1. अघोषित विश्वयुद्ध

दिशाओं के पोर-पोर में
अपूर्व भय का सन्नाटा नियति की तरह,
दिखाई कुछ भी नहीं देता,
सिवाय विदा लेती अपनों की आंखों के
भरोसा उठता जा रहा कल की सुबह से!
बेखौफ है, केवल पक्षियों की उड़ान
जिन्हें मृत्यु की कोई खबर नहीं,
सारी हरियाली जैसे सहमी हुई
मानो आहट मिल गयी हो
किसी अघोषित विश्वयुद्ध की!
पृथ्वी के पैरों में कांटे चुभ गये हैं
लड़खड़ा कर नाचती हो जैसे,
सूर्य की परिक्रमा करते हुए,
आदमी भविष्य के आगे इतना विवश कभी नहीं रहा,
कभी नहीं हुआ इतना स्वप्नविहीन
आजकल की रातों के पहले!

2. अवाक् हूँ मैं !

हमने तुम्हारी आंखों से
सिर्फ़ दुलार पाने का सपना बुना था
मेरे लिए तुम्हारी हर पुकार
प्रार्थना में झुक जाने से कम मोहक नहीं थी
हमने जब-जब पुकारा तुम्हारा नाम
खिल गया हृदय किसी दरख्त की छाया पाकर
हमारी मासूम नींदों में,
अपनों जैसे तुम्हारे लिए
आदर बरसता था,यकीन की सुगंध बनकर
हमारी विमल आत्मा ने
तुम्हारे जटिल मौन की मार पर
संदेह करना सीखा ही नहीं
प्यार देने के पीछे घात लगाकर बैठे
तुम्हारे शिकारीपन की पहचान करना
कल्पना से बाहर की कल्पना थी।।
सांस दर सांस अवाक् हूँ मैं
इसलिए नहीं कि
नोंच डाला तुमने,
तुम्हारे सम्मान से भरा हुआ शरीर
इसलिए भी नहीं कि
हवश का खूनी खेल जारी है-बेलगाम
खुद से कोई घृणा नहीं
निर्दोष बचपन लुट जाने के बावजूद।।
अवाक् हूँ सिर्फ़ इसलिए
अपनों की छाया से दाग बरसने लगे हैं
आदमी कहलाना आजकल
मनुष्य होने पर सबसे भयावह प्रश्नचिन्ह है
विश्वास करना जैसे दंड हो-भावुकता का
बचपन को जीना
जैसे यातना के तीखे अंधकार में
भटकती हुई सदियों की चीख हो।।।

अक्टूबर-2022 ई.

3. ईंटवाली

पेट भरने का सपना
मृग मरीचिका की तरह नाचता है
अधकचरी हड्डियाँ हार खा-खाकर
असमय ही मजबूत हो चुकी हैं
आँखों में,
न बचपन जीने की ललक
न प्यार-दुलार की प्यास
न ही माई-बाप,
खो देने वाले आँसू-
बची है तो बस
भूख से लड़ने की सनक,
आबरू बचाते फिरने की चिन्ता,
अकेले जीने-मरने की बेवशी
और, मार खा-खाकर भी
अभी न मरने की भूख।
पौधे की तरह शरीर
कठपुतली की तरह नाचती है
पैर हैं कि फिरकी
थक-थककर, थकना जानते ही नहीं
हाथ हैं कि टहनियाँ
जिसने काम के आगे झुकना ही नहीं सीखा ;
जन्मी तो बिटिया ही थी
गरीबी ने उसे बेटा बना दिया
लड़की होकर जी पाना उसे कहाँ नसीब ?
मासूमियत का रंग, अंग-अंग से गायब है,
मजबूरी की मार खा-खाकर
बचपन ने कब का दम तोड़ दिया,
प्रतिबन्धित है उसके लिए
युवती होने के सपने देखना
आकाश-पाताल के बीच
वह किस पर विश्वास करे,
कुछ समझ में नहीं आता
आजाद पंक्षी की तरह उड़ने की चाह
शरीर के किस-किस कोने से उठती होगी,
कौन जाने ?
लोगों की जुबान से उसका असली नाम गायब है,
मजदूर है इस कदर कि
जिन्दा रहने की पहचान ही गायब है
मान-सम्मान, इज्जत-आबरू छिन जाने के बावजूद
बची हैं तो दोनों कलाइयों में
रंग-बिरंगी चूड़ियाँ
जिसे माई ने अपने हाथों पहनाया था।

4. ऊंचाई

बड़ा हो जाने से
नहीं सिद्ध होती ऊंचाई
वह हासिल होती है-
जमीन के हृदय में धंसने की जिद्द से
धरती को आकाश मानने वाली
उल्टी निगाहों से।
ऊंचाई!
चुपचाप नीचे उतरने की
असीम गहराई है।

5. एक-एक बूंद जी लेने दो!

जो बूंदें कायनात से जमीन पर गिरीं
उसे सृष्टि का अमृतरस कहूँ
या शीतल सौंदर्य की सौगात?
जो हरियाली की परिभाषा लिखती हैं
उसे बरसता हुआ आश्चर्य कहूँ
या प्राणों को बुनता हुआ शिल्पकार?
कैसे लिख दूं कि वर्षाऋतु
आती-जाती हुई , सृष्टि की घटना है
वह क्या जीवन भर उमड़-घुमड़ कर
सुख-दुख का रूपक नहीं रचती?
आखिर कौन बरसता है यादों के एकांत में
मौन मोह के आंसू बनकर?
क्या संगीत रचती हुई वर्षा
पानीदार पृथ्वी पर
जीवन रचने का जादू नहीं?
बूंदों को भर आंखों पी तो लूं
जो मिट-मिटकर जड़ों में जान लाती हैं
मिट्टी में मिलकर आदतन
उसे आदर देती हैं मां होने का!
सांसों के रास्ते फिर-फिर लौटती हैं
हमारे होने का अर्थ बनकर।
बारिश की एक – एक बूंद हमें जी लेने दो
किसी का जी जुड़ाने के लिए
चुपचाप मिट जाने का रहस्य
पता तो चले!!!!

जुलाई – 2021

6. गलतियाँ तीसरी आंख हैं

अचूक दवा होती हैं-गलतियां
जिद्दी रोग मिटाने के लिए
अदृश्य नश्तर जैसी भी।
अनमोल सबक की शक्ल में
दादी जैसी चुपके – चुपके
नेह-सिखावन भरती हुई।
गलतियां हमें सही करने में
तनिक भी गलती नहीं करतीं।
अधूरा है,खोखला है,वह हर सही
जो नहीं तपा,नहीं गला
नहीं लड़खड़ाया, नहीं गिरा
मात कभी खाया ही नहीं
जो भर तबियत नहीं रोया
अनगढ़ गलतियों की जमीन पर।
गलतियाँ धो,पोंछ डालती हैं
गलती करने के सारे भय
धंसा देती हैं पैर
साहस के अतल में
अदम्य आत्मविश्वास का तानाबाना
गलतियों से बुना होता है
बिना गलती किए
खुद को पक्की निगाह से परखने की
तीसरी आंख होती हैं गलतियां।।

अगस्त-2022

7. जनतंत्र का स्वप्न

स्वप्न है उस जनतंत्र का
जिसमें गिरे हुए पत्तों की खामोशी
सांसों की नींव के रूप में दर्ज हो
संविधान की धारा की तरह
सदियों तक,
सदियों तक |

जनवरी, 2022 ई.

8. कागज का दूसरा पृष्ठ

जड़ों की तरह उपेक्षित रहता है
निगाहों से अक्सर,
शब्द – शब्द को उर्वर जमीन
दूसरे पृष्ठ से मिलती है
लकीर की तरह अमिट रहते हैं शब्द
दूसरे पृष्ठ के हृदय पर।
अर्थों को जीवन देने में
अनिवार्य है दूसरे पृष्ठ की कुर्बानी
पहला पृष्ठ टिका हुआ है
दूसरे पृष्ठ पर,जन्म से ही।
कल्पना को साकार करने में
इंकार को आकार देने में
घुलमिल गया है दूसरे पृष्ठ का त्याग
अनुभूति की तरंगों पर
कलम का नृत्य करना
दूसरे पृष्ठ पर ज्यादा निर्भर है
चमकता रहा है पहला पृष्ठ
सदियों से,दूसरे पृष्ठ के जरूरी अंधेरे में
जैसे पत्ते-पत्ते की आभा में
छिपी है पिछले हिस्से की उदासी
जैसे आगे रहने में शामिल है
पीछे रह जाना
जैसे खड़ा रहना
किसे के झुके बगैर संभव नहीं
वैसे ही दूसरा पृष्ठ!
अदृश्य, गुमनाम, बेजरूरी
मृत्यु की सीमा पर जीवित
जिसके बगैर किसी की भी पहचान
नामुमकिन है,असंभव।।
दिसंबर-2022 ई.

9. परिवर्तन की पदचाप

कुछ तो है,जो खेल रहा है निरंतर
हमसे छिपकर
जादुई एहसास की तरह।
मौजूद रहता है हर वक्त
अबूझ प्रश्न बनकर।
बजता ही रहता है रोम-रोम में
रहस्यमय आहट जैसा।
इसे समय कहूँ ?
या अनादि अस्तित्व की झंकार ?
सृष्टि का अनगढ़ स्वभाव मानूँ ?
या हर तरफ नाचते हुए
परिवर्तन की पदचाप ?
समय कहीं मोहक धोखा तो नहीं ?.
हमारी समयवादी बुद्धि का।
हम नहीं थे,तब कहाँ था समय ?
हम मिट जाएंगे, फिर कौन सोचेगा
समय क्या है ?
वह क्या है,जो रात को पोंछ देता है
दिन छाप देता है,दिशाओं में।
बीजों को देता है,दरख्तों की शक्ल।
शून्य की सत्ता छा जाती है
जीवन के आरपार।
वह क्या है,जिससे मुंह में जुबान आती है
छिन भी जाती है-सदा के लिए।
नाम दे देना भी
दाग लगा देना है एहसास में
सबसे बचकाना चूक है
सत्य को शब्दों में बांध देना।
सृष्टि में जो भी है
अपने अर्थों में समुद्र है,
जिसके होने का अर्थ है
बस अनाम रहना।
जिसे नहीं समझा जा सकता
समझ की सीमाओं में,
जिसे नहीं पाया जा सकता
पा लेने की हद में।।

अप्रैल,2024

10. झर रहा है समय!

झरने जैसा झर रहा है समय
शून्य के शिखर से।
एहसास से ज्यादा अदृश्य,
हवा से ज्यादा महीन।
समुद्र का विस्तार कुछ भी तो नहीं
समय की सत्ता के आगे।
कहाँ-कहाँ नहीं धड़क रहा है समय?
हृदय से ज्यादा तेज,
सांस-दर-सांस अंतिम विजय की
आहट देता हुआ।
बचपन की जादू भरी कल्पना,
जवानी में सब कुछ पा लेने की भूख
हर पल दहकती कोई प्रतीक्षा,
हासिल न होकर भी
हासिल कर लेने की अनबुझी प्यास,
कितना बहुरुपिया बनकर
नाचता है समय ?
मंत्रमुग्ध आंखों के सामने।
छिपा है पांचों अंगुलियों में
मगर कस नहीं सकते,
बजता रहता है आत्मा में
मगर सुन नहीं सकते,
जीवन के आर – पार बहते समय को
कौन बांध पाया आजतक ?
समय का चेहरा पढ़ लेना
जान लेना है-
सब कुछ होने और
कुछ भी न होने का रहस्य।।

अप्रैल- 2024 ई.


भरत प्रसाद
【आलोचक, कवि और कथाकार】
■■■

■जन्म : 25 जनवरी, 1970 ई. ग्राम –हरपुर ,संतकबीरनगर (उ.प्र.)

■ आलोचना, कविता और कहानी विधा में अब तक 17 पुस्तकें प्रकाशित।

■आलोचना : 10 पुस्तकें
—————————-
1.कविता की समकालीन संस्कृति
2.बीहड़ चेतना का पथिक:मुक्तिबोध 3.प्रतिबद्धता की नयी जमीन
4. बीच बाजार में साहित्य
5.सृजन की 21वीं सदी
6.देसी पहाड़ परदेसी लोग (पुरस्कृत )
7. नयी कलम : इतिहास रचने की चुनौती |
8. चिंतन की कसौटी पर गद्य कविता।
9. सृजन का संगीत
10. विविधताओं का आश्चर्ययलोक

■ काव्य संग्रह: 04 पुस्तकें
———————————
1.एक पेड़ की आत्मकथा
(पुरस्कृत )
2.बूंद बूंद रोती नदी
3.पुकारता हूँ कबीर
4. थका सूरज चमकता है

■कहानी संकलन: 02 पुस्तकें
————————————
1.और फिर एक दिन (पुरस्कृत )

2. चौबीस किलो का भूत ।

■विचार परक कृति:
कहना जरूरी है।

■सम्पादित पुस्तकें : 03 पुस्तकें
————————————–
1. बचपन की धरती: धरती का बचपन-2021 ई. , अमन प्रकाशन-कानपुर।
2. प्रकृति के पहरेदार – 2021 ई.
अनन्य प्रकाशन-नयी दिल्ली।
3. लोकसत्ता के प्रहरी ( सुरेशसेन निशांत पर केंद्रित )

■पुरस्कार :
१. मलखानसिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार : 2014 ई.
२. युवा शिखर सम्मान-2011(शिमला)
3.अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कार -२००८ ई. सहित पांच साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित।

■हिंदी साहित्य लगभग सभी प्रमुख पत्रिकाओं में कविताओं,लेखों और कथा साहित्य का निरंतर प्रकाशन|

■मासिक पत्रिका “जनपथ” के दो विशेषांकों का सम्पादन। 1.सदी के शब्द प्रमाण-२०१३ ई. (युवा कविता विशेषांक) 2.धरती का बचपन:बचपन की धरती-२०१९ ई.
3. “साहित्य विमर्श” पत्रिका के “समकालीन कविता विशेषांक” का सम्पादन -२०२१ ई.

■कविताओं का नेपाली , मराठी, अंग्रेजी और बांग्ला में अनुवाद।
■अध्यक्ष : साहित्यिक –सांस्कृतिक संस्था –‘पूर्वांगन’
* संपादक : देशधारा : साहित्यिक वार्षिक पत्रिका
■प्रधान संपादक : पूर्वांगन –ई-पत्रिका

■सम्प्रति : प्रोफेसर, हिंदी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय ,शिलांग – 793022, (मेघालय)
■मेल : bharatharpur25@gmail.com
■मो.न. 09077646022 ( Whatapp No.)
09383049141
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