अरुण आदित्य समकालीन कविता का विश्वसनीय जनवादी स्वर है। उनकी कविताओं में हमारे निष्करुण और हिंसक समय के स्याह चित्र हैं। वे हाशिए के जीवन के करुण प्रसंगों को मूर्त करते आए हैं। इधर  वे अपनी कविताओं को संक्षिप्त काया में संभव कर रहे हैं। यहां उनकी दोनों तरह की कविताएं हैं यानी अपेक्षाकृत लंबी।इन कविताओं में वे प्रकृति और पर्यावरण के प्रासंगिक सवालों के साथ धर्म, बाज़ार ,मीडिया और उत्सवधर्मी संस्कृति के चरित्र को उजागर करते हैं और यह कवि का हस्तक्षेप है। अरुण ने अपनी भाषा को नये ढंग से बरतने की एक सलाहियत पैदा की है। कहना होगा अरुण एक पालिटिकल कवि हैं। – लीलाधर मण्डलोई
उपरोक्त टिप्पणी के आलोक में सुधी पाठक अरुण आदित्य की कविताएं पढ़ेंगे और अपने विचारों से हमें अवगत कराएंगे। – हरि भटनागर

 

कविताएं :

1/ डायरी में बारिश

एक

सोलहवीं बारिश के बाद
आदमी किसी बारिश में नहीं
बारिश की स्मृति में नहाता है।

दो

हर आदमी अपनी बारिश में
अकेले नहाता है

बारिश में नहाते हुए
कोई अकेला कहां रह पाता है
कितने ही किस्से भीगते हैं
अकेले आदमी के साथ।

तीन

तुम्हारी आंखों में घुमड़ रहे
बादल के भीतर जो भाप है
मुझे पता है, उसमें कितना ताप है?

चार

धरती के तपते चेहरे पर
ठंडे छींटे मार रहा जो बादल
वह समुद्र के खौलने से बना है

तप कर ही बूझ सकते हो तपिश
तप कर ही बुझा भी सकते हो तपिश।

पांच

सपनों के बादल न सपनों की बूंदें
सपनों के झूले, न सपनों के मीत
पर सपने की माया
कि स्वप्न-भर नहाया ।

छह

बारिश जो लाती थी खुशियों के खत
कभी-कभी क्यों लेकर आती है आफत
जानते हैं सब
पर मानते हैं कब?

सात

रात भर मेघ झरा है
धरा का स्वप्न हरा है
हरे-भरे में भूल गया मैं
मेरा सपना कहां धरा है?

2/ विनय-पत्र

सूर्य !
तुम उन्हें भी देते हो उतना ही प्रकाश
जबकि वे तो तुम्हें देवता नहीं मानते

इंद्र !
तुम उनके हिस्से में भी देते हो
हमारे ही बराबर बारिश
जबकि सिर्फ हम ही
मानते हैं तुम्हें देवराज

शिव !
तुम्हारा तीसरा नेत्र भी
फ़र्क नहीं करता हममें और उनमें
जबकि भंग, धतूर और बेलपत्र
तो हमीं चढ़ाते हैं तुम्हें

और राम जी !
तुम भी बिना सोचे समझे ही
कर देते हो सबका बेड़ा पार
कुछ तो सोचो सरकार
आख़िर तुम्हारे लिए ही तो
लड़ रहे हैं हम

आदरणीय देवताओ !
वे नहीं हैं तुम्हारी अनुकम्पा के हकदार
यही विनती है बारंबार
कि छोड़ दो ये धर्मनिरपेक्षता
छोड़ दो, छोड़ दो, छोड़ दो

छोड़ दो, वरना..!

3/ डर के पीछे जो कैडर है

यह केसरिया करो थोड़ा और गहरा
और यह हरा बिल्कुल हल्का
यह लाल रंग हटाओ यहाँ से
इसकी जगह कर दो काला
हमें तस्वीर के बड़े हिस्से में चाहिए काला

यह देवता जैसा क्या बना दिया जनाब
इसके बजाय बनाओ कोई सुंदर भूदृश्य
कोई पहाड़, कोई नदी

अब नदी को स्त्री जैसी क्यों बना रहे हो तुम
अरे, यह तो गंगा मैया हैं
इन्हें ठीक से कपड़े क्यों नहीं पहनाये
कर्पूर धवल करो इनकी साड़ी का रंग

कहाँ से आ रही है ये आवाज
इधर-उधर देखता है चित्रकार
कहीं कोई तो नहीं है
कहीं मेरा मन ही तो नहीं दे रहा ये निर्देश

पर मन के पीछे जो डर है
और डर के पीछे जो कैडर है
जो सीधे-सीधे नहीं दे रहा है मुझे धमकी या हिदायत
उसके खिलाफ कैसे करूं शिक़ायत?

4/ यही दो सच

कई बार सांप को रस्सी समझा है
और रस्सी को सांप
आधी रात में जब भी अचकचा कर टूटी है नींद
अक्सर हुआ है सुबह होने का भ्रम

कई सुहानी सुबहों को रात समझकर
सोते और खोते रहे हैं हम

जो नहीं मिला, उसे पाने की टोह में
बार-बार भटके समझौतों के नार-खोह में

गलत-सही मोड़ों पर कितनी ही बार मुड़े
कितनी ही बार उड़े माया के व्योम में

पर हर ऊंचाई और नीचाई से
मुझे दिखती रही है भूखे आदमी की भूख
और अपने भीतर बैठे झूठे का झूठ

भूख और झूठ दो ऐसे सच हैं
जो बार-बार खींच लाते हैं मुझे अपनी जमीन पर ।

5/ ऐसी एक कविता

जिसे गेंद की तरह उछाल-उछाल
खेल सके एक बच्चा
जिसे बच्चे की किलकारी समझ
हुलस उठे एक मां

जो प्रतीक्षालय की किसी पुरानी काठ-बेंच की तरह
इतनी खुरदरी हो, इतनी धूलभरी
कि उसे गमछे से पोछ नि:संकोच
दो घड़ी पीठ टिका सके कोई लस्त बूढ़ा पथिक

जो रणक्षेत्र में घायल सैनिक को याद आए
मां के दुलार या प्रेयसी के प्यार की तरह
जो योद्धा की तलवार की तरह हो धारदार

जो धार पर रखी हुई गर्दन की तरह हो
खून से सनी, फिर भी तनी
पता नहीं कब लिख सकूंगा ऐसी एक कविता
आज तक तो नहीं बनी।

6/ नदी में झांकता है पहाड़

पहाड़ झांकता है नदी में
और उसे सिर के बल खड़ा कर देती है नदी
लहरों की लय पर
हिलाती-डुलाती, नचाती-कंपकंपाती है उसे

पानी में कांपते अपने अक्स को देखकर भी
कितना शांत निश्चल है पहाड़

हम आंकते हैं पहाड़ की दृढ़ता
और पहाड़ झांकता है अपने मन में –
‘अरे मुझ अचल में इतनी हलचल’
सोचता है और मन ही मन बुदबुदाता है-
किसी नदी के मन में
झांकने की हिम्मत न करे कोई पहाड़।

7/ कुछ दिन न दिखो तो

कुछ दिन न दिखो तो
लोग भूल जाते हैं
कारवां आगे बढ़ जाता है
आप पीछे छूटी हुई धूल हो जाते हैं

आपके एकांत को
मान लिया जाता है आपका अंत

फिर एक दिन अचानक आप दिख जाते हैं
लोगों की आंखों में विस्मय लिख जाते हैं-

‘अरसे से दिखा नहीं
किसी ने कुछ लिखा नहीं
फिर भी ये जिंदा है
कैसा ये बंदा है।’

8/ मेरी मुश्किल समझो

तुम्हारे लिये मैं छांव हो जाना चाहता हूँ ,
पर धूप तो यूं ही नहीं फटकती तुम्हारे आस-पास
तुम्हारे लिये मैं रोशनी हो जाना चाहता हूँ
पर सूरज तो खुद डूबता उगता है तुम्हारे हुक्म पर
तुम्हारे लिये मैं तारे तोड़ कर लाना चाहता हूँ
पर आसमान तो कसमसा रहा है तुम्हारी ही मुट्ठी में

तुम्हारे लिये मैं गीत गाना चाहता हूं
पर सातों सुर तो डेरा जमाए हुए हैं तुम्हारे ही कंठ में
तुम्हारे लिये मैं एक मनोरम चित्र बनाना चाहता हूँ
पर रंग तो सब तुम्हारी आँखों मे जा बसे हैं

मेरी मुश्किल समझो और तुम्हीं बताओ
कि मैं क्या कर सकता हूँ तुम्हारे लिए।

9/ सपने में पाश से बातचीत

कविता की किसी कालजयी पंक्ति का
रातभर करते-करते इंतजार
लिखने की टेबल पर ही आ गई नींद

नींद की सत्ता में अपने लिए
थोड़ी-सी जगह बनाता हुआ
दबे पांव दाखिल हुआ सपना
सपने में आने के लिए
अपने को तराश ही रही थी कालजयी पंक्ति
कि उससे पहले नमूदार हो गए अवतार सिंह पाश

पुरखों की आकाशगंगा से आए सितारे की प्रशस्ति में
किसी मंत्र की तरह करने लगा
उनकी मशहूर कविता का पाठ-
हम लड़ेंगे साथी
उदास मौसम के लिए ।

‘कब लड़ोगे साथी ?’
पाश ने फेंका प्रश्न-पाश
और सपने में अटक गई
कवि की सांस

तीस जनवरी को पिंक सिटी फेस्ट
में स्पेशल गेस्ट हूं
वहां से लौटते ही बनाऊंगा प्रोग्राम

मतलब फरवरी में बजा दोगे बिगुल ?
फरवरी में तो कुछ ज्यादा ही मुश्किल है
14 को वैलेंटाइन लिटरेचर फेस्टिवल में
‘प्रेम और क्रांति’ पर देना है व्याख्यान
25 को काशी साहित्य समारोह में होना है मेरा सम्मान

मार्च में तो लड़ोगे महराज ?
अरे, मार्च में तो प्रजा फाउंडेशन का इनविटेशन है
तीन दिन के लिए जाना है प्रयागराज

अप्रैल में ?
इसी माह होता है उत्कल साहित्य संगमन
इस बार उड़ीसा जाने का बहुत है मन

मई ?
मराठवाड़ा महोत्सव !
सृजन के सरोकार और संकट।
छह महीने पहले ही आ चुका है हवाई टिकट

जून?
जामताड़ा-जमावड़ा
हाशिए के समाज पर विमर्श

जुलाई में क्या है भाई ?
साबुन साहित्य महाकुंभ
इसकी पंचलाइन बहुत लुभाती है मुझे
शरीर को साफ़ करता है साबुन
आत्मा को निर्मल करती है कविता

अगस्त में कहां रहोगे व्यस्त ?
आजादी का अमृत महोत्सव
कविता की एक शाम, शहीदों के नाम
मिलेगा अच्छा दाम

सितंबर ?
रूपगंधा लिटफेस्ट : साहित्य यहां से कहां तक
अक्तूबर ?
रंगारंग जगत रंग : सारे जहां तक

नवंबर?
अवध साहित्य महोत्सव में काव्य पाठ
दिसंबर?
मगध महाविमर्श : साहित्य में जात की गांठ

फिर लड़ने की शुभ घड़ी कब आएगी साथी?

आप तो पीछे ही पड़ गए भाई
हमें नहीं भाती आप वाली लड़ाई
वो तो आपको खुश करने के लिए
गुनगुना दी थीं आप की दो काव्य पंक्तियां

लडने के लिए हमारे पास
दिनकर की एक प्रसिद्ध पंक्ति है
और अपनी एक ‘लाइन’ है
दोनों को मिलाकर मामला फाइन है,
याचना नहीं अब रण होगा
जिस माह न आमंत्रण होगा।



अरुण आदित्य

जन्म – 02 मार्च 1965 ( प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश )

प्रकाशित कृतियां

रोज ही होता था यह सब ( कविता संग्रह )
धरा का स्वप्न हरा है ( कविता संग्रह )
उत्तर वनवास ( उपन्यास )

पुरस्कार-सम्मान

दुष्यन्त पुरस्कार ( मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी)
अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान
बेकल उत्साही सम्मान
आयाम सम्मान

हंस, पहल, वसुधा, पल-प्रतिपल, वागर्थ, साक्षात्कार, कथादेश, बया आदि पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।

असद जैदी द्वारा संपादित ‘दस बरस’ और कर्मेंदु शिशिर द्वारा संपादित ‘समय की आवाज़’ में कविताएं संकलित।
कुछ कविताएं पंजाबी मराठी और अंग्रेज़ी में अनूदित।

संपर्क
202, ज्ञानखंड-1, फ्लैट-एफ2,
इंदिरापुरम, गाजियाबाद ( उप्र )।
पिन-201014
मोबाइल- 9873413078
ईमेल- adityarun@gmail.com

 


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