप्लिन की यह आत्म कथा एक महाकाव्य है एक ऐसे शख्स के जीवन का, जिसे दिया ही दिया है और बदले में सिर्फ वही मांगा जो उसका हक था। उसने हँसी बांटी और बदले में प्यार भी पाया और आंसू भी पाये। उसने कभी भी नाराज़ हो कर ये नहीं कहा कि आप गलत हैं। उसे अपने आप पर, अपने फैसलों पर, अपनी कला पर और अपनी अभिव्यक्ति शैली पर विश्वास था और उस विश्वास के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता भी थी। वह अपने पक्ष में किसी से भी लड़ने भिड़ने की हिम्मत रखता था क्योंकि वह जानता था कि सच उसके साथ है। उसमें परफैक्शन के लिए इतनी ज़िद थी कि सिटीलाइट्स के 70 सेकेंड के एक दृश्य के लिए पांच दिन तक रीटेक लेता रहा। अपने काम के प्रति उसमें इतनी निष्ठा थी कि मूक फिल्मों का युग बीत जाने के 4 बरस बाद भी वह लाखों डॉलर लगा कर मूक फिल्म बनाता है क्योंकि उसका मानना है कि हर तरह के मनोरंजन की ज़रूरत होती है। वह सच्चे अर्थों में जीनियस था और ये बात आज भी इस तथ्य से सिद्ध हो जाती है कि फिल्मों के इतने अधिक परिवर्तनों से गुज़र कर यहां तक आ पहुंचने के बाद भी सत्तर अस्सी बरस पहले बनी उसकी फिल्में हमें आज भी गुदगुदाती है। उस व्यक्ति के पास मास अपील का जादुई चिराग था।
मुझे इस बात की खुशी है कि मैं पहली बार चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा को हिन्दी पाठकों के सामने ला रहा हूं। ये काम मैंने कई बरस पहले शुरू किया था लेकिन इसका काफी सारा हिस्सा कम्प्यूटर में हार्ड डिस्क की चिता के साथ जल जाने के कारण मैंने इसे दोबारा हाथ भी नहीं लगाया था। इस अरसे में मैंने कुछ नहीं किया, न पढ़ा, न लिखा, बस चार्ली बाबा के सानिध्य में बैठा ये काम करता रहा। उन्हें अपने भीतर उतारता रहा।
एक बात और कि बेशक चार्ली ने विधिवत स्कूली शिक्षा नहीं पायी थी, लेकिन उनका भाषा ज्ञान अद्भुत है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में न केवल अंग्रेज़ी के, बल्कि फ्रेंच, इताल्वी, ग्रीक और जर्मन संदर्भ भी खूब दिये हैं। भाषा उनकी शानदार अंग्रेज़ी की मिसाल है
और अंत में एक और बात,
क्या आपको नहीं लगता कि अगर हँसाने के लिए कोई नोबल पुरस्कार होता तो वह अब तक सिर्फ एक ही व्यक्ति को दिया जाता और निश्चित ही वह नाम होता- चार्ल्स स्पेंसर चैप्लिन (1889-1977)


सूरज प्रकाश 

(जन्म १४ मार्च, १९५२; देहरादूनहिन्दी और गुजराती के लेखक और कथाकार हैं।

सूरज प्रकाश का जन्म उत्तराखण्ड (तब के उत्तर प्रदेश) के देहरादून में हुआ था। सूरज प्रकाश ने मेरठ विश्वविद्यलय से बी॰ए॰ की डिग्री प्राप्त की और बाद में उस्‍मानिया विश्‍वविद्यालय से एम ए किया। तुकबंदी बेशक तेरह बरस की उम्र से ही शुरू कर दी थी लेकिन पहली कहानी लिखने के लिए उन्‍हें पैंतीस बरस की उम्र तक इंतजार करना पड़ा। उन्होंने शुरू में कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं और फिर 1981 में भारतीय रिज़र्व बैंक की सेवा में बंबई आ गए और वहीं से 2012 में महाप्रबंधक के पद से रिटायर हुए। सूरज प्रकाश कहानीकार, उपन्यासकार और सजग अनुवादक के रूप में जाने जाते हैं। 1989 में वे नौकरी में सज़ा के रूप में अहमदाबाद भेजे गये थे लेकिन उन्‍होंने इस सज़ा को भी अपने पक्ष में मोड़ लिया। तब उन्‍होंने लिखना शुरू ही किया था और उनकी कुल जमा तीन ही कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं। अहमदाबाद में बिताए 75 महीनों में उन्‍होंने अपने व्‍यक्‍तित्‍व और लेखन को संवारा और कहानी लेखन में अपनी जगह बनानी शुरू की। खूब पढ़ा और खूब यात्राएं कीं। एक चुनौती के रूप में गुजराती सीखी और पंजाबी भाषी होते हुए भी गुजराती से कई किताबों के अनुवाद किए। इनमें व्‍यंग्य लेखक विनोद भट्ट की कुछ पुस्‍तकों, हसमुख बराड़ी के नाटक ’राई नो दर्पण’ राय और दिनकर जोशी के बेहद प्रसिद्ध उपन्‍यास ’प्रकाशनो पडछायो’ के अनुवाद शामिल हैं। वहीं रहते हुए जॉर्ज आर्वेल के उपन्‍यास ’एनिमल फॉर्म’ का अनुवाद किया। गुजरात हिंदी साहित्‍य अकादमी का पहला सम्‍मान 1993 में सूरज प्रकाश को मिला था। वे इन दिनों मुंबई में रहते हैं। सूरज प्रकाश जी हिंदी, पंजाबी, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी भाषाएं जानते हैं। उनके परिवार में उनकी पत्‍नी मधु अरोड़ा और दो बेटे अभिजित और अभिज्ञान हैं। मधु जी समर्थ लेखिका हैं।

प्रकाशित पुस्तकें

उपन्यास

  • हादसों के बीच (1998),
  • देस बिराना (2000),
  • नॉट इक्वल टू लव (हिंदी का पहला चैट उपन्यास) 2017,
  • ख्वाबगाह 2019

कहानी-संग्रह

  • अधूरी तस्वीर (1992)
  • छूटे हुए घर (2002)
  • खो जाते हैं घर (2012)
  • मर्द नहीं रोते (2012)
  • छोटे नवाब बड़े नवाब (2013)
  • संकलित कहानियां (2015),
  • लहरों की बांरीस

इनके अलावा इनकी शोध आधारित किताब लेखकों की दुनिया उल्लेखनीय है। सूरज प्रकाश की जीवनी उम्र भर देखा किये का लेखन विजय अरोड़ा ने किया है। थ

व्‍यंग्‍य-संग्रह

  • ज़रा संभल के चलो (1999)
  • दाढ़ी में तिनका (2011)

अंग्रेजी से अनुवाद

  • ऐन फ्रेंक की डायरी (2002)
  • मिलेना (2004)
  • चार्ली चैप्‍लिन की आत्‍मकथा (2006)
  • चार्ल्‍स डार्विन की आत्‍मकथा (2007)
  • एनिमल फार्म (2013)
  • क्रानिकल ऑफ ए डैथ फोरटोल्‍ड

गुजराती से अनुवाद

  • भूल चूक लेनी देनी (विनोद भट्ट के व्‍यंग्‍य)(1991)
  • चेखव और बर्नार्ड शॉ (विनोद भट्ट के व्‍यंग्‍य) (1993)
  • हसमुख बराड़ी का नाटक राई नो दर्पण राय (1994)
  • प्रकाशनो पडछायो (महात्‍मा गांधी के बेटे हरिलाल के जीवन पर दिनकर जोशी का उपन्‍यास) (1998)
  • दिवा स्वप्‍न (गीजू भाई बधेका की पुस्‍तक) (1996)
  • मां बाप से (गीजू भाई बधेका की पुस्‍तक (1997)
  • (गीजू भाई बधेका की दो सौ किशोर कहानियां (1998)
  • महात्‍मा गांधी की आत्‍मकथा (2012)
  • संपादन [संपादित करें]
  • बंबई एक (बंबई पर आधारित कहानियां) (1999)
  • कथा दशक (कथा यूके से सम्‍मानित लेखकों की कहानियां)
  • कथा लंदन (लंदन में लिखी जा रही कहानियां)
  • इसके अलावा बैंकिंग साहित्‍य से संबंधित 6 पुस्तकों का संपादन

देस बिराना

देस बिराना सूरज प्रकाश का महत्‍वपूर्ण उपन्‍यास है। यह एक ऐसे अकेले लड़के की कहानी है जो बचपन के एक छोटे से हादसे के कारण घर छोड़ देता है और आजीवन अपनी शर्तों पर अपनी तरह के घर की तलाश करता रहता है। उसका अपना घर ही अपना नहीं रहता और वह घर नाम की जगह की चाहत में बंबई और लंदन में भटकता रहता है। जो घर उसे मिलता है वह उस तरह का घर नहीं होता जो उसकी चाहत है। वह सोचता है कि जिदंगी भी हमारे साथ कैसे कैसे खेल खेलती है। हम बंद दरवाजों के बाहर खड़े होते हैं और भीतर खबर नहीं होती और कहीं और किन्‍हीं बंद दरवाजों के पीछे कोई हमारी राह देख रहा होता है और हमें ही खबर नहीं होती। 2000 में लिखे गये इस उपन्‍यास को बंबई की दृष्‍टिहीन व्‍यक्‍तियों के लिए काम करने वाली बंबई की संस्‍था नेशनल एसोसिएशन फॉर ब्‍लाइंड ने देश भर में फैले अपने सदस्‍यों के लिए ऑडियो उपन्‍यास के रूप मे रिकार्ड करवाया था। ये उपन्‍यास सूरज प्रकाश की वेबसाइट www.surajprakash.com पर ऑडियो रूप में भी उपलब्‍ध है।

 


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