बहादुर पटेल समकालीन युवा कविता के प्रमुख नाम हैं। खातेगाँव, देवास में भू-राजस्व विभाग से जुड़े बहादुर पटेल ओटला साहित्यिक संस्था से सम्बद्ध हैं जो पाठ परम्परा को जीवित रखने के प्रयास में लगी है।
बहादुर पटेल मालवा की माटी के रचनाकार हैं जो जीवन के विद्रूप को कविता में ऐसे दर्ज़ करते हैं कि कवित्त की मर्यादा खंडित नहीं होती। बहादुर विलुप्त हो रही चीज़ों को सहेजकर रखना चाहते हैं और सबसे बड़ी बात कि आज के विषाक्त माहौल में प्रेम जैसे जीवन-राग को अपदस्थ नहीं होने देना चाहते। – हरि भटनागर
कविताएँ
1/ शंकर केदारी
शंकर केदारी नाम था उसका
दरअसल केदारी पिता का नाम
और उसका पूरा नाम पिता के नाम के बिना अधूरा
बहुत भोला
इतना भोला जैसे किसी और ग्रह का बाशिंदा
नाम में क्या रक्खा है
कुछ भी हो सकता है
नाम को विस्थापित करता है कर्मनाम
राजस्व महकमे में वह बतौर चैनमैन काम करता था
काम के प्रति उसका ज़ज्बा नाम और पद का पर्याय
पटवारियों और गिरदावर के बीच का पूल
सोंपे गए आदेशों की तामीली करवाना
ज़रीब खींचने का कभी नहीं किया काम
जबकि नाम के मुताबिक़ उसका यह काम होना चाहिए था
सिर पर टोपी
पजामा बुशर्ट और नीला कोट
बारहों महीने का पहनावा
बड़ा-सा कपड़े का झोला जिसमें तामीली के तमाम आदेश
पैदल चलना एक पटवारी से दूसरे पटवारी के घर
जैसे एक नीला ग्रह लगा रहा हो पृथ्वी के चक्कर
जैसे एक चैनमैन नाप रहा हो पूरी पूरी पृथ्वी
प्रत्येक पटवारी के परिवार का एक हिस्सा
शंकर केदारी यथा नाम तथा गुण
यहाँ से वहाँ रपाटे मारता थकता नहीं
जिम्मेवारी शब्द को धड़कन देता
खुद थकता नहीं और पटवारियों कि चम्पी करता रहता
शंकर केदारी जैसा चैनमैंन अब नहीं होगा कभी
उसूलों का शब्दकोष
राजस्व के दलदल में पड़ा एक हीरा था वह
जिसका कोई जौहरी नहीं था
उसकी पहचान का दिया धीमे-धीमे टिमटिमाता रहता था
कदर नहीं थी ऐसे कर्मयोगी की
मूर्ख ही रहा वह इस काजल की कोठारी में
कैसा आदमी था यह
तमाम जगह बिखरा पड़ा था रूपया
समेटने की तमीज़ नहीं सीख पाया यह अपनी पूरी नौकरी में
एक रुपये का दाग़ नहीं था उसकी आत्मा पर
शंकर केदारी कविता का विषय नहीं है
वह एक आख्यान का हक़दार है
और मेरी यह कोशिश एक श्रद्धांजलि है
नौकरी पूरी करने के बाद वह एक सुनसान सड़क पर
अकेला चला गया
यह एक ऐसी सड़क थी जिस पर कभी-कभी
शंकर केदारी जैसे लोग ही जाते हैं
वे पीछे मुड़कर नहीं देखते
दरअसल वे खुद एक रास्ता बनाते हैं
जिसे वे ही नापते हैं
शंकर केदारी आज तुम हमारे बीच नहीं हो
लेकिन तुम्हारे डग भरने की धमक आज भी
मेरे कानों में गूँजती है
तुमने जो रास्ता चुना था
उस पर चलने के लिए शंकर केदारी बनना पड़ेगा।
2/ शर्म से कहाँ जा मरूँ
शर्म से भरा हुआ हूँ मैं आजकल
इतना ज़्यादा कि कहाँ छुपाऊँ अपने आपको
है कौन-सी ऐसी जगह
जहाँ उतर जाऊँ दबे पाँव
कहाँ से लाऊँ ऐसे पाक-साफ हाथ
जिनसे ढँक सकूँ अपना ये मलिन चेहरा
कैसे बचाऊँ अपने होने से
इस पृथ्वी के टूटते रेशों को
कौन सी कालिख होगी अपने भीतर के कलंक नापने के लिए
आदिम नाख़ून हैं मेरे
जिन पर लगे ख़ून के धब्बे किस पानी से धोऊँ मैं
आरोप की खाई से निकलना दुष्कर
कितना मुश्किल है अपने को गुनाहगार कह पाना
किसकी ओट में जाकर छिपूँ मैं
हर तरफ अब मेरी अपनी आँखों में
दिखता है भेड़िये का रूप
अपने होने को कैसे नकार सकता हूँ मैं
किस-किस से क्षमा माँगूँगा
कौन सी स्त्री करेगी मुझे बाइज्ज़त बरी
सदियों का अपराधी हूँ मैं
अपने पुरखों के अपराध भी धरो मेरे सर
मैं उफ़ तक नहीं करना चाहता
अपनी नाभि नाल को मुझसे अलग करो
मैं प्रार्थना से छलने का आदि हूँ
धरती कब तक गाओगी मेरे पैदा होने पर
मंगल गीत
धकेलो मुझे कि हर स्त्री का दोषी हूँ
गिरूँ तो कहीं जगह न मिले
आकाश न थामना मुझे
मेरी काली छाया से बचना तुम
माँ किस मुँह से पुकारूँ तुम्हें
बहिन कैसे मुँह दिखाऊँ
बेटी कैसे कहूँ तुम्हें बेटी
बताओ तुम सब कि कैसे छुपाऊँ
मैं अपने पुरुष का चेहरा
कि शर्म से कहाँ जा मरूँ।
3/ अपने पीलेपन में भी दीप्त हूँ
बस अब तक का ही था साथ
आज की इस सुकून भरी सुबह
विदा कह दिया
डाली को नए पत्तों को
और जो कल गिरेंगे मेरी तरह उनको भी
कोमल भाव लिए आएँगे दुनिया में
अपनी हरीतिमा से
आलोकित करेंगे पृथ्वी को
पक्षियों की तरह लौट ही जाएँगे
शाम के कलरव के बाद
शांति अपनी चादर पसार ही देगी
हवा ने मुझे दुलरा कर
पृथ्वी की गोद में धरा
मैं अपनी उम्र पर फ़िदा हूँ
जितना जिया वह मेरा है
मेरे हिस्से की ऑक्सीजन मैंने दे दी
अपने पीलेपन में भी दीप्त हूँ
मिट्टी में मिलने की संतुष्टि लिए
सबसे कह रहा हूँ अलविदा…
4/ टापरी
वो देखो वहाँ कभी हुआ करती
ठीक कुएँ के बगल में टापरी
तब दादा भी हुआ करते
बनाई भी उन्होंने ही थी
अपनी मेहनत के मोतियों से
इकट्ठा किया था उन्होंने
ईंट, गारा और चूना
जिससे खड़ी की थीं चारों ओर दीवारें
सुरक्षा का एक घेरा बनाया था
बिछा दी थीं दीवारों पर
कुछ सीमेंट की चादरें
नीचे से बल्लियों के टेकों पर
बहिन कमली अक्सर लीप दिया करती
पीली मिट्टी और गोबर से
कैसा दिपदिपाता था अन्दर
सोने-सा
धूप के कुछ पहिए
मंडराते थे वहाँ दिन में कुछ ढूँढ़ते से
और रात में चांदनी
अपने करतब दिखाती
अमावस की रात जब भारी पड़ती
तो गुलुप जलता
या फिर किरासिन की चिमनी
ही होती आँखों का सहारा
यह तब की बात है
जब कुएँ में हुआ करता था
लबालब सागर-सा पानी
दादा अक्सर क़िस्सा सुनाते
कि कैसे जब चड़स में बैलों को जोतकर
निकला जाता पानी
कैसे सोते फूट पड़ते
कल-कल संगीत के साथ
बैलों की काँसट करती उनकी संगत
यह कैसी कहानी थी
जिसमें कविता का वास था
संगीत का वास था
फिर कैशा हलवाहा अपनी
तान छेड़ता तो नहा जाती हवाएँ
बहा ले जातीं दूर तक मिठास
कैशा तब भी गाता था जब
पहली बार बिजली से पानी निकाला गया
फिर वाह गाने को
क़िस्से में बदलने लगा
ऐसे क़िस्से सुनाता कि कुएँ के
सोते धार-धार रोते से लगते
इसे हम दूर से टापरी कहते
और यदि होते पास तो खोली
गाँव से दूर खेत पर थी यह
ऐसी कई टापरियाँ थीं
कई-कई खेतों पर
सबका मिज़ाज होता अलग-अलग
सबकी अलग-अलग थी गंध
सबका अलग-अलग था संसार
इनका उपयोग ऐसा कि
जैसे ख़ाली पेट को खाना
प्यासे को पानी
मदन, मंशाराम, दादा, दादी
माँ, पिता और हम भाई-बहन कर रहे होते
खेतों में काम
तो बार-बार हर छोटे-मोटे काम के लिए
गाँव के घर न जाने की सुविधा
थी यह टापरी
काम करते तो सुस्ताते इसी में
थकान को धोते इसी की छाया से
मौसम की मार में हमेशा तैयार
गर्मी में देती ठंडक
बारिश में छिपा लेती हमें
ठण्ड में रजाई सी होती गरम
हर मर्ज़ की दवा
सौ तालों की एक चाबी
गाँव के घर की उपशाखा
जिसमें कुछ ख़ास चीज़ों को छोड़कर
था सब कुछ
जैसे एक लकड़ी का संदूक
जिसमें फुटबॉल, पाइप पर लगाने के क्लिप,
स्टार्टर की पुरानी रीलें, बिरंजी, नट-बोल्ट,
कुछ पाने, पिंचिस, पेंचकस, टेस्टर,
बिजली के तार, फेस बाँधने का वायर,
सुतलियाँ, नरेटी, सूत के दोड़ले
और साइकिल के पुराने ट्यूब इत्यादि
ये सारे ब्यौरे किसी न किसी काम से नस्ती थे
यह एक ऐसा कबाड़खाना था कि
इससे बाहर कोई काम नहीं था
या कि किसी काम के लिए इसके
अलावा किसी विकल्प की ज़रूरत नहीं
कोने में पड़ी रहती खटिया
जिस पर दिन में एक तरफ ओंटा
हुआ चिथड़ा बिस्तर
जो रात में काम आता
रखवाली के समय
ठण्ड के दिनों में
पाणत करते तो इसी में दुबक जाते
खटिया के नीचे था रहस्यमय संसार
खाली बोरे, खाद की थेलियों के बंडल,
कुछ पल्लियाँ
जब अनाज पैदा होता तो
इन्हीं में बरसता
सब्जियाँ मंडी जातीं तो इन्हीं में
इनके सहयोगी होते
कुछ टोकनियाँ, छबलिये
और बड़े डाले, गेंती, फावड़े, कुल्हाड़ी
दराँते, सांग, खुरपियाँ
कितना कुछ था इस टापरी के भीतर
खेती किसानी का पूरा टूल-बॉक्स
यही नहीं इसके पिछवाड़े
बल्लियाँ, बाँस, हल, बक्खर, डवरे,
जूड़ा पड़े रहते
छाँव में पड़ी होती पुरानी साइकिल
हाँ यहीं तो था यह सब कुछ
कैसे स्मृति में रपाटे मारती हैं सारी चीजें
कहाँ गया यह सब
देखो भाई
यह खोड़ली सड़क
जब से यहाँ से निकली है
सब कुछ खा गई यह डाकिन
यह देखो अपने साथ
कैसा विकास का पहिया लेकर आई
कुचल दिया सब कुछ
यह पेट्रोल पंप
वह चौपाल सागर
ये बड़ी-बड़ी मशीनों से भरी फैक्ट्रियाँ
बड़ा भयावह दृश्य है यह
बाज़ार और पूँजी के पंजों को देखो
अदृश्य हैं ये
इनके वार ने खोद दी है
ऐसी कई टापरियों की जड़ें
एक सागर में तब्दील होता जा रहा है
सारा मंज़र
जिसमें डूबता जा रहा है सब कुछ।
5/ मेरा हाथ छोड़ देना
इस भीड़ भरी दुनिया में तुम अकेली न पड़ जाओ मेरी बच्ची
आओ मेरा हाथ पकड़ो
मेरे साथ चलो
थोड़ा चलना सीख जाओ
कुछ लड़ना भी
फिर इस भीड़ में ऐसे चलना
जैसे अकेली नहीं हो तुम
तुम अपने सारे हुनर को साथ लेकर चलना
पर इतनी चौकन्नी रहना कि जैसे चल रही हो किसी तनी हुई रस्सी पर
कोई नहीं होता किसी का
भ्रम का जाल है यह दुनिया
छद्म है यहाँ सारे सम्बन्ध
इतिहास से भी पीछे की धर्मग्रंथों की अंधी गलियों में तय हुआ था तुम्हारा भविष्य
नकारने की ताक़त पैदा करनी होगी तुम्हें
मेरे भरोसे मत रहना मेरी बच्ची
में भी रोड़ा बनूँगा तुम्हारी राह का
तुम्हारी काट के लिए मुझे भी उसी अंधी गली से कुछ मन्त्र दिए थे
तुम अपने आप को समझो
मैं जब गलत होऊँ तो टोक देना
और मेरा हाथ भी छोड़ देना।
6/ दादी चुन रही है गेहूँ से कंकड़
दादी चुन रही है गेहूँ से कंकड़
तारों भरे आकाश से चुन रही हो जैसे अँधेरा
अपने समय की गुनगुनी धूप से ठंडी छाँव
कलदार सिक्कों से चलन के बाहर हो गए सिक्के
उजले दिनों के भीतर से पसरा हुआ अँधेरा
अच्छे दिन गेंहूँ की तरह साफ और चमकदार थे
उन्होंने पार किया दादा के साथ
एक पूरी तेज़ बहती नदी को
इसी के चलते निखार आया पिता के जीवन में
दादी ने पैदा की जो ऊष्मा अपने जीवन में
पिता चलने लगे जीवन की राह में बेलौस
उसी ताक़त से दौड़ लगाई हमने
मेरे बच्चे जा रहे हैं चाँद पर
पिता जानते हैं उनका संघर्ष
मैं जानकर ही उन्हें याद कर रहा हूँ
इस ग्लोबल समय में मेरे बच्चों को लगे यह दकियानूसी
वे किनारे सरका देंगे इतिहास के स्वर्णकणों को धूल समझकर
उनकी मुख्यधारा शुरू होगी उन्हीं के समय से
मुझे ही अवेरनी होगी हल की फाल
पिराने का अलीता
पेट के एक कोने में कचूमर और ज्वार की सूखी रोटी के लिए जगह
हमारे समय की स्मृतियाँ कहीं दर्ज नहीं होंगी
हमारी संततियों के स्मृतिपटल पर अँधेरे का रंग चढ़ जायेगा
और मैं देखूँगा दादी का चमकता दर्द।
7/ पॉवर हाउस
हमारे प्रेम करने की कई जगहें थी
जहाँ मिलना होता हमारा
उन जगहों के भीतर भी
कई-कई छुपने की जगहें थीं
जिनके पीछे चोरी-छुपे होता अक्सर प्रेम
इस तरह हम उन जगहों से भी करने लगते प्रेम
दरअसल वे हमारे लिए ऐसा लोक थीं
जहाँ हमारे सपने अण्डों की शक्ल में रखे होते
हम उन्हें सेते रहते
उनके भीतर हमारे पंख पल रहे होते
जिनके सहारे हमें पार करना था
ढाई आखर का सफ़र
दरअसल ये वे जगहें थीं
जो संसार के लिए फालतू थी
वे ऐसी जगहों से नफ़रत करते
उनके हिसाब से ये ऐसी पाठशालाएँ थीं
जो हम जैसे आवारा लोग बनाती थीं
वे ऐसी जगहों को मैदान
या किसी धर्मस्थल में बदल देना चाहते थे
पर दीवाने मानते कहाँ हैं यारो
वे बार-बार इन जगहों पर ही जाते
और ये जगहें बदनाम होने के बावजूद धड़कती रहती
और बनी रहती हम लोगों की शरणस्थली
ऐसी ही थी यह जगह भी
पॉवर हाउस
जहाँ का सन्नाटा मुझे खींचता रहता
अक्सर हम वहाँ जाया करते
और ट्रांसफार्मर के पीछे होता
हमारा मिलना
जब कभी वह नहीं आती
तो भी घंटो वहाँ बैठा रहता मैं
मोबाईल पर सुनता रहता गाने
या उससे बतियाता रहता
पॉवर हाउस याने इस जमीं पर ऐसी जगहें
जैसे पृथ्वी का कोई उपग्रह
जैसे लोकधुन के बीच आवाज़
नृत्य के बीच की लचक
कविता के बीच कहा गया अनकहा अर्थ
पेंटिंग के बीच नाचता हुआ कोई स्ट्रोक
दूर किसी के पुकारने की आवाज़ के भीतर का दर्द
इस तरह ये जगहें होती रहती
प्रेम से आबाद
जब होता मैं उसके प्रेम में
तब चला जाता खुद से बहुत दूर
और बिलकुल उसके पास
वहीं से लगाता आवाज़
तुम पॉवर हाउस आ जाना अपनी आवाज़ लेकर
अपने कान भी लेती आना
मैं उनमें शहद की कुछ बूँदें डालूँगा
जिन्हें तुम गुनगुनाती रहना मेरी यादों के साथ
सबसे ताज़ी और खनकती हुई हॅंसी भी ले आना
मैं उसकी माला बनाऊँगा
और तुम मिलोगी तो अपने ही हाथों से
तुम्हारे जुड़े में सजाऊँगा
अपने पांवों की थप-थप भी ले आना
मैं उन आवाज़ों के सहारे
पार करूँगा तुम्हारे और मेरे बीच की दूरी
इस तरह इन जगहों को
रखा हमने आबाद
ये जगहें हमारे भीतर धड़कती रहेंगी
और हमारी धड़कनों की आवाज़ बुलाती रहेंगी उन्हें
जो हमारी तरह होना चाहते हैं।
8/ आत्महत्या
क्या किसी को पता होता है
कि कोई कब और कहाँ चला जायेगा
और फिर इस दुनिया से चले जाना
और किसी का चले आना
नहीं जान पाते हम
इसी बीच यदि कोई कह दे कि बहुत हो गया
अब मैं निकल ही जाऊँगा इस दुनिया से
इस सबके बीच कितना मथा होगा उसने
इस दुनिया की रवाई में अपने आपको
उसे लगता रहा होगा कि कितनी बद हो गयी है यह
या यह कि अब मैं इसके लायक नहीं रहा
कई बार वह गया होगा कुएँ की जगत पर
या किसी सुनसान जगह रेल की पटरी पर
नदी के किसी सुनसान घाट पर
किसी रोज़ खरीद कर भी लाया होगा
किसी बीज भंडार से सल्फास की गोलियाँ
कभी रात अकेले अपने कमरे के एकांत में
पंखे की ताक़त को आँका होगा
किसी रोज एक स्टूल भी धीरे से रख लिया होगा
अपने कमरे में
कई बार रोते हुए ढाढ़स भी बँधाया होगा अपने आप को
कई-कई बार मुफ़ीद तरीक़े पर सोचा होगा
कुछ तरीक़े इज़ाद करने की कोशिश भी की होगी
जिनके बारे में इमाइल दुर्खिम भी नहीं सोच पाया होगा
कई बार लोटा होगा राह से
पत्नी, बच्चों, और बूढ़े माँ-बाप के बारे में
सोचकर काँप गया होगा भीतर से
मित्रों की दुःख के दिनों में दी गई पीठ पर थपकियाँ
कुछ की आवाज़ें तो गूँजती ही रही होंगी कानों में लगातार
अपने को अकेला मत समझना
प्रेमिका ने तो उसे एक कदम आगे ही बढ़ाया होगा
तुम नहीं हो सकी हमारी
चलो तब नहीं तो अब ही सही
कई-कई गानों ने उसे धकेला होगा
और कई लौटा लाये होंगे घर
हर दिन लगा होगा उसे आख़िरी
सुसाइड नोट के कई ड्राफ्ट बनाये होंगे फिर फाड़े भी होंगे
किसी को उलझाने का ख़याल भी मन में आया होगा
आत्महत्या के कारण को ख़त्म करने के चक्कर में
किसी की हत्या के बारे में भी सोचा होगा
और डर गया होगा अंजाम के बारे में सोचकर
दरअसल किसी प्रतिष्ठा के लिए देनी थी उसे अपने आप कि बलि
इतना सोचने वाले के पास
जीवन और मृत्यु के बीच बहुत था अवकाश
बहुत सोच समझ के साथ मरने वाला
वह आदमी बिलकुल हमारे भीतर रहता है
और सोचता रहता है
लौट भी आता है घर
जब तक कि उसके पास अवकाश है।
9/ ट्रू कॉलर
ट्रू कॉलर से पता लगाता हूँ
कि आ रहा है किसका फ़ोन
जिनके नाम है लिस्ट में
वे चाहे जो हों मेरे अनुसार ही उनकी पहचान है
यदि उनके नम्बर मिटा दूँ
तो हो सकता है मिले अजीबोग़रीब पहचान
ये ट्रू कॉलर कभी तो बहुत डरा देता है
और कभी भर देता है
स्नेह और अपनत्व से
जैसे कभी फ़ोन पर लिखा आता है
मौसाजी देवास
फूफाजी इंदौर
मामाजी छोटे
काकाजी रतलाम
ऐसे अनेक रिश्तों से संबोधित
फ़ोन उठाने से पहले ऐसा महसूस होता है
मेरे अपने किसी का ही आया हो फ़ोन
कई बार तो फ़ोन उठाते ही होती है इच्छा
कि कहूँ हाँ फूफाजी बोलो
पर उधर से मेरे दोस्त कांतिलाल की आवाज़ आती है
या मौसाजी की जगह
घनश्याम बोलता है
बहुत अच्छा लगता है दोस्त कैसे-कैसे रिश्तों में बँध गए
रिश्तों का यह संजाल फैलता रहता है ताउम्र हमारे आस-पास
कई बार यह भी होता कि फूफाजी की जगह
उधर से कोई चालू आदमी बोलता
मौसाजी की जगह चोर
मामाजी की जगह कंस
और काकाजी की जगह कोई लुच्चा या बदमाश
रूह काँप जाती है
ये दुराचारी भी किसी के संबंधी हो सकते हैं
कई बार लिखा आता अशोक सेठ
और वह वास्तव में बनिया निकल आता
चीजों के मोल-भाव की जानकारी देता
चापलूसी की भाषा में
कभी बैंक का नाम आता साथ में टीना जुड़ा होता
या रीयल स्टेट की कोई राजकुमारी का नाम आता
वे बिना रुके स्किम बताने लगतीं
व्यस्त होने की बात पर वे कहतीं
सर आपको फिर कब फोन लगाऊँ
कभी नाम आता गरीबदास
और तंत्र-मंत्र ताबीज़ लेकर उपस्थित होता
आशीर्वाद की मुद्रा में कष्ट हरने की कोशिश करता
कभी तो हद हो जाती
भयावह वातावरण पैदा हो जाता
इतना डर जाता हूँ कि
जीने की आस टूटती नज़र आती है
कुछ समझ में नहीं आता
कि कौन दुश्मन है कौन दोस्त और कौन संबंधी
राम जी लिखा आता है
उधर से आवाज़ आती है
बहुत प्रगतिशील कविताएँ लिख रहे हो आजकल
गालियों से भरी धमकी देता है
मुझे मार देने के लिए तत्पर होती है उसकी आवाज़।
10/ वह गुजराती लड़की
बहुत पुरानी बात है
यूँ भी कह सकते हैं कि बचपन की बात
और बचपन कितना याद रहता है
बिलकुल धुँधले पुराने काग़ज की तरह
जिसके कई शब्द चमकीले भी होते हैं
और कुछ काग़ज के पिछले भाग पर उभरे हुए रंगहीन
बस इसी तरह दिखती है मुझे वह लड़की
जिसका नाम शहनाज़ था
साबरमती के रेलवे क्वॉर्टर में
हमारे बगल में रहती थी
इंजिन ड्राइवर की तीन बेटों के बाद
इकलौती थी वह
अक्सर मेरे साथ उसकी बातें होती थी
उन बातों के कुछ टुकड़े
दीमक खाये काग़ज पर लिखी इबारत से सुनाई देते हैं मुझे
दरअसल एक बीज था हमारे पास
जिसे वह बोती और में सींचता
हम किसान की तरह थे उस समय
हमें जाति समाज धरम से कोई लेना-देना नहीं था
वह बेधड़क घुस आती मेरे भीतर और मैं उसके
उसके ख़ुदा में मेरा जिक्र था
मेरे मंदिर में उसके नाम की घंटी बजती
एक दिन विदा होना ही पड़ा उससे
उसने हाथ हिलाया
मैं जवाब में बुदबुदाया
वहाँ आवाज़ नहीं सिर्फ़ समझ थी
यूँ ही चलती रही ज़िन्दगी
उसे आज भी याद करता हूँ
सोचता हूँ गोधरा में बच गयी होगी
गुजरात के दंगों में भी रही होगी
सही सलामत
अभी-अभी हो रही मार-काट
में भी नहीं मारी गयी होगी
संदेह घेरता है कि कब तक बची रहेगी वह
ऐसे समय में
अगर वह जिंदा होगी तो
मेरे बारे में भी ऐसा ही सोचती होगी
मेरे होठों की बुदबुदाहट
की तेज़ आवाज़ उसे डरा देती होगी
और वह अपने कानों पर हथेलियाँ रख लेती होगी
मुझे उसके हिलते हाथों का अर्थ अब समझ में आया।
11/ हार
आधा चाँद एक नाव है
जो रात की नदी में तैरता रहता है
रात की नदी गहरी काली है
चाँद उसमें दूध का ठेला लगाता है
ठेला एक घुमावदार सड़क पर लुढ़कता है
एक बच्चा उसके पीछे भागता है
ठेले पर एक बुढ़िया
सूत कातने से ऊबकर
दूध फेंट रही है
बच्चा पिता से चाँद के ठेले से दूध माँगता है
पिता हार जाता है
चाँद से
ठेले से
बुढ़िया से
फेंटे जा रहे दूध से
जहाँ घुमावदार सड़क खत्म होती है
चाँद पानी पर फिर से नाव की तरह तैरता है
पिता
पानी से
नाव से भी हार जाता है
पिता पीछे रह गए अपने बच्चे को
स्कूल में ढूँढ़ता है
उसे अपना बच्चा वहाँ बेजान मिलता है
पिता अपना सब कुछ हार जाता है।
12/ उसने एक चित्र बनाया
आज वह थोड़ी सहज थी
उसने कागज़ पर एक फूल बनाया
दो चपाती थोड़े चावल और एक सेवफल भी खाया
उसे जब कागज़ और कुछ रंग दिए
तो सबसे पहले वह उन लोगों के
धड़ों पर भेड़िये के सिर बनाना चाहती थी
वह भयभीत हो गयी
और उनके इरादों के आगे अपना इरादा त्याग दिया
वह अपने आप को भूली
अपने नाम से बेखबर रही
अपरिचित रही खुद से
उन लोगों से परिचय भी किया
जो उसके लिए चिंतित थे
भरोसे की एक रेखा बची रही अंततः
कल तक वह शून्य में ताक रही थी
उसके पहले तक देह पर लिजलिजी घृणा
और खून के विभत्स दाग़
खुद एक दर्दनाक चित्र की तरह
मटमैले कैनवास पर बिखरी पड़ी थी
उससे भी पहले चहक से भरी चिड़िया
आँखों में आसमान
सपनों में तितलियों से रंग
एक टॉफी जितना मोह लिए
अपनी ही मस्ती में
शून्य के बाहर अनंत में निकल गयी थी
इसके बाद तो आप जानते ही हैं
एक पैरेग्राफ़ उन दरिन्दों के लिए
यहाँ चार लाइन अपनी-अपनी तरह से पढ़ो
फिर अपनी तरह से सज़ा भी मुकर्रर करो
सालों बाद
उसने फिर एक चित्र और बनाया
जिसमें उसका अपना संसार था
वह इस दुनिया से अलग
एक दुनिया बनाने में अभी तक लगी हुई है।
13/ मैं इन दिनों बहुत डरा हुआ हूँ
बहुत डरा हुआ हूँ मैं इन दिनों
यह डर कविता लिखने से पहले का है
इसे लिखते-लिखते हो सकता है मेरा क़त्ल
और कविता रह जाये अधूरी
या ऐसा भी हो कि इसे लिखूँ
और मारा जाऊँ
यह भी हो सकता है कि कविता को सुसाइड नोट में तब्दील कर दिया जाये
आज तक जितने भी राष्ट्रों के गौरव गान लिखे गए
वे उन्हीं राष्ट्रों के सुसाइड नोट हैं
मेरा यह डर इसलिए भी है कि
वे इस वाकये को देशभक्ति या बलिदान की शक्ल में करेंगे पेश
उनकी ऊँगलियाँ कटी होंगी सिर्फ
औए वे लाशों का ढेर लगा देंगे
गायी जाएँगी विरुदावलियाँ
इस ख़ौफ़नाक समय से आते है निकलकर
डरावनी लिपियों से गुदे हाथ
जो दबाते हैं गला
मेरे डर का रंग है गाढ़ा
जिसको खुरचते हैं उनके आदिम नाख़ून
मैं रोने को होता हूँ
यह रोना ही मेरी कविता है।
14/ मेरा इंतज़ार मत करना
सुनो यह संगीत
यह गीत भी सुनो
जैसे मैं सुनता हूँ तुम्हारी हँसी में खनक
मैं खुले आसमान के नीचे
दिन में सूरज
रात में चाँद और तारे
और पृथ्वी का घूमना देखता रहा
तुमने कहा था
मैं यह सब नहीं देखना चाहती
सिर्फ तुम्हें देखना
इन सबको देखना है मेरे लिए
उस दिन मैं समुद्र की रेत पर
चलता रहा अकेला देर तक
समुद्र उकसाता रहा मुझे
और धूप का ताप उसे
वहाँ से उठती हवा मुझे सांत्वना देती रही
रेत चमक रही थी
उसका कण-कण खिल उठा था
उस रेत आईने में तुम्हारा चेहरा देखना चाहता था
तुमने कहा था
समुद्र मुझे बहुत पसंद है
मैं लगातार समुद्र में अपने को ढूँढ़ता रहा
कितना अजीब होता है
किसी ओर में किसी को ढूँढ़ना
एक गीत की कुछ पंक्तियाँ मैं
देर तक मैं तुम्हारे लिए गुनगुनाता रहा
और तुम बुरा मान गयी
वह गीत मेरे भीतर का झरना था
जो तुम तक आता था
बहुत देर तक तुम कहती रही
तुममें जो देखना चाहती थी
वह यह सब नहीं है
बहुत दूर जा रहा हूँ तुमसे
जो देखना चाहती हो
वहाँ तक पहुँचने
अब मैं एक तलाश की ज़िन्दगी में
दाख़िल हो रहा हूँ
पर तुम मेरा इंतज़ार मत करना
क्योंकि वहाँ से कोई लौटता नहीं है।
15/ इस देह में
प्रेम दुःख देता है जीवन भर
एक स्त्री का पीछा करता है
वह वहाँ से लौटना चाहती है
एक दूसरे ही जीवन में
दूसरा जीवन उसका मन का नहीं
रमना चाहती है उसमें ही
वहाँ फूल नहीं होते
और होते भी हैं तो वह खुशबू नहीं
इस जीवन में एक निग़ाह होती है
कुछ सहायक नज़रें भी होती हैं
जो पीछा करती रहती है उसका
अपने सपने में वह एक खुशबू के पीछे
बेतहाशा भागती है
सुबह के मुरझाए चेहरे से भाँप ली जाती है
बिस्तर की सलवटें
उसका हाल जानती हैं
जिन्हें वह रोज मिटा देती है
सपने के भीतर का दृश्य उसका पीछा करता है
आईने में अपने चेहरे को वह पहचान नहीं पाती
एक हाथ हमेशा उसके साथ साये की तरह
चलता रहता है
वह उसे प्रेम करता रहता है
पुचकारता हुआ
उसकी पवित्रता पर संदेह करता रहता है
उसी पर बरसता है तो वह काँप जाती है
दूसरे जीवन में विश्वास पाने के लिए
उसका सच कहना
कि कोई आया था एक बार उसके जीवन में
पर बस यूँ ही गुजर गया था बहुत पास से
रोज़ उससे यही पूछा जाता है
पास और दूर में अंतर समझाओ
कितने राहगीर थे जो यहाँ आते तक
सफर करते रहे उसकी देह में
घूरती नज़रों के सामने
मेमने सी लाचार काँपती है वह
हाथ जोड़ती है
मुँह से लार के साथ ख़ून की बूँदें टपकती हैं
वह लगातार-लगातार कहती है
इस जीवन और सपने में भी
तुम्हारे सिवा इस देह में कोई नहीं रहता है।
16/ सभ्यता
सोचो कि हम पेड़ की बात करें
और चिड़िया की न करें
जैसे चिड़िया की बात करें
और पंखों की न करें
या कि हम पंखों की बात करें
और हौसले की न करें
या ऐसा हो कि हम समुद्र की बात करें
और मछलियों की नहीं
अब मानलो कि कहीं ऐसा हो सकता है
कि मछलियों की बात करें
और तैरने की न करें
तैरने की बात करें तो यह तय है
कि हम डूबने के खिलाफ
जीवन की बात कर रहे हैं
पूरी एक दुनिया को याद करें
और संभव है कि मनुष्य को याद न करें
यदि मनुष्य को याद करें
तो इस पृथ्वी के इतिहास
और उसकी
पहली सभ्यता की बात न करें।
बहादुर पटेल
जन्म : 17 दिसम्बर, 1968 को लोहार पीपल्या गाँव (देवास, म.प्र.) में।
शिक्षा : एम.ए. हिंदी।
प्रकाशन : हिंदी की अधिकांश प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
उर्दू, मलयालम, नेपाली, पंजाबी और अँग्रेज़ी में कविताओं का अनुवाद।
कविता संग्रह ‘बूँदों के बीच प्यास’, ‘सारा नमक वहीं से आता है’ और ‘मेरा हाथ छोड़ देना’ प्रकाशित।
पुरस्कार : सूत्र सम्मान 2015, राजस्थान पत्रिका कविता सर्जनात्मक पुरस्कार 2015,
पंकज सिंह कविता स्मृति पुरस्कार 2017
सम्बद्ध : ओटला, देवास
सम्प्रति: शासकीय नौकरी
सम्पर्क: 12-13, मार्तंड बाग़,
तारानी कॉलोनी, देवास
(म.प्र.) 455001
ई-मेल: bahadur.patel@gmail.com
मोबाइल : 9827340666
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। फक्त शंकर केदारी का चैप्टर पढ़ पाया, लगा शंकर केदारी को देख रहा हूं, समझ रहा हूं, पहचान रहा हूं, और उसकी हलचल देख रहा हूं । लगा मुझे, प्रत्यक्ष दिखा दिया उसे ।बहुत ही अप्रतिम वर्णन।
अग्रज कवि बहादुर भाई की कविताओं से रूबरू होना बहुत सुखद अनुभव रहा. वे सोशल मीडिया के तमाम मंचों की मोह माया से मुक्त, निस्पृहा सर्जक हैं. यहाँ प्रस्तुत अधिकांश कविताएं मुझे नई लग रही हैं, जिनमें ताज़गी है, नवीनता है. मानवीय संबंधों का भरापूरा संसार है. कई चरित्रों के साथ संवेदना भरे रिश्ते हैं. देहात की ऊष्मा है. इन सभी कविताओं में वर्तमान समय भी महत्वपूर्ण चरित्र के रूप में उपस्थित है. मेरा हाथ छोड़ देना बहादुर जी की बहुप्रशंसित कविता है. कवि को निरंतर सृजनरत रहने की शुभ कामनाएं. रचना समय को आभार.
कवि के रूप में बहादुर पटेल अपने समय को चीन्हते हुए चलते हैं।
अतीत को बांचते हैं, वर्तमान को टटोलते हैं, भविष्य की पड़ताल करते हैं।
समय के साथ परिवेश, लोकाचार,रहन-सहन सब में परिवर्तन आता रहता है। कवि इन सबको महसूस कर कविताओं में इस बदलाव को दर्ज करता है इससे होने वाले प्रभावों पर भी बात करता है। भाषा सधी हुई और सहज हो तो प्रतीक एवं बिम्बों के संयोजन से और भी असरदार बन जाते हैं इसकी स्पष्ट झलक कविताओं में दिखाई देती है।
सुगठित समाज के निर्माण में आवश्यक तत्वों को जीवन से जोड़कर देखने की परम्परा का निर्वहन इनकी कविताओं में दिखता है जैसे कि ‘ शंकर केदारी’, ‘शर्म से कहां जा मरुं’,’मेरा हाथ छोड़ देना’ जैसी कविताएं
पुरुष समाज को कटघरे में खड़ा कर आत्म विश्लेषण के लिए मजबूर करती हैं।
साम्प्रदायिकता ने कितना बांटा,तोड़ा,गंवाया ‘ वह गुजराती लड़की’ भीतर तक महसूस होती है।
‘ दादी चुन रही है गेहूं से कंकड़’, ‘पाॅवर हाउस’, ‘ आत्महत्या’, में संवेदना की उष्मा, विचारों को स्पंदित कर ,मथती हैं।
विविध विषय और व्यापक दृष्टिकोण ने सभी कविताओं को सार्थकता प्रदान की है।
ख़ुदेजा