मुंशी प्रेमचंद के पुत्र एवं प्रसिद्ध रचनाकार श्रीपत राय ने आंचलिक उपन्यासों, ख़ासकर रेणु के उपन्यासों के बारे में कहा था कि अपने रूप – विधान और दृश्यों में वे हमें इस क़दर घेर लेते हैं कि विषय- वस्तु या मूल विचार तक नहीं पहुंच पाते।
चंद्रककला त्रिपाठी का ‘चन्ना तुम उगिहो ‘ उपन्यास हाल ही में प्रकाशित हुआ है और चर्चा के केन्द्र में है। यह उपन्यास आंचलिकता का भ्रम देता है लेकिन है नहीं। यह लोक की ख़ुशबू से सराबोर है। दृश्य- बंध इसके ठिठकाते हैं किंतु रोड़ा नहीं बनते।
यहां हम इस उपन्यास के अंश प्रस्तुत कर रहे हैं जो स्वाभिमानी परित्यक्ता के संघर्ष – कथा की झलक देते हैं। चंद्रकला त्रिपाठी ने कथा को कलात्मक अनुशासन में पिरोया है। – हरि भटनागर
उपन्यास अंश :
आवे लागी चतुर बयार बिरैनी
बहिरा पंडित की बिटिया हमेशा की तरह आंधी तूफान की तरह आई और बड़ी के आगे बैठकर हिलने लगी।
“चढ़ गईं तुमको काली माई” बड़ी ने अनखाकर उसे देखा और अपना काम करती रहीं।
सूरज उतरे बहुत बखत हो गया था, आजकल सांझ देर से होती है। ओसारे के बल्ब में जलने की ताब नहीं थी। शाम के वक़्त अक्सर वोल्टेज कम रहता। बड़ी रोज़ की तरह लालटेन लेस रही थी। घर आँगन गलियार और दक्खिन बखरी के लिए हमेशा से लालटेन ही काम में आती थी।
आज बीच वाली बहू का जनमतुआ बहुत दिक कर रहा था। उसके ऊपर वाले बच्चे को भी ज्वर जैसा था। बहू इससे बहुत अनमन और डरी हुई थी। बड़ी उन्हें सँभालने में लगी थी सो आज लालटेन जलाने में देर हुई।
बच्चे का रोना थमा नहीं था। पता नहीं क्या बात हुई कि मुँह में जीभ ही नहीं धर रहा था। बड़ी भी आशंकित थीं। बस यही गनीमत थी कि दूध मुँह में ले रहा था। जब तक बच्चा दूध पिए तब तक ज़्यादा फिकिर की बात नहीं है, यह बड़ी ने अपनी सास से सुना था। सौरी की सँभाल में उनकी सास इतनी माहिर थीं कि कौन ऐसा था जो उनके कहे पर न चलता। बड़ी की याददाश्त में वे सब बातें ताज़ा हैं। वह जल्दी-जल्दी दिया-बाती का काम निबटा उसे सँभालना चाहती थीं।
रसोई का जिम्मा इन दिनों सिर्फ जिउत बो पर था। वैजंती कुछ देर के लिए आकर कुछ काम निबटा जाती थी। वैसे आज तो तारा भी आने वाली थी। कुछ सहारा तो हो ही जाना था।
भारी खेती किसानी का घर ठहरा। आहुन-पाहुन की कमी कभी नहीं थी। इसी वक़्त गाँव में लगन-पताई के चलते बड़ी की दोनों ननदें आई हुई थीं मगर उनका तो नइहर ठहरा, नइहर में कौन लड़की खटेगी भला?
कामों की भला कौन कहें। रसोई ही अपने आपमें सबसे बड़ा यज्ञ थी। वो तो जियुत बो का जांगर था कि बड़ी बहुत निश्चिंत थी। वैसे सब कुछ जियुत बो पर छोड़ देना उन्हें कभी अच्छा नहीं लगा मगर इन दिनों चारा ही क्या था?
जियुत बो? वो तो जैसे इन खटरागों में ख़ुद को गला देने पर आमादा थी। मुँह बंद किए एक के बाद दूसरा काम निबटाती जाती।
सब कुछ एक लय में निखर जाता।
जो देखता बस देखता रह जाता।
उसे भी और उसके कामों को भी।
कोई-कोई उसके अंतर में झांकना चाहता।
बंद सिले हुए से होठ और कोरी, छलछलाती उज्ज्वल आँखें उसकी। सबके खाने के बाद न जाने कब मुँह में कौर देती थी। किसी के आगे कभी जो मुँह जुठारा हो! सबके सोने के बाद सोती भी या कौन जाने? जो देखता विवश सा देखता रह जाता।
वह किसी के कैसे भी देखने को देखना नहीं चाहती थी। निगाह मिलने पर ज़रा सा हँस देती।
ऐसे ही कभी उसने जैसे याचना की थी।
विशाल आँगन के बाहरी द्वार से लगी एक कच्ची छप्पर वाली कोठरी थी, जिसमें घर का बहुत सारा अल्लम-गल्लम भरा हुआ था, वही अपने लिए माँग लिया था उसने।
एक खाट भर जगह थी उसमें।
सब कुछ निकाल देने के बावजूद कई पुराने बक्सेे उसमें बसे रह गए थे। उसी में रहना माँग लिया था उसने।
उसे पाने के लिए अड़ भी गई थी।
“यह क्या बात हुई भला?” जिसने सुना दुख में पड़ गया।
कच्ची-पक्की बखरियों के विशाल घर में एक छोटी सी कोठरी माँग रही थी वह।
महल जैसे घर की एक विपन्न कोठरी। ज़रा से झरोखे वाली। ऊपर खपरैल और बाहरी सहन के भारी नीम की झुकी डाल से अनवरत गिरती हुई पत्तियाँ। सर्दी, गर्मी, बरसात हर मौसम में वह कोठरी,
निर्वासित सी
घर की शामिल आवाज़ों के किनारे पर पड़ी हुई।
भले ही पक्के और कई कमरों वाले इस दो-दो आँगनों वाले मकान की रसोई आज भी कच्ची थी। गोबर लीपी और खपरैल वाली, एक झुके हुए से ओसारे में खुलती थी वह। इस घर के नियम में था रसोई का वैसा होना। इस तरह यह रसोई दुनिया में फैलते सारे नयेपन के सिरे को ही थाम लेती थी।
ओसारे में ही खाने के लिए पीढ़े लगते थे। एक पक्की जगह में खुलता था यह ओसरा। वहाँ रसोई के लिए ही पानी का सरंजाम था। एक तरफ बर्तन माजने की जगह और चांपाकल था।
ढेर सारी दूब
तुलसी का चौरा। गेंदा, गुड़हल की मझोली झाड़।
अकेला एक वृक्ष था यहाँ बेल का।
ऊँची चार दीवारी पर पीछे की बसवारी की छाया पड़ती। देखा जाए तो यह घर का आबाद हिस्सा था। रसोई की रजगज जो यहाँ सबसे ज़्यादा थी। जियुत बो का कमरा इस आँगन का एक सूना छोर था।
ढेर सारी चुप्पी वहाँ थमी रहती।
ज़रा सी जगह में अपने सलीके से उसने अपना जीवन बसा लिया था। देर रात जब कभी वहाँ लौटती तो सिर से आँचल हटाती। दोनों हथेलियों में माथा थामकर देर तक आँखें बंद रखती। बहुत थके हुए शरीर में भी नींद उतरने का जल्दी नाम नहीं लेती थी।
बहुत सूखी आँखें थीं उसकी।
बहुत दिनों पहले आँसू कहीं बिला गए थे।
जलती रहती थीं आँखें और सिर के भीतर एक आँधी उड़ती रहती। मगर देह थी कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी।
मन था कि कुछ मानने, स्वीकारने पर आता ही नहीं था।
यही आँधी बड़ी के कलेजे में भी घुमड़ती थी।
दोनों तरफ दो तरह की चुप्पियाँ थीं
दोनों एक दूसरे से आँख चुराती थीं।
बहिरा पंडित की इस बिटिया को पांड़े अख़बार कहते थे। नाम था जीरा मगर जबान पर कीरा बसता था। बारह एक बरस की होगी। एक क्षण को भी किसी जगह न ठहरती। पूरे गाँव में डगडग डुग्गी जैसी बजाती फिरती। इस घर की लगाई, उस घर की बुझाई वाला हाल था उसका।
कभी स्थिर नहीं रहती थी। बड़ी के आगे उटंग बैठी हुई भी वह डोलायमान ही थी।
बड़ी खीझ गईं–‘जीरा रानी, कि तो बताओ क्या बात है कि तो हिल ही लो।’ बड़ी के कुरस भाव से आहत हुई जीरा–“का हो बड़की माई, हमार गोड़वा देखिं! हम टेंगरिया से दउड़ते आवत हईं कि हाली से बड़की माई के जायके बताईं।” बड़ी देख उठीं जीरा को–क्या ख़बर लाई है यह उधिराई हुई लड़की टेंगरिया से?
“क्या हुआ है जीरा?” एक विचलित स्वर फूट पड़ा बड़ी का। बड़ी का कलेजा काँपने की वजह भी तो थी। टेंगरिया मोड़ पर बसें रुकती थीं। वहीं से उतरकर गाँव के रास्ते पर आया जाता था। एकाध कोस का सूना रास्ता था। दोनों तरफ खेत बगीचा। बसान नहीं था वह। टेंगरिया पर कुछ दुकानें थीं। शहर से आने वाली बसों का ठहराव होने के कारण।
आज तो तारा आने वाली थी! दहल गईं बड़ी। तारा उनकी पढ़वइया पेटपोछनी इकलौती बिटिया। हॉस्टल में रहकर एम.ए. कर रही थी। कुछ दिनों से अकेली ही आ जा रही थी वह। एक ख़ुदमुख्तारी की ज़िद में दिखने लगी थी आजकल मगर बड़ी का कलेजा तो काँपता ही रहता था।
तब तक जीरा के मुँह से बोल फूट चुके थे, “जियुत भइया के देखलीहं बड़की माई! अपने मोटरिया से उतरि के उहाँ रुकल रहल हँ। हम सरपट भागि लीहलीं, तोहे बतावे के खातिर।”
जियुत? इतने बरस बाद जियुत? बड़ी स्तब्ध थीं। “बारह बरिस न बड़की माई!” कलेजे में घुमड़ता प्रश्न जीरा ने कैसे सुन लिया, यह तो राम जानें, मगर बड़ी के कलेजे में वही जान ले लेने वाली धकधक शुरू हो गई। चेहरा एकदम सफेद हो गया। पीठ में दर्द की लहर दौड़ गई। काँपते हुए हाथों में काम सँभल नहीं रहा था
अब। उठने को हुईं, सँभलने को हुईं कि बाहर गाय के छान-छप्पर के पास खड़े सुखई की गरज सुनाई दी–“कौन है?”
सुखई अभी-अभी पछहीं ताल वाले खेत से लौटे थे। आज बहुत खिन्न थे वे। तीसरे पहर से खूब आँधी आई थी। कटा हुआ गेहूँ अभी खेत में ही था। तेज़ हवा से दूर-दूर तक उधरा गया। दरोगा कहीं पहुँनही में गए थे। लगन-पताई के दिन चल रहे थे। काम करने वाले भी नहीं मिल रहे थे। बहुत हलकान हुए सुखई। फकिराने के गफ़ूर के साथ देर तक काम में लगे रहे और उसी की साइकिल पर बैठकर अभी ही घर आए हैं। हाथ-पैर धोकर जैसे ही उठे कि दुआर पर गाड़ी की आवाज़ सुनाई दी।
बहुत चौकन्ने रहते हैं सुखई। गाँव-घर भी अब पहले जैसा नहीं रहा। वैसे भी घर में आज सिर्फ औरते हैं। दरोगा के दोनों छोटे भाई नौकरिहा हैं। अपने-अपने परिवार के साथ शहर में बसे हुए हैं दोनों। अर्ते-बिर्ते शादी-ब्याह वगैरह में आते-आते हैं। मझले बेटे अरविंद की नौकरी यहीं रेलवे की है, पास ही है मगर ड्यूटी ऐसी कि
रोज़ का आना मुश्किल है।
उसी की पत्नी के यह दूसरा बेटा हुआ है। दरोगा का छोटा बेटा दिल्ली में रहकर कलेक्टरी की तैयारी कर रहा है। दरोगा का मन थोड़ा हुलसता है। तेज़ और हरफर है वह। हो ही जाएगा कलेक्टर-सीना चौड़ा होता है दरोगा का कि मन सहसा कुछ मुर्झा जाता है।
“भला जियुत की तरह कौन था?”
सुख के सीझने के जो दिन थे, कि…
जियुत को उसकी दादी कहतीं “हींग लगी है!” यह उनका टोटका था। अद्भुत था सुरूप वह। दरोगा के कलेजे के भीतर कुछ चलने लगता, जियुत के लिए ‘था’ सोचने लगे थे वह!
‘था’ कर दिया था जियुत को उन्होंने। उनका तो आकाश छीन लिया था उनके इस बेटे ने। उनका सारा गरूर मिट्टी में मिला दिया था।
जियुत का रंग-रूप, बाढ़, सब ऐसा था कि उसके दस पास करते न करते देखहरूओं की लाइन लग गई थी।
मावा, पांड़े की माँ हुलस कर जल्दी-जल्दी रस घोरने बैठ जातीं। दही की जगह दूध डाल देतीं। आँगन से दुआर, दुआर से आँगन करती रहतीं। पतले रसिक होठों से ब्याह के गीत झरते रहते। सारी काँख-कराह न जाने कहाँ विलुप्त हो जाती। पांडे जियुत का जल्दी ब्याह कराने के पक्ष में नहीं थे। जियुत तो गुस्से से भर जाता। पिता के आगे तो नहीं मगर चाचा के आगे खूब बरसता। आँखों में आँसूतक भर आते उसके।
“अरे यार! शांत रहो, समझते हैं भइया सब। किसी को हाँ कह रहे हैं वे, बोलो? नहीं न… अरे उन्हें भी पता है कि तुम्हारा करियर है। इतना पैसा लगा रहे हैं तुम्हारे ऊपर, काहें मन छोटा करते हो…?” चाचा सांत्वना देते।
चाची खेल करने लग जातीं–“क्या है जियुत! आने दो न छुटकी सी बहुरिया को, खेलना साथ-साथ दोनों जनें…”
सबकी हँसी फूट पड़ती।
दिव्या जियुत की चचेरी छोटी बहन, सारे कौतुक को देखती, हँसती। जियुत तब महीनाें घर का रूख नहीं करता था। पांडे़ कचहरी या बाज़ार के बहाने बनारस आते। पुलिस लाइन के पास के भाई के घर में घंटा दो घंटा ठहरते और जियुत को देखकर निहार कर लौट जाते।
बड़ा जी जुड़ाता था उनका।
पढ़ना और हिक भर खेलना, यही प्रिय था जियुत को।
लंबे-लंबे डग चलता, काली सघन बरौनियों वाली आँखें टिकाकर पिता को देखता।
बड़ा ख़ामोश होता जा रहा यह रिश्ता था पिता और पुत्र का। दरोगा को जवान होते बेटे को देखकर सुख और संतोष दोनों का अनुभव होता। जियुत उनके दिल की मखमली डिबिया का कीमती मोती था।
बड़ी पूछती– कैसे हैं भइया
दरोगा कहते– “भले हैं…”
और दोनों अपना-अपना सुख सीझने देते थे।
बड़ी जियुत का नाम नहीं लेती थीं।
जेठ बेटे का नाम लेने का रिवाज नहीं था। नाम नहीं लेते अब पांड़े क्योंकि उनके लेखे जियुत अब दुनिया में नहीं है…
उसका जीते-जी अंतिम संस्कार कर दिया पिता ने। उनकी आँखों से लपट फूटने लगती है यदि किसी भी प्रसंग में जियुत का नाम घरमें कोई भी उचारता है। बड़ी अपने कलेजे में पत्थर अड़ाती जा रही हैं। गोंद में किलकारी मारता, आँचल में मुँह छुपा लेता और जवान होते ही माँ को उठाकर चक्कर लगा लेता कलेजे का टुकड़ा उन्हें भला भूले तो कैसे भूले!
सिया राम जैसी जियुत और रूपा की सुघर जोड़ी आँखों में झिलमिलाती है उनकी। आँख फेरती हैं तो देखती हैं माथे पर आँचल डाले भूमि देखती और विलुप्त हो जाना चाहती सी रूपा दिखती है उन्हें। उसकी आवाज़ सुने सबको कितने दिन हो गये। छोटे-बड़े सबका टहल बजाती हुई वह ख़ुद चूर-चूर हो जाना चाहती है। शायद ख़त्म होने की राह पकड़ी है उसने। उसको जिंदगी में कैसे लौटाया जाए!
कैसे कैसे?
ज़रा-ज़रा सी रेख फूटी थी जियुत की। मावा किसी को भी उसे निहारतें देखतीं तो झट-पट राई-नून लेकर नज़र उतारने में जुट जातीं। उनके लेखे तो हर वक़्त जियुत को नज़र ही लगती रहती थी।
दरोगा के मझले और छोटे बेटे में भी देह-मुँह की अच्छाई कम नहीं थी मगर जियुत की बात ही अलग थी।
मावा कहती कि जियुत अपने पर बाबा पर गए हैं? उनका सुरूप, स्वभाव सब बखानने बैठ जाती मावा।
बीच में कभी दरोगा के पिता का ज़िक्र भूल से भी नहीं आता।
यह मावा का अपना बंद कोटर था।
हॉकी के खेल में खूब निकल गया था जियुत। ईनामों, मैडलों की बरसात होने लगी थी। स्पोर्ट्स कॉलेज में दाखिला हो गया। दिन-रात देस घूमते बीतने लगा था। इस बीच बी.ए. पास कर लिया था उसने। देवधर वाले वैद्य जी, रूपा के पिता आए दिन संबंधियों को जुटाकर पांडे़ के दरवाज़े़ पर पधारने लगे। उनकी जबान पर बस एक ही बात थी…
“बर जोगे कन्या है महराज!”
एकदम सुंदर जोड़ी होगी महराज!
उनका आख़िरी वार था–‘बिन माँ की कन्या है महाराज!’ कहते हुए वैद्य जी की आँखें छलक आईं थी। इंगुर मिले गोरे रंग के चेहरे और झक्क सफेद धोती-कुर्ते वाले इन सज्जन की दमक ही अलग थी। स्त्रियों के मन में उस बिन माँ की बेटी के लिए करुणा छलक उठी। मावा तो समधी का रूप देखकर निहाल थीं। कन्या पिता पर ही तो गई होगी!
उनका अनुमान था यह।
उन्हें जियुत का ब्याह देखने की जबरदस्त साध थी। अक्सर दरोगा पर कुढ़ जातीं।
दरोगा पर अब चारों तरफ से ज़ोर पड़ रहा था।
मगर जियुत हाथ में नहीं आ रहे थे।
एक बड़ी फ़र्क दुनिया बनती गई थी जियुत की। स्वच्छंदता में उमगता हुआ खिलाड़ी जीवन था। हॉस्टल, हॉकी और खिलाड़ी संगियों के संग–साथ के बीच स्वयं के विवाहित हो उठने की कल्पना भी नहीं कर सकता था वह।
हॉकी स्टिक से गेंद खदेड़ता, पसीना बहाता यह युवा बहुत दिनों तक आज़ाद रहना चाहता था। अभी तो उसका छत्तीस साल का कोच तक कुँआरा था। अब उसे अपने गंवई परिवार और संबंधों पर गुस्सा आने लगा था। जहाँ तक होता वह इनसे दूर रहना चाहता। चाचा के परिवार का माहौल शहरी था, आस-पास की दुनिया शहरी थी और शहर गाँव से बहुत अलग था।
आस-पास लड़कियाँ भी थीं। अक्सर बहुत आज़ाद और आधुनिक। बाबू मेरा ब्याह किसी गंवारू लड़की से करने के बारे में सोच कैसे सकते हैं? आठवीं में पढ़ती लड़की के बार में सुनकर तो आग बबूला हो उठा मगर पिता से कुछ कहने की हिम्मत तब भी नहीं हुई।
चारों तरफ उसके उम्दा खिलाड़ी होने का यश चमकने लगा था, और वह आठवीं पास लड़की के पल्लू में बंधने जा रहा था।
उसके पैरों की माँसपेशियों में बिजली सी चमक गई।
उसका मन हुआ–“बस भाग जाए कहीं”
उसकी आँखों में धुआँ सा उतर आया।
बीस साल की यह उसकी उम्र। मैदान में उतरता है तो लड़कियों के कलेजों में उतर जाता है।
उनकी ओर वह देखकर भी नहीं देखता, वे उल्लास में चिल्लाती हैं, वह महसूस करके ख़ुश होता है, उसकी ज़िंदगी में अब तक कोई लड़की नहीं है। वे लड़कियों के बारे में हल्की-फुल्की बातें कर लेते हैं मगर किसी के हिसाब से जीने के बारे में अभी सोचते तक नहीं है।
मगर अब।
पिता कह रहे हैं लड़की को तीन साल बाद घर ले आयेंगे। तब तक वह बारहवीं कर लेगीं।
जियुत को कुछ समझ में नहीं आया।
आख़िरकार ब्याह हो ही गया। बहुत सा रोना-गाना था। मनुहार था और सबसे बढ़कर मावा ने अपने जीते जी जियुत का मौर देखने की इच्छा का बल लगा दिया था।
तीसरे साल आया गौना।
दुलहिन से उसका कोई दुराव-छिपाव है, नापसंदगी है यह तो किसी को अनुभव नहीं हुआ था।
दस-पंद्रह दिनों के अंतर से जियुत घर आते।
सोचा जाने लगा कि दुलहिन को भी जियुत के साथ भेजा जाए। मगर जियुत किसी एक जगह टिककर नहीं था।
इसीलिए उसने इसके लिए हामी नहीं भरीं धीरे-धीरे उसके घर आने का सिलसिला कम होता गया था।
महीनेभर फिर धीरे-धीरे साल।
और अब बारह साल।
वो जो लौट के आया है बेगाना सा…
बात बड़ी तेज़ फैली थी।
जियुत ने दूसरा विवाह कर लिया था!
अपनी पसंद का चुन लिया था किसी को। दबा छुपा यह भी था कि चाचा उसकी गृहस्थी भी देख आये थे और उनके साथ मेल-मिलाप भी था शायद मगर दरोगा को इस सब की कोई भनक नहीं थी।
इसलिए वे बहुत मर्माहत हुए थे।
बीच बजार इज्जत उतर गई थी उनके परिवार की!
बहुत संवारा था उन्होंने अपना कुटुंब। एक आदर्श गृहस्थी थी भरे-पूरे किसान परिवार की। भाइयों में बहुत एकता थी, लिहाज था एक-दूसरे का। उन्हें लगा वे लुट गए हैं।
उधर वैद्य जी तो यह सदमा सह नहीं पाए। नहीं रहे वे।
रूपा के भीतर एक कठोर शिला उतर गई जैसे।
पिता की मृत्यु ने और उजाड़ दिया उसे
अभिशप्त अकेलापन घेरता गया रूपा को। आँखे सूखती-पथराती चली गई। हमेशा के लिए एक खालीपन उतर आया उनमें।
उसे लगता चारों तरफ उसके लिए सिर्फ धिक्कार बचा है।
रूपा को ऐसे देखना सबके लिए असह्य था।
सबके अपने क्लेश थे मगर रूपा का तो जीवन ही छिन गया था। किसके पास होती उसके कलेजे की थाह!
अब यह रात थी। उतरते चैत की गमक इस रात में भरी हुई थी। रसोई भी उत्तप्त थी। रोटियाँ सेंकती रूपा के चेहरे पर चूल्हे की आँच की ललाई थी। सिर से आँचल सरका हुआ था। सुखई खेत से लौटते ही दिशा-मैदान कर हाथ-मुँह धो भोजन के लिए आ जाते थे। घर के सम्मानित बड़े का सा आदर था उनका। सो आज भी रूपा इसी में लगी थी।
सुखई की पुकार बड़ी ने सुन ली।
आशंकित सी वह दरवाज़े़ पर आ खड़ी हुई।
“जियुत है बबुआ जी!” बोल उठीं बड़ी।
गाँव के रिश्ते से सुखई देवर हैं उनके।
सुखई अचरज से भर गए। थम गए जहाँ के तहाँ–जियुत!
जीरा दौड़कर रसोई के दरवाज़े़ पर जा खड़ी हुई। उसके भीतर रूपा को देखने की छटपटी पड़ गई थी।
रूपा अपने काम में तन्मय झुकी हुई थी
वह स्त्री, जिसका पति आज बारह बरस बाद लौटकर दरवाज़े पर खड़ा है, चूल्हे की आँच के किनारे रोटी फुला रही थी।
हर ‘घड़ी’ बीतने की होती है…
बड़ी का कहा सुखई ने सुन लिया
“जियुत आये हैं”
यह घर का बाहरी सहन है जिसके छान-छप्पर में गाय-भैंस बंधते हैं। उनकी नांद गड़ी है यहाँ।
सुखई थके तो हैं ही आज।
इस इलाके की तो एक पहर रात बीत चुकी है।
भौजी खड़ी हैं दुआर में।
बड़ी भौजी, दरोगा सुखई से कुछ ही महीने बड़े हैं मगर बड़े तो हैं ही। बहुत आदर करते हैं सुखई दरोगा का। मावा तो कहती थीं कि दोनों में ‘जिव-जिव आंतर’ है। यानी गहरी मित्रता।
साथ खेले, साथ अखाड़े में कुश्ती की आजमाइश की। आगे-पीछे ही ब्याह गंवना भी हुआ मगर सुखई के जीवन में भी कुछ ऐसा घटित हुआ कि अब यह परिवार उनका अपना परिवार हो गया है। हैं तो वे इस परिवार के हरवाह मगर बड़े के उनके रूआब में कभी कोई कमी नहीं हुई। खेत-पताई, बाग-बगीचा और खलिहान का पूरा हिसाब उन्हीं के पास है। दसियों साल से वे अपने घर नहीं गए हैं। उनका घर इस घर से कुछ ही क़दमों की दूरी पर है मगर मन वहाँ से उचट गया है उनका।
बेटियाँ ही हैं सुखई को। उनका ब्याह निबटा कर घर वाली ऊपर चली गई। कुछेक बीघे की खेती थी। छोटे भाई और उसके बेटों का परिवार बड़ा था। सब उसे देकर ख़ुद कंठी ले ली सुखई ने। पत्नी की मृत्यु का ग़म इतना लगा उन्हें कि महीनों के लिए घर छोड़ कहीं निकल गए थे। भतीजे खोज-खाज कर ले आए। माँ ज़िंदा थीं तब सुखई की। उनकी कसम पर रुक तो गए मगर परिवार में मन नहीं रमा पाए। दरोगा पांड़े उनकी कुश्ती का जोड़ थे। दरोगा ने उन्हें अपने परिवार से ऐसे जोड़ लिया।
खेती में मन तो लगता ही था सुखई का। धरती पर लहराती हुई फसलों में और गाँव के ललित रंग में रस मिलने लगा उनको।
खेती से जब वक़्त मिलता मजीरा लेकर बैठ जाते। गला बड़ा अच्छा था सो डूबकर रामायण गाते और दुआरे पर साथ देने वालों के साथ-साथ सुनने वाले भी जुट जाते। दुआरा गुलजार हो जाता था। राममय होते गए थे सुखई। एक तृप्त दांपत्य जिया था उन्होंने। घर के बड़े थे। पहलवानी और खेती के अलावा जहाँ रमते थे वह थी उनकी स्त्री।
उन दोनों का संग साथ अनोखा था।
वह सुखई की ‘मलकिनियाँ’ थी।
पूरे यादव टोले में ऐसी लक्ष्मी स्त्री शायद ही किसी की हो। हाथों में परिवार को प्रेम में रच देने का उसका जादू उसके जाने के बाद बिखर गया। ढह गए थे सुखई। तब रामचरितमानस के राम ने सँभाला था उन्हें।
सुखई को सुनाई दिया जैसे वे कह रहे हों–“मैं भी तो बिरही ही ठहरा न सुखई।”
रो उठे थे सुखई
बिरही राम उनकी आत्मा में बस गए थे
बिरही चित्त सुरों में ढल कर छा जाता
जियुत के लिए पांड़े की छटपटाहट इसीलिए सुखई के दिल में उतर गई।
पिया रस भींगी रे भींगी…
जियुत दरोगा का ग़ुमान था। उन्हीं का क्यों पूरे गाँव का ग़ुमान था वह। बहुत अच्छा खिलाड़ी निकला। दिन दूना रात चौगुना जस बढ़ा उसका। अख़बारों में फोटों छपती तो पिता की छाती और चौड़ी हो जाती। बहाने-बहाने लोगों को बटोरते और सबके मुँह से बेटे की तारीफ सुनते। ख़ुद उसके अद्भुत बचपन के क़िस्से मगन होकर सुनाते। हरदम ख़ुश रहने की बान पड़ गई थी उन्हें।
ब्याह के बाद जियुत को ही घर में सबसे ज़्यादा छूट मिली थी। दरोगा को नये ज़माने का पता था।
जियुत को ही दिन में भी मेहरिया के पास बने रहने की छूट थी। दोनों एक-दूसरे रमे से रहते।
गाँव घूमने की भी छूट मिली हुई थी। जब-तब जियुत और रूपा नहर की ओर निकल जाते।
दूर निकलते ही रूपा का घूंघट परे हो जाता। निर्द्वन्द्व घूमते दोनों, बातें… बातें और बातें
रूपा हीरे की तरह झिलमिलाती।
जियुत का संग उसके रोम-रोम में बस गया था।
जियुत उसे छेड़ता, नाराज़ कर देता और मनाने में ज़मीन-आसमान एक कर देता।
रूपा उसके लिए एक ग़ज़ब कौतुक की तरह थी।
जब बोलती तो जैसे अंग-प्रत्यंग से बोलती। नृत्य जैसा स्पंदित होता पूरा शरीर। जियुत उसे हैरत में भर कर देखता। रूपा को कभी नहीं लगा कि उसमें जियुत कोई कमी देखता है। उसको चिढ़ाने के ढंग में अक्सर वह हेड मास्टर जैसा बन जाता और रूपा मुँह फुलाकर कहती–‘पढ़ने में मेरा मन कभी लगा ही नहीं।’ कहती–“तुम देखो। मुझे मास्टरी तो दिखाओ मत!”
और दोनों फिर अठखेलियों में डूब जाते थे।
मदिर-मधुर दिनों के गर्मस्पर्श जहाँ-तहाँ खिल उठते थे।
रूपा जियुत की राह तकती रहती।
गाँव-घर के नौजवानों को जियुत में अपना नायक दिखता था। पत्नियों से सबके सामने बोलने बतियाने का चलन थोड़ा सामने आने लगा, उससे पहले तो पत्नी के पास पति रात में सोता पड़ने पर पाँव दबाकर आता और भोर में ही निकल जाता।
कभी-कभार कोई बूढ़ा-बूढ़ी खांस खखारकर अपना जागना जता देते तो पाँव दबाये घर में घुसने वाले पतियों पर घड़ों पानी पड़ जाता।
अब तो पुरनिया लोग सब कुछ देखकर महटिया जाते या अपने वंचित दिनों की याद में डूब जाते। ढ़ेबरी-लालटेन की मद्धिम काँपती रोशनी में लुक-छिपकर अपनी ब्याहताओं से मिलने वाले पति-पुरुष तो तब दिन में कहीं उघरे मुँह अपनी पत्नी को देख पहचान भी नहीं पाते थे। लोग अपना बच्चा तक गोंद में नहीं उठाते थे और इसे लिहाज करना माना जाता था।
किसी ने उठा लिया तो व्यंग्य कर-करके उसका जीना मुहाल कर देते। मगर अब रस बरस रहा था चारों ओर…
कुछ लोग कुढ़-कुढ़ कर ज़माने को लानत भेज रहे थे तो, कुछ अपनी जवानी लौटाने का सपना भी देखने लगे थे मगर प्रेम और दांपत्य का खुला उन्मुक्त रंग धीरे-धीरे उभर रहा था।
हिडोला मन सूना बगीचा रे सुगना!
जियुत अकेले नहीं थे। गाँव का भोला था साथ। कोहराने का भोला भी हॉकी खेल में आगे निकल गया था। कहीं से हो गया होगा साथ।
हो सकता है कि दोनों बराबर संपर्क में रहते हों। भोला को देखकर सुखई थोड़ा कुढ़ गए।
बारह बरस बाद घर लौटने की जियुत की यह बान भी अखर गई उन्हें। जियुत की नई गृहस्थी की ख़बर अख़बार में छपी थी। बीबी के साथ बेटी भी थी साथ में। हॉकी की किसी बड़ी जीत की ख़बर थी यह।
गाँव में अख़बार बस दो-ही चार जगहों पर आता था। भग्गू साव की मिठाई की दुकान जब उनका लड़का सँभालने लगा तब वहाँ भी आने लगा। सुरेंदर ने गाँव में ही सैलून खोल लिया था। सब नये लड़के वहीं बाल कटवाते। बैठने की जगह थी। अपनी बारी का इतंजार करते हुए वे अख़बार पढ़ते। बड़ी हँसी हुई थी जब वहाँ अंग्रेज़ी का अख़बार भी आने लगा।
पारसनाथ फौज से रिटायर हुए थे। उन्हीं के कहने से सैलून पर अंग्रेज़ी अख़बार आ रहा था। अंग्रेज़ी से सैलून का भी रोब बढ़ गया था। उसी अख़बार में छपे थे जियुत अपने परिवार समेत।
गाँव में यह ख़बर आग की तरह फैल गई। अंग्रेज़ी जानने वाले तरज़ीमा कर-करके सुनाने लगे।
छीन-झपट कर लोग फोटो देखते और टिप्पणी भी करते। दरोगा घायल शेर की तरह छटपटा उठे थे।उनका स्थूल गौरवर्णी शरीर थर-थर काँप रहा था। लाल भभूका चेहरे पर पसीने की चमक छप गई थी जैसे। होश में ही नहीं थे वे। चिल्ला- चिल्लाकर घूम रहे थे “मर गया वह हमारे लिए…मर… गया ।” जतन से उठाई हुई इमारत धूर-धूर होकर ढ़ह रही थी।
बाल मुड़वाकर क्रियाकर्म पर बैठ गए दरोगा।
बहू का सिंदूर धुलवाने के लिए चीखने लगे।
जो जहाँ था वहीं आतंकित सा विजड़ित हो गया। घर की तो लय ही बिगड़ गई।
बड़ी बेहोश थीं।
दो दिन पहले ही भइया दूज थी सो दरोगा की दोनों बहने आई हुई थीं। गाँव की सबसे बुजुर्ग संतरा दादी भी लाठी टेकती चली आईं। दहाड़उठी दरोगा पर–‘तमासा समझे हो का पूता सेन्हुर धुलवा रहे हो। जीते जी बेटवा का क्रिया करम कर दिए तुम!…
भगवान का काम अपने हाथ में लेने का घमंड मत करो पांड़े। बड़ा अनरथ हो जाएगा। ठीक है कि जियुत बहुत बेजाय काम किए हैं मगर सेन्हुर धोआना। समझते हो इसका मतलब? पुतरी जैसी बहुरिया पर अनियाव मत करो बेटा!… “दुनिया में क्या तुम्हारा ही बेटवा ऐसा किया है, तुम्हारे बाप नहीं निकल गए थे साधू होके। तो तुम्हारी माई क्या सेन्हुर धो के बैठ गई।”
संतरा दादी मर्माहत थीं। उनका स्वर थोड़ा सम पर आया। दरोगा का दुख समझते हुए बोलीं–“बिपत पड़ी है दरोगा!… बेटवा सब दिन के लिए नहीं है यह! सम्हालो अपने को। तुम ऐसा नाच नाचोगे तो सबका क्या होगा?” सबका क्या होना था?
आँगन-दुआर सब जगह साँप काटे का सन्नाटा था।
बूढ़-पुरनिया दुख में थे सब।
दरोगा के लिए सबके मन में एक सहज आदर था। सब उनकी सौम्यता कर्मठता और धीरज की मिसाल देते थे। कहते–“देखो दरोगा को, जिसका बाप भरी जवानी में साधू होकर निकल जाए ससुरा उसका हिया देखो, बड़ी बहनों को अच्छे घर में ब्याहा, छोटे दोनों भाइयों को पढ़ाया, जहाज जैसी खेती-गृहस्थी को सम्हाला! रेख फूटते न फूटते जुत गए गृहस्थी में, मामूली बात है।”
यही दरोगा आज माथे पर हाथ दिए बैठे हैं। जियुत का चेहरा, बातें, सब घूम रहे हैं उनके दिमाग़ में।
घर में बिला गई सी एक परछाई है रूपा।
दरोगा के गले में कुछ घुमड़ रहा है। आँखे छटपटा उठी हैं।
दरोगा पांड़े की दादी बहुत दबंग और कर्मठ महिला थीं। बेटे की सधुआई की पूरी कथा इतने परिहास पूर्ण ढंग से सुनाती कि सब दंग रह जाते।
युवा पुत्रवधू को दुख से निकालने का यही तरीका था उनके पास। दरोगा के पिता में काम-काज के लिए कोई उत्साह नहीं था। गाँजा-भाँग की सुस्ती में पड़े रहते। घर में रहते तो घर में नशा-पानी वालों की जुटान रहती।
दादी ने बेलाग उन्हें घर से खदेड़ दिया था।
तब खेती-गृहस्थी ज़्यादा नहीं थी मगर फिर भी थी तो। करने वाला कोई नहीं। दरोगा और सब भाई छोटे। किसी तरह हरवाह जुटा कर खेती-पताई सँभालती थी बूढ़ा।
पिता गाँव के बाहर मठिया पर डेरा जमाए रहते। दादी उन्हें कोसतीं, गाली देतीं यहाँ तक कि श्राप भी दे डालतीं। उन्हीं दिनों दरोगा के नाम ननिहाल की बहुत बड़ी संपत्ति लिखी गई थी।
सारा किस्सा दादी जब-तब सबको सुनाती रहतीं। उनके वर्णन में बड़ी कला थीं। सबकी आँखों में चित्र खिंच जाता था। ठहर-ठहर कर बतातीं वे कि तब दरोगा के सबसे छोटे भाई का जनम हुआ था। “भादों का महीना था। दस दिन से मेंह लगातार बरस रहा था। रास्ते सारे पानी में डूबे हुए थे। खेतों में लबालब पानी। उस दिन दऊ दिन भर थमें तो थे मगर बहुत बरसने के लिए उसीज रहे थे जैसे। हवा एकदम सन्न मार गई थी।
चारों ओर की बखरी कच्ची थी तब। दक्खिन ओर की दीवार पानी के कारण भसक गई। घुप्प अंधेरी रात। सांप सिसकार रहे थे चारो ओर। झिंगुर सीटी बजा रहे थे। मैं मझले को दुबकाए खटिया में पड़ी थी! हमेशा का बेमरिया बच्चा था वह, बहुत कमज़ोर। हर वक़्त रोता ही रहता। दो साल का भी नहीं था कि यह छोटका हो गया। ई सब में सधुआ को कौउनो साधुआई नहीं थी, कहकर फिक से हँसती और फिर शुरू हो जाती। गंगा उफान पर थी बचवा? वरुणा भी उधराई हुई थीं। नहरियों के किनारे-किनारे सब जलमग्न हो गया था।
…ई तो नियम ही है कि उतरते भादों पानी चढ़ता है। सउरी संभारने के लिए भुटवल वाली को बुलाए थे हम। ऊ धिया हमारी रसोइया में लगी थीं। केवाड़ी खट-खट बजी। हम तो सटक ही गए मगर ज़ोर से पूछे–“कउन है एतना रात में”
घर में हम तीन मेहरारू, छोटे-छोटे बच्चे और गाँव में सोता पड़ा हुआ था। पुनई पंडित! दरोगा के बाप ऊ तो मठिया में धूनी रमाए हुए थे न! बयान करती हुई दादी के चेहरे पर बदलते हुए भावों को देखना भी मज़ेदार था। आँखों में काजर ज़रूर आँजती थी बूढ़ा? बहुत चपल खेलती हुई आँखें थी उनकी। शरारत तो उनके रोम-रोम में भरी थी। सारे दुखों को अपने आनंदित भाव से ठेल देतीं। दरोगा की माँ के प्रति बेहद रक्षा भाव भरा था उनमें। केवाड़ी दरोगा के ननिहाल से आए ख़बरिहा ने खटखटाई थी।
दरोगा के नाना, पुनई पंडित के ससुर जी बड़ी संपत्ति मालिक थे। महाराजा के पुरोहित रहे आए थे। चंदौली नियामताबाद चुनार तक उनकी ज़मीनें थीं। इस गाँव में भी खेत-बगीचे थे कई। चालीस बिगहा में केवल बगीचा था। ये सब उन्हें दरोगा की माँ के नाम पर करना था। चौदह साल के रहे हाेंगे दरोगा तब। रातो-रात वे सब भाई संपत्तिशाली बन गए। नाना का क्रियाकर्म उन्हाेंने ही किया। अब कठिनाई इस संपत्ति को सँभालने की थी। इतनी अपार मिल्कियत।
दादी की दबंगई काम आई। माँ के जांगर का भी बल था मगर पढ़ाई नहीं कर पाए वे।
टूटती डगराती परछाइयाँ…
बथान पर फैली नीम रोशनी में हिलती डंगराती गायों, भैंसों की छायाएँ ज़मीन पर तरल सी आकृतियाँ फैला रही थीं।
घर के भूगोल का यह हिस्सा भी खुला और फैला हुआ है। आँगन एक बड़े दरवाज़े के साथ इसमें खुलता है। दरवाज़े के बायें लंबे में बसी हुई गौशाला एक तरफ दुआर पर खुलती थी तो दूसरी तरफ एक बड़े टीले जैसी जगह में। टीले के नीचे बंसवारी थी, आम का बगीचा और वहीं से गाँव की बसान भी शुरू हो जाती। वहीं से उतरकर गंगा का भी रास्ता था। यह बंसवारी एक वृत्त लेकर दरोगा पांड़ें के पूरे मकान को घेरती थी और मकान भी तीन तरफ से खुलता था।
जियुत उस नीम रोशनी में अपनी लंबी छाया लिए आ कर खड़ा हो गया था। बड़ी के कदमों में झुका वह।
बड़ी स्थिर चित्र की तरह हो गई थीं। आँखों में बाहर का सब कुछ हिलता- काँपता हो चुका था उनके लिए। सुखई तो स्तब्ध थे ही।
अचानक रूलाई की एक कठिन कलेजा तोड़ आवाज़ चारों ओर फैल गई।
ये गाँव में गवनई से लौटी चंपा फुआ थीं। जियुत को देखते ही उन्होंने अपना हृदय विदारक रोना कढ़ा दिया। गाय-गोरू भी बेचैन हो उठे। सन्नाटे में उनकी बयान करती हुई रूलाई दूर-दूर तक फैलने लगी। यह रोने में गाना और गाने में रोना मिलाकर जीने वाली स्त्रियों का कलेजा था जो इस तरह बैन कर रहा था। आठ से तेरह बरस की ज़रा सी उमर में ब्याही जाने वाली गाँव की ये स्त्रियाँ बचपन से सीधे बुढ़ापें में जाकर ढ़हती हैं। उनके पास तक़लीफ़ों-यातनाओं के समंदर होते हैं।
किसी का भी दुख वे अपने दुख की तरह रो देती हैं। इसी दुख में उनके अपने सपनों और इच्छाओं के दफन होने की तफ़सीलें होती हैं। कभी वह चिड़िया की तरह होती हैं, कभी किसी बेल की तरह। अपनी आकांक्षा अपनी नालिश की थोड़ी सी जगह लेती हैं वे अपने इस तरह के रोने में। चंपा फुआ भी रूपा का दुख रो रही थीं।
पांडेय की दोनों बहनें सुखिया-दुखिया बहनों की तरह सुखी-दुखी है। बिंध्या का पति शहरी है। बाल-बच्चे सब शहरी। पति की ट्रेनिंग में वे शहरीपन में ढ़ल गईं। उनके लायक बनने की जुगत बनाती गईं। वे हैरान होकर सोचतीं थीं कि जियुत को ही रूपा को ख़ुद के लायक बनाना चाहिए था। इतनी पढ़ी-लिखी तो वह थी ही कि पति के रंग में ढ़ल जातीं।
उन्हें स्वयं के पति के रंग में ढलने की सारी यातना याद थी। वे उसे भूलती भी कैसे जब डॉक्टरी पढ़ रहे उनके पति पुरुष पतली बेंत से हथेली पर सट् सट् मारते और उनका मुँह दबाए रखते। धमकाते- “ख़बरदार जो ज़रा भी रोई।” उन्हें अंग्रेज़ी और गणित पढ़ाते थे वे इस तरह।
सबेरे हथेली पर उभरी हुई चोट की घारियों में पानी तक छरछराता था। कभी- कभी हाथ सूज जाता उनका और वे उसे छुपाती फिरतीं। घर-गृहस्थी के कामों में लगी रहतीं। मगर पढ़ गईं वे।
सब कुछ सीख लेने पर ही उनका दांपत्य शुरू हो पाया था। उनके पति आज भी उनकी ज़िंदगी के बहुत कठोर हेडमास्टर थे। कितना चहकने और इतराने वाली बिंध्या अब खुल कर न हँसती थीं और न रोती थीं।
अब तो बेटा-बेटी भी उन्हें सिखाने पर आमादा थे। चारों ओर भारी सुख फैला था बृंदा के मगर कलेजे में कुछ काँपता रहता था।
आज तक उनके लिए कुछ भी सामान्य नहीं है। मायके आकर संबंधों की ऊर्जा में कुछ भूलती हैं, कुछ भूलना चाहती हैं। हँसी-ठिठोली पर ज़रा-ज़रा मुस्करा भी देती हैं।
गाँव में अब इसे उनका शहरीपन समझा जाता था। उनकी छोटी-छोटी आँखें हरदम सजल रहतीं।
बड़ी को यह सब पता था।
रूपा का दुख बृंदा कढ़ा कर रो नहीं रही हैं मगर कलेजा टूट रहा है। चंपा फुआ ने जब कढ़ाया कि- “पत्थर क करजेवाऽऽऽ तुहू कइला हे पूता!” तो बृंदा फुआ वहीं ढ़ह गईं।
फुआ के रोने में बहुत सारे दुख बोल उठे थे। “कैसे उस पहाड़ जैसे पिता का सारा अभिमान चूर-चूर कर बैठे जो तुम्हेंं कंधे पर उठाए घूमता था। जांगर रुपया कुछ से भी उसने उठा नहीं रखा। पानी की तरह पैसा बहाया। रात को रात नहीं समझा, दिन को दिन नहीं समझा, तुम्हेंं सोने का कौर खिलाया…”
चंपा फुआ थोड़ा सा रुकती भी थीं तो हिचकियों में देह हिलती थी उनकी, फिर बैन कढ़ाकर अपनी नालिशों का प्रवाह ठेल देती थी–
“कहाँ से ले आये तुम बज्र जैसा कलेजा कि उसका रोना नहीं सुन पाए जिसे सुन कर पेड़ों के पत्ते झर गए। सीता जैसी स्त्री को कोने की बिलार बना दिया…
आज उसका दुख हरा करने आए हो कठकरेजी! अरे कम से कम भगवान से तो डरे होते? जवानी क्या केवल तुम्हारी ही है…उसे देह गलाने के लिए छोड़ गए…।
तुम्हारे नाम का सेन्हुर है जिसकी माँग में उसे किसके भरोसे छोड़ गए। बताओ ऽऽऽ!
बताओ ऽऽऽ!
बताओ ऽऽऽ!”
चंपा फुआ का गला फट चुका था। अब एक चीख जैसी निकल रही थी उनके गले से।
जियुत पथराया हुआ खड़ा था। बहुत देर तक उसने इसे ख़ुद तक न आने देने का ज़ोर लगाया। अपनी दुनिया के हिसाब में पका हुआ वह इस मेलोड्रामा में डूबना नहीं चाहता था मगर पिता के ज़िक्र से कोई बाँध जैसा कहीं दरकने लगा।
खासी असुविधा हो रही थी उसे। भोला बहुत देर तक मूरत की तरह उसके पास खड़ा रहा मगर फिर धीरे से खिसक गया।
सबके ऊपर इस शोर का बादल मंडरा रहा था। जियुत इस घर में कभी अनुपस्थिति तो था नहीं बल्कि दुख की एक गाढ़ी परछाई की तरह था। हँसते-हँसते घर में किसी की भी हँसी जहाँ धक्क से हो जाती थी वहाँ जियुत की याद थी। बड़ी की आँखों की पुतलियों की तो जैसे आंसू में डूबे रहने की आदत पड़ गई थी।
दरोगा की आवाज़ में कभी-कभी ऐसी निरीहता बोलने लगती कि सुनने वाले का कलेजा हिल जाता! सबकी हिम्मत रूपा का गुमसुम हेराया हुआ सा वजूद देखकर जवाब दे जाती। घर में अब कहीं उल्लास नहीं था बल्कि अनवरत बीतती हुई एक दिनचर्या थी। रूपा को देखने-सुनने के लिए सबको अपना कलेजा कड़ा करना पड़ता था। बहुत छोटे-छोटे जवाबों में उसका बोलना बचा था अब। बस यही कि- “जी बाऊजी!”
“जी माँ”
“जी बउआ जी!”
“ठीक है फुआ!”
बस इतना ही। उसके होने की सारी चमक मिट चुकी थी। छटपटाकर रह जाते थे सभी।
रूपा तक बाहरी दालान से उठती ये आवाज़ें, यह रूलाई पहुँचने लगी। अचानक उसने रसोई के दरवाज़े पर खड़ी जीरा को देखा। वह अचकचा गई। बाहर कलपती हुई आवाज़ में अपने नाम को बार-बार सुनकर वह डर गई।
गाँव-घर की वह छोटी सी लड़की उसे झिड़क रही थी– “उठा हे पगला, चला देखा तोहार दुलहा आइल हव।”
चूल्हे की आँच की लहक जाकर रूपा की सूखी आँखों से मिल गई।
रात में मौत की बीनाई थी
पांड़े रात के किसी पहर आये। घर में मृत्यु का सा सन्नाटा था। किसी ने उन्हें जियुत के ऐसे आने की कोई सूचना नहीं दी। सुखई करवट बदलते अपनी कोठरी में थे। बड़ी भी कुछ बात नहीं कर पाई। कुछ और गहरी चुप्पी थी बड़ी की मगर पांड़े बूझ नहीं पाए।
रूपा पत्थर की मूरत की तरह चलती हुई रसोई से बाहर आई थी। विशाल आँगन के सूने किनारे से लगी कोठरी में घुसकर उसने भीतर से किवाड़ बंद कर लिया।
थरथराती रही वह रात भर। बाहर की आवाज़ें तेज़-मद्धिम होती हुई बंद हो गई। जियुत तो अपने घर ही आए थे। किसी से क्या पूछना था उन्हें। अपने शयन कक्ष में हमेशा की तरह गए वह।
रात का खाना किसी ने नहीं खाया।
जीरा का कमाल कि ख़बर रात में ही गाँव भर में फैल गई। अपने-अपने दुआर पर बंसखटियों में धंसे हुए बड़े बूढ़ों का मन उमग आया।
स्त्रियों ने इसे रूपा के सत्त की विजय माना। उन्हें लगा उसके दिन बहुर गए। उसके रूप-गुन की सारी चर्चाएँ जाग गईं।
उसके सहने की तारीफ हुई। किसी के मुँह से यह भी निकला कि ब्याही हुई स्त्री को त्याग कर तो राम भी सुखी नहीं हुए तो जियुत क्या होते? जियुत अब पहले वाले जियुत नहीं थे। खिलाड़ी होने के कारण शरीर सधा हुआ था अवश्य मगर उम्र दिख रही थी। चेहरा मद्धिम हो चला था। उनके दूसरे ब्याह की नई गृहस्थी भी तो पुरानी हो गई होगी। क्या सोचकर और किसलिए आए हैं। पिता का धिक्कार उन्हें मालूम हुआ था। पिता उनके यश से ज़रा भी अभिभूत नहीं थे। रूपया मान वगैरह सब परे करके उन्हें मरा हुआ मान लिया था उन्होंने।
जियुत पिता से दो गुना फुफकारे थे।
“हद कर दिया है बाबू ने यह!” रोष से भर उठे थे जियुत। मझला भाई कीरत उन्हें समझाने चला आया था। आलीशान होटल के भव्य कमरे में चमकते हुए मिले थे जियुत अपने इस भाई से। अपना रूतबा दिखाने लगे उसे। अपना कीमती और नफीस सब कुछ। सिमटा हुआ सा मझला यही कह पाया कि–“भाभी की क्या ग़लती है भाई?”
“तुम भी न कीरत, हैं, मैंने कब कहा कि रूपा की कोई गलती है, अब यार देख तो रहे हो मेरी लाइफ को। मैं हर तरफ से देखा जा रहा हूँ भाई! स्टेटस भी कुछ होता है न। इसे बनाना पड़ता है, सँभालना पड़ता है, और…और” — जियुत अपने पक्ष में वाक्य खोजता हुआ सा था। उसकी आवाज़ में एक बेगानगी झर रही थी। कोई पुरानी बात कोई याद किसी रूप में उसमें दिख नहीं रही थी। कीरत बहुत आहत हुआ था। उसका तो पूरा बल जैसे किसी ने हर लिया हो। उसे लग ही नहीं रहा था
कि वह अपने सगे बड़े भाई के सामने बैठा है।
“बाबू ने मेरा श्राद्ध तक कर दिया यार! दिल फट गया मेरा तो” कीरत उसे देख उठा। कोई अपराधबोध उसके चेहरे पर नहीं था। मगर अब वह कहीं और देख रहा था।
“भाभी कहाँ जाएगी भाई।” पता नहीं क्यों कीरत ने ऐसा सवाल पूछ लिया। उसके अपने इस सवाल ने उसे ख़ुद बहुत कमज़ोर कर दिया। और जवाब सुनकर तो वह सन्न रह गया।
“दुनिया में लोगों की कमी है क्या यार! अजब सवाल करते हो कि कहाँ जाएगी। अरे यार मैं क्या कोई खूँटा हूँ, हाँ…”
“ओह!” कीरत हिल गया। कैसा विद्रूप फैला था उसके चेहरे पर। कौन है यह आदमी? क्या उसका भाई? कान में उबलती हुई कोई धार उतर गई थी कीरत के। घर आकर उसने यह सारा प्रसंग किसी को नहीं बताया। अपनी पत्नी तक को नहीं।
कीरत ने यह भी समझ लिया था उस दिन कि जियुत अब लौटेगें नहीं। बहुत बदल चुके हैं जियुत। यह बदलना केवल सफलता और अमीरी के चलते बदलना नहीं था। भाई अब घर के हर स्पर्श से छूट चुका है। बहुत बड़ा फ़र्क आ चुका है उसमें। कीरत छोटा है जियुत से। वे दोनों छोटे भाई जियुत की प्रशंसा के साए में पले-बढ़े हैं। पढ़ाई-लिखाई में उन दोनों का सामान्य ढर्रा रहा है। भाई के विवाह के बाद परिवार की कठोरता बहुत बढ़ गई थी। पिता के हर कहे को सिर झुका कर मान लेना किसी हद तक और अचल हो उठा था।
कीरत की शादी भी क्या और कैसे तो हुई। एक बड़े मातम के भीतर जुटाया हुआ जीवन व्यवहार हो जैसे। भारी निस्पंदता व्याप्त थी चारो ओर। कीरत के लिए अपना विवाह भी उत्साह भरी कौंध नहीं था।
कहीं किसी नये का उल्लास भी नहीं। सब जुटे तो थे। संबंधी, परिजन सब मगर सब कुछ किसी रूखे से नियम से होता चला जा रहा था। इसी तरह दाम्पत्य और इसी तरह बाल-बच्चे भी। पूरे परिवार के ऊपर उदासी की भारी परत थी। जियुत इस सबसे बेख़बर और अब तो क्रूर होता लग रहा था।
रूपा के लिए जियुत का वाक्य सुनते हुए भी उसे लगा कि जैसे उसके हाथों कोई खून हो गया हो।
“क्यों लोगों की कोई कमी है क्या?” यह कहा था रूपा के लिए जियुत ने। कीरत इस वाक्य के बारे में दुबारा सोचना तक नहीं चाहता।
रूपा की बंद कोठरी के बाहर खड़ा जियुत उसे आवाज़ दे रहा था लगातार।
सुहागिन! जागो…उठो, सुहाग आया है।
बहुत ताप भरा सबेरा हुआ आज। सबेरे-सबेरे ही दोपहरिया का सूरज चढ़ आया था। आसमान फाड़कर घाम निकला था।
सुखई ने सबेरे बताया दरोगा को।
प्रतिदिन गौशाला की सफाई में सुखई का हाथ बटाते थे दरोगा। कई गाय-भैंसों के सानी-पानी का बड़ा काम था और घर की खपत से बचा दूध बिकने के लिए बाहर जाता था।
दरोगा देख उठे सुखई को।
“कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है, घर तो उसका भी है न! समझिए कि आया क्यों है, उसको आने से रोका तो नहीं जा सकता। पतोहिया के बारे में भी तो सोचना चाहिए न हमें। दुनिया बहुत बदल चुकी है पंडित!” सुखई यह थह कर समझाते जा रहे थे दरोगा को।
उचटे हुए से चारों ओर देखते रहे दरोगा। भोरहरी की इस बेला में भी ताप का रंग था। चिड़िया-चुनमुन की चह-चह भी बहुत हल्की थी आज। सब तरफ दरोगा के दिल-दिमाग की सुस्ती छा गई हो जैसे। उनकी प्रिय बछिया भूरी उन्हें देखकर चंचल हो उठी थी। उसकी काली-काली आँखों में उनका दुख पहचानने की छटपटाहट थी शायद।
कुछ नहीं बोले दरोगा। अचानक लड़खड़ा गए। सुखई ने थाम कर बैठा दिया उन्हें।
वे आश्वस्त क्यों नहीं हो रहे थे। क्या जियुत उनकी सख़्ती से हार कर आया था? क्या पछतावा था उसमें? क्या उनके उसूलों की विजय है यह? ऐसा कुछ भी वे क्यों नहीं महसूस कर पा रहे हैं। रूपा की ज़िंदगी में किसी सुख या सहारे की कोई जुगत उनके पास नहीं। बल्कि किसी के पास नहीं है। उसका भाई आया था। उसको आगे पढ़ाने की कोशिश भी की थी उसने मगर रूपा ने कुछ भी स्वीकार नहीं किया। पता नहीं क्या है उसकेमन में। एक खटते हुए जीवन में तिल-तिलकर ख़ुद को ख़त्म कर देना शायद! किसी भी तरह से वह अपने दुख से बाहर आना नहीं चाहती है। लोगों की सहानुभूति और करुणा के निकट तो वह ज़रा भी नहीं ठहरती है। उसके कारण इस परिवार में कुछ भी स्वाभाविक नहीं रह गया है।
पता नहीं कैसा जिगरा है उसका। किसी के पास पल भर भी न बैठना और कुछ कहने पर आधे माथे को छिपाए घूँघट को हिलाकर दूसरी तरफ देखने लगना, पुकारने पर सहसा काँप जाना। कभी रात-बिरात बाड़ी का दरवाज़ा खोलकर बंसवाड़ी में पैठ जाती। पता नहीं उतने बीहड़ में कैसा एकांत खोजती थी वह क्यों कि उसे रोते हुए घर में किसी ने कभी नहीं देखा था। अपने सारे अबोलेपन के बावजूद वह घर की हर चीज़ से लिपटी हुई कोई छाया थी। गाँव-घर के लोगों के छीलने वाले प्रश्नों की कमी तो कभी थी नहीं। उसके ऊपर दया प्रकट करने वालों की भी कोई कमी नहीं थी। बड़ी ऐसी स्थितियों से उसे बचाना चाहती थीं मगर यह संभव नहीं था।
कोई बेखटक पूछ लेता–“बहुरिया! बेटवा की चिट्ठी-उट्ठी तो आई होगी न!”
या–“क्या दुलहिन, अरे वह नहीं आता तो तुम्ही चली जाओ, भगवान तुम्हें कौन कमी किए हैं?”
या कभी-कभार तो चमड़ी उतार लेने वाले सवाल भी होते। कैसे सहती होगी वह, इसका पता पाना भी किसी के लिए आसान नहीं था।
मझली के जनमतुए को बड़ी ने रूपा की गोद में यह सोचकर डाला था कि शिशु के स्पर्श से उसका पथरायापन टूटेगा। मगर उसने बड़ी कोमलता से उस बच्चे को उठाकर बड़ी की गोद में डाल दिया था और चुपचाप वहाँ से चली गई थी।
उसके पतले होठों पर एक सख़्त ख़ामोशी थी। दहल गई थीं बड़ी। उन्हें उसका सारा हँसना खेलना याद आ गया था। कितना कौतुक कितनी जिज्ञासा कितनी हेलीमेलीपन भरा था उसमें। सुखई की बिटिया रानी के साथ उसकी पूरी धमा-चौकड़ी ही थी। नन्हीं तारा भी साथ लगी रहती थी।
मगर अब!
एक बंद कोठरी के भीतर जाड़ा, गर्मी, बरसात के साथ दिन-बरस बिता रही है वह। इतना अचल स्वाभिमान होगा उसमें किसी को इसकी कल्पना तक नहीं थी। सब हार गए हैं उससे। दरोगा भी। अपने इस निर्वासन में भीतर वह जाग रही है या…पता नहीं!
जियुत खूब खटखटा रहे हैं, पुकार रहे हैं–“रूपा! मेरी बात तो सुनो यार! यह क्या तमाशा हैं।” भीतर कोठरी में ताप के साथ चढ़ते दिन की जान लेने वाली गर्मी भरी हुई थीं। निस्पंद बैठी थी रूपा। उसे अपना नाम सुनाई दे रहा था। वह अपनी देह से आग की ऐसी लपटें उठा देना चाहती थी जिसमें सब जलकर खाक हो जाए।
जो देह अपने रोयें रोयें से जियुत को छूना चाहती थी, जज़्ब करना चाहती थी वह पथराती जा रही थी। माथे से, बालों से और रोयें रोयें से फूटता पसीना एक नदी की तरह था। रूपा उसमें बेसुध घुल जाना चाहती थी।
दोनों फुआ लोग रात में भी उसे मनाती रही थीं। अभी वे भी बाहर हैं जियुत के साथ। चिरौरी कर रही हैं, रो रही हैं। अपना वास्ता दे देकर किवाड़ खोलने के लिए कह रही हैं मगर रूपा बैठी है चुपचाप। इस पूरे दृश्य के भीतर किसी बेजान चीज़ की तरह होती जा रही है वह। माथे में सुलग रहा कुछ है जो चाहता है कि उसे अब किसी का सामना न करना पड़े। न जियुत का और न ही किसी और का।
जियुत अब बेलिहाज होने लगे। बिफर कर चिल्लाते हुए सबको अनाप-शनाप कहने लगे। अपने आरोपों से उन्होंने माँ-बाप को ढ़क दिया।
“नौकरानी बना कर रखा है आप लोगों ने रूपा को और रहने के लिए यह कोठरी दी है, जानवरों को भी ऐसे नहीं रखा जाता है। देख लूंगा मैं सबको!” फुफकारता हुआ वह आँगन में घूमने लगा। बड़ी को देखा तो उन पर बरस पड़ा– “माँ! तुम तो इतना ख्याल रखती थी उसका, वह सब दिखावा था क्या? तुमने ऐसा होने दिया? एक जीती-जागती औरत को जिसका पति इतना फेमस आदमी है, उसे तुमने ऐसे रखा है, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है, आख़िर इस तरह वह जिंदा कैसे रहेगी।” सुखई दरोगा को थाम कर बाहर ले गए। जियुत की बेगै़रती का कोई जवाब नहीं था उनके पास।
रूपा सुन रही थी सब। इतना ढीठ, इतना छलिया और इतना बेरहम भी कोई हो सकता है? चंपा फुआ को आग लग गई यह सब सुनकर। गुस्से में फूट पड़ी वे–“जियुत! देखो बचवा! यह बहुत हो गया अब। तुम्हें लाज आनी चाहिए थी जो करके बैठे हो तुम। बारह बरिस तक तो अपनी औरत की कोई ख़बर नहीं लिए तुम, दूसरा परिवार बसाकर देस-दुनिया घूम रहे हो और आज निर्लज्ज की तरह देवता जैसे मेरे भाई पर लांछन लगा रहे हो, अपनी उस माँ पर जिसने तुम्हारी औरत के दुख में अपना पहिरना-ओढ़ना त्याग दिया है उसकी अलोनी देह पर नून छिड़क रहे हो, तुम। अपने रूपए-पैसे का जोम कहाँ दिखा रहे हो तुम। कौन तुम्हारे भरोसे यहाँ बैठा है। अरे हत्यारा भी तुमसे ज़्यादा दया-माया वाला होगा।”
फुआ धिक्कार रही थीं, रो रही थीं, सराप रही थीं।
जियुत स्तब्ध हो गया।
नंगा कर दिया था उसे फुआ ने। माँ को उसने लड़खड़ाते हुए दीवार पकड़ते देखा। छोटा बच्चा चीख मार कर रो उठा। जियुत के भीतर मर चुकी कई चीज़ों से कोई परत धीरे-धीरे उतर रही थी और वह कमज़ोर कदमों से अपने कमरे में चला आया।
धुआँ-धुआँ सब कुछ
रूपमती को लगा जैसे अब उसके सांस लेने भर हवा भी कोठरी में नहीं है। गर्म और भींगी हुई देह को ख़त्म होने तक गलाना चाहती थी वह। कुछ भी कहीं उसे बचाने लायक बचा नहीं था कहीं। कोठरी के बाहर छिड़ी लड़ाई में जो सब तरफ से टूट रहा था वह उसका जीने का बल था। जियुत में उसके साथ बिताये सुंदर दिनों का
कोई स्पर्श नहीं था। फुआ सास की धिक्कारें भी उस पर बेअसर थीं। उसे किसी को कोई जवाब देने का ज़रूरत नहीं थी। वह एक बदला हुआ आदमी था जो अब शायद फिर अपने कमरे में चला गया था।
अपनी अंगुलियों को रूपा ने अपने भींगे हुए माथे पर महसूस किया। वहाँ पीड़ादाई टपकन थी बदस्तूर। अपनी माँ को रूपा यहीं टटोलती थी। निस्पंद पड़ी देह का टपकता हुआ माथा।
“माँ जा रही है पिताजी!”
माँ के निकट सिर झुकाए बैठे पिता उसे उदास से देख उठते थे। ये माँ के आख़िरी दिन थे जब उसने आँख खोलना भी बंद कर दिया था। तब वह इसी टपक को छू छू कर महसूस करती थी। माँ की आवाज़ भी धीरे-धीरे चली गई थी। जब ज़रा-ज़रा थी तब फुसफुसाहट जैसी थी। बहुत देर तक वह रूपा का हाथ थामे रहती। न जाने क्या कह देना चाहती थी। माँ से हमेशा नाराज़ रहने वाली फुआ अब जार-जार रोती थीं। “कच्ची गृहस्थी” यही उचारती थीं फुआ। पिता को समझदार नहीं मानती थीं फुआ। ‘उनसे कैसे सँभलेगा ये सब’ उन्हें चिंता थी। पिता माँ के बिना जी नहीं पायेंगे ये अंदेशा था उन्हें। माँ-पिता में अनोखा प्यार था। पिता ने उनके लिए ही लगी-लगाई नौकरी छोड़ दी और गाँव में रहने के लिए चले आये। हर वक़्त वे पत्नी का मुँह अगोरते रहते। पत्नी को ‘प्रिया’ पुकारते। बड़ी बहन ताना मारती। अनखाती मगर पिता सबसे बेख़बर थे। फुआ हँस-हँसकर कहतीं–“होने दो दो-चार गदेला अपनी पिरिया को, तब देखेगें”
माँ को बहुत संकोच होता होगा। लाज के मारे वह कहीं छुप जाना चाहती होगी।
सुखों का एक छोटा सा सकुचाया सा संसार था यह जिसकी दुलारी धिया थी रूपा।
गाँव पिता को शास्त्री जी कहता। बैदगी के अलावा ज्योतिष आता था उन्हें। साहित्य रसिक थे। जीने में बहुत सारा सलीका बनाए रखते थे। सबको “जी” लगाकर बुलाते। उनकी विहँसती हुई धवलता उस ग्रामीण धूसर में भी अपना रंग बनाए रखती।
घर हर वक़्त का उत्सव था। पता नहीं कैसे इस उत्सव में लोना लग गया। माँ को सांझ होते ही ज्वर चढ़ने लगा था। कुम्हला जाती वह। देह टूटती। बहुत प्यास लगती। उसी में रूपा और उसके छोटे भाई की देखभाल। खेती-गृहस्थी का रखना उठाना। बैदगी का संभार अलग से। तरह-तरह के काम। थकने लगी वह। झुलमुलाई सी इधर-उधर सुस्ताने लगी। वैद्य जी की दवाइयाँ सब बेअसर हुई। शहर भी ले जाया गया मगर बची नहीं वह।
पिता ने अपने हाथों से संवारा था उन्हें अंतिम बार। शांत दमकता हुआ चेहरा देख सब बिलख उठे थे।
फुआ कहती–“नजर लग गई गृहस्थी को” । माँ के जाने के बाद पिता माँ बन गए थे। ज़रा सी भी मलीनता चेहरे पर लाए बिना वे घर सँभालने में जुट गए थे। फुआ काफी दिनों तक ठहरी थीं मगर वे भी अपने घर की अकेली थीं। जाने से पहले वे रूपा को रसोई-पानी सिखा देना चाहती थीं मगर वैद्य जी ने उन्हें यह नहीं करने दिया। बच्चों की क्षण भर की भी उदासी उन्हें सह्य नहीं थी।
फुआ कहतीं–“रूपा! स्त्री का जांगर ही काम आता है रूप नहीं” पिता उन्हें बरजते। वे रूपा को भी पढ़ाना-लिखाना चाहते थे। उसकी चोटियाँ बना स्कूल भेजते। दोनों भाई-बहनों का कपड़ा-लत्ता सब सँभालते।
पढ़ने में रूपा की ज़्यादा रूचि नहीं थी। मगर पास हो जाती थी वह। गाँव-घर, खेत-बगीचा उसे प्रिय थे। तैराकी बहुत पसंद थी।
धीरे-धीरे उसे फुआ का कहा समझ में आने लगा था। उसकी सहेलियाँ ब्याही जाने लगी थीं और ब्याही जाकर गृहस्थिन होने के बदलाव में दिखने लगी थीं। रूपा ने भी कामों में हाथ लगाना शुरू किया। उसे रसोई और घर संम्हालने की सुरूचि कब हासिल हो गई होगी, उसे समझ में नहीं आता था मगर काम करने की उसकी दक्षता निखरती गई। घर-आँगन में सब कुछ अपने सलीके में चमक उठा।
पिता नहाने जाते तो उन्हें अपने साफ कपड़े चुने हुए मिलते। उनकी पूजा की जगह दमक उठी। रसोई भी भरी-पूरी हो उठी।
वैद्य जी उसको बड़ा होता हुआ देख रहे थे। एक खूबसूरत कद और सुंदरता हुई जा रही थी वह। अपनी उम्र से ज़्यादा की लगती।
फुआ ने उसके हाथों में उसकी माँ की कलाएँ देखलीं। घर के काम के साथ साथ एक प्रसन्न सामाजिकता में उसका रमना चलता रहा। पैरों में तो जैसे हवा बंधी थी उसके। उधर वैद्य जी खाने बैठते और इधर रूपाके किस्सों की पिटारी खुलती।
कभी-कभी उन्हें बहुत सारे प्रसंगों का पता नहीं होता था तब वह बड़ी-बूढ़ियों की तरह उन्हें समझाती। जीवन में हरापन और आया। तभी रूपा का ब्याह तय हुआ। उसका ब्याह पूरे गाँव का जश्न हो उठा था।
सांवर रूप नरायन!
यह रूपिया का ब्याह था। पूरे गाँव की चुलबुली प्यारी बिटिया का ब्याह सखी- सहेलियाें की जान, बड़ी-बूढ़ियों की हँसी-ख़ुशी और पोखर-तालाब, गाय-गोरू सबकी पालनहार। पूरा गाँव अपने हिस्से का इंतज़ाम लिए हाजिर होगया था। शास्त्री जी बहुत अनमन थे, उदास थे।
रूप के सामने पड़ने से बच रहे थे वे। मन में बहुत कुछ उमड़ा चला आ रहा था उनके।
उनकी बहन सब समझ रही थी। लोक व्यवहार की बात कहकर कई तरह से उनको सामान्य करना चाहती थी। वैसे भी बात-बात पर कमज़ोर पड़ जाने वाले अपने इस भाई की उसे बड़ी चिंता थी। भरी-भरी आँखे उनकी अढ़उल के फूल सरीखी हो रही थीं।
बहन पानी या कि शरबत लेकर हाजिर होती–“भइया! उपासे हो मगर पानी पीने की मनाही नहीं है।”
रिश्तेदारों से भरे घर में चारों ओर रजगज उमड़ी पड़ रही थी। आने-जाने वालों का अनवरत आलम था। उसी में हेराए हुए थे रूपा के पिता।
जनवासा सज गया था। सेवा-पानी, टहल सब बेजोड़। मिठाइयों की ख़ुशबू गाँव के बच्चों-बूढ़ों के मन पर छा गई थी। बच्चेबहाने-बहाने वहीं मंडराते। बिजली की झालरें, लट्टुएँ सज रहीं थीं। शास्त्री जी का दुआरा आज गाँव की सबसे आकर्षक जगह था सबके लिए। बड़े-बूढ़े वहीं जमे हुए सब चीज़ों की निगरानी में थे। बतकही ज़ारी थी। ऐसा लग रहा था जैसे उनके अपने दरवाज़े पर बरात आ रही हों। गाँव में इस तरह का सहयोग, खासकर बेटी के ब्याह में एक आम बात थी। जिसके पास जो होता, वह वही लेकर हाजिर हो जाता। बर्तन, खटिया, पलंग, तोशक तकिया से लेकर मच्छरदानी तक। और यह तो सबकी दुलारी धिया रूपिया का ब्याह ठहरा।
गोधूलि बेला थी। सूरज का प्रकाश रेशमी हो रहा था। धूप-छाया के खेल में अलग जादू भर गया जब दुलहे की सवारी द्वार पर उतरी।
ठट्ट का ठट्ट समाज द्वार पर जुटा था। जामा-जोड़ा का बासंती घेरा समटेते हुए जियुत जब बग्घी से उतरा तो उसके रूप की चकाचौंध से वहाँ जैसे सन्नाटा छा गया।
एक छोटा नटखट बच्चा चकर-पकर सब देखता रहा और फिर चिल्ला उठा–‘सियावर रामचन्द्र की जै’ एक सम्मोहन भरी जयकार से वहाँ की दिशाएँ प्रतिध्वनित हो उठीं।
अद्भुत रूप था वह।
गोरे दमकते विशाल माथे पर चंदन तिलक के क़रीब चमकती पसीने की बूँदे। आँखों में काजल और बासंती वस्त्रों से फूटती उजास।
सब जगमग जगमग
फुआ का हृदय लरज उठा।
साक्षात् सुंदरता खड़ी थी द्वार पर अजुरी में अक्षत भरे। बेदाग निष्पाप कोमल चेहरा और आम की फारी जैसी आँखे। सघन बरौनियाँ और गझिन भौहें। बीच में झलकारी मारता चंदन का टीका।
एक ख़ुशबू थी जो फूट रही थी उस काया से।
फुआ की आँखे डबडबाती चली गईं।
आकाश की ओर उठ गई उसकी आँखें और बुदबुदा उठी वह “देख रही हो अपना दामाद!”
फुआ जैसे रूपा की माँ का देखा हुआ सपना आँखों में भर उठी थीं। साक्षात् राम जैसा सुघर वर सामने खड़ा था। फुआ की आँखें थीं कि उस रूप से चिपक गईं थीं।
बहुत निष्कपट पावन आँखें दूल्हें की चारो तरफ सब कुछ निखरती हुई सी थीं।
फुआ के होठों से गीत झर उठा–
“सुंदर रूप नरायन ओढ़ले पितांबर ऽऽऽ”
कंठ अवरूद्ध हो गया उनका।
“सुघ्घर रूप नरायन ओढ़ ले पितांबर…” समूह कंठ ने गीत को सँभाल लिया।
फुआ का गला अवरूद्ध हुआ जा रहा था। हृदय उमग रहा था और आँखे भरी चली आ रही थीं।
बुद बुदा उठतीं वे–“नजर न लगे! हे देवता पितर, रक्षा करें
सब रक्षा करे…”
उनकी निगाहों में रूपा की माँ की निगाहें मिल गई थीं और दिल में भी उनके दिल का कंपन आकर फैल गया था जैसे। वे इसे महसूस कर रही थीं बार-बार। बार-बार वह अपने अवश होते शरीर को सँभाल रही थीं।
गजब माया भरी थी दूल्हे में।
सबकी जुबान पर बस एक ही बात कि–“दुलहा रूपिया से बीस है” ऐसा कोई दूल्हा अलग-बगल के बीस गाँवों में नहीं आया आज तक। इतनी सधी हुई सुंदर काया, ऐसा जगमगाता रूप, ऐसी चमक भरी हुई हँसी ओह! ओह!
सब निछावर हुए जा रहे थे। क़रीब से उसे देखने के लिए धक्का-मुक्की मच गई थी।
रूपा की हमजोलियों पर भी यह जादू चल गया। भहराती हुई सब सीधे रूपा के पास कोहबर में जा गिरीं। “रूपिया! तोर दूलहा त करेजे मे घुस गइल रे” पुंजा ने कलेजा पकड़ कर औंधे गिरने का अभिनय किया। हँसी के फुहारे चारों तरफ फैल गए।
रूपा को पति की सुंदरता का पता तो था मगर इस जादू का पता नहीं था। बूढ़े-बूढ़ी, लड़के-बच्चे सब इस जादू के चपेट में। पिता भी जब से देखकर लौटे थे उसी सम्मोहन में तो थे। फुआ से उसके रूप रंग, बोली-बानी का बखान करते रहते हरदम और रूपा के कान वहीं ठिठक जाते थे।
एक असर हो रहा था उसके मन पर। कोई कल्पना में आकर उसके लिए अपनी बाहें फैला रहा था। कोई चुपके से आकर अपनी गर्म सांसों से उसके कान दहका जा रहा था। किसी को हरदम अपने क़रीब महसूस करने लगी थी रूपा। उसके तन का भी पूरा रसायन बदल रहा था धीरे-धीरे। नसों में एक आलस्य उतर रहा था। चाल मद्धिम तो चली थी।
आते-जाते आँगन की दीवार में जड़े आईने के पास ठिठक जाती रूपा। माथे पर आई लट को अंगुलियों में लपेटने लगती ख़ुद पर मोहित होती और हँस पड़ती। चौकस होती कि कोई देख तो नहीं रहा है। हर बात का जवाब धीरे से। फुआ चौंक जाती। उन्हें इस रूपा में पुरानी अल्हड़ रूपा विलुप्त होती दिख रही थी।
बोल-चाल, चलना-फिरना और संवरना, सब बदल रहा था। “लगन लग गई धिया को” फुआ ने महसूस किया।
मन भाये बलम! जादू-जादू मत खेलो
फागुन चढ़ रहा था। सांझ में दिन की विदा लेती चमक आ समाई थी। कंधे पर गीले बाल फैले थे रूपा के। यह ठंड सिहरन बनकर पूरी देह कंपा जा रही थी। ठंडी हुई हथेलियों में अक्षत सम्हाल रूपा सहेलियों के साथ छत पर लाई गई। उसे दूल्हे पर अंजुरी का चावल फेंकना था और छुपकर उसे देख भी लेना था।
हवा में फहराते हुए से चावल के कण जियुत पर गिरे और कंधे से छितराकर बिखर गए, जिसने देखा और महसूस किया वह ऊपर बारजे की तरफ देख उठा। ढेर सारा कुसुम्भ रंग संवरा हुआ था वहाँ। ठिठोंलियों से भरी आवाज़ें मंत्रोच्चार में आकर मिल गई थीं। रूपा ने आँख भर देख लिया था जियुत को। चकित सा ऊपर उठा उसका माथा और भरमाई सी उसकी आँखें। द्वार के गझिन गदराये नीम की डालियों के भीतर से झांक रही सांझ की लालिमा शायद इस क्षण की साक्षी बनने के लिए ही ठहरी थी।
पुंजा फुसफुसा उठी–“रूपी! चार दाना मैं भी डाल दूं तेरे दूल्हे पर, मिल- बांट लेगें न सखी!” रूपा तरेर कर देख उठी अपनी उस सखी को जिससे उसका अब तक सब साझा था।
रूपा ने महसूस किया अपने दूल्हे को वह किसी से नहीं बांट सकती, किसी से भी नहीं। सख़्त बंद होठों के भीतर एक फैसला था कि “सात जनम तक मिलते रहना जी।” द्वार पर शहनाईयाँ बज उठीं।
द्वार पूजा संपन्न हो चुकी थी।
तीन घड़ी रात बीत चुकी थी जब अंजुरी में जलता दीपक थाम कर जियुत ने आँगन में सजे विवाह मंडप में प्रवेश किया। झिलमिल रोशनी में पीले रंग की आभा फैली हुई थी। हरे बांस से लिपटे सगुन पक्षी, कलश और जलता हुआ दिया। इस वक़्त तक ठंड बढ़ चली थी। हवा तीखी और तेज़ थी। बिजली के लट्टुओं की जगमग के ऊपर अंधियारे पक्ष की षष्ठी का आधा चाँद चमक रहा था।
नाजिम मिया की शहनाई की जुगलबंदी जारी थी। कलेजा निकालकर बजा रहे थे आज वे और उनका बेटा जावेद। वैसे भी दूर-दूर तक उनकी शहनाई का कोई जोड़ नहीं था फिर आज तो रूपा का ब्याह था।
सुरमे भरी आँखों के साथ वे अपने सुर पर ही रीझ रहे थे। उनके निकट झम झम न्यौछावरों के सिक्केबरस रहे थे मगर उन्हें कोई सुध नहीं थी। भींगी हुई रात का यह रजगज अनोखा था हर तरह से। शास्त्री जी का विस्तृत बरामदों वाला विशाल आँगन भर उठा था। गाँव भर की नई-पुरानी स्त्रियों का कलरव कौतुक खेल रहा था वहाँ।
बूढ़ी-पुरनियाँ औरतों में सारे रस्मों का गीत गा लेने की होड़ मची थी। वे बार-बार नई-नई लड़कियों-बहुओं की दखल से नाराज़ भी हो रही थी। लड़कियाँ अपने सारे नये सीखे हुए गीत गा लेना चाहती थीं।
अचानक एक काँपता हुआ सा सुर उठा, सब चुप से हो गए। यह रूपा की फुआ की आवाज़ थी। वे रूपा की माँ का गीत गा रही थीं ‘मानिक दियना हाथि ले बर ब्याहन आये।’
आवाज़ में आंसुओं का कंपन बहुत गाढ़ा था
रूपा के पिता फफक उठे।
लोगों ने उन्हें थाम लिया
कोहबर में बैठी रूपा बिलख उठी।
माँ बहुत याद आने लगी उसे…
सारी ख़ुशी, दुख की चट्टान के नीचे दबती प्रतीत हुई रूपा को। बहुत अकेला कर गई माँ उसे।
थरथर काँप रही थी रूपा। देह और मन दोनों बस में नहीं आ रहे थे। ऐसा लगा जैसे माँ ने धीरे से उसके सिर को छुआ…
यह वृंदा थी। उसे भी बहुत रूलाई आ रही थी।
राम चले हैं बियाहन, रूने-झुने बाजन…
जियुत की आँखें अब भारी हो रही थीं। बहुत नये तरीके की गहमागहमी थी यह उसके लिए। तरह-तरह की पूजा, तरह-तरह की रस्में तमाम। हर चीज़ में उससे कोई चूक हुई जा रही थी। परिवार के लोग, फूफा, चाचा सब ठिठोली कर रहे थे कि “यह दूसरी कला है बाबू, इसे करके दिखाना आसान नहीं है।” उसके ऊपर चारों तरफ से ढेरों निगाहें गड़ी थीं। अपने अजब-गजब बाने में वह अट नहीं रहा था। सेहरे की लड़ियाँ आँखों पर झिलमिल कर रही थीं। ऐसी निगाहों का मंजर बहुत नया था उसके लिए। ऐसे समाज में वह इस तरह पहली बार हुआ।
अपनी अब तक की याददाश्त में उसने इतने सारे अपने कुटंुबी जन को एक साथ पहली बार देखा। पिता के उमगते हुए कलेजे को पहली बार महसूस किया। उनके जैसे सख़्त स्वभाव आदमी की ऐसी कोमलता कि लगता था कि मुँह से फूल झर रहे हों। बात-बात पर डपट देने की उनकी आदत न जाने कहाँ चली गई थीं।
जियुत के पैरों के नीचे वे जैसे अपनी हथेली बिछाए हुए थे। बहुत से संबंध तो जियुत को याद भी नहीं थे। याद भी कैसे रहते। आठवीं के बाद बड़े चाचा के पास रहकर पढ़ने चला गया था वह और उसके कुछ दिनों बाद स्पोर्ट्स हॉस्टल में।
स्पोर्टस हॉस्टल के समाज ने उसे बहुत बदल दिया था। तब वह भगवान से मनाता कि पिता उससे मिलने वहाँ कभी न आएँ। बहुत अनगढ़ और बेमेल दिखते थे पिता उसके उस परिवेश से। जब कभी कान पर जनेऊ चढ़ा कहीं भी पेशाब करने के लिए उकडूबैठ जाते तो जियुत का कलेजा सूख जाता था। मगर बाबूतो बाबू ही थे।
एक उबड़-खाबड़ देहाती रंग-ढंग वाले पिता, उन्हें अपना किसानी बाना ही प्रिय था।
जियुत की बारात में वे समधी थे, मान्यवर थे।
सजे-बजे और सलीके में भी थे।
उन्हें ऐसे देखकर जी ख़ुश हो गया था जियुत का। आज भी एक ऊँची-पूरी काया का स्वस्थ रूप थे वे। चेहरे पर तब मस्ती छलकी पड़ रही थी। आँगन में उन्हें निशाने पर लेकर गालियाँ गाई जा रही थीं। सब ऐसे ख़ुश थे जैसे फूल बरसाये जा रहे हों।
फूफा के छैल-छबीले से भाई ने तो सबका नाम कागज पर लिखकर औरतों में भिजवा दिया और औरतों ने निहाल होकर सबको चपेटे में ले लिया। अब उस निशाने पर दूल्हे के पिता, चाचा, भाई, फूफा तो थे ही, बाक़ी बाराती भी थे। बारात में भी तो सब आये थे। फूफा ही नहीं फूफा के भाई थी। मौसा ही नहीं मौसा के भतीजे भी। पिता तो सबको बुलाकर बहुत आह्लादित थे। सबका ख्याल रखने में पूरा परिवार जुटा था। सबके ज़िम्मे काम ही काम। सबका सब पर रोब कि बहुत व्यस्त हैं भाई। संतरा दादी चिल्लाती–‘दरोगा बो! बेटवा की नजर उतारना मत भूलना।’
अच्छा-खासा हींग पोतवा दिया था दादी ने। कहा था–“दुलहा-दुल्ही की परछाई हलुक हो जाती हैं न, कोई हवा-बतास पकड़ ले, इसलिए बहिनी!” दादी समझाती ही रहती।
सुखई चच्चा अझुराए थे कि ब्याह का कोई ज़रूरी सर-सामान छूट न जाए। दादी उनकी भी चुटकी लेने में पीछे नहीं थीं–“हरे सुखिया एक ठे अपने जोड़ के भी छाँट लीहे रे, माँग लीहे समधी से। तोहरे खातिर त पुरानो-घुरान ठीके है।” सुखई के चित्त से भी सारा बैराग झर गया था।
मुस्करा उठे थे सुखई!
सब पर कोई और ही रंग चढ़ा था।
फागुन का अपना रंग तो था ही।
जियुत के भीतर भी इस फागुन की दस्तक थी। कुछ अनोखा हो रहा था उसके साथ। बहुत अपरिचित कुछ, मगर बहुत स्पंदित।
एक लय थी जो पूरे शरीर में तन उठी थी। उसे लगा कि उसे बहुत कुछ प्रिय लगने लगा है। विवाह को लेकर उसका गुस्सा भी घट रहा था।
चंद्रकला त्रिपाठी
अवकाश प्राप्त प्रोफेसर एवं
पूर्व प्राचार्य : महिला महाविद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय।
किताबें : आलोचना- अज्ञेय और नई कविता
कविता संग्रह -वसंत के चुपचाप गुज़र जाने पर
शायद किसी दिन।
कथा डायरी – इस उस मोड़ पर।
उपन्यास- चन्ना तुम उगिहो
और डिलिवर्ड/रेड।
कहानी संग्रह: प्रेतबाधा और
बरस के मौसम चार।
सम्मान- सुचरिता गुप्ता अकादमी सम्मान,
शुकदेव सिंह स्मृति कबीर विवेक सम्मान, सुशीला त्रिपाठी स्मृति सम्मान ,गाथांतर सम्मान।
काशी कला कस्तूरी के संरक्षक मंडल की सदस्य तथा पूर्व में काशी हिंदू विश्वविद्यालय अध्यापक संघ की सचिव।
हंस कथादेश पूर्वग्रह वागर्थ रचना समय आलोचना वसुधा दस्तावेज पाखी पल प्रतिपल वग़ैरह में रचनाएं प्रकाशित ।
शिक्षक संघ, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की पूर्व सचिव ।
नाटकों में अभिनय और निर्देशन ।
‘ कस्तूरी ‘ संस्था की सलाहकार।
‘दादी एंड ग्रैंडसंस’ नामक बच्चों के लिए यू ट्यूब चैनल की रचयिता।
मो. 9415618813.
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बढ़िया चयन संयोजन और संपादन।साधु।